Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व-पुराण भाषा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः लालगढ-राजस्थान वासी सेठ श्रीखूबचंद-प्यारीदेवी वाकलीवाल स्मारक जैन ग्रन्थमाला कविवेधा पुराणकथनपटु श्रीमान् रविषेणाचार्यविरचित संस्कृत ग्रंथ पद्मपुराणकी भाषा वचनिका श्रीपद्म-पुराणभाषा भापाकार स्वर्गीय पं० दौलतरामजो जयपुरवासी जियको शोलापुर निवासी गांधी हरीभाई देवकरण एंड संस द्वारा संरक्षित श्रीशांतिसागरजैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, श्रीमहावीरजी (राजस्थान ) के महामंत्रीहविरत ब्रह्मचारी श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ ने संस्था के पवित्र प्रेस में मुद्रक-सेठ हीरालालजी पाटणी निवाई वालों के मंत्रित्व में लपाकर प्रकाशित किया। फागुन वदी ८ वीरनि० म० २४८५ न्योछावर ११) ग्यारह Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान - प्रशस्ति स्वर्गीय सेठ खूबचंदजी खंडेलवाल जातीय बाकवाल गोत्रोत्पन्न लालगढ (बीकानेर - राजस्थान) निवासी थे। आपने आसाम प्रान्त में प्रवास व्यापार से असीम सम्पत्तिप्राप्त की थी सालिगराम जब चुनीलाल बहादुर नामकी आसाम प्रान्त में प्रसिद्ध फर्म है उसके आप भागीदार थे । आपने विक्रम स०१६६३ तक व्यापार में योग दियाथा इसके बाद पुत्रों पर भार दे धार्मिक जीवन अपने राम ( लालगढ) में रहकर विताया श्राप सरलस्वनावी स्पष्टवादी निर्भीक परोपकारी दयालु धार्मिक व्यक्ति थे । प्रतिदिन गृहस्थ के पट कर्म (दान, आ आदि) पालते थे । गुप्त दान देना आपकी विशेषता थी । पुण्योदय से आपके अतुल सम्पत्ति थी ही, परन्तु धनिकों को महा दुर्लभ पुत्र पौत्रादि विभूतियां भी आपके यथेष्ट थीं । आपका जन्म विक्रम संवत् १६३३ में, और वर्गवास १६६६ में हुआ था। आपके पास अन्तिम समय पुत्र पुत्रियां, पुत्रबधुए, पोते पोतो, दोहिते इतियां सब मिलकर ६५ संतान थीं । शेठ साहव जंगलको अनेक जडी बूटियोंको पहजानते थे उनके द्वारा बड़े बड़े रोगोंको वात की रात में परोपकार बुद्धि से दूर कर दिया करते थे । मयोपेथिक औषधों के भी ज्ञाता थे इस लिये मिसे और बडनगर दि० जैन औषधालयकी श्रष बियोंसे निःस्वार्थ सेवा रोगियोंकी किया करते थे स्वयं अपने हाथ कबूतरोंको दाना चुगाते थे । और परोपकार के अनेक काम किया करते थे इसलिये यंजन आपसे प्रेम करते थे । आप सद्गुरुओं के बहुत ज्यादा भक्त थे । ० मुनिराज चन्द्रसागरजी के दर्शनार्थ सकुटुम्ब कितनी ही वार गये थे । भारत भरके तीर्थ - जैन बद्री सम्मेदशिखरजी गिरनारजी आदि की यात्रा सपनी धर्मपत्नी, पुत्र पुत्रबधुयों, पुत्रियों आदि के कई बार की थी । आपको जीवन भर कोई भी कौटम्बिक विपत्ति न आई | आप सदा निराकुल सुखी धर्म में संलग्न आपने व्रत उपवास उद्यापन अदि धार्मिक क्रियाऐं उत्साह पूर्वक कर आगे के लिये सुख प्राप्तिका मार्ग खुला कर लिया था । आपकी (सेठ खूब चन्दजीकी) धर्मपत्नी सजातीय प्रसिद्ध उच्चकुल में उत्पन्न हुई थीं । आपका नाम सार्थक प्यारी बाई था । आप स्व० सेठ कनीरामजी पांडया जसरासर निवासी सुजानगढ (राजस्थान) प्रवासीकी पुत्री और सेठ दीपचन्दजी पांड्या की बाहेन थी। आपका सौभाग्य अतुलनीय था । आपके पुण्योदयसे सम्पत्तिकं साथ साथ कौटुम्बिक सुख सन्तान भी दिन पर दिन वृद्धिंगत होती रही । आप पुत्रवधू, पौत्रबधू पुत्रियों, प्रपुत्रियों आदि पर प्रेमका एकसा बर्ताव करती थी। गांवका हर जाति का हर स्त्रीपुरुष आपके उदर करणापूर्ण व्यवसे (लोकप्रियता में चार चांद लगा दिये थे । प्रसन्न था। आपके गुप्तदान करनेके स्वभाव ने त्यागी मुनि आर्यिका यादि व्रती धार्मिक पुरुषों की वैयावृत्ति तन मन धन से भक्ति पूर्वक करती थी कितनी बार मुनिराज श्री १०८ चन्द्रसागरजी महाराजके दर्शन पुत्र पुत्रवधू आदि परिवार के साथ आपने किये थे । श्रीपूज्य आर्यिका माताजी वीरमानजी, शान्तिमतिजी, पार्श्वमतिजी, कुन्थु मातेजी, इन्दुमतिजी की वैयावृत्ति बहुत भक्तिसे सदा करती थीं । इनही सव कारणोंसे आपकी सल्लेखना बहुत अच्छी तरह सम्पन्न हुई । आप के पुत्र पुत्रवधू. पुत्रीयां आदि सवने ही मृत्यु समय धर्माराधन में सहायतादी और सतत अभ्यासके कारण स्वयंभी धर्मारावन में सावधान रहीं । पूजन पाठ शास्त्र श्रवण बारह भावनाओं का चिन्तवन, और चार आराधनाओंका श्राराधन करती रहीं । दान देना तो अन्तिम समय तक बन्द नही किया । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान-प्रशस्ति ल्यू दो दिन पहले सातवी प्रतिमाके व्रत श्रीशान्तिसागर जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी । लय और मृत्यु से कई घंटे पहले सल्लेखना शास्त्रा- का एक नियम है,कि कोई दाता सम्यग्ज्ञानप्रच नुसार ग्रहण की धार्मिक परिणामो से मोहको दूरकर कोई द्रव्य दे तो उसस दिगम्बर जैन शार श्री पंचपरमेष्ठिके गुणों का ध्यान करते हुए आपने प्रकाशन करदिया जायगा । ग्रन्थ लागत मूल्य इम शरीरको छोडा । सर्वसाधारणको दिये जायगे । जिज्ञासु अर आपका जन्म विक्रमसंवत् १९३५ में हुआ और अजैनोंको विनामल्य अर्धमूल्य पौन मूल्य में सल्लेखनाव्रत (मृत्यु) विक्रमसंवत् २०१५ के द्वितीय जांयेगे । मूल रकम उठआने पर उनके ही ना श्रावणवदी १२ वारसको समाप्त हुआ। दूसरा तीसग ग्रन्थ प्रकाशित होगा इसतरह सेठानो प्यारी देवी लालगढ और उसके पास वारके दानसे जिनवाणीका प्रचार और दार पडोसके गांवोमें “लक्ष्मी” नामसे प्रासद्ध थीं। यश चिरकालतक होता रहता है। आपके शवके साथ गांवके अजैन लोगोने ठाठ वाठ सेठ भंवरीलाल जी वाकलीवाल ला से हरिकीर्तन करते हुए गमन किया और अग्नि- निवासी आसामप्रवासीन भी उक्त नियमान संस्कार में भक्तिपूर्वक योग दिया। इनके परोपकारी। दोहजार रु० नगद और एक हजार प्रति श्रीप सरल स्वभावकी उदारता आदि गुणों की वरावर व्रत पूजाविधान की प्रदान की हैं। आपके इस चर्चा कर लोग न अघाते थे। से आपके पितामाता की स्मृति में सेठ खूब आपके मृत्यु समय आपकी कौटुम्बिक जन प्यारी देवी बाकलीवाल स्मारक जैन ग्रन्थम विभूति नीचे लिखे प्रकार थी - प्रकाशित कीगई है जिससे हमेशा कोर्तिस्थायी है पुत्र ३,पुत्रबधू ४, पुत्री ४, जमाई ३, पौत्र . १७, पौत्रवधू ११ पौत्री ११, दौहित्र (लडकाक एतदर्थ आपको धन्यवाद है। लडके) २३ दौहित्रो २७, प्रपौत्र (पोतोंके पुत्र) ८, यह सस्था ईसवी सन १६१३ में स्व० ५० प प्रपौत्री ५, प्रदौहित्रां। (दोहित्रीकी पुत्रियां,) २२ कुल लालजी वाकलोवालने धर्मरत्न पं० लालाराम शास्त्री चावली (आगरा) के सहयोगसे वनार १४८ स्त्रीपरुष थे । अपर जीवन में लघु पत्र स्थापित की थी। सन् १:१५ में इसका स्थानपा आसुलालजी का और लघु जामाता कवरीलालजी तेन कलकत्ताम हुआ और मंत्रााका काय कर का वियोग हुआ और उसको वडे धैर्थक साथ हुआ । आपने सहन यिा । संस्थान श्रीसमयप्राभृत, तत्त्वार्थराजवारि - इतना बडी म्र इतनी बडी संपत्ति और इतना श्रीगोम्मटसारजी दो संस्कृत टीका लिहा टोका स बडा परिवार बडे भारतमे मिलता है। आदि बडे२ ग्रन्थ आजतक प्रकाशित किये है : ऐसे धार्मिक व्यक्तिवोंके पुत्र भी धार्मिक होते भविष्य में भी प्रकाशित करता है इस हैं, रत्नोंकी खानिमें रत्न हा पैदा होते हैं । इसलिये सचारु प्रांधकालय संरक्षक समिति गाठत कर श्रापके पुत्रां--सेठ भंवरीलालजी, नेमिचन्दजी इन्द्र गई है । चन्द जी दादानमलजी आदि ने आपके नाग से चैत्र श्रीवीरसंवत् २४८५ एक जै। ग्रन्थमाला प्रकशित कराई है जिसका ब्रह्मचारी श्रीलाल जैन काव्यनीर्थ पहला पुष्प ‘श्रीपुरन्दरबतपूजाविधान" प्रकाशित महामंत्री हुआ है और अब यह "श्रीपदापराणजी भाषा" श्रीशान्तिसागर जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी स वृहद् ग्रंथ दूसरा पुप्प प्रकाशित किया गया है। श्रीमहावीरजी (राजस्थान) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व०सेठ खूबचंदजी वाकलीवाल स्व० सेठानी प्यारीदेवी वाकलीवाल लालगढ (राजस्थान) धर्मपत्नी—सेठ खूबचंदजी वाकलीवाल आपके सुपुत्र सेठ भवरीलालजी वाकलीवाल ने संस्था के नियमानुसार आपके नाम से श्री खूबचंदजी प्यारीदेवी वाकलीवाल जैन स्मारक ग्रन्थ माला प्रकाशित कराई है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपद्मपुराण भाषाकी विषयसूची पृष्ठ सं० पर्व सं० १ पर्व सं० विषय १ मंगलाचरणादि पीठबंधविधान २ श्रेणिक राजाका रामचन्द्र और रावणके चरित्र सुनने के लिए प्रश्न करनेका विचार ३ विद्याधर लोकका कथन ४ श्री ऋषभनाथ भगवानके माहात्म्य का कथन ५ राक्षसवंशी विद्याधरोंका कथन ६ वानरवंशी विद्याधरोंका कथन ७ रावणका जन्म और विद्यासाधनेका कथन ८ दशग्रीव रावणका कथन 2 बालीमुनिका केवलज्ञान और मुक्तिका कथन १० सहस्ररश्मि और अरण्य राजाका वैराग्य ११ मरुतके यज्ञका विष्ांस और रावण के 8 १८ २६ ३३ ४७ ६४ ७८ ६६ १०४ दिग्विजयका कथन ११० १३८ १५६ १६३ १७१ १८५ १२ इन्द्रनामा विद्याधर राजाके पराभवका कथन १२३ १३ इन्द्र विद्याधर राजाके निर्वाण गमनका कथन १३४ १४ अनन्तवीर्य केवली के धर्मोपदेशका वर्णन १५ जना सुन्दरी और पवनंजय का विवाह १६ पवनंजय अञ्जनाके मिलापका वर्णन १७ श्रीशैल हनुमानकी जन्म कथाका वर्णन १८ पत्रनंजय अञ्जनाके पुनर्मिल पका वर्णन १६ रावणको चक्रप्राप्ति और राज्याभिषेक २० चौदह कुलकर, चोबीस तीर्थकर बारह चक्रवर्ती, नव नारायण नव प्रतिनारायण, नव बलभद्र और इनके माता पिता पूर्वभवकी नगरीनिके नाम आदिका कथन २१ व बहु कीर्तिधरका माहात्म्य वर्णन २२ राजा सुकौशलका माहात्म्य और उनके १८ bi में राजा दशरथकी उत्पत्तिका वर्णन २२ राजा दशरथ और जनकको विभीषण कृत भयका वर्णन २५६ २२२ २४ राणी कैकेई को राजा दशरथका वरदान २५ रामचन्द्रादि चार भाइयांके जन्मका वर्णन २२४ २२७ २३४ १६५ २०५ २६ सीता जौर भामण्डलका युगल जन्म २७ म्लेच्छनिकी हार और रामकी जीत २८ राम लक्ष्मणका धनुष चढावना और रामका सीतासे, भरतका लोकसुन्दरीसे विवाह २६ अष्टाहिका पर्वका आगमन और राजा दशरथक। धर्मोपदेश सुनना २१२ २३८ २४ m विषय ३० भामण्डलका रामचन्द्र लक्ष्मणसे मिलाप ३१ दशरथ राजाके वैराग्यका वर्णन ३२ दशरथ राजाका तप ग्रहण, रामका विदेशगमन, भरतका राज्याभिषेक ३३ राम लक्ष्मण द्वारा वज्रकरणका उपकार २४ म्लेच्छोंके राजा रौद्रभूतिका वर्णन ३५ देवोंके द्वारा नगर वसाना और कपिल ब्राह्मणका वैराग्य वर्णन ३६ वनमालाका लाभ वर्णन ३७ अनन्तवीर्यका वैराग्य वर्णन ३८ जितपद्माका उपाख्यान वर्णन ३६ देशभूषण केवलीका वर्णन ४० रामगिरिका वर्णन पृष्ठ सं० २५३ २६० ४१ जटायु पक्षीका वर्णन ४२ दण्डक वनमें निवास वर्णन ४३ शम्बूकका वध वर्णन ४४ सीताका हरण वर्णन २६६ २७६ २८६ २६० ५६६ ३०० २०५ ३१० ३१८ ३१६ ३२५ ३३० ३३४ ४५ रामका पाताललका में निवास वन ३३६ ४६ लंका के मायामई कोटका वर्णन ३४३ ३५० ४७ सुग्रीवका व्याख्यान वर्णन ४८ कोटिशिला उठानेका वर्णन ४६ हनुमानका लंकाकी तरफ गमन ३५४ ३६२ ५० महेंद्र और अञ्जनीका श्रीरामके निकटआना ३६६ ५१ रामको राजा गन्धर्नकी कन्याओंका लाभ ३६८ ५२ हनुमानको लंकासुन्दरीका लाभ वर्णन ५३ हनुमानका लंकासे लौटकर आनेका वर्णन ५४ राम लक्ष्मण का लंका गमन ३७० ३७३ ३८४ ५५ विभीषण का रामसे मिलाप अर भामण्डल का आगमन वर्णन ५६ दोनों कटकनिकी सेनाका परिमाण ५७ रावणका सेनाका लंकासे आवनेका वर्णन ५८ हस्त प्रहस्तका मरण वर्णन ५६ हस्त प्रहस्त नल नीलके पूर्व भवका वर्णन ६० रामलक्ष्मणको अनेक विद्याओंका लाभ ६१ सुग्रीव भामंडलका नागफांससे छूटना अर हनुमान का कुम्भकरणकी भुजा फांसते छूटना रामलक्ष्मणको सिंह विमान गरुड विमानकी प्राप्तिको वर्णन ३८४ ३८७ २८६ ३६२ ३६३ ३६४ ३६६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व सं० विषय ६२ लक्ष्मणको रावणके हाथकी शक्ति लगना व अचेत होनेका वर्णन ४०० ६३ लक्ष्मणके शक्ति लगना और रामका विलाप ४०५ ६४ विशल्या का पूर्णभव वर्णन १०६ ६५ विशल्याका समागम ४०६ ४१६ ४१६ ६६ रावणके दूतका आना और लौटकर जाना ६७ श्री शांतिनाथके चैत्या यका कथन ६८ श्री शांतिनाथके चैत्यालय में अष्टाह्निका उत्सव ४१७ ६६ लंकाके लोगोंका अनेकानेक नियम धारण ४१८ ७० रावणका विद्या साधना और कपिंकुमार निका कागमन बहुरि पूर्णभद्र मणिभद्रका कोप, क्रोध शांति ५१ श्री शांतिनाथके मंदिर में रावणको बहुरूपिणी विद्याके सिद्ध होने का वर्णन ७२ विणका युद्धका निश्चय करने का वर्णन ७३ रावणका युद्धविषै उद्यमी होनेका वर्णन ७४ रावण लक्ष्मणका युद्ध वर्णन ७५ लक्ष्मणके चक्ररत्न की प्राप्तिका वर्णन ७६ गयणका बध वर्णन ७७ विभीषणका शोक निवारण वर्णन ७८ इन्द्रजीत कुंभकरणादिका वैराग्य और मंदोदरी आदि राणियोंका वैराग्य वर्णन ७६ राम और सोताका मिलाप ८० श्री मयमुनिका माहात्म्य ८१ अयोध्या नगरीका कथन पृष्ठ सं० पर्व सं० ८२ राम लक्ष्मणका आगमन ८३ त्रिलोकमंडन हाथीका जातिस्मरण होयकर उपशांत होनेका कथन ८४ त्रिलाकमंडन हाथीका वैराग्य ८५ भरतके और हाथी के पूर्व भव ८६ भरत अर केकईका ठौरोग्य ८ भरतनिर्वाणगमन ८८ रामलक्ष्मणका राज्याभिषेक ८. मधुका युद्ध अर वैराग्य, मधुराजाके पुत्र लवणका मरण ६० मथुराके लोकनिकू असुरेन्द्र कृत उपसर्ग ६९ शत्रुघ्न के पूर्वभवका कथन ६२ मथुराके उपसर्गका निवारण ४१६ ४४५ ४५० ४५.३ ४६१ ४६४ विषय ६३ रामको श्रीदामाका लाभ और लक्ष्मणकू मनोरमाका लाभ ४६७ १७१ 7 ४७६ ४८० ४८१ ४८२ ४८७ ४८५ ४६० ६४ राम लक्ष्मणकी ऋद्धिका कथन ६५ जिनेन्द्र पूजाकी सीताको अभिलाषा और गर्भका प्रादुर्भाव ४२२ ४२४ ४२८ ४२४ ४३८ १०६ राम लक्ष्मण विभाषण सुग्रीव सीता भामंडलके भव ४४३ १०७ कृतातवक्त्रका वैगग्य ४४६ १०८ लवणांकुशके पूर्वभव १०६ राजा मधुका वैराग्य ५१० लक्ष्मणके आठकुमारोंका वैराग्य s ६६ रामको लोकापवादकी चिंताका कथन ४६८ ६७ सोताका वनमें बिलाप श्रर वज्रसंघका आना ५०० ६८ सीताकू व जंघका धैर्य बंधावनेका कथन : ५०७ ६६ रामकू सीताको शोक १०० लवणांकुशके पराक्रमका वर्णन १०. लवणांकुशका दिग्विजय ५१६ पृष्ठ सं० ११५ भ. मंडलका मरण १९२ हनुमानका वैराग्य चितवन १९३ हनुमानका निर्वाण गमन १०२ लवणांकुशका लक्ष्मणसे युद्ध १०३ राम लक्ष्मणसे लवणांकुशका मिलाप १०४ सकलभू णकेवलीके दर्शनार्थं देवों का आना ५३२ १०५ सीताका अग्निकुण्डमें प्रवेश और रामका केवलीके मुखसे धर्मश्रवण ३६ ४६४ ४६५ श्रागमन ११६ श्रीरामका वैराग्य १५० राममुनिका नगर में आहारके अर्थि आगमन वहुरि अंतरायका कथन १२१ राममूनिको निरंतराय आहार प्राप्ति १२२ राममुनिको केवल ज्ञानकी उत्त १२३ रामको मोक्ष प्राप्तिका वर्णन व समाप्त ५१६ ५१६ ५२२ ५४६ ५८ ५६१ ५६२ |५६६ ५७ १४ इन्द्रका देवनिकू उपदेश ५७६ १५५ लक्ष्मणका मरण अर लवणांकुशका वैराग्य ५८ ११६ रामचन्द्र का विलाप ५८४ ११७ लक्ष्मणका वियोग रामका विलाप अर विभीषणका संसार स्वरूप वर्णन ११८ लक्ष्मणकी दुग्ध क्रिया और मित्र देवनिका ५७२ ५७३ २८ ५. ५... ५६ ५६ ५६ ५६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री खवचन्द्र-प्यारी देवी वाकलीवाल स्मारक पर PE जैन ग्रन्थमाला पुष्प नं०२ श्री वीतरागाय नमः। अथ पइमपुराण भाषा वचनिका EEEEEEEEEE स्वर्गीय विद्वद्वर्य पण्डित दौलतरामजी कृत । मंगलाचरण दोहा । चिदानन्द चैतन्यके गुण अनन्त उरधार । भाषा पद्मपुराणकी, भाषू श्रुति अनुसार ॥१॥ पंच परमपद प्रणमि, प्रणमि जिनेश्वरबानि । नमि जिन प्रतिमा जिन भवन, जिन मारग उरानि ऋषभ अजित संभव प्रणमि, नमि अभिनन्दन देव । सुमति जु पद्म सुपाश्व नमि, करि चन्द्रप्रभुसेव पुष्पदंत शीतल प्रणमि, श्रीश्रेयांसको ध्याय । वासुपूज्य विमलेश नमि, नमि अनंतके पाय॥४ धर्म शान्ति जिन कुन्थु नमि, और मल्लि यश गाय । मुनिसुव्रत नमि नेमि नमि, नमि पारसके पाय बर्द्धमान वरवीर नमि, सुगुरुवर मुनि बंद । सकल जिनंद मुनिंद नमि, जैनधर्म अभिनन्द ॥६ निर्वाणादि अतीत जिन, नमो नाथ चौवीस । महापद्म परमुख प्रभू, चौबीसों जगदीश ॥७॥ होंगे तिनको बंदिकर, द्वादशांग उरलाय । सीमन्धर आदिक नमू, दश दूने जिनराय ॥८॥ विहरमान भगवान ये, क्षेत्र विदेह मझारि । पूजें जिनको सुरपती, नागपती निरधार ॥३॥ द्वीप अढाईके विष, भय जिनेन्द्र अनंत । होंगे केवल ज्ञानमय, नाथ अनंतानंत ॥१०॥.. सबको बंदन कर सदा, गणधर मुनिवर ध्याय । केवली श्रुतिकेवला, नमूं प्राचाय उवझाय॥११ बंदू शुद्ध स्वभावको धर सिद्धनको ध्यान । संतनको परणाम कर, नमि हग व्रत निज ज्ञान॥ १२ शिवपुरदायक सुगुरु नमि, सिद्धलोक यश गाय । केवल दर्शन ज्ञानको पूजू मन वच काय ॥१३ यथाख्यात चारित्र अरु, क्षपक श्रेणि गुण ध्याय । धर्म शुक्ल निज ध्यानकी, बंदू भाव लगाय उपशम वेदक क्षायका, सम्यग्दर्शन सार । कर बंदन समभावको, पूजू पंचाचार ॥१५॥ मूलोत्तर गुण मुनिनके, पंच महाग्रत आदि । पंच सुमात ओर गुप्तित्रय, ये शिवमूल अनादि ॥१६ अनित्य आदिक भावना, सेऊ चित्त लगाय। अध्यातम आगम नमू, शालिभाव उरलाय ॥ . अनुप्रेक्षा द्वादश महा, चितवें श्रीजिनराय। तिन स्नुति करि भावसों, पीडश कारण ध्याय ।। १८ दश लक्षणमय धर्मकी, धर सरधा मन माहेि । जीवदया सत शील तप, जिनकर पाप नसाहि तीर्थकर भगवानके पूजू पंच कल्याण । और केवलिनको नमू केवल अरु निर्वाण ॥ २०॥ श्रीजिनतीरथ क्षेत्र नमि, प्रणमि उभय विधि धर्म । थुतिकर चहु विधि संवकी, तनकर मिथ्या भर्म चंद् गौतम स्वामिके, चरणकमल सुखदाय । वंदू धर्म मुनीन्द्रको, जम्बू कवलि ध्याय ॥२२॥ भद्रबाहुको कर प्रणति, भद्रभाव उरजाय । बंदि सनाधि सुत्रको, ज्ञानाने गुणगाय ।। २३ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण महा धवल अरु जयधवल, तथा धवल जिनग्रन्थ । बंदू' तन मन वचन कर, जे शिवपुर के पंथ || पट पाहुड नाटक त्रय, तत्त्वारथ सूत्रादि । तिनको बंदू भाव कर, हरें दोष रागादि ॥ २५ ॥ गोमटसार अगाधि श्रुत, लब्धिसार जगसार । क्षपणसार भवतार हैं, योगसार रस धार || २६ | ज्ञानान है ज्ञानमय, नम्रं ध्यानका मूल । पद्मनंद पच्चीसिका, करे कर्म उन्मूल ॥ २७ ॥ त्याचार विचार नमि, नमूं श्रावकाचार | द्रव्य संग्रह नयचक्र फुनि, नमू शांति रस धार ॥ आदिपुराणादिक सबै, जैन पुराण बखान | बंदु मन वच काय कर दायक पद निर्वाण || २ | तच्चसार आराधना, -सार महारस धार । परमातम परकाशको, पूजूं बारम्बार ॥ ३० ॥ बंदू' विशाखाचारिजे, अनुभवके गुण गाय । कुन्दकुन्द पद धोक दे, कहूं कथा सुखदाय ।। ३१ । कुमुदचंद कलंक नमि, नेमिचंद्र गुण ध्याय । पात्र केशरीको प्रयमि, समंतभद्र यशगाय ॥ अमृतचन्द्र यति चंद्रको, उमास्वामिको बंद । पूज्यपाद को कर प्रणति, पूजादिक अभिनंद ॥ ३३ सूर्यव्रत बंदिके, दानादिक उरलाय । श्रीयोगीन्द्र मुनीन्द्रको, बंदू मन वच काय ॥ ३४ ॥ बंद मुनि शुभचंद्रको, देवसेनको पूज । करि बंदन जिनसेनको, जिनके सम नहि दूज ।। ३५ । पद्मपुरा निधानको, हाथ जोड़ि सिरनाय । ताकी भाषा वचनिका, भाषू सब सुखदायः ॥ ३१ पद्म नाम बलभद्रका, रामचंद्र बलभद्र । भये आठवें धार नर, धारक श्रीजिनमुद्र ।। ३७ । पीछे मुनिसुव्रत्तके, प्रगटे अति गुण धाम । सुरनरबंदित धर्ममय, दशरथके सुत राम ॥ ३८ शिवग्रामी नामी महा, - ज्ञानी करुणावंत । न्यायवंत बलवंत प्रति, कर्म हरण जयवंत ॥ ३६ ॥ जिनके लक्ष्मण वीर हरि, महाबली गुणवंत । भ्रतभक्त अनुरक्त अति जैनधर्म यशवंत ॥ ४० चंद्र सूर्यसे वीर ये, हरें सदा पर पीर । कथा तिनोंकी शुभ महा, भाषी गौतम धीर ॥ ४१ ॥ सुनी सबै श्रेणिक नृपति, घर सरधा मन मांहि । सो भाषी रविषेणजे, यामें संशय नाहं ॥ ४२ ॥ मद्दा संवी सीता शुभा, रामचंद्र की नारि । भरत शत्रुघन अनुज हैं, यही बात उरथारि ॥ ४३ ॥ तद्भव शिवगामी भरत, अरु लवअंकुश पूत । मुक्त भये मुनिवरत धरि, नमैं तिने पुरहूत ॥ ३४ रामचंद्रको करि प्रगति, नमि रविषेण ऋषीश । रामकथा भाषं यथा, नमि जिन श्रुति सुनिश H संस्कृत ग्रन्थका मंगलाचरण. 1 सिद्धं सम्पूर्ण भव्यार्थं सिद्धेः कारणमुत्तमम् । प्रशस्तदर्शनज्ञान चारित्रप्रतिपादनम् ॥ १ ॥ सुरेन्द्रकुटाश्लिष्टपादपत्रांशुकेसरम् । प्रणमामि महावीरं लोकत्रितय मंगलम् ॥ २ ॥ अर्थ - सिद्ध कहिये कृतकृत्य हैं और सम्पूर्ण भए हैं सर्व सुन्दर अर्थ जिनके अथवा जी भव्य जीवोंके सर्व अर्थ पूर्ण करते हैं, आप उत्तम अर्थात् मुक्त हैं औरोंको मुक्तिके कारण हैं । प्रशंसा योग्य दर्शन ज्ञान और चारित्र के प्रकाशनहारे हैं और सुरेन्द्रके मुकुटकर पूजा जो किरसरूप केसर ताको घरें चरणकमल जिनके, ऐसे भगवान महावीर, जो तीन लोकोंके प्राणियों को मंगलरूप हैं तिनको नमस्कार करू हूं । भावार्थ -- सिद्ध कहिए मुक्ति अर्थात् सर्व बाधारहित उपमारहित, अनुपम अविनाशी जो ताकी प्राप्तिके कारण श्रीमहावीर स्वामी जो काम, क्रोध, मान, सद, माया, मत्सर, सोम Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kannermommmmmmmmmmam प्रथम पर्व र, पाखण्ड, दुर्जनता, क्षुधा, व्याधि, वेदना, जरा, भय, राग, शोक, हर्ष, जन्म मरणाद हत है। शिव अर्थात् अविनश्वर हैं । द्रव्यार्थिकनयसे जिनका आदि भी नाहीं और अंत भी अछेद्य अभेद्य क्श रहित, शोकरहित, सर्वव्यापी, सर्वविद्य के ईश्वर हैं। यह उपमा औरोंको मी बने है । जो मीमांसक, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, बौद्धादिक मत हैं । तिनके कर्जा जो पनि जैमिनि, कपिल, अक्षपाद, कणाद बुद्ध हैं बे मुक्तिके कारण नाहीं। जटा मृगछाला वन शसस्त्री रुद्राक्ष कपाल मालाके धारक हैं और जीवोंके दहन घातन छेदनविष प्रवृत्ते हैं। विरुद्ध प्रय कथन करनेवाले हैं। मीमांसक तो धर्मका अहिंसा लक्षण बताय हिंसावि प्रवृत्त है और रब जो है सो शात्माको अकर्ता और निर्गुण भोक्ता माने है और प्रकृति हीको कर्ता माने है। पौर नैयायिक वैशेषिक आत्माको ज्ञानरहित जड माने हैं और जगतकर्ता ईश्वर माने हैं। और पर मंगुर माने हैं। शून्यवादी शून्य माने हैं। और वेदांतवादी एक ही आत्मा त्रैलोक्यमापी नर नारक देव तिर्यच मोक्ष सुख दुःखादि अवस्था विष माने हैं इसलिये ये सर्व ही मुक्तिके प्ररथ नहीं: मोक्षका कारण एक जिन शासन ही है जो सर्व जीवमात्रका मित्र है। और बग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रका, प्रकट करनेवाला है ऐसे जिन शासनको श्रीवीतराग देव प्रगटकर दिसाय है । वह सिद्ध अर्थात् जीवन्मुक्त हैं और सर्व अर्थकर पूर्ण हैं मुक्ति के कारण हैं सर्वोत्तम और सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्रके प्रकाश करनेवाले हैं इंद्रोंके मुकटोंकर स्पर्श गये हैं चरखाविंद जिनके ऐसे श्रीमहावीर वर्द्धमान सन्मतिनाथ अंतिम तीर्थकर तीनलोकके सर्व प्राणियों को महामंगल रूप हैं महा योगीश्वर हैं मोह मल्लके जीतनेवाले हैं अनंत बलके धारक हैं संसार द्रविष डूब रहे जे प्राणी तिनके उद्धारके करनहारे हैं शिव विष्णु दामोदर त्र्यम्बक चतुर्मक दिनमा हरि शंकर रुद्र नारायण हरभास्कर परममूर्ति इत्यादि जिनके अनेक नाम हैं तिनको सकी प्रादिविष महा मंगलके अर्थ सर्व विघ्नके विनाशवे निमित्त मन बचन कायकर नमस्कार हैं। इस अवसर्पिणी कालमें प्रथम ही भगवान श्रीऋषभदेव भए सर्व योगीश्वरोंके नाथ संवे विधाके निधान स्वयम्भू तिनको हमारा नमस्कार होहु । जिनके प्रसाद कर अनेक भब्य जीव सागरसे तिरे । फिर श्रीअजितनाथ स्वामी जीते हैं वाह्य अभ्यंतर शत्रुजिन्होंने हमको मादिक रहित करहु । तीजे संभव नाथ जिनकरि जीवनको सुख होय और चौथे श्रीअभिनंदन कामी पानंदके करनहारे हैं और पांचवें सुमतिके देनहारे सुमतिनाथ मिथ्यात्वके नाशक और बीपथप्रभु उगते सूर्यकी किरणों कर प्रफुल्लित कमलके समान है प्रभा जिनकी । सात पार्श्वनाथ स्वामी सर्वके वेत्ता सर्वज्ञ सवनके निकटवर्ती ही हैं शरद की पूर्णमासीके चंद्रमा मान है प्रभा जिनकी ऐसे आठवें श्रीचंद्रप्रभु ते हमारे भवताप हरो। और प्रफुणित इंदु समान उन्चल हैं दंत जिनके ऐसे नवमे श्रीपुष्पदंत जगत के कंत हैं और दशवें श्रीशीवलहाथ धक ध्यानके दाता परम इष्ट ते हमारे क्रोधादिक अनिष्ट हरो। और जीवों को सकल नियंबके कर्चा धर्मके उपदेशक ग्यारहवें श्रेयांसनाथ स्वामी ते हमको परम भानंद को भीड मोकर पूज्य संतोंके ईश्वर कर्म शत्रु ओंके जीतनेहारे बारहवें श्रीवासज्य स्वामी को Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Animammnamamani पद्मपुराण निज वास देवो और संसार के मूल जो रागादि मल तिनसे अत्यंत दर ऐसे तेरहवें श्रीविमलनाथ देव ते हमारे कलंक हरो और अनंत ज्ञान के धरनहारे सुन्दर है दर्शन जिनका ऐसे चौदहवे श्री अनंतनाथ देवाधिदेव हमको अनंत ज्ञानकी प्राप्ति करो। और धर्मकी धुराके धारक पंद्रहवें श्रीधर्मनाथ स्वाभी हमारे अधर्मको हरकर परम धर्मकी प्राप्ति करो और जीते हैं ज्ञानाचरणादिक शत्रुजिन्होंने ऐसे श्रीशांतिनाथ परम शांत हमको शांतभावकी प्राप्ति करो। और कुथु आदि सर्व जीवोंके हितकारी सतरहवें श्रीकुथुनाथ स्वामी हमको भ्रमरहित करो। समस्त क्लेशसे रहित मोक्षक मूल अनन्त सुखके भण्डार अठारहवें :श्रीअरनाथ स्वामी कर्मरजरहित करो । संसारके तारक मोह मल्लके जीतनहारे वाह्याभ्यन्तर मलरहित ऐसे उन्नीसवें श्रीमल्लिनाथ स्वामी ते अनंत वीर्यकी प्राप्ति करो और भले व्रतोंके उपदेशक समस्त दोषोंके बिदारक वीसवें श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनके तीर्थविषे श्रीरामचन्द्रका शुभचरित्र प्रगट भया ते हमारे अव्रत मेट महावतकी प्राप्ति करो। और मम्रीभूत भये हैं सुर नर असुरोंके इन्द्र जिनको ऐसे इक्कीसवें श्रीनमिनाथ प्रभु ते हमकों निर्वाणकी प्राप्ति करो । और समस्त शुभकर्म तेई भये अरिष्ट तिनके काटिवेकू चक्रकी धारा समान वाईसवें श्रीअरिष्ट नेमि भगवान् हरिवंशके तिलक श्रीनेमिनाथ स्वामी ते हमको यम नियमादि अष्टांग योगकी सिद्धि करो और तेइसवें श्रीपार्श्वनाथ देवाधिदेव इन्द्र नागेन्द्र चन्द्र सूर्यादिक कर पूजित हमारे भव संताप हरो । और चौवीसवें श्रीमहावीर स्वामी जो चतुर्थकालके अंत में भये हैं ते हमारे महा मंगल करो। और भी जो गणधरादिक महामुनि तिनको मन वचन काय कर' यारम्बार नमस्कार कर श्री रामचन्द्रके चरित्रका व्याख्यान करू हूँ । कैसे हैं श्रीराम लक्ष्मीकर आलिंगित है हृदय जिनका और प्रफुल्लित है मुखरूपी कमल जिनका महापुण्याधिकारी हैं 'महावुद्धिमान हैं गुणनके मंदिर उदार है चरित्र जिनका, जिनका चरित्र केवलज्ञानके ही गम्य है ऐसे जो श्रीरामचन्द्र उनका चरित्र श्रीगणवरदेव ही किंचित् मात्र कहनेको समर्थ हैं । यह बड़ा आश्चर्य है कि-जो हम सारिखे अल्पबुद्धि पुरुष भी उनके चरित्रको कहें हैं यद्यपि हम सारिखे इस चरित्रको कहनेको समर्थ नहीं तथापि परंपरासे महामुनि जिस प्रकार कहते आये हैं उनके कहे अनुसार कुछइक संक्षेपता कर कहे हैं जैसे जिस मागविष मदमाते हाथी चालें तिस मार्ग विषे मृग भी गमन करे हैं और जैसे युद्धविष महा सुभट आगे होय कर शस्त्रपात करे हैं तिनके पीछे और भी: पुरुष रणविष जाय हैं अर सूर्य करि प्रकाशित जे पदार्थ तिनकू नेत्रवारे लोक सुखस देखे हैं और जैसे बजमूचीके मुख कर भेदी जो मणि उस विष सूत्र भी प्रवेश करे हैं तैसे ज्ञानीनकी पंकतिकर भाषा हुआ चला आया जो रामसम्बन्धी चरित्र ताके कहनेको भक्त कर प्रेरी. जो हमारी अल्प बुद्धि सो भी उद्यमबती भई है। बड़े पुरुषके चितवन कर उपजा जो पुण्य वाके प्रसाद कर हमारी शक्ति प्रकट भई है । महा पुरुषनके यशकीत नसे बुद्धिकी वृद्धि होय है. और यश अत्यन्त निर्मल होय है और पाप दूर जाय है । यह प्राणीनका शरीर अनेक रोगोंकर. भरा है इसकी स्थिति अल्प काल है और सत्पुरुषनकी कथा कर उपजाया जो यश सो जब तक . चांद सूर्य है तब तक रहे है. इसलिए जो आत्मवेदी पुरुष हैं वे सर्व यत्नकर . महापुरुषनकं यश: Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पर्व कीर्तनसे अपना यश स्थिर कर हैं । जिसने सज्जनोंको आनंदकी देनहारी जो सन्पुरुषनकी रमणीक कथा उसका प्रारम्भ किया उसने दोनों लोकका फल लिया। जो कान सन्पुरुषनकी कथा श्रवण विष प्रवृत्ते हैं वे ही कान उत्ता हैं और जे कुकथाके सुननहारे कान हैं वे कान नाहीं वृथा आकार धरे हैं और जे मस्तक सत्यपुतानकी चेटाके वणन वर्ष घूझे हैं. ते ही मस्तक धन्य हैं और जे शेष मस्तक हैं वे थोथे नारियल समान जानने । सत्पुरुषनके यश कीर्तन विष प्रवृत्त जे होंठ ते हो श्रेष्ठ हैं और जे शेष होंठ है ते जोककी पीठ समान विफल जानने । जे पुरुष सत्पुरुषनकी कथाके प्रसंग विष अनुरागको प्राप्त भये उनहीका जन्म सफल है । और मुख वे ही है जो मुख्य पुरुषनकी कथाविष रत भये । शेष मुख दांतरूपी कीडानका भरा हुआ विल समान हैं और जे सत्पुरुषनकी कथाके वक्ता हैं अथवा श्रोता हैं सो ही पुरुष प्रशंसायोग्य है और शेष पुरुष चित्राम समान जानने । गुण और दोपनके संग्रहविषे जे उतम पुरुष है ते गुणन ही को ग्रहण करे हैं जैसे दुग्ध और पानीके मिलापविष हंस दुग्ध ही को ग्रहण करे है और गुण दोषन के मिलापविणे जे नीच पुरुष है ते दोषहीको ग्रहण करे हैं जैसे गजके मस्तकविष मोती मांस दोऊ हैं तिनविष काग मोतीको तज मांसहीको ग्रहण करे हैं। जो दुष्ट हैं ते निर्दोष रचनाको भी दोष.रूप देखे हैं जैसे उल्लू सूर्यके बिम्बको तमाल वृक्षके पत्र समान स्याम देखे है, जे दुर्जन हैं ते सरोबरमें जल आनेका जाली समान हैं जैसे जाली जलको तज तृण पत्रादि कटकादिक का ग्रहण करे है तैसे दुर्जन गुणको तज दोषनहीको धारे है इसलिये सज्जन और दुर्जनका ऐसा स्वभाव जानकर जो साधु पुरुष है वे अपने कल्याणनिमित्त सत्पुरुपनकी व था के प्रबंधविष ही प्रवृत्त हैं मत्पुरुषनकी कथाके श्राणसे मनुष्योंको परम सुख होय है । जे विवेकी पुरूष है उनको धर्म कथा पुण्यके उपजावनका कारण है सो जैसा कथन श्रीवर्द्धमान जिनेंद्रकी दिव्य ध्वनिमें खिरा विसका अर्थ गौतम गणधर धारते भये । और मौतमसे सुधर्माचार्य धारते भये ता पीछे जम्बूस्वामी प्रकाशते भये जम्बूस्वामीके पीछे पांच श्रुन केवली और भए वे भी उसी भांति कथन करते भये इसी प्रकार महा पुरुषनकी परम्पराकर कथन चला आया उसके अनुसार रविपणाचार्य व्याख्यान करते भये । यह सर्व रामचन्द्रका चरित्र सज्जन पुरुष सावधान होकर सुनो । यह चरित्र सिद्ध पदरूप मंदिरकी प्राप्तिका कारण है और सर्वप्रकार के सुखका देनहारा है और जे मनुष्य श्रीरामचन्द्रकों आदि दे जे महापुरुष तिनको चिंतन करें हैं वे अतिशयकर भावनके समूहकर नम्रीभूत होय प्रमोदकों धरे हैं तिनका अनेक जन्मोंका संचित किया जो पाप सो नाश को प्रास होय है और जे सम्पूर्ण पुराणका श्रवण करें तिनका पाप दूर अवश्य ही होय.यामें संदेह नाहीं, कैसा है पुराण ? चन्द्रमा समान उज्ज्वल है इसलिये जे विवेको चतुर पुरुष हैं ते इस चरित्रका सेवन करें। यह चरित्र बड़े परुषानवर सेवन या य है । इस ग्रन्थ विष ६ महा अधिकार हैं.तिन विष अवांतर अधिकार बहुत हैं । मूल अधिकारनिके नाम कहै हैं । प्रथम हो १ लोकस्थिति, बहुरि २-वंशनिकी उत्पत्ति, पीछे ३ वनविहार अर संग्राम, तथा ४ लवणांकुशकी उत्पत्ति, बहुरि ५ भवनिरूपणा अर.६ रामचन्द्रका निर्वाणः । श्रीवर्धमान देवाधिदेव सर्प. कथानके Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ar mona पद्मपुराण बता है, जिनको अतिवीर कहिये वा महावीर कहिये है । रामचरित्रके कारण श्रीमहावीर स्वामी हैं ताते प्रथम ही तिनका कथन कीजिये है। विपुलाचल पर्वतके शिखर पर समोसरणविौ श्रीवर्द्धमान स्वामी विराजे । तहां श्रेणिकराजा गाँतमस्वामीसों प्रश्न करते भये । कैसे हैं गौतम स्वामी, भगवानके मुख्य गणधर हैं, महा महंत हैं, जिनका इंद्रभूति भी नाम है। . आगे श्रीगौतम स्वामी कहै हैं तहां प्रश्न विष प्रथम ही युगनिका कथन हैं। बहुरि कुलकरनिकी उत्पत्ति, अकस्मात् चन्द्र सूर्यके अवलोकनतें जुगलियानिकू भयका उपजना, सो प्रथम कुलकर प्रतिश्रुतके उपदेशनै भयका दूर होना, बहुरि नाभिराजा अन्तके कुलकर तिनके घर श्रीऋषभदेवका जन्म, सुमेरु पर्वतविष इंद्रादिक देवनिकरि जन्माभिषेक, बहुरि वाललीला अर राज्याभिषेक, कल्प वृक्षनिके वियोग करि उपज्या प्रजानिकू दुःख सो कर्मभूमिकी विधिक बतावने करि दूर होना बहुरि भगवानका वैर ग्य, केवलोत्पत्ति समोसरनकी रचना, जीविनकू थर्मोपदेश बहुरि भगवानका निर्वाणगमन, भरत चक्रवर्ती अर बाहुबलिके परस्पर युद्ध, बहुरि विप्रनिकी उत्पत्ति, इक्ष्वाकु आदि वंशनिका कथन, विद्याधरनिका वर्णन, तिनके वंशविष राना विद्यष्ट्रका जन्म संजयंत स्वामीकू विद्युदंष्ट्रने उपसर्ग किया सो उपसर्ग सहि करि अंतकृत केवली होड़ करि निर्वाण गये विद्युदंष्ट्रने उपसर्ग काया यह जाति धरणोंद्रने तामू कोप कीया, ताकी विद्या छेद करी वहुरि श्री अजितनाथ स्वामी का जन्म, पूर्णमेघ विद्याधर भगवानके सरणी आया। राक्षस द्वीपका स्वामी व्यन्तर देव, तान प्रसन्न होइ पूर्णमेष राक्षस द्वीप दिया । वहुरि सगर चक्रवर्तीकी उत्पचिका कथन, पुत्रनिके दुःखकरि दीक्षा ग्रहण पर मोक्ष प्राप्ति, पूर्णमेषके वंशविर्ष महारचका जन्म, अर वानरवंशी विद्याधरनिकी उत्पत्तिका कथन, बहुरि विद्युत्केश विद्याधरका चरिख, बहुरि उदधिविक्रम अर अमरविक्रम विद्याधरका कथन, वानरवंशीनिक किषकिंथापुरका निवास अरअंधक विद्याधरका कथन, श्रीमाला विद्याधरी का संयम, विजयसंघके मरणते अशनिवेमके क्रोथका उपजना और सुकेशीके पुत्रनिका लंका श्रावने का निरूपण, निर्धात विद्याधरके रखतें माली नाम विद्याधर रावणके दादेका वडा भाइ, ताके संपदाकी प्राप्तिका कथन, अर विजवार्थकी दक्षिणकी श्रेणीविषे रथनूपुर नगर में इंद्रनामा विद्याधरका जन्म, इंद्र सर्व विद्याधरनिका अधिपति है। इंद्रके अर मालीके युद्धविष मालीका मरण अर लंकाविर्ष इंद्रका राज्य पर श्रषव नामी विद्याधरका थारों रहना अर सुमालीके पुत्र रत्नश्रवाका पुष्पांतक नामा नगर वसावना भर केकसीका परणना अर केकसीके शुभस्वप्नका अवलोकन, रावणका जन्म अर विद्यानिका सावन विद्यानिके साधनविष अनावृत देव ओया विघ्न कीया तहां रावणका अचल रहना बहुरि विधा सिद्ध होना भर अनावृत देवका वश होना, अपने नगर आय माता पिता मिलना, काम अपने पिताका पिता जो सुमाली, ताकू बहुत आदरसों बुलावना, बहुरि मंदोदरीका राषक्सों विवाह और बहुत राजनिकी कन्या का ब्याहना, कुम्भकरणका चरित्र, वैश्रवसका कोष बच सक्षस कहावे असे विद्याथर तिनका बड़ा संग्राम, वैश्रवणका भागना बहुरि तप कस्ब र रात्रसका लंकामें कुटुम्ब सहित आवना अर सर्व राक्षसनिक धीरज बधावना मर और और Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपम पर्व जिलमंदिरका निर्मापण करना अर जिनधर्मका उद्योत करना, और श्रीहरिषेण चक्रवर्तीका चरित्र राजा सुमालीने रावणकू कह्या सो भावसहित सुनना । कैसा है हरिषेण चक्रवर्तीका चरित्र पापनिका नाश करण हारा। बहुरि तिलोकमण्डन हाथीका वश करना, अर राजा इन्द्रका लोकपाल यमनामा विद्याधर ताने वानरवंशीके राजा सूर्यरजकू पकरि बंदीखाने डारया सो रावण समेदशिखरकी यात्रा करि डेरा पाये थे सो सूर्यरजके समाचार सुनि ताही समै गमन करना अर जाय यमजीतना। यमके थाने उठावना अर याका भाजना राजा सूर्यरजकू बंदीत छुड़ावना अर किहकंधापुरका राज्य देना । बहुरि रावणकी बहिन सूपनखा ताकू खरदूषण हरि लेगया सो बाही परिणाय देना पर ताहि पाताल लंकाका राज देना सोखरदूषणका पाताल लंका जाना पर चंद्रोदर कौं युद्धविर्ष हनना अर चन्द्रोदर की रानी अनुराधाकू पतिके वियोगत महादुःखका होना अर चंद्रोदरके पुज्ञ विराधितका राज्यभ्रष्ट होइ कहूंका कहूं रहना अर बाल्यका वैराग्य होना सुग्रीवकू राज्यकी प्राप्ति अर कैलास पर्वतावर्षे बाल्यका विराजना रावणका वाल्यसू कोप करि कैलास उठावना पर चैत्यालयनिकी भक्तिके निमित्त बाल्य पगका अङ्गुष्ठ दाव्या तब रावणका रोवना अर रानीनिकी विनतीत बालीका अङ्गुष्ठ का ढीला करना । अर बाल्यके भाई सुग्रीवका सुतारासू विवाह अर साहसगति विद्याधर ताराकी अभिलाषा हुती सो अलाभते संतापका होना अर राजा अनारण्य अर सहस्रकिरणका वैराग्य होना भर रावणने यज्ञ नाश किया ताको वर्णन, अर राजा मधुके पूर्व भवका व्याख्यान अर रावण की पुत्री उपरंभाका मधुसा विवाह अर रावणका इन्द्रपर जाना इन्द्र विद्याधरकी युद्धकरि जीतना परिकरि लंकामें ल्यावना बहुरि छोड़ना अर ताको वैराग्य लेय निर्वाण होना अर रावणका प्रताप अर सुमेरु पर्वत पर गमन बहुरि पाछा भावना अर अनंतवीर्य मुनि केवलज्ञानकी प्राप्ति सवयका नेम ग्रहण-जो परस्त्री मोहि न अभिलाष ताहि मैं न सेवू । बहुरि हनुमानकी उत्पत्ति, कैसे हैं हनुमान ? वानरवंशीनिविषे महात्मा हैं । कैलास पर्वत विष अंजनीका पिता जो राजा महेंद्र, ताने पवनं जय का पिता जो राजा प्रहलाद तासों सम्भाषण कीया-जो हमारी पुत्रीका तुम्हारे पुत्र सम्बन्ध करहु । सो राजा प्रहलादने प्रमाण कीया। अंजनीका पवनंजयसू विवाह होना बहुरि पवनंजयका अंजनीसों कोप अर चकवा चकवीके वियोगका वृत्तांत देखि अंजनीसू प्रसन्न होना अंजनीके गर्भका रहना । अर हनुमानके पूर्व जन्म वनमें अंजनीकू मुनिने कहे। पर हनुमानका जीवका गुफावि जन्म बहुरि अनुरुद्ध द्वीपमें वृद्धि प्रतिसूर्य मामाने अंजनी बहुत आदरसों राखी बहुरि पवनंजयका भूताटवीविर्ष प्रवेश अर पवनजयके हाथीकू देखि प्रति यंका तहां अावना पवनंजयकू अंजनीके मिलापका परम उत्साह होना पुत्रका मिलाप होना पर.पक्नंजपका राक्णके निकट जाना । अर रावणकी आज्ञार्ते वरुणसूयुद्धकार ताहि जीतना। समणके बड़े राज्यका वर्णन तीर्थकरकी श्रायुका अंतरालका वर्णन बलभद्र नारायण प्रतिजासापाचवीनिक सकल चारित्रका वर्णन । अर राजा दशरथको उत्पाँच अर केकाईक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण वरदान देना राम लक्ष्मण भरत शत्रु नका जन्म सीताकी उत्पत्ति मामण्डलका हरण अर साकी माताकू शोकका होना । अर नारदने सीताका चित्रपट भामण्डलकूदिखाया सो देखकर मोहित होना । बहुरि जनकके स्मयं र मंडपका वृत्तांत अर धनुष रतनका स्वयंवर भंडपमें धरना श्रीरामचन्द्रका अावना धनुषका चढापना अर सीता विवाहना अर सर्वभूतशरण्यमुनिके निकट दशरथका दीक्षा लेना पर भामण्डलको पूर्व जन्म का ज्ञान होना अर सीताका दर्शन । बहुरि केकयीके वरतें भरतका राज्य पर राम लक्ष्मण सीताका दक्षिण दिशाकू गमन करना वज्रकिरणका चरित्र लक्षाण कू कल्याण मालाका लाभ अर रुद्रभूत को वश करना अर बालखिल्यका हुडावना अर अरुणग्रामविष श्रीराम आये तहां वनमें देवतानिने नगर बसाये तहां चौमासे रहना । लक्ष्मणके वनमालाका संगम अतिवीर्यका वैराग्य बहुरि लक्ष्मणके पद्माकी प्राप्ति अर कुलभूषण देशभाण मु नेका चरित्र । अर श्रीरामने वंशस्थल पर्व विष भगवान के मंदिर कराए तिनका वर्णन अर जटायु पर्वकू नेमकी प्राप्ति पात्रदानके फल की महिमा संवूकका मरण सूपनखाका विलाप खरदूपण लक्ष्मण का युद्ध सीताका हरण सीता रामके वियोगका अत्यन्त शोक अर राम साताके वियोगका अन्यन्त शोक बहुरि विराधि। विद्याधरका आगमन अर खरदूषणका मरण अर रतनजटीकै रावणकरि विद्याका छेद पर सुप्रीयका रामके निकट श्रावना बहुरि सुग्रीव के कारण श्रीरामने साहसगतिका नारा र सीताका वृत्तांत रतनजटीने श्रीराम कहा । श्रीरामका लङ्का जारि गमन । राम रावण के युद्ध । राम लक्ष्मण सिंहवाहिनी गरुडाहिनी विद्याकी प्राप्ति । लक्ष्मणके रावणको शक्तिका लगना अर विशल्याके प्रसाद तँ शक्ति दूर होना, रावण का शांतिनाथ मंदिरविर्षे बहुरूपणी विद्याका साधना अर रामके कटकके विद्याधर कुमारनिका लंकाविर्ष प्रोश अर रावणके चित्तके डिगावनेका उपाय पूर्णभद्र मणिभद्रके प्रभावों विद्याधर कुमारनका पाछा कटको आवना । रावणकू विद्याकी सिद्धि बहुरि राम रावण के युद्ध रावणके चक्र लक्ष्मणके हाथ आवना । अर रावणका परलोक गमन रावण की स्त्रीनिका विलाप । बहुरि केवजीका लंकाके वनविष आगमन । इन्द्रजीत आदि का दीक्षा ग्रहण। अर श्रीरामका सीतासू मिलाप दिन भोजन, केइक दिन लंकाविषे निकास बहुरि नारदका रामके निकट अावना । रामका अयोध्यागमन । भरतके अर त्रिलोकमंडन हाथी के पूर्व भरका वर्णन । भरतका वैराग्य राम लक्ष्मगका राजन अर रणविष मधुका अर लवणका मरण । मथुगविय शत्रु नका राज्य । मथुरावि पर सजदे शरिष धरणांद्रके कोपते रोगनिकी उत्पत्ति । बहुरि सासनिके प्रभावी रोमानेको निवृत्त । अर लोकापवादत सीताका वनविष सजन अर वन मंत्र राजाका याविषं यागान माताळू बहुत आदरतें ले जाना । तहां लवणांकुश का जन्म । अर लव गांकुरा बड़े हाइ अनेक राजानिकू जी । वज्रजवक राज्यका विस्तार करना। बहुरि अयोध्या जाय श्रीराम अर सर्व भूपण मुनि केवलज्ञानकी प्राप्ति देवनिका श्रागमन । सीताके सील तें अगिकुर का सीतल होना । अर विभीषणके पूर्व भवका वाम। कृतांतवक ता लेना । स्वयंवर भएअविष रामके पुत्रनि लक्ष्मणके पुत्रनिका विरोध । बहुरि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा पव लक्ष्मण के पुत्रनिका वैराग्य । अर विद्यु तपातत भामण्डलका मरण । हनुमानका वैराग्य । लक्ष्मण की मृत्यु । रामके पुत्रनिका तप । श्रीराम लक्ष्मणके वियोगत अत्यंत शोक अर देवतानिके प्रतिबोधत मुनिव्रतका अंगीकार केवलज्ञानकी प्राप्ति । निर्वाण गमन । यह सर्व रामचन्द्रका चरित्र सज्जन पुरुष मनकू समाधान करिकै सुनहु । यह चरित्र सिद्ध पदरूप मंदिरकी प्राप्तिका सिवाण है अर सर्वप्रकार सुखनिका दायक है। श्रीरामचन्द्रकों आदि दे जे महामुनि तिनका जे मनुष्य चिंतन करें हैं अर अतिशयपणेकरि भावनिके समूहकरि नम्रीभूत होइ प्रमोदकू धरै हैं तिनका अनेक जन्मनिका संचित जो पाप सो नाश होइ है । सम्पूर्ण पुराण जे श्रवण करें तिनका पाप दूर होय ही होय। तामें संदेह कहा ? कैसा है पुराण ? चंद्रमा समान उज्ज्वल है। तातें जो विवेकी चतुर पुरुष हैं ते या चारित्रका सेवन करहु । कैसा है चरित्र ? बड़े पुरुषनिकरि सेइवा योग्य है । जैसे सूर्यकरि प्रकास्या जो मार्ग ताविषै भले नेत्रनिका धारक पुरुष काहेको डिगै? इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थकी भाषा वचनिका व पीठ बंध विधाननामा . प्रथम पर्व पूर्ण भया ॥१॥ अथ लोकस्थिति महा अधिकार । मगध देशके राजगृह नगरमें श्रीमहावीरस्वामीके समोशरणका आना और राजा श्रेणिकका श्रीरामचन्द्र की कथा का पूछना। जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें मगध देश अति सुन्दर है, जहां पुण्याधिकारी बसे हैं इन्द्रके लोक समान सदा भोगोपभोग करे हैं जहां योग्य व्यवहारसे लोक पूर्ण मांदारूप प्रवृत्त हैं और जहां सरोवरमें कमल फूल रहे हैं और भूमिमें अमृत समान मीठे सांठनके बाडे शोभायमान हैं और जहां नाना प्रकारके अन्नोंके समूहके पर्वत समान ढेर होय रहे हैं अरहटकी घडीसे सींचे जीराके धणाके खेत हरित होय रहे हैं, जहां भूमि अत्यन्त श्रेष्ठ है सव वस्तु निपजे हैं। चांवलों के खेत शोभायमान और मूंग मोठ ठौर ठौर फूल रहे है गेंहू आदि अन्नको किसी भांति विघ्न नहीं और जहां भैसकी पीठपर चढे ग्वाला गाये हैं गऊओंके समूह अनेक वर्णके हैं जिनके गलेमें घण्टा बाजे हैं और दुग्ध झरती अत्यन्त शोभे हैं, जहां दूधमगी धरती हो रही है, अत्यन्त स्वादु रसके भरे तृण तिनको चरकर गाय भैंस पुष्ट होय रही हैं, और श्याम सुन्दर हिरण हजारों विचरे हैं मानो इंद्रके हजारों नेत्र ही हैं, जहां जीवनको कोई बाधा नहीं जिन थमिगेका राज्य है और बनके प्रदेश केतकीके फूलोंसे धवल हो रहे हैं, गंगाके जलके समान उज्वल बहुत शोभायमान हैं और जहां केसरकी क्यारी अति मनोहर हैं और जहां ठौर ठौर नारियलके वृक्ष हैं और अनक प्रकारके शाक पत्रसे खेत हरित हो रहे हैं और वनपाल नर मैवादिकका आस्वादन करे हैं, और जहां दाडमके बहुत वृक्ष हैं जहां सूवादि अनेक पक्षी बहुत प्रकारके फल भक्षण करे हैं, जहां बन्दर अनेक प्रकार किलोल करे हैं, विजौराके वृक्ष फल रहे Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amamakadaia दिरूप पा-पराणे मण्डप बाय ' अनेक जात फल तिनका रस पीकर पक्षी सुखसों सोय रहे हैं, और दाखके र रहे हैं, नहीं वन विषै देव विहार करे हैं जहां खजूरको पथिक भक्षण करे हैं केला - फल रहे हैं। ऊंचे ऊंचे अरजुन वृक्षोंके वन सोहे हैं और नदीके तट गोकुल के शब्द से "नणीक हैं, नदियोंमें पनीके समूह किलोल करे हैं तरंग उठे हैं मानो नदी नृत्य ही करे हैं और हंसनिके मधुर शब्दों कर मानो नदी गान ही करे हैं, जहां सरोवरके तीरपर मारम क्रौटा करे हैं और वस्त्र आमाण सुगंधादि सहित मनुष्योंके समूह तिष्ठे हैं, कमलोंके समूह रहे हैं और अनेक जीव क्रीडा करे हैं, हमोंके समूड उत्तम मनुष्योंके गुणों समान उज्ज्व सुन्दर शब्द सुन्दर चालवाले तिनकर वन धवल होय रहा है। जहां कोकिलोंका रमणीक शब्द भं रोका गुजार मोरोंके मनोहर शब्द सगीतकी ध्वनि बन मृदंगोंका बजना इनकर दशों दिवा रमणीक हो रही हैं और वह देग गुणन्त पुरुषोंसे भरा है, जहां दयावान शीलवान उदारचित्त तपस्वी त्यागी विवेकी प्राचारी लोग वसे हैं, मुनि विचरे हैं, आर्यिका विहार करे हैं उत्तम श्रारक, श्राविका वसे हैं । शरदकी पूर्णमामीके चन्द्रमा समान है चित्त की वृत्ति जिनकी मक्ताफल समान उज्वल है अानन्दके देनेहारे हैं; और वह दश बड़े बड़े गृहस्थीन कर मनोहा है कैसे हैं गृहस्थी कल्पवृक्ष समान हैं तृप्त कीये हैं अनेक पथिक जिन्होंने जहां अनेक शुभ ग्राम हैं जिनमें भले भले किसान बसे हैं और उस देशविप कस्तूरी कपूर्रादि मुगन्ध द्रा बहुत हैं और भांति भांतिके वस्त्र प्राभूपणों कर मण्डित नर नारी विचरे हैं मानी देव देवी ही हैं, जहां जैन वचन रूपी अंजन (सुरमा) से मिथ्यात्व रूपी दृष्टिविकार दूर होवे हैं और महा मुनियोंके ज्ञान रूपी अग्निसे पापरूपी बन भस्म होय है ऐसा धर्म रूपी महा मनोहर मगध देश बसे है। ___ मगध देशमें राजगृह नामा नगर महा मनोहर पुष्पों की बासकर महा सुगन्धित अनेक सम्पदा कर भरया है मानो तीन भवनका जीवन ही है और वह नगर इंद्रके नगर समान मन का मोहनेवाला है । इन्द्र के नगरम तो इन्द्राणी कुम्कुम कर लिप्त शरीर विचरे हैं और इस नगरमें राजाकी रानी सुगन्ध कर लित विचर है, महिषी ऐसा नाम रानीका है और मैं का भी है सो जहां मैंस भी केरकी क्यारी में लोटकर केसरसों लिप्त भई फिरे हैं और सुन्दर उज्ज्वल घरोंकी पंक्ति और टांचीनके घडे हुए सफेद पाषाण तिनसे मकान बने हैं मानो चन्द्रकांति मणिनका नगर बना है। मुनियों को तो वह नगर तपोवन भासे है, (मालूम होता है) वेश्याको काम मन्दिर, नृत्यकारनीको नृत्यका मन्दिर और बैरीको यमपुर है, सुभटको वीरका स्थान, याचकको चिंता. मणि, विद्यार्थीको गुरुगृह, गीत शास्त्रके पाठीको गंधर्व नगर, चतुरको सर्व कला (चतुराई) सीखनेका स्थान, और ठगको धूर्त का मन्दिर भासे है। संतनिको साधुओंका संगम, व्यापारीको लाभभूमि, शरणागतको बज्रपिंजर, नीतिके वेत्ताको नीतिका मन्दिर, कौतुकी (खिलारियों) को कौतुकका निवास, कामिनिको अप्सरोंका नगर, सुखीयाको आनन्दका निवास भासे है। जहां गजगामिनी शीलबंती व्रतवंती रूपवंती अनेक स्त्री हैं जिनके शरीरकी पद्मरागमणिकीसी प्रभा है और चन्द्रकांति मणि जैसा बदन है सुकुमार अंग है पतिव्रता है व्यभिचारीको अगम्य हैं गहा सौन्दर्य Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . देसरा पर्व युक्त है। निरवचनः " हैं चेष्टा जिन पोलनहारा ह ार सदा हर्षरूप मनोहर है मुख जिनके और प्रमादरहित . *.