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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ देवजी देढिया का नाम प्रथम पंक्तिमें लिखा जा सकता है । यह दंपती अनेक बार हमसे मिले हैं। उनकी अत्यंत अनुमोदनीय आराधना की बात मेरे शिष्य मुनि श्री अभ्युदयसागरजी के शब्दोंमें यहाँ प्रस्तुत है -संपादक)
वि.सं. २०४० के कार्तिक महिने (दि. २९-१२-८५) की यह बात है । मैं उस वक्त गृहस्थ जीवन में था और धर्मपत्नी के साथ ९९ यात्रा करने के लिए पालिताना गया था । हम वीसा नीमा धर्मशाला में ठहरे थे । उसी समय कच्छ-लायजा के येकरसीभाई (उ.व. ६२) भी अपनी धर्मपत्नी के साथ पालिताना आये थे और वे केशवजी नायक धर्मशाला में ठहरे हुए थे । हम कभी कभी गिरिराज के उपर या कभी तलहटी में साथ हो जाते थे । टोकरसीभाई को ९९ यात्रा करने की भावना थी, मगर उनकी धर्मपत्नी बचुबाई का अर्स का औपरेशन हुआ था इसलिए वह तो अशक्ति के कारण विश्रांति लेने के लिए अपने पतिदेव के साथ पालिताना आयी थीं। .
पहले दिन वे दोनों गिरिराज की तलहटी तक साथमें ही आये थे, बाद में टोकरसीभाई ने ९९ यात्रा का प्रारंभ किया तब बचुबाई को विचार आया कि, 'कम से कम एक यात्रा तो मैं भी श्रावक के साथ करूं...' और आदिनाथ दादा को प्रार्थना करके उन्होंने यात्रा का प्रारंभ किया । दादा के दरबार में पहुँचने के लिए उनको पूरे पाँच घंटे लगे । प्रभुभक्ति से सब श्रम दूर हो गया । दूसरे दिन भी तलहटी तक दोनों साथ में आये, बाद में टोकरशीभाई को यात्रा के लिए ऊपर चढते हुए देखकर आदर्श धर्मपत्नी बचुबाई को भी कुछ सीढियाँ तक पतिदेव के साथ जाने की भावना हो गयी और दादा की प्रार्थना पूर्वक आगे बढ़ते हुए संपूर्ण यात्रा करने की हिम्मत आ गयी । इस दूसरी यात्रा में उपर पहुँचनेके लिए ४ घंटे लगे । फिर तो गिरिराज और आदिनाथ दादा के प्रति अनन्य श्रद्धाभक्ति के प्रभाव से उत्तरोत्तर हिम्मत बढ़ती गयी और दोनों ने ९९ यात्रा एक साथ ही परिपूर्ण की । जहाँ एक यात्रा की भी संभावना नहीं थी वहाँ ९९ यात्राएँ हो गयीं, जिससे बचुबाई की श्रद्धा एवं आत्मविश्वासमें अत्यंत अभिवृद्धि हुई । फिर तो पतिदेव जो भी तपश्चर्यादि आराधनाएँ करते
पहल
उत्तरोत्तर हि
एक यात्रा की श्रद्धा एक आराधना