सामायिक प्रोषध प्रतिक्रमणकी करनहारी हैं। बत नेमादिविष सावधान है अन्न का शोधन र '. अलका छानना यतिनको भक्तिले दान देना और दुखित भुखित जीवको दयाकर दान " स्यादि शुभ क्रियामें सावधान हैं जहां महामनोहर जिनमन्दिर हैं जिनेश्वरकी और सिद्धांत - घरचा ठौर ठौर है । एसा राजगृह नगर बसा है जिसकी उपमा कथनमें न श्रावे, स्वर्ग लोक तो केवल भोगहीका विलास है और यह नगर भोग और योग दोनों हीका निवास है जहां 'पर्वत समश्च तो ऊंचा कोट है और महागम्भीर खाई है जिसमें वैरी प्रवेश नहीं कर सकते ऐसा देवलोक सभान शोभायमान राजगृह नगर बसे हैं ।।। __राजगृह नगर में राजा श्रेणिक राज्य करे है जो इन्द्र समान विख्यात है। बड़ा योद्धा कल्याणरूप है प्रकृति जिलकी, कल्याण ऐसा नाम स्वर्णका भी है और मंगलका भी है । सुमेरु सो सुवर्ण रूप है और राजा कल्याण रूप है, वह राजा समुद्र समान गम्भीर है मर्यादा उलं. घनका है भय जिसको, कलाके ग्रहण में चन्द्रमाके समान है, प्रतापमें सूर्य समान है, धन सम्पदा में कुवेरके समान है, शूरवीरपने में प्रषिद्ध है लोकका रक्षक है महा न्यायवंत है लक्ष्मीका पूर्ण है, गर्वसे दूषित नहीं सौ शत्रुओंका विजय कर बैठा है तथापि शस्त्र (हथियार) का अभ्यास रखता है और जे पापपे नत्राभूा भये हैं तिनके मानका बहावनहारा हैं जे आपते कठोर है तिनके मानका छेदनहारा है और आपदा विष उद्धगचित नहीं सम्पदाविष मदोन्मच नहीं जिसकी निर्मज्ञ साधु प्रोंमें रत्न बुद्धि है और रत्नके विप पापाणबुद्धि है जो दानयुक्त क्रियामें बड़ा सावधान है और ऐसा सामन्त है कि मदोन्मत्त हाथीको कीट समान जाने है और दीन पर दयालु है जिसको जिन शासनमें परम प्रीति है धन और जीतव्यमें जीर्ण तृण समान बुद्धि है दशों दिशा व । करी हैं प्रजाके प्रतिपालनमें सावधान है और स्त्रियोंको घमेकी पुतलीके समान देखे है धनको रज सभान गिने है गुणनकर नम्रीभूत जो धनुप ताहीका अपना सहाई जाने है चतुरंग सेनाको केवल शोभारूप माने है (भावार्थ) अपने बल पराक्रममे गज करे है जिसके राजमें पवन भी वस्त्रादिकता हरण नहीं करे तो ठा चोगेको मान ? जिसके राजनें क्रूर पशु भी मिलान करते भये ना मनुष्य हिंसा कैसे करे, यद्याप राजा श्रोणि कसे वासुदेव बड़े होते हैं परन्तु उन प कहिए वृपासुरका पराभव किया है और यह राजा श्रेणिक वृक्ष कहिए धर्म ताका प्रतिपालक है इसीलिए उनसे श्रेष्ठ है और पिनाकी अर्थात् शकर उन राजा दक्षके गर्व को आताप लिया और यह राजा श्रेणिक दक्ष अर्थात् चतुर पुरुषाका अानन्दकारी है इसलिये शंकरमे भी अधिक है और इन्द्रके वंश नहीं यह वंश कर विस्तीर्ण है पर दक्षिण दिशाका दिपाल जो यम सो कठोर है राजा कोमल चित है और पश्चिम दिशाका दिग्पाल जो वरुण सो दुष्ट जलचरोंका अधिपति है इसके दुष्टोंका अधिकार ही नाहीं पर उत्तर दिशाका अधिपति जो कुवेर, वह धनका रक्षक है यह धनका त्यानी है और बौद्धके समान क्षणिकमती नहीं चन्द्रमाकी न्याई कलंकी नहीं । राजा श्रेणिक सर्वोत्कृष्ट है जिसके त्यागका अर्थी पार न पावें Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पद्म-पुराण जिसकी बुद्धिका पार पण्डित न पावते भए शूरवीर जिसके साहसको पार न पावते भये जिसकी कीर्ति दश दिशामें विस्तरी है जिसके गुणनकी संख्या नहीं सम्पदाका क्षय नहीं सेना बहुत, बड़े बड़े सामंत सेवा करे हैं हाथी घोड़े रथ पयादे सच ही राजाका ठाठ सबसे अधिक है और पृथ्वीविषै प्राणीका चित्त जिससे अतिअनुरागी होता भया जिसके प्रतापका शत्रु पार न पावते ये सर्व कलाविषै प्रवीण है इसलिए हम सारखे पुरुष वाके गुण कैसे गा सकें जिसके क्षायक सम्यक्त्व की महिमा इन्द्र अपनी सभा विषै सदा ही करे है वह राजा मुनिराज के समूहमें वेतकी लताके समान नत्रीभूत है और उद्धत वैरीको वज्र दण्ड से वश करनेवाला है जिसने अपनी भुजाओंसे पृथ्वीकी रक्षा करी है कोट खाई तो नगरकी शोभामात्र हैं । जिनच त्यालयोंका करानेवाला जिन पूजका करानेवाला जिसके चेलना नामा रानी महा पतिव्रता शीलवन्ती गुणवन्ती रूपवन्ती कुलवन्ती शुद्ध सम्यग्दर्शनकी धरनेवाली श्रावकके व्रत पालनेवाली सर्व कला में निपुण उसका वर्णन कहांलग कहैं ऐसा उपमा कर रहित राजा श्रेणिक गुणोंका समूह राजगृह नगर में राज करे है ।। आगे अन्तिम तीर्थंकरका समवशरणका आगमन जानि श्रेणिक उठाइसहित भए, ताका वर्णन करिये हैं एक समय राजगृह नगर के समीप विपुलाचल पर्वतके ऊपर भगवान महावीर अंतिम तीर्थंकर समोशरण सहित आय विराजे तब भगवानके आगमनका वृत्तांत वनपालने जानकर राजा से कहा और छहों ऋतुओं के फल फूल लाकर आगे धरे तत्र राजाने सिंहासन से उठकर सात पैंड पर्वतके सम्मुख जाय भगावन्को अष्टांग नमस्कार किया और बनपालको अपने सर्व आभरण उतारकर पारितोषिकमें देकर भगवान् के दर्शनोंको चलनेकी तैयारी करता भया । श्रीवर्द्धमान भगवान के चरणकमल सुर नर असुरोंसे नमस्कार करने योग्य हैं गर्भ कल्याणकविषै छप्पन कुमारियोंने शोधा जो माताका उदर उसमें तीन ज्ञानसंयुक्त अच्युत स्वर्ग से आय विराजे हैं। और इन्द्रके आदेश से धनपतिने गर्भ में यावनेसे छह मास पहिलेसे रत्नवृष्टि करके जिनके पिताका घर पूरा है और जन्म कल्याणक में सुमेर पर्वतके मस्तकपर इन्द्रादि देवोंने क्षीरसागर के जल कर जिनका जन्माभिषेक किया है और धरा है महावीर नाम जिनका और बाल अवस्था में इन्द्रने जो देवकुमार रखे तिन सहित जिन्होंने क्रीडा करी है और जिनके जन्ममें माता पिताको तथा अन्य समस्त परिवारको और प्रजाको और तीन लोकके जीवोंको परम आनन्द हुआ नारकियों का भी त्रास एक मुहूरतके वास्ते मिट गया जिनके प्रभावसे पिताके बहुत दिनोंके विरोधी जो राजा थे वह स्वयमेव ही आय नम्रीभूत भये और हाथी घोड़े रथ रत्नादिक अनेक प्रकारके भेट किये और छत्र चमर बाहनादिक तज दीन हो हाथ जोड़कर पावोंमें पड़े, और नाना देशोंकी प्रजा आयकर निवास करती भई । जिन भगवानका चित्त भोगों में रत न हुआ जैसे सरोवर में कमल जलसे निर्लेप रहे तैसे भगवान् जगतकी मायासे अलिप्त रहे । वह भगवान स्वयंबुद्ध बिजली के चमत्कारवत् जगतकी मायाको चंचल जान वैरागी भये, और Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा पर्व किया है लौकांतिक देवोंने स्तवन जिनका मुनिव्रतको धारणकर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका अाराधनकर घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञानको प्राप्त भये । वह केवलज्ञान समस्त लोकालोकका प्रकाशक है, ऐसे केवलज्ञानके धारक भगवानने जगतके भव्य जीवोंके उपकारके निमित्त धर्म तीर्थ प्रगट किया, वह श्रीभगवान मलरहित पसेवसे रहित हैं जिनका रुधिर क्षीर (दूध) समान है और सुगन्धित शरीर शुभ लक्षण अतुलबल भिष्ट वचन महा सुन्दर स्वरूप समचतुर संस्थान वजवृषभनाराच संहननके धारक हैं जिनके बिहार में चारों ही दिशा नोंमें दुर्भिक्ष नहीं रहता, सकल ईति भीतिका अभाव रहै है, और सर्व विद्याके परमेश्वर जिनका शरीर निर्मल स्फटिक समान है और आंखोंकी पलक नहीं लगती है और नख केश नहीं बढ़ते हैं, समस्त जीवोंमें मैत्री भाव रहता है और शीतल मंद सुगन्ध पवन पीछे लगी आवे है, छह ऋतुके फल फूल फले हैं और धरती दर्पण समान निर्मल हो जाती है और पवनकुमार देव एक योजन पर्यंत भूमि तृण पाषाण कण्टकादि रहित करे हैं और मेघकुमार देव गंधोदककी सुवृष्टि महा उत्साहसे करे हैं, और प्रभुके विहारमें देव चरणकमलके तले स्वर्णमयी कमल रचे हे चाणोंको भूमिका स्पर्श नहीं होता है, अाकाशमें ही गमन करे हैं, धरतीपर छह ऋतुके सर्व धान्य फले है, शरद के सरोवरके समान आकाश निर्मल होय है और दश दिशा धूम्रादिरहित निर्मल होंय है, सूर्य की कांतिको हरणेवाला सहस्र थारोंसे युक्त धर्मचक्र भगवानके आगे आगे चले है, इस भांति आर्यखण्ड में विहार कर श्रीमहावीर स्वामी विपुलाचल पर्वत उपर आय विराजे हैं, उस पर्वतपर नाना प्रकारके जलके निरझरने झरे हैं उनका शब्द मनका हरणहारा है, जहां बोले और वृक्ष शोभायमान हैं। और जहां जातिविरोधी जीवोंने भो बेर छोड़ दिया है, पक्षी बोल रहे हैं उनके शब्दोंसे मानो पहाड़ गुजार ही करे है, और भ्रमरोंके नादसे मानो पहाड़ गान ही कर रहा है, सघन वृक्षोंके तले हाथियों के समूह बैठे हैं, गुमानोंके मध्य सिंह तिष्ठे हैं, जैसे कैलाश पर्वतपर भगवान ऋषभ देव विराजे थे तो विशुल बल पर श्रीवर्द्धमान स्वामी विराजे हैं। जब श्रीभगवान समोसरणमें केवल ज्ञान संयुक्त विराजमान भये तब इन्द्रका आसन कम्पायमान भया, इन्द्रने जाना कि भगवान केवलज्ञानसंयुक्त विराजे हैं, मैं जाकर बन्दना करू, इंद्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर आए । वह हाथी शरदके बादल समान उज्ज्वल है मानो कलास पर्वत ही है सुवर्णकी सांकलनसे संयुक्त है, जिगका कुम्भस्थल भ्रमरोंकी पंक्तिसे मण्डित है, जिसने दशों दिशा सुगन्धसे व्याप्त करी हैं महा मदीनत्त है, जिसके नख सचिक्कण हैं जिसके रोम कठोर हैं जिनका मस्तक भले शिष्यके समान बहुत विनयवान और कोमल है, जिसका अंग दृढ है और दीर्घ काय है, जिसका स्कन्ध छोटा है मद झरे है और नारद समान कलहप्रिय है, जैसे गरुड नागको जीते तैसे यह नाग अर्थात् हाथिोंको जीते हैं जैसे रात्रि नक्षत्रों की माला कहिये पंकति ताकरि शोभे है तैसे यह नक्षत्रमाला जो प्राभरण उससे शोभे है । मिंदर कर अरुण (लाल) ऊंचा जो कुम्भस्थल उससे देव मनुष्योंके मनको हरे है, ऐसे ऐरावत गजपर चढ़ कर सुरपति आए और भी देव अपने अपने वाहनोंपर चढकर इंद्रके संग आए । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पद्म-पुराण जिनके मुख कमल जिनन्द्र के दर्शन के उत्साहसे फूल रहे हैं, सोलह हा स्वर्गीके समस्त देव और भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी सर्व ही आये और कमलायुध आदि यखिल विद्याधर अपनी स्त्रियों सहित आए, वे विद्याधर रूप और विभव में देवोंके समान हैं । तहां समोसरणविषै इन्द्र भगवानकी ऐसे स्तुति करते भये । हे नाथ ! महामोहरूपी निद्रामें सोता यह जगत तुमने ज्ञानरूप सूर्यके उदयसे जगाया । हे सर्वज्ञ वीतराग ! तुमको नमस्कार होहु तुम परमात्मा पुरुषोत्तम हो, संसार समुद्र के पार तिष्ठो हो, तुम बड़े सार्थवाही हो, भव्य जीव चेतनरूपी धनके व्यापारी तुमारे संग निर्वाण द्वीप को जायेंगे तो मार्ग में दोषरूपी चोरोंसे नाहीं लुटेंगे, तुमने मोक्षाभिलाषियोंको निर्मल मोक्षका पंथ दिखाया और ध्यानरूपी निकर कर्म ईनको भस्म किये हैं । जिनके कोई बांधव नाहीं, नाथ नाहीं, दुःख रूपी अग्नि के ताप कर सन्तापित जगत के प्राणी तिनके तुम भाई हो और नाथ हो परम प्रतापरूप प्रगट भये हो, हम तुमारे गुण कैसे वर्णन कर सकें । तुमारे गुण उपमारहित अनन्त हैं, सो केवलज्ञानगोचर हैं इस भांति भगवान् की स्तुति कर अष्टांग नमस्कार करते भये, समोशरण की विभूति देख बहुत आश्चर्यको प्राप्त भये सो संचेपकरि वर्णन करिए हैं— वह समोशरण नानावर्णके अनेक महारल और स्वर्णसे रचा हुवा जिसमें प्रथम रत्नकी धूलि का धूलिसाल कोट है और उसके ऊपर तीन कोट हैं एक एक कोटके चार बार द्वार हैं द्वारे२ अष्ट मंगल द्रव्य हैं और जहां रमणीक वापी हैं सरोवर अद्भुत शोभा धरै हैं, तहां स्फटिक मणिकी भीति (दिवार) करि बारह कोठे प्रदक्षिण रूप बने हैं एक कोठे में मुनिराज हैं दूसरे में कल्पवासी देवोंकी देवांगना हैं तीसरेमें श्राविका हैं चौथेमें जोतिषी देवों की देवी हैं पांचवे में व्यन्तर देवी हैं, छठेमें भवन वासिनी देवी हैं, सातवें में जोतिषी देव है आठवें में व्यंतर देव हैं नवमेमें भवनवासी दशवें में कल्पवासी ग्यारवें में मनुष्य बारवें में तिर्यंच || सर्व जीव परस्पर वैरभाव रहित तिष्ठे हैं। भगवान अशोक वृक्ष के समीप सिंहासनपर विराजे हैं, वह अशोक वृक्ष प्राणियोंके शोकको दूर करे हैं, और सिंहासन नाना प्रकारके रत्नों के उद्यातसे इन्द्र धनुषके समान अनेक रंगांको थरे है, इन्द्रके मुकुटमें जो रत्न लगे हैं, उनकी कांतिके समूहको जीते हैं, वीन लोककी ईश्वरता के चिन्ह जो तीन छत्र उनसे श्रीभगवान शोभायमान हैं और देव पुष्पों की वर्षा करे हैं, चौसठ चमर सिरपर दुरे हैं दुंदुभी बाजे बजे हैं उनकी अत्यन्त सुन्दर ध्वनि होय रही है । राजगृह नगर से राजा श्रेणिक आवते भये । अपना मन्त्री तथा परिवार और नगरनिवासियों सहित समोशरण के पास पहुंचे समोशरणको देख दूरहीसे छत्र चमर वाहनादिक तज कर स्तुतिपूर्वक नमस्कार करते भये पीछे आयकर मनुष्यों के कोठे में बैठे क्रूर, वारिषेण, अभय कुमार, विजयाहु इत्यादिक राजपुत्र भी नमस्कार कर आय बैठे। जहां भगवानकी दिव्य soft खरे है, देव मनुष्य तिर्यंच सबही अपनी अपनी भाषा में समझे हैं। वह ध्वनि मेघके शब्द को जीते है, देव और सूर्य की कांतिको जीतनेवाला भामण्डल शोभे है, सिंहासन पर जो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा पर्व कमल है उसपर आप अलिप्त विराजे हैं । गणधर प्रश्न करे हैं और दिव्यध्वनि विर्ष सर्वका उत्तर होय है। गणधर देवने प्रान किया कि हे प्रभो ! तत्वके स्वरूपका व्याख्यान करो तब भगवान् तत्त्वका निरूपण करते भये । तत्त्व दो प्रकार के हैं.--एक जीव दुमरा अजीव । जीवां के दो भेद हैं सिद्ध और संसारी । संरीके दो भेद है-एक भव्य दूमरा अभव्य । मुक्त होने योग्यको भव्य कहिये और कोरडू (कुडकू) मूंग समान जो कभी भी न साझे तिसको अभव्य कहिये, भगवानके भाषे तत्त्वोंका श्रद्धान भव्य जीवोंके ही होय अभव्यको न होय और संसारी जीवोंके एकेंद्रिय आदि भेद और गति काय आदि चौदह मार्गणाका स्वरूप कहा और उपशम धायक श्रेणी दोनोंका स्वरूप कहा और संसारी जीव दुःखरूप कहे । मूहों जो दुःखरूप अवस्था सुखरूप भासे हैं चारों ही गति दुख रूप हैं-नारकियों को तो आंखके पलकमात्र भी सुख नाहीं मारण ताडन छेदन शूलारोपणादिक अनेक प्रकार के दुःख निरन्तर हैं और तिर्यंचोंको ताडन मारण लादन शीत उष्ण भूख प्यास आदिक अनेक दुःख हैं और मनुष्योंको इष्ट वयोग और अनिष्टसंयोग आदि अनेक दुख हैं और देवोंको बड़े देवों की विभूति देखकर संताप उपजे है और दूसरे देवोंका मरण देख बहुत दुःख उपजै है तथा अपनी देवांगनाओंका मरण देख वियोग उपजे है और जब अपना मरण निकट आवे तब अत्यन्त विलापकर झुरे हैं इसी भांति महा दुःख कर संयुक्त चतुर्गतिमें जीव भ्रमण करे हैं। कर्म भूमिमें मनुष्य जन्म पाकर जो सुकृत (पुण्य) नहीं करे हैं उनके हस्तमें प्राप्त हुआ अमृत जाता रहै है । संसारमें अनेक योनि में भ्रमण करता हुआ यह जीव अनन्त कालमें कभी ही मनुष्य जन्म पावे है तब भीलादिक नीच कुलमें उपजा तो क्या हुआ और म्लेच्छ खण्डोंमें उपजा तो क्या हुआ अंर कदाचित् आर्य खण्डमें उत्तम कुलमें उपजा और अंगहीन हुआ तो क्या हुया और सुन्दररूप हुआ और रोगसंयुक्त हुआ तो क्या और सर्व ही सामग्री योग्य भी मिली परन्तु विषपानिलापी होकर धर्म में अनुरागी न भया तो कुछ भी नहीं, इसलिए धर्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, कई एक तो पराये किंकर होकर अत्यन्त दुःख से पेट भरे हैं, कई एक संग्रानमें प्रवेग करे हैं । संग्राम शस्त्रके पातसे भयानक है और रुधिरके कर्दम (की बड़) महा ग्लानि रूप है और कई एक किसाण वृत्ति र क्लेशसे कुटुम्ब का भरण पोषण कर हैं, जिसमें अनेक जीवोंकी बाधा करनी पड़ती है। इस भांति अनेक उद्यम प्राणी करें हैं उसमें दुःख क्लेश ही भोगे हैं, संवारी जीव विषय सुख के अत्यन्त अभिलापी हैं कई एक तो दरिद्रनासे महादुःखी हैं कई एक धन पायकर चोर वा अग्नि वा जल वा राजादिकके भयसे सदा आकुलतारूप रहे हैं और कई एक द्रव्यो भागते हैं परन्तु तृष्णारूप अग्नि के बढ़ से जले हैं के एकको धर्मकी रूचि उपजे है परन्तु उनको दुष्ट जीव संसार ही के मार्गमें डारे हैं परिग्रहथारियोंके वित्तकी निर्मलता कहांसे होय और चिनकी निर्मलता विना धर्मका सेवन कैसे होय जब तक परिग्रहकी आसक्तता है तब तक जीव हिंसा विष प्रवृत्त है और हिसासे नरक. निगोद आदि कयोनिमें महा दुःख भोगे हे संसार भ्रमणका मूल हिंसा ही है और जीव Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ दया मोक्षका मूल है। परिग्रहकं संयोगसे राग द्वेष ही संसारमें दुःखके कारण हैं। कई एक जीव दर्शनमोहके अभावसे सम्यक दर्शनको भी पावे हैं परन्तु चरित्र मोहके उदयसे चारित्रको नहीं धरि सके हैं चारित्रको भी धारिकै वाईस परिषहोंसे पीड़िा होकर चारित्रसे भ्रष्ट होजाय हैं और कै ए: अणुपा भी धार नहीं सके हैं केवल अवत सम्यक्ती ही होय हैं, और संसारके अनन जीव सम्यक्तसे रहित मिथ्यादृष्टि ही हैं, जो मिथ्यादृष्टि हैं वे बार बार जन्म मरण करै हैं, दुःख रूप अग्निस तप्जायमान भव संकटमें पड़े हैं. मिथ्या दृष्टि जीव जीभके लोलुपी हैं और कामालं कसे मलीन हैं क्रोध मान माया लोभमें प्रवृत्ते हैं. और जो पुण्याधिकारी जीव संसार शरीर भोगनसे विरक्त होइकरि शीघ्र ही चारित्रको धारे हैं और निवाहै हैं और संयममें प्रवृत्त हैं, वे महाधीर परम समाधिसे शरीर छोड़कर स्वर्गमें बड़े देव होकर अद्भुत सुख भोगे हैं, वहांसे चार उत्तम मनुष्य होकर मोक्ष पावे हैं, कई एक मुनि तपकर अनुत्तर विमानमें अहिमन्द्र होय हैं तहांत चयकर तीर्थंकर पद पावे हैं, कई एक चक्रवर्ती बलदेव कामदेव पद पावे हैं, कई एक मुनि महातप कर निदान बांध स्वर्गमें जाय वहांसे चयकर बासुदेव होय हैं वे भोगको नाहीं तत्र सके हैं । इस प्रकार श्रीवर्द्धमान स्वामीके मुख से धर्मोपदेश श्रवणकर देव मनष्य तिर्यच अनेक जीव ज्ञानको प्राप्त भये । कई पुरुष र नि भये कई एक श्रावक भए कई एक तिथंच भी श्रावक भए । देव व्रत नहीं धारण कर सके हैं तातें अबतसम्यक्तको ही प्राप्त भए, अपनी अपनी शक्ति अनुसार अनेक जीव धर्म में प्रवर्ते, पाप कर्मके उपार्जनसे विरक्त भए थर्म श्रवणकर भगवानको नमस्कारकर अपने अपने स्थान गए । श्रेणिक महाराज भी जिनवचन श्रवणकर हर्षित होय अपने नगरको गए। अथानन्तर सन्ध्यासमय सूर्य अस होनेको सम्मुख भया अस्ताचलके निकट आया अत्यन्त आरक्ता (सुरखी) को प्राप्त भया किरण मंद भई सो यह बात उचित ही है जब मर्य का अस्त होय तब किरण मंद होय हो होंय जैस अपने स्वामीको आपदा परे तब किसके तेज की वृद्धि रहै । चकवीनक अश्रुपात सहित जे नत्र तिनको देख मानो दयाकर सूर्य अस्त भया भगवानके समवशरणविष सदा प्रकाश ही रहे हैं रात्रि दिनका विचार नाही अर सर्व पृथ्वीविषै रात्रि पड़ी सन्ध्यासमय दिशा लाल भई सो मानो धर्म श्रवणकर प्राणियोंके चित्तसे नष्ट भया जो राग सो सन्ध्याके छलकर दशों दिशानिमें प्रवेश करता भया (भावार्थ) रागका स्वरूप भी लाल होय है अर दिशावि भी ललाई भई अर सूर्यके अस्त होनसे लोगोंके नेत्र देखनेसे रहित भए क्योंकि सूर्यके उदयसे जो देखनेकी शक्ति प्रगट भई थी सो अस्त होनेसे नष्ट भई अर कमल संकुचित भए जैसे बड़े राजाओंके अस्त भये चोरादिक दुर्जन जगतविष परथन हरणादिक कुचेा करें तस सूर्यके अस्त होनेसे पृथ्वीविष अन्धकार फैल गया। रात्रि समय धर फर चम्पेकी कलीके समान जो दीपक तिनका प्रकाश भया, वह दीपक मानो रात्रिरूप स्त्रीके आभूषण ही हैं। कमलके रससे तृप्त होकर राजहंस शयन करते भये अर रात्रिसम्बन्थी शीतल मंद सुगन्ध पवन चलती भई मानो निशा (रात) का स्वास ही है अर अमरोंके Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व समूह कमलोंमें विश्राम करते भये अर जेसे भगवानके वचनोंकर तीन लोकके प्राणो धर्मका साधनकर शोभायमान होय हैं तैपे मनोज्ञ तारोंके ममूहसे आकाश शोभायमान भया अर जैसे जिनेन्द्र के उपदेशसे एकांतवादियों का संशय विलाय जाय तैसे चन्द्रमाकी किरणोंसे अन्धकार बिलाय गया। लोगोंके नेत्रोंको श्रानन्दका करनहारा चन्द्रमा उद्योत समय कम्पायमान भया । मानो अन्धकारपर अत्यन्त कोप भया (भावार्थ) क्रोध समय प्राणी कम्पायमान होय हैं। अन्धकारकर जे लोक खेदको प्राप्त भए थे वे चन्द्रमाके उद्योतकर हर्षको प्राप्त भए अर चन्द्रमाकी किरणको स्पर्शकर कुमुद प्रफुल्लिा भए । इन भांति रात्रि का समय लोकोंको विश्रामका देनहारा प्रगट भया। राजा श्रेणिकको सन्ध्यासमय सामाधिकपाठ करते जिनेन्द्रकी कथा करते करते धनी रात्रि गई, सोनेको उद्यमी भया कैसा है रात्रिका समय, जिसमें स्त्री पुरुषों के हितकी वृद्धि होय है राजाके शयनका महल गंगाके पुलिन (किनारों) समान उज्ज्वल है अर रत्नोंकी ज्योति से अति उद्योत रूप है अर फूलोंकी सुगन्धी जहां झरोखोंके द्वारा आये है अर महलके समीप सुन्दर स्त्री मनोहर गीत गाय रही हैं अर महल के चौगिरद सावधान सामंतोंकी चौकी है पर अति शोभा बन रही है सेजपर अति कोमल विछौने विछ रहे हैं वह राजा भगवानके पवित्र चरण अपने मस्तकपर धारे है अर स्वप्नमें भी बारम्बार भगवान हीका दर्शन करे है पर स्वप्न में गणधर देवसे भी प्रश्न करे है इस भांति सुखसे रात्रि पूर्ण भई पीछे मेघकी ध्वनि समान प्रभातके वादित्र बाजते भए । उनके नादसे राजा निद्रासे रहित भया। प्रभात समय देह क्रिया करि राजा श्रेणिक अपने मनमें विचार करता भया कि भगवान की दिव्य ध्वनिमें तीथंकर चक्रवर्त्यादिके जो चरित्र कहे गये वह मैंने सावधान होकर सुने ! अव श्रीरामचन्द्रके चरित्र सुनने में मेरी अभिलाषा है। लौकिक ग्रन्थों में रावणादिको मांसभक्षी राक्षस कहा गया है परन्तु वे विद्याधर महाकुलवंत कैसे मद्य मांस रुपरादिका भक्षण करें । अर रावणके भाई कुम्भकरणको कहे हैं कि वह छ महीनेकी निद्रा लेता था अर उसके ऊपर हाथी फेरते अर ताते तेलसे कान पूरत तो भी छह महीनासे पहले नहीं जानता अर जब जागता तब ऐसी भूख प्यास लगती कि अनेक हस्ती महिषी (भैसा) आदि तियंच, अर मनुष्योंका भक्षण कर जाता था अर राधि रुधिरका पान करता तो भी तृप्ति नहीं होती थी अर सुग्रीव हनूमानादिकको वानर कहे हैं परन्तु वे तो बड़े राजा विद्याधर थे। बड़े पुरुषों को विपरीत कहने में पापं का बन्ध होय है से अग्नि के संयोग जैसे शीतलता न होय अर तुषार (बर्फ) के संयोग से उष्णता (गरमी) न होय । जलके मंथनसे पीकी प्राप्ति न होय अर बालूरेतके पेलनेसे तेलकी प्राप्ति न होय तैसे महापुरुषोंके चरित्र विरुद्ध सुननेसे पुण्य न होय अर लोक ऐसा कहे हैं कि देवों के स्वामी इन्द्रको रावणने जीता परन्तु यह बात न बने, कहां वह देवोंका इन्द्र अर कहां यह मनुष्य जो इन्द्र के कोप मात्रसे ही भस्म हो जाय, जाके ऐरावत हस्ती, वज्रपा आयुध, जिसकी ऐसी सामर्थ कि सर्व पृथ्वोको वश कर ले, सो ऐसे स्वर्गके स्वामी यह अन्प शक्तिका धनी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण मनुष्य विद्याधर कैसे लाकर बंदीमें डारे, मृगसे सिंहको कैसे बाधा होय ? तिलसे शिलाको पीसना अर गिडोएसे सांपका मारना पर श्वानसे गजेंद्रका हनना कैसे होय, अर लोक कहे हैं कि श्रीरामचन्द्र मृगादिककी हिंसाकरते थे सो यह बात न बने, वे ब्रती विवेकी दयावान् महापुरुष कैसे जीवोंकी हिंसा करें और कैसे अभयका भक्षण करें, और सुग्रीवका बड़ा भाई बालीको कहे हैं कि उसने सुग्रीवकी स्त्री अङ्गीकार करी सो बड़ा भाई जो बाप के समान है कैसे छोटे भाई की स्त्री अङ्गीकार करें, सो यह सर्व बात सम्भवे नाहीं इसलिये गणधर देवको पूछकर श्रीरामचंद्र की यथार्थ कथा श्रवण धारण करू', ऐसा विचार श्रेणिक महाराजने किया बहुरि मनमें विचारे हैं कि नित्य गुरुनिके दर्शन किये धम्मके प्रश्न किये तस निश्चय किए परम सुख होय है । ये आनन्द के कारण हैं ऐसा विचार कर राजा सेजसे उठे अर रानी अपने स्थान गई, कैसी है रानी जिस की कांति लक्ष्मी समान है, महा पतिव्रता र पतिकी बहुत विनयवान है और कैसा हैं राजा जिसका चित्त अत्यन्त धर्मानुरागमें निष्कम्प है। दोनों प्रभाव क्रिया का साधन करते भये अर जैसे सूर्य शरद के वादलोंसे बाहिर यावे तैसे राजा सुफेद कमल समान उज्ज्वल सुगन्ध महल से बाहिर आवते भए, उस सुगन्ध महलमें भंवर गुंजार करे हैं । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराणको भाषाटीकाविषै श्रेणिकने रामचन्द्र रावणके चरित्र सुनने के अर्थ प्रश्न करने का विचार कीया ऐसा द्वितीय अधिकार संपूर्ण भया ॥ २ ॥ तृतीय पर्व आगे राजा सभा में या सर्व आभरण सहित सिंहासन विराजे ताकी शोभा कहिए हैं, हे भव्य ! एकाग्र चित्त करि सुणि । राजा सभा में आकर विराजे अर प्रभात समय जो बड़े बड़े सामन्त आए उनको द्वारपालने राजा का दर्शन कराया, सामंतोंके वस्त्र आभूषण सुन्दर हैं उन समेत राजा हाथी पर चढ कर नगर से समोशरणको चले । आगे बन्दीजन विरद वखानते जाय हैं, राजा समोशरण के पास पहुंचे। कैसा है समोशरण जहां अनंत महिमाके निवास महावीर स्वामी बिराजे हैं, उनके समीप गौतम गणधर निष्ठे है तच्चोंके व्याख्यान में तत्पर अर कांति में चन्द्रमाके तुल्य, प्रकाश में सूर्य के समान, जिनके कर वा चरण वा नेत्ररूपी कमल अशोक वृक्षक पल्लव ( पत्र ) समान लाल हैं पर अपनी शांतता से जगत् को शांति करे हैं, मुनियोंक समूहके स्वामी हैं । राजा दूरसे ही समोशरणको देख करि हाथीसे उतर कर समोशरण में गए, हर्ष फूल रहे हैं मुख कमल जिनके सो भगवान की तीन प्रदक्षिणा दे हाथ जोड नमस्कार कर मनुष्यों की सभा में बैठे ॥ प्रथम ही राजा श्रेणिकने श्रीगणधरदेव को 'नमोस्तु' कहकर समाधान (कुशल) पूछ प्रश्न किया । भगवन् ! मैं रामचरित्र सुनने की इच्छा करू हूं यह कथा जगत में लोगों ने और भांति त्ररूपी है इसलिए हे प्रभो ! कृपाकर संदेहरूप कीचडसे जीवनिको काढो । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पर्व राजा श्रेणिकका प्रश्न सुन श्रीगणथरदेव अपने दांतों की किरणसे जगतको उज्ज्वल करने गम्भीर मेघ की ध्वनि समान भगवान्की दिव्य ध्वनि के अनुसार व्याख्यान करते भए, हे राजा तू सुन, मैं जिन आज्ञा प्रमाण कहूं हूं, जिन वचन ववके कथनमें तत्पर हैं, तू यह निश्चय कर कि रावष राइस नाहीं, मनुष्य है, मांस का अाहारी नहीं, विद्याधरोंका अधिपति है;राजा विनमि के वंशमें उपजा है, लार सुग्रीवादिक बन्दर नहीं, यह बड़े राना मनुष्य हैं, विद्याधर हैं। जैसे नीव विना मंदिर का विना न होय तैसे जिन वचन रूपी मूल विना कथाको प्रमाणता नहीं होय है इसलिए प्रथम ही क्षेत्र कालादिक का वर्णन सुन अर फिर मा पुरुषोंका चरित्र जो पापका विनाशन हारा है सो सुन । ___ लोकालोक, कालचक्र, कुलकर नाभि राजा, और ऋषभदेव और भरतका वर्णन । गौतम स्वामी कहे हैं कि राजा श्रेणिक ! अनन्त प्रदेशी जो अलोकाकाश उसके मध्य सीन वात वलयसे वेष्टित तीनलोक तिष्ठे हैं । तीनलोकके मध्य यह लोक है इसमें असंख्यातद्वीप और समुद्र हैं तिनके बीच लवण समुद्र कर बेढ़ा लक्ष योजन प्रमाण यह जम्बद्रीप है, उसके मध्य सुमेरु पर्वत है वह मूलमें बज्रमणिमयी है अर ऊपर समस्त सुवर्णमयी है अनेक रत्नों से संयुक्त है संध्यासमय रक्तताको धरे है, मेघों के समूह के समान स्वर्गपर्यंत ऊंचा शिखर है। शिखर के और सौधर्म स्वर्गके बीच में एक वालका का अन्तर है । सुमेरु पर्वत निन्यानवे हजार योजन ऊचा है और एक हजार योजन स्कन्द है । अर पृथ्वीविपै तो दश हजार योजन चौड़ा है और शिखर पर एक हजार योजन चौड़ा है मानो मध्य नोक के नापने का दण्ड ही है। जम्बृद्वीपमें एक देवकुरु एक उत्तरकुरु है अर भरत आदि सप्त क्षेत्र हैं पट कु नाच-नोंसे जिनका विभाग है। जम्बू पर शालमली यह दोय वृक्ष हैं जम्बूद्वीपमें चौंतीस विजया पर्वत हैं। एक एक विजयाधर्म एकसारा विद्यायोंकी नगरी हैं एक एक नगरीको कोटि २ ग्राम लगे हैं, अर जम्बूदीप में बत्तीस विदेह एक भरत एक ऐरावत यह चौतीस क्षेत्र हैं एक एक क्षेत्रमें एक एक राजधानी है, अर जम्बूदीपमें गंगा आदिक १४ महानदी हैं अर छह भोगभूमि हैं । एक एक विजयार्धपर्वतमें दोय दोय गुफा हैं सो चौतीस विजियार्धके अडसठ गुफा हैं। षटकुलाचलोंमें अर विजया पर्वतोंमें तथा बक्षार पर्वतोंमें सर्वत्र भगवानके अकृत्रिम चैत्यालय हैं अर जम्बूवृक्ष अर शाल्मली पक्षमें भगवान के अकृत्रिम चैत्यालय हैं जो रत्नोंकी ज्योतिसे शोभायमान हैं । जम्बूद्वीपकी दक्षिण दिशाकी और राक्षसद्वीप है और ऐरावत क्षेत्रकी उत्तर दिशामें गन्धर्व नामा द्वीप है पर पूर्व विदेहकी पूर्व दिशामें वरुण द्वीप है अर पश्चिम विदेहकी पश्चिम दिशामें किन्नर द्वीप है वे चारोंही द्वीप जिन मन्दिरोंसे मण्डित हैं । जैसे एक मासमें शुक्लपक्ष पर कृष्णपक्ष यह दो पक्ष होते हैं तैसेही एक कल्पमें अवसर्पणी अर उत्सर्पणी दोनो काल प्रवृत्ते हैं, अवयर्पणी कालमें प्रथम ही सुखमा सुखमा कालकी प्रवृत्ति होय है, फिर दूसरा सुखमा, तीसरा सुखमा दुखमा, चौथा दुखमासुखमा, पांचवां दुखमा अर छठा दुखमदुखमा प्रतॆ है, तिसके पीछे उत्सर्पणी काल प्रवृते है उसकी श्रादिमें प्रथम ही छठा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुरण काल दुखमादुखमा प्रवृते है फिर पांचवां दुखमा फिर चौथा दुखमासुखमा फिर तीसरा मुखमा दुखमा फिर दूसरा सुखमा फिर पहला सुखमा सुखमा । इसी प्रकार अरहटकी घडी समान अवसर्पणी के पीछे उत्सर्पिणी पर उत्पर्पणीके पीछे अवसर्पणी है, सदा यह काल चक इसी प्रकार फिरता रहता है परन्तु इस कालका पलटना केवल भरत अर अरावत क्षेत्र में ही है, तातें इनमें ही आयु कायादिककी हानि वृद्धि होय है, अर महा विदेह क्षेत्रादिमें तथा स्वर्ग पातालमें अर भोगभूमि आदिकमें तथा सर्व द्वीप समुद्रादिकों कालचक्र नाही फिरता इसलिये उनमें रीति पलट नाही, एक ही रीति रहे है । देवलोकविपै तो सुखमासुखमा जो पहला काल है सदा उसकी ही रीति रहे है । अर उत्कृष्ट भोगभूमिमैं भी सुखमासुखमा कालकी रीति रहे है अर मध्य भोगभूमिमें सुखमा अर्थात् दुजे काल की रीति रहे अर जघन्य भोगभूमिमें सुखमा दुखमा जो तीसरा काल है उसकी रीति रहे है, अर महा विदेह क्षेत्रोंमें दुखमामुखमा जो चौथा काल है उसकी रीति रहे है, अर अढाई द्वीपके परे अन्तके आधे स्वयम्भू रमण द्वीप पर्यन्त बीचके असंख्यात द्वीप समुद्रमें तथा चारों कोण में दुखमा अर्थात् पंचम कालकी रीति सदा रहे है अर नरक में दुखमादुखमा जो छठा काल उसकी रीति रहे है अर भरत रावत क्षेत्रोंमें छहों काल प्रवृत्त हैं। जब पहला सुखासुखमा काल प्रवृत्त है तब यहां देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमि की रचना होय है कल्पवृक्षोंसे मंडित भूमि सुखमयी शोभे है अर मनुष्यनि के शरीर तीन कोस ऊंचे अर तीनपल्य का आयु सब ही मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तियंचनिका होय है अर उगते सूर्य समान मनुष्यकी कांति होय है, गर्व लक्षणपूर्ण लोक शोभे है, स्त्री पुरुष युगल ही उपजे हैं अर साथ ही मरे हैं, स्त्री पुरुषोंमें अत्यन्त प्रीति होय है, मरकर देव यति पावे हैं, भूमि कालके प्रभावंसे रत्न सुवर्णमयी है अर कल्पवृज दश जातिके सर्व ही मनवांछित पूर्ण करे हैं जहां चार चार अंगुल के महा सुगन्ध महामिष्ट अत्यन्त कोमल तृणों से भूमि आच्छादित है सर्व ऋतुके फल फूलोंसे वृक्ष शोभे हैं अर जहाँ हाथी घोड़े गाय भैस आदि अनेक जातिके पशु सुखसे रहे हैं, अर कल्प वृत्तकरि उत्पन्न महामनोहर आहार मनुष्य करे हैं, जहां सिंहादिक भी हिंसक नहीं, मांसका आहार नहीं, योग्य आहार करे हैं, अर जहां वांगी सुवर्ण अर रत्नकी पैडियों संयुक्त कमलोंसे शीमित दुग्ध दही घी मिष्टान्नकी भरी अत्न शोभाको धरे हैं, अर पहाड अत्यन्त ऊचे नाना प्रकार रत्नकी किरणोंसे मनोज्ञ सर्व प्राणिगोंको सुख के देनेवाले पांव प्रकारके वर्ण को धरे हैं, अर जहां नदी जलचरादि जन्तुरहित महारभणीक दुग्ध (दूध ) घी मिष्टान जलकी भरी अत्यन्त स्वादसंयुक्त प्रवाहरूप रहे हैं, जिनके तट रत्ननिकी ज्योतिसे शोभायमान हैं। जहां वेइंद्री तेइंद्री चौइंद्री असैनी पंचेंद्री तथा जलचरादि जीव नहीं हैं, जहां थलवर, नभचर गर्भज तियंच हैं, वहां तिरंच भी युगल ही उपजे हैं, वहां शीत उष्ण वर्षा नाही, तीव्र पवन नाहीं, शीतल मंद सुगन्ध पवन चले हैं और किसी भी प्रकारका भय नहीं, सदा अद्भुत उत्साह ही प्रवर्ते है अर ज्योतिरांग जातिके कल्पवृक्षोंकी ज्योतिसे चांद सूर्य नजर नहीं आते हैं, दश ही जातिके कल्पवृक्ष सर्व ही इन्द्रियों के सुख स्वादके देनेवाले शोभे हैं, जहां खाना, पीना, सोना, बैठना, वस्त्र आभूषण, सुगंधा. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय पर्व दिक सवं ही कल्प वृक्षोंसे उपजे हैं अर भाजन ( वर्तन ) तथा वादित्रादि ( वाजे ) महा मनोहर सर्व ही कल्पवृक्षोंसे उपजे हैं यह कल्पवृत वनस्पति काय नहीं अर देवाधिष्ठित भी नहीं केवल पृथ्वीकाय रूप सार वस्तु हैं, तहां मनुष्यों के युगल ऐसे रमें हैं जैसे स्वर्ग लोकमें देव । या भांति गणथर देवने भोगभूमिका वर्णन किया। ___ आगै राजा श्रेणिक भोगभूमिमें उपजनेका कारण पूछते भए सो गणघर देव कहे हैं कि जैसे भले खेत में बोया बीज बहुतगुणा होकर फले है अर इक्षु में प्राप्त हुआ जल मिय्ट होय है अर गायने पिया जो जल सो दूध होय परिणमे है तैसे व्रतकरडिन परिग्रहरहित मुनिको दिया जो दान सो महा फल को फले है, जो सरलचित्त साधुको आहारादिक दान दे है ते भोगभूमिमें मनुष्य होय हैं अर जैसे निरस क्षेत्र में बोया बीज अल्प फल को प्राप्त होइ अर नींव में गया जल कटुक होय है तैसे ही भोग तृष्णासे जे कुदान कर हैं ते भोगभूमिमें पशु जन्म पावें हैं। भावार्थ-दान चार प्रकारका है एक आहार दान, दूजा औषधदान, तीजा शास्त्रदान चौथा अभयदान । तिसमें मुनि आर्यिका उत्कुष्ट श्रावकोंको भक्तिकर देना पात्रदान है अर गुणों कर माप समान साधर्मीजनोंको देना समदान है अर दुखित जीवको दया भावकर देना करुणादान है : अर सब त्याग करके मुनित्रत लेना सकलदान है। ये दानके भेद कहे । जब वीजे कालमें पल्यका पाठयां भाग बाकी रहा तब कुलकर उपजे । प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति भये तिनके वचन सुनकर लोक आनंदको प्राप्त भये वह कुलकर अपने तीन जन्मको जाने है पर उनकी चेष्टा सुन्दर है पर वह कर्म भूमिके व्यवहारक उपदेशक हैं अर तिनके पीछे सहस्र कोडि असंख्यात वर्ष गये दूजा कुलकर सन्मति भया तिनके पीछे तीसरा कुलकर क्षेमंकर चौथा क्षेमंथर पांचवां सीमकर छठा सीमंधर सातवां विमलवाहन पाठवां चक्षुष्मान् नवां यशस्वी दशवां अभिचंद्र ग्यारवां चंद्राभ बारहवां मरुदेव तेरहवा प्रसनजित चौदहवा नाभि राजा । यह चौदह कुलकर प्रजाके पिता समान महा बुद्धिमान शुभ कर्मसे उत्पन्न भये । जव ज्योतिरांग जातिके कल्पवृक्षोंकी ज्योति मंद भई अर चादसूर्य नजर आये जिनको देखकर लोग भयभीत भये । कुलकरको पूछते भये-हे नाथ ! यह आकाशमें क्या दीखे है तब कुलकरन कहा कि अव भोमभूमि समाप्त हुई कर्म भूमिका आगमन है । ज्योतिरांग जातिके कल्पवृक्षों की ज्योति मंद भाई है इसलिये चांदमूर्य नजर आए हैं। देव चार प्रकारके हैं। कल्पवासी भवनवासी व्यंतर अर ज्योतिषी । तिनमें चांद सूर्य ज्योतिषियोंके इंद्र प्रतींद्र हैं चन्द्रमा तो शीतकिरण है अर सूर्य उष्णकिरण हैं । जब सूर्य अस्त होय है तब चंद्रमा कांतिको धरे है अर आकाशविर्ष नक्षत्रोंके समूह प्रगट होय हैं सूर्यकी कान्तिसे नक्षत्रादि नहीं भासे हैं। इसी प्रकार पहिले कल्पवृक्षों की ज्योतिसे चन्द्रमा सूर्यादिक नहीं भासते थे अब कल्पवृक्षोंकी ज्योति मंद भई इसलिये. भासे है। यह कालका स्वभाव जानकर तुम भयको तजो यह कुलकरका बचन सुनिकर तिनका भय निवृत्त भथा। ... अथानंतर चौदहवें कुलकर श्रीनाभि.राजा जगत् पूज्य.तिनके समयमें सब ही कम्पपक्षों Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पम-पुराण का अभाव भया पर युगल उत्पत्ति मिटी ते ही उत्पन्न भए तिनके मरुदेवी राणी मनको हरणहारी उत्तम पतिव्रता जैसे चन्द्रमाके रोहिणी, समुद्र के गंगा, राजहंसके हंसनी तैसे यह नाभि राजाके होती भई, वह राणी राजाके मन में बसे है उसकी हंसिनी कैसी चाल अर कोयल कैसे वचन हैं । जैसे चकवीकी चकवेसों प्रीति होय है तैसे राणाकी राजासों प्रीति होती भई । राणीकू क्या उपमा दी.जाय जो उपमा दी जाय वह पदार्थ राणीसे न्यून दीखे है, सर्व लोकपूज्य मरुदेवी जैसे धर्मके दया होय तैसे त्रैलोक्य पूज्य जो नाभिराजा उसके परमप्रिय होती मई, मानो यह राणी आतापकी हरणहारी, चन्द्रकला ही कर निरमापी (बनाई) है, आत्मस्व रूपकी जाननहारी सिद्ध पदका है ध्यान जिसको त्रैलोक्यकी मातापुण्याधिकारणी मानो जिनवाणी ही है अर अमृनका स्वरूप तृष्णाकी हरणहारी मानो रत्नवृष्टि ही है, सखियोंको आनन्दकी उपजावनहारो महा रूपवती कामकी स्त्री जो रति उससे भी अति सुन्दरी है, महा आनन्दरूप माता जिनका शरीर हो सर्व आभूषण है जिसके नेत्रोंके समान नील कमल भी नाहीं अर जाके केश भ्रमरोंसे भी अधिक श्याम, वह केश ही ललाट का शृंगार हैं यद्यपि इनको आभूषणों की अभिलाषा नहीं तथापि पतिकी आज्ञा प्रमाण कर कर्णफूलादिक आभूषण पहिरे हैं जिनके मुखका हास्य ही सुगंधित चूर्ण है उन समान कपूरकी रज़ कहा पर जिनकी वाणी वीणाके स्वरको जीते है उनके शरीरके रङ्ग के आगे स्वर्ण कुंकुमादिकका रङ्ग कहा ? जिनके चरणारविन्द पर भ्रमर गुंजार कर हैं, नाभिराजा करि सहित मरुदे। राणोके यशका वर्णन सैकड़ों ग्रंथों में भी न हो सके तो थोड़े। श्लोकों में कैसे होय ? जब मरुदेवी के गर्भ में भगवान् के आगमन के छह महिना बाकी रहे सब इन्द्रकी प्राज्ञामे छप्पन कुमारिका हर्षकी भरी माताकी सेवा करती भई अर १ श्री २ ही ३ धृति ४ कीर्ति ५ बुद्धि ६ लक्ष्मी यह पट (६) कुम रिका स्तुति करती भई-हे मात ! तुम आनन्दरूप हो हमको आज्ञा करो तुमारी आयु दीर्घ होवे इस भांति मनोहर शब्द कहती भई अर नाना प्रकार की सेवा करती भई, कई एक बीण बजाय महा सुन्दर गान कर माता को रिझारती भई अर कई एक आसन निछावती भई अर कई एक कोमल हाथोंसे माता के पांव पलोटती भई, कई एक देवी माता को तांबूल (पान) देती भई, के एक ख्ड्ा हाथमें धारण कर माताकी चौकी देती भई, कैएक वाहरले द्वार में सुवर्णके आसे लिये खड़ी होती मई अर केएक चवर ढोरती भई, कई एक भाभूषण पहरावती भई, कई एक सेज विछावती भई, कैएक स्नान करावती भई, कई एक प्रांगन बुहारती भई, कैएक फूलोंके हार गूथती भई, कई एक सुगन्ध लगावती भई, कई एक खाने पीने की विधि में सावधान होती भई । कई एक जिसको बुलावे उसको बुलावती भई । इस भांति सर्व कार्य देवी करती भई, माताकू काहु प्रकार की भी चिन्ता न रहती भई। एक दिन माता कमल सेज पर शयन करती हुई, उसने रात्रिके पिछले पहर अत्यन्त कल्याणकारी सोलह स्वप्न देखे १ पहले स्वप्नमें ऐसा चन्द्र समान उज्ज्वल मद भरता गाजता हाथी देखा जिसपर भ्रमर गंजार करे हैं। २ दूजे स्वप्नमें शरदके मेष समान उज्ज्वल धवल Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. तृतीय पर्व दहाड़ता हुआ बैल देखा जिसके बड़े बड़े कन्धे हैं । ३ तीसरे स्वप्नमें चन्द्रमाकी किरण समान सफेद केशोंवाला विराजमान सिंह देखा ४ चौथे स्वप्न में लक्ष्मीको हाथी सुवर्णके कलशों से स्नान कराबते देखे, वह लक्ष्मी प्रफुल्लित कमलपर निश्चल विष्ठे है : ५ पांचवें स्वप्नमें दो पुष्पोकी माला आकाशमें लटकती हुई देखीं जिनपर भ्रमर गुजार कर रहे हैं । ६ छठे स्वप्नमें उदयाचल पर्वतके शिखरपर तिमिरके हरणहारे मेघपटलरहित सूर्यकू देखा । ७ सातवें स्वप्नमें कुमुदिनीयो प्रफुल्लित करणहारा रात्रिका आभूषण जिसने किरणांसे दशोंदिशा उज्ज्वल करी हैं ऐसा तारों का पति चन्द्रमा देखा । ८ आठवें स्वप्न में निर्मल जलमें कलोल करते अत्यन्त प्रेमके भरे हुवे महा मनोहर मीन युगल (दो मच्छ) देखे । 8 नवमें स्वप्न में जिनके गलेमें मोतियोंके हार अर पुष्पोंकी माला शोभायमान है ऐसे पंच प्रकारके रत्नोंकर पूर्ण स्वर्णके कलश दखे अर १० दशवें स्वप्न में नाना प्रकार के पक्षियोंसे संयुक्त कमलोंकर मंडित सुन्दर सिवाण ( पौडी ) कर शोभित निर्मल जलकर भरा भहा सरोवर देखा । ११ ग्यारहवें स्वप्न में आकाशके तुल्य निर्मल समुद्र देखा जिसमें अनक प्रकारके जलचर केलि करें हैं अर उमङ्ग लहरें उठे हैं । १२ बारहवें स्वप्नमें अत्यंत ऊंचा नाना प्रकारके रन्नोंकर जड़िा स्वर्णका सिंहासन देखा । १३ तेरहवे स्वपमें देवताअ.के विमान आते देखे जो सुमेरुके शिखर समान अर रत्नोंकर मंडित चामरादिकसे शामिल हैं। अर १४ चौदहवें स्वप्न में धरणींद्रका भवन देखा कैसा है भवन ? जाके अनेक खण (मंजिल) हैं अर मोतियोंकी मालाकर मंडित रत्नोंकी ज्योतिकर उद्योत मानो कल्पवृक्षकर शोभित है। १५ पंद्रहवे स्वप्ने में पंच वर्णके महा रत्ननिकी राशि अत्यंत ऊंची देखी जहां परस्पर रत्नोंकी किरणों के उद्योतसे इन्द्रधनुप चह रहा है । १६ सोलह स्वप्न में निर्धम अग्नि ज्वालाके समूहकरि प्रज्वलित देखी । अथाननार सुन्दर हे दर्शन जिनिका ऐसे सोलह स्वप्न देखकर मंगल शब्दनि श्रवणकरि माता प्रयोग प्राप्त भई । तिन मंगल शब्दनिका कथन सुनहु । सखी जन कहे हैं-हे देवी ! तेरे मुखरूप चन्द्रमाकी कान्तित लज्जावान हुआ जो यह निशाकर (चन्द्रमा) सो मानो कांतिकर रहित हुआ है अर उदयाचल पर्वतके प्रस्तकपर सूर्य उदय होनेको सन्मुख भया है मानो मंगलके अर्थ सिंदूरसे लिप्त स्वर्णका कलश ही है अर तुम्हारे सुख की ज्योतिसे अर शरीरकी प्रभासे तिमिरका क्षय हुआ मानो इससे अपना उद्योत वृथा जान दीपक मंद ज्योति भये हैं अर ये पक्षियोंके समूह मनोहर शब्द करें हैं मानो तिहारे अर्थ मंगल • पढे हैं अर जो यह मन्दिरमें बाग हे तिनके वृक्षोंके पत्र प्रभातकी शीतल मंद सुगन्ध पवनसे हालें हैं अर मन्दिरकी वापिकाम सूपक बिम्बके विलोकनसे चकवी हर्षित भई मिष्ट शब्द करती संती चकवेको बुलाब हैं और यह हंस तेरी चाल देखकर अतिप्राभलाषावान हर्षित होय महामनाहर शब्द कर है अर सारसांक समूहका सुन्दर शन्द होय रहा है । इसलिये हे देवी! अब रात्रि पूर्ण भई तुम निद्राको तजो। यह शब्द सुनकर माता सेजसे उठी। कैसी हैं सेज ? बिखर रहे हैं कल्प वृक्के फूल भर मोती जाविषे, मानो वारानिकरि संयुक्त आकाश ही है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराणे... मरुदेवी माता सुगन्ध महलसे बाहर आई र सकल प्रभातकी क्रियाकर जैसे सूर्यकी प्रभा सूर्य के समीप जाय तैसे नाभिराजा के समीप गई, राजा देखकर सिंहासनसे उठे राखी वराबर आय बैठी, हाथ जोडकर स्वप्ननिके समाचार कहे तव राजाने कहा - हे कल्याणरूपिणी ! तेरे त्रैलोक्यका नाथ श्री आदीश्वर स्वामी प्रगट होइगा । यह शब्द सुनकर कमलनयनी चन्द्रवदनी परमहर्षको प्रप्स भई अर इन्द्र की आज्ञासे कुवेर पंद्रह महीनातक रत्नों की वर्षा करते भये | जिनके गर्भ में आये छै मास पहिलेसे ही रत्नोंकी वरषा भई इसलिये इन्द्रादिक देव saat हिरण्यगर्भ ऐसा नाम कहि स्तुति करते भए अर तीन ज्ञानकर संयुक्त भगवान माता के गर्ममें आय विराजे माता को किसी प्रकारकी भी पीडा न भई । 1 २४० जैसे निर्मल स्फटिकके महलसे बाहिर निकसिये तैसे नवमे महीने ऋषभदेव स्वामी गर्भसे बाहिर आए तब नाभिराजने पुत्रके जन्मका महान उत्सव किया, त्रैलोक्य के प्राणी अति हर्षित भए, इन्द्र के कासन कम्पायमान भए र भवनवासी देवके बिना बजाए शंख बजे अर व्यन्तरोंके स्वयमेव ही ढोल बाजे और ज्योतिषीदेवों के अकस्मात् सिंहनाद बाजे र कल्पवासियों के बिना बजाये घंटा बाजे, या भांति शुभ चेष्टायों सहित तीर्थंकर देवका जन्म जोन इन्द्रादिक देवता नाभिराजाके घर आये, कैसे हैं इन्द्र औरावत हाथी पर चढे है अर नाना प्रकार के आभूषण पहरे हैं, अनेक प्रकार के देव नृत्य करते भये देवाक शब्दसे दशो दिशा गुंजार करती भई, अयोध्यापुरीकी तीन प्रदक्षिणा देय कर राजा के आंगन में आये, कैसी है अयोध्या ? धनपातेने रची: है, पर्वत के समान ऊंचे कोटसे मंडित हैं जिसकी गम्भीर खाई है अर जहां नाना प्रकार के रत्नोंके उद्योत से घर ज्योति रूप होय रहे हैं । तब इन्द्रने इन्द्राणीकू भगवान्के लावनेकों माता के पास भेजी, इन्द्राणी जाय नमस्कार कर मायामई बालक माताके पास रखकर भगवान्को लाइ इन्द्र के हाथ में दिया । भगवानका रूप त्रैलोक्यके रूपको जीतने वाला है । इन्द्रने हजार नेत्र से भगवानके रूपको देखा तो भी तृप्त न भया । बहुरि भगवानकू सौधर्म इन्द्र गोदमें लेय हस्ती पर चढे, ईशान इन्द्रने छत्र धरे, अर सनत्कुमार महेंन्द्र चमर ढोरते भये अन्य देव जय जयकार शब्द उच्चारते भए फिर सुमेरु पर्वत के शिखर पर पांडुक शिला पर सिंहासन ऊपर पधारे। अनेक बाजों का शब्द होता भया जैसा समुद्र गरजे अर यक्ष किन्नर गंधर्व तु बरु नारद अपनी स्त्रियों सहित गान करते भए, कैसा है वह गान मन र श्रोत्र (कान) का हरणहारा है, जहां बीन यदि अनेक वादत्र वाजते भए, अप्सरा हाव भावकर नृत्य करती भई अर इन्द्र स्नानके अर्थ क्षीरसागर के जलसे स्वर्ण कलश भर अभिषेक करनेको उद्यमी भए, कैसे हैं कलश, जिनका मुख एक योजना है अर चार योजनका उदर है आठ योजन ओडे अर कमल तथा पल्लवसे ढके हैं जैसे कलशोस इन्द्रन कामषेक कराया, विक्रियां ऋद्धि की समर्थतास इंद्रने अपने अनेक रूप किये इंद्रोंके लोकपाल सोम वरुण यम कुवेर सर्व ही अभिषेक करावते भए, इन्द्राणी आदि देवी अपने हाथोंसे भगवानके शरीरपर सुगंध का लेपन करती भई । कैसी है इन्द्राणी, पल्लव (पत्र) समान हैं कर जाके, महागिरि समान जो भगवान तिनको भष समान कलरास अपेक कराया, • Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पर्व गहना पहरावनेका उद्यम किया, चांद सूर्य समान दोय कुण्डल कानों में पहराये पर पद्मराग मणिके आभूषण मस्तकविष पहराए, जिनकी कांति दशों दिशाविप प्रगट होती भई अर अर्धचन्द्राकार ललाट (माथा) विष चंदनका तिलक किया अर दोनों भुजानिवि रत्नोंके बाजवंद पहराए अर श्रीवत्सलक्षण कर युक्त जो हृदय उस पर नक्षत्र माला समान मोतियोंका सत्ताईस लडीका हार पहराया अर अनेक लक्षणके धारक भगवानको महा मणिमई कडे पहराये पर रत्नमयी कटिसूत्रसे नितम्ब शोभायमान भया जैसा पहाड़का तट सांझकी बिजली कर शोभै पर सर्व अंगुरियोंविष रत्न जडित मुद्रिका पहराई । इस भांति भक्तिकरि देवियोंने सर्व ग्राभूपण पहराए सो त्रैलोक्यके आभूषण जो श्रीभगवान तिनके शरीरकी ज्योनिसे आभूषण अत्यन्न ज्योतिको धारते भए, अर आभूषणों करि आपके शरीर की कहा शोभा होय, अर कल्पवृक्षके फूलोंसे युक्त जो उत्तरासन सो भी दिया, जैसे तारानिसे आकाश शोभे है तेथे पुष्पन कर यह उत्तासन शोभ है वहुरि पारिजातसन्तानकादिक जे कल्पवृक्ष तिनके पुष्पनिकरि सेहरा रचा सिर पर पधराया जापर भ्रमर गुंजार करे हैं। इस भांति त्रैलोक्य भूषणको आभूषण पाराय इन्द्रादिक देव स्तुति करते भए । हे देव ! कालके प्रभावकरि नष्ट हो गया है धर्म जाविप ऐसा यह जगत् महा अज्ञान अन्धकार करि भरया है इस जगतमें भ्रमण करते भव्य जीवोंके मोह तिमिरके हरणेको तुम सूर्य ऊगे हो। हे जिनचंद्र ! तुम्हारे व वनरूप किरणोंसे भव्य जीवरूपी कुमुदिनीकी पंक्ति प्रफुल्लित होगी, भव्योंको तत्चके दिखावनेके अर्थ इस जगरूप घरमें तुम केवलज्ञानमयी दीपक प्रकट भये हो अर पापरूप शत्रु ओंके नाशने के लिये मानो तुम तीक्ष्य वाण ही हो अर तुम ध्यानाग्नि कर भव अटवी (जंगल) को भस्म करणेवाले हो अर दुष्ट इन्द्रियरूप जो सर्प तिनके वशीकरणके अर्थ तुम गरूडरूप हो अर संदेहरूप जे मेघ उनके उडावनेको महा प्रबल पवन ही हो, हे नाथ ! भव्य जीव रूपी पपैए तिहारे धर्मामृत रूप वचनके तिमाए तुमहीको महा मेघ जानकर सन्मुख भए देखे हैं तुम्हारी अत्यन्त निर्मल कीर्ति तीनलोकमें गाई जाती है, तुम्हारे ताई नमस्कार हो, तुम कल्पवृक्ष हो गुणरूप पुष्पोंसे मण्डित मन बांछित फलके देनहारे हो, कर्मरूप काष्ठके काटनेको तीक्षण धारके धारणहारे महा कुठाररूप हो तातें हे भगवन् ! तुमारे अर्थ हमारा बार बार नमस्कार होहु । अर मोह रूप पर्वतके भंजिवेको महा धज्ररूप हो अर दुःखरूप अग्निके बझावने को जल रूप ही हो, या अर्थ बारम्बार तुमको नमस्कार करू हूँ। हे निर्मलस्वरूप ! तुम कर्मरूप रजके संगसे रहित केवल आकारास्वरूप ही हो । इस भांति इन्द्रादिदव भगवान्की स्तुति कर बारम्बार नमस्कार कर, ऐरावत गज पर चढ़ाय अयोध्यामें लावनेको सन्मुख भए । अयोध्या आय इन्द्र माताकी गोदविषै भगवानको मेलि (स्थापन कर) परम आनन्दित हो तांडव नृत्य करते भए । इस भांति जन्मोत्सव कर देव अपने अपने स्थानकको गए। माता पिता भगवान को देखकर बहुत हर्षित भये । कैसे हैं श्रीभगवान ? अद्भुत आभूषणसे विभूषित हैं अर परम सुगन्धके लेपसे चरचित हैं अर सुन्दर चारित्र हैं जिनके शरीरकी कांतिसे दशों दिशा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पद्म पुराण प्रकाशित हो रही हैं महा कोमल शरीर हैं । माता भगवानको देखकर महा हर्षको प्राप्त भई अर कहने में न आवे सुख जिसका ऐसे परमानन्द सागरमें मग्न भई । वह माता भगवान को गोद में लिये ऐसी शोभती भई जैसे उगते सूर्य्यसे पूर्व दिशा शोभे । त्रैलोक्य के ईश्वरको देख नाभिराजा आपको कृतार्थ मानते भए, पुत्रके गात्रको स्पर्शकर नेत्र हर्षित भए, मन आनन्दित भया समस्त जगविषै मुख्य ऐसे जे जिनराज तिनका ऋषभ नाम थर माता पिता सेवा करते भए । हाथ के अंगुष्ठ इन्द्रने अमृत रस मेला उसको पानकर शरीरवृद्धिको प्राप्त भये । प्रभुकी वय (उमर) प्रमाण इन्द्रने देवकुमार रक्खे उन सहित नि:पाप क्रीडा (खेल) करते भये कैसी है वह क्रीडा ? माता पिताको सुखकी देनहारी है ॥ अथानंतर भगवान के आसन शयन सवारी वस्त्र आभूषण अशन पान सुगंधादि विलेपन गीत : नृत्य वादित्रादि सर्व सामग्री देवोपनीत होती भई । थोड़े ही काल में अनेक गुणोंकी वृद्धि होती भई । रूप उनका अत्यन्त सुन्दर जो वर्णनमें न आवे, मेरुकी भीति समान महा उन्नत महा दृढ़ वक्षस्थल शोभा भया अर दिग्गजके थंभ समान बाहु होती भई, कैसी है वह बाहु जगतके अर्थ पूर्ण करनेको कल्प वृक्ष ही है और दाऊ जंघां त्रैलोक्य घरके थांभवेको थंभ ही हैं और मुख महा सुन्दर मनोहर जिसने अपनी कांतिसे चन्द्रमाको जीता है अर दीप्तिसे जीता है सूर्य जिसने अर दोऊ हाथ कोंपल से भी अति कोमल घर लाल हथेली पर केश महा सुन्दर सघन दीर्घ वक्र पतले चीकने श्याम हैं मानो सुपेरुके शिखरपर नीलाचल ही विराजे है। र रूप महा अद्भुत अनुपम सर्वलोक के लोचनको प्रिय जिसपर अनेक कामदेव वारे जानें सर्व उपमाको उलंघें सर्वका मन र नेत्र हरे इस भांति भगवान कुमार अवस्थामें भी जगतको सुखदायक होते भए । उस समय कल्पवृक्ष सर्वथा नष्ट भये पर बिना वाहे धान अपने आप ही उगे उनसे पृथिवी शोभती भई अर लोक निपट भोले पट कर्मसे अनजान उन्होंने प्रथम इतु रसका आहार किया वह आहार कांतिके वीर्यादिकके करनेको समर्थ है । कै एक दिन पीछे लोगोंको क्षुधा वधी जो इक्षुरससे तृप्ति न भई तब लोक नाभिराजाके निकट आए नमस्कार कर विनती करते भये कि हे नाथ ! कल्पवृक्ष समस्त तय हो गये अर हम क्षुधा तृपाकर पीडित हैं तुमारे शरण आए हैं तुम रक्षा करो, यह कितनेक फलयुक्त वृक्ष पृथ्वीवर प्रगट भये हैं इनकी विधि हम जानते नहीं हैं, इनमें कौन भक्ष्य है कौन अभक्ष्य है, अर गाय भैसके थनोंसे कुछ भरे है पर वह क्या है और यह व्याघ्र सिंहादिक पहले सरल थे अवतारूप दीखे हैं र यह महामनोहर स्थलपर अर जल में पुष्प दीखे हैं सो का है ? हे प्रभु ! तुमारे प्रसादकर आजीविकाका उपाय जानें तो हम सुखग्यों जीवें । यह वचन प्रजाके सुनकर नाभिराजाको या उपजी नाभिराजा महाधीर तिनकों कहते मये कि इस संसार में ऋषभदेव समान पर कोई भी नाहीं जिनकी उत्पत्ति में रत्नोंकी वृष्टि र इन्द्रादिक देवोंका आगमन भया, लोकोंको हर्ष उपजा, वह भगवान महा अतिशय संयुक्त हैं तिनके निकट जागकर हम तुम आजीविकाका उपाय पूछें, भगवानका ज्ञान मोह तिमिरके अन्त तिष्ठा है । प्रजासहित नाभिराजा भगवान के समीप गये Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पर्व अर समस्त प्रजा नमस्कार कर भगवानको स्तुति करती भई, हे देव ! तुम्हारा शरीर सर्वलोक को उलंघकर तेजोनय भासे है सर्व लक्षण सम्पूर्ण महाशोभायमान हैं अर तुम्हारे अत्यन्त निर्मल गुण सर्व जातमें व्याप रहे हैं वे गुण चन्द्रमा, हिरण समान उज्मल महा अानन्दके करणहार हैं । हे प्रभु ! हम कार्ग के अर्थ तुम्हारे पिताके पास आए थे सो यह तुम्हारे निकट लाये हैं। तुम महापुरुष महा बुद्धिमान महा अतिशयकर मंडिा हो जो ऐसे बड़े पुरुष भी तुमको सेवे हैं इसलिये तुज दालु हो हमारी रक्षा करो। क्षुधा. तृपा हरनेका उपाय कहो अर जिसमें सिंहादिक ऋर जीवोंका भी भय मिटे सो उपाय बताओ । तब, भगवान कृपानिधि कोमल है हृदय जिनका. इन्द्रको कर्म भूमिकी रीति प्रगट करने की आज्ञा करते भए प्रथम नगर ग्रान गृहादिककी रचना भई अर जे मनुष्य शूरवीर जाने तिनको वृत्रिय वर्ण ठहराए अर उनको यह प्राज्ञा भई कि तुम दीन अनाथों की रक्षा करो । कै एकनको वाणिज्यादिक कर्म बताकर वैश्य ठहराए अर जो सेवादिक अनेक कर्म करनेवाले उनको शूद्र ठहराए, इस भांति भगवानने किया जो यह कर्मभूमि रूप युग उसको प्रजा कृतयुग (सत्ययुग) कहते भए अर परम हर्षको प्राप्त भए । श्रीऋषभदेवके सुनन्दा अर नन्दा यह दो राणी भई, बड़ा राणीके भरतादिक सौ पुत्र अर एक ब्राह्मी पुत्री भई अर दूसरी राणीके बाहूबल एक पुत्र अर सुन्दरी एक पुत्री भई इतनकार भगतानने त्रसठ लाख पूर्वकाल राज किया अर पहले बीस लाख पूर्व कुमार रहे इस भांति तिरासी लाख पूर्व गृहमें रहे । एक दिन नीलांजना अप्सरा नृत्य करती करती विलाय (मर) गई उसको देखकर भगवानकी बुद्धि वैराग्यमें उत्तर भई । वह विचारने लगे कि यह संसारके प्राणी वृथा ही इन्द्रियोंको रिझाकर उन्मत चरित्रोंकी विडंबना करे हैं, अपने शरीरको खेदका कारण जो जगत की चेष्टा उससे जगत जीव सुख माने हैं इस जगतमें कई एक तो पराधीन चाकर होय रहे हैं कई एक आपको स्वामी मान तिनपर आज्ञा करे हैं जिनके वचन गवसे भरे हैं। धिकार है इस संसारको, जिसमें जीव दःख ही भोगे हैं अर दखहीको मुख मान रहे हैं तातें मैं जगत विषै सुखोंको तजकर तप सयमादि शुभ चेष्टा कर मोक्ष मुबकी प्राप्ति के अर्थ यत्न करू । यह विषय सुख क्षणभंगुर है अर कर्मके उदयसे उपजे है इसलिए कृत्रिम (नावटी) है इस भांति श्रीऋषभदेवका मन वैराग्य चिन्तवनमें प्रवरता तब ही लौकांतिक देव प्राय स्तुते करते भए कि हे नाथ ! तुमने भली विचारी । लोक्यमें कल्याणका कारण यही है, भरतक्षेत्रमें मोक्षका मार्ग विच्छेद भया था सो आपके प्रसादसे प्रवरतेगा, यह जीव तुम्हारे दिखाए मार्गसे लोकशिखर अर्थात् निर्वाणको प्राप्त होंगे, इस भांति लोकांतिक देव स्तुतिकर अपने थाम गये अर इंद्रादिक देव आयकर तपकल्याणकका समय साधते भये । रत्नजडित सुदर्शन नामा पालिकीमें भगवान को चढाया । कैसी है वह पालकी, कल्पवृक्षके फूलोंकी मालासे महा सुगन्धित है, अर मोतिनके हारोंसे शोभायमान है, भगवान उसपर चढकर घरसे बनको चले, नाना प्रकारके वादित्रोंके शब्द अर देवोंके नृत्यसे दशों दिशा शब्द रूप भई। इसप्रकार महा विभूति संयुक्त तिलकनामा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण उद्यानमें गए । माता पितादिक सर्व कुटुम्बसे क्षमा भाव कराकर अर सिद्धोंको नमस्कार कर मुनिपद अंगीकार किया, समस्त वस्त्र आभूषण तजे अर केशोंका लौंच किया। वह केश इंद्रने रत्नोंके पिटारेमें रखकर क्षीरसागर में डारे । भगवान जब मुनिराज भए, तब चार हजार राजा मुनिपदको न जानते हुवे केवल स्वामी की भक्तिके कारण नग्नरूप भए । भगवानने छः महीने पर्यत निश्चल कायोत्सर्ग धरा अर्थात् सुमेरु पवत समान निश्चल होय तिष्ठे अर मन पर इंद्रियोंका निरोध किया। __ अथानन्तर कच्छ महाकच्छादिक राजा जो नग्न रूप धार दीक्षित भए हुते वह सर्व हो चा था तृषादि परीपहनिकरि चलायमान भए, कई एक तो परीषहरूप पवनके मारे भूमि पर गिर पड़े, कई एक जो महा बलवान हुते वे भूमि पर न पड़े परन्तु बैठ गये, कई एक कायोत्सर्गको तज क्ष धा तपासे पीड़ित फलादिके आहारको गये, अर कई एक गरमीसे तपतायमान हो शीतल जलमें प्रवेश करते भए, उनकी यह चेटा देखकर आकाश में देववाणी भई कि-मुनिरूप धारकर तुम ऐसा काम मत करो, यह रूप धार तुमको ऐसा कार्य करना नरकादिक दुखनिका कारण है । तब वे नग्न मुद्रा तजकर बकल धारते भए, कई एक चरमादि धारते (पहनते) भये, के एक दर्भ ( कुशादिक ) धारते भए अर फलादिसे क्षधाको, शीतल जलसे तृपाको निवारते भये, इस प्रकार यह लोग चारित्र भ्रष्ट होकर अर स्नेच्छाचारी बनकर भगवानके मतसे पराङमुख होय शरीरका पोषण करते भए। किसीने पूछा कि तुम यह कार्य भगवानकी आज्ञासे करो हो वा मन ही से करो हो, तव तिन्होंने कहा कि भगवान तो मौन रूप हैं, कुछ कहते नाही, हम क्षधा तृषा शीत उष्ण से पीड़ित होकर यह कार्य करे हैं, बहुरि कई एक परस्पर ( आपसमें) कहते भए कि आओ गृहमें जायकर पुत्र दारादिकका अवलोकन करें तब उनमेंसे किसीने कहा जो हम घरमें जावेंगे तो भरत घर में से निकासि देइर्गे अर तीव्र दण्ड देंगे इसलिये घर नहीं जायें, तब वन ही में रहे, इन सबमें महामानी मारीच भरतका पुत्र भगवानका पोता भगवे वस्त्र पहन कर परिवाजिक [सन्यासी] मार्ग प्रगट करता भया। अथानन्तर कच्छ महाकच्छके पुत्र नमि विनमि आयकर भगवानके चरणोंमें पड़े अर कहने लगे कि हे प्रभु! तुमने सबको राज दिया हमको भी दीजे इस भांति याचना करते भए। तब धरणीन्द्रका आसन कंपायमान भया । धरणीन्द्रने आयकर इनको विजयाधका राज दिया। कैसा है वह विजया पर्वत भोगभूमिके समान है, पृथिवी तलसे पञ्चीस योजन ऊंचा है अर सवा छै योजनका कंद है अर भूमिपर पचास चोजन चौड़ा है अर भूमितें दश योजन ऊ'चे उठिये तहां दोय श्रेणी हैं एक दक्षिण श्रेणी एक उत्तर श्रेणी । इन दोनों श्रेणियोंमें विद्याधर बसे हैं दक्षिण श्रेणीकी नगरी पचास पर उत्तर श्रेणीकी साठ । एक एक नगरीको कोटि कोटि ग्राम लगे हैं अर दश योजनसे बहुरि ऊपर दश योजन जाइये तहां गन्धर्व किन्नर देवोंके निवास हैं अर पांच योजन ऊपर जाइए तहां नव शिखर हैं उनमें प्रथम सिद्धकूट उसमें भगवानके अकृत्रिम पैत्यालय हैं अर देवोंके स्थान है, सिद्धकूट पर चारण मुनि आयकर ध्यान धरै हैं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चौथा पत्र विद्याधरोंकी दक्षिण श्रेणीकी जो पचास नगरी हैं उनमें रथनपुर मुख्य है पर उत्तर श्रेणीकी जो साठ नगरी हैं उनमें अलकावती नगरी मुख्य है । कैसा है वह विद्याधरनिका लोक स्वर्ग लोक समान है सुख जहां सदा उत्साह ही प्रवृत्ते हैं, नगरीके बड़े बड़े दरवाजे, अर कपाट युगल, अर सुवर्णके कोट, गंभीर खाई, अर वन उपवन वापी कूप सरोवरादिसे महा शोभायमान हैं। जहां सर्व ऋतुके धान पर सर्व ऋतुके फल फूल सदा पाइए है जहां सर्व कामका साधन है, सरोवर कमलोंसे भरे जिनमें हंस क्रीड़ा करे हैं अर जहां दधि दुग्ध घृत मिष्टानोंके झरने बहे हैं । कैसी हैवापी जिनके मणि सुवर्णके सिवाय (पँडी) हैं यर कमलके मकरन्दोंसे शोभायमान हैं, जहां कामधेनु समान गाय हैं और पर्वत समान अनाजके ढेर हैं और मार्ग धूल कंटकादि रहित हैं, मोटे वृक्षोंकी छाया है महामनोहर जलके निवाण है। चौमास में मेघ मनवांछित बरसे हैं अर मेघोंकीं आनन्दकारी ध्वनि होय हैं, शीत कालम शीतकी विशेष बाधा नाहीं अर ग्रीष्म ऋतु में विशेष श्राताप नाहीं, जहां बैँ ऋतुके विलास हैं, जहां स्त्री आभूषण मंडित कोमल अंगवाली हैं अर सर्व कलानिमें प्रवीण पट्कुमारिका समान प्रभावाली हैं । कैसी हैं वह विद्याधरी, कई एक तो कमल के गर्भ समान प्रथाको घरे हैं, कई एक श्यामसुन्दर नीलकमलकी प्रभाको धरे हैं, कई एक सिझनाके फूल समान रङ्गकू घरे हैं, कई एक विद्युत समान ज्योतिको थरे हैं, यह विद्याधरी महा सुगंधित शरीरवाली हैं मानो नन्दन वनकी पवन हीं से बनाई हैं सुन्दर फूलो के गहने पहरे हैं मानो बसंतकी पुत्री ही हैं, चन्द्रमा समान कांति है मानी अपनी ज्योतिरूप सरोवरमें तिरे ही हैं, अर श्याम श्वेत सुरङ्ग तीन वर्णके नेत्रकी शोभाको वरणहारी, मृग समान हैं नेत्र जिनके, हंसनी समान हैं चाल जिनकी, वे विद्याधरी देवांगना समान शोभे है, अर पुरुष विद्याधर महा सुन्दर शूर वीर सिंह समान पराक्रमी हैं । महाबाहु महापराक्रमी आकाश गमन में समर्थ भले लक्षण भली क्रियाके धरणहारे न्यायमार्गी, देवोंके समान है प्रभा जिनकी अपनी स्त्रियों सहित विमानमें बैठे अढाई द्वीपमें जहां इच्छा होय तहां ही गमन करे हैं, इस भाति दोनों श्रेणियों में वे विद्याथर देवतुल्य इष्ट भोग भोगते महा विद्याओंको घरे हैं, कामदेव समान है रूप जिनका र चन्द्रमा समान है बदन जिनका । धर्मके प्रसादसे प्राणी सुख सम्पति पावें हैं तातें एक धर्म ही में यत्न करो अर ज्ञानरूप सूर्य से अज्ञानरूप तिमेिरको हरा ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराणकी भाषाटीकाविषै विद्याधर लोकका कथन जाविषै है एसा तीसरा नकार संपूर्ण मया ॥२॥ चौथा पर्व ॥ ४ ॥ अथानन्तर वे भगवान ऋषभदेव महाध्यानी सुवर्ण समान प्रभा के वरणहारे प्रभु जगत के हित करन निमित्त छँ मास पीछे बहार लेनेको प्रवृत्ते, लोक मुनिके आहारकी विधि जाने नहीं अनेक नगर ग्रामविषे विहार किया मानो अद्भुत सूर्य ही विहार करें हैं जिन्होंने अपने दे की कांति से पृथ्वी मंडल पर प्रकाश कर दिया है जिनके कांधे सुमेरु के शिखर समान देदीप्यमान है भर परम समाधानरूप अधोहाटे देखत जीव दया पालते विहार करे हैं । पुर ग्रामादिमें लोक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० -पद्म-पुराण अज्ञानी नाना प्रकार के वस्त्र रत्न हाथी घोड़े रथ कन्यादिक भेट करेंसी प्रभु कुछ भी प्रयोजन नाहीं इस कारण प्रभु फिर बनको चले जावें इस भांति छे बहीने तक विधिपूर्वक आहारकी प्राप्ति नभई (अर्थात् दीक्षा समयने एक वर्ष विना आहार बीता । ) पीछे विहार करते हुए हस्तिनापुर सर्व लोक पुरुषोत्तम भगवानको देखकर आश्चर्यको प्राप्त भए, राजा सोमप्रभ रविनके लघुभ्रा श्रेयांस दोनों ही भाई उठकर सम्मुख चाले, त्रेयांसको भगवानके देखने से पूर्व भवका स्मरण भगा कर मुनिके आहार की विधि जानी । वह नृप भगवानकी प्रदक्षिणा देते ऐसे शोभे हैं मानो सुमेरुकी प्रदक्षिणा सूर्य ही दे रहा है, अर बारम्बार नमस्कार कर रत्नपात्र से देय चरणारविन्द थोए अर अपने शिरके केशसे पोंछे आनन्दके अश्रुपान • श्राए श्रर गद गद वाणी भई । श्रेयांसने जिसका चित्त भगवान के गुणोंमें अनुरागी भया है महा पवित्र रत्ननके कलशोंमें रखकर महा शीतल थिए क्षुरतका आहार दिए, परम श्रद्धा नवधा भक्ति से दान दिया वर्षो पारणा बना उसके प्रविश्यसे देव हर्षित होय पांच आश्चर्य करते भए । १ रत्ननिकी वा भई । २ कल्पवृक्षोंके पंच प्रकार के पुष्प बरसे । ३ शीतल मन्द सुगंध पवन चली । ४ अनेक प्रकार दुन्दुभी बाजे बाजे । ५ यह देववाणी भई कि धन्य यह पात्र अर धन्य यह दान पर धन्य दानका देनहारा श्रेयांस । ऐसे शब्द देवताओंके आकाश में भर, श्रेयांसकी कीर्ति देखकर दानकी रीति प्रगट भई, देवतानिकारे श्रेयांस प्रशंसा योग्य भए अर भरतने अयोध्यासे आयकर बहुत स्तुति करी । अति प्रीति जनाई । भगवान आहार लेकर वनमें गये । अधानंतर भगवान्ने एक हजार वर्षपर्यन्त महातप किया अर शुक्लध्यानसे मोहका नाशकर केवल ज्ञान उपजाया । कैसा है वह केवलज्ञान ? लोकालोकका अवलोकन है जावियै । जब भगवान केवलज्ञानको प्राप्त भए तब अए प्रदिर्य प्रगटे । प्रथम तो आपके शरीरकी कांतिका ऐसा मण्डल हुआ जिससे चन्द्र सूर्यादिकका प्रकाश मन्द नजर आवे, रात्रि दिवसका भेद नजर न यावे अर अशोक वृक्ष रत्नमई पुष्पोंसे शोभित रक्त हैं। पल्लव जाने पर आकाशसे देवोंने फूलों की वर्षा करी जिनकी सुगन्ध भ्रमर गुंजार करें, महा दुन्दुभी वाजोंकी ध्वनि होती भई जो समुद्र के शब्द से भी अधिक देवोंने वाजे बजाए उनका शरीर मायापई नहीं दीखता है जैसा शरीर देवोंका है तैसा ही दीखे है, अर चन्द्रमाकी किरणसे भी अधिक उज्ज्वल चमर इन्द्रादिक ढोरते भये कर सुमेरुके शिखर तुल्य पृथ्वीका मुकुट सिंहासन आपके विराजनका प्रगट भया, कैसा है सिंहासन ? अपनी ज्योति कर जीती है सूर्यादिककी ज्योति जिसन पर तीन लोककी प्रभुताके चिन्ह मोतियोंकी झालर से शोभायमान तीन छत्र अति शोभे है मानो भगवानके निर्मल. यश ही हैं रसमोशरणमें भगवान सिंहासनपर विराजे सो समोशर की शोभा कहनकू केवली ही समर्थ हैं और नाहीं । चतुरनिकायक देव सर्वं ही बन्दना करने की आये, भगवानके मुख्य गणधर वृषभसेन भये आपके द्वितीय पुत्र र अन्य भी बहुत जे मुनि भए थे वह महा वैराग्यके धारणहारे मुनि आदि बारह सभाके प्राणी अपने अपने स्थानकविषै बैठे । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा पर्व २१ अथानन्तर भगवानकी दिव्य ध्वनि होती भई जो अपने नादकर दुन्दुभी बाजोंकी नको जीते है, भगवान जीवोंके कल्याण निमित्त तत्त्वार्थ का कथन करते भये कि तीन लोक में जीवोंको धर्म ही परम शरण हैं इसहीसे परम सुख होय है, सुखके अर्थ सभी चेष्टा करें हैं ऋर सुख धर्मके निमित्तसे ही होय है ऐसा जानकर धर्मका यत्न करहु । जैसे मेघ बिना वर्षा नहीं, बीज बिना धान्य नहीं तैसे जीवनि के धर्म दिना सुखं नाहीं, जैसे कोई उपंग ( लंगडा ) पुरुष चलने की इच्छा करे पर गूंगा बोलने की इच्छा करे र अन्धा देखनेकी इच्छा करे तैसे मूढ प्राणी धर्म बिना सुखकी इच्छा करे हैं, जैसे परमाणुसे घर कोई अन्य ( सूक्ष्म ) नहीं अर आकाश से कोई महान् ( वडा ) नहीं तैस धर्म समान जीवोंका अन्य कोई मित्र नहीं अर दया समान कोई धर्म नहीं | मनुष्य के भोग र स्वर्ग के भोग सब परमसुख धर्मंही से होय हैं इसलिये धर्म विना और उद्यनकर कहा ! जे पण्डित जीवदयाकर निर्मल धर्मको सेवे हैं उन्हीं का ऊ (ऊपर) गमन है दूसरे अधो ( नीचे ) गति जाय हैं, यद्यपि द्रव्यलिंगी मुनि तपकी शक्तिने स्वर्गलोक में जाय हैं तथापि बड़े देवोंके किंकर होकर तिनकी सेवा करे हैं देवलोक में नीच देव होना देव दुर्गति हैं सो देवदुर्गतिके दुःख को भोगकर तिर्यंच गतिके दुखको भोगे हैं, र जे सम्यग्दृष्टि जिन शासनके अभ्यासी तप संयम धारणाहारे देवलोक में जाय हैं ते इन्द्रादिक बड़े देव होयकर बहुत काल तक सुख योग देवलोकतें चय मनुष्य होय मोक्ष पार्श्वे हैं सो धर्म दोय प्रकारका है एक यतिधर्म, दुसरा श्रावकधर्म, तीजा धर्म जो माने हैं मोह अग्नि से दग्ध हैं, पांव त तीन गुणवत चार शिक्षा यह श्रावकका धर्म है, श्रावक मरण समर सर्व आरम्भ तज शरीर से वा निर्ममत्व होकर समाधि मरण कर उत्तगतिको जाय है, अर यती का धर्म पंच महाव्रत पंचमिनि तीन गुप्ति यह तेरह प्रकारका चारित्र है । दशों दिशा ही यति के वस्त्र हैं, जो पुरुष यतिका धर्म रह वे शुद्धोपयोग के प्रसादकरिनिर्वाण पाते हैं, श्रर जिनके शुभोपयोग की मुख्यता है ने वर्ग पावे हैं परम्पराय मोव जाय हैं । अर जे भात्रां मुनियों की स्तुति करे हैं ते हू धर्मको प्राप्त की हैं, कैसे हैं मुनि, परम अलचक धारण हारे हैं। यह प्राणी धर्मके प्रभावतें सर्व पाप से छूटे हैं पर ज्ञानकू प है; इत्यादिक धर्म का कथन देवाधिदेव ने किया सो सुन कर देव मनुष्य सर्व ही परम हर्षकू प्राप्त भए । के एक तो सम्यक्तको धारण करते भए, कैएक सम्यक्त सहित श्रावकके व्रत धारते भए, कैएक मुनित्रत धारते भए, बहुरि सुर असुर मनुष्य धर्म श्रवण कर अपने अपने धाम गए, भगवानने जिन जिन देशों में गमन किया उन उन देशों में धर्म का उद्योत भया । आप जहां जहां विराजे वहां वहां सौ सौ योजन तक दुर्भिक्षादिक सर्व बाधा मिटी, प्रभुके चौरासी गणवर भए अर चौरासी हजार साधु भए, इन करि मण्डित सर्व उचन देशनिवि विहार किया | "" अथानन्तर भरत चक्रवर्ती पदक प्राप्त भए र भरतके भाई सब ही मुनिव्रत धार परमपदकों प्राप्त भए, भरने कुछ काल है सरडका राज्य किया, अयोध्या राजधानी, नवनिधि चौदह रत्न प्रत्येककी हजार हजार देव सेवा करें, तीन कोटि गाय एक कोटि हल चौरासी लाख हाथी इतने ही रथ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ 'पद्म पुराण ठारा कोटि घोड़े बत्तीस हजार मुकुन्द राजा पर इसने ही देश महासंपदाके भरे, छियानवे हजार रानी देवांगना समान, इत्यादिक चक्रवर्तिके विभवका कहां तक वर्णन करिए । पोदनापुर में दूसरी माताका पुत्र बाहुबली, सो भरतकी आज्ञा न मानते भए, कि हमभी ऋषभदेव के पुत्र हैं किसकी आज्ञा माने, तत्र भरत बाहुबलि पर चढ़े, सेनायुद्ध न ठहरा, दोऊ भाई परस्पर युद्ध करें यह ठहरा । तीन युद्ध थापे १ दृष्टियुद्ध, २ जलयुद्ध, अर ३ मल्लयुद्ध, तीनों ही युद्धों में बाहुबली जीते अर भरत हारे, तब भरतने पाहुती पर चक्र चलाया, वह उनके चरम शरीर पर घात न कर सका, लौटकर भरत के हाथ पर आया, भरत लज्जित भए, बाहुबली सर्व भोग त्याग कर वैरागी भए, एक वर्ष पर्यंत कायोत्सर्ग वर निश्चल तिष्ठे, शरीर बेलोंसे वेष्टित भया, सांपोंने बिल किए, एक वर्ष पीछे केवलज्ञान उपजा, भरतचक्रवर्तिने आय कर केवली की पूजा करी, बाहुबली केवली कुछ काल में निर्वाणको प्राप्त भए, अवर्षणीकालमें प्रथम मोक्षको गमन किया । भरत चक्रवर्ति निष्कंटक लै खंडका राज किया जिसके राज्यमें विद्याधरोंके समान सर्व सम्पदा के भरे अर देवलोक समान नगर महा विभूति कर मंडित हैं जिनमें देवों समान मनुष्य नाना प्रकार के वस्त्राभरण करि शोभायमान अनेक प्रकारकी शुभ चेष्टा कर रमते हैं, लोक भोगभूमि समान सुखी अर लोकपाल समान राजा अर मदन के निवासकी भूमि अप्सरा समान नारियां जैसे स्वर्गविष इन्द्र राज करे तैसे भरतने एक छत्र पृथिवीविषे राज किया, भरतके सुभद्रा राणी इंद्राणी समान भई जिनकी हजार देव सेवा करें, चक्रीके अनेक पुत्र भए तिनको पृथिवीका राज दिया इकार गौतम स्वामीने भरतका चरित्र श्रेणिक राजा से कहा || अवानन्तर श्रेणिने पूछा- 'हे प्रभो ! तीन वर्णकी उत्पत्ति तुमने कही सो मैने सुनी विकी उत्पत्ति सुना चाहें हूं सो कृपाकर कहो । गणधर देव जिनका हृदय जीवदयाकर कोमल है अर मद मत्सरकर रहित हैं, वे कहते भए कि—एक दिन भरतने अयोध्या के समीप भगवान का आगमन जान समोशरण में जाय बन्दना कर मुनिके आहारकी विधि पूछी। भगवान की श्राज्ञा भई कि मुनि तृष्णाकर रहित जितेन्द्री अनेक मासोपवास करें, जो पराए घर निर्दोष आहार लें, अंतराय पड़े तो भोजन न करें, प्राणरक्षा निमित्त निर्दोष आहार करें, अर धर्मके हेतु प्राणको राखें, अर मोदक हेतु उस धर्म को आचरें जिसमें किसी भी प्राणीको बाधा नाहीं । यह मुनिका धर्म सुन कर चक्रवर्ती विचारे हैं- 'अहो ! यह जैनका व्रत महा दुर्धर है, मुनि शरीर सेभी (निर्मत्व) तिष्ठे हैं तो अन्य वस्तुमें तो उनकी वांछा कैसे होय ? मुनि महा निर्गन्ध निर्लोभी सर्व जीवों की दयाविषै तत्पर हैं, मेरे विभूति बहुत है । मैं अणुव्रती श्रावकको भक्ति कर दूं पर दीन लोकोंको दया कर दूं यह श्रावक भी मुनिके लघु भ्राता हैं ऐसा विचार कर लोकों को भोजनको बुढाए अर व्रतियों की परीक्षा निमित्त प्रांगण में जौ धान उर्दू मूंगादि बोए तिनके अंकुर उगे सो अविवेकी लोक तो हरितकायको खूंदते आए अर जे विवेकी थे वे अंकुर जान खड़े होय रहे तिनको भरतने अंकुररहित जो मार्ग उसपर बुलाया पर व्रती जान बहुत आदर किया अर यज्ञोपवीत (जनेऊ) कंठ में डाला। इसे भोजन कराया वखाभरण दिये अर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ पांचवा पर्व ममवांछित दान दिये अर जो अंकुरको दल मलते आए थे तिनको अवती जान उनका आदर न किया अर बतियोंको ब्राह्मण ठहराए, चक्रवर्तीके माननेसे कैएक तो गर्वको प्राप्त भये अर कैएक लोभकी अधिकतासे धनवान् लोकोंको देख कर याचनाको प्रवर्ते ॥ तब मतिसमुद्र मंत्रीने भरतसे कहा कि समोशरणमें मैंने भगवानके मुख से ऐसा सुना है कि जो तुमने विप्र धर्माधिकारी जानकर माने हैं वे पंचम कालमें महा मदोन्मत्त होवेंगे अर हिंसामें धर्म जान कर जीवोंको हनेंगे अब महा कपायसंयुक्त पहा पार क्रिया प्रवर्तेगे अर हिंसा के प्ररूपक ग्रन्थोंको अकृत्रिम मान कर समस्त प्रजाको लोभ उपजावेंगे। महा आरम्भविषै आसक्त परिग्रहमें तत्पर जिनमापित जो मार्ग उपकी सदा निंदा करेंगे । निन्थ मुनको देख महा क्रोथ करेंगे, यह वचन सुन भरत इन पर क्रोधायमान भए, तब यह भगवानके शरण गए। भगवान ने भरतको कहा-हे भरत ! जो कलिकालविषै ऐसा ही होना है तुम कषाय मत करो । इस भांति विनों की प्रवृत्ति भई अर जो भगवानके साथ वैराग्यको निकले ते चारित्रभ्रष्ट भए । तिनमें कच्छा. दिक तो कैएक सुलटे अर मारीचादिक नहीं सुलटे तिनके शिष्य प्रतिशिष्यादिक सांख्य योगमें प्रवर्ते, कोपीन ( लंगोटी) पहरी बल्कलादि धारे । यह विप्रनिकी अर परिव्राजक कहिये दंडीनिकी प्रवृत्ति कही। ___ अथानन्तर अनेक जीवनकों भवसागर से तारकर ऋषभ कैलाशके शिख से लोकशिखर जो निर्वाण उसको प्राप्त भए, भरत भी कुछ काल राज्यकर जीर्ण तृणवत् राज्यको छोड़कर वैराग्यको प्राप्त भये अंतर्मुहूर्तमें केवल उपना पीछे अायु पूर्णकर निर्वाणको प्राप्त भए। . इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराणका भाषाटीकाविषे श्रीऋषभका कथन जाविषै है पेसा चौथा अधिकार सपूण भया ॥ ४ ॥ EEEEEEEEE अथ वंशोत्पत्ति नामा महाधिकार ॥२॥ अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे वंशोंकी उत्पत्ति कहते भए कि हे श्रेणिक ! इस जगतविष महावंश जो चार तिनके अनेक भेद हैं। १ प्रथम इक्ष्वाकुवंश । यह लोक का आभूषण है इसमें से सू िवंश प्रवर्ता है। २ दूसरा सोम (चन्द्र ) वंश चन्द्रमाकी किरण समान निर्मन है। ३ तीसरा विद्याधरोंका वंश अत्यन्त मनोहर है । ४ चौथा हरिवंश जगतविष प्रसिद्ध है। अब इनका भिन्न २ विस्तार कहै हैं ___ इक्ष्वाकुवंशमें भगवान ऋषभदेव उपजे तिनके पुत्र भरत भए, भरतके पुत्र अर्ककीर्ति भए, राजा अर्ककीर्ति महा तेजस्वी राजा हुए। इनके नामसे सूर्यवंश प्रवृत्तो है अर्क नाम सूर्यका है इसलिये अर्ककीर्तिका वंश सूर्यवंश कहलाता है इस सूर्यवंशमें राजा अर्ककीर्तिके सतयश नामा पुत्र भये इनके बलांक तिनके सुबल तिनकै रवितेज तिनके महाबल महाबलके अतिबल तिनके अमृत, अमृतके सुभद्र तिनके सागर तिनके भद्र तिनके रवितेज तिनके शशि तिनके प्रभूतलेज तिनके तेजस्वी तिनके तपबल महाप्रतापी तिनके अतिवीर्यं जिनके सुवीयं तिनके उदितपराक्रम तिनके सूर्य तिनके Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच-पुराण इन्द्रद्य मणि तिनके महेन्द्रजित तिनके प्रभु तिनके विभु तिनके अविध्वंस तिनके वीतभी तिनके वृषभध्वज तिनके गरुडांक तिनके मृगांक, इस भांति सूर्यवंशविर्षे अनेक राजा भये ते संसारके भ्रमण भयभीत पुत्रोंको राज देय मुनि व्रतके धारक भए, महा निर्ग्रन्थ शरीरसे भी निस्पृही यह सूर्यवंशकी उत्पत्ति तुझे कही। अब सोमवंशकी उत्पत्ति तुझे कहिए है सो सुन । ऋषभदेवकी दूसरी राणीके पुत्र बाहुबली तिनके सोमयश तिनके सौम्य तिनके महाबल तिनके सुबल तिनके भुजबली इत्यादि अनेक राजा भए, निर्मल है चेटा जिनकी मुनिव्रत धार परम थामको प्राप्त भए । कई एक देव होय मनुष्य जन्म लेकर सिद्ध भए, यह सोमवंशकी उत्पत्ति कही । अव विद्याधरनके वंशकी उत्पत्ति सुनहु । नमि रत्नमाली तिनके रत्नवत्र तिनके रत्नरथ तिनके रत्नचित्र तिनके चन्द्ररथ तिनके बज्रजप तिनके वज्रसेन तिनके बजूदंष्ट्र तिनके बन्धुज तिनके बजायुध तिनके बज तिनके सुबजू तिनके बजूभृत् तिनके बजाम तिनके बजबाहु तिनके बांक तिनके बजभुन्दर तिनके बज्रास्य तिनके बज्रपाणि दिनके बज्रभानु तिनके बज्रवान तिनके विद्युन्मुख तिनके सुवक्र तिनके विद्यु इंष्ट्र अर उनके पुत्र विद्युत अर विद्यु दाभ अर विद्युद्वेग, अर विधु त इत्यादि विद्याधरोंके वंशमें को राजा भए अपने पुत्रको राज देय तिन दीक्षा धर राग का नाशकर सिद्ध पदको प्राप्त भए । कई एक देवलोक गए जे मोहपाशसे बंधे हुते ते राजवि मरकर कुगतिको गए। ___अब संजयति मुनिके उपसग । कारण कहै है कि-विद्य दंष्ट्र नामा राजा दोऊ श्रेणीका अधिपति विद्यावलसे उद्त विमान में बैठा विदेहक्षेत्रमें गया तहा संजयति स्वामीको ध्यानारूढ़ देखा जिनका शरीर पर्वत समान निश्चल है उस पायोने मुनिको देखकर पूर्व जन्मके विरोध से उन को उठाकर पंचगिरी पर्वतपर धरे श्रर लाकों को कहा कि इसे मारो, पापी जोंने यष्टि मुष्टि पापाणादि अनेक प्रकारसे उनको मारा मुनिको शमभावके प्रसादसे रंचमात्र थी क्लेश न उजा दुस्सह उपसर्गका जोत लोकालोकका प्रकाशक केवल ज्ञान उपजा, सवदेव बंदना को आए, धरणींद्र भी आए, वह धरणींद्र पूर्वभवमें मुनिके भाई थे इसलिए क्रोधकर सब विद्य धरोको नाग कांसमें बांधे, तब सबनने विनती करी कि यह अपराध विधु दंष्ट्रका है, तब अन्यको छोड़ा अर विद्य इंष्ट्रको न छाड़ा, मारणको उद्यमी भए तब देवोंने प्रार्थना करके छुड़ाया, छोड़ा तो परन्तु विद्या हर ली, तब इसने प्रार्थना करी कि हे प्रभो! मुझे विद्या कैसे सिद्ध होयगी, धरणींद्रने कहा कि संजयति स्वामीकी प्रतिमाक समीप तप क्लेश करनेसे तुमको विद्या सिद्ध होयगी परंतु चैत्यालयके उलंघनसे तथा मुनियोंके उलंघनसे विद्याका नाश हावेगा इसलिये तुमको तिनकी बंदना करके आगे गमन करना योग्य है। तब धरणींद्रने संजयत स्वामीका पूछा कि हे प्रभो ! विद्यु ६ष्ट्रने आपको उपसर्ग क्यों किया, भगवान संजयत स्वामीने कहा कि मं चतुगतिविपै भ्रमण करता सकट नामा ग्राममें दयावान प्रियवादी हितकार नामा महाजन मथा, निष्कपट साभाव साधु सेवा तत्पर सो समाधि मरणकर कुमुदावती नगरीमें न्याय मागी श्रीवर्थन नामा राजा हुवा, उस ग्राममें एक ब्राह्मण जो अज्ञान तपकर कुदेव हुआ था वहांसे चयकर राजा श्रीवधन बन्दि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां पर्व शिखनामा पुरोहित भया, वह महा दुष्ट अकार्यका करणे वाला आपको सत्यघोष कहा- परन्तु महाझूठा अर परद्रव्यका हरण हारा, उसके कुकर्मको कोई न जाने, जगतमें सत्यवादी कहावे, एक नमिदत्त सेठके रत्न हरे, राणी रामदत्ताने जूवामें पुरोहितकी अंगूठी जीती अर दासीके हाथ पुरोहितके घर भेजकर रत्न मंगाए अर सेठको दिये, राजाने पुरोहितको तीव्र दण्ड दिया, वह पुरोहित मरकर एक भवके पश्चात यह विद्याधरोंका अधिपति भया अर राजा मुनिव्रत धारकर देव भये, कई एक भवके पश्चात् यह हम संजयंत भए सो इसने पूर्वभवके प्रसंगसे हमको उपसर्ग किया। यह कथा सुन नागेन्द्र अपने स्थानको गये ॥ अथानन्तर उस विद्याधरके दृढ़रथ भए उसके अश्ववर्मा पुत्र भए उसके अश्वाय उसके अश्वध्वज उसके पद्मनाभि उसके पद्ममाली उसके पद्मरथ उसके सिंहयान उसके मृगधर्मा उसके मेघास्त्र उसके सिंहप्रभु उसके सिंहकेतु उसके शशांक उसके चन्द्राह उसके चन्द्रशेखर उसके इन्द्ररथ उसके चंद्ररथ उसके चक्रधर्मा उसके चक्रायुध उसके चक्रध्वज उसके मणिग्रीव उसके मण्यंक उसके मणिभासुर उसके मणिरथ उसके मन्यास उसके बिम्बोष्ठ उसके लंबिनाधर उसके रक्तोष्ठ उसके हरिचन्द्र उसके पूर्णचन्द्र उसके बालेन्द्र उसके चन्द्रमा उसके चूड़ उसके ब्योमचन्द्र उसके उडपानन उसके एचूड़ उसके द्विचूड़ उसके त्रिचूड़ उसके वज्रचूड़ उसके भूरिचूड़ उपके अर्कचूड़ उसके वन्हिजटी उसके चन्हितेज इस भांति अनेक राजा भए । तिनमें कई एक पुत्रको राज देय मुनि होय मोक्ष गए । कई एक स्वर्ग गए कई एक भोगायक्त होय वैरागी न भए ते नारकी तिर्यव भए इस भांति विद्याधरका वंश कहा। आगे द्वितीय तीर्थकर जो अजितनाथ स्वामी उनकी उत्पत्ति कहे हैं जब ऋषभदेवको मुक्ति गए पचास लाख कोटि सागर गए, चतुर्थकाल आधा व्यतीत भया, जीवोंकी आयु पराक्रम घटते गये जगतमें काम लोभादिककी प्रवृत्ति बढ़ती भई तर इक्ष्वाकु कुलमें ऋषभदेव ही के वंशमें अयोध्या नगरमें राजा धरणीधर भए उनके पुत्र त्रिदशजय देवोंके जीतनेवाले उनके इन्दुरेखा राणी उसके जितशत्र पुत्र भया, सो पोदनापुरके राजा भव्यानंद उनके अम्भादमाला राणी उसकी पुत्री विजया वह जितशत्रुने परणी । जितशत्रुको राज देयकर राजा त्रिदशजय कैलास पर्वत पर निर्माणको प्राप्त भए, राजा जितशत्रु की राणी विजयादेवीके श्रीअजितनाथ स्वामी भए उनका जन्माभिषेकादिकका वर्णन ऋषभदेववत् जानना जिनके जन्म होते ही राजा जितशत्र ने सर्व राजा जीते इसलिये भगवानका अजित नाम धरा। अजितनाथके सुनया नन्दा अादिक स्त्री भई, जिनके रूपकी समानता इन्द्राणी भी न कर सके । एक दिन भगवान अजितनाथ राजलोक सहित प्रभात समयमें ही वनक्रीडाको गये, कमलोंका वन फूला हुवा देखकर सूर्यास्त समय उस ही वनको सकुचा हुआ देखा सो लक्ष्मीकी इस भांति अनित्यता मानकर परम वैराग्यको प्राप्त भए, माता पितादि सर्व कुटुम्बसे क्षमाभावकर ऋषभदेवकी भांति दीक्षा थरी, दस हजार राजा साथ निकसे, भगवानने वेला पारणा अंगीकार करा ब्रह्मदत्त राजाके घर आहार लिया चौदह वर्ष तप करके केवलज्ञान उपजाया। चौंतीस अतिशय तथा आठ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 親愛 पद्म-पुराण प्रातिहार्य प्रकट भए, भगवानके नव्वे गणधर भए र एक लाख मुनि भए । I अजितनाथ के पुत्र विजयसागर जिनकी ज्योति सूर्य समान है उनकी राणी सुमंगला उनके पुत्र सगर द्वितीय चक्रवर्ती भए । नवनिधि चौदह रत्न आदि इनकी विभूति भरत चक्रवतके समान जाननी । तिनके समय में एक वृत्तान्त भया सो हे श्रेणिक ! तुम सुनो । भरत क्षेत्र के विजयार्धकी दक्षिण श्रेणिमें चक्रवाल नगर तहां राजा पूर्णघन विद्याधरोंके अधिपति महा प्रभाव मंडित विद्यावलकर अधिक तिनने विहायतिलक नगर के राजा सुलोचनकी कन्या उत्पलमती विवाहके वास्ते मांगी। राजा सुलोचनने निमित्त ज्ञानी के कहने से उसको न दी र सगर चक्रवर्तीको देनी विचारी, तव पूर्णघन सुलोचन पर चढ़ आए । सुलोचन के पुत्र सहस्रनयन अपनी बहिन को लेकर भागे यर बनमें छिप रहे । पूर्णघननं युद्ध में सुलोचनको मार नगर में जाय कन्या ढूढी परन्तु न पाई तब अपने नगरकी चले गये, सहस्रनयन बापका बध सुन पूर्णमेघ पर क्रोधायमान भए परन्तु कछु कर नाहीं सके, गहरे बनमें घुसे रहे । कैसा है वह वन सिंहव्याघ्र अष्टापदादिसे भरा है। पश्चात् चक्रवर्तीको एक मायामई अश्व लेय उड़ा सो जिस वनमें सहसूनयन हुते तहां आये । उत्पमतीने चक्रवर्तीको देखकर भाईको कहा कि चक्रवर्ती आप ही यहां पधारे हैं । तत्र भाईने प्रसन्न होयकर चक्रवर्तीको बहिन परिणाई । यह उत्पलमती चक्रवर्तीकी पटरानी स्त्रीरत्न भई श्रर चक्रवने कृपाकर सहस्रनयनको दोनों श्रेणीका अधि पति किया । सहस्रनयनने पूर्णघन पर चढ़कर युद्धमं पूर्णघनको मारा र बापका बैर लिया । चक्रवर्ती छह खण्ड पृथ्वीका राज करे अर सहस्रनयन चक्रवर्तीका साला विद्याधरकी दोऊ श्रेणीका राज करे । अर पूर्णमेघका बेटा मेघवाहन भयकर भागा । सहस्रनयन के योधा मारनेको लारें (साथ) दौड़े सो मेघवाहन समोशरण में श्री अजितनाथकी शरण आया इन्द्रने भयका कारण पूंछा तत्र मेघवाहनने कहा - 'हमारे बापने सुलोचनको मारा था सो सुलोचनके पुत्र सहस्रनयनने चक्रवर्तीका बल पाकर हमारे पिताको मारा अर हमारे बंधु क्षय किये अर मेरे मारने के उद्यम है सो मैं मन्दिरतें हंतोंके साथ उड़कर श्रीभगवानकी शरण आया हूं ।' ऐसा कहकर मनुष्यों के कोठे में बैठा । जो सहस्रनयन के योधा इसके मारणेको आये हुते ते इसको समोशरण में श्रया जान पीछे हट गए अर सहस्रनयनको सकल वृत्तान्त कहा तब वह भी समोशरण में श्राया भगवान के चरणादिके प्रसाद ने दोनों निर्वैर होय तिष्ठे । तब गणवरने भगवानसे इनके पिताका चरित्र पूछा ! भगवान कहे हैं कि - " जम्कीपक भरत क्षेत्र में सद्गति नामा नगर वहां भावन नामा बणिक उसके आतकी नामा स्त्री अर हरिदास नामा पुत्र, सो भावन चार कोटि द्रव्यका धनी हुता तो भी लोभ कर व्यापार निमित्त देशांतरको चला । चलते समय पुत्रको सब धन सौंपा अर द्यूतादिक कुव्यसन न सेवनेकी शिक्षा दोनी । हे पुत्र ! यह द्यूतादि (जुवा ) कुव्यसन सर्वदोषका कारण है इनको सर्वथा जने इत्यादि शिक्षा दकर आप धनतृष्णाके कारण जहाजके द्वारा द्वीपान्तरको गया । पिताके गए पीछे पुत्रने सर्व धन वेश्या जुआ और सुरापान इत्यादिक कुव्यसनमें खोया । जब सर्व वन जाता रहा पर जुआरीनका देनदार हो गया 1 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां पर्व तब द्रव्यके अर्थ सुरंग लगाय राजाके महलमें चोरीको गया । सो राजाके मह नमें से द्रव्य लाये अर दुव्यसन सेवे । कई एक दिनों में भावन परदेशने आया । घरमें पुत्र को न देखा तब स्त्री पूछा। स्त्रन कही "इस सुरगणे होयकर राजाके महिल में चोरीकों गया है।" तब यह पिता पुत्र के मरणकी शंका कर उसके लायनेको सुरंगमें आया । सो यह तो जावे था अर पुत्र आवे था। पुत्रने जाना यह कोई बैरी आवे है सो उसने बैरी जान खड्गसे मरा पीछे स्पर्शकर जाना यह तो मेरा बाप है तब महा दुखी होय डरकर भागा अर अनेक देश भ्रम गु कर मरा । पिता पुत्र दोनों कुत्ते भए, फिर गीदड़ फिर मार्जार भए, फेर रीछ भये, फिर बोला भरे, फेर भैंसे भये, सो इतने जमॉमें परस्पर घातकर मरे, फिर विदेह क्षेत्रमें पुष्कलावती देशमें मनुष्य भगे, उग्र तपकर एकादश स्वर्गमें उत्तर अनुत्तर न मा देव भए, वहांतें आयकर ज. भा न न मा पिता हुता वह तो पूर्णमेघ द्यिाधर भया र हरिदास न मा पुत्र जो हुता सो मुल चन नामा विद्याधर भया इस वैरसे पूर्णमेश्ने सुलाचनको मरा । तब गणधर देवने सहसनयनको अर मेघवाहनको कहा-तुम अपने पिताओंका इस भांति चरित्र जान संसारका बैर तजकर समभाव धरो अर सगर चक्रवर्तीने गणधरदेवको पूछा कि 'हे महाराज ! मेघवाहन अर सहसूनयनका बेर क्यों भवा ? तब भगानकी दिव्य ध्वनिमें प्राज्ञा भई कि 'जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र में पद्मक नाभा नगर है तहां प्रारम्भ नामा गणित शास्त्रका पाठी महा धनवंत ताके दो शिष्य एक चन्द्र एक आवली भये, इन दोनोंमें मित्रता हुती अर दोनों धनवान गुणवान विख्यात हुए सो इनके गुरु बारम्मने जो अनेक नयचक्रमें अति विचक्षण हुत मनों विचारा कि कदाचित् यह दोनों मेरा पद भी करं। ऐसा जानकर इन दोनों के चित जुदे कर डारे । एक दिन चन्द्र गायकों वे ग्ने गोपालके घर गया सो गाय बेचकर वह तो घर आता हुना अर श्रावती । उसो गाय को गागाल से खरीदकर लावता देखा इस कारण मार्ग में चन्द्रने प्रावलीको मरा । सो म्लेच्छ भा र चन्द्र मरकर बलय भया । म्लेच्छने बलयको भखा । म्लेच्छ नरक तिच योनिमें भ्रमण कर मूना भया अर चन्द्रका जीव मार्जार भया, मार्जारने मूसा भखा फिर ये दोऊ पाप कर्मके योगसे अनेक योनिमें भ्रमणकर काशीमें संभ्रमदेवकी दासीके पुत्र दोऊ भाई भए, एकका नाम कूट अर एकका नाम कापलिक। इन दोनोंको संभ्रमदेवने चैत्यालयकी टहलको राखा । सो मर र पुपके योगसे रूपानन्द तो चयकर कलूबीका पुत्र कलंधर भया अर स्वरूपानंद पुरोहितका पुत्र पुगभूत भया, यह दोनों परस्पर मित्र एक हालीके अर्थ बैरको प्राप्त भए अर कुलंधर पुषभूतक मारणको प्रवृत्ता। एक वृक्षके तले साधु विराजते हुते तिनसे धर्म श्रवणकर कलंधर शांत भया । राजाने इसको सामंत जान बहुत बढ़ाया । पुष्पभूत कुलंधरको जिनधर्मके प्रसादसे संपत्ति .नि देखकर जैनी भया, ब्रतधर तीसरे स्वर्ग गया अर कुलंधर भी तीसरे स्वर्ग गया । स्वर्गसे चयकर दोनों धातकी खाडके विदेहमें अरिंजय पिता अर जयावती माताके पुत्र भए। एकका नाम अमरचत दूसरे का नाम धनत यह दोनों भाई बड़े योधा सहसशिरसके एतबारी चाकर जगतमें प्रसिद्ध हवे । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण एक दिन राजा सहस्रशिरस हाथी पकड़नेको वनमें गया । दोनों भाई साथ गये वनमें भगवान केवजी बिरजे हुने तिनके प्रतापसे सिंह मृगादिक जातिविरोवी जीवोंको एक ठौर बैठे देख राजा पाश्चर्यको प्राप्त भया, आगे जाकर केवलीका दर्शन किया राजा तो मुनि होय निर्वाण गये अर यह दोनों भाई मुनि होय ग्यारहवें स्वर्ग गये। वहांसे चयकर चन्द्रका जीव अमरश्रुत तो मेघवाहन भया अर आवलीका जीव घनश्रुा सो सहसनयन भया। यह इन दोनोंके बैरका वृत्तांत है। फिर सगर चक्रवतीने भगवानसे पूछा कि हे प्रभो ! सहस्रनयननों मेरा जो अतिहित है सो इसमें क्या कारण है ? तब भगवानने कहा कि बह पारम्भ नामा गणतशास्त्र का पाठी मुनि गोंको आहारदान देकर देवकुरु भोगभूमि गया। वहांसे प्रथम स्वर्गका देव होकर पीछे चन्द्रपुरमें रजा हरि राणी घरादेवीके प्यारा पुत्र ब्रतकीर्तन भया मुनि पद धार स्वर्ग गया, अर विदेह क्षेत्रमें रत्नसंचयपुर में महाघोष पिता चन्द्राणी माताके पयोबल नामा पुत्र होय मुनिव्रत धार चौधवें स्वर्ग गया। तहांसे चयकर भरतक्षेत्रमें पृथिवीपुर नगरमें यशोधर राजा अर राणी जयाके घर जयकीर्तन नामा पुत्र भया सो पिताके निकट जिन दीक्षा लेकर जिय विमान गया वहांसे चयकर तू सगर चक्रवर्ती भया। आरम्भके भामें प्रावली शिष्यकं साथ तेरा स्नेह हुतां सो अब आधलीका जीव सहस्रनयन तासों तेरा अधिक स्नेह है । यह कथा सुन चक्रवर्तीको विशेष धर्भरुचि हुई र मेघवाहन तथा सहस्रनयन दोनों अपने पिताके पर अपने पूर्व भव श्रवणकर निर्वैर भए परस्पर मित्र भए अर इनकी धर्मविपै अतिरुाचे उपजी, पूर्व भा दोनों को याद आये महा श्रद्धावंत होय भगवानकी स्तुति करते भए, कि-हे न थ ! आप न धनके नाथ हैं । यह संसारके प्राणी महादुःखी हैं, उनको धर्मोपदेश दे र उपकार करा हो तुम्हारा किसीसे कुछ प्रयोजन नाहीं । तुम निःकारण जगतके वंधु हो। तुम्हारा रूप उपमारहित है अर अप्रमाण बलके धारणहारे हो, इस जगत में तुम समान और नहीं है तुम पूर्ण परमानन्द हो कृतकृत्य हो, सदा सर्वदर्शी सर्वके वल्लभ हो । किसीक चिंतवनमें नहीं आते हो, जाने हैं सर्व पदार्थ जिनने, सबके अन्तर्यामः सर्वत्र जगतके हितु हो, हे जिनेन्द्र ! संसाररूप अन्धकूपमें पड़े यह प्राणी इनो धर्मोपदेशरूप हस्तावलम्बन ही हो इत्यादिक वहुत स्तुति करी अर यह दोनों मेघवाहन अर सहस्रनयन गदगद बाणी होय अश्रुपातकर भीग गये हैं नत्र जिनके परम हर्षको प्राप्त भये अर विधिपूर्वक नमस्कार कर तष्ठे, सिंहवार्यादिक मुनि इन्द्रादिक देव सगरादिक राजा परम आश्चर्य प्राप्त भये । अथानन्तर भगवानके समोशरणमें राक्षसोंका इन्द्र भीम अर सुभीम मेघवाहन से प्रसन्न भए अर कहते भए कि हे विद्याधरके बालक मेघवाहन ! तू धन्य है जो अजितनाथकी शरणमें आया, हम तेरेपर अति प्रसन्न भए हैं हम तेरी स्थिरताका कारण कहे हैं तू मुन, लषणसमुद्रमें अत्यन्त विषम महारमणीक हजारों अन्तर द्वीप हैं लवणसमुद्र में मगर मच्छादिकके समूह बहुत है अर विन अन्तर द्वीपों में कहीं तो गंधर्व क्रीडा करे हैं कहीं किन्नरोंके समूह रमे हैं कही यक्षोंके समूह कोलाहल करे हैं कहीं किंपुरुष जाविक देव केलि करे हैं उनके मध्यमे राक्षस द्वीप है जो Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा पर्व सात सौ योजन चौड़ा अर सात सो योजन लम्बा हैं उसके नभ्य- त्रिकूटाचल पर्वत है जो अत्यंत दुष्प्रवेश हैं, शरणकी ठौर है, पर्वतके शिखर सुनेरक शिखर समान मनोहर हैं, श्रर पर्वत नव योजन ऊंचा पचास योजन चौड़ा है नाना प्रकारकी रत्नोंकी ज्योति के समूहकर जडित है सुवर्ण मपी सुन्दर तट हैं नाना प्रकारको बेलोंकर मंडित कल्प वृक्षोंकर पूर्ण है उसके तले तीस योजन प्रमाण लंका नामा नगरी है रत्न अर सुवर्णके महलोंकर अत्यन्त शोभे है जहां मनोहर उद्यान हैं कमलोंसे मंडित सरोवर हैं बड़े बड़े चैत्यालय हैं वह नगरी इन्द्रपुरी समान है, दक्षिण दिशाका मण्डन ( भूषण ) है, हे विद्याधर ! तुम समस्त बांबववर्गकर सहित तहां बसकर सुखसे रहो ऐसा कहकर भीम नामा राक्षसोंका इन्द्र उसको रत्नई हार देता भया । वह हार अपनी किरण से महा उद्यात कर है अर राक्षसनिका इन्द्र सेष हिनका जन्भन्तर विष पिता हुता तार्ने स्नेहकरि हार दिया र राक्षस द्वीप दिया तथा धरतीक बीच में पाताल लंका जिसमें अलंकारोदय नगर छै योजन ओंडा पर एकसो साढ़े इकत्तीस योजन अर डेढकला चौड़ा यह भी दीया, उस नगरमें बैरियों का मन भी प्रवेश न कर सके स्वर्ग समान महामनोहर है। राक्षसोंके इन्द्रने कहा-'कदाचित् तुझे परचक्रका भय हो तो इस पाताल लंकामें सकल वंशसहित सुखसों रहियो, लंका तो राज. धानी अर पाताललंका मा निवारणका स्थान है, इस भांति नाम सुभीमने पूर्णघनके पुत्र मेघबाहन को कहा। तब मेघवाहन परम हर्ष को प्राप्त भया, भगवान • नमस्कार करके उठा, तब राक्षसोंके इ द्रने राक्षस विद्या दी सो आकाशमाग विधानमें चढकर लंकाको चले, तब स भाइयोन सुना कि मेघवाहन को राक्षांक इन्द्रने अति प्रसन्न हो कर लंका दी है सो समस्त ही बंधु वर्गोंके मन प्रफुल्लित भए जैसे सूगके उदयते समस्त ही कमल प्रफुल्लित होंय तैसे सर्व ही विद्याधर मेधवाहन पै आए, उनसे मण्डित मेघवाहन चले । कै एक तो राजा आगे जाय हैं, कै एक पाछे कै एक दाहिने कै एक बांये, कै एक हाथियों पर चढ़े, कै एक तुरंग (पीछे) पर चढ़े जाय हैं कै एक रथों पर चढ़े जाय हैं कै एक पालकी पर चढ़े जांय है अर अनेक पियादे ही जाय हैं, जय जय शब्द हो रहा है दुन्दुभी बाजे हैं राजा पर छत्र फिर है अर चार दुरे हैं । अनेक निशान (म.ण्डे) चले जाय हैं ! अनेक विद्याधर शास निवावे हैं । इस भांति राजा चलते चलते लवणसमुद्र ऊपर आए, वह समुद्र आकाश समान विस्तीर्ण अर पालाल समान ऊडा तमाल वन समान श्याम है तरंगोंके समूहसे भरा है अनेक मगरमच्छ जिसम कलोल करे हैं उस समुद्र को देख राजा हर्षित भए, पर्वतके अधोभाग में कोट अर दरवाजे पर खाइयों कर संयुक्त लंका नामा महापुरी है तहां प्रवेश किया, लंकापुरी में रत्नोंकी ज्योतिसे आकाश सन्ध्या समान अरुण (लाल) हो रहा है कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल ऊंचे भगवान के चैत्यालयोंसे मण्डित पुरी शोभे है चैत्यालयोंपर ध्वजा फहरा रहे हैं चैत्यालयोंकी वन्दना कर राजाने महलमें प्रवेश किया और भी यथायोग्य घरोंमें तिष्ठे, रत्नोंकी शोभा से उसके मन भर नेत्र हरे गए। ... अथानन्तर किमरगीत नामा नगरमै रतिमयूख राजा अर राणी अनुमती जिनके सुप्रभा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पा-पुराण नामा कन्या, नेत्र अर मनको चुरानेवाली, कामका निवास, लक्ष्मीरूप कुमुदनीके प्रफुल्लित करनेको चन्द्रमाकी चांदनी, लावण्यरूप जलकी सरोवरी, आभूषणोंका आभूषण, इन्द्रियों को प्रमोदकी करणहारी, सो र जा मेघवाहनने उसको महा उत्साह कर परणा, उसके महारशनामा पुत्र भया, जैसे स्वर्गमें इन्द्र इद्राणी सहित तिष्ठे तैसे राजा मेघवाहनने राणी सुप्रभा सहित लंकामें बहुत काल राज किया। एक दिन राजा मेघवाहन अजितनाथकी बंदनाके लिये समोशरणमें गए वहां जब और कथा हो चुकी तव सगरने भगानको नमस्कार कर पूछा कि हे प्रभो ! इस अवसर्पणी कालमें धर्म चकके स्वामी तुम सारिखे जिनेश्वर कितने भए अर कितने होवेंगे, तुम तीनलोकके सुख के देनेवाले हो, तुम सारिपे पुरुषों की उत्पत्ति लोकमें आश्चर्यकारिणी है, अर चक्र रत्न के स्वामी कितने होवेंगे तथा वासुदेव बलभद्र कितने होवेंगे, इसभांति सगरने प्रश्न किये । तर भगवान अपनी ध्वनिपे देव दुदुभी को ध्वनिको निराकरण करते हुये व्याख्यान करते भए । अर्धमागधी भाषाके भाषण हारे गवान उनके होंठ न हालें यह बड़ा आश्चर्य है । कैसी है दिव्य बनि उपजाया है श्रोताओं के कानको उत्साह जनै । उत्सर्गिणी अवसर्पिणी प्रत्येक कालमें चौबीस तीर्थर होय हैं, जिस समय मोहरूप अंधक रसे समस्त जगत् आच्छादित हुआ धर्मका विचर नाहीं और कोई भी र जा नाही, ता समय भगवान ऋषभदेव उपजे, तिन ने कर्म भूमि की रचना कर तबसे कृतयुग कहाया । भगानने क्रियाके भेदसे तीन वर्ण यापे पर उनके पुत्र भरतने विप्र वर्ण थाये, भरतका तेज भी ऋषभ समान है भगवान ऋषभदेवने जिन दीक्षा धरी अर भव तापकर पीडित भव्यजीवाको शभभावरूप जलसे शान्त किया श्रावकके धर्म अर यतीके धर्म दोऊ प्रकट किये। जिनके गुणनिकी उपमा जगतविष कोऊ पदार्थ नाहीं । शिखरसे आप निर्वाण को पधारे । ऋषभदेवकी शरण पाय अनेक साधु सिद्ध भए कई एक स्वर्गके सुख को प्राप्त भए कई एक भद्र परिणामी मनुष्य भवको प्राप्त भए, र बई एक मारीचादि मिथ्यात्व के र.गकरि संयुक्त अत्यन्त उज्जल भगनके मार्ग को अवलोकन न करते भए, जैसे घुग्गू ( उल्लू ) सूर्य प्रकाशको न जाने तैसे कुधर्मकों अंगीकार र कुदेव भए बहुरि नरक तिर्यच गतिको प्राप्त भए । भगवान ऋषभदेव को मुक्ति गर पचास लाख कोटि सागर गर तर सर्वार्थसिद्धिस घय द्वितीय तीर्थकर हम अजितनाथ भए । जव धर्मकी ग्ल नि होय अर मिथ्यादृष्टियोंका अधिकार होय आचारमा अभाव होय तब भगाःन तीर्थ र प्रकट होयकर धर्मका उद्यत करें हैं अर भव्य जीव धर्मको पाय सिद्ध स्थानको प्राप्त होय है अब हमको मोक्ष गए पीछे बाईस तीर्थकर और होंगे, तीन लोकमें उद्योत करनेवाले वे सर्व मुझ सरीखे कांति वीर्य विभूतिके धनी त्रैलो. क्यपूज्य ज्ञान दर्शनरूप होंगे, तिनमें तीन तीर्थकर १ शांति २ कुंथु ३ अर चक्रवर्ती पदके भी धारक होवेंगे । सो चौबीसोंके नाम सन-ऋषभ १, अजित २, संभव ३, अभिनन्दन ५, सुमति ५, पद्मप्रभ ६, सुपार्श्व ७, चन्द्रप्रभ ८, पुष्पदंत ६. शीतल १०, श्रेयांस ११, वासुपूज्य १२, विमल १३, अनन्त १४, धर्म १५, शान्ति १६, कुंथु १७, अर १८, मल्लि १६, मुनि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा पर्व सुव्रत २०, नमि २१, नेमि २२, पार्श्वनाथ २३, महावीर १४, यह सर्व ही देवाधिदेव जिन मार्गके धुरन्धर होंवेंगे। अर सर्वके गर्भावतारमें रत्नोंकी वर्षा होगी सनकेजन्म कल्याणक सुमेरु पर्वतपर क्षीर सागरके जलसे होवेंगे, उपमारहित हैं तेज रूप सुख अरवल जिनके ऐसे सर्व ही कर्म शत्रुके नाश करणहारे अर महावीर स्वामीरूपी मूर्गके अस्त भए पीछे पाखण्डरूप अज्ञानी चमत्कार करेंगे वह पाखण्डी संसाररूप कूपमें आप पडेंगे अर औलोको गेगे। चक्रवर्तियोंमें प्रथम तो भरत भए, दूसरा तू सगर भया, अर तीसरा मघवा, चौथा सनत्कुमार अर पांचवां शांति, छठा कुथु, सातवां अर, आठवां सुभूम, नवा महापद्म, दशवां हरिपेण, ग्यारहयां जयसेन, बारहवां ब्रह्मदत्त, यह बारह चक्रवर्ती अर वासुदेव नव अर प्रतिवासुदेव ६ बलभद्र नव होवेंगे इनका धर्ममें सावधान चित्त होगा यह अवसर्पणीके महापुरुप कहे । इसी भांति उत्सर्पणी में भरत ऐरावतमें जानने । इस भांति महापुरुषोंकी विभूति अर कालकी प्रवृत्ति पर कर्म के वश संसारका भ्रमण पर कर्म रहितोंको मुक्तिका निरुपम सुख यह सर्वकथन मेघवाहनने सुना, यह विचक्षण चित्त में विचारता भया कि हाय ! हाय !! जिन कर्मोये यह मातापको प्राप्त होय है तिन्ही कर्मोको मोह मदिरासे उन्मत्त हुआ यह जीव बांधे है । वह विषय विषवत् प्राणोंके हरण हारे कल्पनामात्र मनोज्ञ हैं । दुःखके उपजावनहारे हैं इनमें रति कहां, इस जीवने धन स्त्री कुटुम्बादिमें अनेक भव राग किया परन्तु वे पदार्थ इसके नहीं हुये यह सदा अकेला संसारमें परिभ्रमण करे है । यह सर्व कुटुम्बादिक तब तक ही स्नेह करे हैं जबतक दानकर उनका सन्मान करे हैं जैसे श्वानके बालकको जब लग ट्रक डारिए लोलग अपना है, अन्तकाल में पुत्र कलत्र बान्धव मित्र धनादिकके साथ कौन गया और यह किसके साथ गए यह भोग काले सर्पके फण समान भयानक हैं, नरकके कारण है । इनमें कौन बुद्धिमान संग करे, अहो यह बड़ा आश्चर्य है। लक्ष्मी ठगनी अपने आश्रितोंको ठगे है इसके समान अर दुष्टता कहां ? जैसे स्वप्नमें किसी वस्तु का समागम होय है तैसे कुटुम्बका समागम जानना अर जैस इन्द्रधनुष क्षणभंगुर है तैसे परिवारका सख क्षणभंगुर जानना । यह शरीर जलके चुदवुदेवत् असार है अर यह जीतव्य विजलीके चमकारवत् असार चंचल है तो सबको तजकर एक धर्म ही का सहाय अंगीकार करू, धर्म कैसा है सदा कल्याणकारी ही है कदापि विघ्नकारी नही अर संसार शरीर भोगादिक चतुरगतिके भ्रमणके कारण हैं महा दुखरूप है ऐसा जानकर उस राजा मेघवाहनने जिसके बकतर महा वैराग्य ही है महारक्ष नामा पुत्रको राज्य देकर भगवान श्रीअजितनाथके निकट दीक्षा धारी, राजाके साथ एकसौ दश राजा वैराग्य पाय घररूप बन्दीखानेसे निकसे ॥ अथानन्तर मेघवाहनका पुत्र महारक्ष राजार बैठा सो चन्द्रा समान दानरूपी किरण के समूहसे कुटुम्घरूपी समुद्रको पूर्ण करता संता लंकारूपो आकाशमें प्रकाश करता भया, बड़े २ विद्याधरोंके राजा स्वप्नमें भी उसकी प्राज्ञाको पाकर आदरसे प्रतिबोध होयकर हाथ जोड नमस्कार करते भए । उस महारक्षके विमलप्रभा राणी होती भई, प्राण समान प्यारी सो सदा राजाकी आज्ञा प्रमाण करती भई । यह राणी मानो छायासमान पतिकी अनुगामिनी है। उसके Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण अमरक्ष उदधिरक्ष भानुरक्ष ये तीन पुत्र भए । वह सब नाना प्रकारके शुभ कर्मकर पूर्ण जिनका बड़ा विस्तार, अति ऊचे जगतमें प्रसिद्ध, मानो तीन लोक ही हैं। अथानन्तर अजितनाथ स्वामी अनेक भव्य जीवोंको निस्तारकर सम्मेदशिम्बरसे सिद्धपद को प्राप्त भए। सगरके छाणवें हजार राणी इन्द्राणीतुल्य अर साठ हजार पुत्र ते कदाचित् बन्दना के अर्थ कैलास पर्वतपर आये । भगवान के चैत्यालयों की बन्दनाकर दण्डरना कैलासके चौगिरद खाई खोदते भए । सो तिनको क्रोधकी दृष्टिस नागेन्द्रने देखा अर ये सब भस्म हो गये । उनमें से दो आयु कर्मके योगसे बचे एक भीमरथ और दूसरा भगीरथ। तब सबने विचारा जो अचानक यह समाचार चक्रवर्तीको कहेंगे तो चक्रवर्ती तत्काल प्राण तजेंगे, ऐसा जान इनको मिलनेसे अर कहनेसे पंडित लोकोंने मना किए, सर्व राजा अर मंत्री जिस विधि आये थे, उसी विधिसे आये। विनयकर अपने २ स्थानक चक्रवर्तीके पास बैठे । तब एक वृद्ध कहता भया कि 'हे सगर ! देख, इस संसारकी अनित्यता, जिसको देखकर भव्य जीवोंका मन संसारमें नहीं प्रवृत्ते है आगे तुम्हार समान पराक्रमी राजा भरत भये, जिसने छै खण्ड पृथ्वी दासीके समान वश करी उसके अर्ककीर्ति पुत्र भए महा पराक्रमी जिनके नामसे सूर्य वंश प्रवृत्ता इस भांति जे अनेक राजा भये ते सर्व कालवश भये अर राजाओंकी बात तो दूर ही रहो जे स्वर्ग लोकके इन्द्र महा विभवयुक्त है ते भी क्षणमें विलाय जाय हैं अर जे भगवान तीर्थकर तीनों लोकके आनन्द करण हारे हैं वे भी आयुके अन्त होनेपर शरीरको तज निर्माण पधारे हैं। जैसे पक्षी वृक्ष पर रात्रिको प्राय बसे हैं प्रमात अनेक दिशाको गमन करे हैं, तैसे यह प्राणी कुटुम्बरूपी वृक्ष में आय बसे हैं। स्थिति पूरीकर अपने कर्मवश चतुर्गतिमें गमन करे हैं, सबसे बलवान महाबली यह काल है, जिसने बड़े २ बलवान निर्वल किये । अहो ! बड़ा आश्चर्य है। बड़े पुरुषोंका विनाश देखकर हमारा हृदय नहीं फट जाय है । इन जीवों के शीर सम्पदा अर इष्टका संयोग सर्व इन्द्रधनुष, वा स्वप्न, वा विजली, वा झाग, वा बुदबुदा समाज जानना । इस जगतमें ऐसा कोई नहीं है, जो कालसे बचें। एक सिद्ध ही अविनाशी हैं अर जो पुरुष पहाड़को हाथसे चूर्ण कर डारें अर समुद्रको शोष जावें, तो भी कालके बदन में प्राप्त होय हैं । यह मृत्यु अलंध्य है। यह त्रैलोक्य मृन्युके वश है, केवल महामुनि ही जिनधर्मके प्रसादसे मृत्युको जीते हैं। जैसे अनेक राजा कालवश नये तैसे हमह कालवश होवेंगे। तीन लोकका यही मार्ग है। ऐमा जानकर ज्ञानी पुरुप शोक न करें, शोक संगारका कारण है, इस भांति वृद्ध पुरुषने कही अर इस भांति सर्व सभाके लोगोंने कही ताही समय चक्र. वर्तीने दोऊ बालक देखे । तब मन में विचारी कि सदा ये साठ हजार भेले होय मेरे पास श्रावते हुते नमस्कार करते अर आज ये दोनों ही दीनदन दीखे हैं इसलिये जानिये है कि अर सब काल वश भए अर ये सब राजा मुझे अन्योक्ति कर समझावै हैं । मेरा दुःख देखनेको असमर्थ हैं, ऐसा जान राजा शोकरूप सर्पसा डंया हुआ भी प्राणोंको न तजता भया, मंत्रियोंके वचनसे शको दवाकर संसारको कदली (भेला ) के गर्भवत् असार जान इन्द्रियोंके मुत छोड़ भगीरथको सज देकर जिन दीक्षा आदरी, यह पूर्ण चे खण्ड पृथ्वी जीर्ण तृण समान जान तजी, भीमरथ तहित Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां पर्व श्रीअजितनाथके निकट मुनि होय केवलज्ञान उपाय सिद्ध पदको प्राप्त भए । अथानन्तर एक समय सगाके पुत्र भगीरथ श्रुतसागर मुनिको पूछो भये कि-हे प्रभो ! जो हमारे भाई एक ही साथ म णको प्राप्त भये उनमें मैं वचा । सो किस कारण से वचा । तत्र मुनि बोने कि 'एक सय चतुर्विध संघ वन्दना निमित्त संमेद शिखरको जाते हुये । सो चलते २ अंतिक ग्राममें आय निकसे तिनको देख कर अंतिक ग्रामके लोक दुर्ब वन बोलते भये, हंसने भये, तहां एक कुम्भारने उनको मने करा कर मुनियोंकी स्तुति करी तदनन्तर उस ग्रामके एक मनु ने चोरी करी । राजाने सर्व ग्राम जला दिया उस दिन कुम्हार किसी ग्रासको गया हुता वह ही बचा वह कुम्भार मरकर बणिक भया पर अन्य जे ग्रामो मो थे द्विहन्दी कोड़ी भए। कुम्भारके जीव महाजनने सर्व कौडी खरीदे बहुरि वह मजन मकर राजा भपा, अर कोडी मरकर गिजाई भई, सो हाथीके पगके ता चरी गई । राजा मुने होगकर देव भये, देवसे तू भगीरथ भया अर ग्रामके लोक कैएक भव लेय सगरके पुत्र भये । सो मुनिके संघकी निंदाके पापसे जन्म २ में कुगति पाई अर तू स्तुति करने से ऐसा भया। यह पूर्वभर सुनकर भगीरथ प्रतिरोध को पायकर मुनिराजका व्रतधर परम पदको प्राप्त भये। अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं—'हे श्रेणिक ! यह सगरका चरित्र तो तुझे कहा, आगे लंकाकी कथा कहिये हैं सो सुन । महारिक्ष नामा विद्याधर बड़ा सम्पदावर पूर्ण लंकाका नि:कंटक राज करे सो एक दिन प्रम नामा उद्यानमें राजा राजशोक सहित क्रीडाको गये, कैसा है वह प्रमद नामा उद्यान ? ऊचे पर्वतों. महारमणीक है अर सुगन्धित पुष्पोंसे फूल रहे वृक्षों के समूहसे मंडित अर मिष्ट शब्दोंके बोलनहारे पक्षियं के सपूडसे अति पुन्दर है, तहां रत्नोंकी राशि हैं अर अति सघन पत्र पल्लवकर मंडित लताओं ( बेलों ) के मंडासे छा रहा है ऐसे बनमें राजा लोकों सहित नाना प्रकारको क्रीड़ा कर रतिके सागरमें मग्न हुप्रा जैसे नंदन बनमें इन्द्र क्रीड़ा करे तैसे क्रीड़ा करी। . अथानन्तर सूर्यके अस्त भये पीछे कमल संकोचको प्राप्त भए। तिनमें भ्रमरको दबकर मूबा देख राजाके जीमें चिंता उपजी। उस राजाके मोहकी मंदता हो गई पर भवसागरसे पार होनेकी इच्छा उपजी। राजा विचार है कि देखो मकरंदके रसमें आसक्त यह मूढ़ भौंरा गंधसे तत न भया तातें मृत्यु प्राप्त भया । धिक्कार होहु या इच्छाकू जैसे वह कमलके रसका आसक्त मधुकर मूवा, तैसे मैं स्त्रियोंके मुखरूप कमलका भ्रमर हुआ मरकर कुगतिको प्राप्त होऊंगा। जो यह एक नासिका इन्द्रियका लोभी नाशको प्राप्त भया तो मैं तो पंच इन्द्रियोंका लोभी हूं मेरी क्या पात ? अथवा यह चौइन्द्री जीव अज्ञानी भूलै तो भूलै, मैं ज्ञान संपन्न विषयोंके वश क्यों हुआ ? शहतकी लपेटी खड़गकी धाराके चाटनेसे सुख कहा ? जीभ हीके खंड होय हैं तैसे विषय सेवन में सुख कहा ? अनन्त दुःखोंका उपार्जन ही होय है । विषफल तुल्य विषय है उनसे पराङ्मुख हैं तिनको मैं मन वचन कायसे नमस्कार करूं हूं। हाय ! हाय !! यह बड़ा कष्ट है जो मैं पापी घने दिन तक दृष्ट विषयनिकरि ठगाया गया। इन विषयोंका प्रसंग विषम है । विष तो एक भव प्राण हरे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण VAAVAVAAVAAAAAAAA है। अर यह विषय अनंतभव प्राण हरॆ हैं । यह विचार राजाने किया। उस समय श्रुतसागर मुनि वनमें आये वह मुनि अपने रूपसे चन्द्रमाकी कांति को जीते हैं और दोप्तिसे सूर्यको जीते हैं। स्थिरतामें सुमेरुसे अधिक हैं जिनका मन ए धर्म ध्यान में ही आसक्त है अर जीते हैं राग द्वेष दोय जिन्होंने और तजे हैं मन वचन कायके अपराध जिन्होंने, चार कषायोंके जीतनेहारे पांच इन्द्रियोंके वशी करणहारे के कारक जीवोंके दयालु अर सप्त भयवर्जित आठ मदरहित नव नयके बेत्ता शीलकी नववाडिके धारक दशलक्षण धर्मके स्वरूप परम तपके घरणहारे साधुनोंके समूह सहित स्वामी पधारे तो जीव जंतु रहित पवित्र स्थान देख वन में तिष्ठे जिनकै शरीरकी ज्योतिका दशों दिशामें उद्योत हो गया। अथानन्तर बनपालके सुखसे स्वामीको आया सुन राजा महारिक्ष विद्याधर वनमें आये कैसे हैं राजा ? भक्ति भावसे विनयरूप है मन जिनका, राजा आकर मुनिके पांव पड़े। मुनिका मुख अति प्रसन्न है अर कल्याणके देनहारे हैं चरण कमल जिनके । राजा समस्त संघको नमस्कार कर समाधान (कुशल) पूछ क्षण एक वैठ भक्तिभावसे धर्मका स्वरूप पूछते भये। मुनिके हृदयमें शांति भावरूपी चन्द्रमा प्रकाश कर रहा था सो वचनरूपी किरणसे उद्यात करते संते व्याख्य न करते भये कि-हे राजा! थर्मका लक्षण जीप दया भगवानने कहा है अर सत्य वचनादि सर्व धर्महीका परिवार है यह जीव कर्मके प्रभावसे जिस गति में जाय है उसी शरीरमें मोहित होय है इसलिये तीनलोककी सम्पदा जो कोई किसीको देय तो भी प्राणको न तजे सब ही जीवनेको इच्छे हैं मरनेको कोई भी न इच्छे । बहुत कहनेवर क्या ? जैसे आपको अपने प्राण प्यारे हैं तेसे ही सबको प्यारे हैं इसलिये जो मूरख परजीवोंके प्राण हरें हैं ते दुष्टकर्मी नरकमें पड़े हैं उन समान कोऊ पापी नाहीं । यह जीव जीवोंके प्राण हर अनेक जन्म कुगतिमें दुःख पावे है जैसे लोहका पिण्ड पानी में डूब जाय है तेस हिंसक जीवनका मन भवसागरमें डूबे है । ये वचनकर मीठे बोल बोले हैं अर हृदय में विपके भरे हैं इन्द्रियोंके वश होकर मल न हैं भले आच रसे रहित स्वेच्छाचारो कामके सेवनहारे हैं ते नरक तिथंच ग में भ्रमण करे हैं। प्रथम तौ इस संसर में जीवोंको मनुष्य देह दुर्लभ है । फिर उत्तम कुल आर्यक्षेत्र सुन्दरता धनकर पूर्णता विद्याका आगमन तत्त्वका जानना धर्मका आचरण यह अति दुर्लभ है । धर्मके प्रसादतें के एक तो सिद्ध पद पाते हैं। कै एक स्वर्ग लोकमें सुख पाकर परम्पराय मोक्षको जाय हैं अर कई एक मिथ्यादृष्टि अज्ञान तप कर देव होय स्थावर योनिमें आय पड़े हैं । कई एक पशु होय हैं कई एक मनुष्य जन्ममें आवे हैं । माताका गर्भ मल मूत्रकर भरा है। कृमियोंके समूहकर पूर्ण है। महा दुर्गन्य अत्यन्त दुस्सह उसमें पित्त श्लमके मध्य चर्मके जाल में ढके यह प्राणो जननीके आहारका जो रस ताहि चाटें हैं। जिनके सर्व अंग सकुच रहे हैं । दुःखके भार कर पीड़े नव महीना उदरमें बसकर योनिके द्वार से निकसे हैं । मनुष्य देह पाय पापी धर्मको भूल है । मनुष्य देह सर्व योनि योंमें उत्तम है। मिथ्यादृष्टि नेम धर्म प्राचारवर्जित पापी विषयों को सेवे हैं । जे ज्ञानरहित कामके नश पड़े स्त्रीके वशी होय हैं ते महा दुःख भोगते हूए संसार समुद्रमें डूबे हैं इसलिये विषय कषाय Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ पांवर्ग पर्व न सेवने । हिंसाका बचन जिसमें पर जीवको पीड़ा होय सो न बोलना । हिंसा ही संसारका कारण है । चोरी न करना, सांच बोलना, स्त्रीकी संगति न करनी, धनकी वांछा न रखनी, सर्व पापारम्भ तनने, परोपकार करना, पर पीड़ा न करनी । यह मुनिकी आज्ञा सुनकर धर्मका स्वरूप जान राजा वैराग्यको प्राप्त भये । मुनिको नमस्कार कर अपने पूर्व भव पूछे। चार ज्ञानके थारक मुनि श्रुतिसागर संक्षेपताकर पूर्व भव कहते भये कि-'हे राजन् ! पोदनापुर, हित नाभाएक मनुष्य उसके माधवी नामा स्त्री उसके प्रीतम नामा तू पुत्र था अर उसी नगर में राजा उदयाचल राणी अहंश्री उसका पुत्र हैमरथ राज करे सो एक दिन जिन मन्दिर में महापूजा कर ई वह पूजा अानन्दकी करणहारी है । सो उसके जयजय कार शब्द सुनकर तने भी जयजयकार शब्द किया सो पुप उपार्जा । काल पाय मुना अर यक्षोंमें महायत हुवा । एक दिन विदेहक्षेत्र में कांचनपुर नगरके वन में मुनियों को पूर्व भवके शत्रुने उपसर्ग किया। यनने उनको डराकर भगा दिया अर मुनियोंकी रक्षा करी सो अति पुपकी राशि उपार्जी । कै एक दिनमें आयु पूरी कर यक्ष तडिदंगद नामा विद्याधरकी श्रीप्रभा स्त्रीके उदित नामा पुत्र भया । अमरविक्रम विद्याधरोंके ईश वंदनाके निमित्त मुनिके निकट आये थे उनको देखकर निदान किया। महा तपकर दूसरे स्वर्ग जाय वहांसे चयकर तू मेघवाहनके पुत्र हुवा । हे राजा ! तूने सूयके स्थकी न्याई संसार में भ्रमण किया। जिह्वाका लोलुपी स्त्रियोंके वशवर्ती होय अनन्त भव धरे । तेरे शरीर इस संसार में एते व्यतीत भये जो उनको एकत्र करिये तो तीनलोकमें न समावें र सागरोंकी आयु स्वर्गमें सेरी भई। जय स्वर्गहीके भोग से तू तृप्त न नया तो विद्याधरोंके अल्प भोगसे तू कहा तृप्त होय । अर तेरा अयु भी अब आठ दिनका बाकी है इसलिये स्वप्न इन्द्रमाल समान जे भोग उनसे निवृत्त हो । ऐसा सुन अपना मरण जाना तो भी विषादको न प्राप्त भये। प्रथमो जिन चैत्यालपमें बड़ी पूजा कराई पीछे अनन्न संसारके भ्रमण से भयभीत होकर अपने बड़े पुत्र अमरक्षको राज देय अर लघु पुत्र भानुरजको यु राज पद देय आप परिग्रहको त्याग कर तत्त्वज्ञान में मग्न भये । पाषाणके थंभ तुल्य निश्चल हाय ध्यानमें रिष्ठ अर लोभकर रहित भये । खान पानका त्याग कर शत्रु भित्र समान बुद्धिधार निश्चल कर मौनयतके धारक समाधि मरण कर स्वर्गविष उत्तम देव भये। अथानन्तर किन्नरनादनामा नगरी श्रीधर नामा विद्याधर राजा उसके विद्यानामा राणी उसके अरिजयानामा कन्या सो अमररक्षने परणी अर गंधर्वगीत नगरमें सुरसनिम राजा उसके राणी गंधारी की पुत्री गंधर्वा सो भ नुरक्षने परणी: बड़े भाई अमररक्षके दश पुत्र अर देवांगना समान छह पुत्री भई जिनके आभूषण गुण ही हैं अर लघु भाई भानु क्षके दश पुत्र अर छह पुत्री भई सो उन पुत्रोंने अपने अपने नामसे नगर बसाए । वे पुत्र शत्रु ओंके जीतनेहारे पृथ्वीके रक्षक हैं उन नगरोंके नाम सुनो । सन्ध्याकार १ सुदेव २ मनोह्लाद ३ मनोहर ४ हंसद्वीप ५ हरि ६ योध ७ समुद्र ८ कांचन : अर्धस्वा १० ए दश नगर तो अमररक्षके पुत्रोंने बसाये अर श्रावत नगर १ विघट २ अम्भोद ३ उतकट ४ स्फुट ५ रितुग्रह ६ तट ७ तोय ८ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पद्म-पुराण आवली द्वीप १० यह दश नगर में नुरक्षके पुत्रोंने बसाए । कैसे हैं वे नगर ? जिनमें नाना प्रकार के रत्नोंसे उद्योत हो रहा है सुकी भींति तिनसे दैदीप्यमान वे नगर क्रीड़ा के अर्थी राक्षसोंके निवास होते भए, बड़े बड़े विद्याधर देशान्तरोंके बासी वहां आय महा उत्साहकर निवास करते भए । अथानन्तर पुत्रोंको राज देय अमररक्ष भानुरच यह दोनों भाई मुनि होय महा तपकर मोक्ष पदको प्राप्त भए, इस भांति राजा मेघवाहनके बंशमें बड़े २ राजा भए । ते न्यायवन्त प्रजापालनकर सकल बस्तुसे विरक्त होय मुनिके व्रत धार कई एक मोक्षको गये, कई एक स्वर्ग में देवता भए, उस वंशमें एक राजा रक्ष भये उनकी राणी मनोवेगा उसके पुत्र राक्षस नामा राजा भये तिनके नामसे राक्षस वंश कहाया । यह विद्याधर मनुष्य हैं, राक्षस योनि नही, राजा राक्षसके राणी सुप्रभा उसके दो पुत्र भए । आदित्यगति नामा बड़ा पुत्र अर छोटा बृहत्कीर्ति, यह दोनों चन्द्र सूर्य समान अन्यायरूप श्रंथकारको दूर करते भये, तिन पुत्रोंको राज देय राजा राक्षस मुनि होय देवलोक गये, राजा आदित्यगति राज्य करें पर छोटा भाई युवराज हुवा घड़े भाईकी स्त्री सदनपद्मा पर छोटे भाईकी स्त्री पुष्पन भई । श्रादिगतिका पुत्र भीमप्रभ भया । ताके हजार राणी देवांगन समान वर एकमौ आठ पुत्र भए जो पृथ्वीके स्तम्भ होते भये। उनमें बड़े पुत्र को राज्य देय राजा भीमप्रभ वैराग्यको प्राप्त होय परमपदको प्राप्त भये । पूर्व राक्षसोंके इन्द्र भीम सुभीमने कृपाकर मेघवाहनको राक्षस द्वीप दिया सो मेघवाहनकेवंशमें बड़े बड़े राजा राक्षस द्वीप के रक्षक भए, भीमप्रभका बड़ा पुत्र पूजाई सो अपने पुत्र जितभास्कर को राज्य देय मुनि भए थर जितभास्कर संपरकीर्ति नामा पुत्रको राज्य देय मुनि भये श्रर संपरकीर्ति सुग्रीव नामा पुत्रको राज्य देय मुनि भये । सुग्रीव हरिग्रीवको राज्य देय उग्रतपकर देवलोक गया पर हरिग्रीव श्रीग्रीवको राज्य देय वैराग्यको प्राप्त भए र श्रीग्रीव सुमुख नामा पुत्रको राज्य देय मुनि भये । अपने बड़ों ही का मर्ग अंगीकार किया और सुमुख भी सुव्यक्तको राजदेव आप परम ऋषि भए र सुव्यक्त अमृतवेग को राज देय बैरागी भये र अमृतवेग भानुगतको राज देय यति भये अर वे हू चिताको राज देकर निश्चिन्त भये र चिन्तागति भी इंद्रको राजदेयमुद्रभये । इस भांति राक्षम बंशमैं अनेक राजा भये तहां राजा इंद्रके इंद्रप्रभुताके मेघ, तार्क मृगादमन, ताके पवि, ताके इंद्रजीत, ताके भानुवर्मा, ताके भानु, सूर्य समान तेजस्वी, ताके मुरारी, ताके त्रिजत्, ताके भीम, ताके मोहन, ताके उद्धारक, ताके रवि, वाके चाकर, ताके वज्रव्य, ताके प्रमोद, नाके सिंहविक्रम, ताके चामुण्ड ताके मारख, ताके भीष्म, ताके द्रुपवाह, ताके अरिमर्दन ताके निर्वाणभक्ति, ताके उग्रश्री, ताके अर्हद्भक्त, ताके अनुत्तर, तागतभ्रम, ताके नि, ताके चंड, ताके लंक, ताके मयूरवादन, ताके महाबाहु, ताके मनोरम्य, ate भास्करप्रभ, ताके वृद्गति, ताके वृहद कित र ताके अरिसंत्रास, ताके चन्द्रावर्त, ताके महारत्र, ताके मेघध्वान, ताके ग्रहतोभ, ताके नक्षत्रदमन । इस भांति कोटिक राजा भये । बड़े विद्याधर महाबलमंडित महाकांतिके धारी पराक्रमी परदाराके त्यागी निज स्त्रीमें है संतोष Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां.पर्व जिनके, लंकाके स्वाम, महासुंदर, अस्त्रके धारक, स्वर्ग लोकके श्राये अनेक राजा भये । ते अपने पुत्रों को राज देय जगतसे उदास होय जिन दीक्षा धारि कई एक तो कम काट निर्वाणको गये, जो तीन लोकका शिखर है अर कई एक राजा एपके प्रभावसे प्रथम स्वर्गको आदि देय सर्वार्थसिद्धितक प्राप्त भये । इस भांति अनेक राजा ब्यतीत भये लंकाका अधिपति घनप्रभ उसकी राणी पद्माका पुत्र कीर्तिधाल प्रसिद्ध भया । अनेक विद्याधर जिसके आज्ञाकारी जैसे स्वर्गमें इन्द्र राज कर तेसे लंकामें कीर्तिधवल राज करता भया । इस भांति पूर्व भरमें किया जो तप उसके बलसे यह जीव देवगतिके तथा मनुष्य गतिके सुख भोगे है अर सर्व त्याग कर महाव्रत घर आठ कम भस्म कर सिद्ध होय है अर जे पापी जीव खोटे कर्मों आसक्त हैं ते इसी ही भवमें लोकनिन्द्य होय मरकर कुयोनिमें जाय हैं पर अनेक प्रकार दुःख भंग हैं ऐसा जान पापरूप अन्धकारके हरणेको सूर्य समान जो शुद्धीपयोग उसको भजो। इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराणकी भाषाटीकाविष राक्षसबंशका कथन जाबि है पांचा पर्व संपूर्ण भया ।। ५ ।। अथानन्तर गौतम स्वामी कहे हैं-राजा श्रेणिक ! यह राक्षसवंश पर विद्याधरोंके वंशका वृत्तांत तो तुझसे कहा अब बानरवंशियों का कथन सुन । स्वर्ग समान जो विजयागिरि उसकी दक्षिण श्रेणीम मेघपुर नामा नगर ऊंच महलांसे शोभित है, तहां विद्याधरोंका राजा रतीन्द्र पृथ्य पर प्रसिद्ध भोग सम्पदामें इन्द्र तुल्य ताके श्रीमती नामा राणी लक्ष्मी समान हुई । जिसके मुख की चांदनीसे सदा पूर्णमासी समान प्रकाश होय, तिनके श्रीकण्ठ नामा पुत्र भया जो शास्त्रमें प्रवीण जिसके नामको सुनकर विचक्षण पुरुष हर्ष तो पास होय उसके छोटी बहिन महामनोहर देवो नामा हुई जिसके नेत्र कानके वाण ही है। अथानन्तर रत्नपुर नामा नगर अति सुन्दर तहां पुष्पोत्तर नाम राजा विद्याधर महाबलवान उसके पद्माभा नाम पुगो देवांगना समान अर पद्मोत्तर नापा पुत्र महा गुणवान जिसके देखनसे अति आनन्द होय सो राजा पुष्पोत्तर अपने पुत्रके निमित्त राजा अतींद्रही पुत्री देवी को बहुत बार याचना करी तो हू श्रीकंठ भाईने अपनी बहिन लंकाके धनी कीधिवल को दीनी श्रर पद्मोचरको न दीनी । यह बात सुन राजा पुष्पोत्तरने अति कोप किया अर कहा कि देखो हममें कुछ दोष नाही, मेरा पुत्र कुरूप नहीं अर हमार उनके कुछ बैर भी नहीं तथापि मेरे पुत्रको श्रीकण्ठने अपनी बहिन न परणाई यह क्या युक किय ! ए दिन श्री.ण्ड चैत्यालगोंके बन्दनाके निमित्त सुमेरु पर्वत पर हिमानमें पैठ कर गए, विमान पवन समान वेगवाला अर अति मनोहर है । सो बन्दना कर आवते हुते मार्गमें पुष्पोत्तरकी पुत्री पद्माभाका राग सुन मन मोहित भया, गुरु समीप संगीतगृहमें वीण बजावती पद्माभा देखी। उसके रूपसमुद्रमं उसका मन मग्न होगग मनके काढियेको असमर्थ भया उसकी ओर देखता रहा और यह भी अति रूपवान, सो इसके देखनेसे वह भी मोहित भई । यह दोनों परस्पर प्रेमस्त कर बन्धे सो उसका भन जान श्रीक.. लंग । सो राजा पुष्पोत्तरके पुत्रको Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ पञ्च-पुरान श्रीकण्ठने अपनी बहिन न परणाई, ताकरि वह क्रोधरूप था ही । अब अपनी पुत्रीकेहरणेसे अत्यन्त कोपित होकर सर्व सेना लेय श्रीकण्ठके मारणको पीछे लगा । दांतोंसे होंठोंको पीसता क्रोधसे जिसके नत्र लाल होरहे हैं ऐसे महावलीको आवते देख श्रीयाण्ड डरा अर भाजकर अपने बहनेऊ लंकाक धनी के शिधवलकी शरण याया सो समय पाय बड़ोंके शरण जाया जाय ही हैं । राजा कीर्तिमवल श्री.को देख आना साला जान बहुत तोहसे मिला छातीसों लगाया, बहुत सन्मान किया इनमें आपस में कुशल वार्ता हो रही थी कि पुष्पोत्तर सेना सहित आकाशमें आए । कीरिधवलने उनको दूरसे देखा-राजा पुष्पोत्तर संग अनेक विद्याधरोंके समूह महा तेजवान हैं खड्ग सेल धनुष बाण इत्यादि शस्त्रों के समूहस प्राकाशमें तेज होय रहा है ऐसे माया मई तुरंग जिनका ब'यु समान वेश है पर कालो घटा समान मायामई गज चलायमान है घण्टा अर सूड जिनकी, मायामई सिंह अर बड़े बड़े विमान उनकर मंडित आकाश देखा। उत्तर दिशाकी ओर सेनाके समूह देख राजा कीविरलने क्रोध सहित हराकर मंत्रियों को युद्ध करने की आज्ञा दीनी तब श्रीकण्ठ लज्जास नीचे हो गरे अर श्रःण्ठो कार्तिवलस कहा-जो मेरी स्त्र अर मेरे कुटुम्बकी तो रक्षा आप करो अर मैं आपके प्रतापसे युद्ध में शत्रुओंको जीत अाऊंगा । तब कीर्तिधवल करते भए कि यह बात तुमको कहनः अयुक्त है । तुम सुखसे तिष्ठो युद्ध करनेको हम बहुत हैं जो यह दुर्जन नरमीसे शान्त होय तो भला ही है, नहीं तो इनको मृत्युके मुख देखोगे ऐसा कह अपने स्त्र के भाईको सुखसे अपने महलमें राख पुष्पोत्तरके निकट बड़ी बुद्धि अर बड़ी वय (उमर) के धारक दूत भेजे । ते दूत जाय पुष्पोत्तरसों कहते भए जो हमारे मुखसे तुमको रामा कीर्तिधवल बहुत आदरसे कह है कि तुन बड़े कुलों उपजे हो, तुम्हारी चेष्टा निर्मल है, तुम सर्व शास्त्रके वेत्ता हो, जगन्में प्रसिद्ध हो अर सबमें वय कर बड़े हो। तुमने जो मर्यादाकी रीति देखी है सो किसीने कानों से सुनी नहीं यह श्रीकण्ड चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल कुलमें उपजा है, अर धनवान है, विनयवान है, सुन्दर है, सर्व कलामें लिपुण है, यह कन्या ऐसे ही बरको देने योग्य है, कन्याके अर इसके रूप अर कुल समान हैं इसलिये तुम्हारी सेनाका क्षय कौन अर्थ करावना, यह तो कन्याओंका स्वभाव ही है कि जो पराये गृहका सेवन करें। दूत जब तक यह बात कह ही रहे थे कि पद्माभाकी भेजी सखी पुष्योत्तरके निकट प्राई उ.र कहती भई कि तुम्हारी पुत्रीने तुम्हारे चरणारविन्द को नमस्कार कर निती करी है जो मैं तो लनासे तुम्हारे समीप कहनेको नहीं आई तातें सखीको पठाई है 'हे पिता! इस श्रीकण्ठका अल्प भी अपराध नहीं, मैं कर्मानुभव कर इसके संग आई हूं । जो बड़े कलमें उपजी स्त्र हैं, तिनके एक ही वर होय है तात या टालि (इसके सिवाय) मेरे अन्य पुरुषका त्याग है। इसप्रकार सख ने विनती करी तब राजा सचिंत होय रहे, मनमें विचारी कि मैं सर्व बातोंमें समर्थ हूं, युद्धमे लंका धनीको जीत श्रीकण्ठको बांधकर लेजाऊ परन्तु मेरी कन्या हीने इसको वरा तो मैं इसमें क्या करू ? ऐसा जान युद्ध न किया अर जो कीर्तिधवलके दूत आये हुते तिनको सन्मान कर विदा किया, अर जो पुत्रीकी सखो आई थी उसको भी सन्मानकर विदा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा पर्व किया, अर जो पुत्रीकी सखी आई थी उसको भी सन्मानकर विदा दीनी । वे हर्षकर भरे लंका आये अर राजा पुष्पोत्तर सर्व अर्थक वेत्ता पत्रीकी बीनतीसे श्रीकण्ठसे क्रोध तज अपने स्थानको गए। ___ अथानन्तर मार्गशिर सदी पडयाके दिन श्रीकण्ठ अर पमाथामा विवाह भया अर कीर्तिधवलने श्रीकण्ठसों कहा जो 'तुम्हारे बैरी विजपा में बहुत हैं तातै तुम यहां ही समुद्रके मध्यमें जो द्वीप है तहां तिष्ठो' तुम्हारे मनको जो स्थानक रुचे सो लेबो, मेरा मन तुमको छोड़ नहीं सके है अर तुम भी मेरी प्रीतिका बन्धन तुडाय कैसे जावोगे ऐसे श्रीकण्डमों कहकर अपने आनन्द नामा मन्त्रीसे कही 'जो तुम महाबुद्धिमान हो पर हमारे दादे के मुह आगिले हो, तुमसे सार असार कुछ छाना नाहीं है, श्रीकण्ठयोग्य जो स्थानक होय मो बनायो । तब आनन्द कहते भए कि महाराज ! आपके सत्र ही स्थानक मनोहर हैं तथापि भार ही देखकर जो दृष्टिमें रुचे सो दें। समुद्र के मध्यमें बहुत द्वीप हैं कल्पवृक्ष सनन वृक्षोंसे मंडे। जहां नाना प्रकारके रत्नोंकर शोभित बड़े बड़े पहाड़ हैं। जहां देव क डा करे हैं तिज द्वीपों में महारमणीक नगर हैं जहां स्वर्ण रत्नोंके महल हैं सो उनके नाम नमो। संध्याकार सुोल कांचन हरिपुर जोधा जलविध्वान हंसद्वीप भरक्षम अर्धस्वर्ग कूटावर्त विघट रोधन अमलकांत स्फुट रत्न्द्वीप तोयावली सर अलंघन नभोभा क्षेम इत्यादि मनोज्ञ स्थानक है। जहां देव भी उपद्रा न कर सकें। यहां के उचर भाग तीनसो योजन समुद्र के मध्य वानरद्वोर है जो पृथ्याने प्रसिद्ध है जहां अधांतरद्वीप बहुत रमणीक हैं, कई एक तो सूर्य कांति मग पोंकी यांतिने देदीप्यमान हैं और कई एक हरित मणियोंकी कांतिसे ऐसे शोभे हैं मानो उगते हरे तुगों से भूमि व्याप्त हो रही है अर कई एक श्याम इन्द्र नीलमणि की कांतिके समूहसे ऐसे शोभे हैं मानों सूर्य के अपने अन्धकार वहां शरण आकर रहा है और कहीं लाल पन राग मणिगों के समूहसे मन रक्त कमलों का बन ही शोभे है जहां ऐसी सुगन्य पवन चले है कि आकाराने उड़ो पक्षी भी सुगन्धसे मग्न हो जाय हैं अर वहां वृक्षोंपर आय बैठे हैं अर स्फटिक मणिके मध्यमें जो पमराग मणि मिना है उनसे सरोवरमें पंक ही कमल जाने जाय हैं उन मणियोंकी ज्योतिसे कम के रंग न जाने जाय हैं जहां फूलों की बाससे पक्षी उन्मत्त भए ऐसे उन्मत्त शब्द करे हैं मानो सम पके द्वगरे अनुराग भरी बातें करे है । जहां औषधियोंकी प्रभाके समूहसे अन्धकार दूर होय है सो अंधेरे पक्षमें भी उद्योत ही रहे हैं जहां फल पुष्पोंसे मंडित वृत्तोंका आकार छत्र समान है। जिनके बड़े २ डाले हैं उनपर पक्षी मिष्ट शब्द कर रहे हैं जहां बिना बाहे वान पाप हो उगे हैं वह वान वीर्य अर कांतिको विस्तीरणेवाले हैं मंद पवनसे हिलतं हुए शोभे हैं । उनसे पृथ्वी मानो कंचुक ( चोला) पहरे है। जहां नीलकमल फूल रहे हैं जिनपर भ्रमरोंके समूह गुजार करै है मानो सरोवरी ही नेत्रोंसे पृथ्वीका विलास देखे है । नीलकमल तो सरोबरीनिके नेत्र भए भ्रमर भौहे भए । जहां पौढ़े अर सांठों की विस्तीर्ण बाडी हैं। सो पवन के हालने से शब्द करे हैं ऐसा सुन्दर बानरद्वीप है उसके मध्यमें किहकुदा नामा पर्वत है, वह पर्वत रत्न अरस्वर्णकी दिलाके समूहसे शोभायमान है जैसा यह Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण त्रिकूटाचल मनोज्ञ है तैसा ही किहकुन्द पर्वत मनोज्ञ है । अपने शिखरोंसे दिशारूपी कान्ता को स्पर्श करे है । अानन्द मंत्रीके ऐसे वचन सुनकर राजा कीर्तिववल बहुत आनन्दरूप भए । वानरद्वीप श्रीकण्ठको दिया। तत्र चैत्रके प्रथम दिन श्रीकण्ठ परिवार सहित वानरद्वीपमें गए। मार्गमें पृथ्वी की शोभा देखते चले जाय हैं वह पृथ्वी नीलमणिकी ज्योतिसे आकाश समान शोभे है अर महाग्रहोंके समूइसे संयुक्त समुद्रको देख आश्चर्यको प्राप्त भए बानरद्वीप जाय पहुंचे। वानरद्वीप मानो दूसरा स्वर्ग ही है, आने नीझरनोंके शब्दसे मानों राजा श्रीकण्ठको बुलावे ही है । नीझरने के छांटे आकाशको उछले हैं मो मानो राजाके आनेपर अतिहर्ष को प्राप्त भए अानन्दकर हंसे हैं। नाना प्रकारकी मणियोंसे उपजा जो कांतिका मुन्दर समूह उपसे मानों तोरणके ऊचे समूह ही चढ़ रहे हैं। राजा वानरद्वीपमें उतरे अर सर्व ओर चौगिरद अपनी नील कमल समान दृष्टि सर्वत्र विस्तारी । छुहारे आंवले कैथ अगरचन्दन पीपरली सहीजणांअर कदम्ब आंवला रोली केला दाडिम सुपारी इलायची लवंग मौलश्री अर सर्व जातिव मेवोंसे युक्त नाना प्रकार वृक्षोसे द्वीप शोभायमान देखा ऐसी मनोहर भूमि देखी जिनके देखते हुये पोर ठौर दृष्टि न जाय। जहत सरल अर विस्तीर्ण ऊपर छतसे बन रहे हैं सघन सुन्दर पल्लव अर शाख। फूलनिके समूहरो शोभे हैं अर महा ग्मीले स्वादिष्ट मिष्ट फहोंसे नम्रीभृा होय रहे हैं अर वृक्ष अति ऊचे भी नहीं अति नीचे भी नहीं मानों कल्पवृक्षके समान शोभे हैं जहां बेलनि पर फूलोंके गुच्छो अग रहे हैं जिन पर भ्रमर गंजार रहे हैं सो मानों यह बेल तो स्त्री है, उनके जो पल्ला है सो हाथों की रथेनी हैं श्रर फूलोंके गुच्छे कुच हैं अर भ्रार नेत्र हैं, वृक्षोंसे लग रहे हैं अर ऐसे ही तो सुन्दर पक्षी बोल हैं अर ऐसे ही मनोहर भ्रमर गनार करे हैं मानों परस्पर बालाप करे हैं। जहां कई एक देशको स्वर्ण समान कांतिको थरे हे, कई एक कमल समान, कई एक वैडूर्य मणि मान है। देव नाना प्रकारके वृक्षोंसे मंडत हैं जिसको देख कर स्वर्ग भूमि भी नहीं रुचे है, जहां देव क्रीड़ा करे हैं, जहां हेस सारेस, सूधा, मैना, कबूनर, कमेरी इत्यादि अनेक जातिके पक्षी क्रीड़ा करे हैं। जहां जीवोंको किसी प्रकार की बाधा नहीं, नाना प्रकारके वृक्षोंकी छाया मंडप रत्न स्वर्णके अनेक निवास पुष्पोंकी अति सुगंधि ऐसे उपवन में सुन्दर शिलाके ऊपर राजा जाय विराजे पर सेना भी सकल वनमें उतरी । हों, सारसों, मयूरोंके नाना प्रकारके शब्द सुने अर फल फलों की शोभा देखी, सरोवरों में मीन केल करते देखे वृक्षों के फूल गिरे हैं अर पक्षियोंके शब्द होय रहे हैं सो मानों वह वन राजाके आवन फूलोंकी वर्षा करें है अर जय-जयकार शन्द करै है। नाना प्रकारके रत्नोंसे मंडिा पृथ्वी मण्डलकी शोभा देख २ विद्याधरों चिच बहुत सुखी हुआ अर नन्दनवन साखिा वह वन उपमें राजा श्री.ण्ठने क्रीड़ा करते बहुत बानर देखे । जिनकी अनेक प्रकारकी चेष्टः हैं राजा देख र मनमें बितरने लगे कि तिर्यंच योनिके यह पाणी मनुष्य समान लीला करे हैं । जिनके हाथ पग सर्व प्राकार मनुष्यकासा है सो इनकी चेष्टा देख गजा चकित होय रहे । निकटवर्ती युरुषांसे कहा जो 'इनको मेरे समीप लाप्रा' सो राजा आज्ञासे कई एक बानरोंको लाए। राजाने उनको बहुत प्रीतियों राखे अर नृत्य करना सिखाया और उनके Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा पर्व सके दांत द डेमके फूतोंसों रंग २ नमाशा देखे अर उनके मुख में सोनके तार लगाय २ कौनहल करे । वे आपस में परस्पर जू का तिनके तमाशे देखे अर वे आपसमें स्नेह करें वा कलइ करें तिनके तमाशे देखे । राजाने ते कपि पुरुषों को रक्षा निमित्त सोंपे पर मीठे २ भोजनसे उनको पोखे । इन बानरोंको साथ लेकर किहकंद पर्वत पर चढे । राजाके चित्स सुन्दर वृक्ष सुन्दर बेलि पानीके नीझरणों से हरा गया । तहां पर्वतके ऊपर विषमता रहित विस्तीर्ण भूमि देखी । वहां किहकुंद नामा नगर बपाया । जिसमें बैरियोंका मन भी न प्रवेश कर सके। चौदह योजन लम्बा अर जो परिक्रमा करिये तो बियालीस योजन कछु इक अधिक होय जाके मणियोंके कोट रत्नोंके दरवाजे वा रत्लोंके महल रत्नोंका कोट इतना ऊंचा है कि अपने शिखरसे मानो आकाशसे ही लग रहा है अर दरवाजे ऊचे मणियोंसे ऐसे शोभे हैं मानों यह अपनी ज्योतिसे थिरीभूत होय रहे हैं घोंकी देहली पद्मराग मणिकी है सो अत्यन्त लाल है मानों यह नगरी नारी स्वरूप है सो तांबूल कर अपने अपर ( होंठ) लाल कर रही है अर दरवाजे मोतियों की मालाकर युक्त हैं सो मानों समस्त लोककी सम्पदाको हंसे हैं अर महलोंके शिखर पर चंद्रकांत मणि लग रहे हैं जिससे रात्रि में ऐसा भात है मानों अंधेरी रात्रिमें चंद्र उग रहा है अर नाना प्रकारके रत्नोंकी प्रभाकी पंक्तिकरि मानों उचे तोरण चढ़ रहे हैं वहां घरों को पंक्ति विद्यादरोंकी बनाई हुई बहुत शोभे है घरोंके चौक मणियोंके हैं अर नगर राजमाग बाजार बहुत सीधे हैं उनमें वक्रता नाहीं, अति विस्तीर्ण हैं मानों रत्नके नागर की हैं । सागर जलरूप है यह थलरूप है अर मंदिरोंके ऊपर लोगोंने कबूतरोंके निवास निमित्त नौल मणियोंके स्थान कर राखे हैं सो कैसे शोभे हैं मानों रत्नोंके तेजने अंधकार नगरीसे काट दिया है सो शरण श्रायकर मामीप पड़ा है इत्यादि नगरका वर्णन कहां तक करिये इन्द्र के नगर समान बह नगर जिसमें राजा श्रीकण्ठ पद्मामा राणीसहित जैसे स्वर्गविष शचीसहित सुरेश रमे है तेसे बहुत काल रमते भए । जे वस्तु भद्रशाल वनमें तथा सोमनस वनमें तथा नन्दनमें न पाइये वह राजाके वनमें पाई जावे । एक दिन राजा महल ऊपर विराज रहे थे सो अष्टानिकाके दिनों में इंद्र चतुरनिकायके देवतावोंसहित नंदीश्वर द्वीपको जाते देखे अर देवोंके मुकुटोंकी प्रमाके समूहसे आकाशको अनेक रंग रूप ज्योति सहित देखा अर बाजा बजानेवालोंके समूहसे दशों दिशा शब्दरूप देखीं, किसीको किसीका शब्द सुनाई न देवे, कई एक देव मायामई हमोंपर तथा तुरंगोंपर तथा हाथियोंपर अर अनेक प्रकार वाहनोंपर चढ़े जाते देखे देवोंके शरीर की सुगंधतासे दशों दिशा व्याप्त होय गई तव राजा ने यह अद्भुत चरित्र देख मनमें विचारा कि नंदीश्वर द्वीपको देवता जाय हैं । यह राजा भी अपने विद्याधरों सहित नंदीश्वर द्वीपको जानेकी इच्छा करते भये, विना विवेक विमानार चढ़कर राणीसहित आकाशके पथसे चले परन्तु मानुपोत्तरके मागे इनका विमान न चल सका देवता चले गये । यह अटक रहे तब राजाने बहुत बिलाप किया मनका उत्साह भंग हो गया कांति और ही हो गई। मनमें विचारे है कि हाय ! बड़ा कष्ट है हम होन शक्तिके धनी विद्याधर मनुष्य अभिमानको धरै सो धिक्कार है हमको । मेरे मनमें यह थी कि नन्दीश्वर द्वीपमें भगवानके अकृत्रिम चैत्यालय हैं उनका मैं भावसहित दर्शन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पद्म-पुराण करूगा पर महामनोहर नाना प्रकारके पुष्प, धूप, गंध इत्यादिक अष्टद्रव्योंसे पूजा करूंगा, बारम्बार धरतीपर मस्तक लगाय नमस्कार करूंग इत्यादि मनोरथ किए हुए थे वे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मसे मेरे मंदभागी के भाग्यमें न भए। मैंने आगे अनेक बार यह बात सुनी थी कि मानुषोचर पर्वतको उल्लंघकर मनुष्य आगे न जाय है तथापि अत्यन्त भक्ति रागकर यह वात भूल गया । अब ऐसे कर्म करू जो अन्य जन्ममें नन्दीश्वर द्वीप जानेकी मेरी शक्ति हो, यह निश्चय. कर वज्रकंठ नामा पुत्रको राज्य देय सर्व परिग्रहको त्यागकर राजा श्रीकंठ मुनि भए। एक दिन बनाउने अपने पिताके पूर्व भव पूछनेको अभिलाष किया तब वृद्ध पुरुष वज्रकंठको कहते भए कि हमको मुनियोंने उनके पूर्व भव ऐसे कहे हुते जो पूर्व भवमें दो भाई बणिक थे उनमें प्रीति बहुत थी, स्त्रियोंने वे जुदे किए, उनमें छोटा भाई दरिद्री अर वड़ा धनवान था । सो बड़ा भाई सेठका सतिसे श्रावक भया अर छोटा भाई कुव्यसनी दुःखसों दिन पूरे करे। बड़े भाइन छोटे भाईकी यह दशा देख बहुत धन दिया अर भाईको उपदेश देय ब्रत लिवाए अर आप स्त्रीको त्यागकर अनि होप समाधि मरणकर इन्द्र भए अर छोटा भाई शांतपरिणामी होय शरीर छोड़ देव हुश्रा । देसे चयकर श्रीकंठ भया । बड़े भाईका जीव इंद्र भया था सो छोटे भाईके स्नहस अपना स्वरूप दिखावता संता नन्दीश्वर द्वाप गया सो इंद्रको देख राजा श्रीकंठ को जाति स्मरण हुना। यह परागा भए । यह अपने पिताका व्याख्यान सुन राजा बज्रकण्ठ इन्द्रायुधप्रभ पुत्रका राज दर मुनि भए अर इन्द्रायुधप्रभ भी इन्द्रभूति पुत्रको राज्य देय मुनि भए तिनके मेरु, मेरुक मन्दिर, तिन समीरणगति, तिनके रविप्रभ, तिनके अमरप्रभ पुत्र हुआ, उसन लंकाके धनीकी बेटी गुणवती परणी, मुरणवी राजा अमरप्रभके महलमें अनेक भांतिके चित्राम देखती भई । कहीं तो शुभ सरोवर देखे जिनमें कमल फूल रहे हैं अर भ्रमर गुंजार करे हैं कहीं नील कमल फूल रहे है हंसके युगल क्र ड़ा कर रहे हैं जिनकी चोचमें कमलके तंतु हैं अर क्रोच सारस इत्यादि अनेक पाक्षयोंके चित्राम देखे सो प्रसन्न भई अर एक ठौर पंच प्रकारके रत्नोंके चूर्णसे बानरोंके स्वरूप देख । वे विद्याधरोन चितेरे हैं सो राणी बानरोंके चित्राम देख भयभीत होय कांपने लगी, रोमांच होय अाये, परेवकी बूदोंसे माथेका तिलक बिगड़ गया, अर अांखोंके तारे फिरने लगे। राजा यमरप्रभ यह वृत्त त देखा परके चाकरोंसे बहुत खिझे कि मेरे विवाहमें ये चित्राम किसने कराये। मेरी प्य री राणा इनको देख डरी । तब बड़े लोगांने अरज करी कि महाराज ! इसमें किसीका भी अराध नहीं, आपने कही जो यह चित्राम कराणेहारेने हमको विपरीत भाव दिखाया सो ऐसा कौन है जो आपकी आज्ञा सिवाय काम करे ? सबके जीवनमूल आप हो, आप प्रसन्न होयकर हमारी विनतो सुनो । अागे तुम्हारे वंशमें पृथ्वीपर प्रसिद्ध राजा श्रीकंठ भए । जिनने यह स्वर्ग समान नगर बसाया अर नाना प्रकारके कौतूहलको धारणेवाला जो यह देश उसके वह मूलकारण ऐसे होते भए जेसे क का मूल कारण रागादिक प्रपंच, बनके मध्य लतागृह में सुखसो तिष्ठी हुई किन्नरी जिनके गुण गावें हैं, इन्द्र समान जिनकी शक्ति थी ऐसे वे राजा इन्होने अपनी स्थिर प्रकृतिसे लक्ष्मीकी चंचलतासे उपजा नो अपयश सो दूर Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा पर्व किया । सो राजा श्री एट इनवरोको देखकर पाश्चयका प्राप्त भए अर इन सहित रमें मीठे २ भोजन इनको दिये और इसके चित्राम कढाये। पीछे उनके बंशमें जो राजा भये उनने मंगलीक कार्यों में इनके चित्राम मढ़ाये अर वानरोंसे बहुत प्रीति रखी इसलिये पूर्व रीति प्रमाण अब भी लिखे हैं ऐसा कहा। तब राजा क्रोध तज प्रसन्न होय आज्ञा करते भए जो हमारे बड़ोने मंगल का में इनके चित्राम लिखाए सो अब भूमिमें मत डारो जहां मनुष्यके पाय लगे, मैं इनको मुकटपर राखूगा पर ध्वजावोंमें इनके चिन्ह कराओ अर महलोंके खिर त छत्रोंके शिख पर इनके चिन्ह करायो यह आज्ञा मंत्रियोंको करी सोमंत्रियोंने उस ही भांति मिया, र जाने गुणवती राणीसहित परम सुख भोगो विजयाकी दोऊ श्रेणीके जीतनका मा किया बड़ी च रंग सेना लेकर विजयार्थ गए, राजाकी ध्वजाओंमें अर मुकुटोंमें कांपयोंक चिन्ह हैं । राजाने विजयार्थ जायकर दोऊ श्रेणी जीतकर सब राजा यश किए। सर्व देश अपनी आज्ञा में किये, किसीका भी धन न लिया, जो बड़े पुरुष हैं तिनका यह व्रत है जो राजाओंको नवावें, अपनी अाज्ञामें करें, किसीका धन न हरें । सो राजा सब विद्यधरोको आज्ञामें कर पीछे किहकूपुर आए। विजयाधके बड़े २ राजा लार आये, सर्व विद्याधरोंका अधिपति होकर धने दिनतक राज्य किया लक्ष्मी चंचल थी सो नीतिकी वेड़ी डाल निश्चल करी । तिनके पुत्र कषिकेतु भए जिनके श्रीप्रभा राणी बहुत गुणकी धारणहारी । ते राजा कपिकेतु अपने पुत्र विक्रमसम्पन्नको राज्य देय वैरागी भये अर विकमसम्पन्न प्रतिबल पुत्रको राज्य देय वैरागी भए, यह राज्य लक्ष्मी विपकी वेलके समान जानो । बड़े पुरुषोंके पूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावकर यह लक्ष्मी बिना ही यत्न मिले है परन्तु उनके लक्ष्मीमें विशेष प्रीति नहीं, लक्ष्मी को तजते खेद नहीं होय है । किसी पुण्यके प्रभाव राज्य लक्ष्मी पाय देवोंके सुख भोग फिर वैराग्यको प्राप्त होपकर परमपदको प्राप्त होय है। मोक्षका अविनाशी सुख उपकरणादि सामग्रीक नाधीन नहीं, निरन्तर आत्माधान है, वह महासुख अंतरहित है अविनश्वर है । ऐसे सुखको कौन न पछि। राजा प्रतिबनके गगनानन्द पुत्र भए, उसके खेचरानन्द, उसके गिरिनन्द इस भांति बानर बंशियों के बंशमें अनेक राजा भए । वे राज्य तज वैराग्य धर स्त्रग मोक्षको प्राप्त भये । इस बंशके समस्त राजाप्राक नम अर पराक्रम कौन कह सके । जिसका जैसा लक्षण होय सो तैसा ही कहावे, सेवा करे सो सेक कहावे, धनुष धारै सो धनुषधारी कहावै, परकी पीड़ा टाले सो शरणागति प्रतिपाल होय क्षत्री कहावै । ग्रहाचयं पाले सो ब्राह्मण कहावे, जो राजा राज्य तजकर नि होय सो मुनि पदावे । श्रम कहिये तप धारे सो श्रमण कहावे । यह बात प्रगट ही है लाठी राखे सो लाठीबाला कहावे । तैले यह विद्याधर ध्वजावों पर व नरोंके चिन्ह राखते भये इसलिए बानरवंशी कहाये (क्योंकि संतमें वंश बांसको कहते हैं पर चुलको भा कहते हैं। परन्तु यहां वंश शब्दका बाचक है। वानरोंके चिन्हकर युक्त वंश बास वाला जो जा सो भई वानरवंश उस ध्वजावाले यह राजा बानरवंशी कहलाए) भगवान श्रीवासुपूज्यके समय राजा अपरप्रभ भए उनने वानरोंके चिन्ह मुकुट ध्वजामें कराए तब इनके कुलमें यह रीति चली आई इस भांति संक्षेपसे वानरवंशीयोंकी उत्पत्ति कही। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पद्म-पुराण अथानन्तर इस कुलमें महोदधि नामा राजा भए तिनके विद्युत्प्रकाशा नामा राणी भई, वह राणी पतिव्रता स्त्रियोंके गुणकी निवान है जिसने अपने विनय अर अंगसे पतिका मन प्रसन्न किया है, राजाके सुन्दर सैकड़ों रानी है तिनकी या राणी शिरोभाग्य है महा सौभाग्यवती रूपaat ज्ञानवती हैं उस राजाके महा पराक्रमी एकसौ आठ पुत्र भए तिनको राज्यका भार दे राजा महासुख भोगते भए । मुनिमवू नायक समय में बानरवंशे में यह राजा महोदधि भयं अर कामे विद्युतकेश र महोदावे के परम प्रीति भई । ये दोऊ मकल प्राणियोंके प्यारे अर आपस में एकचित्त, देह न्यारी भई तो कहा, सो विद्युतकश मुनि नये, यह वृत्तान्त सुन महोदधि भी arit भए, यह कथा सुन राजा श्रेणिकने गौतम स्वामीसे पूजा - "हे स्वामी ! राजा विद्युतकेश किस कारण पैरी नए, तब गौतम स्वामीने कहा कि एक दिन विद्युतकेश प्रमद नामा उद्यान में क्रीड़ा करनेको गये। जहां क्रीड़ाके निवास अति सुन्दर हैं, निर्मल जलके भरे सरोवर तिनमें कमल फूल रहे हैं अर सरोवरमें नावें डार राखी हैं, वन में ठौर ठोर हिंडोले हैं, सुन्दर वृक्ष सुन्दर वेल घर क्रीड़ा करनेके लिये सुवर्णके पर्वत, जिनके रत्नोंके सिवाण, वृक्ष मनोज्ञ फल फूलों से मंडित, जिनके पल्लव लता श्रति से हैं पर लताओंसे लफ्टि रहे हैं ऐसे बनमें राजा विद्युतकेन राशियोंके समूह में क्रीड़ा करते हुए। वह राणी मनको हरणहारी पु प दिकके चूटने में श्रासक्त हैं जिनके पल्लव समन कोमल लुगन्ध हप्त, मुखको सुगन्धसेर जिनपर भ्रमे हैं, क्रीड़ाके समय राणी श्रीचन्द्र के कुच एक नशों विदार तर राणी खेद खिन्न भई, रुधिर आ गया । राजाने रागोका दिलासा देयकर अज्ञान भावते बानरको बाणसे चींवा सो बानर घायल होय एक गग चारण महामुनिके पास जाय पड़ा । वे दयालु वानरको कांगा देख दयाकर पंच नमोकार मन्त्र देते भए सो बानर मरकर उदधिकुपर जातिका भवनवाली देव उपजा । यहां बनमें चानरके मरण पीछे राजाके लोक करबान मर रहे थे जो उदधिकुमारने अवधैिसे विचारकर वानरों को मारो जानमानी वानरोंकी सेना बनाई वह बानर ऐसे बने जिनकी दाढ विरल बदन विकराल यह विकराल सिंदूर सारिखा लाल सुखों डराने शब्द को कहते हुवे आये | कैएक हाथ में पर्वत परं कैएक मूलसे उपारे वृक्षों को थरें, कैंएक हाथसे वरतीको कूटते हुये, कईएक आकाश में उछलते हुई, क्रोके भारकर रौद्र हे अंग जिनका उन्होने 'राजाको घेरा, कहते भए रे दुराचारी सम्हार, तेरी मृत्यु आई है । तू वानरोंको मारकर अव किसी शरण जायगा ! तत्र विद्युतकेश डरा पर जाना कि यह बानरोंका बल नाहीं, देवमाया है तब देहकी आशा छोड़ महामिष्ट बाणी करके बिनती करता भया कि – “महाराज ! आज्ञा करो, आप कौन हो, मदेदीप्यमान प्रचंड शरीर जिनके यह बानरोंकी शक्ति नाहीं । आप देव हैं ।" तब राजाको अति विवान देख महोदधि कुमार बोले “हे राजा ! बानर पशु जाति जिनका स्वभाव ही चंचल है उनको तैन स्त्रीके अपराधसे हते सो मैं साधुके प्रसादसे देव भवा । मेरी विभूति तू देख ।" राजा कांपने लगा हृदयावर्षे भय उपजा, रोमांच होय आए तब महोदधि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAA मा पर्न कुमारने कही-"तू मत डर ।" तब इसने कहा कि "जो आप आत्रा करो सो करू।" तत्र देव इसको गुरुके निकट ले गया । वह देव अर राजा यह दोनों मुनिकी प्रदक्षिणा देय नमस्कार कर जाय बैठे। देवने मुनिसे कही कि-"मैं बानर था सो आपके प्रसादसे देवता भया अर राजा विद्यु तकेशने मुनिसों पूछा कि मुझे क्या कर्तव्य है मेरा कल्याण किस तरह होय ? तब मुनि चार ज्ञानके धारक तमोधन कहते भए कि हमारे गुरु निकट ही हैं उनके समीप चलो। अनादि कालका यही धर्म है कि गुरुओंके निकट जाय चर्म सुनिये। प्राचार्य के होते सन्ते जो उनक निकट न जाय अर शिष्य ही धर्मोपदेश देय तो वह शिष्य नहीं, कुमार्गी है, आजार भ्रष्ट हैं ऐसा तपोनने कहा । तब देव अर विद्याधर चित्त चितववे भये कि ऐसे महा पुरुष हैं वे भी गुरु आज्ञा बिना उपदेश नहीं करे हैं । अहो ! ताका महात्म्म अति अधिक है। मुनिकी प्राज्ञा से वह देव अर विद्याधर मुनिके लार मुनिके गुरुपे गये । वहां जायकर तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कार कर गुरुक निकट वेट। महा मुनिकी दिख देव र विद्याधर आश्चर्य को प्राप्त भये । महामुनिजी मूर्तिपकी राशिकर जी जा दीप्ति न कर देदीप्यमान है । देखर नेत्र कमल फूल गये। महा विन पान हा देव अर विद्याधर धर्मका स्वरूप पूछते भये ॥ के है मुनि जिनका मन प्राणियोंक हेतमें सावधान है अर रागादिक जो पंसारके कारण हैं जन प्रसंगते दर है जैस मेघ गम्भीर ध्यान कर गर्जे अर बरसे तैसे महागंभीर ध्वनिसे जगतके कल्याएके निमित्त परम धमला अमृत बरसाते भए । जव मुनि ज्ञानका व्याख्यान करन लगे तब मेघ जैसा नाद जान लता मंडपमें जो माथे वे नृतः करते भए-मुाने महते भए अहो देव विद्याधरो ! तुम बनाय सुनो, तीन ... बानन्द करणहारे त्रीजिनराजने जो धर्मका स्वरूप कहा है, सा में तुमका कहूँ । कई एक माया नीबुद्धि ह, विचाररहित जडचित्त हैं तं अधर्म ही को धर्म जान सेवत जा मागका न ज ... कालन मा नियालित स्थानक को न पहुंचे। मंदमति मिथ्यादृष्टि विषयाभिलापी जीव हिसासे उपजा जो अधर्म उसको जान सवे, ते नरक निगोदके दुख भोग ह ने अज्ञानी खाटे दृष्टान्तोंक समूहसे भरे महापापके पुंज मिथ्या ग्रन्थोंके अर्थ तिनकर धर्म जान प्राखिघात कर हैं वे अनन्त संसार भ्रमण करे हैं। जो अधर्मचर्चा करके वृथा बकवाद करे हैं तं दंडास आकाश .1 फूट है सो कैप कूटा जाय ? जो कदाचित् मिथ्यादृष्टयाक काय क्लेशादि तप हाय अर शब्द ज्ञान भी होय तो भी मुक्तिका कारण नही, सम्यकदशन बिना जो जापना हे सो ज्ञान नही ह अर जा आचरण हे सो कुमारित्र है मिथ्याटियों का जो तप त है सो पाषाण राबर ह और ज्ञानः पुरूषोक जो तप है सा सूर्य माण समान है । धर्मका मूल जीवदया है अर दयाका मूल कामल परिणाम है, सो कामल परिणाम दुष्टोके केस हाय अर परिग्रहधारा पुरुषोंको प्रारम्भ करने से हिंसा अवश्य होय है इसलिए दया के निमित्त परिग्रहका आरम्भ तजना चाहिए तथा सत्य वचन धर्म हैं परन्तु जिस सत्यसे जीवों को पीड़ा होय सो सत्य नहीं भूठ ही है अर चोरीका त्याग करना परनारी तजनी परिग्रहका प्रमाण करना संतोष व्रत थरना इन्द्रियाक विषय निवारना कषाय क्षीण करने, देव गुरु धर्मका Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पा-पुराण विनय करना, निरन्तर ज्ञानका उपयोग राखना यह सम्यग्दृष्टि श्रावकोंके व्रत तुझे कहे। अब घरके त्यागी मुनियोंके धर्म सुनो, सर्व प्रारम्भका परित्याग दशलक्षण धर्मका धारण सम्यग्दर्शन पर युक्त महाज्ञान वैराग्यरूप यतिका मार्ग है । महामुनि पंच महाव्रतरूप हाथीके कांधे चढे हैं अर तीन गुप्तिरूप दृढ़ वकतर पहरे हैं अर पांच समितिरूप पयादोंसे संयुक्त हैं नाना प्रकार तपरूप तीदण शस्त्रोंसे मंदिन हैं अर चित्तके आनन्द करणहारे हैं ऐसे दिगम्बर मुनिराज कालरूप वैरी को जीते हैं वह कालरूप बैरी मोहरूप मस्त हाथीपर चढ़ा है अर कपायरूप सामंतोंसे मंडित है। यतिका धर्म परनिर्वाणका कारण है महामंगलरूप है उत्तम पुरुषोंके सेवने योग्य है अर श्रावक का धर्म तो साक्षात् स्वर्गका कारण है अर परम्पराय मोक्ष का कारण है स्वर्गमें देवोंके समूहके मध्य तिष्ठता मनवांछित इन्द्रियोंके सुखको भोग है अर मुनिके धर्मसे कर्म काट मोक्षके अतींद्रिय सुखको पावे है । तद्रिय मुख सर्व बाधारहित अनुपम है जिसका अन्त नहीं, अविनाशी है अर श्रावकके व्रतसे स्वर्ग जाय तहांसे चय मनुष्य होय मुनिराजके व्रत धर परमपदको पावै है अर मिथ्यादृष्टि जीव कदाचित् तपकर स्वर्ग जाय तो चयकर एकेन्द्रियादिक योनिविष आय प्राप्त होय है अनन्त संसार भ्रमण कर है इसलिये जैन ही परम धर्म है अर जैन ही परम तप है जैन ही उत्कृष्ट मत है। जिनराजके व न ही सार हैं । जिनसासन के मार्गस जो जीव मोक्ष प्राप्त होने को उद्यमी हुआ उसको जो भव धरने पडें तो देव विद्याधर राजाके भव तो विना चाहे सहज ही होय है जैसे खेती के कारणहारेका उद्य : धान्य उपजानेका है घास कवाड पराल इत्यादि सहज ही होय हैं अर जैसे कोऊ पुरुष नगरको चला उपको मार्गमें वृक्षादिकका संगम खेदका निवारण है तैसे ही शिव रीको उद्यमी भए जे महामुनि तिनको इन्द्रादिक पद शुभोपयोगके कारणसे होय हैं मुनिका मन सि.नमें नहीं, शुद्धोपोगके प्रभावसे सिद्ध होने का उपाय है अर श्रावक अर जैन के धर्मसे जो विपरीत मार्ग है सो अथम जानना । जिससे यह जीव नाना प्रकार कुगतिमें दुःख भोगे है तिर्यंच योनिमें मारण, ताडन, छेदन, भेदन, शीत, उष्ण, भूख, प्यास इत्यादि नाना प्रकारके दुःख भोगे है अर यदा अन्धकारसे भर नरक अत्यन्त उष्ण शीत महा विकराल पवन जहां अग्निक कण बरस हैं नाना प्रकार के भयंकर शब्द जहां नारकियोंको घानीमें पेले हैं करोंतेसे चीरे हैं जहां भयक री शाल्मली वृक्षोंक पत्र चक्र खड्ग सेल समान हैं उनसे तिनके तन खरड खण्ड होय हैं। जहां तांबा शीशा ग.लकर मदराके पीवनहारे पापियों को प्यावें हैं अर मांसभक्षियोंको तिन ही के मांस काट काट उनके मुख में देखें हैं पर लोहके तप्त गोले सिंडासीसे मुख फाड फड जोरा रीये मुबमें देवें हैं अर परदारासंगम करनहारे पापियोंको ताती लोहे की पुतालयोंसे चिपटावें ह जहां मायामई सिंह, व्याघ्र, स्याल इत्यादि अनेक प्रकार बाथा करें हैं अर जहां मयामयी दुष्ट पक्षी तीक्ष्ण च वस चूटे हैं। नारकी सागरोंकी आयु पयंत नाना प्रकार के दुख त्रास मार भाग है। मारते मरै नाहीं आयु पूर्ण कर ही मरे हैं परस्पर अनेक वाधा करें हैं अर जहां माय मयी म का अर मायामयी कृमि मूई समान तीक्ष्ण मुखसे चूटे हैं यह सर्व मायामयी जानने कर पशु पदी तथा विलय तहां न, नारी जीप ही है तथा पंच प्रकारके Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा पर्व स्थावर सर्वत्र ही हैं नरकमें जो दुःख जोग भोगे हैं उसके कहनेको कौन समर्थ है ? तुम दोऊ कुगति में बहुतु भ्रमे हो ऐसा मुनिने कहा, तब यह दोऊ अपना पूर्व भव पूछते भए । संयमी मुनि कहे हैं कि तुम मन लगाकर सुनो, यह दुःखदाई संसार इसमें तुम मोइसे उन्मत्त होकर परस्पर द्वेष थरते आपसमें मरण मारण करते अनेक योनिमें प्राप्त भए तिनमें एक तो काशी नामा देश में पारधी भया, दूजा श्रावस्ती नामा नगीमें राजाका सूर्यदत्त नःमा मन्त्री भया सो गृह त्यागकर मुनि भया, महा तपकर युक्त अतिरूपवान पृथिवीमें विह र करै सो एक दिन काशीके वनमें जीव जन्तुरहित पवित्र स्थानकमें मुनि विराजे हुते पर श्रावक श्राविका अनेक दर्शनको पाए हुते सो वह पापी पारधी मुनिको देख तीक्ष्ण वचनरूप शस्त्रसे मुनिको वींधा भया। यह विचारकर कि यह निर्लज मार्गभ्रष्ट स्नानरहित मलीन मुझको शिकार में जानेको अमंग रूप भया है यह वचन पारधीने कहे तब मुनिको ध्यानका विघ्नकरणहारा संक्लेश भाव उपजा फिर मनमें विचारी कि मैं मुनि भया सो मोक् कर्त्तव्य नाही असा क्रोध उपजै है जो एक मुष्टि प्रहारकर इस पारी पारधीको चूर्ण कर डारू । सो मुनिके अष्टम स्वर्ग जायवेको पुण्य उाजा था सो कपायके योग क्षीण पुण्य होय मरकर ज्योतिपी देव भया तहांते चयकर तू विद्यकश विद्याधर भया अर वह पारधी बहुत संसार भ्रमणकर लंकाके प्रमदनामा उद्यानमें बानर भगा सो तुमने स्त्रीके अर्थ बाण कर मारा सो बहुत अयोग्य किया । पशुका अपराध सामंतों को लेना योग्य नाहीं । सो वह बानर मन्त्रके प्रभावसे उधिकुमार देव भया । ऐसा जानकर हे विद्याधरी! तुम पैर का त्याग करो जिाले इस में तुम्हारा भ्रमण होय रहा है जो तुम सिद्धों के सुख चाहो हो तो राग द्वेपत करो मिदोंके सुखों का मनुष्य अर देवोंसे वर्णन न हो सके अनन्त प्रभार सुख हैं जो तुम म शामिलापी हो पर भले आचारकर युक्त हो तो श्रीमुनिसुव्रतनाथकी शरण लेयो । परम भक्तिसे युक्त इन्द्र दिक देव भी तिनको नमस्कार करे हैं इन्द्र अहमिन्द्र लोकपाल सर्व उनके दासोंके दास हैं। वे वलोकनाथ तिनकी तुम शरण लेय कर परम कल्याणको प्राप्त होवोगे वे भगवान् ईश्वर कहिये समर्थ हैं सर्व अर्थ पूर्ण हैं कृतकृत्य हैं यह जो मुनिके वचन वेई भये सूर्यको किरण तिनकर विद्युत केश विद्याधरका मन कमलवत् ल गयः । सुकेश न मः पुरको राज्य देय मुनि के शिष्य भए राजा महाधीर है सम्यक दर्शन ज्ञ न चारित्रका आराधन र उत्तम देन भए। कुपुरक स्वामी राजा महोदधि विद्याधर बानरवंशीयोंके अधिपति चन्द्रकांत मणियों के महल ऊार विराजे हुते अमृतरूप सुंदर चर्चा कर इन्द्र समान सुख भोगते थे तिनपै एक विद्याधर श्वेत वस्त्र पहरे शीघ्र प्राय नमस्कार कर कहता भया कि ह प्रभो ! र ज विद्युतकेश मुनि होय स्वर्ग सिधारे यह सुनकर रजा महो. दधिने भी भोग भावस वक्त हाय जैन दाक्षामें बुद्ध धरी अर ये बचनहे कि मैं भी तपोवन को जाऊंगा। ये वचन सुनकर राजलोक मंदिरमें विलाप करते भये सो विलाप कर महल गूंज उठा। कैसे हैं राजलोक ? वीण बांसुरी मृगकी ध्वनि समान है शब्द जिनके 'पर युवराज भी प्रायकर Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-बुराण राजासे विनती करते भए कि राजा विदुतकेशका अर अपना एक व्यवहार है राजाने बालक पुत्र सुकेशको राज दीया है सो तिहारे भरोसे दिया है सुकेशके राज्यकी दृढ़ता तुमको राखनी उचित है जैसा उनका पुत्र तैसा तिहारा इसलिए कैएक दिन आप बैराग्य न धरें, आप नवयौवन हो इंद्र कैसे भोगोंसे यह निष्कंटक राज्य भोगो इस भाति युवराज वीनती करी अर अश्रुपातकी वर्षा करी तो भी राजाके मनमें न आई अर मंत्री महा नयके वेत्ताने भी अति दीन होय बीनती करी कि हे नाथ ! हम अनाथ हैं जैसे बेल वृक्षोंसे लग रहै तैसे तुम्हारे चरणसे लगि रहे हैं तुम्हारे मन में हमारा मन तिष्ठे है सो हमको छोडिकर जाना योग्य नहीं इस भांति बहुत बीनती करी तो भी राजाने न मानी अर राणीने बहुत बीनती करी चरणोंमें लेट गई बहुत अUणत डारे । राणी गुणके समू से राजाकी प्यारी थी सो विरक्तभावसे राजाने नीरस देखी। तब राणी कहे है कि हे नाथ ! हम तुम्हारे गुणोंकर बहुत दिनकी बंधी अर तुमने हमको बहुत लढाई महालक्ष्मीके समान हमको राखी अब स्नेह पाश तोड़ कहां जावो हो इत्यादि अनेक बात करी सो राजाने चित्तमें एक न धरी अर राजाके बड़े बड़े सामन्तोंने भी बीनती करी कि हे देव ! इस नवयौवनमें राज छोड़ कहां जावो सबसे मोह क्या तजा इत्यादि अनेक स्नेह भरे बचन कहे राजाने किसी की न सुनी स्नेह पाश तोड़ सर्व परिग्रहका त्यागकर प्रतिचंद पुत्रको राज्य देय आप अपने शरीरसे भी उदास होय दिगंबरी दीक्षा पादरी राजा पूर्ण बुद्धिमान महा धीर वीर पृथ्वी अर चन्द्रमा समान उज्जवल है कीर्ति जाकी, सो ध्यानरूप गजपर चढकर तपरूपी तीचा शस्त्रसे कमरूप शत्र को काट सिद्ध पदको प्राप्त भए। प्रतिचंद्र भी कैएक दिन राजकर अपने पुत्र किहकंधको राज्य देय पर छोटे पुत्र अंधकरूढको युवराज पद देय आप दिगम्बर होय शुक्लध्यान के प्रभाव से सिद्ध स्थानको प्राप्त भए । अथानन्तर राजा किहकन्ध पर अधिक रूढ दोऊ भाई गांद सूर्य समाज औरांके तेजको दावकर पृथ्वी पर प्रकाश करते भए। उस समय विजया पर्वतकी दक्षिणश्रेणी में रथनूपुर नामा नगर सुरपुर समान, वहां राजा अशनिवेग महा पराक्रमी दोऊ श्रेणीके स्वामी जिनकी शीति शत्रु वे मानको हरनहारी तिनके पुत्र विजयसिंह महारूपवान, ते आदित्यपुरके राजा विद्यामन्दिर विद्याधर, ताकी राणी वेगवती ताकी पुत्री श्रीमाला, ताके बियाह निमित्त जो स्वयंवर मंडप रचा हुता अर अनेक विद्याधर आए हुते तहां आशनिवेगके पुत्र विजयसिंह भी पधारे । कैसीहै श्रीमाला जाकी कांतिसे आकाशमें प्रकाश होय रहा है, सकल विद्याधर सिंहासन पर बैठे हैं, बड़े बड़े राजाओंके कुंवर थोड़े २ साथसे तिष्ठे हैं, सबनिकी दृष्टि सोई भई नीलकमलनिकी पंक्ति सो श्रीमालाके ऊपर पड़ी। श्रीमालाको किसीसे भी रागद्वप नहीं, मध्यस्थ परिणाम है । वे विद्याधर कुमार मदनसे तप्त है चित्त जिनका अनक सविकार चेष्टा करते भए। कैगक तो माथेका मुकुट निकंप था तो भी उसको सुन्दर हाथोंसे ठीक करते भए, कैएक खंजर पास थरा था तो भी करके ग्रभागसे हिलावते भए, कटाक्षकर करी है दृष्टेि जिन्होंने अर कैएकके किनारे मनुष्य चमर ढोरते हुते अर धीजना करते हो तो भी लीला सहित महा सुन्दर रूमालो अपने मुखकी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यार करते भए अर कैएक नामेचरण पर दाहिना पांव मेलते भये, के हैं राजायोंके पुत्र ? सुन्दर रूपवान हैं नवयौवन हैं कामकलामें निपुण हैं। दृष्टि तो कन्याकी ओर अर पगके अंगुष्ठ से सिंहासन पर कछू लिखो भए अर कैएक महामणियोंके समूहमे युक्त जो सूत्र कटिमें गाढा बंधा ही था तो भी उसे संवार ग ढा बांधते भए अर कैएक चंचल हैं नेत्र जिनके निकटवर्तीयोंसे केलिया करते भए, कैएक अपने सुन्दर कुटिल केशोंको संभारते भए, कैएक जापर भ्रमर गुंजार करे हैं ऐसे कमलको दाहिने हाथसे फिरावते भए मकरन्दकी रज विस्तारते भए इत्यादि अनेक चेष्टा राजाओंके पुत्र स्वयंवर मंडप में करते भए । कैसा है स्वयंवरमंडप ? जाविषे वीन बांसुरी मृदंग नगारे इत्यादि अनेक वाजे बज रहे हैं अर अनेक मंगलाचरण होय रहे हैं, बन्दीअनोंके समह सत्पुरुषोंके अनेक चरित्र वर्णन करे हैं, उस स्वयंवर मंडपमें सुमंगला नामा थाय जिसके एक हाथमें स्वर्णकी छड़ी एक हाथ में वेतकी छड़ी कन्याको हाथजोड़ महाविनय कर कहती भई । कन्या नाना प्रकारके मणि भूपणों कर साक्षात् कल्पवेल समान है। हे पुत्रो ! यह मार्तडकुण्डल नामा कुंवर नमस्तिलक के राजा चन्द्रकुमण्डल राणी विमला तिनका पुत्र है अपनी कांतिसे सूर्यको भी जीतनेहा अति रमणीक है अर गुणोंका मण्डन है इसके सहित रमणेकी इच्छा है तो बर, यह शस्त्र शास्त्र में निपुण है। तब यह कन्या इसको देख यौवनसे कछु इक चिगा जान प्रोगे चली । फिर धाय बोली-हे कन्या ! यह रत्नपुरके राजा विद्यांग राणी लक्ष्मी तिनका पुत्र विद्यासमुद्रघात नामा बहुत विद्याधरोंका अधिपति, इसका नाम सुन बैरी ऐसा कांपे जैसे पीपलका पत्र पवनसे कांपे । मनोहर हारोंसे युक्त इसका वक्षस्थल जिसमें लक्ष्मी निवास करे है तेरी इच्छा होय तो इसको घर । तब इसको सरल दृष्टि कर देख आगे चली। फिर वह थाय जो कन्याके अभिप्रायके जाननेहारी है, बोली-हे सुते! यह इन्द्र सरीखा राज वज्रशीलका कुवर खेचरभानु वज्रपंजर नगरका अधिपति है इसकी दोऊ भुजामें राज्यलक्ष्मी चंचल है तोहू निश्चल तिष्ठे है इसे देखकर अन्य विद्याधर आगिया समान भासे हैं यह सूर्य समान भासे है एक तो मानकर इसका माथा ऊंचा है ही अर रत्नोंके मुकुटसे अति ही शोभे है तेरी इच्छा है तो इसके कण्ठमें माला डार ! तब यह कन्या कुमुदनी समान खेचरभानुको देख सकुच गई । आगे चली, तब धाय बोली-हे कुमारी ! यह राजा चन्द्रानन चंद्रपुरका धनी राजा चित्रांगद राणी पद्मश्रीका पुत्र इसका वक्षस्थल महा सुन्दर चंदनसे चर्चित जैसे कैलाशका तट चंद्रकिरणसे शोभे तैसे शोभे है। उछले हैं किरणोंके समूह जिसके ऐसा मोतियोंका हार इसके उरमें शोभे है जैसे केलास पर्वत उछलते हुए नीझरनोंके समूहसे शोभे है इसके नामके अक्षरकरि वैरियोंका मन भी परम आनन्दको प्राप्त होय है अर दुख आताप करि रहित होय है। थाय श्रीमालासे कहे है-हे सौम्यदर्शन ! कहिए सुखकारी है दर्शन जिसका ऐसी जो तू, तेरा चित्त इसमें प्रसन्न होय तो जैसे रात्रि चंद्रमासे संयुक्त होय प्रकाश करे है तैसे इसके संगमकर आल्हादको प्राप्त हो । तब इसमें इसका मन प्रीतिको न प्राप्त भया जैसे चन्द्रमा नेत्रोंको आनन्दकारी है तथापि कमलोंको उसमें प्रसन्नता नहीं। फिर धाय बोली-हे कन्ये! मदरकुज नगरका स्वामी राजा मेरुकन्द Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण राणी श्रीरम्भाका पुत्र पुरंदर मानों पृथ्वी पर इन्द्र ही अबतरा है मेघ समान है ध्वनि जिसकी अर संग्रामविषै जिसकी दृष्टि शत्रु सहारवे समर्थ नहीं तो ताके बाणकी चोट कौन सहारे ? देव भी यासों युद्ध करणे को समर्थ नहीं तो मनुष्योंकी तो क्या बात ? अति उद्धत इसका सिर सो तू पायन पर डार, ऐसा कहा। तो भी वह इसके मन में न आया क्योंकि चित्तकी प्रवृत्ति विचित्र है। बहुरि धाय कहती भई-हे पुत्रो ! नाकाधपुरका रक्षक राजा मनोजब राणी वेगिनी तिनका पुत्रावल सभाप सतरोभरने कमल समान फूल रहा है। इसके गुण बहुत हैं गिनने में आवें नहीं, यह ऐसा बलवान है जो अनी नोंद टेड़ी कारणेस ही पृथ्वीमंडलको बश करे है अर विद्या बलसे अाकाशमें नगर बसावे कर पर्व ग्रह नक्षत्रादिको पृथ्वी तलपर दिखावे । चाहे तो एक लोक नवा और वसावे, इच्छा कर तो सुर्वको चन्द्रमा समान शीतल कर, पर्वतको चूर कर डारे पवनको थामे, जल का स्थलकर डारे, स्थलका जल कर डारे इत्यादि इसके विद्यावल वर्णन किये तथापि इसका मन इसमें अनुरागी न भयो पर भी अनेक विद्याधर धायने दिखाये सो कन्याने दृष्टि में न धरे । तिनको उलाघे आगे चली जैसे चन्द्रमाकी किरण पर्वतको उलंघे वह पर्वत श्याम होय जाय तैसे जिन विद्याधरोंको उलंब यह आगे गई तिनका मुख श्याम हो गया । सब विद्या. घरोंको उलंघकर इसकी दृष्टि कियाध कुमार पर ग ताके कंठमें वरमाला डारी तब विजयसिंह विद्याधरकी दृष्टि क्रोध की भरी किहकंध और अंधक दोऊ भाइयों पर गई। कैसा है विजयसिंह ? विद्याबलसे गर्पित है सा किरकंध पर अंधू को पता भया कि यह विद्याधरोंका समाज तहां तुम बानर किसलिये पाए ? विरूप है दर्शन तुम्हारा क्षुद्र कहिये तुच्छ हो विनयरहित हो इस स्थानकमें फलोंसे नम्रीभूत जे वृत उनसे संयुक्त कोई रमणीक बन नहीं अर गिरियोंकी सुंदर गुफा नीझरणोंकी धरणहाती जहां वानरोंके समूह क्रीड़ा करें सो नहीं । लाल मुखके वानरो! तुमको यहां किसने बुलाया जो नीच तुम्हारे बुलावनेको गया उसका निपात करू, अपने चाकरों को कही, इनको यहांसे निकाल देवो यह वृथा ही विद्याधर कहावें हैं। यह शब्द सुनकर किहकंद अंधक दोनों भाई बानरध्वज महाकोधको प्राप्त भये जैसे हाथियोंपर सिंह कोप करै, अर इनकी समस्त सेनाके लोक अपने स्वामियोंका अपवाद सुन विशेष क्रोध को प्राप्त भये, कई एक सामन्त अपने दाहिने हाथसे वावी भुजाको स्पर्श करते भये अर कैएक क्रोधके आवेशसे लाल भये हैं नेत्र जिनके सो मानो प्रलयकालके उल्कापात ही हैं महाकोपको प्राप्त भये, कई एक पृथ्वीपि दृढ़ बांधी है जड़ जिनकी ऐसे वृक्षोंको उखाड़ते भये, वृक्ष अर पल्लवको धारे हैं। कैयक थंभ उखड़ते भये अर कैगक सामंतोंके अगले घाव भी क्रोधसे फट गये तिनसे रुधिरकी धारा निकसती भई, मानो उत्पातके मेव ही बरसे हैं, के एक गाजते भये सो दशों दिशा शब्द कर पूरित भई अर कई एक योधा सिरके केश विकरालते भये, मानो रात्रि ही होय गई, इत्यादि अपूर्व चेष्टाओंसे वानरवंशी विद्याधरोंकी सेना समस्त विद्याधरोंके मारनेको उद्यमी भई, हाथियों से हाथी, घोड़ोसे छोड़े, रथोंमे रथ, युद्ध करते भये दोनों सेनाके Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटा पर्व महायुद्ध प्रवरता, आकाशने देव को क देखते भये । यह युकी वाती सुन र राक्षसवंशी विद्याधरों के अधिति रजा सुरेश लंका धनी वानरवंशियों की सहायताको आए, राजा सुकेश किहकंध र अन्धको परम मित्र है मानो इनके मनोग्य पूर्ण करने को ही जाए हैं, जैसे भारत चक्रवर्तीक समय राजा अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाके निमित्त जनकुमारका युद्ध भया तैसा यह युद्ध भया, यह स्त्री ही युद्धका मूल कारण है। विजयसिंह के घर राक्षवंशियों के महायुद्ध भया, तासमय किहकंध कन्याको लंग्या कर छोटे भाई ने सागसे विजय सिंह का सिर काटा, एक विजय सिंह के बिना उपकी सर्वसना विखर २.ईजोले एक आत्मा निा सर्व इंद्रियाक समूह विघटि जाहि, तव र जा अशनिवेग जिगार हका सा अपने पुत्रका मरण सुनकर मूक प्राप्त भया, अपनी स्त्रीयों के नत्रक जजस मीशा है वक्षस्थल बिका सो धनी बैरम मूलास प्रयो५का प्राप्त भया पुत्रके व.. शत्रुओ र साना साकार किया, उप समय उसका आकार लोक दखन सामानों प्रलय हाल उत्थामा मुख्य उसके आकार को धरे है । सर्व विद्याधराका लजाकर कन्यको घानगारा जान दोनों माई बाबरध्वज सुकेश सहित अशानिवेगस युद्ध करनेका निकसे । पर १२ म । शुद्ध जथा, गदर प्रांसे शक्तियों से, वाणोंसे, पासोंसे खड़गोंसे, महायुद्ध भया तहां पुत्र से उजीनीकधरूा अग्निकी ज्वाला उससे प्रज्वलित जो अशानवेग सो अंधकासुखा नया तर बड़े भाई शिह कन्धने विचारी कि मेरा भाई अंध्रक तो नायौवन है अर यह पानी बालिग मा बलवान है सो मैं भाईकी मदद करू। तब किहकन्ध आपा र श्रमिक हुन छान कितन्यके संमुख आया सो किहकन्धके अर विशुद्राहनके महायुद्ध करता उत २.मा अनिवेगा अन्धक को मारा सो अंधक पृथ्वी पर पड़ा जेा प्रभाता चन्द्रमा कार त हाच तैना अंधकका शरीर कांतिरहित होय गा अर किहकन्धन विद्या वाहन के कमल पर ला चलाई सो वह मूर्छित होय गिरा पुनः सचेत होय उसने वही शिला कह कय पर बातोति कन्यो वाय घूमने लगा सो लंकाकै धनीत सचेा किया अर किल्क किडलम्पुर प्राधे बहक वन हाष्ट उघाड़ देखा तो भाई नहीं, ना निकटवर्तिनों को पूछने लगा ---- मेरा भाई कहाँ है ? तब लोक नाच हाय हर राजीव में अंधरके मरणका विलाप हुवा सो विलाप सुन किकहन्ध भी विलाप करने लगा।रू न लह समान हुदा है चित्त जिसका बहु। देर तक भाई : गुलका चियन कर संशाअनुदान न भवा हाय ! भाई होते संत तू मरणको प्राप्त भवा मेरो दाग भुजा भाई जी मैं एक तुके न देखता तो महाव्याकुल होता सो अब तुम बिन प्राणों के। रचूना अथवा मा चित्त वज्रका है जो तेरा मरणकर भी शरीरको नहीं तजे है । हे बाल ! देश यह मुजाना अर छोटी अवस्थामें महावीर चेष्टा चितार चितार मुझको महा दुःख उपजे है इत्यादि महा दिलापकर भाईके स्नेहसे किकहन्ध खेद खिन्न भया तब लंकाक धनी सुकराने तथा बड़े बड़े पुरुषोंने हिन्धको बहुत समझाया जो धीर पुरुषों को यह रंज चेष्टा योग्य नहीं, यह क्षत्रियों का वीरकुल है तो महा साहस Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण रूप है अर इस शोकको पंडित ने बड़ा पिशाच कहा है, कर्मों के उदयसे भाइयोंका वियोग होय है, यह शोक निरर्थक है यदि शोक कीर फिर आगम हो तो शोक करिये यह शोक शरीरको शोखे है अ पापोंका बंध करे है महा मोहका मूल तातै इस बैरी शोकको तजकर प्रसन्न होय कार्य में बुद्धि धारो। यह अशनिवेग विद्याधर अति प्रबल बैरी है अपना पीछा छोड़ता नहीं, नाशका उपाय चिंतवे है इसलिये अब जो कर्तव्य हो सो विचारो बैरी बलवान होय तर प्रच्छन्न (गुप्त) स्थानमें कालक्षे करिये तो शत्रुमे अपमानको न पाईये फिर कैएक दिनमें बैरीका पल घटे तब बैरोको दवाईये, विभूति सदा एक ठौर नहीं रही है । तातें अपना पाताल लंका जो बड़ोंसे आसरे की जगा है सो कुछ काल वहां रहिये जो अपने कुल में बड़े हैं वे उस स्थानककी बहुत प्रशंसा करे हैं जिसको देखे स्वर्गलोकमें भी मन न लगे है तारों उठो वह जगा वैरियों से अगम्य है इस नाते राजा किडकन्यको गमा मुकेशीने बहुत समझाया तो भी शोक न छाडै तब राणी श्रीमाला को दिखाई उसके देखोसे शोक निवृत्त भया तब राजा सुकशी अर किहकंध समस्त परिवार सहित पाताल लंकाको चले : र अशनिवेगका पुत्र विच द्वाहन इनके पीछे लगा अपने भाई विजयनिके वैसे महा क्रोधवंत शत्रुक समूल नाश करनेको उद्यमी भया तब नीति शास्त्रके पाठियों जो शुद्ध बुद्धिके पुरुष हैं समझाया जो क्षय भागे तो उसके पीछे न लागेर राजा अशनिवेगने भी विद्युद्रा नलों कही जो अन्ध्रक । तुम्हारा भाई हता, गो तो मैं अन्ध्रकको रणमें मारा तातें हे पुत्र ! इस हठसे निवृत्त होवो, दुःखी पर दया ही करना उचित है, जिप कायाने अपनी पीठ दिखाई मो जीवित ही मृतक है उसका पीछा क्या करना, इस भांति अशनिवेगने विद्यद्वाहन को समझाया, इतने में राक्षसवंसी पाताल लंका जाय पहुंचे। कैसा है नगर रत्नोंके प्रकारसे शाम.यान ह तहां शोक अर हर्ष धन्ते दोऊ निर्भय रहैं। एक समय प्रशनिवेग शरदमें मेघपटल देख अर उनको विलय होते देख विषयोले विरक्त भए । चित्तावर्षे विचारा -यह राजसम्पदा क्षणभंगुर है मनुष्य जन्म अतिदुर्लभ हे सो मैं मुनिप्रत धर आत्मकल्याण करू ऐसा विचार सहस्रार पुत्रको राज देय आप मधु द्वाहनसहित मुनि भए अर लंकाविषै पहले अशनिवेगने निर्वातन मा विद्याधर थान राखा हुता सो अब सहस्रारको आज्ञा प्रमाण लंकाविणे थाने रहै। एक समय निर्धात दिग्विजयको निकमा सो सम्पूर्ण राक्षसद्धीपमें राक्षसोंका संचार न देखा सबही घुस रहे है सो निधात निर्भय लंकामें रहे । एक समय राजा किहकन्ध राणी श्रीमाला सहित सुरुपर्वतसे दर्शन कर अावे था, मार्गमें दक्षिण समुद्रक तटपर देवकुरु भोगभूमि समान पृथ्शी में करन रटनामा चन देखा, देखकर प्रसन्न भए अर श्रीमाला राणीसे कहते भए । राणीके सुन्दर वचन वीणाके स्वर समान हैं । देवी ! तुम यह रमणीक वन देखो। जहां वृक्ष फूलोंसे संयुक्त हैं निर्मल नदी बहे है अर मेघके आकार समान धरणीमाली नामा . पर्वत शोभे है पर्वतके शिखर ऊचे हैं अर कंदके पुष्प समान उज्ज्वल जलके नीझरने झरे हैं सो मानो यह पर्वत हंसे ही है अर वृक्षोंकी शाखासे पुष्प पड़े हैं मानों हमको पुष्पांजली ही देवे हैं पर पुष्पोंकी सुगन्धसे पूर्ण पवनसे हलते जो पक्ष उनसे मानों यह वन हमको उठकर ताजिम ही Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ छठा पर्व करे है अर वृक्ष फलनिकरि नम्रीभूत होय रहे हैं सो मानो हमको नमस्कार ही करे हैं जैसे गमन करते पुरुषोंको स्त्री अपने गुणांस मोहितकर आगे जाने न दे है खड़ा करे है तैसे यह वन अर पर्वतकी शोभा हमको मोहित कर राखे हैं आगे जाने न दे हैं। मैं भी इस पर्वतको उलंघ आगे नहीं जाय सकूं इसलिये यहां ही नगर बसाऊंगा । जहां भूमिगो परियोंका गमन नहीं पाताल लंकाकी जगह ऊढी है वहां मेरा मन खेद खिन्न भया है सो अब यहां रहियेसे मन प्रसन्न होगा इस भांति राणी श्रीमालामों कहकर आप पहाड़से उतरे वहां पहाड़ ऊपर स्वर्ग समान नगर बसाया नगरका किहकंद्रपुर नाम पर वहां सर्व कुम् सहित निवास किया । राजा किकन्ध सम्यग्दर्शन संयुक्त है अर भगवानकी पूजामें सावधान है सो राजा विहन्यके राणी श्रीमाला के योग से सूर्यरज अर रचरज दा पुत्र भए र सूर्यकमला पुत्री भई जिसकी शोभासे सर्व विद्यावर मोहित हुए । अथानन्तरमेघपुरका राजा मेरु उसकी राणी मघा पुत्र मृगारिदमन उसने किहकंवकी पुत्री सूर्यकमला देखी सो आसक्त भया कि रात दिवस चैन नहीं तब उसके अर्थ वाके कुटुम्बके लोगोंने सूर्यकमला याची सो राजा किहकंधने राणी श्रीमालासे मन्त्र कर अपनी पुत्री सूर्यकमला मृगारिदमन का परलाई सो परणकर जावे या मार्ग में कर्णवस में कर्णकुण्डल नगर बसाया । और लंकापुर कहिए पात ल लंका उसमें सुक्श राजा इन्द्राणी नामा राखी उसके तीन पुत्र भये माली सुमाली पर माल्यवान् । बड़े ज्ञानी गुण ही हैं आभूषण जिनके, अपनी क्रीड़ामाता पिताका मन हरते भए देवों समान हैं क्रीड़ा तिनकी। तीनों पुत्र बड़ेभए महा बलवान सिद्ध भई हैं सर्व विद्या जिनको । एक दिन माता पिताने इनको कहा कि तुम क्रीड़ा करने को farayरकी तरफ जावो तो दक्षिण के समुद्री और मन जायो । तब ये नमस्कारकर माता पिताको कारण पूछने भए तब पिताने कहीं हे पुत्रो ! यह बात कहिवेकी नहीं। तब पुत्रोंने बहुत हठकर पूछी तः पिताने कही कि लंकापुरी अपने कुत्त हमसे चली यावे हैं श्री अजितनाथ स्वामी दूसरे तीर्थकर के समय से लगा कर अपना इस खंड में राज हैं आगे अशनि पर अपने युद्ध या सो परस्पर बहुत रं लंका थपनेसे छूटी। अशनिवेगने निर्घात विद्याधर थाने राखा सो महा वलवान है यर दूर है ताने देश देशमें हलकारे राखे हैं और हमारा छिद्र हरे है । यह पिता के दुखकी बर्ता सुनकर माली निश्वास नाखता भया र खोंसे आंसू निकसे, क्रोधसे भर गया है चित्त जिसका अपनी भुजाओंका बल देखकर पितासों कहता भया कि हे तात ! एते दिनों तक यह बात हमसे क्यों न कही तुमने स्नेहकर हमको ठगे, जे शक्तिवंत होयकर बिना काम किये निरर्थक गाजैं हैं वह लोक में लघुताको पावे हैं सो हमको निर्धानपर आज्ञा देवों हमारे यह प्रतिज्ञा है लंकाको लेकर और काम करें तब माता पिताने महावीर वीर जान इनको स्नेह दृष्टिसे आज्ञा दी तब यह पाताल लंका से ऐसे निकसे मानों पास ल लोकसे भवनवासी निकसे हैं बैरी ऊपर अति उत्साहसे चलें दोनों भाई शस्त्रकला में महा प्रवीण हैं समस्त राक्षसोंकी सेना इनके लार चली त्रिकूटाचल पर्वत दूरसे देखा, देखकर जान लिया कि लंका नीचे बसे हैं सो Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण मानों लंका लेही ली म गनिमीतके कुटुम्बी जो दैत्य कहांवें ऐसे विद्याधर मिले सो युद्ध करके बहुत मरे । कै एक पाय परे कै सानोड़ भाग गये कैएक बैरी कटकमें शरण आए पृथ्वीमें इनको बडो कीर्तिस्पिी । निर्गत इन आगाम सुन लंकासे बाहिर निकसा निर्घात युद्ध में महा शूर वीर है छात्र छावाले याच्यादित किया है सूर्य जिावे। तब दोऊ सेनामें महायुद्ध भया मायामई हाथियो ड़ास किम नो रथ पर पर शुद्ध प्ररमा हाथियोंके मद भरनेसे याकाश जलरूप हं गया ॐ हानिकारक ही ना तडवीजने उनकी पवनसे आकाश मानों पवनरूप हो गया पर म चातानी जो यान उनसे मनो आकाश अग्निरूप ही होगया इस भांति बहु: युनाबमाल नववारी वि. दोनों के मारणसे कहा होय है ? निर्घात ही को मारिये यह चिर निकात पर आएऐशब्द कहने भर कहां वह पापी निर्वात सो निर्घातको देख करथम तोकणी मालेमा डारा र पर उठा महायुद्ध किया तब मालौने खडगसे निषा को मारा स ताकनरचा निता वंशक भ गकर विजया में अपने २ स्थानको गये अर कैएक कायर हाय बाल होकी रख आए । माली आदि तीनों भाइयोंन लकामें प्रवेश किया । कैसी है लाहा ? बरगलान... पता आदि समस्त परिवारको लकामें बुलाया बहुरि है पुरका राजधय र राणा कोन तिनकी पुत्री चन्द्रमती सो मालीने परणी । कता है चन्द्रमान फरणहार, हे अर प्रीतिकूर नगरका राजा प्रीतिकांत राणी प्रीतिमती तिनकी त्रापालाशका २०॥ न ल न पाहा र पनकांत नगरका राजा कनक राणी कानाश्री निबीवन ल स बाल्यवानने परणी इनके यह पहली राणी भई अर प्रत्येक के हजार २ सही कछुआबक हा भई ! माल ने अपने पराक्रमसे विजयाधकी दोऊ श्रेणी वश करीव पावरी अशा २ नाथ बढ़ावते भए । केएक दिनोंमें इनके पिता राजाला नि । म । सुन नए अर राजा कहकंध अपने पुत्र सूरजको राज दय ६२ ।। १५ । ५६ ५ । सुश और कंध समन्त इंद्रियांके सुखको त्यागकर अनेक ५.५ (२६॥ rid न पाकर द्धि स्थान निवासी भए । हनोक ! इस कालिन राजा था वन अनलाल कर फिर रात तजकर श्रामप्यान. यांस सात पाप... गरम र आननशा चालनात नर एना जाना हे राजा का नाश करति दसा को प्राप्त ह ऊ। इत श्रीरविणा विरचित महापद्मपुराण सरत ग्रंथ, ताकी भाषा वेचनिकाविषै वान शामिका (नरूण ह जाविष ऐता छठा पर्व पूर्ण भया ।। ६॥ प्रधानन्त स्थान पुरम में राजा सहस्रार राज्य करै उसके राणी मानसंदरी रूप अर गुणोंमें अति सु.५२ सो गीही भई अत्यन्त कृश भयः है शरीर जिस शिपल होय गए हैं सर्व बाभूपण जिसके तन भरतारने यदुत आदरसों पूछी कि हे श्रिये ! तर अंग काहस क्षीण भए है, जर सा है जो मानवता होय ता ने श्रवार को समय पूर्ण करू', हे देवा ! तू मेरे Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां पर प्राणोंसे भी अधिक प्यारी है इस भांति राजाने कही तव राणी बहुत विनयकर पतिस विनती करती भई कि हे देव ! जिस दिनसे बालक मेरे गर्भमें आया है उस दिनसे मेरी बांछा है कि हंद्रकीसी सम्पदा भोगू सो मैंने लाज तज आपके अनुग्रहसे आपसों अपना मनोरथ कहा है, नातर खीकी लज्जा प्रथान है सो मनकी बात कहिवेमें न श्रावे तब राजा सहस्रारने जो महा विद्या बलकर पूर्ण हुता सो क्षणमात्रमें इसके मनोरथ पूर्ण किये तब यह राणी महा आनन्दरूप मई सर्व अभिलाषा पूर्ण भई अत्यन्त प्रताप अर कांतिको धरती भई सूर्य ऊसर होय निसरे सो भी उसका तेज न सहार सके सर्व दिशाओंके राजाओं पर आज्ञा चलाया चाहे । नब महीने पूर्ण मये पुत्रका जन्म भया, कैसा है पुत्र ? समस्त वान्धवोंको परम सम्पदाका कारण है तब राजा सहस्रारने हर्षित होय पुत्रके जन्मका महान उत्सव किया अनेक बाजोंके शब्दसे दशों दिशा शब्दरूप भई अर अनेक स्त्री नृत्य करती भई । राजाने याचकोंको इच्छा पूर्ण दान दिया ऐसा विचार न किया जो यह देना यह न देना, सर्व ही दिया। हाथी गरजते हुए ऊंची सूडसे नृत्य करते भए । राजा सहस्रारने पुत्रका इंद्र नाम धरा जिस दिन इंद्रका जन्म भया उस दिन समस्त बैरियों के घर में अनेक उत्पात भए । अपशकुन भए अर माइयोंके तथा मित्रोंके घरमें महा कल्याणके करणहारे शुभ शकुन भये, इन्द्र कुंवरकी बालक्रीड़ा तरुण पुरुषोंकी शत्तिको जीतनेहारी सुन्दर कर्मकी करणहारी बैंरियोका गर्व छेदती भई । अनुक्रमकर कुंवर यौवनको प्राप्त भया। केता है कुवर १ अपने तेजकर जीता है सूर्यका तेज जिसने पर कांतिसे जीता है घन्द्रमा पर स्थिरताले जीता है पर्वत पर विस्तीणं है वक्षस्थल जिसका दिग्गजके कुम्भस्थल समान ऊंचे हैं कांधे जिसके पर प्रति दृढ़ सुन्दर हैं भुजा दश दिशाकी दाबनहारी श्रर दोऊ जंघा जिसकी महा संदर यौवनरूप महल के थांभनेको थंभे समान होती भई। विजया पर्वतवि सर्व विद्याधर इसने सेवक किये जो यह आज्ञा करे सो सर्व करें यह महा विद्याधर बलकर मंडित इसने अपने यहां सब इन्द्रकैसी रचना करी । अपना महल इन्द्रके महल समान बनाया, अड़तालीस हजार विवाह किये । पटरानीका नाम शची धरा, छबीस हजार नट नृत्य करें, सदा इन्द कैसा अखाड़ा रहे महा मनोहर अनेक इन्द्र कैसे हाथी घोड़े अर चन्द्रमा समान महा उज्ज्वल ऊचा आकाश के प्रांगनमें गमन करनेवाला, किसीसे निवारा न जाय, महा बलवान अष्टदंतन कर शोभित गजराज जिसका महा सुन्दर सूड सो पाठ हाथी उसका नाम औरावत धरा, चतुरनिकायके देव थापे पर परम शक्तियुक्त चार लोकपाल थापे, सोम १ वरुण २ कुवेर ३ यम ४ अर सभाका नाम सुधर्मा बज्र आयुध तीन सभा अर उर्वशी मेनका रम्भा इत्यादि हजारा नृत्य कारणी तिनकी अप्सरा संज्ञा ठहराई । सेनापतिका नाम हिरण्यकेशी अर आठ बसु थापे पर अपने लोकोंको सामानिक त्रायस्त्रिंशतादि दश भेद देषसंज्ञा धरी । गाने वालों का नाम नारद १ तुम्बुरु २ विश्वासु ३ यह संज्ञा धरी । मंत्रीका नाम बृहस्पति इत्यादि सर्व रीति इंद्र समान थापी सो यह राजा इंद्र समान सब विद्याधरोंका स्वामी पुण्यके उदयसे इंद्र कैसी सम्पदाका धरनहारा होता भया । उस समय लंकामें माली राज करे सो महामानी जैसे श्रागै Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप-पुराण सर्व विद्याधरों पर अमल करै था तैसा ही अबहू करे, इंद्रकी शंका न राखे विजयार्धके समस्त पुरोंमें अपनी आज्ञा राखे सर्व विद्याधर राजावोंके राजमें महारत्न सुंदर हाथी घोड़े मनोहर कन्या मनोहर वस्त्राभरण दोनों श्रेणियोंमें जो सार वस्तु होय सो मंगाय लेय ठौर २ हलकारे फिरा करें अपने भाइयों के गवसे महा गर्ववान पृथ्वी पर एक आपहीको बलवान जाने । अब इन्द्रके बलसे विद्याधर मातीकी आज्ञा भंग करने लगे सो यह समाचार मालीने सुना तब अपने सर्व भाई अपुत्र अर कुलम्ब समस्त राक्षसबंशी अर किहकंधके पुत्रादि समस्त बानरबंशी उनको लार लेय विजया पर्वतके विद्याधरोंपर गान किया। कैएक विद्यावर अति ऊचे विमानोंपर चढ़े हैं, कैएक चालते महल समान सुवर्णके रथोंपर चढ़े हैं, कैएक काली घटा समान हाथियोंपर चढे हैं, कैएक मन समान शीघ्रगामो घोड़ोंपर चढे, कैएक शार्दूलोंपर चढ़े, कैएक चीतोंपर चढ़े, कैएक ऊंटोपर चढे, कई एक खच्चरों पर चढे, कई एक भैंसों पर कई एक हंसों पर कई एक स्यालों पर इत्यादि अनेक मायामई वाहनों पर चढे आकाशका प्रांगन आलादते हुवे। महा देदीप्यमान शरीर धरकर मालीकी लार चढे। प्रथम प्रयाणमें अपसकुन भए तब मालीसे छोटा भाई सुमाली कहता भया बड़े भाईमें अनुराग है जिसका, हे देव ! यहां ही मुकाम करिये आगे गमन न करिये अथवा लंकामें उन्टा चलिये आज अपशकुन बहुत भए हैं सूफे वृक्ष की डालीपर एक पगको संकोचे काग तिष्ठा है अत्यन्त आकुलितहै चित्त जिसका बा-बार पंख हिलावे है सूका काठ चोंच में लिये सूर्यकी ओर देखे है अर क्रूर शब्द बोले है अर्थात् हमारा गमन मनै करे है अर दाहिनी ओर रौद्र सियालिनी रोमांच थरती हुई भयानक शब्द करे है अर सूर्यक बिम्बके मध्य जलेरीमें रुधिर झरता देखिए है पर मस्तकरहित धड नजर आये है अर महा भयानक बज्रपात होय है। कैसा है बज्रपात ? कम्पाया है समस्त पर्वत जिसने अर आकाशमें विखरि रहे है केश जिसके ऐसी मायामयी स्त्री नजर मावे है अर गर्दम ( गधा ) आकाशकी तरफ ऊचा मुखकर खुरके अग्रभागसे धरतीको खोदता हुवा कठोर शब्द करे है इत्यादि अपशकुन होय हैं। तब राजा माली सुमालीसे हंसकर कहते भये । कैसा है राजा माली ? अपनी भुजाओंके यलसे शत्रुओंको गिनते नहीं। अहो वीर ! वैरियोंको जीतना मनमें विचार विजय हस्तीपर चढ़े महायुरुप धीरताको धरते कैसे पीछे वाहुडै, जो शुरवीर दांतोंसे डसे है अथर जिन्होंने अर टेढी करी है भौंह जिन्होंने अर विकराल है मुख जिनका अर बैरीको डराने वाली है आंख जिन्होंकी, तीक्ष्ण बाणोंसे पूर्ण अर बाजे हैं अनेक बाजे जिनके अर मद भरते हाथियोंपर चढ़े हैं अथवा तुरंगनपर चढ़े हैं महावीर रसके स्वरूप आश्चर्य की दृष्टिसे देवोंने देखे जा सामंत वे कैसे पाछै बाहुडै ? मैंन इस जन्ममें अनेक लीला विलास किये। सुमेरु पर्वतकी गुफा तहां नन्दन वन आदि मनोहर वन तिनमें देवांगना समान अनेक राणी सहित नाना प्रकारकी क्रीडा करी अर आकाशमें लग रहे हैं शिखर जिनके ऐसे रत्नोंके चैत्यालय जिनेन्द्र देवके कराये विधिपूर्वक भाव सहित जिनेन्द्रदेवकी पूजा करी अर अर्थी जो याचे सो दिया ऐसे किमिच्छक दान दिये इस मनुष्य लोकमें देवों कैसे भोग भोगे पर अपने यशसे पृथ्वीपर बंश उत्पन्न Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवा पर्व किया, इसलिये इस जन्ममें तौ हम सब बातोंमें इच्छापूर्ण हैं अब जो महा संग्राममें प्राणोंको तमें तो यह शरवीरोंकी रीति ही है परंतु क्या हम लोकोंसे यह कहा कि माली कायर होकर पीछे हट गया अथवा वहां ही मुकाम किया यह निंदाके लोकोंके शब्द धीरवीर कैसे सुनें ? धीरवीरोंका चित्र क्षत्रिय व्रतमें सावथान है भाईको इस भांति कह आप वैताड़के ऊपर सेना सहित क्षणमात्रमें गये, सब विद्याधरों पर आज्ञापत्र भेजे सो कैएक विद्याधरने न माने, उनके पुर ग्राम उजाड़े अर उद्यानके वृक्ष उपार डारे, जैसे कमलके बनको मस्त हाथी उखाडे तैसे राक्षस जातिके विद्याधर महा क्रोधको प्राप्त भये तब प्रजाके लोग मालीके कटकसे डरकर कांपते संते रथनूपुर नगरमें राजा सहस्रारके शरणे गये। चरणोंको नमस्कारकर दीन वचन कहते भए कि हे प्रभो ! सुकेशका पुत्र माली राक्षसकुली समस्त विजयार्धमें आज्ञा चलावे है हमको पीड़ा करें है। आप हमारी रक्षा करो। तब सहस्रारने आज्ञा करी कि विद्याथरो! मेरा पुत्र इंद्र है उसके शरण जाय बीनती करो वह तुम्हारी रक्षा करनेको समर्थ है जैसे इन्द्र स्वर्गलोककी रक्षा करे है सैसे यह इंद्र समस्त विद्याधरोंका रक्षक है। सब समस्त विद्याधर इन्द्रपे गए हाथ जोड़ नमस्कारकर सर्व वृत्तांत कहा । तब इन्द्र माझी पर क्रोधायमान होय गर्वकर मुलकते संते सर्व लोकोंसे कहते भए । कैसे हैं इन्द्र ? पास धरा जो बज्रायुध उसकी ओर देख लाल भए है नेत्र जिनके, मैं लोकपाल लोककी रक्षा करू मो लोकका कण्टक होय ताहि हेरकर मारू अर वह श्राप ही लड़नेको आया तो इस समान और क्या ? रखके नगारे बजाए। वे वादित्र जिनके श्रवणसे मत्त हाथी गज बंधनको उखाडे समस्त विद्याधर युद्धका साजकर इन्द्रपै आए, वकतर पहरे हाथमें अनेक प्रकारके आयुथ महा हर्षसे धरते संते कई एक रथोंपर कइ एक घोड़ोंपर चढ़े तथा हस्ती ऊंट सिंह व्याघ्र स्याली तथा मृग हंस छेला बलद मींडा इत्यादि मायामयी अनेक वाहनोंपर बैठि पाए, कैएक विमानमें बैठे. कैएक मयूरोंपर चढे, कैएक खच्चरोंगर चढे अनेक आए। इन्द्रने जो लोकपाल थापे हैं, ते अपने २ वर्गसहित नाना प्रकारके हथियारों कर युक्त भोह टेढ़ी किये आये भयानक हैं मुख जिनके । पाठ हस्तीकानाम ऐरावत उसपर इन्द्र चढे, वकतर पहिरे शिरपर छत्र फिरते हुए, रथनूपुरसे बाहिर निकसे । सैनाके विद्याधर जो देव कहावै इनके अर लंकाके राक्षसोंके महायुद्ध प्रवरखा। हे श्रेणिक ! ये देव अर राक्षस समस्त विद्याथर मनुष्य हैं, नमि विनमिके वंशके हैं ऐसा युद्ध प्रवरता जो कायर जीवोंसे देखा न जाय, हाथियोंसे हाथी, घोड़ोंसे घोड़े, पयादोंसे पयादे बड़े, सेल मुद्गर सामान्य चक्र खड्ग गोफण मूसल गदा कनक पाश इत्यादि अनेक आयुधों से युद्ध भया । सो देवोंकी सेनाने कछुएक राक्षसोंका बल घटाया तब बानरवंशी राजा सूर्यरज रचरज राक्षसवंशियोंके परम मित्र राक्षसोंकी सेनाको दबा देख युद्धको उद्यमी भये सो इनके युद्धसे समस्त इन्द्रकी सेनाके लोक देव जातिके विद्याधर पीछे हटे । इनका बल पाय राक्षस कुली विद्याधर लंकाके लोक देवोंसे महायुद्ध करते भए । शस्त्रोंके समूहसे आकाशमें अंधेरा कर डारा राक्षस अर पानरशियोंसे देवोंका वल हरा देख इन्द्र आप युद्ध करणेको उद्यमी भए समस्त Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण राक्षसर्वशी मेघरूप होकर इन्द्ररूप पर्वतपर गाजते हुये शस्त्रकी वर्षा करते भए । सो इन्द्र महायोधा कुछ भी विपाद न करता भया । किसीका वाण आपको लगने न दिया सबके बाण काट डारे अर अपने वाणसे कपि अर राक्षसोंको दवाए तब राजा माली लंकाके धनी अपनी सेनाको इन्द्र के बलसे व्याकुल देख इन्द्रसे युद्ध करणेको आय उद्यमी भए । कैसे हैं राजा माली ? क्रोध से उपजा जो तेज उससे समस्त आकाशमें किया है उद्योत जिन्होंने। इन्द्र अर मालीके परस्पर महायुद्ध प्रवरता । मालीके ललाट पर इंद्रने बाण लगाया सो मालीने उस वाणकी वेदना न गिनी अर इंद्रके ललाटपर शक्ति लगाई सो इंद्रके रुधिर झरने लगा अर माली उछलकर इंद्रपै पाया तब इन्द्रने महाक्रोबसे सूर्यके विम्ब समान चक्र से मालीका सिर काटा, माली भूमिमें पड़ा तब सुमाली मालीको मुत्रा जान अर इन्द्रको महाबलवान जान सर्व परिवार सहित भागा मालीको भाईका अत्यन्त दुःख हुवा अब यह राक्षस वंशी अर वानर बंशी भाजे तब इन्द्र इनके पीछे लगा तब सौम नामा लोकपालने जो स्वामीकी भनिगं तत्पर है इन्द्रसे विनती करी कि हे प्रभो ! जब मुझमा सेवक शत्रुओंके मारणको समर्थ है तब आप इनपर क्यों गमन करें सो मुझे आज्ञा देवो शत्रुओंको निर्मूल करू, तब इंद्रने आज्ञा करी, यह आज्ञा प्रमाण इनके पीछे लगा अर वाणों के पंज शत्रुओंपर चलाए । कपि अर राक्षसोंकी सैना बाणोंसे वेपी गई जैसे मेघकी धारा से गायके समू: ब्याकुल होंगे तैसे इनकी सर्व सेना ब्याकुल भई । अथानन्तर अपनी सेनाको व्याकुल देख सुमालीका छोटा भाई माल्यवान वाहुडकर सौमपर आया अर सौमकी छातीमें भिाण्डपाल नामा हथियार मारा वह मूर्षित हो भया सो जब लग वह सावधान होय तब लग राक्षसवंशी अर वानरवंशी पाताल लंका जा पहुंचे मानो नया जन्म भया, सिंहके मुख से निकले, सौमने सावधान होकर सन दिशा शत्रुओंसे शू-य देखी, तब लोकनिकरि गाइए है जस जाके बहुत प्रसन्न होय इन्द्रके निकट गया अर इन्द्र विजय पाय ऐरावत हस्तीपर चढ़ा लोकपालोंसे मंडित शिरपर छत्र फिरते चवर दुरते आगे अप्सरा नृत्य करती बड़े उत्साहसे महा विभूति सहित रथनूपुरमें आए । कैसा है रथनूपुर १ रत्नमयी वस्त्रों की ध्वजाओंसे शोभे है ठौर ठौर तौरणोंसे शोभायमान है जहां फूलनके देर होय रहे हैं अनेक प्रकार सुगन्धसे देवलोक समान है, सुन्दर नारियां झरोखोंमें बैठी इन्द्रकी शोभा देखें हैं इन्द्र राजमालमें आए अतिविनयसे माता पिता के पायन पड़े, माता पिताने माथे हाथ धरा अर इसके गात स्पर्श आशीस दीनी इन्द्र चैरियों को जीत अति आनन्दको प्राप्त भया प्रजाके पालने में तत्पर इन्द्रके समान भोग भोगे विजयार्थ पर्वत तो स्वर्ग समान अर राजा इन्द्र लोकमें इन्द्र समान प्रसिद्ध भया। गोतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहैं हैं-कि हे श्रेणिक ! अन लोकपालोंकी उत्पत्ति सुनो! ये लोक स्वर्गसे चयकर विद्याधर भए हैं राजा मकरध्वज राणी अदिति उसका पुत्र सोम नामा लोकपाल महा कांतिधारी सो इन्द्रने ज्योतिपुर नगरमें थापा पर पूर्व दिशा का लोकपाल किया भर राजा मेघरथ राणी वरुणा उनका पुत्र वरुण उसको इन्द्रने मेघपुर नगरमें थापा भर पश्चिम Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ मांतवा पर्व दिशाका लोकपाल किया जिसके पास पाश नामा आयुध जिसका नाम सुनकर शत्रु अति डरे अर राजा किहकंधसूर्य राणी कनकावली उसका पुत्र कुबेर महा विभूमिवान उसको इन्द्रने कांचनपुरमें थापा अर उत्तर दिशाका लोकपाल किया अर राजा बालाग्नि विद्याधर रणी श्रीप्रभा उसका पुत्र यम नामा महा तेजस्वी उसको किहकंधपुर में थापा अर दक्षिण दिशामा लोकपाल किया अर असुर नामा नगर ताके निवासी विद्याधर वे असुर ठहराए अर यक्षकीनामा नगर के विद्याधर यक्ष ठहराए अर किन्नर नगरके किन्नर, गंधर्व नगरके गंधर्व इत्यादिक विद्याधरोंकी देव संज्ञा थरी । इन्द्रकी प्रजा देव जैसी क्रीड़ा करे यह राजा इन्द्र मनुष्य योनिमें लक्ष्मीका विस्तार पाय लोगोंसे प्रशंसा पाय आपको इन्द्र ही मानता भया पर कोई स्वर्गलोक है इन्द्र है देव हैं यह सर्व वात भूल गया अर श्राप ही को इन्द्र जाना, विजयागिरिको स्वर्ग जाना, अपने थापे लोकपाल जाने अर विद्याधरोंको देव जाने, इस भांति गर्वको प्राप्त भया कि मोत अधिक पृथ्वीपर और कोई नहीं, मैं ही सर्वकी रक्षा करूं यह दोनों श्रेणिका अधिपति होय ऐसा गर्वा कि में इन्द्र हूं। __ अथानन्तर कौतुकमंगल नगरका राजा ब्योमविन्दु दृथीपर प्रसिद्ध उनके राणी मंश्वती उसके दो पुत्री भई बड़ी कौशिकी छोटी केकसी । सो कोशिकी राजा विश्रव को परणाई जे यज्ञपुर नगरके धनी, तिनके वेश्रवण पुत्र भया अति शुभ लक्षणका धरणहारा कमल सारि नेत्र जाके उसको इन्द्रने बुलाकर बहुत सन्मान किया अर लंकाके थाने राखा अर कहा-मेरे आगे चार लोकपाल है वैस तू पांचवां महा बलवान है तब वैश्रवणने विनती करी कि-"प्रभी जो आज्ञा करो सो ही मैं करू"ऐसा कह इन्द्र प्रणाम कर लंकाकों चला सो इन्द्र की आज्ञा प्रमाण लंका के थाने रहै जाको राक्षसोंकी शंका नहीं जिसकी आज्ञा विद्याधरोंके समूह अपने सिरपर धरें हैं । पाताल लंकाविप सुमालीके रत्नश्रवा नामा पुत्र भया महा शूर बीर दातार जगतका प्यारा उदारचिच मित्रोंके उपकार निमिच है जीवन जिसका, अर सेवकोंके उपकार निमित्त है प्रभुत्व जिसको, पंडितोंके उपकार निमित्त है प्रवीणपणा जिसका, भाइ के उपकार निमित्त है लक्ष्मीका पालन जिसक, दरीद्रयों के उपकार निमित्त है ऐश्वर्य जिसका, साधुयोंकी सेवा निमित्त है शरीर जिसका, जीवन के कल्याण निश्चि है वचन जिसका, सुकृतके स्मरण निमित्त है मन जिसका, धर्मके अर्थ है आयु जिसका, शूरवीरा मूल है स्वभाव जिसका, सो पिता समान सब जीवोंका दयालु, जिसके परस्त्री माता समान, पर द्रव्य तृण समान, पराया शरीर अपने शरीर समान, महा गुणवान, जो गुणवंतोंकी गिनती करें तहां इसको प्रथम गि% अर दोषवन्तों की गिणतीविष नहीं आवे उसका शरीर अद्भुत परमाणुवों कर रचा है जैसी शोभा इसमें पाइये तैसी और ठोर दुर्लभ है, संभाषणमें मानों अमृतही सींचे है, अर्थियों को महादान देता भया, धर्म अर्थकामम बौद्धमान, धर्मका अत्यंत प्रिय, निरन्तर धर्महीका यत्न करे, जन्मांतर से धर्म को लिये आया है, जिसके बड़ा आभूपण यश ही है अर गुण ही कुटुम्ब है सो धीर वीर बैरियोंका भय दजकर विद्या साधनेके अर्थ पुष्पक नामा बनमें गया । कैसा है वह वन, भूत पिशाचा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पद्म-पुराण दिकके शब्दसे महाभयानक है यह तो वहां विद्या साधे है अर राजा व्योमविन्दुने अपनी पुत्री केकसी इसकी सेवा करणे को इसके लिंग भेजी सो सेवा करे हाथ जोड़े रहे अाज्ञाकी है अभिलाषा जिसके, कैएक दिनोंमें रत्नश्रयाका नियम समाप्त भया, सिद्धोंको नमस्कार कर मौन छोड़ा। केकसीको अकेली देखी । कैसी है केकसी ? सरल हैं नेत्र जिसके नीलकमल समान सुन्दर भर लाल कमल समान है मुख जिसका कुन्दके पुष्प समान हैं दन्त अर पुष्पोंकी माला समान है कोमल सुन्दर भुजा अर मूंगा समान है कोमल मनोहर अधर, मौलश्रीके पुष्पोंकी सुगन्ध समान है निश्वास जिसके, चंपेकी कली समान है रंग जिसका, अथवा उस समान चंपक कहीं भर स्वर्ण कहाँ ? मानो लक्ष्मी रत्नश्रवाके रूपमें वश हुई कमलोंके निवासकों तज सेवा करनेको आई है। चरणारविंदकी ओर हैं नेत्र जिसके, लज्जासे नम्रीभूत है शरीर जिसका, अपने रूप वा लावण्यसे कूपलों की शोभाको उलंघती हुई स्वासनकी सुगन्धतासे जिसके मुखपर भ्रमर गुजार करे हैं। अति सुकुमार है तनु जिसका, अर योवन आवतासा है मानों इसकी अति सुकुमारता के भयसे योवन भी स्पर्शता शंके है मानो समस्त स्त्रियोंका रूप एकत्र कर बनाई है, अद्भुत है सुन्दरता जिसकी, मानों साक्षात् विद्यः ही शरीर धार कर रत्नश्रवाके तपसे वशी होकर महा कांतिकी धारणहारी आई है। तब रत्नश्रवा जिनका स्वभावही दयावान है, केकसी को पूछते भए कि तू कौनकी पुत्री है अर कौन अर्थ अकेली यूथसे विछुरी मृगी समान महा वनमें रहे है अर तेरा क्या नाम है तब यह अत्यन्त माधुर्यता रूप गदगद वाणीसे कहती भई-हे देव ! राजा व्योमविंदु राणी नन्दवती तिनकी मैं केकसी नामा पुत्री आपकी सेवा करणे को पिताने राखी है । ताही समय रत्नश्रयाको मानसस्तम्भिनी विद्या सिद्ध भई सो विद्याके प्रभावसे उसी मनमें पुष्पांतक नामा नगर बसाया र केकसीको विधिपूर्वक परणा अर उसी नगरमें रहकर मन वांछित भोग भागो भए, प्रिया प्रीतममें अद्भुत प्रीति होती भई, एक क्षण भी आपसमें वियोग सहार न सके। यह केकसी र नवाके चित्तका बंधन होती भई दोनों अत्यन्त रूपवान नव यौवन महा धनवान इन धर्मके प्रभावसे किसी भी वस्तुको कमी नहीं। यह राणी पतिव्रता पतिकी छाया समान अनुगामिनी होती भई ॥ एक समय यह राणी रत्नके महलमें सुन्दर सेजपर पड़ी होती । कैसी है सज ? चार समुद्रकी तरंग समान उज्ज्वल है वस्त्र जहां अर कोमल है अनेक सुगन्धकर मंडित है रत्नोंका उद्योत होय रहा है राणीके शरीरकी सुगन्धसे भ्र र गुजार कर है अपने मनका मोहनहारा जो अपना पति उसके गुणोंको चित्वती हुई घर पुत्रकी उत्पत्ति को बांछती हुई पड़ी हुती सो रात्रीके पिछले पहर महा आश्चर्य के करणहार शुभ स्वप्ने देखे बहुरि प्रभातविष अनेक पाने बाजे शंखोंका शब्द भया म ग वन्दी जन विरद चखानते भए तब राणी सेजसे उठकर प्रभात क्रियाकर महामंगलरूप आभूषण पहर सखियोंसे मण्डित पतिके ढिग आई । राजा राणीको देख उठे बहुत आदर किया । दोऊ एक सिंहासन पर विराजे, रासी हाथ जोड़ राजासे विनती करती भई-“हे नाथ ! आज रात्रीके चतुर्थ पहरमें मैंने तीन शुभ स्वप्न देखे हैं-एक महापसी सिंह Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातव पर्व गाज वा अनेक गजेन्द्रोंके कुम्भस्थल विदारता हुआ परम तेजस्वी आकाश से पृथ्वीपर आय मेरे मुखमें होकर कुक्षिमें आया अर सूर्य अपनी किरणोंसे तिमिरका निवारण करता मेरी गोद में श्रतिष्ठा र चन्द्रमा अखण्ड है मण्डल जिसका सो कुमुदनको प्रफुलित करता र तिमिर को हरता हुआ मैंने अपने आगे देखा । यह अद्भुत स्नान मैंने देखे सो इनके फल क्या हैं? तुम सर्व जानने योग्य हो स्त्रियोंके पतिकी आज्ञा ही प्रभाव है। तब यह बात सुन राजा स्वप्नके फलका व्याख्यान करते भये । राजा अष्टांग निमित्तके जाननहारे जिनमार्ग में प्रवीण हैं । हे प्रिये ! तेरे तीन पुत्र होंगे जिनकी कीर्ति तीन जगत में विस्तरैगी बड़े पराक्रमी कुलके वृद्धि करणहारे पूर्वोपार्जित पुण्य से महासम्पदा के भोगनेहारे देवों समान अपनी कांति से जीता है चंद्रमा, अपनी दीप्तिसे जीता है सूर्य, अपनी गम्भीरता से जीता है समुद्र श्रर अपनी स्थिरतासे जीता है पर्वत जिन्होंने, स्वर्गके अत्यन्त सुख भोग मनुष्य देह धरेंगे महाबलवान जिनको देव भी न जीत सकें, मनवांछित दानके देनेहारे कल्पवृक्ष के समान, अर चक्रवर्ती समान ऋद्धि जिनकी अपने रूपसे सुन्दर स्त्रियोंके मन हरणहारे अनेक शुभ लक्षणोंकर मण्डित उतङ्ग है वक्षस्थल जिनका, जिनका नाम ही श्रवणमात्रसे महा बलवान बैरी भय मानेंगे तिनमें प्रथम पुत्र आठवां प्रतिवासुदेव होयगा महासाहसी शत्रुत्रोंके मुखरूप कमल मुद्रित करलेको चन्द्रमा समान । तीनों भाई ऐसे योद्धा होंगे कि युद्धका नाम सुनकर जिनके हर्षके रोमांच हवे, बड़ा भाई कछु एक भयङ्कर होगा जिस वस्तुकी हठ पकड़ेगा सो न छोड़ेगा । जिसको इन्द्र भी समझानेको समर्थ नहीं । ऐसा पत्रिका वचन सुनकर राणी परम हर्षको प्राप्त होय विनयसहित भरतारको कहती भई - हे नाथ ! हम दोऊ जिनमार्गरूप अमृतके स्वादी कोमलचित्त हमारे पुत्र क्रूरकर्मा कैसे होय ? हमारे तो जिन वचन में तत्पर कोमल परिणामी होना चाहिए । मृतकी बेलपर विषपुष्प कैसे लागे । तब राजा कहते भये कि हे बरानने ! सुन्दर है सुख जाका ऐसी तू हमारे वचन सुन । यह प्राणी अपने अपने कर्म के अनुसार शरीर धरे हैं इसलिये कर्म हो मूल कारण हैं, हम मूल कारण नही, हम निमित्त कारण हैं तेरा बड़ा पुत्र जिनधर्मी तो होयगा परन्तु कुछ इक क्रूरपरिणामी होयगा श्रर उसके दो लघु वीर महाधीर जिनमार्ग में प्रवीण गुण में पूर्ण भली चेष्टा के धारणहारे शीलके सागर होवेंगे । संसार भ्रमणका है भय जिनको, धर्ममें अति दृढ महा दयावान सत्य वचन के अनुरागी होवेंगे । तिन दो उनिके ऐसा ही सौम्यकर्मका उदय है, हे कोमलभाषिणी ! हे दयावती ! प्राणी जैसा कर्म करें हैं तैसा ही शरीर धरे है ऐसा कहकर वे दोनों राजा र राणी जिनेंद्रकी महा पूजाविषै प्रवरते । कैसे हैं ते दोनों ? रात दिवस नियम धर्म में सावधान हैं | अथानन्तर प्रथम ही गर्भ में रावण आये तब माताकी चेष्टा कुछ क्रूर होती भई यह वांछा भई कि बैरियोंके सिरपर पांव धरू। राजा इंद्र के ऊपर आज्ञा चलाऊ', विना कारण भोहें टेढी करणी, कठोर बाणी बोलना, यह चेष्टा होती भई । शरीरमें खेद नहीं, दर्पण विद्यमान है तौ भी खड्गमें मुख देखना, सखी जनसे खिझ उठना, किसीको शंका न राखनी ऐसी उद्धत चेष्टा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पद्म पुराण होती भई, नवमे महीने रावण का जन्म भया जिस समय पुत्र जम्मा उस समय बैरियोंके आसन कम्पायमान भए मूर्य समान है ज्योति जिसकी ऐसा बालक उसको देखकर परिवारके लोकोंके नेत्र थकित होय रहे । देव दुन्दुभी बाजे बजाने लगे, बैरियोंके घरमें अनेक उत्पात होने लगे, माता पिताने पुत्रके जन्मका अति हर किया प्रजाके सर्व भय मिटे पृथ्वीका पालक उत्पन्न भया सेजपर सूधा पड़े अपनी लीलाकर देवोंके समान है दर्शन जिसका । राजा रत्नश्रवाने बहुत दान दिया । आगे इनके बड़े जो राजा मेघवाहन भये उनको राक्षसोंके इन्द्र भीमने हार दिया था जिसकी हजार नागकुमार देव रक्षा करें वह हार पास थरा था सो प्रथम दिवस हीके बालकने बैंच लिया वालककी मुट्ठीमें हार देख पाता आश्चर्यको प्राप्त भई अर महा स्नेहसे बालकको छातीसे लगाय लिया अर सिर चूमा अर पिताने भी हारसहित बालकको देख मनमें विचारी यह कोई महापुरुष है, हजार नागकुमार जिसकी सेवा करें ऐसे हारसे क्रीड़ा करता है । यह सामान्य पुरुष नाही याकी शक्ति ऐसी होयगी जो सर्व मनुष्यों को उलंघे। आगे चारण मुनिने मुझे कहा हुता कि तेरे पदवीधर पुत्र उत्पन्न होंगे सो आप प्रतिवासुदेव शलाका पुरुष प्रकट भये हैं। हारके योगसे दश वदन पिताको नजर आये तब उसका दशानन नाम धरा, बहुरि कुछ कालमें कुम्भकर्ण भये सो सूर्य समान है तेज जिसका, बहुरि कुछ इक कालमें पूर्णमासींके चन्द्रमा समान है :दन जिमका ऐनी चन्द्रनखा बहिन भई, बहुरि विभीषण भये महासौम्य धर्मात्मा पाप कर्मरहित मानों साक्षात् धर्म ही देहधारी अवतरा है। अद्यापि जिनके गुणोंकी कीर्ति जगतविपै गाइये हैं । ऐसे दशाननकी वालनीडा दुष्टोंको भयरूप होती भई । अर दोनों भाइयोंकी क्रीड़ा सौम्यरूप होती भई। कुम्भकर्ण अर विभीषण दोनोंके मध्य चन्द्रनखां चांद सूर्यके मध्य सन्ध्या समान शोभती भई । रावण बाल अवस्थाको उलंघकर कुमार अवस्थामें आया। एक दिन रावण अपनी माताकी गोदमें तिष्ठे था, अपने दांतोंकी कांतिसे दशों दिशामें उद्योत करतः हुश्रा जिसके सिरपर चूडामणि रत्न धरा है उस समय वैश्रवण श्राकाश मार्गसे जाय था सो रावणके ऊपर होय निकला अपनी कांतिसे प्रकाश करता हुआ विद्याधरोंके समूहसे युक्त महा बलान विभूतिका धनी, मेघ समान अनेक हाथियोंकी घटा मदकी धारा घरसाते जिनके बिजली सनान सांकल चमकै, महा शब्द करते आकाश मार्गसे निकसे सो दशों दिशा शब्दायमान होय गई। आकाश सेनासे व्याप्त हो गया । सो रावणने ऊंची दृष्टिकर देखा तो बड़ा आडम्बर देखकर माताको पूछा “यह कौन है ? अर अपने मानसे जगतको तृण समान गिनता महा नासहित कहां जाय हे ?" तर माता कहती भई "तेरी मौसीका बेटा है, सर्व विद्या इसको सिद्ध हैं, महा लक्ष्नीवान है, शत्रुओंके भय उपजावता हुआ पृथ्वीविष विचरे है, महा तंजवान है, मानो दूसरा सूर्य ही है । ९.ना इन्द्रका लोकपाल हैं । इन्द्रने तुम्हारे दादा का बड़ा भाई माली युद्ध में हराया पर तुम्हारे कुल में चली आई जो लंकापुरी वहांसे तुम्हारे दादेको निकालकर इसको रखा है। इस लंकाके लिये तेरा पिता निरन्तर अनेक मनोरथ करै हैं रात दिन चैन नहीं पड़े है अर मैं भी इस चिंतामें मुखाई हूँ। हे पुत्र ! स्थानभ्रष्ट होनेते मरण भला! Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवा पर्व ऐसा दिन का होय जो तू अपने कुलकी भूमिको प्राप्त होय अर तेरी लक्ष्मी हम देखें, तेरी विभूति देखकर तेरे पिताका अर मेंरा मन प्रसन्दको प्राप्त होप ऐसा दिन का होयगा जब तेरे यह दोनों भाइयों को विभूति सहा तेरी लार इस पृथीपर प्रतापयुक्त हम देखेंगे। तुम्हारे कंटक न रहेगें।" यह माताके दीन वचन जुन अर अश्रुपात डारती देखकर विभीषण वोले, कैसे हैं विभीषण ? प्रगट भया है क्रोधरूप विपका अंकूर जिनके, हे माता ! कहां यह रंक वैश्रवण विद्याधर जो देव होय तो भी हमारी दृष्टि में न आये। तुमने इसका इतना प्रभाव वर्णन किया । सो कहा? तू वीरप्रसवनी अर्थात् योद्धावोंकी माता है, महा धीर है, अर जिनमार्गमें प्रवीण है यह संसार की क्षणभंगुर माया तेरेसे छानी नहीं, काहे को ऐसे दीन वचन कायर स्त्रियों के समाम तू कहे है ? क्या मुझे इस रावणकी खबर नहीं है यह श्रीवत्सलक्षणकरमण्डित अद्भुत पराक्रमका धरणहारा महाबली, अपार हैं चेष्टा जिसकी, भस्मसे जैसे अग्नि दवी रहे तैस मौन गह रहा है। यह समस्त शत्रुवर्गनिके भस्म करणेको समर्थ है, तेरे मनविष अबतक नहीं आया है, यह रावण अपनी चालसे चित्तको भी जीते है पर हाथकी चपेटसे पर्वतोंको चूर डारे है। इसकी दोनों भुजा त्रिभुवनरूप मन्दिरके स्तंभ हैं अर प्रतापको राजमार्ग हैं। तत्रवतीरूप वृक्षके अंकुर हैं सो तैने क्या नहीं जाने ? इस भांति विभीषणने रावणके गुण वर्णन करे । तब रावण मावासे कहता भया "हे माता ! गर्व के वचन कहने योग्य नहीं परन्तु तेरे सन्देहके निवारने अर्थ में सत्य वचन कहूहूं सो सुन । जो यह सकल विद्याधर अनेक प्रकार विद्याले गर्वित दोनों श्रेणियोंके एकत्र होयकर मेरेसे युद्ध करें तो भी मैं सर्वको एक भुजासे जीतूं। तथापि हमारे विद्याधरोंके कुलमें विद्याका साधन उचित है सो करते लाज नहीं जैसे मुनिराज तपका आराधन करें तैसे विद्याधर विद्याका आराधन कर सो हमको करणा योग्य है। ऐसा कहकर दोनों भाइयोंके सहित माता पिताको नमस्कारकर नरकार मन्त्र का उच्चारणकर रावण विद्या साधनेको चले। माता पिताने मस्तक चूमा अर असीस दीनी, पाया है मंगल संस्कार जिन्होंने, स्थिरभूत है चित्त जिनका, घरसे निकसकर हर्षस्वरूप होय भीम नामा महावनमें प्रवेश किया । कैसा है वन ? जहां सिंहादि क्रूर जीव नाद कर रहे हैं, विकराल हैं दाढ अर बदन जिनके अर सूते जे अजगर तिनके निश्वाससे कंपायमान हैं बड़े बड़े वृक्ष जहां अर नाचे हैं पन्तरोंके समूह जहां, जिनके पायनसे कंपायमान है पृथ्वीतल जहां, अर महा गम्भीर गुफाओंमें अन्धकारका समूह फैल रहा है, मनुष्योंकी तो कहा बात ? जहां देव भी गमन न कर सकै हैं जिसकी भयंकरता पृथ्वी में प्रसिद्ध है जहां पर्वत दुर्गम महा अन्धकारको धरे गुफा अर कंटकरूप वृक्ष हैं भनुष्योंका संचार नहीं । वहां ये तीनों भाई उज्ज्वल धोती दुपट्टा धारे शांति भावको ग्रहणकर सर्व आशा निवृत्तकर विद्याके अर्थ तप करवेको उद्यत भए । कैसे हैं वे भाई ? निशंक है चित्त जिनका, पूर्ण चंद्रमा समान है बदन जिनका, विद्याथरोंके शिरोमणि, जुदे जुदे बनमें विराजे । डेढ दिनमें अष्टाक्षर मंत्रके लक्ष जाप किये सो सर्वकामप्रदा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र-पुराण विद्या तीनों भाईयों को सिद्ध भई सो मनवांछित अन्न इनको विद्या पहुँचावे तुधानी बाधा इनको न होती भई । बहुरि यह स्थिरचित्त होय सहस्रकोट पोडशातरमन्त्र जपते भए ! उस समय जम्बूद्वीपका अधिपति अनावृत नामा यक्ष, स्त्रियों सहित क्रीड़: करता आय प्राप्त हुषा। सो उसकी देवांगना इन तीनों भाइयोंको महा रूपवान अर नव यौवन तपमें सावधान देख कौतुक कर इनके समीप आई, कमल समान है मुख जिनके, भ्रमर समान हैं श्याम सुन्दर केश जिनके कैएक आपसमें बोलीं-"अहो ! यह राजकुमार अतेकोमल शरीर कांतिवारी बस्त्राभरणसहित कौन अर्थ जप करें हैं ? इनके शरीरकी कांति भोगों बिना न सोहे, कहां इनकी नवयौवन वय अर कहां यह भयानक बनमें तप करना ।" वहुरि इनके तपके डिगावनेके अर्थ कहती भई-"अहो अल्पबुद्धि ! तुम्हारा सुन्दर रूपवान शरीर भोगका साधन है, योगका साधन नहीं, तात काहेको तपका खेद करा हो, उठो घर चलो, अब भी कुछ नहीं गया" इत्यादि अनेक बचन कहे परन्तु इनके मनों एकहू न आई। जैसे जलकी बूंद कमलके पत्रपर न ठहरे । तब वे आपसमें कहती भई- हे सखा ! ये काष्ठमई हैं सर्व अंग इनके निश्चल दीखे हैं ऐसा कहकर क्रोधायमान होय तत्काल समीर अई। इनके विस्तीर्ण हृदयपर कुंडल मारा तो भी ये चलायमान न भये । स्थिरीभूत है चित्त जिनका, कार पुरुष होय सोई प्रतिज्ञासे डिगे, देविनि के कहै तै अनावृत यक्षने हंसकर कहा-भी सत्पुरुषों काहे को दुर्धर तप करो हो पर किस देवको आराधो हो ऐसा कहा तो भी ये नहीं बोले । चित्रामले होय रहे तर अनावृतने क्रोध किया कि जम्बूद्वीपका देव तो मैं हूं मुकको छोड़कर किसको ध्यावें हैं : ये मन्दबुद्धि हैं उनको उपद्रव करणे के अर्थ अपने किरोंका आज्ञा करो। किंकर स्वभावहीते का हुने अर स्वाभीके कहेसे उन्होंने और भी अधिक अनेक उपद्रव किए कैरक तो पर्वत उठाच ठाव लाए और इनके समीप पटके तिनके भयंकर शब्द भये, कैएक सर्प होय सर्व शरीरसे लिपट गए, कैएक नाहर होय मुख फाड़कर आये अर कैएक शब्द कानमें ऐसे करते भये जिनको सुनकर लोक बहिरे होय जाय, तथा मायामई डांसे बहुत किये सो इनके शरीरमें आय लागे अर मायामई हस्ती दिखाये, असराल पवन चलाई, माया ई दावानल लगाई, इस भांति अनेक उपद्रव किये, तो भी यह ध्यानसे न डिगे निश्चल है अन्तःकरण जिनका । तब देवोंने मायामई भ.जोंकी सेना यनाई । अंधकार समान विकगल आयुवोंको धरे इनको ऐना मात्रा दिखाई कि पुपांतक नगरमें महा युद्ध में रत्नश्रयाको कुटुम्ब सहित बंधा हुआ दिखाया अर यह खिाया कि माता केकसी विलाप करे है कि हे पुत्रो ! इन चाण्डाल भीलों ने तुम्हारे पिताक साथ मह। उपद्रव किया है अर यह चांडाल मुझे मारे हैं, पायों में बढ़ा डर है नाथेक कश खींच हे, हे पुत्रो। तुम्हारे आगे मुझे यह म्लेच्छ भील पल्ली में लिये जाप हैं, तुम परत हुतना सस्त विद्याधर एकत्र होय मुझसे लडें तो भी न जीता जाऊ सो यह वार्ता तुम मिथ्या ही कहते । अब तुमारे आगे म्लेच्छ चांडाल मुझे केश पकड खींचे लिये जाय हैं, तुम तीनों ही आई इन म्लेच्छोंसे युद्ध करने समर्थ नहीं, मंद पराक्रमी हो । हे दराभाव ! तरा स्वात्र विभाषण वृथा ही करे था, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारा पर्व तू तो एक ग्रीवा भी नहीं, जो माताकी रक्षा न करे अर यह कुंभकर्ण हमारी पुकार कानोंसे नहीं सुने ई पर यह विनीता का है सो वृथा है एक भीलसे लड़ने समर्थ भी नहीं पर यह म्लेच्छ तुमारी बहिन चंद्रनवा हो लिये जाय है सो तुमको लज्जा नाहीं। विद्या जो साधिए है सो मारिताको सेवा अर्थ, सो विद्या किस काम आयेगी ? मायामई देवोंने इस प्रकार चेष्टा दिखाई तो भी यह ध्यानसे न डिगे । तब देवोंने एक भयानक माया दिखाई अर्थात् रावणके निकट रत्न अवाका सिर कटा दिखाया अर रामक निकट भाइयोंके सिर कटे दिखाए अर भाइयोंके निकट रामणका भी सिर कटा दिखाया परंतु रावण तो सुमेरु पर्वत समान अति निश्चल हो रहे जो ऐा ध्यान महा मुनि करै, तो अट कम कोषको छेहे परन्तु कुंभकर्ण विभीषयके कछु इक ३ कुलता भई परन्तु कुछ विशेष नाही। _____ सो रावणको तो अनेक सहस्र विद्या सिद्धि भई जेते मंत्र जपने के नेम किये थे यह पूर्ण होनेसे पहिले ही विद्या सिद्ध भई । धर्मके निश्चयसे क्या न होय अर ऐसा दृढ़ निश्चय भी पूर्वोपार्जिन उमाल कमसे हाय है, कर्म ही संसारका मूल कारण है, कर्मानुसार यह जीव सुख दुख भोगे है, समयविष उत्तन पात्रोंको विधिसे दान देना पर दयाभावसे सदा सबको देना पर अन्त समय समाधिमाण करना अर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति किती उत्तम जीवहीको होय है। कै एकोंके तो विद्या दश वर्षों में पिद्र होय है, के एकको एक मासमें, कैएकको क्षणमात्रमें, यह सब कर्मीका प्रभाव जानो। रा दिन धरतीपर भ्रमण करो अथवा जल में प्रवेश करो तथा पर्वतके मस्तकसे परो अनेक शरीरक कष्ट करो तथापि पुण्यके उदयके बिना कार्य सिद्ध नही होय। जे उत्तम कर्म नहीं करे हैं वे वृथा शरी. खोवे हैं त.ते सर्व आदरसे प्राचार्योंकी सेवा करके पुरुषोंको सदा पुण्य ही करना योग्य है । पुण्य बिना कहांसे सिद्धि होय ? हे श्रेणिक ! थोड़े ही दिनोंमें अर मंत्र विधि पूर्ण हानेस पहिले ही रावण को महा विद्या सिद्धि भई । जे जे विद्या सिद्धि भई तिन के संक्षेपतासे नाम सुना । नभः संचारिणी कामदाचिनी कामगामिनी दुर्निवारा जगतकंपा प्रगुप्त भानुयालिनी अणिमा लधिमा क्षमा मनस्तंभकारिणी संवाहिनी मध्वंसी कौमारी बध्यकारिणी सुविधाना तमोरूपा दहना विपुलोदरी शुभप्रदा रजोरूपा दिनराविविधायिनी बज्रोदरी समाकृष्टि अदर्शिनी अजरा अमरा अनवस्तंभिनी तोयस्तमिनी गिरिदारिणी अवलोकिनी ध्वंसा धीरा घोरा भुजंगिनी वीरिनी एकभुवना अबध्या दारुणा मदनासिनी भास्करी मयसंभूति ऐशानी विजया जया बंधिनी मोचनो बाराही कुटिलाकृति चित्तोद्भवकरी शांति कौवेरी घशकारिणी योगेश्वरी वलोत्साही चंडा भौतिप्रवर्षिणी इत्यादि अनक महा विद्या रावसको थोड़े ही दिनों में सिद्ध भई तथा कुंभकर्णको पांच विद्या सिद्ध भई। उनके नाम सर्वहारिणी अतिसंबावनी जश्मिनी होमगामिनी नद्रानी तथा विभीषणको चार विद्या सिद्ध भई-सिद्धार्थ शत्रुदमनी ध्याघाता आकाशगमिनी यह तीनों ही भाई विद्याके ईश्वर होते भये पर देवोंके उपद्रवसे मानों नए अन्ममें पाए । तब यक्षोंका पति अनावृत जम्बूद्वीपका स्वामी इनको विधायुक्त देखकर बहुत स्तुवि करता भया अर दिव्य आभूषण पहरा रावणने विद्याके प्रभावसे स्वयंत्रमनगर क्साया । पर नगर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पल-पुराण पवेतके शिखर समान ऊंचे महलोंकी पंक्तिसे शोभायमान है अर रत्नमई चैत्यालयोंसे अति प्रभावको धरे है। जहां मोतियों की जाली ऊंचे झरोखे शोभे हैं, पद्मराग मणियोंके स्तंभ हैं, नानाप्रकार के रत्नोंके रंगके समूहसे जहां इंद्र धनुप होय रहा है , रावण भाइयों सहित उस नगरमें विराजे। कैसे हैं राजमहल आकाशमें लगरहे हैं शिखर जाके, विद्यावलकर मण्डित रावण सुख से तिष्ठे। - जम्बूद्वीपका अधिपति अनावृत देव रावणसों कहता भया--'हे महामते ! तेरे धीर्यमे मैं बहुत प्रसन्न भवा अर मैं सर्व जम्बूद्वीपका अधिपति हूं, तू यथेष्ट वैरियों को जीतता हुआ सर्वत्र विहार कर। हे पुत्र ! मैं बहुत प्रसन्न भया अर तेरे स्मरणमात्र निकट आऊंगा। तब तुझे कोई न जीत सकेगा अर बहुत काल भाइयोसहित सुखसों राज कर, तेरे विभूति बहुत होऊ." इस भांति आशीर्वाद देव बारम्बार इसकी स्तुति कर यक्ष परिवारसहित अपने स्थानको गया। समस्त राक्षसवंशी विद्याधरोंने सुनी जो रत्नश्रवाका पुत्र रावण महा विद्यासंयुक्त भया सो सब को आनन्द भया । सर्व ही राक्षस बड़े उत्साह सहित रावण के पास आये । कई एक राक्षस नृत्य करें हैं, कई एक गान करे हैं, कई एक शत्रु पक्षको भयकारी गाज हैं, कई एक ऐसे आनन्दसे भर गए हैं कि आनन्द अंगमें न समाव है, कैएक हंसें, कई एक केलि कर रहे हैं। सुमाली रावण का दादा अर उसका छोटा भाई माल्यवान तथा सूपरज रक्षरज राजा बानरवंशी सब ही सुजन आनन्दसहित रावण पै चले, अनेक वाहनों पर चढ हर्पसे आवे है, रत्नश्रवा रावणके पिता पुत्रके स्नेहसे भर गया है मन जिसका ध्वजावोंसे आकाशको शोभित करता हुवा परम विभूति सहित महा मंदिर समान रत्नक स्थपर चढ पाया। बंदीजन विरद बखाने है, सर्व इकठे होयकर पंचसंगम नामा पर्वत पर आए। रावण सम्मुख गया, दादा पिता अर सूर्यरज रक्षरज बड़े है सो इनको प्रणाम कर पायन लगा अर भाइयोंकी बगलगीरि कर मिला अर सेवक लोगोंको स्नेहकी नजरसे देखा अर अपन दादा पिता पर सूरज रक्षरजसे बहुत विनय कर कुशल क्षेम पूछी। बहुरि उन्होंने रावणसे पूछ, रावणका देख गुरुजन एस खुशी भए जो कहवे में न आवे । बारम्बार रावससे सुख वाता पूछ अर स्वयंप्रम नगरको दखकर आश्चर्यको प्राप्त भये । देवलोक समान यह नगर उसको देखकर राक्षसवशी र वानरवंशी सब ही अति प्रसन्न भए अर पिता रत्नश्रवा अर माता केकसी, पुत्रके गातको स्पर्शत हुये अर इसको बारम्बार प्रणाम करता हुआ देखकर चहुत आनन्दको प्राप्त भए । दुपहर के समय रावणने बड़ाको स्नान करावनेका उद्यम किया तब सुनाली आदि रत्नोंके सिंहासन पर स्नानके अथं विराजे। सिंहासन पर इनके चरण पल्लव सरीखे कोमल अर लाल ऐसे शोभते भये जेसे उदयाचल पर्वतपर सूर्य शोभे । बहुरि स्वर्ण रत्नों के कलशोंसे स्नान कराया। कलश कमल के पत्रोंसे आच्छादित है अर मोतियों की मालासे शोभे हैं अर महाकांतिको थर हैं और सुगंध जलसे भर हैं, जिनकी सुगन्धसे दशों दिशा सुगंधमयी होय रही हैं अर जिनपर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। स्नान करावत जब कलशोंका जल डारिए है. तब मेघ सारिखे गाजे हैं, पहल सुगंध द्रमास उपटना लगाय पीछे स्नान कराया। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव पर्न स्नान के समय अनेक प्रकारके वादित्र बजे, स्नान कराकर दिव्य वस्त्राभूषण पाए अर कुलवन्तनी राशियोंने अनेक मंगलाचरण कीए । रावणादि तीनों भाई देवकुमार सरे खे वरुओंका अति विनयकर चरणोंकी बन्दना करते भए तब बड़ोंने बहुत श्राशीदि दिये हे पुत्रो ! त बहुत काल जीवो र महा संपदा भोगो, तुम्हारीसी विद्या औरोंमें नहीं । सुमाली माल्यवान सूर्यरज रक्षरज अर र नवा इन्होंने स्नेहसे रावण कुम्भकरण विभीषणको उरसे लगाया । बहुरि समस्त भाई अर समस्त सेवक लोग भली विधिसों भोजन करते भए । रावणने बड़ों से बहुत सेवा करीअर सेवक लोगों का बहुत सन्मान किया, सत्रको वस्त्राभूत्रण दिये सुगली आदि सर्व ही गुरुजन फूल गये हैं नेत्र जिनके रवणसे अति प्रसन्न होय पूछते भए । 'हे पुत्रो ! तुम बहुत सुखसे हो, तत्र नमस्कार कर यह कहते भये - हे प्रभो ! हम आपके प्रसाद से सदा कुशल रूप हैं बहुरि बाबा माली की बात चली सो सुनाली शोकके भारसे मूर्छा खाय गिरा, तब रावण ने शीतोपचारसे सचेत किय अर समस्त शत्रुओंके समूह के वातरूप सामन्तताके वचन कहकर दादाको बहुत आनन्दरूप किया । सुमाला कमल नेत्र रावणको देखकर अति आनन्दरूप भए । सुमाली रावणको कहते भये - अहा पुत्र ! तेरा उदार पराक्रम जिसे देख देवता प्रसन्न होंय | अहो कांति तेरी सूर्य को जीतनेहारी, गंभीरता तेरो समुद्र अधिक, पराक्रम तेरा सर्व सम्म को उलंघे, अहो वत्स ! हमारे राक्षस कुलका तू तिलक प्रगः भया है जैसे जम्बूद्वीप का आभू पण सुमेरु है अर आकाशके आभूषण चांद सूर्य हैं, तले हे पुत्र रावण ! अब हमारे कुलातू मण्डन हैं । महा आश्चर्य की करगहारी चेटा तेरी, सकल मित्राकी थानद उपजावे है, जब तू प्रगट भवा तब हमको क्या चिंता है ? आगे अपने वंशम राजा मेघवाहन आदि बड़े २ राजा भये वे लंकापुरीका राज करके पुत्रों का राज देय मुनि होय मोज गरे अब हमारे पुण्यमे तू भया । सर्व राक्षसोंके कष्ट का हर बहारा शत्रु वर्गका जीतनेहारा तू महा साहसी हम एक मुखसे तेरी प्रशंसा कहांलों करें तेरे गुण देव भी न कह सकें। यह राक्षसवंशो विद्यावर जीवनकी आशा छोड़ बैठे हुवे सो अब सबकी आशा बंधी । तू महावीर भवा है । एक दिन हम कैलास पर्वत गये हुते वहां अवधिज्ञानी मुनि को हमने पूछा कि हे प्रभो ! लंका में हमारा प्रवेश होगा के नहीं ?" तब मुनिने कहा कि तुम्हारे पुत्र का पुत्र होयगा उसके प्रभावकर तुम्हारा लं धमें प्रवेश होयगा । वह पुरुषों में उत्तम होगा। तुम्हारा पुत्र रनश्रवा राजा व्योमविन्दुकी पुत्री केसीको परखेगा । उसकी कुक्षिमें यह पुरुषोत्तम प्रगट होल्गा सो भरत क्षेत्र के तीन खण्डका भोक्ता होगा | महा बलवान, विनयवान, जिसकी कीर्ति दशों दिशा में विस्, रेगी । वह वैरियोंसे अपना वास छुड़ावेगा अर वैरियोंके वास दावेगा सो इसमें आश्चर्य नहीं सो तू महा उत्सवरूप कुलका मण्डन प्रकटा हैं, तेरासा रूप जगत में घर किसीका नहीं, तू अपने अनुपमरू से सबके नेत्र अर मनको हरै है' इत्यादिक शुभ वचनोंसे सुमालीने रावण की स्तुति करी । तर रावण हाथ जोड़ नमस्कार कर सुमाली से कहता भया -- हे प्रभो ! तुम्हारे प्रसाद ऐसा ही होऊ । ऐसे वचन कहकर नमोकार मंत्र जप पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार किया सिद्धोंका स्मरण किया, जिससे सर्व सिद्ध होय । ७७ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहै हैं — हे श्रेणिक ! उस बालक के प्रभावसे बंधुवर्ग सर्व राक्षसी अर वानरवंशी अपने अपने स्थानक आय बसे, बैरियों का भय न किया । या मांति पूर्व भवण्यसे पुरुष लक्ष्मीको प्राप्त होय है । अपनी कीर्तिसे व्याप्त करी है दशों दिशा जिसने इस पृथ्वीमें बडी उपरका अर्थात् बूढा दोना तेजस्विताका कारण नहीं है जैसे ग्निक का छोटा ही बड़े वनको भस्म करे हैं र सिंहका वालक छोटा ही माते हाथियोंके कुम्भस्थल विदारे है अर चन्द्रमा उगता ही कुमुदोंको प्रफुल्लित करे है अर जगतका संताप दूर करे है और सूर्य उगता ही काली घटा समान अन्यकारको दूर करे है । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै रावणका जन्म और विद्या साधन कहनेवाला सातवां पर्व पर्ण भया ॥ ७ ॥ ER अथानन्तर दक्षिण श्रेणीमें असुरसंगीत नामा नगर तहां राजा मा विद्याधर बड़े योधा विद्याधरों में दैत्य कहावें जैसे रावण के बड़े राक्षस कहावें, इंद्रके कुल के देव कहावें । ये सब विद्या - धर मनुष्य हैं। राजा मयकी रानी हैमवती पुत्री मंदोदरी, जिसके सर्व श्रगोपांग सुन्दर, विशाल नेत्र, रूप र लापता रूपी जलकी सरोवरी इसको नवयौवनपूर्ण देख पिताको परणावनेकी चिंता भई । तब अपनी राणी हैमवतीसे पूछा 'हे प्रिये ! अपनी मन्दोदरी तरुण अवस्थाको प्राप्त भई सो हमकों बड़ी चिंता है। पुत्रियों के यौनके आरम्भसे जो संताप रूप अग्नि उपजे उसमें माता पिता कुम्ब सहित ईंधन के भावको प्राप्त होय हैं इसलिये तुम कहो, यह कन्या किसको परखावें ? गुग्ण में कुल में कांतिमें इसके समान होय उसको देनी । तत्र राणी कहती भई हे देव ! हम पुत्री के जनने अर पालने में हैं । परणावना तुम्हारे आश्रय है । जहां तुम्हारा चित्त प्रसन्न होय वहां देवी । जो उत्तम कुलकी बालिका हैं ते भरतार के अनुसार चाले है जब राणीने यह कहा, तब राजाने मन्त्रियोंसे पूछा । तव किसीने कोई बताया, किसीने इन्द्र बताया कि वह विद्याका पति है उसकी श्राज्ञा लोपते सर्व विधाधर डरें हैं । तत्र राजा मयने कही मेरी रुचि यह है जो यह कन्या रावणको देनी क्योंकि उसको थोड़े ही दिनों में सर्व विद्या सिद्ध भई हैं इसलिये यह कोई बड़ा पुरुष है जगनको आश्चर्यका कारण है तब राजाके वचन मारीच आदि सर्व मंत्रियोंने प्रमाण किये | मंत्री राजाके साथ कार्य में प्रवण हैं । तत्र भले ग्रह लग्न देख क्रूर ग्रह टार मारीचको साथ लेय राजा मय कन्याके परणावनेको कन्याको रावण पै ले चले रावण भीम नामा बनमें चन्द्रहास खड्ग साधनेको त्राए हुते घर चन्द्राहास की सिद्धिकर सुमेरुपर्वतके चैत्यालयोंकी बंदनाको गये हुते सो राजा मय हलकारोंके कहनेसे भीम नामा बनमें ar | कैसा है वह वन ? मानों काली घटाका समूह ही है जहां अति सघन र ऊंचे वृक्ष हैं, बनके मध्य एक ऊंचा महल देखा मानों अपने शिखरसे स्वर्गको स्पर्शे है । रावणने जो स्वयंप्रभ नामा नवा नगर बसाया है ताक समाय ही यह नगर है राजा मयने विमानसे उतर कर महलके समीप डेरा किया श्रर वादित्रादि सब आडम्बर छोड़कर केक निकटवीं लोकों सहित मन्दो Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां पर्व दरीको लेय महल पर चढ़े। सातवें खणमें गए वहां रावणकी बहिन चन्द्रनखा बैठी हुती चन्द्रनखा मानों साक्षात् वन देवी ही मूर्तिवंती है । चन्द्रनखाने राजा मयको र उसकी पुत्री मंदोदरीको देखकर बहुत आदर किया सो बड़े कुलके बालकोंके यह लक्षण ही हैं । बहुत विनयसंयुक्त इनके निकट बैठी । तब राजामय चन्द्रनखाको पूछते भए " हे पुत्री ! तू कौन है ? किस कारण वनमें अकेली बसे है ?" तत्र चन्द्रनखा बहुत विनयसे बोली- 'मेरा भाई रावण है, बेला करके उसने चन्द्रहाम खड्गको सिद्ध किया है अर अब मुझे खड्गकी रक्षा सोंप सुमेरुपर्वत के चैत्यालयों की वंदनाको गये हैं। मैं भगवान चन्द्रप्रभुके चैत्यालय में तिष्ट्रं हूं तुम बड़े हितू सम्बंधी हो जो तुम रावण से मिलने आए हो तो क्षणइक यहां बिराजो ।" इस भांति इनके बात होय ही रही थी कि रावण आकाश मार्गसे आए। तेजका समूह नजर आया। तब चन्द्रनखाने कही 'अपने तेज मे सूर्यके तेजको हरता हुआ यह रावण आया है।' रावणको देख राजामय बहुत आदरसे खड़े हुए अर रावण से मिले अर सिंहासनपर विराजे तब राजामय के मन्त्री मारीच तथा बज्रमध्य अर नमस्तडित् उग्रनक्र मरुध्वज मेधावी सारण शुक्र ये सब ही रावणको देख बहुत प्रसन्न भए । 'हे दैत्यंश ! आपकी बुद्धि अति प्रवीण हैं, जो मनुष्योंमें महा पदार्थ था सो तुम्हारे मनमें बसा' इस भांति मयसे कहकर ये मय के मंत्री रावणसे कहते भये - हे 'द ग्रीव महाभाग्य अपिका अद्भुत रूप अर महा पराक्रम है और तुम अति विनयन अतिशयक धारो अनुपम वस्तु हो । यह राजा मय दैत्योंका अधिपति दक्षिण श्र ेणी में असुरसंगंत नामा नगरका राजा है, पृथ्वीविषै प्रसिद्ध हैं । हे कुमार; तुम्हारे निर्मल गुणों अनुरागी हुआ आया है।' เด तब रावणने इनका बहुत शिष्टाचार किया अर पाहुण गति दरी अर बहुत मिष्ट वचन कहे । सो यह बड़े पुरुषोंके घरकी रीति ही है कि जो अपने द्वार वे उसका आदर करें। रावणने मयके मंत्रियोंसे कही कि दैत्यनाथ ने मुझे अपना जान बड़ा अनुग्रह किया है । तब सय नेकी कर ! तुम यही योग्य हैं जो तुम सारिखे साधु पुरुष हैं उनको सज्जनता ही मुख्य है बहुरि रावण श्रीजिनेश्वरदेव की पूजा करने को जिन मंदिर में गए। राजा मयको अर इसके मंत्रियोंको भी ले गये। रावणने बहुत भावसे पूजा करी, खूप भग नहे श्रागे स्तोत्र पढ़े, बारम्बार हाथ जोड़ नमस्कार किए, रोमांच दोय अए, अष्टांग दण्डवतकर जिन मंदिरसे बाहिर आए । कैसे हैं? अधिक उदय है जिनका अर महा सुन्दर है चेष्टा जिनकी चूड़ामणिसे शोभे हैं शिर जिनका नै यालयोंसे बाहिर आय राजा मय सहित आप सिंहासन पर विराजे । राजासे dard विद्याधरोका वाढ पूछी मन्दोदरीकी ओर दृष्टि गई तो देखकर मन दोहित भया । कैसी है मन्दोदरी १ सुन्दर लक्षणोंकर पूर्ण सौभाग्यरूप रत्नों की भूमि, कमल समान हैं चरण जिसके, स्निग्ध है तनु जिसका लोण्यतारूपी जलकी प्रवाह ही हैं, महा लज्जा के योगसे नीची है दृष्टि जिसकी, सुके कुंभ तुल्य है स्तन जाके, पुन अधिक है सुगंधता र सुकुमारता जिलकी, अर कोमल हैं देऊ भुजलता जिसकी अर शंखके कठ समान है ग्रांदा (बन्दन) जिसकी, पूर्ण नाके चंद्रमा समान हैं सुख जाका, शुक्र (घोता ) हूं तैं ते सुन्दर हैं नासिका जाकी, मानो दोऊ नेत्रों I Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० पद्म-पुराण की कांतिरूपी नदीका यह सेतुबंध ही है। मूंगा अर पल्लवसे अधिक लाल हैं अधर ( होठ ) जिस के, कर महाज्योतिको घरे अति मनोहर है कपोल जिसका, थर वीणाका नाद भ्रमरका गुंजार पर उन्मत्त कोयलका शब्द से अति सुन्दर है शब्द जिसका, अर कामकी दूती समान सुन्दर हैं। जिसकी, नीलकमल अर रक्त कमल पर कुमुदको भी जीते ऐसी श्यामता आरक्तता शुक्लता को घरे मानों दशों दिशामें तीन रंगके कमलों के समूह ही विस्तार राखे हैं और अष्टमीके चंद्रमा समान मनोहर है ललाट जिसका थर लंबे बांके काले सुगंध सघन सचिकण हैं केश जिसके, कमल समान हैं हाथ पर पांव जिसके अर हंसिनीको अर हस्तिनीको जीते ऐसी है चाल जिसकी र सिंहनी से भी प्रति क्षीण है कटि जिसकी मानों साक्ष त् लक्ष्मी ही कमल के निवासको तजकर रावणके निकट ईर्षाको धरती हुई आई है क्योंकि मेरे होते हुए रावण के शरीरको विद्या क्यों स्प ऐसे अद्भुत रूपको धरबहारी मंदोदरी रावण के मन और नेत्रोंको हरती भई । सकल रूपवती स्त्रियों का रूप लावण्य एकत्र कर इनका शरीर शुभ कर्मके उदय से बना है, अंगमें अद्भुत आभूषण पहरे, महा मनं ज्ञ मंदोदरीको अवलोकन र रावणका हृदय काम बाणसे बींधा गया, महा मधुरताकर युक्त जी रवणकी दृष्टि उसपर गयी थी वह हटकर पीछे आई परंतु मधुकर मक्षिकाकी नई घूमने लग गई। रावण वित्तमें सांचै कि यह उत्तम नारी कौन है ? श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी सरस्वती इनमें यह कौन है ? परणी है वा कुमारी है ? ममस्त श्रेष्ठ स्त्रियोंकी यह शिरोभाग्य है, यह मन इंद्रियों को हरणहारी जो मैं पर तो मेरा नवयौवन सुफल है, नहीं तो तृणवत् वृथा है ऐ चितवन रावणने किया तब राजा मन मंदोदरीके पिता बड़े प्रवीण इसका अभिप्राय जन मंदोदरीको निकट बुलाय रावणसे कही - "याके तुम पति हो" यह वचन सुन रावण ति प्रसन्न भया मानों अमृतले गत सींचा गया, हर्ष के अंकुर समान रोमांच होय आए | सर्व वस्तुकी इनके सामग्री हुनी ही, ताही दिन मंदोदरीका विवाह भया; रावण मंदोदरीको परणकर अति प्रसन्न होय स्वयंप्रभ नगर में गए । राजा मय भी पुत्रीको परणाय निश्चिन्त भए । पुत्रीके विछोह से शोक सहित आने देशको गए । रावणने हजारों राणी परणीं उन सबकी शिरोमणी मंदोदरी होती भई । मंदोदरी भरतारके गुणोंसे हरा गया है मन जिसका, पतिकी आज्ञाकारिणी होती भई रावण उस सहित जैसे इंद्र इंद्राणी सहित रमे तैसे सुमेरुके न दन वनादि रमीक स्थानमें रभते भए, कैसी है मंदोदरी ? सर्व चेष्टा मनोज्ञ हैं जाकी | अनेक विद्या जो रावणने सिद्ध करी हैं उनकी अनेक चटा दिखाते भए, एक रावण अनेक रूप थर अनेक स्त्रि के महलोंमें कौतूहल करे, कभी सूर्यकी नाई तपे, कभी चंद्रमाकी नाई चादनी विस्तारे, कभी अग्निकी नाई ज्वाला वरपे, कभी मेघकी नाई जल धारा श्रवै, कभी पवन की नई पहाड़ों को चल वें, कभी इंद्रकी सी लीला करे, कभी वह समुद्रकी सी तरंग घरे, कभी वह पर्वत समान अचल दशा गर्दै, कभी माते हाथी समान चेष्टा करें, कभी पवन से अधिक वेगवाला अश्व बन जाय, क्षणमें नजीक चसमें अदृश्य चयन सूक्ष्म क्षण में स्थूल क्षण में भयानक क्षण में मनोहर इस भांति रमता भया । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठयां पर्व एक दिवस रण मेध र पर्वनपर गया वहां एक बापिका देखी। निर्मल है जल जिसका अनेक जातिके कमलोंसे रमणीक है अर क्रौंच हंस चकवा सारिस इत्यादि अनेक पक्षियों के शब्द होय रहे हैं। अर मनोहर हैं तट जिसके, सुन्दर सिवाणों से शोभित है, जिसके समीप अर्जुन आदि बड़े बड़े वृक्षोंकी छाया होय रही है, जहां चंचल भीनको कलोलोंसे जलके छींटे उछल रहे हैं, तहां राव पने अति सुन्दर छै हजार राजकन्या क्रीड़ा करती देखीं, कैएक तो जल केलिमें छींटे उछाले हैं, कैएक कमलोंके बना घुनी हुई कमलवदनी कमलोंकी शोभाको जीते हैं। भ्रमर कमलोंकी शोभाको छोड करि इनके मुखपर गुंजार करे हैं, कैएक मृदंग बजावै हैं, कैएक वीण बजावै हैं, यह समस्त कन्या रावणको देखकर जल क्रीडाको तज खड़ी होय रहीं। रावण भी उनके बीच जाय जल क्रीडा करने लगे । तव वे भी जल क्रीड़ा करने लगीं। वे सर्व रावण का रूप देख काम वाणकर बींधी गई। सबकी दृष्टि यासों ऐसो लगी जो अन्यत्र न जाय। इसके अर उनके राग भाव भया । प्रथम मिलापकी लज्जा अर मदनका प्रगट होना सो तिनका मन हिंडौलेमें भूलता भया । तिन कन्याओं में जो मुख्य हैं उनका नाम सुना, राजा सुरसुन्दर राणी सर्वश्रीकी पुत्री पद्मावती नीलकमल सारिखे हैं नत्र जिसके, राजा वुध राणी मनोवेगा ताकी कन्या अशोकलता मानो साक्षात् अशोककी लता ही है कर राजा कनक राणी सन्ध्याको पुत्री विद्यत्प्रभा जो अपनी प्रभाकर बिजुलीकी प्रभाको लज्जावंत कर है, सुन्दर है दर्शन जिसका. बडे कुलकी बेटी, सब ही अनेक कलाकार प्रवीण उनमें ये मुख्य हैं मानो तीन लोककी सुन्दरता ही मूर्ति धरकर विभूति सहित आई है सा रावण ने छः हजार कन्या गंधर्व विवाहकर परणीं। वे भी रावणसहित नानाप्रकार की क्रीड़ा करती भई।। तब इनकी लार जे खोजे वा सहेली हुतीं इनके माता पिताओंसे सकल वृत्तांत जाकर कहती भई तब उन रोजाओंने रावण के मारिवको का सामन्त भे, ते भ्र कुटी चढाय होठ डसते आए नानाप्रकारके शस्त्रों की वर्षा करते भये, ते सफल अकेले रावणने क्षणमात्र में जीत लिए। वह भागकर कांपते राजा सुरसुन्दर पै गए, जायकर हथियार डार दिए अर बीनती करते भए 'हे नाथ ! हमारी आजीवकाको दूर करो अथवा घर लूट लेगो अथवा हाथ पांव छेदो तथा प्राण हरो, हम रत्नश्रवाका पुत्र जो रावण उससे लडनेको समर्थ नहीं, ते सात हजार राजकन्या उसने परणी अर उनके मध्य क्रीड़ा कर है, इंद्र सारिखा सुन्दर चन्द्रमा समान कांतिधारी, जिसकी क्रूर दृष्टि देव भी न सहार सकें, उसके सामने हम रंक कोन ? हमने घने ही देखे, स्थनूपुरका धनी राजा इन्द्र आदि इसकी तुल्य कोऊ नहीं। यह परम सु.दर महा शूरवीर है। ऐसे व न सुन राजा सुरसुन्दर महा क्रोधायमान होय राजा बुध अर कना सहित बड़ी सेना लेय निकस अर भी अनेक राजा इनके संग भए सो आकाशमें शस्त्रोंकी कांतिसे उद्योत करते आए। इन राजावोंको देखकर ये समस्त कन्या भयकर ब्याकुल भई अर हाथ जोड़कर रावणसे कहती भई कि हे नाय ! हमारे कारण तुम अत्यन्त संशयको प्राप्त भो, हम पुण्यहीन हैं Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म पुराण अब आप उठकर कहीं शरण लेवी क्योंकि ये प्राण दुर्लभ हैं तिनकी रक्षा करो। यह निकट ही श्रीभगवानका मन्दिर है तहां छिप रहो, क्रूर बैरी तुमको न देख आप ही उठ जावेंगे। ऐसे दोन वचन स्त्रियोंके सुन अर शत्रुका कटक निकट आया देख रावणने लाल ने कीये अर इनसे कहते भए, 'तुम मेरा पराक्रम नहीं जानो हो तातें ऐसे कहो हो, काक अनेक भेले भए वो कहा. गरुड़को जीतेंगे ? सिंहका बालक अनेक मदोन्मत्त हाथियोंके मदकू दूर करै है।' ऐसे रावणक वचन सुन स्त्री हर्षित भई अर बीनती करी "हे प्रभो ! हमारे पिता श्रर भाई पर कुटुम्बकी रक्षा करो।" तब रावण कहते भये-'हे प्यारी हो ! असे ही होयगा। तुम भय मत करो, धीरता गहो।' यह बात परस्पर होय है । इतनेमें राजाओंके कटक आए तब रावण विद्याके रचे विमानमें बैठ क्रोधसे उनके सन्मुख भया, ते सकल राजा अर उनके योधाओंके समूह जैसे पर्वतपर मोटी धारा मेघकी वरसे तैसे बाणोंकी वर्षा करते भए । वह, रावण विद्याओं के सागरने शिलानोंसे सर्व शस्त्र निवारे अर कैयकको शिलासे ही भयको प्राप्त कीए बहुरि मनमें बिचारी कि इन रंकोंके मारणेसे क्या ? इनमें जो मुख्य राजा हैं तिनहीको पकड़ लेवो । तब इन राजावोंको तामस शस्त्रोंसे मूछित कर नागपाशसे बांधलिया। तब इन छै हजार स्त्रियोंने वीनती कर छुड़ाए । तब रावणने तिन राजाओंकी बहुत सुश्रूषा करी । तुम हमारे परमहितु सम्बन्धी हो, तब वे रावणका शूत्वगुण देख महा विनयवान रूपवान देख बहुत प्रसन्न भए । अपनी अपनी पुत्रियों का पाणिग्रहण कराया । तीन दिन तक महा उत्पत्र प्रवरता । ते राजा रावणकी आज्ञा लेय अपने अपने अस्थानको गए । तब रावण मन्दोदरीके गुगोंकर मोहित है चित्त जिसका, स्वयंप्रभ नगर में आए तब इसको स्त्रियोंसहित प्राय: सुनकर कुम्भकरण विभीषण भी सन्मुख गए । रावण बहुत उत्साहसे स्वयंप्रभवगरमें आए अर सुरराजवत् रमते भए । . . अथानन्तर कुम्भपुरका राजा मन्दोदर ताके सणी स्वरूपा ताकी पुत्री तढिन्माला सो कुम्भकर्ष जिसका प्रथम नाम भानु र्ण था, उसने परणी । कैसे हैं कुम्भकर्ण ? धर्मविष प्रासंक्त है बुद्धि जिनकी अर महा योवा हैं अनेक कला गुणमें प्रवीण हैं । हे श्रेणिक ! अन्धमती लोक जो इनकी कीर्ति और भांति कहे हैं कि मांस पर लोहका भक्षण करते हुते, छ महीनाती निद्रा लेते सो नहीं । इनका श्राहार बहुत पवित्र स्वाद रूप सुगंध था, प्रथम मुनियों को आहार देय पर आर्यादिकको आहार देय दुखित भूखित जीवको आहार देय कुटुंब सहित योग्य आहार करते हुते मांसादिककी प्रवृत्ति नहीं थी अर निद्रा इनको अर्धरात्रि पीछे अलप थी, सदा काल धर्ममें लवलीन था चित्त जिनका । चरम शरीर जो बडे पुरुषोंको झूठा कलंक लगाये हैं ते महा पापका बंध करे हैं ऐसा करना योग्य नहीं। अथानन्तर दक्षिणश्रेणीमें ज्योनिप्रभनामा नगर वहां राजा विशुद्धकमल राजा मयका बा मित्र उसके राणी नंदनमाला पुत्री राजीवसरसी सो विर्भाषणने परणी, अति सुन्दर उस राखी सहित विमीषण अति कोतूहल करते भए, अनेक चेष्टा करते जिनको रतिकेलि करते तृप्ति नहीं। कैसे हैं विभीषण ? देवन समान परम सुन्दर है आकार जिनका अर कैती है राणी ? Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAA आठवां पर्व खरमीसे भी अधिक सुन्दर है लक्ष्मी तो पद्म कहिए कमल उसकी निवासिनी है पर यह राणी पाराम मणिके महलकी निवासिनी है। अथानन्तर रावण की राणी मंदोदरी गर्भवती भई सो इसको माता पिताके घर ले गए वहां इन्द्रजीतका जन्म भया। इंद्रजीतका नाम समस्त पृषीविष प्रसिद्ध हुा । अपने नानाकै घर प्रद्धिको प्राप्त भया । सिंहके बालककी नाई साहसरूप उन्मन कीड़ा करता भया। रापणने पुत्र सहित मंदोदरी अपने निकट बलाई सो आज्ञा प्रमाण प्राई । मंदोदरीके माता पिताको इनके विछोहका अति दुख भया। रावण पुत्रका मुख देख कर परम आनन्दको प्राप्त भया सुपुत्र समान और प्रीतिका स्थान नहीं फिर मंदोदरीको गर्भ रहा तब माता पिताके घर फिर ले गए सहां मेघनादका जन्म भया । फिर भरतारके पास आई भोगके सागरमें मग्न भई। मंदोदरीने अपने गुणोसे पति का चित्त वश किया । अब ये बालक इन्द्रजीत अर मेघनद सज्जनोंको मानन्दके करणहारे सुन्दर चरित्रवान तरुण अवस्थाको प्राप्त भए। विस्तीर्ण है नेत्र जिनके बा अपम समान पृथ्वीका भार चलावनहारे हैं । अथानन्तर वैश्रवण जिन जिन पुरोंमें राज करे उन हजारों पुरोंमें कुम्भकर्ण धावे करते मए जहां इन्द्रका अर वैश्रवणका माल होय सो छीनकर अपने स्वयंप्रम नगरीमें ले आवे इस वातसे वैश्रवण बहुत क्रोधायमान भए बालकोंकी चेष्टा जान सुमाली रावणाके दादाके निकट दूत भेजे, कैसा है वैश्रवण ? इन्द्रके जोरसे अति गर्वित है । सो वैश्रवणका दूत द्वारपालसे. मिल समामें भाया अर सुमाली से कहता भया । हे महाराज : वैश्रवण नरेंद्रने जो कहा है सो तुम विच देय सुनो । वैश्रवणाने यह कहा है कि तुम पंडित हो, कुलीन हो, लोक रीतिके ज्ञायक हो, पड़े हो, अकार्यके संगसे भयभीत हो, औरोंको भले मार्गक उपदेशक हो, एसे जो तुम सो तुम्हारे आगे यह बालक चपलता करें तो क्या तुम अपने पोतावोंको मने न करो। तियंच भर मनुष्यमें यही भेद है कि मनुष्य तो योग्य अयोग्यको जाने है अर तिर्यच न जाने है यही विवेककी रीति है । करने योग्य कार्य करिये, न करने योग्य न करिए। जो दृढ़ चित्त हैं वे पूर्व पत्तांतको नहीं भूले हैं घर विजुली समान क्षणभंगुर विभूतिकेहोते हुवे भी गर्वको नहीं धरे हैं। भागे क्या राजा मालीके मरणेसे तुम्हारे कुलकी कुशल भई है अब यह क्या स्यानपन है जो फुलके भूलनाशका उपाय करते हो। ऐसा जगत में कोई नहीं, जो अपने कुलके मूलनाशको आदरे । सुम क्या इन्द्रका प्रताप भूल गए जो ऐसे अनुचित काम करो हो, कैसे हैं इन्द्र ? विध्वंस किये हैं बरी जिसने समुद्र समान अथाह हैं सो तुम मीडकके समान सर्पके मुख में क्रीड़ा करो हो। कैसा है सर्पका मुख ? दादरूपी कंटकसे भरा है श्रर विषरूपी अग्निके कण जिसमेंसे निकस हैं अपने पोते पड़ोताको जो तुम शिक्षा देनेको समर्थ नहीं हो तो मेरें सोंपो मैं इनको तुरन्त सीधे करू अर ऐसा न करोगे तो समस्त पुत्र पौत्रादि कुम्बको बेड़ियोंसे बंधा मलिन स्थानमें रुका देखोगे, अनेक भांति की पीड़ा इनको होगी । पाताल लंकात नीठि (जरा जरा) पाहिर विकसे हो अप फिर वहां ही प्रवेश किया चाहो हो । इस प्रकार दूतके कठोर वचनरूपी पवनसे स्पर्शामनरूपी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण जल जिसका ऐसा रावणरूपी समुद्र अति क्षोभ को प्राप्त भया । क्रोधस शरीरम पसव आ गया अर आंखों की भारतासे समस्त आकाश लाल हो गया अर क्रोधरूपी स्वरके उच्चारणसे सर्व दिशा बधिर करते हुवे पर हाथियोंका मद निवारते हुये गाज कर ऐसा बोल्या "कौन है वैश्रवण अर कौन है इंद्र ? जो हमारे गोत्रकी परिपाटीसे चली आई जो लंका, उसको दाब रहे हैं। जैसे काग अपने मनसे सिवा होय रहै अर स्य'ल आपको अष्टापद माने तैसे वह रङ्क आपको इंद्र मान रहा है । सो यह निर्लज्ज है अधम पुरुष है, अपने सेवकोंसे इन्द्र कहाया तो क्या इन्द्र हो गया ? हे कुदा ! हमारे निकट तू ऐते कठोर वचन कहता हुआ कुछ भय नहीं करता ?" ऐसा कह कर म्यानसे खड्ग काढा, आकाश खड्गके तेजसे ऐसा व्याप्त हो गया जैसे नील कमलोंके वनसे महा सरोवर व्याप्त होय । - तब विभीषणने बहुत विनयसे रावणसे विनती करी अर दूतको मारने न दिया अर यह कहा " हे महाराज ! यह पराया चाकर है इसका अपराध क्या ? जो वह कहावे सो यह कहे इसमें पुरुषार्थ नहीं। अपनी देह आजीविका निमित्त पालनेको बेची है यह सूपा समान है । ज्यों दूसरा बलावे त्यों बोले । यह दूत लोग हैं इनके हिरदेमें इनका स्व मी विशाचरूप प्रवेश कर रहा है। उनके अनुसार वचन प्रवरते हैं जैसे बाजित्री जिस भांति बादित्रको वजावे उसी भांति बाजे तैसे इनका देह पराधीन है स्वतन्त्र नहीं तारों हे कृपानिधे ; प्रसन्न होशे अर दुखी जीवोंपर दया करो। हे निष्कपट महावीर ; रक के मारनेसे लोकमें बड़ी अपकीर्ति होय है । यह खड्ग तुम्हारा शत्रु लोगोंके सिरपर पड़ेगा, दीनके बध करने योग्य नहीं। जैसे गरुड़ गेड़ोंको न मारे तैसे आप अनाथको न मारो" या भांति विभीपणने उत्तम वचनरूपी जलकरि रावणकी क्रोधाग्नि बझाई । कैसे हैं विभीषण ? महा सन्पुरुष हैं, न्यायके वेत्ता हैं । रावणाके पायन पड़ दृतको बचाया अर सभाके लोकोंने दूतको बाहिर निकारा धिक्कार है सेवकका जन्म, पराधीन दुख स है है । - दूतने जाय..र सर्व समाचार वेत्रवणसों वहे। रावणके मुखकी अत्यन्त कठोर वाणी रूपी ईधनस वैश्रवणके क्रोधरूपा अग्नि उठी सो चित्तविष न समाये वह मानों सर्व सेवकोंके चित्तको बांट दीनी । भायाथ-सर्व क्रोवरूप भए । रणसंग्रामके बाजे बजाये, वैश्रवण सर्व सेना ले युद्धके अर्थ बाहिर निइसे इस वैश्रवण के वंशके विद्याधर यक्ष कहावें सो समस्त यतोंको साथ ले राक्षसों पर चले । अति झलमलाट : रते खड्ग सेल चक्र बाणादि अनेक आयुधोंको धर हैं । अंजनगिरि समान माते हाथियोंके मद झरे हैं मानों नीझरने ही हैं तथा बड़े रथ अनेक रत्नोंसे जड़े सन्ध्याके बादल के रङ्ग समान मनोहर महा तेजबन्त अपने वेगसे पवनको जीते हैं तैसे ही तुरङ्ग अर पयादयोंके समूह समुद्र समान गाजते युद्ध के अर्थ चले । देवोंके विमान समान सुन्दर विमानोंपर चढ़े विद्याधर राजा वैश्रवणके लार चले कर रावण इनके पहिले ही कुम्भकरणादि भाइयों सहित बाहिर निकसे । युद्धकी अभिलामा रखती हुई दोनों सेनाओंका संग्राम गुंज नामा पर्वतके ऊपर भया । शस्त्रों के पातसे अग्नि दिखाई देने लगी। खड़गों के वातस घोड़ों के हीसिनेसे पयादोंके नादसे हाथियोंके गरजनेसे रथोंके परफर शब्दसे वात्रिोंके बाजा से तथा बाणोंके . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां पर्व उग्र शब्दसे इन्यादि क भगानक शब्दास रणभूमि गाज रही हैं, परती प्रकाश शब्दायमान होंग रहे हैं, वीर रका राग होय है, योषाओंके. मर चढ़ रहा है, यम बदन समान चक्र तीक्षा है धारा जिनीअर यमकी जीभ र.म. र डा रु की बारा वर्षा नहारी र यमके रोम समान सेल अर यमकी प्रांगु समान सर (वाण) र यमझी भुजा समान परिघ (कुहाड़ः) अर यमकी मुष्टि समान मुदगर इत्यादि अनेक शस्त्रोमे परस्पर महायुद् प्रवरना कायरों की बात अर योथाओंको हर्ष उपजा । मामन निरके बदले यशरूप धनको होते हैं। अनेक राक्षस अर कपि जातिके विद्य धर अर यज्ञ जातिके विद्याधर परस्पर युवर परलोकको प्राप्त भए। कुछ इक यक्षोंके आगे राक्षस पीछे हटे तब रावण अपनी सेनाको दवी देख आप रण संग्रमको उद्यमी भए । कैसे हैं रवण महामनोज्ञ सफेद छत्र सिरपर फिरे हैं जाके, काल मेघ समान चन्द्र मंडलकी कान्तिका जीतनेवाला रावण धनुप वाण धाः, इ.द्र धनुषसमान अनेक रंगका वकतर पहिरे, शिरपर मुकुट धरे, नाना प्रकार के रत्नोंके प्राभूपण संयुक्त, अपनी दीप्तिो आकाशमें उद्योत करता आया रावणको देखकर यज्ञ जाजिक विद्य पर क्षण मात्र विलसे, तेन दूर होगया, रणी अभिलाषा छोड़ पर ङमुख भए, त्र-ससे प्राकृतिा है चित्त जिना, भ्ररकी म्याई भ्रमते मए । तब यक्षोंके अधिपति बड़े २ योद्धा एक बोर रावण के म मुख आए गवण सबके छेदने को प्रदरता जैसे सिंह उछलकर माले हाथियोंक, कुम्भस्दल विदरे ते राण कोपरुप. पनके प्रेरे अग्नि स्वरूप होवर शत्रुसेरूपी बनको दाह उपना भए । सो पुरुष नहीं, सो रथ नहीं, सो अश्व नहीं, सो विमान नहीं, जो राः के बाणोंसे न बींधा गया। तब रावणाको रामें देख वैश्रवण भाईपनेका स्नेह जनावता भया पर अपने मनमें पछताया जैसे वाहूबल भरतसे हड़ई कर पछताए हुते तैसे वैश्रयण रावणासे विरोध कर पछताया। हाय ! यह सं र दुःखमा भाउन है जहां यह प्राणी नाना योनियोंदिभ्रमण करे हैं। देखो ; मैं मूर्ख ऐश्वर्यसे गावित होकर भाईके विध्वंस करने में प्रदरता। यह विचार कर वैयण र वण से कहता भया—'हे दशानन; यह राजलक्ष्मी क्षणभंगुर है, इसके निमित्त तू कहा पाप करै । मैं तेरी बड़ी मौसीका पुत्र हूं ताते भाइयोंसे अयोग्य व्यवहार करना योग्य नहीं अर यह जीव प्राणियों की हिंसा करके महा भयानक नरकको प्राप्त होय है, नरक महा दुःख से भरा है। जगतकेजी। विपी अभिलाषामें फंसे हैं आंखोंकी पलकमात्र क्षण जीवना क्या तू न जाने है । भौगोंके कारण पाप कर्म काहेको करे है। तब रावणने कहा-'हे वैश्रवण ; यह धर्म श्रवणका समय नहीं जो माते हाथियोंपर चढ़ कर खड़ग हाथमें धरै सो शत्रुवोंको मारै तथा आप मरे बहुत कहनेसे क्य. ? तू तलवारके मार्गविष विष्ट अथवा मेरे पांव पड़। यदि तू धनपाल है तो हमारा ण्डारी हो अपना कर्म करते पुरुष लज्जा न करै । तब वैश्रवण वोले-'हे रावण : तेरी आयु अल्प है तातें ऐसे क्रूर वचन कहे है। शक्ति प्रमाण हमारे ऊपर शस्त्रका प्रहार कर। तब रावणने कही-तुम बड़े हो प्रथम वार तुम करो। तब रावणके ऊपर वैश्रवणने बाण चलाये-जैसे पहाड़के ऊपर सूर्य किरण डारे। वैश्रवणके बाण रावणने अपने बाणोंसे काट डारे Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण पर अपने बाण से शर मण्डप कर डारा । बहुरि वैश्रवणने अर्धचंद्र बाणोंसे रावसाका धनुष छेदा अर रथसे रहित किया तब रावणने मेघनादनामा रथपर चढकर वैश्रवणसे युद्ध किया उल्कापात समान बज्र दंडोंसे वैश्रवणाका बखतर चूर डारा। पर वैश्रवणके सुकोमल हृदयमें भिण्डीपाल मारी, वह मूळ को प्राप्त भया । तब ताकी सेना विष अत्यन्त शोक भया। वैश्रवणाके लोक वैश्रवणको उठाकर यक्षर ले गये पर रावण। शत्र ओंको जीतकर रणसे निवृत्त । सुभटका शत्रु के जीतनेहीका प्रयोजन है, धनोदिकका प्रयोजन नहीं।। अथानन्तर वैश्रवणका वैद्याने यतन किया सो अच्छा हवा तब अपने चिच में विचारे है बैसे पुष्परहित वृक्ष, सींग दृटा बैल, कमल बिना सरोवर न लौई तैसे मैं शूरगौरता विना न सोहं । जो सामन्त हैं अर क्षत्री वृचीका विरद धारै हैं जिनका जीतव्य सुभटत्वहीसे शोमे है अर तिनको संसारमें पराक्रम ही से सुख है सो मेरे अब नहीं रहा ताते अब संसारका त्याग कर मुक्तिका यत्न करू। यह संसार असार है, क्षणभंगुर है, इस हीसे सत्पुरुष विषय मुखको नहीं चाहे हैं यह अंतराय सहित है अर अल्म हैं दुख ही हैं। ये प्राणी पूर्व भवमें जो अपराध करे हैं उसका फल इस भवमें पराभव होय है सुख दुःखका मूल कारण कर्म हो हैं अर प्रासी निमितमात्र है तात ज्ञानी तिनसे कोप न करें। कैसा है ज्ञानी ? संसारके स्वरूपको भली भांति जाने है। यह केकसीका पुत्र रावण मेरे कल्याणका निमित्त हुवा है जिसने मुझे गृहवास रूप महा फांसीसे छुड़ाया अर कुम्भकरण मेरा परम मित्र है जिसने यह संग्रामका कारण मेरे ज्ञानका निमित्त बनाया ऐसा विचार कर वैश्रवणने दिगम्बरी दीक्षा आदरी । पाम तपको आराधन कर परम धाम पधारे, संसार भ्रमणसे रहित भए। अथानन्तर रावण अपने कुल का अपमानरूप मैल धोकर सुख अवस्थाको प्राप्त भया, समस्त भाइयोंने उसको राक्षसोंका शिखर जाना। वैश्रवणकी असवारीका पुष्पक नामा विमान महा मनोग्य है, रत्नोंकी ज्योतिके अंकुरे छुट रहे हैं झरोखे ही है नत्र जिसके, निर्मल कांतिके थारणहारे, महा मुक्ताफलकी झालरोंसे मानों अपने स्वामीके वियोगसे अश्रुपात ही डारे है अर पंधरागमखियोंकी प्रभासे आरक्तताको थारे है मानो यह वैश्रवणका हृदय ही रावसके किये पाव से लाल हो रहा है अर इन्द्र नील मणियोंकी प्रभा कैसे अतिश्याम सुन्दरताको धरै है मानो स्वामीके शोकसे सांउला होय रहा है, चैत्यालय वन वापी सरोवर अनेक मन्दिरोंस मसिडत मानो नगरका आकार ही है। रावणके हाथके नाना प्रकारके पावसे मानो घायल हो रहा है, रावण मन्दिर समाम ऊंचा जो वह विमान उसको रावणके सेवक रावणके समीप बाए। वह विमान आकाशका मण्डन है । इस विमानको बैरीके भंगका चिन्द जान रावखने भादरा भर किसीका कुछ भी न लिया। रावणके किसी वस्तुकी कमी नहीं। विद्यामई अनेक विमान है तथापि पुष्पक विमानमें विशेष अनुरागर चढे । रत्नश्रवा तथा केकसी माता भर समस्त प्रधान सेनापति तथा भाई बेटों सहित आप पुष्पक विमानमें बारूद भया अर पुरजन नाना प्रकारके बाइनोंपर आरूढ भए पुष्पकके मध्य महा कमलवन है तहां आप मन्दोदरी आदि समस्त राज Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां पर्व लोकोसहित आय विराजे । कैसे हैं रावण ? अखण्ड है गति जिनकी अपनी इच्छासे आश्चर्यकारी आभूषस पहरे है अर श्रेष्ठ विद्याधरी चमर ढोरे हैं मलयागिरीके चन्दनादि अनेक सुगंध अंगपर लगी है, चन्द्रमाकी कांति समान उज्जवल छत्र फिरै हैं मानो शत्रु ओंके भंगसे जो यश विस्तारा है उस यशसे शोभायमान है। धनुष त्रिशूल खड्ग सेल पाश इत्यादि अनेक हथियार जिनके हाथमें ऐसे जो सेवक तिनकर संयुक्त है। सेवक भक्तियुक्त हैं अर अद्भुत कर्मके करणहारे हैं तथा बड़े २ विद्याधर राजा सामन्त शत्रु ओंके नमूहके क्षय करणहारे अपने गुणनिकरि स्वामीके मनके मोहन हारे महा विभवसे शोभित तिनसे दशमुख मण्डित है परम उदार सूर्यकासा तेज धारता पूर्वीपार्जित पुल्यका फल भोगता हुआ दक्षिणके समुद्रकी तरफ जहां लंका है इसीओर इन्द्रकी सी विभूतिसे चला । कुम्भकरण भाई हस्तीपर चढे, विभीषण रथपर चढे, अपने लोगों सहित महा विभूतिसे मण्डित रावग्पके पीछे चले । राजा मय मन्दोदरीके पिता दैत्यजातिके विद्याथरोंके अधिपति माइयों सहित अनेक सामंनोंसे युक्त तथा मारीच अंवर विद्य तवज्र बज्रोदर दुधवज्राक्षफर करनक्र सारन सुनय शुरु इत्यादि मंत्रियोसहित महा विभूतिकर मंडित अनेक विद्याधरों के राजा रावण के संग चले। कैएक सिहोंके रथ चढ़े, कैएक अष्टापदोंके रथपर चढकर वन पर्वत समुद्रकी शोभा देखते पृथ्वी पर विहार किया अर समस्त दक्षिण दिशा वश करी। _ अथानन्तर एक दिन रावणने अपने दादा सुमालीसे पूछा-'हे प्रभो ! हे पूज्य ! इस पर्वतके मस्तक पर मरोबर नहीं सी कमलोंका बन कैसे कूल रहा है ? यह ार चर्य है पर कमर्लो कारन चंचल होता है यह निश्चल है।' इस भांति सुमालीसे पूछा। कैसा है रावण ? विनयकर नम्रीभूत है शरीर जिसका तब शुमाली 'नमः सिद्धेभ्यः' मंत्र पढ़कर कहते भर--हे पुत्र ! यह कमलोंके धन नहीं, इस पर्वतके शिखरपर पद्मरागमणिमयो हरिपेण चक्रवर्ती के कराए चैत्यालय हैं। जिनपर निर्मल धजा फरहरे हैं। अर नाना प्रकारके तोरणोंसे शोभे है। हरिषेण महा सज्जन पुरुषोचम थे जिनके गुण कहने में न आ हे पुत्र! तू उतरकर पवित्र मा हो कर नमस्कार कर। तब रावखने बहुत विनपसे जिन मदरों को नमस्कार किया अर बहुन आश्चर्य को प्राप्त भया अर सुमालीसे हरिशेण चक्रवर्तीझी कथा पूछी। 'हे देश ! आपने जिनके गुण वर्णन किए ताकी कथा कहो।' यह विनती करी । कैगा है रावण १ वैश्रवणका जीतनहारा बड़ेनिविष है वि विनय जाकी । तब सुमाली कहै है- 'हे दशानन ! ते भली पूछी। पापका नाश करणहारा हरिषेणका चरित्र सो मुना कापल्या नगरमें राजाध्विज उनके राणी वप्रा जो महा गुण ती सौभाग्यवती राजाके अनेक राणी थीं परंतु राणी वा उनमें तिलक थी। उसके हरिपेण चक्रवर्ती पुत्र भये । चौसठ शुभ लक्षणोंसे युक्त, पाप कर्मके नाशनहारे सो इनकी माता वा महा धर्मवती सदा श्रष्टानिकाके उत्सवमें रथयात्रा किया करे इसकी मौकन राणी महालक्ष्मी भौमाग्य के मद से कहती भई कि पहिले हमारा ब्रह्मरथ भ्रमण हुआ करैगा पीछे तुम्हारा । यह बात सुन राणी वप्रा हृदय में खेद भिन्न भई मानों वज्रपातसे पाड़ी गई। उसने प्रतिज्ञा करी कि हमारे वीतरागका रथ अठाइयों में पहिले निकसे तो हमको श्राहार करना अन्यथा नहीं, ऐसा कहकर सर्व काज छोड़ दिया, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ पद्म-पुराण शोकसे मुख मुरझाय गया, अश्रुपातकी बूद खोंसे डालती हुई । माताको देखकर हरिषेणने कहा-'हे माता! अब तक तुमने स्वप्नमात्रमें भी रुदन न किया, अब यह अमंगल कार्य क्यों करो हो।' तब माताने सर्व वृत्तांत कहा । सुनकर हरिषेणने मनमें सोची कि क्या करू? एक ओर पिता एक ओर माता। मैं संकट में पड़ा हूँ अर मैं माताके अश्रुपात देखनेको समर्थ नहीं हूं सो उदास हो घरसे निकस वनको गए तहां मिष्ट फलोंके भक्षण करते अर सरोवरों का निर्मल जल पीते निर्भय विहार किया । इनका सुन्दर रूप देख कर निर्दयी पशु भी शांत हो गए। ऐसे भव्य जीव किसको प्यारे न हों तहां वनमें भी माता का रुखन याद अवै तवइन को ऐसी बाधा उपजे कि वनकी रमणीकताका सुख भूल ज वै सो हरिषेण वनमें विहार करते शतमन्यु नामा तापसके पात्रममें गए। कैसा है आश्रम ? जीवों का ग्राश्रय है जहां। __अथान तर कालकल्प नामा राजा ऋति प्रवल जिसका वड़ा तेज अर बड़ी फौज उसने आनय र पा नगरी घेरी सो तहाँ रजा जनमेजय सो जनमेजय र कालकल्पमें युद्ध भया। आगे जनमेजयने महलमें सुरंग बना रखी थी सो मार्ग होकर जनमेजयकी माता नागमती अपनी पुत्री भदनावली सहित निकली अर शत पन्यु तपनके पाश्रमें आई । सो नागमतीकी पुत्री हरिषेण का रूप देख कर कामके कोणों से बांधी गई। कैसे हैं कामके बाण ? शरीर में विकलता ककरणहारे हैं । तब काकू और भांति देख नागमती कहती भई-हे पुत्री, तू विनयवान होकर सुन कि मुनिने पहिले ही कहा था कि यह कन्या चक्रवर्तीकी स्त्रीरत्न होयगी सो यह चक्रवती तेरे वर हैं । यह रनार अनि आसक्त भई तब तापसीन हरिपेणको निकाल दिया क्योंकि उसने विचारी कि कदाचित् इनके संसर्ग होय तो इस च तसे हमारी अाति होयगी । सो चक्रवर्ती इनके आश्रमसे और ठार गए अर तापसीको दीन जान युद्र न किया परंतु चित्तमें वह कन्या वसी रही सो इन जो भोजनमें अर शयनमें किसी प्रकार स्थिरता नहीं । जैसे भ्रामरी विद्यासे कोऊ भ्रने तैसे ये पृथ्वी में प्राण करते भए । ग्राम नगर वन उपवन लताओं के मंडप में इनको कहीं भी चैन नहीं, कमलोंके बन दावानल सम न दीखै कर चंद्रताकी किरण बज्रकी सुई समान दीखै अर केतकी बरछ की अणी समान दीखे, पुष्पोंकी सुगंध मनको न हरै, चित्तमें ऐसा चिंतवते भए जो मैं यह स्त्रीरत्न बरू तो मैं जायकर माता भी शोक संताप दूर करू। नदियोंके तट पर अर वनके ग्राम नगरमें पर्वतपर भगवानके चैन्यालय पर ऊ। यह चिंतवन करते हवे अनेक देश भ्रमो धुनंदन नगरके समीप पाए । कै। हैं हरिषेण ? महा बलवान अति तेजस्वी हैं वहां नगरके बाहिर अनेक स्त्री क्रीडाको आई हुती को एक अं न गरि समान हाथी मद भरता स्त्रियोंके समीप आया । मा.तने हेला मारकर स्त्रियों में कही जो यह हाथी मेरे बरा नहीं. तमघ्र ही भागो। तब वह स्त्रियां हरिषेणके शरणे आई। हरिरोण परमदयालु हैं महायोधा हैं । वह त्रयोंको पीछ करके आप हाथीके सम्मुख भए अर मना बिचारी जो वहां तो वे तापस दीन थे वा उनस मेन युद्ध न किया वे मृग समान थे परंतु यहां यह दुष्ट हस्ती मेरे देखत स्त्री बालादिकको हने अर मैं सहाय न सो पर क्षत्री कृति नहीं, यह हस्ती इन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां पर्व बालादिक दीन जनको पीड़ा देनेको समर्थ हैं जैसे बैल सींगोंसे बंमईको खोदे परंतु पर्वत के खोदनेको समर्थ नहीं, अर कोई बाणसे केलेके वृक्षको छेदे परंतु शिलाको न छेद सके तैसे ही यह हाथी योधाओंको उड़ यवे समर्थ नहीं, तब आप महावत को कठोर वचनसे कही कि हस्ती को यहां से दूर कर, तब महावत ने कही-तू भी बड़ा ढीठ है हाथीको मनुष्य जान है, हाथी आप ही मस्त होय रहा है तेरी मोत आई हे अथवा दुष्ट ग्रह लगा है। तू यहांसे बेग माग, तब आप हंस अर स्त्रियोंको तो पाछे कर दिया अर आप ऊपरको उठल हाथीके दांतों पर पग देय कुम्भस्थलपर चढ़े अर हाथीसे बहुत क्रीड़ा करी । कैसे हैं हररोण ? कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके अर उदार है वक्षस्थल जिनका अर दिग्गजोंके कुम्भस्थल समान हैं कांधे जिनके अर स्तम्भ समान हैं जांघ जिनकी । तब यह वृत्तांत सुन सब नगरके लोग देखनेको आए । राजा महल ऊपर चढ़ा देख रहा था सो आश्चर्यको प्राप्त भया। अपने परिवारक लोग भेज इनको बुलाया। यह हाथीपर चढ़े नगरमें पाए । नगरके नर नारी इसको देख २ मोहित होय रहे, क्षणमात्रमें हार्थीको मर्दन किया। यह अपने रूपसे समरतका मन हरते नगरमें आए । राजाकी सौ कन्या परणी, सर्व लोकमें हरिषेणकी कथा भई राजा से अधिकार सम्मान पाय सर्व बातोंसे सुखी हैं तो भी तपासयोंके बनम जो स्त्री देखी थी उस बिना एक रात्रि वर्ष समान बीते । मनमें चितवते भये जो मुझ बिना वह मृगनकी उन विपन वन मृगी समान परम अाकुलताको प्राप्त होयगी तातें मैं उसके निकट शीघ्र ही जाउं यह विचारते रात्रीविष निद्रा न आती, जो कदाचित् अन्य निद्रा आई तो भी स्वप्नमें उसहीको देखा। कैसी है वह, कमल सारिखे हैं नेत्र जिसके मानों इसके मनहीमें बस रही है। अथानन्तर विद्याधर राजा शक्रवनु उसकी पुत्री जयचन्द्रा उसकी सखी वेगवती वह हरिषेणको रात्रिविष उठायकर आकाशमें ले चली । निंद्राके क्षय होनपर आपको आकाशमें जाता देख कोपकर उससे कहते भये-'हे पापिनो ! हमको कहां ले जाय है । विद्यावलकर पूर्ण है तो भी इनको क्रोधरूपी मुष्टि वांधे होठ डसते देखकर डरकर इनसे कहती भई । हे प्रभु जैसे कोई मनुष्य जिस वृक्षकी शाखापर ५ठा हाय उसहीको काटे तो क्या यह सय.नाना ह ? तैसे मैं तुम्हारी हितकारिणी अर तुम तुझे हतो यह उचित नहीं, मैं तुमका उसक पास ले जाऊ हूँ जो तुम्हारे मिलापकी अभिलाषना है । तब यह मन में विचारत भये कि यह मिथुभाषिणी परपीडाकारिणी नहीं है इसकी आकृति मनोहर दीखे है अर आज मेरी दाहिनी आंख भी फडके है इसलिये यह हमारी प्रियाकी संगमकारिणी है फिर इसको पूछा--'हे भद्रे ! तू अपने प्रावनेका कारण कह ।' तब वह कहै है-'सूर्योदय नगरमें राजा शक्रधनु राणी धी अर पुत्री जयचन्द्रा वह गुण रूपके मदसे महा उन्मत्त है कोई पुरुष उसकी दृष्टि में न आवे । पिता जहां परणाया चाहे तो यह माने नहीं । मैंने जिस जिस राजपुत्रोंके रूप चित्रपटपर लिखे दिखाये उनमें कोई भी उसके चित्तमें न रुचे तब मैंने तुम्हारे रूपका चित्राम दिखापा तब वह मोहित भई अर मुझको Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण ऐसा कहती भई कि मेरा इस नसे संयोग न होय तो मैं मृत्यु प्राप्त होऊगी अ धम नरसे सम्बन्ध न करूंगी तब मैंने उसको धीर्य बन्धाया अर असी प्रतिज्ञा करी-जहां तेरी रुमि है मैं उसे न लाऊ तो अग्निमें प्रवेश करूंगी। अति शोकवंत देख मैंने यह प्रतिज्ञा करी । उसके गुणसे मेरा चिच हरा गया है सो पुग यक प्रभावसे आप मिले, मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण भई ऐसा कह सूर्योदय नगरमें ले गई। राजा शक्रधनो व्योग कड़ा यो राजाने अपनी पुत्रीका इनसे पाणिग्रहण कराया अर वेगवतीका बहुत यश माना । इनका विवाह देख परिजन अर पुरजन हर्षित भये । कैसे हैं ये बर कन्या ? अद्भुत रूपके निधान हैं इनके विवाहकी वार्ता सुन कन्याके मामा के पुत्र गंगाधर महीधर कोधायमान भये जो कन्याने हमको तजकर भूमिगोचरी वरा। यह विचारकर युद्धको उद्यमी भए । तब राजा शक्रनु रिषेणसे कहता जया कि मैं युद्ध में जाऊ. आप नगरमें तिष्ठो । वे दुराचारी विद्य.धर युद्ध करने को आए हैं तब रिपेण समुरसे कहते भये कि जो पराए कार्यको उद्यमी होय वह अपने कार्यको कैसे उद्यम न करे। ताने हे पूज्य ! मोहि आज्ञा करो मैं युद्ध करूंगा। तब ससुग्ने अनेक प्रकार निवारण किया पर पहन रहे । नाना प्रकार हथियारों से पूर्ण ऐसे रथपर चढ़े जिसमें पवनगामी अश्व जुरे अर भूयवार्य सारथी हांके इनके पीछे बड़े बड़े विद्याथर चले । कई हाथियोंपर चढ़े, कई अश्वोपर चढ़े, कई स्थोंपर चदे, परस्पर युद्ध भत। कछुयक शक्रधनुकी फौज हटी तब आप ह सेण युद्ध करनेको उद्यमी भये। सो जिस ओर रथ चलाया उस और घोड़ा हस्ती मनुष्य रथ कौऊ टिकै नहीं। सब घाणोंकर वीधे गए। सब कांपते युद्धसे भागे । महा भाजीत कहते भये 'गंगाधर महीधरने बरा किया जो ऐसे पुरुषोत्तमसे युद्ध किया । यह साक्षात् सूर्य समान है, जैसे सूर्य अपनी किरण पसारे, तैसे यह बाणों की वर्षा करै है।' अपनी फौज इटी देख गंगाधर महीधर भी भाजे, तब इनके गुणमात्र में रत्न भी उत्पन्न भये दशवां चक्रवर्ती महा प्रतापको धरे पृथ्वीपर प्रगट भया। यहापि चक्रवर्तीकी विभूति पाई परन्तु अपनी स्त्री रत्न जो मदनावली उसके परणवेकी इच्छासे द्वादश योजन परिमाण कटक साथ ले राजाओंको निवारते तपस्वियोंके बनके समीप आए । तपस्वी वनफल लेकर आये मिले पहिले इनका निरादर किया हुता इससे शंकावान थे सो इनको अति विवेकी पुण्याधिकारी देख हर्षित भये । शतमन्युका पुत्र जो जनमेजय अर मदनावली की माता नागमती उन्होंने मदनावलीको चक्रवर्तीको विधिपूर्वक परणाई तब आप चक्रवर्ती विभूतिसहित कम्पिल्या नगरमें आए बत्तीस हजार मुकु-बंध राजाोंने संग आकर माताके चरणारविंदकों हाथ जोड़ नमस्कार किया, माता वा ऐसे पुत्रको देख ऐसी हर्षित भई जो गातमें न समावे, हर्षके अश्र पावकर व्याप्त भये हैं लो .न जिसके तब चक्रवर्तीने जब अष्टानिका आई तो भगवानका रथ सूर्यसे भी महा मनोज्ञ काढा, अष्टानिकाकी यात्रा करी । मुनि श्रावकोंको परम आनन्द भया बहत जीव जिन धमो अंगीकार करते भये । सो यह कथा सुमालीने रावणसों कही। हे एन ! उस चक्रवतीने भगवानके मंदिर पृथ्वी पर सर्वत्र पुर ग्रामादिमें तथा पर्व पर या नदियो के वटपर अनेक चैत्यालय रत्नभई स्वर्णमयो कराए । वे महापुरुष बात काल चक्रवर्ती संपदा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां प ११ भोग मुनि होय महा तपकर लोक शिखर सिधारे यह हरिषेणका चरित्र रावण सुनकर हर्षित भया । सुमालीकी बारम्बार स्तुति करी श्रर जिन मन्दिरोंका दर्शनकर रावण डेरेमें आया, डेरा सम्मेद शिखर के समीप भया । अथानन्तर रावणको दिग्विजयमें उद्यमी देख मानो सूर्य भी मयसे दृष्टिगोचर श्रस्त भया, संध्याकी ललई समस्त भूमण्डलमें व्याप्त भई मानों रावण के अनुरागसे जगत हर्षित भया फिर संध्या मिटकर रात्रिका अन्धकार फैला मानों अन्धकार प्रकाश के भय से दशमुखके शरण श्राया बहुरि रात्रि व्यतीत भई पर प्रभातकी क्रियाकर सिंहासनपर विराजे अकस्मात् एक ध्वनी सुनी मानी वर्षाकालका मेघ ही गाजा जिससे सकल सेवा भयभीत भई, कटकके हाथी जिन वृक्षोंसे बंधे थे उनको भंग करते भए, कनरे ऊंचेकर तुरंग हींसते भए, तब रावण बोले'यह क्या है ? यह मरणेको हमारे ऊपर कौन आया ? यह वैश्रवणा आया अथवा इंद्रका प्रे सौम या अथवा हम हो निश्चल तिष्ठे देख कोई और शत्रु श्राया ।' तब रावणकी आज्ञा पाय प्रहस्त सेनापति उस ओर देखनेको गया र पर्वतके आकार मदोन्मत्त अनेक लीला करता हाथी देखा । तब आयकर रावणसे विनती करी कि हे ! सेव की घटा समान हाथी है इसको इन्द्र भी पकड़नेको समर्थन भया । तत्र रावण हंसकर बोले – हे प्रहस्त ! अपनी प्रशंसा करणी योग्य नहीं, मैं इस हाथीको एक क्षणमात्र में वश करूंगा । यह कहकर पुष्पक विमानमें बढ़कर हाथी देखा, भले मजे लक्षणोंसे मंडित इन्द्रनीलमणी समान सुन्दर जिनका शरीर है, कमल सज्ञान आरक्त पा है, अर महा मनोहर उज्जल दागाल दांन हैं नत्र कछु इक पीत हैं, पीठ सुन्दर है, अगला अंग उतंग है, अर लम्भी पूत्र है, अर बड़ी सूंड है, अत्यन्त स्निग्ध सुन्दरनख हैं, गोल कठोर महा सुन्दर कुम्भस्थल हैं, प्रबल चरण हैं माधुर्यताकोलिए महावीर गम्भीर है गजेना जिसकी, पर करते हुवे मदकी सुगन्धतासे गुंजार करे हैं भ्रमर जापर दुदुम्भी बाजों की ध्वनि समान गम्भीर हैं नाद जात्रा पर ताड वृक्षके पत्र समान कर्ण उनको हलावता मन र नेत्रोंको हारी सुन्दर लीलाको करता, रावणने देखा । देखकर बहुत प्रसन्न मया । हर्ष कर रोमांच होय आए । तब पुष्पक नामा विमानसे उतर गाठी कमर बांधकर उसके आगे जाय शंख पूरा जिसके शब्दसे दशदिशा शब्द रूप भई ! तव शंखका शब्द सुन चित्तमें क्षोभकों पाय हाथी गरजा अर दशमुख के सम्मुख आया । बलकर गर्वित रावणने अपने उचरासनका गेंद बनाय शीघ्र ही हाथीकी ओर फेंका | रावण गजकेलिमें प्रवीण है सो हाथी तो गेंद बनेको लगा अर राव ने झटसे उछल कर अंगों की ध्वनिसे शोभित गजके कुम्भस्थलपर हस्ततल मारा, हाथी सूंडसे पकड़नेका उद्यम करने लगा । तब रावण अति शीघ्रता कर दोऊ दाँत के बीच होय निकस गए, हाथीसे अनेक क्रीडा करी, दशमुख हाथीकी पीठार चढ़ बैठे, हाथी विनयान शिष्यकी न्याई खड़ा होय रहा, तब आकाराने रावण र पुष्पोंकी वर्षा भई र देवोंने जयजयकार शब्द किये। अर रावण की सेना बहुत हर्षित नई, रावणने हाथीका. 2 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन-पुराण त्रैलोक्य मंडन नाम धरा, इसको पाय रावण बहुत हर्षित भया । रावणने हाथीके लाभका बहुत उत्सव किया अर सम्मेद शिखर पर्वतपर जाय यात्रा करी। विद्याधरोंने नृत्य किया । वह रात्रि वहां ही रहे । प्रभात हुवा, सूर्य उगा, सो मानों दिवसने मंगलका कलश रावणको दिखाया । कैसा है दिवस ? सेवाकी विधिमें प्रवीण है । तब रावण डेरामें आय सिंहासनपर विराजे । हाथीकी कथा सभामें कहते भये। ता समय एक विद्याधर आकाशके मार्ग रावण के निकट श्राया, अत्यन्त कम्पायमान जिसके पसेवकी बूंद झरे हैं, घायल हुआ बहुत खेदखिन्न अश्रुपात डारता, जर्जरा तनु जाका, हाथ जोड़ नमस्कार कर विनती करता भया । हे देव ! आज दशवां दिन है राजा सूर्यरज अर रक्षरज वानरवंशी विद्याधर तुम्हारे बलसेही है बल जिनमें सो आपका प्रताप जान अपनी किहकू नगरी लेनेके अर्थ अलंकारोदय नगर जो पाताललंका वहांसे उत्साहसे निकसे। दोनों भाई तुम्हारे चलसे महा अभिमान युक्त जगाको तृण समान माने हैं सो उन्होंने किहकूपुर जाय घेरा । वहां इन्द्रका यम नामः दिग्पाल सो उमके योधा युद्ध करनेको निकसे हाथ में हैं आयुध जिनके, बानरवंशियोंके अर यमके लाकोंमें महायुद्ध भया । परम्परा बहुत लोक मारे गए, तब युद्धका कलकलाट सुन यम आप निकसा, कैसा है यम ! महा क्रोधकर अतिभयंकर, न सहा जाय है तेज जाका, सो यमके आवते ही वानरवंशियोंका बल भागा । अनेक आयुथोंसे घायल भए। यह कथा कहता कहता वह विद्याधर मूर्छाको प्राप्त हो गया । तब रावणने शीतोपचारकर सावधान किया अर पूछा-'आगे क्या भया ? तब वह विश्राम पाय हाथ जोड़ फिर कहता भया-'हे नाथ! सूर्यरजका छोटा भाई रक्षरज अपने दलको व्याकुल देख आप युद्ध करने लगे । सो यम के साथ बहुत देरतक युद्ध किया। या अतिवली जपने रक्षरजको पकड़ लिया तव सूर्यरज युद्ध करने लगे। सो यमके साथ बहुत देरतक युद्ध किया। यम अतिबली उसने रचरजको पकड लिया तब र्यरज युद्ध करने लगे, वहुन युद्ध भया यमने आयुधका प्रहार किया सो राजा घायल होय मूर्छित भए तब अपने पक्षके सामंतोंने राजाको उठाय मेघला वनमें ले जाय शीतोपचार कर सावधान किये । यम महापापीने अपना यपना सत्य करता संता एक बंदी गृह बनाया है उसका नरक नाम धरा है, तहां वैतरनी आदि सर्व विधि बनाई हैं जो जो उसने जीते अर पकड़े वे सर्व उस नरकमें बंद किए हैं ,सो उस नरक कवक मर गए, कैयक दुख भोगे हैं , तहां उस नरकमें सूर्यरज अर रक्षरज ये भी दोनों भाई हैं । यह वृत्तांत मैं देखकर बहुत व्याकुल होय आपके निकट आया हूं। आप उनके रक्षक हो अर जीवनमूल हो । उनके आप ही विश्राम हैं अर मेरा नाम शाखाक्ली है , मेरा पिता र दक्ष , माता सुश्रोणी, मैं रक्षरजका प्यारा चाकर , सो आपको यह वृत्तान्त कहनेको आया हूं मैं तो आपको जताया देय निश्चिन्त भया अपने पक्षको दुःख अवस्थामें जान आपको जो कर्तव्य होय सो करो। तब रावणने उसे दिलासा दिया अर उसके घाव का यत्न कराया अब तत्काल सूर्यरज रक्षरजके छुडावनेको महाक्रोधकर यमपर चले अर मुसकराय कर कहते भये-कदा यम Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवा पव रंक हमसे युद्ध कर सकै, जो मनुष्य उसने वैतरणी आदि क्लेशके सागरने डार राखे हैं, मैं आज ही उनको छुड़ाऊंगा अर उस पापीने नरक बना राखा है उसे विध्वंस करूंगा। देखो दुर्जनकी दुष्टता ! जीवो को ऐसे संताप दे है । यह विचार कर आप ही चले । प्रहस्त सेन पनि आदि अनेक राजा बड़ी सेनासे आगे दौड़े । नाना प्रकारके बाहनोंपर चढ़े शस्त्रोंके तेजसे अाकाशमें उद्योत करते अनेक बादित्रों के नाद होते महा उत्साहसे चने, विद्याधरोंके अधिपति किहकूपुरके समीप गए। सों दूरसे नगर क घरों की शोभा देख कर आश्चर्यको प्राप्त भए, किहकू पुरकी दक्षिण दिशामें यम विद्याधरका बनाया हुवा नरक देखा जहां एक ऊंचा खाडा खोदं राखा है अर नरककी नकल बनाय राखो है। अनेक नरोंके समूह नरकमें राखे हैं। तब रावणने उस नरकके रखवारे जे यमके फिकर हुने कूटकर काढ दिये अर सर्व प्राणी सूरज रक्षरज अदि दुःख सागरसे निकासे । कैसे हैं रावण ? दैनन बंधु दुष्टों को दंड देनहारे हैं। वह सर्व नरक स्थान ही दूर किया । यह वृत्तांत पर चक्र के प्रावनेका सुन यम बड़े आडंबरसे सर्व सेना सहित युद्ध करनेको अाया। मानो समुद्र ही क्षोभको प्राप्त भया । पर्वत सारिखे अनेक गन मदधारा भरते भयानक शब्द करते, अनेक आभूषणयुक्त, उनपर महा योधा चढ़े अर तुरंग पवन सारिखे चंचल जिन की पूछ चमर समान हालती अनक आभूषण पहिरे, उनकी पीठ पर महाबाह सुभट चढ़े पर सूर्यके रथ समान अनेक वजा घोंकी पंक्ति शाभारमन, जिनमें बड़े बड़े सामंत वगतर पहर, शस्त्रोके समूह धारेवडे, इन्यादि महा सेना सहित यन अाया। तब विभीषणने यमकी सर्व सेना अपने बाणोंसे हटाई। केसे हैं विभीषण ! रणविर्षे प्रवीण रथ पर आरूढ हैं। विभीपणके बाणोंसे यम किर पुकारते हुये भागे । यम किरोंके भागने अर नारकियोंके छुडानेसे महा कर होकर विभोप पर रथ चहा थनुष को धारे आया। ऊंची है ध्वाजा जाकी, काले सर्प समान कुटिल केश जाके, भ्राटी चढाए लाल हैं नेत्र जाके, जगत रूप ईधनके भस्म करणको अग्नि समान आप तुल्य जो बड़े २ सामंत उन कर मंडित युद्ध करणेको अपने तेजसे श्राकाशमें उद्योत करता हुवा अाया। तब रावण यमको देख विभीपणको निवार थाप रण संग्राम उद्यमी भए। यमके प्रतापसे सर्व राक्षस सेना भयभीत होय रावणके पीछे प्राय गई । कैसा है यम ? अनेक आडम्बर धारे है, भयानक है मुख जाका, रावण भी रथ पर आरूढ होकर यमके सन्मुख भए। अपने बाणों के समूह यम पर चलाये। इन दोनों के बाणोंसे आकाश आच्छ दित भया, कैसे हैं बाण ? भयानक है शब्द जिनका, जैसे मेवोंके समूहसे आकाश व्याप्त होय, तैसें बाणोंसे आच्छादित हो गया। रावण ने यमके सारथीको प्रहार किया सो सारथी भूमिमें पड़ा पर एक पाणं यमको लगाया सो यम भी रथसे गिर पड़ा। तब यम रावणको महाबलवान देख अक्षिण दिशाका दिग्पालपणा छोड़ भागा। सारे कुटुम्बको लेकर परिजन पुरजन सहित रथनूपुरमें गया। इंद्रसे नमस्कार कर बानती करतो भया । "हे देव! आप कृपा करो, अथवा कोप करो, आजीवका राखो तथा हरो। तुम्हारी जो मांछा होय सो करो। यह यमपणा मुझसे न होय मालीक भाई सुमालीका पोता दशान महा यांधा, जिसने Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिले तो वैश्रवण जीता वह तो मुनि हो गया अर मुझे भी उसने जीता सो मैं भागकर तुम्हारे निकट आया हूं। उसका शरीर वीर रससे बना है। वह महात्मा है, वह ज्येष्ठ मध्यान्हका सूर्य समान कभी न देखा जाय है।" यह वार्ता सुनकर रथनपुरका राजा इन्द्र संग्रामको उद्यमी भया तब मंत्रियोंके समूहने मने कीया । कैसे हैं मंत्री ? वस्तुका ग्थार्थ स्वरूप जाननेहारे हैं। तब इन्द्र समझ कर बैठ रहा । इंद्र यमका जमाई ई उपने यमको दिलासा दिया कि तुम बड़े योधा हो, तुम्हारे योधापनमें कमी नहीं। परंतु रावण। प्रचंड पराक्रमी है यातें तुम चिंता न करो । यहां ही सुख से तिष्ठो ऐसा कह पर इसका बहुत सन्मान कर राजा इन्द्र राजलोकमें गए अर काम भोगके समुद्र में मग्न भए। कैसा है इन्द्र ? बड़ा है विभूतिका मद जाके रावणके चरित्रके जो २ वृत्तान्त यमने कहे हुते वैश्रवणाका वैराग्य लेना, अर अपना भागना वह इन्द्रको ऐश्वर्यके मदमें भूल गये जैसे अभ्यास विना विद्या भूल जाय अर मम मी इन्द्रका सस्कार पाय अर असुर संगीत नगर का राज पाय मान भंगका दुःख भूल गया । मनमें किनारने लगा कि मेरी पुती महारूपवन्त्री सो तो इन्द्रके प्रागों से भी प्यारी है अर मे अर इन्द्रका बड़ा सम्बन्ध है सा मेरे क्या कमी है ? अथानन्तर रावणने किहकंधपुर तो सूरजको दिया अर किहकुपु. रखरजको दीया । दोनों को सदाके हितु जान बहुत अदर किया। रावणके प्रसादसे बनम्वंशी सुखते तिष्ठे। रावण सब राजामा राजा महालक्ष्मी अर कीनिकों परै दिग्विजय करे। बड़े २ राजा दिनप्रति माय २ मिले सो रवगका कटकर समुद्र अनेक राजावोंकी सेनारूती नदीसे पूरित होता मया अर दिन २ विभव अधिक होता भया जैसे शुक्लपक्षका चन्द्रभा दिन २ कलाकर बढता जाय तैसे रावण दिन २ बढ़ता जाय । पुष्पक नामा विमान पर आरूढ होय त्रिकूटाचलके शिखर पर प्राय तिष्ठा । कैसा है विमान ? रत्नों की मालासे मण्डित है अर ऊंचे शिखरोंकी पंक्तिसे विराजे है मो शीघ्र जहां चाहै व जाग ऐसे विमानका स्वामी रावण महा थीर्यता कर मण्डित पुरको फलका है उदय ज'के । भूपणकर मण्डिन परम हर्षको प्राप्त भये । सव रावस रावणको ऐसे मंगल वचन गम्भीर शब्द कहते भये "हे देव ! तुम जयवन्त होवो, आनन्दको प्राप्त होओ, चिरकाल जीवो, वृद्धिको प्राप्त होतो, उपयोंको प्राप्त होवो" निरन्तर ऐसे मंगल वचर गम्भीर शब्द कर कहते भये । कई एक सिंह शारदूलों पर चढे, कई एक हाथी घोड़ों पर चढ़े, कई एक हंसों पर चढे, प्रमोदकर फूल रहे हैं नेत्र जिनके, देवों का आकार धरै, जिनका तेज आकाश विष फैल रहा है वन पर्वत अन्तरद्वीपके विद्याधर राक्षस आए समुद्र को देखकर विस्मयको प्राप्त भए । कैसा है समुद्र ? नहीं दीखे है पार जिसका, अति गम्भीर है महामत्स्यादि जलचरों कर भरा है, तमाल बन समान श्याम है पर्वत समान ऊंची २ उठे हैं लहरके समूह जिस विषे, पाताल समान ओंडा, अनेक नाग नागनिकरि भयानक नाना प्रकारके रत्नोंके समूह कर शोभायमान नाना प्रकारकी अद्भुत चेष्टाको धारै। ___ अर लंकापुरी अति सुन्दर हुती ही अर रावणके आनेसे अधिक समारी गई है। प्रति देदीप्यमान रत्नोंका कोट है, गम्भीर खाई से मण्डित है, कुंदके पुष्प समान अति उज्ज्वल Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाठवां पर्व स्फटिक मणिके महल हैं। जिनमें इन्द्र नीलमणियोंकी जोली शोभे हैं पर कहूं इक पद्मराग मणियोंके अरुण महिल हैं, इत्यादि अनेक मणियोंके मन्दिरोंसे लंका स्वर्गपुरी समान है। नगरी तो सदा ही रमणीक है परन्तु धनीके आने से अधिक बनी है रावणने अतिहर्षसे लंकामें प्रवेश किया। कैसा रावण १ जाकों काहूकी शंका नहीं, पहाड़ समान हाथी निनकी अधिक शोभा बनी है अर मन्दिर समान रत्नमई रथ बहुत समारे गए हैं, अश्वोंके समूह हींसते चलायमान चमर समान हैं पूछ जिनकी अर विमान अनेक प्रभाको धरें इत्यादि महा विभूति से रावण अया। चन्द्रमाके समान उज्वल मिरपर छत्र फिरते अनेक ध्वजा पताका फहराती बंदीजनके समूह विरद बखानते महामंगल शब्द होते बीण बांसुरी शंख इत्यादि अनेक वादित्र वाजते दशदिशा अर आकाश शब्दायमान हो रहा है इस विधि लंकामें पधारे । तब लंकाके लोग अपने स्वामीका आगमन देख दर्शनके लालसी हाथमें अर्थ लीए पत्र फल पुष्प रत्न लीए अनेक गुन्दर वस्त्र आभूषण पहरे राग रंग सहित रावणके समीप पाए, वृद्धोधो आगे कर तिनके पीछे जाय नमस्कार कर कहते भए 'हे नाथ ! लंक के लोग अजितनाथके समयय आपके शुभ चिन्तक हैं सो स्वामीको अति प्रबल देख अति प्रसन्न भए हैं भांति भांतिकी प्रासीस दीनी तब रावणने बहुत दिलासा देकर सीख दीनी तब रावणके गुण गावते अपने २ घर को गये ॥ __ अथानन्तर रावणके महलमें कौतुझयुक्त नगरकी नानारी अनेक आभूषण पहिरै रावण के देखने की इच्छासे सर्व घरके कार्य छोड़ २ पृथ्वीनाथके देखनेको आई । रावण वैश्रवणके जीतनेहारे तथा यम विद्य-धरके जीतनहारे अपने महल में राजलोकसहित सुखमों तिष्ठे, कैगा है महल ? चूड़ामणि समान मनोहर है और भी विद्याधरोंके अधिपति यथायोग्य स्थानकविर्ष आनन्दसे तिष्ठे देवन समान हैं चरित्र जिनके। अथानन्तर गोतम स्वामी राजा श्रेणिक कहै हैं-श्रेणिक ! जो उज्ज्वल कर्मके करण हारे हैं तिनका निर्मल यश पृथ्वीविष होय है, नाना प्रकारके रत्नादिक सम्पदाका समागम होय है अर प्रबल शत्रुओंका निर्मूल होय है । सकल त्रैलोकवि गुगा बिस्तरै हैं, या जीवके प्रचण्ड बैरी पांच इंद्रियोंके विषय हैं, जो जीवकी बुद्धि हरें है, अर पापोका बन्ध करें हैं। यह इंद्रियोंके विषय धर्मके प्रसादसे वशीभूत होय हैं अर राजाओं के बाहिरले बैरी प्रजाके बाधक ते भी आय पावोंविषे पड़े हैं ऐसा मानकर जो धर्मके विरोधी विषवरूप वैरी हैं वे यिमियोंको वश करने योग्य हैं। तिनका सेवन सर्वथा न करना । जैस सूर्यकी किरणोंसे उद्यंत होते हुवे भली दृष्टिवाले पुरुष अन्धकारसे न्याप्त ओंडे खड़ेविषे नहीं पड़े है तैसे जे भावान. म.र्गविष प्रव” हैं तिनके पापबुद्धि की प्रवृत्ति नहीं होय है। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वनिफाविषै दशग्रीव का निरूपण करनेवाला आठवां पर्व पूर्ण भया॥८॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण अथानन्तर किहकन्धपुरमें राजा सूर्यरज वानरवंशी तिनकी रणा चन्द्र लिनी अनेक गुणोंमें पूर्ण ताकै बाली नामा पुत्र भए । कैसे हैं काली ? सदा उपकारी शीलवान पंडित प्रवीण थीर लक्ष्मीवान शूरवीर ज्ञानी अनेक कला संयुक्त सम्पक दृष्टि महाबली राजनातिविष प्रवीण धीर्यवान दयाकर भीगा है चित्त जिनका, विद्याके समूह कर मण्डित कांतिवंत तेजवत हैं। ऐसे पुरुप संसारमें विरले ही हैं वह समस्त अढाई द्वीपोंके जिनन्दिरोंके दर्शन में उद्यमी है। जिनमंदिर अति उत्कृष्ट प्रभासे मंडित हैं बाली तीनों काल अति श्रेष्ठ भक्तियुक्त संशयरहित श्रद्धावंत जम्बूद्वीपके सर्व चैत्यालयोंके दर्शन कर आवै महा पराक्रमी शत्रुपक्षका जीतनेहारा नगर के लोगोंक नेत्ररूपी कुमुदके प्रफुल्लित करनेको चंद्रमा समान जिसको किसोकी शंका नहीं, किहकंथपुरमें देवोंकी न्याई रमै ! हिकंधपुर महारमणीक नाना प्रकारके रत्नमयी मंदिरोंसे मंडित गज तुरंग रथादिसे पूर्ण जहां नाना प्रकारका व्यापार है अर अनेक सुन्दर हाटोंकी पंक्तियोंसे युक्त है जहां जैप स्वर्गविष इन्द्र रमै तैसे रमै है । अनुक्रमसे जिसके छोटा भाई सुग्रीव भया वह भी महा धार वीर मनोज्ञ रूप कर युक्त महा नीतिमान विनयवान है । ये दोनों ही वीर कुलके आभूषण होते भए । जिनका प्राभूपण बड़ोंका विनय है। सुग्रीवके पीछे श्रीप्रभा बहिन भई जो साक्षात् लक्ष्मी, रूपमें अतुल्य है पर रिहकंधपुरमें सूर्यरजका छोटा भाई रक्षरज उसकी राणी हरिकांता उके पुत्र नल अर नील होते भए सुजनोंको आनंदके उपजानेहारे महासामंत रिपुकी शंकारसित मानों कि कंध पुरके मंडन ही हैं । इन दोनों भाइयोंके दो दो पुत्र महागुणवंत भए । राजा सूर्यरज आने पुत्रोंको यौवनवन देख मर्यादाके पालनहारे जान श्राप विषयोंको विष मिश्रित अन्न समान जान संसार विरक्त भए । राजा सूरज महाज्ञानवान हैं वालीको पृथ्वीके पालने निमित्त राज दिया अर सुग्रीव को युवराजपद दिया अपने स्वजन परजन समान जाने पर यह चतुरगतिरूप जगत महा दुःखकर पीडित देख विहतमोह नामा मुनिके शिष्य भए जैसा भगवानने भाषा तैसा चास्त्रि धारा । मुनि सूरजको शरीरसे ममत्व नहीं है आकाश सारिखा निर्मल अंतःकरण है समस्त पग्रिरहित पवनको नाई पृथ्वीविष विहार करते भए । विषय कपायरहित मुक्ति के अभिलाषी भए। __ कथानन्तर बालीके ध्रु वा नामा स्त्री मा पतिव्रता गुणोंके उदयसे सैकड़ों राणियोंमें मुख्य उस सहित ऐश्वर्यको धर राजा बाली बानरवंशियोंके मुकुट विद्याधरोंके अधिपति सुन्दर चरित्रवान देवोंके ऐसे सुख भोगते हुए किहकंवपुरमें राज करें। रावण की बदिन चन्द्रनखा जिसके सर्वे गात मनोहर राजा मेघभका पुत्र खरदूषणने जिस दिनसे इसको देखा उस दिनसे कामवाणकर पीडिा भया याको हरा चाहै। सोएकदिन रावण राजा प्रदर राणी पावली उनकी पुत्री तनूदरी उसके अर्थ एक दिन रावण गए सो खरदूषणने लंका रावण विना खाली देख चिन्तारहित होप चन्द्रनखा हरी । कैसा है खरदषण ? अनेक विद्याका धारक मायाचार में प्रवीण है बुद्धि जाकी, दोनों भाई कुम्भकरण अर विभीषण बड़े शरीर हैं परन्तु छिद्र पाकर मायाचारसे यह कन्याको हर ले गया तब वे क्या करें Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां पर्व तापछि सना दोडन लगी तब कुम्भकर्ण विभीपणने यह विचारकर मनै करी कि खरदूषण पकड़ा नहीं जायगा अर मारणा योग्य नहीं । बहुरि रावण आए तब यह वार्ता सुनकर अति क्रोध किया यानि मार्गके खेदसे शरीरपर पसेब आया हुता तथापि तत्काल सरदूषण पर जाने को उद्यमी भए । कैगा है रावण ? महामानी है, एक खड्गहीका सहाय लिया अर सेना भी लार न लीली । यह विचारा कि जो महावीर्यवान पर क्रमी हे तिनके एक खड्गहीका सहारा है। तब मन्दोदरीने हाथ जोड़ निकर -'हे प्रभु ! आप प्रकट लौकिक स्थितिके ज्ञाता हो, अपने घरी इन्धा और को देनी अर औरांकी आप लेनी इन कन्याओं की उत्पत्ति ऐसी ही है खरदूषण चौदह हजार विद्याधरोंका स्वामी है, जो द्यावर कभी सुने पीछे न हटें, बड़े वलवान हैं कर इस खरदूषनको अनेक सहस्रविद्या सिद्ध हैं मनागवंत हे अप समान शूरवीर है यह वार्ता लोकोंसे क्या आपने नहीं सुनी है, आप पर उसके भयानक युद्ध प्रवरते तब भी हार जीतका सन्देह ही है और वह कन्या हर लेगया है तब हरणेो कारण बह कन्या दक्षित भई है मोरकू जो न देने पावे, सो खरदूषणके मारनेसे वह विधवा होय हे अर सूर्यरजको मुक्त गए पीछे चन्द्रोदर विद्याधर पाताल लंका में थाने हुदा उसे काट कर यह खरदूषण तुम्हारी बहिन सहित पाताललंका में तिष्ठे है तुम्हारा सम्न्वी है।' तर रावण बोले हे प्रिये मैं युद्धसे कभी नही डरू परन्तु तुम्हारे वचन नहीं उलंघने अर बहिन विधया नहीं करणी सो हमने क्षमा करी तब मंदोदरी प्रसन्न भई। अथानन्तर कर्मके नियोगसे चन्द्रोदर विद्याधर काला प्राप्त भया तब ताकी स्त्री अनुराधा गर्मिणी विचारी भयानक बनने हिरणीकी नाई भ्रमै सो मणिकांत पर्वतपर सुन्दर पुत्र जना । शिला ऊपर पुत्रका जन्म भया, शिला कोमल पला अर पुष्पोंके समूहसे संयुक्त है, अनुक्रमसे बालक वृद्धिको प्राप्त भया । यह वनवामिनी भाता उदासाचा पुत्र को पालै जब यह पुत्र गर्भ में आया तब हीसे इनके माता पिताको वैरियोंस विराधना उपजी तार्ते इसका नाम विराधित धरा । यह विराधित राजसम्पदावर्जित जहां २ राजाओंके पास जाय वहां वहां इसका आदर न होय सो जैसे सिरका केश स्थानकसे छूटा आदर न पावै तैसे जो निज स्थानसे रहित होय उसका सन्मान कहांत होय सो यह राजाका पुत्र खरदूषणको जीतिचे समर्थ नहीं सो चित्तविष खरदूषणका उपाय चिंतवता हुआ सावधान रहै अर अनेक देशों में भ्रमण करै, पट् कुलाचलपर अर सुमेरु पर्वतपर तथा रमणीक बनोंमें जो अतिशय स्थानक हैं जहां देवोंका आगमन है तहां यह विहार करै अर संग्रानमें योद्धा लड़े तिनके चरित्र आकाशमें देशों के साथ देखै, संग्राम गज अश्व स्थादिक कर पूर्ण है अर ध्वजा छत्रादिककर शोभित है या भांति विराधित काल क्षेप करै अर लंकाविषे रावर इंद्रकी नाई सुखसे तिष्ठे। ___ अथानन्तर सूर्यरजका पुत्र बाली रावणकी आज्ञासे विमुख भया । कैसा है बाली ? अद्भुत कमांकी करणहारी विद्यासे मण्डित है अर महाबली है तब रावणने बालीपै दूत भेजा । सो महा ₹5 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पत्र-पुराण बुद्धिमान दूत किहकंवपुरमें जायर बालीसे कहता भया-'हे बानराधीश ! दशमुखने तुमकू आज्ञा करी है सो सुनो। कैगे है दशमुख ? महाबली महा तेजस्वी महालक्ष्मीवान मा नीतिवान महा सेनायुक्त प्रचण्डनको दण्ड देने ारा महा उदयवान है जिन समान भरतक्षेत्र में दूजा नहीं, पृथ्वीके देव अर शत्रुवोंका मान मर्दन करनेहारा है यह अाज्ञा करी है जो तुम्हारे पिता सूर्यरजको मैंने राजा यम वैरीको काढ़कर किहकंधपुर थापा अर तुम सदाके हमारे मित्र हो परन्तु श्राप अब उपकार भूलकर हमसो पर उ भुख हो गये हो, यह योग्य नहीं है, मैं तुम्हारे पितासे भी अधिक प्रीति तुमसे करूंगा, अतुम शीघ्र ही हमारे निकट श्रावो, प्रणाम करो पर अपनी श्रीप्रभा हमको परणावो, हमारे संबंधले रुमको सर्व सुख होयगा। दूनने कही-यह रावणको श्राज्ञा प्रमाण करो। सो बालीके मनमें और बात तो आई परन्तु एक प्रणाम की न आई, फाहेरौं ? जो याकै देव गुरु शास्त्र बिना औरको नमस्कार नहीं करें यह प्रतिज्ञा है । तब दूतने फिर कही हे कपिध्वज ! अधिक कहनसे कहा ? मेरे वचन तुम निश्चय करो हालक्ष्मी पाकर गर्व मत करो, या तो दोनों हाथ जड़ सणाम करो या आयुध पकड़ो। या तो सेक्क होयकर स्वामीपर चंर ढोरो या भागकर दशों दिशामें विचरो या सिर नपायो या बैंनिक वनुष निवावों या रावणकी प्राज्ञ को कर्णका आभूपण करो या धनुषका पिणच बँचकर कानोंतक लावो, या तो मेरे चरणारविंदकी रज माथे चढ़ायो या रण संग्राम सिरपर टोप धरो, या तो बाण छोड़ो या धरती छोड़ो, या तो हाथ में वेत्र दर ड लेकर सेवा करो या बरछी हाथमें पकड़ो, या तो अंजली जोड़ो या सेना जोड़ो । या तो मर चरणोंके नखमें मुख देखो या खडगप दर्पणमें मुख देखो। ये कठोर वचन गरणके दूने लोसे कहे । तब बालीका गाघ्रविलंबी नामा सुभट कहता भया-रे कुदूत ; नाच पुस, तू ऐसे अश्विकके वचन कहै है सो तू खोटे ग्रहकर ग्रहा है समस्त पृथ्वीपर प्रसिद्ध है पराक्रम कर गुण जिसका, ऐसा बाली देव तूने अतक कर्णगोचर नहीं किया। ऐसा कहकर सुभटने महा क्रोधायमान होकर दूाके मारणेकू खडाार हाथ धरा तब बालीने मने किया जो इस रंकक मार से कहा ? यह तो अपने नाथके कहे प्रमाण वचन बोले है अर रावण ऐसे पचन कहावै है सो उसी की आयु अल्प है तब दूत डकर शिताव रावणपै गया रावणको सकल वृतांत कहा रावण महाक्रोधको प्राप्त भया दुस्सह तेजवान रावणने बड़ी सेनाकर मण्डिा वखतर पहन शोघ्र ही कूच किया । रावणका शरीर तेजोमय परमाणुवोंसे रचा गया है रावण किहकंधपुर पहुंचे। बालीने परदलका महा भयानक शब्द सुनकर युद्धके अर्थ बाहिर निकसनका उद्यम किया तब महा बुद्धिमान नीतिवान जे सागर वृद्धादिक मंत्री उन्होंने वचनरूपी जलसे शांत किया कि हे देव ; निमारण युद्ध करनेसे कहा ? क्षमा करो शागे अनेक योथा मान करके क्षय भए, र ा था प्रिय जिनो । प्रष्ट चन्द्र विद्यापर अर्ककीर्तिके भुजके आधार जिनके देव सहाई तो भी मेघेश्वर जयकुमार के बाहर क्षय भए रावसाकी बड़ी सेना है जिसकी अंर कोई देख सकै नहीं, खड्ग गदा संल बाण इत्यादि अनेक प्रायोंकर भरी है अतुल्य है । तातें आप संदेहकी तुला जो संग्राम उसके अर्थ न चढ़ो । तब Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा पर्व बालीने कही अहो-मी हो अपनी प्रशंसा करनी योग्य नहीं तथ पि मैं तुमको यथार्थ कहूहूं कि इस रावण सेना सहित एक क्षणमात्र बायें हाथ की हथेलीसे चूर डाग्नेको समर्थ हूं परन्तु यह भोग क्षणनिश्वर हैं इनके अर्थ ऐसा निर्दय कर्म कौन करै जब क्रोधरूपी अग्निसे मन प्रज्वलित होय तब निर्दय कर्म होय है । यह जगतके भोग केलेके थं न समान असार हैं जिनको पाकर मोहवन्त जीव नरकमें पड़े हैं। नरक महा दुःखोंसे भरा है, सर्व जीवोंको जीतव्य वल्लभ है सो जीवोंके समूहको इतकर इन्द्रयोंके भोग सुख पाइए है ऐसे भीगोंमें गुण कहां । इन्द्रिय सुख दुःख ही है ये प्राणी संसाररूपी महाकूषमें अरहटकी घड़ीके यंत्र समान रीती भरी करते रहते हैं । यह जीव विकल्प जालसे अत्यन्त दुःखी हैं श्री जिनेंद्र देवके चरण युगल संसारसे तारणेंके कारण हैं उनको नमस्कारकर और कैसे नरसार करूं? मैंने पहिले ऐसी प्रतिज्ञा करी है कि देव गुरु शास्त्रके सिवाए और को प्रणाम न करू नाते मैं अपनी प्रतिज्ञा भंग भी न करू अर युद्धविर्षे अनेक प्राणियोंका प्रलय भी न करू बल्कि मुक्ति की देनहारी सर्व संगरहित दिगम्बरी दीक्षा थरू, मेरे जो हाथ श्रीजिनराजकी पूजा प्रवरा, दानविष प्रवरतें अर पृथ्वीकी रक्षाविषै प्रवरतें घे मेरे हाथ कैसे किसीको प्रणाम करें अर जो हम्त कमल जोड़ा पाया किकर होवे उसका कहा ऐश्वर्य ? भर कहा जीतव्य १ वह तो दीन है असा कहकर सुग्रीवको बलाय आज्ञा करते भये कि-'हे बालक! सुनो, तुम रावणको नमस्कार करो न करो अपनी बहिन उसे देवो अथवा मत देवो मेरे कछु प्रयोजन नहीं, मैं संसारके मार्गसे विवृत्त भया, तुमलो रु यो करी । औला कहकर सुग्रीषको राज्य देय आप गुणन कर गरिष्ठ श्रीगगनचन्द्र मुनिपै परमेसरी दीक्षा आदरो। परमार्थमें लगाया है चित्त जिनने पर पाया है परम उदय जिसने वे वाली योथा परम ऋषिहोग एक चिद्रप भाव में रस भर : सम्यग्दशन है निर्मल जिनके सम्यक ज्ञान कर युक्त है आत्मा जिनका सम्य चारित्रमें तत्पर चारा अनुप्रेक्षाओंका निरन्तर विचार करते भए । आत्मानुभवमें मग्न मोह जालरहिन स्वगुणरूपी भूमिपर बिहार करते भए बह गुण भूमि निर्मल आचारीले मुनि तिनकर सेवनोक है । बाली मु न पिताकी नाई सर्व जीवोंपर दयालु बाह्याभ्य तर तपसे कर्मकी निर्जरा करते भए । वे शांतबुद्धि तपोनिधि महाऋद्धिके निवास होते भए सुन्दर है दर्शन जिनका, ऊचे २ गुणस्थानरूपी जे पिवाण तिनके चहने में उद्यमी भए । भेटी है अंतरंग मिथ्या मावरूपी ग्रंथि ( गांठ) जिनने, वाह्याभ्यन्तर परिग्रहरहित जेन सूत्रके द्वारा कृत्य अकृत्य सप बानते भए । महागुणवान महासंवरर मंडित कर्मोंके समुटको खिपावते भए, प्राणोंकी रचामात्र सूत्रप्रमाण आहार लेय हैं अर प्राणों को धर्मके निमिन धारै हैं अर धर्मको मोक्षके अर्थ उपारजे हैं, भव्य लोकोंको आनन्दके कर नहारे उत्तम हैं अाचरण जिनकं असे बाली मुनि और मुनियों को उपमा योग्य होते भये अर सुग्रीव रावणको अपनी बहिन परणायकर रावणकी मात्रा प्रमाण किहकन्धपुरका राज्य करता भया । पृथ्वीविष जो जो विद्याधरोंकी कन्या रूपवती थी रावणाने वे समस्त अपने पराक्रमसे परणी । नित्यालोक नगरमें राजा नित्यालोक राणी श्रीदेवी विनकी रत्नावली नामा पुत्री Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण उसको परणकर रावण लंकाको श्रावते थे सो कैलाश पर्वत ऊपर आय नि से जिन मन्दिरोंके अर बाली मुनिके प्रभारसे पष्पक विमान मनके वेग समान चंचल है जैसे सुमेरुके तट को पायकार वायु मंडल थंभे तैसे विमान थंधा । तर घंटादिका शब्दरहित भया मानों विलखा होय मौनको प्राप्त भया तब रावण विमानको अटका देख मारीच मंत्रीसे पूछते भये कि यह विमान कौन कारणसे अटका तत्र मारीच सर्व वृत्तांतमें प्रवीण कहता भया। हे देव ! सुनो यह कैलाश पर्वत है यहां कोई मुनि कायोत्सर्ग करि तिष्ठै है गिलाके ऊपर रखके थंभ समान सूर्यके सरमुख ग्रीष्ममें अातापन योग धर तिष्ठै है अपनी कांतिसे सूर्य की कांतिको जीतता हुआ विराजै है यह महामुनि धीरवीर है। महाघोरवीर तपको धरै है शीघ्र ही मुक्तिको प्राप्त हुआ चाहै है इसलिये उतरकर दर्शन करि आगे चलो या विमान पछे फेर कैलाशको छोड़कर और मार्ग होय चलो जो कदाचित् हठार कै नाशके ऊपर होय चलोगे तो विमान खंड खण्ड हो जायगा यह मारीचकं वचन सुल्य र राजा यमका जीतनेहारा रावण अपने पराक्रमसे गर्वित होकर कैलाश पर्वतको देखता भया पर्वत भानों व्याकरण ही है क्योंकि नाना प्रकारके धातुओं से भरा है अर सहस्रों गुणोंसे युक्त नाना प्रकार के सुर्वणकी रचनासे रमणीक पद पंक्तियुक्त नाना प्रकारके स्वरों कर पूर्ण है । ऊचे तीखे शिखरोंके समूहकर शोभायमान है ग्राकाशसे लगा है निसरते उछलते जे जलक. नीझरने निकर प्रकट हंस ही है कमल आदि अनेक पुष्पोंकी सुगन्ध सोई भई सुरा साकरि मत्त जे भ्रमर तिनकी गुजार से अति सुन्दर है नाना प्रकार के वृक्षोंकर भरया है, बड़े बड़े शालके जे वृज तिन ..र मंडि. जहां छहों ऋतुओंके फल फूल शोभे हैं, अनेक जातिके जीव विचरै हैं, जहां ऐसी ऐगी औषय है जिनके त्रास सोंके समूह दूर रहे हैं। मनोहर सुगंधसे मानों वह पर्वत सदा नव यौ नहीको धरै है अर मानों वह पर्वत पूर्व पुरुष समान ही है। विस्तीण जे शिला वे ही हैं हृदय जिसका अर शाल वृक्ष वे ही महा भुता पर गंभीर गुफा सो ही बदन अर वह पर्वत शरद ऋतुके मेघ समान निर्मल तटसे सुन्दर मानों दुग्ध समान अपनी कांतिसे दशों दिशाको स्नान ही करावै है । कहीं इक गुफावोंमें सूते जे सिंह तिनकर भयानक है. कहीं इक सूत जे अजगर तिनके स्वासरूपी पवनस हालै हैं वृक्ष जहां, कहीं इक भ्रमते क्रीड़ा करते जे हिरणों के समू: तिाकर शोभै हैं, कहीं इक मते हाथियों के समूहसे मंडित है वन जहां, कहीं इक कमलों के समूहसे मानो रोमांच होय रहा है अर कहीं इक वनकी सघनता से भयानक है, कहीं इक कमलोंके बन शोभित हैं सरोवर जहाँ, कहीं बानरोंके समूह वृक्षोंकी शाखोंपर केलि कर रहे हैं अर कहीं गैडान के पगकर छेदे गए हैं जे चंदनादि सुगन्ध वृक्ष तिनकर सगन्ध होय रहा है, कहीं बिजली के उद्योतसे मिला जो मेघ एडल उस समान शोभाको धरै है, कही दिवाकर समान जे ज्योतिरूप शिखर तिनकर उद्योगरूप किया है आकाश जिमन ऐसा कैलाश पर्वत देख रावण विमानसे उतरा। तहां ध्यानरूपी समुद्रविष मग्न अपने शरारक जसे प्रकाश किया है दशो दिशामें जिनने, ऐसे बाली महामुनि देखे । दिग्गज की मुण्ड समान दोऊ मजा लम्बाए कायोत्सर्ग धर खडे, लिपटि रहै हैं शरीरसे सर्प जिनके, मानो चन्दनके वृक्ष ही Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां पर्व १०१ हैं, सातानि शिलापर निश्चल बबाणयों को ऐसे दास मानो पाषाणका थंभ ही है। रावण पाली मुनिको देखकर पूर्व बैर चितार पापों क्रोधरूपी अग्निसे प्रज्वलित भया । भकुटि चढ़ार होंठ डसत कठोर शब- मुनिका कहता भा-'अहो यह बडा नप तेरा, जो अब भी अभिमान न छूटा । मेरा विमान चलता थांमा। वहां उनम पारूप वीसमाधम का अर पाप रूप क्रोष कहां, तू वृथा खेद करे है । अमृत अर विपको एक किया चाहे तातै मैं तेरा गर्व दूर करूंगा, तुझ सहित कैलाश पर्वतको उखाड़ समुद्र डार दूंग" ऐसठोर वचन कहकर रावणने विकराल रूप किया । सर्व विद्यः जे साधी हैं तिनकी अधिष्ठाता देवी चितवनमात्रसे प्राय ठाढी भई, सो विद्यामलकर सकशालेमाका किया, धरती कोमेद पातालमें बैरा, महा पापविष उद्यनी है प्रचण्ड क्रोधार लाल नेत्र जारी कर हूंकार शब्द र वाव ल है मुम्ब जाका, भुजावोंकर कैज्ञाश पर्व के उस डा उनम किया तब हि ही पहिरग इत्यादि अनेक जीव अर अनेक जातिके पत्रो भमरसोता लब्द करने भर। जज नी करने टूट गए, जल गिरने लगा, वृक्षों के र.मू. फट गए, पर्वतकी शिला पर प.पाण पड़ते भए, तिनके विकराल शब्दकर दशों दिशा पूरित भई, कैलाश पर्वत चलापमान भया । जो देव क्रीड़ा करते हुते ते आश्चर्यको प्राप्त भये, दशों 'देशा की ओर देखते भो अर जो अप्सरा लतावोंके मण्डपमें केलि करती हुती सो ललाबों को छोड़ प्राकाश गान करती भई। ___ भगवान बालाने रावण । कर्ता जान पाप धीरवीर क्रोयरहित का भी खेद न माना जैसे निश्चल विराजते हुते तो ही रहे । चित्तने वाचार किया जो पर्वतार भगवानके चैत्यालय अति उत्तम महासुन्दरताकर शोभित र.र्व रजयी भरन चक्रवर्ती कराये हैं, जहां निरन्तर भक्तिसंयुक्त सुर अनुर विद्याधर पूजाको अवै हे, की या पात: कमायान होकर चैत्यालयोंका भंग न होप अर यहां अनेक जीव विवर है तिर बाधः नशे गा विचारकर अपने चरणका अंगुष्ठ ढीला दमाया को रापण महाभ सक्रांत होय दया । बहु रूप बनाया था सो भंग भया, महादुःख कर व्याकुल नत्रांसे रक्त करने लगा, मुकुट गया अर माथा भोग गया, पर्वत बैठ गया, रावणके गोड़े छिल गए, जंघा भी छिल गई, तत्काल सेवों भंगना अर धरती पसेवकर गीली भई, रावण के गात्र सकुच गये, कछुवे समान हो गया, तब रोणे लगा, ताही कारणसे पृथ्वीमें रावण कहाया । अब तक दशानन कहावै था । इसके अत्यन्त दीन शब्द सुनकर इसकी राणी अत्यन्त विलाप करती भई अर मंत्री सेनापति लार के पर्व सुपट पहिले तो भ्रमकर वृथा युद्ध करनेको उद्यमी भए थे पीछे मुनिका अतिशय जान सर्व आयुष डार दिये, मुनिके काय बल ऋद्धिके प्रभावतें देव दुन्दुभी बजाने लगे हर कल्पवृक्षों के फूलोंकी वर्षा भई तापर भ्रमर गुंजार करते भये, आकाशमें देव देवी नृत्य करते भए, गीतको पनि होती भई । तब महामुनि परभदयालुने अंगुष्ठ ढीला किया। रावण ने पर्वतके तलेसे निकस बाली मुनिके समीप आय नमस्कार कर क्षमा कराई अर जाना है तपका बल जान योगीश्वर की बारम्बार स्तुति करता भया हे नाथ ! तुमने घर Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण हीतें यह प्रतिज्ञा करी हुती जो मैं जिनेन्द्र मुनींद्र जिनशासन सिवाय किसीको भी प्रणाम न करू सो यह सब उस सामर्थ्यका फल है । अहो धन्य है निश्चय तिहारा अर धन्य यह तपका बल । हे भगवान् तुम योग शक्तिसे त्रैलोक्यको अन्यथा करनेको समर्थ हो परन्तु उत्तम क्षना धर्मके योगसे सम्पै दयालु हो, किसीपर क्रोध नहीं । हे प्रभो! जैसा तुपकर पूर्ण मुनिको विना ही यत्न परमसामर्थ्य होय है। तैमी इन्द्रादिकके नहीं धन्य गुण तुम्हारे, धन्य रूप तिहारा, धन्य कांति तिहारी, धन्य श्राचर्यकारी बल तिहरा, अद्भुत दीप्ति विहारी, अद्भुत शील, अद्भुत तप त्रैलोक्यमें जे अद्भुत परमाणु हैं तिनकरि सुकृतका आधार तिहारा शरीर बना है, जन्महीतें महाबली सर्व सामर्थके धरनहारं तुम नव योवनमें जगत्की मायाको तज कर परम शान्त भावरूप जो अरहंतकी दीक्षा ताहि प्राप्त भए हो सो यह अद्भुत कार्य तुम सारिषे सत्पुरुषोंकर ही वन है। मुझ पापीने तुम सारिखे सत्पुरुषों से अविनय किया सो महा पापका बन्धकिया । धिक्कार मेरे मन वचन कायको, मैं पापी मुनिद्रोहमें प्रवरता, जिनमन्दिरोंका अविनय भया, आप सारिखे पुरुषरत्न अर मुझ मारिखे दुर्बुद्रि सो सुमेरु अर सरसोंकामा अन्तर है मुझ मरतेको आपने आज प्राण दिये, आप दयालु हम सारिखे दुजा तिन ऊपर क्षमा करो इस समान और क्या, मैं जिन शासनको श्ररण करूं हूं. जानूह, देहूं जो यह संयार अमार है अस्थिर है दुःख नाव है तथापि मैं पापी विषयनसे वैराग्यको नहीं प्राप्त भया, धन्य हैं वे पुण्यवान मापुरुष अल्प संपारी मोजके पात्र जे तरुण अवस्थाहीमें विषयों को तजार मोतका मार्ग मुनिब्रत आचरै हैं या भांति मुनिकी स्तुतिकर तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर अपनी निंदाकर बहुत लज्जावान होय मुनिके समीप जे जिनमन्दिर हुते तहां बदनाको प्रवेश किया, चंद्रहास खड्ग को पृथ्वीपर रखकर अपनी राणियोंकर मंडित जिनवरका अर्चन करता भया । भुजामेंसे नस रूप तांत काढकर वीण समान बजाता भया । भक्ति में पूर्ण है भाव जाका स्तुतिकर जिनेंद्रके गुणानुवाद गावना भया। हे देवाधिदेव ! लो-लोकके देखनेहारे नमस्कार हो तुमको। कैसे हो ? लोकको रलंघे असा है तेज तिहर. । हे कृतार्थ महात्मा नमस्कार हो । कैसे हो ? तीन लोक कर करी है पूजा जिनकी, नष्ट किया है मोहका वेग जिन्होंने, वचनसे अगोचर गुणोंके समूहके धरनेहारे, महा ऐवर्यकर मण्डित मोक्षमानके उपदेशक सुखकी उत्कृष्टतामें पूर्ण, समस्त कुमार्गसे दूर, जीवनको मुक्ति अर भुनिक कारण, महाकल्याणके मूल, सर्व कर्मके साक्षी, ध्यान कर भग्म किए हैं पाप जिन्होंने, जन्म मरणके दूर करनेहारे, समस्तके गुरु आपके कोई गुरु नहीं, आप किसीको नव नहीं अर सबकर नमस्कार करने योग्य आदि अन्तरहित समस्त परमाई के जाननेहारे, आपको केवली विना अन्य न जान सके, सर्व गगादिक उपाधिसे शून, सर्वके उदेशक, द्रव्यार्थिक नयसे द्रव्य गुणका भेद, किसी एक नयसे द्रव्य गुणक: अमेद, ऐसा अनेकांत दिखावनेहारे, जिनेश्वर सर्व एकरूप चिद्रप अरूप जीवनको मुक्तिके देनेहारे ऐसे जो तुम तिनको हमारा बारम्बार नमस्कार हो। . श्रीऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन सुमति पद्मप्रभ सुपार्य चन्द्रप्रभ पुष्पदंत शीतल Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा पर्व १०३ श्रेयांस वासुपूज्यके ताई बारम्बार नमस्कार हो । पाया है आत्मप्रकाश जिन्होंने विमल अनन्त धर्म शांतिकताई नमस्कार हो, निरंतर सुरूके मूल सबको शांतिके करता कुन्थु जिनेन्द्र के ताई नमस्कार हो, अर नाथके ताई नमस्कार हो, मल्लि महेश्वरके ताई नमस्कार हो, मुनिसुव्रतनाथ के तई जो महाव्रतोंक देनेहारं पर अब जो होवेंगे नमि नेम पार्श्व वर्तमान तिनके कई नमस्कार हो, अर जो पद्म-भादिक अनागत होवेंगे तिनको मस्कार हो, अर जे निर्वाणादिक अतीत जिन भए तिनको नमस्कार हो । सदा सर्वदा साधुओं को नमस्कार हो, अर सर्व सिद्धोंको निरंतर नमस्कार हो । कैसे हैं सिद्ध ? केवलज्ञानरूप केवल दर्शनरूप धायक सम्यक्त्वरूप इत्यादि अनन्त गुणरूप हैं।" यह पवित्र अक्षर लंकाके स्वामी ने गाए। रवरुद्वारा जिनेन्द्रदेवकी महास्तुति करनेसे धरणेन्द्रका प्रा. न कम्पायमान भया। तब अवधिज्ञानसे रावणका वृत्तान्त जान हर्ष फूले हैं नेत्र जिनके, सुन्दर है मुख जिनका, देदीप्यमान मणियोंके उपर जे मणि उनकी कालिसे दूर किया है अन्धवार का समूह जिनने, पातालसे शीघ्र ही नागोंके राजा कैलाश पर आए । जिन्द्रको नमस्कारवर विधिपूर्वक समस्त मनोज्ञद्रव्योंसे भगवानकी पूजा कर रावणसे कहते झए–'हे भव्य ! तैंने भगवानकी स्तुति बहुत करी र जिन भक्ति के बहुत सुन्दर गीत गाए । सो हमको बहुत हर्ष उपजा, दर्षकरके हमारा हर आनन्दरूप भया । हे रक्षसेश्वर धन्य है तू जो जिनराजकी स्तुति करे है। तेरे भावकरि बार हमारा छा गमन भया है । मैं तेरेसे संतुष्ट झया तू वर मग । जो मन वांछित वस्तु तू मांगे सो दं। तब राण कहते भए-'हे नागराज ! जिन बं नातुल्य पर कहा शुभ वस्तु है, सो मैं आपसे मांगू। आप सर्व बात समर्थ मननांछित देनेलापक हैं ।' तब नागपति बोले'हे गवण ! जिनेंद्रकी बंदनाके तुल्य अर कल्याण नहीं । यह जिन भक्ति शाराधी हुई मुक्तिके सुख देव है त. या तुल्य अर कोई पदार्थ न हुआ न होयगा ।' तब रावण ने कही-'हे महामते ! जो इससे अधिक अर बस्तु नहीं तो मैं कहा याचू' तब नागपति बोले-तैने जो कहा सो सब सत्य है जिनभक्ति से सब कुछ सिद्धि होय है याको कुछ दुर्लभ नहीं तुम सारिखे मुझ सारिखे अर इंद्र सारिखे अनेक पद सर्व जिनभक्तिसे ही होय हैं अर यह तो संसार के सख अल्प हैं विनाशीक हैं इनकी क्या बात ? मोक्षके अविनाशी जो यतेन्द्री मुख वे भी जिनभक्ति करि प्राप्त होय हैं । हे राण ! तुम यद्यपि अत्यन्त त्यागी हो महानियवान वलवान हो महा ऐवयवान हो गुणकर शोभित हो तथापि मेरा दर्शन तुमको वृथा मत होय, मैं तेरेसे प्रार्थना करू हूँ तू कुछ मांग । यह मैं जानू हूँ कि तू याचक नहीं परंतु मैं अमोघ विजयानामा शक्ति विद्या तुझे दुहूं सो हे लंकेश ! तू ले, हमारा स्नेह खण्डन मतकर । हे रावण, किसीकी दशा एकसी कभी नहीं रहती, विपत्तिके अनंतर सम्पत्ति होती है, जो कदाचित् मनुष्य शरीर है अर तुझपर विपत्ति पड़े तो यह शक्ति तेरे शत्रुकी नाश्.नेहारी अर तरी रक्षाकी वरनहारी होयगी। मनुष्योंकी क्या बात इससे देव भी डरें हैं यह शक्ति अग्नि ज्वालाकर मण्डित विस्तीर्ण शक्तिकी धारनेहारी है। तब रावए धरणेन्द्रकी आज्ञा लोपनेकों असमर्थ होता हुया शक्तिको ग्रहण Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण करता भया क्योंकि किसीसे कुछ लेना अत्यन्त लघुला है तो इस बातसे रावण प्रसन्न नहीं भया। रावण अति उदारचित्त हे । तब धरणद्र. रावणने हाथजोड़ नमस्कार मिला धरणद्र आप अपने स्थान : गए। कैसे हैं धरणेंद्र ? प्रगटा है हर्प जिनके, रावण एक मास कैलाशपर रहकर भगवान के चै..लवों की महाभक्तिसे पूजाकर अर बालो मुनिकी स्तुति कर अपने स्थानक गए। पाली मुनिने जो कड़क मनके क्षोभसे पाप कर्म उर्जा हुतां सो गुरुषोंके निकट जाय प्रायश्चित्त लिया शल्य दूरकर परम सुखी भए । जैसे विष्णुकुमार मुनिने मुनियोंकी रक्षानिमित्त बालीका पराभव किया हु र गुरुसे प्रायश्चित्त लेय परप्रमुखी भए थे तैसे बाली मुनिने चैत्यालयोंकी र अनेक जावकी रक्षा निमित्त रावणका पराभव किया, कैलाश थाभा फिर गुरुप प्रायश्चित्त लेय शल्य नेट परन सुग्बी भए । चारित्रो गुप्तिसे धर्मसे अनुप्रेक्षासे समितिसे परीषदोंके सहनेसे महावर पाप कौती नर्जराकरि बासी मुनि केवलज्ञानको प्राप्त भए अर अष्टकर्म से रहित होय तीन लोक खिर ऋगिनासो स्थानमें अधिनाशी नुपम एखको प्राप्त भए र रावण ने मनमें विचारा कि जो इन्द्रिोंको जीते तिनको में जीतव समर्थ नहीं तातें राजाओंको साधुनों की सेवा करना ही योग्य है ऐगा जान साधुनोंकी संवा तत्पर होता भया सम्पकदर्शनसे मण्डित विशरमें उ है भक्ति जितको कामना अा यथेट सुखस तिष्ठता भया । ___ यह बालीमा चरेच पाविज्ञारी जीव, भावपि तत्पर है बुद्धि जाकी भली भांति सुने सो काही अपमान प्राप्त न होय अर सू समान प्रता प्राप्त हाय । इति श्रोरविरेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण भाष: काविष बालीमुनिका निरूपण करनेवाला नवनां पर्व पूर्ण भया ॥६॥ अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकते कह - गोणिक ! यह वालीका वृत्तांत तो कहा अब मुवि र सुतारा राणीला वृत्त। सुन : ज्योतिपुर नामा नगर तहां राजा अग्निदि ख गरी उनकी पुत्र सु ारा जो संपूर्ण स्त्री गुणोंसे पूर्ण सर्व पृथ्थीमें रूप गुण की शामासे प्रसिद्ध मानों कमलोंका निवास तज साक्षात् इ.चनी ही आई है अर राजा चक्रांक उसकी राणी अनुनाते तिनका पुत्र इस गति महादुष्ट एकिन अपनी इच्छासे भ्रमण करै था सो ताने सुतारा देखी । देवकर काम शल्यस अत्यंा दुःखी होकर निरगर सुताराको मनमें धरता भया दशा जिसकी उन्मत्त है ऐसा दूत भे। सुताराको याचता भया अर सुग्रोव भी बारम्बार याचता भया । कैसी है वह सुतारा ? महामनोहर है । नब राजा अग्निशिख सुताराका पिता दुविधामें पड गया कि कन्या फिसको देना तर महाशानी मुनिको पूछी मुन्द्रने कहा कि साहसगतिकी अल्प आयु अर सुग्रीवकी दीघ आयु है ता अमृत सनोन मुनि. वचन सुने र राजा ग्निशिख सुग्रीवको दीर्घ आयुवाला जानकर अपनी पुत्री पागिग्रहण कराया सुग्रीव का विशेष हे न सकी प्राप्ति भई तदनन्तर सुग्रीव अर सुधार के यंग अर अगरीय जनर पर नह नापी गति Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "दमबां पर्व निर्लज सताराकी प्राशा छोड़े नहीं । धिक्कार है काम चेष्टाको, यह कामाग्निकर दग्ध चित्तविर्षे ऐसा चिंतवै कि वह मुखदायिनी कैसे पाऊ? कब उसका मुख चंद्रमासे अधिक निरखूब उस सहित नंदन वनविष क्रीड़ा करू ऐसा मिथ्या चितवन करता संता रूपपरवर्तिनी शेमुषी नामा विद्याके आराधनेको हिमवंत नामा पर्वतपर जायकर अत्यंत विषम गुफाविष तिष्ठकर विद्याके श्राराधनेको प्रारम्भ करने समा। जैसे दुखी जीव प्यारे मित्रको चितारे से विद्याको चितारता भया। ___ अथानन्तर रावण दिग्विजय करनेको निकसा वन पर्वतादिकर शोभित पृथ्वी देखता अर समस्त विद्याधरोंके अधिपति अंतर द्वीपोंके वासियोंको अपने वश करता भया। अर तिनको आज्ञाकारी कर तिनहीके देशोंमें थापता भया । कैसा है रायण ? अखण्ड है आज्ञा जाकी, भर विद्यावरोंमें सिंह समान बड़े २ राजा महा पराक्रमी राषणने वश किये तिनको पुत्र समान जान बहुत प्रीति करता भया । महन्त पुरुषों का यही धर्म है कि नम्रतामात्र ही प्रसन्न होवें । राक्षसों के वंशमें अथवा कपिवंशमें जे प्रचण्ड राजा हुते वे सर्व वश किये बड़ी सेनाकर संयुक्त आकाश मार्गसे गमन करता जो दशमुख पवन समान है वेग जिसका, उसका तेज, विद्याधर सहिवेको असमर्थ भये । संध्याकार मुवेल हेमा पूर्ण सुबोधन हंस द्वीप वारिहल्लादि इत्यादि द्वीपोंके राजा विद्याथर नमस्कार कर भेट ले आय मिले सो रावणने मधुर बचन कह बहुत संतोष पर बहुत सम्पदाके स्वामी क्रिये । जे विद्याधर बड़े २ गढोंके निवासी हुते वे रावणके चरणारविंदको नम्राभूत होय आय मिले जो सार वस्तु थी सो भट करी। हे श्रेणिक ! समस्त बलोंविष पर्वो. पार्जित पुण्यका बल प्रबल है उसके उदयकर कौन वश न होय, सब ही वश होय हैं। अथानन्तर रथन पुरका राजा जी इन्द्र उसके जीतिवेकों रावण गमनको प्रवरता सो जहाँ पाताल लंकाविष खरदूषण वहणेऊ है, वहां जाय डेरा किया। पाताल लंकाके समीप डेरा भया रात्रीका समय था खरदूषण शयन करै था सो चन्द्रनखा रावणकी बहिनने जगाया, पाताललंकासे निकसकर रावणके निकट आया, रत्नोंके अर्घ देय महा भक्तिसे परम उत्साहकर रावण की पूजा करी । रावणने भी बहनेऊपनाके स्नेहकर खरदूषणका बहुत सत्कार किया। जगतविष बहिण बहणेऊ समान पर कोई स्नेहका पात्र नहीं । खरदूषणने चौदह हजार विद्याधर मनवांछित नाना रूपके धारनहारे रावणको दिखाए । रावण खरदूषणकी सेना देख बहुत प्रसन्न भए। आप समान सेनापति किया, कैसा है खरदूषण ? महा शुरवीर है उसने अपने गुणोंसे सर्व सामन्तोंका चित्त वश किया है । हिडम्ब, हैहिडिम्ब, विकट, त्रिजट, हयमाकोट, सुजट, टंक. किहकंधाधिपति, सुग्रीव, तथा त्रिपुर, मलय, हेमपाल, कोल, बसुंदर इत्यादिक अनेक राजा नाना प्रकारके वाहनों पर चढे नाना प्रकार शस्त्रनके अभ्यासी तिनकर युक्त पाताल लंकासे खरदूषण रावणके कटकविणे आया जैसे पात ल लोकसे असुर कुमारोंके समूहकर युक्त चमरेन्द्र आवे इस भांति अनेक विद्याधर राजाओंके समूहकर रावणका कटक पूर्ण होता भया जैसे बिजली Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण भर इन्द्र धनुषकर युन्छ मेघमालाओंके समूह तिनकर श्रावणमास पूर्ण होय ऐसे एक हजार ऊपर अधिक प्रक्षोहिणी दल रावणके होय चुका दिन दिन बढता जाय है अर हजार हजार देशोंकर सेवा योग्य रत्न नाना प्रकार गुणोंके समू-के धारणहारे उनकर युक्त अर चन्द्राकरण समान उज्ज्वल चमर जिसपर दुरे हैं, उज्वल छत्र सिर पर फिरे हैं, जिसका स्व सुन्दर है, महाबाहु महावली पुष्पक नामा विमान पर चढ सुमेरु समान स्थिर सूर्यसमान ज्योतिवंत अपने विमानादि बाहन सम्पदाकर सूर्यमण्डलको आच्छादित करता हुवा इन्द्रका विध्वंस मनमें विचारकर रावणने प्रयाण किया । कैसा है रावण, प्रबल है पराक्रम जिसका, मानों आकाशको समुद्र ममान करता मया, देदीप्यमान जे शस्त्र सोई भई कलोल पर हाथी घोड़े प्यादे ये ही भए जलचर जीव अर छत्र मरर भए अर चार तुरंग भए नाना प्रकारके रत्नोंकी ज्योति फैल रही है अर चमरोंके दएड मीन भए-हे श्रेणिक ! रवणकी विस्तीर्ण सेनाका वर्णन कहां लग करिये, जिसको देख कर देव डरें तो मनुष्योंकी बात क्या, इन्द्रजीत मेघनाद कुम्भकर्ण विभीषण खन्दूषण निकुम्भ कुम्भ इत्यादि बहुत सुजन रण में प्रवीण, सिद्ध है विद्या जिनको महाप्रकाशवन्त शस्त्र शास्त्र विचामें प्रवीण हैं जिनकी कड़िी है महासेनाकर युक्त देवताओंकी शोभाको जीतते हुये रावण के संग चले । विन्ध्याचल पर्वतके समीप सूर्य अस्त भया मानों रावणके तेजार बिलपा होय तेज रहित भया वहां सेनाका निवास भया मानो विन्ध्याचलने सेना सिर पर धारी हैं विद्याके बलसे नाना प्रकारके आश्रय कर लिये। फिर अपनी किरणों कर अन्धकारके समूहको दूर करना हुआ चन्द्रमा उदय भया मानो रावणके भयकर रात्री रलका दीपक लाई है और मानो निशा स्त्री भई, चांदनी कर निर्मल जो आकाश सोई वस्त्र उसको धरे ताराओंके जो समूह तेई सिरषि फूल गूथे हैं चन्द्रमा ही है बदन जाका । नाना प्रकारकी कथाकर तथा निद्राकर सेनाके लोकोंने रात्री पूर्ण करी फिर प्रभातके यादित्र बाजे मंगल पाठ कर रावण जागे। प्रभात क्रिया करी, सूर्यका उदय भया मानों सूर्य भुवनविष भ्रमणकर किसी ठौर शरण न पाया तब रावण हीके शरण आया। . पुनः रावण नर्मदाके तट आए। कैसी है नर्मदा ? शुद्ध स्फटिक मणि समान है जल जाका अर उसके तीर अनेक वनके हाथी रहै हैं सो जल में कैलि करे हैं उसकर शोभायमान है अर नाना प्रकारके पक्षियोंके समूह मधुर गान करै हैं सो मानों परस्पर संभाषण ही करें हैं। फेन कहिये झागके पटल उन कर मंडित है तरंगरूप जे भोंह उनके विलासकर पूर्ण है । भंवर ही हैं नाभि जाके पर चंचल जे मीन सेई हैं नेत्र जाके अर सुन्दर जे पुलिन तेई हैं कटि जाके, नाना प्रकारके पुष्पोंकर संयुक्त निर्मल जल ही है वस्त्र जाका, मानों साक्षात् सुन्दर स्त्री ही है उसे देखकर रावण बहुत प्रसन्न भए । प्रवल जे जलचर उनके समूहकर मण्डित है, गंभीर है, कहूं एक वेगरूप बहै है, कहूं एक मन्दरूप बहै है, कहूं एक कुण्डलाकार बहै है, नाना चेष्टाकर पूर्ण ऐसी नर्मदाको देखकर कौतुकरूप हुश्रा है मन जाका सो रावण नदीके तीर उतरे नदी भयानक भी है अर सुन्दर भी है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां पर्व १०० अथानन्तर माहेिष्मती नगरीका राजा सहस्ररश्मि पृथ्वीविपै महाबलवान मानों सहस्सरश्मि कहिए सूर्य ही है उसके हजारों स्त्री सो नर्मदाविषै रावणके कटकके ऊपर सहस्ररश्मिने जल यंत्रकर नदीका जल थांभा अर नदीके पुलनविष नाना प्रकारकी क्रीड़ा करी । कोई स्त्री मानकर रही थी उसको बहुत शुश्रूषाकर प्रसन्न करा, दर्शन स्पर्शन मान फिर मानमोचन प्रणाम परस्पर जल केलि हास्य नाना प्रकार पुष्पोंके भूपर्णो के शृङ्गार इत्यादि ठानेक स्वरूप क्रीड़ा करी । मनोहर है रूप जाका जैसे देवियोंसहित इन्द्र क्रीड़ा करे तैसे राजा सहस्ररश्मिने क्रीड़ा की। जे पुलिनके बालू रेतविष रत्नके मोतियोंके आभूषण टूटकर पड़े सो न उठाए जैसे मुरझाई पुष्पोंकी मालाको कोई म उठावै, कैयक राणी चन्दनके लेपकर संयुक्त जलविले केलि करती भई सो जल घपल हों गया, कैयक केशरके कीचकर जलको गाले हुए सुवर्णके समान पीत करती भई, कई एक तांबूल के रंगकर लाल जे अधर तिनके प्रतालनकर नीरको अरुण करती भई, कैक आंखों के अंजन धोबनेकर श्याम करती भई सो क्रीड़ा करती जे स्त्री उनके आभूषणोंके सुन्दर शब्द अर तीरविष जे पक्षी उनके सुन्दर शब्द राजाके मनको मोहित करते भए अर नदीके निकासकी भोर रावणका कटक था सो रावण स्नामकर पवित्र वस्त्र पहिर नाना प्रकारके आभूषणोंसे युक्त नदीके रमणीक पुलिनमें बालू का चौतरा बंधाय उसके ऊपर चैड्री मणियोंके हैं दंड जिसके जैसा मोतियोंकी झारी संयुक्त चन्दोवा ताण श्रीभगवान अरहन्त देकी नाना प्रकार पूजा करै था, बहुत भक्तिा पवित्र तात्रों कर स्तुति करैशा सो उपरासका जल का प्रवाह आया सो पूजामें विघ्न भया, नाना प्रकारकी लुषता सहित प्रवाह वेग दे आया तव रावण प्रतिमाजीको लेय खड़े भए पर कोष र महते भए-जो यह क्या है ? सो सेवकने खबर दीनी कि हे नाथ ! यह कोई महाक्रांडावंत पुरुष सुन्दर स्त्रिोंके बीच परम उदय को धरै नाना प्रकार की लीला करै है अर सामन्त ले क शस्त्रोंको धरें दूर २ खड़े हैं, नाना प्रकार जलके यन्त्र बांधे उनसे यह पेश भई है, पर राजाओंके रोनः चाहिए तातें उसके सेना तो शोन मात्र है अर उसके पुरुषार्थ ऐसा है जो और टोर दुलंभ है बड़े २ सामंतोंस उसका तेज न महा जाय अर स्वर्गविष इन्द्र है परन्तु यह तो प्रत्यक्ष ही इन्द्र दखा । यह वार्ना सुनकर रावण क्रावको प्राप्त भए, भोंह बड़ गई, आंख लाल हो गई, ढोल बजान लगे, वीररसका राग होने लगा, नाना प्रकारके शब्द होय हैं, वोड़े हीसे हैं, गज गाजै हैं रावणने अनेक राजावों को आज्ञा करी कि यह सहस्सररिस दुष्टात्मा है इसे पकड़ लावो । ऐसी आज्ञाकर आप नदीके तत्पर पूजा करने लगे। रत्न सुवर्णक जे पुष्प उनको आदि देय अनेक सुन्दर जे द्रब्य उनसे पूजा बरी अर अनेक विद्याधरोंके राजा राघणकी आज्ञा आशिपाकी नाई माथे चढ़ाय युद्धको चले, राजा सहस्ररश्मिने परदलको आवता देख स्त्रियोंको कहा कि तुम डरो मत, धीर्य बंधाय आप जलसे निकस, कलकलाहट शब्द सुन पराल आया जान माहिष्मती नगरीके योधा सजकर हाथी घोड़े रथोंपर चढे, नाना प्रकारके मायुध धरे स्वामी धमके अत्यंत अनुरागसे राजाकेटिंग आये, जैसे सम्मेदशिखर पर्वतका एक ही काल छहों ऋतु आश्रय करे तैसे समस्त योधा तत्काल राजापै पाए, विद्याथरोंकी फौज Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवा-पुराण आवती देखकर सहस्ररश्मिके सामन्त जीतव्यकी आशा छोड़कर धनव्यूह रचकर धनीकी आज्ञा बिना ही लड़नेको उद्यमी भए । जब रावणके योद्धा युद्ध करने लगे तब आकाशमें देवनकी वाणी भई कि अहो "यह बड़ी अनीति है ये भूमिगोचरी अल्पवली विद्यावलकर रहित माया युद्ध. को कहां जाने इनसे विद्याधर मायायुद्ध करें यह कहा योग्य है" पर विद्याधर घने अर यह थोड़े ऐसे आकाशविर्षे देवनके शब्द सुनकर जे विद्याधर सत्पुरुष थे वह लज्जावान होय भूमिमें उतरे, दोनों सेनामें परस्पर युद्ध भया । रथोंके, हाथियोंके, घोड़ोंके, असवार तथा पियादे तलवार, वाण, गदा, सेल इत्यादि आयुधोंकर परस्पर युद्ध करने लगे सो बहुत युद्ध भया । परस्पर अनेक मारे गए न्याय युद्ध भया शस्त्रोंके प्रहारकर अग्नि उठी सहस्ररश्मिकी सेना रावणकी सेनाकर कछु इक हटी तब सहस्ररश्मि रथपर चढ़कर युद्धको उद्यमी भए। माथे मुकुट धरे वखतर पहरे धनुषको धारै अति तेजको धरे विद्याधरोंके वलको देखार तुच्छमात्र भी भय न किया तब स्वामी को तेजवन्त देख सेनाके लोग जे हटे थे वे आगे आयकर युद्ध करने लगे, दैदीप्यमान हैं शस्त्र जिनके अर जे भूल गये हैं घावोंकी वेदना ये रणधीर भूमिगोचरी राक्षसोंकी सेनामें ऐसे पड़े जैसे माते हाथी समुद्रमें प्रवेश करें अर सहस्ररश्मि अति क्रोधको करते हुए वाणोंके समूहसे जैसे पवन मेघको हटावै तैसे शत्रुओंको हटावते भए, तब द्वारपाल रावणसे कही-हे देव ! देखो इसने तम्हारी सेना हटाई है यह धनुषका धारी स्थपर चढा जगतको तावत देखें है इसके बाणोंकर तुम्हारी सेना एक योजन पीछे हटी है तब रावण सहस्ररश्मिको देख आप त्रैलोक्यमण्डन हाथीपर सवार भए । रावणको देखकर त्रु भी डरे वह बाणोंकी वर्षा करते भर सहस्ररश्मिको रथसे रहित किया तब सहस्ररश्मि हाथीपर चढ़कर रावणके सम्मुख आए अर बाण छोड़े सो रावणाके वक्तरको भेद अंगविष चुभे तब रावणने बाण देहसे काढ़ डारे। सहस्ररश्मिने हंसकर रावणसे कहा-अहो रावणा ! तू बड़ा धनुराधारी महावै है ऐनी विद्या कहांसे सीखी, तुझे कौन गुरु मिला, पहले धनुष विद्या सीख फिर हमसे युद्ध करितो ऐसे कठोर शब्दसे रावण क्रोधको प्राप्त भए । सहस्ररश्मिके केशनिमें सेलकी दीनी तब सहस्ररश्मिकं रुधिरकी धारा चली जिससे नेत्र घूमने लगे पहिले अचेत हो गया पीछे सचेत होय आयुथ पकड़ने लगा तब रावण उछलकर सहस्ररश्मिपर आय पड़े अर जीरता पड़ लिया बांधकर अपने स्थान ले आए तब सब विद्याधर आश्चर्यको प्राप्त भए कि सहस्ररश्मि जैसे योधाको रावण पकड़े। कैसे हैं रावण ? धनपति यक्षके जीतनेहारे यमके मानमर्दन करनेहारे, कैलाशके कंपावनहारे, सहस्ररश्मिका यह पंचांव देख सहस्ररश्मि नो सूर्य सो भी मानों भयकर अस्ताचलको प्राप्त भया, अन्धकार फैल गया। भावार्थ-रात्रिका समय भया। भला बुरा दृष्टि में न आवै तब चन्द्रमाका विम्ब उदय भया सो अंधकारके हरणको प्रवीण मानों रावणका निर्मल यश ही प्रगटा है । युद्धविर्षे जे योद्धा पायल भए थे तिनका वैयोंसे यत्न कराया अर जो मूबे थे तिनको अपने अपने बंधुवर्ग रणपेतसे ले आये तिनकी क्रिया करी। रात्रि व्यतीन भई, प्रभातके वादित्र वाजने लगे फिर पर्य रावणकी वार्ता जाननेके अर्थ.राग कहिए ललाई को धारता हुआ कम्पायमान उदय भया । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दमा पर्व सहस्ररश्मिका पिता राजा शतबाहु जो मुनिराज भए थे जिनको जंघाचारण ऋद्धि थी वे महातपस्वी चन्द्रमाके समान कांत सूर्य समान दीपिमान मेरु समान स्थिर समुद्र सारिखे गंभीर सहस्ररश्मिको पकड़ा सुनकर जीनदयाके करणारे परम दगालु शांतचित्त जिनथळ जान रावणपै आए। रावण मुनिको अवते देख उठ गामने जाय पान पड़े, भूमि में लग गया है मस्तक जिनका, मुनिको काष्ठके सिंहासनार विरजवानकर रावण हाथ जोड़ नश्रीभूत होय भूमिवि बैठे । अति हिनयवान होय मुनिसे कहते भए-हे भगन ! कृपानिधान ! तुम कृतकृत्य तुम्हारा दर्शन इन्द्रादिक देवोंको दुर्लभ है, तुम्हारा ग्रागमन मेरे पवित्र होने के अर्थ है, तब मुनि इसको शलाका पुरुष जान प्रशंसाकर कहते भये हे दशमुख ! तू बड़ा कुलवान बलवान विभूतिवान देव गुरु धर्मविर्षे भक्तिभाव युक्त है । हे दीर्घायु शू वीर क्षत्रियोंकी यही रीति है जो आपसे लडै उसका पराभवकर उसे वश करें। सो तुम महाबाहु परम क्षत्री हो तुमसे लड़नेको कौन समर्थ है अब दयाकर सहस्ररश्मिको छोड़ो। तब रावण मंत्रिसहित मुनिको नमस्कारकर कहते भए । हे नाथ ! मैं विद्याधर राजाओंके वश करनेको उद्यमी भया हूं, लत्नीकर उन्मत्त स्थनूपुरका राजा इन्द्र उसने मेरे दादेका बड़ा भाई राजा माली युद्ध में मारा है तामू हमारा द्वष है सो मैं इन्द्र ऊपर जाऊ था मार्गमें रेवा कहिये नर्मदा उसपर डेरा भया सो पुलिनपर बालूके चौतरेपर पूजा करू था लोई इसने उपरासकी अोर जल यंत्रोंकी केलि करी सो जलका वेग निकासको आया । सो मेरी पूजामें विघ्न भया तात यह कार्य किया है, विन अपराध में द्वेष न करूं अर इनके ऊपर गया तब भी इनने क्षमा न कराई कि प्रमादकर बिना जाने मैंने यह कार्य किया है, तुम क्षमा करो, उलटा मानके उदयकर मेरेसे युद्ध करने लगा अर कुवचन कहे इसलिए असा हुआ। जो मैं भूमिगोचरी मनुष्यको जीतने समर्थ न भया तो विद्याधरोंको कैसे जीतूंगा । कैसे हैं विद्याधर ? नाना प्रकारकी विद्याकर महापराक्रमवन्त हैं। तातै जो भूमिगोपरी मानी हैं तिनको प्रथम वश करू पीछे विद्याधरोंको वश करू। अनुक्रमसे जैसे सिवान चढ़ मन्दिरमें जाइये है ताते इनको वश किया अब छोड़ना न्याय ही है फिर आपकी आज्ञा समान और क्या ? कैसे हैं आप ? महापुण्यके उदयमे होवे है दर्शन जिनका । मे वचन रणके सुन इन्द्रजीतने कही-हे नाथ ! आपन बहुत योग्य वचन कहे। असे वचन आप बिना कौन कहे तब रावणने मारीच मंत्रीको अाझा करी कि सहस्रर शिमको छुड़ाय महारांजके निट लायो। तब मारीचन अधिकारीको आशा करी । सो आज्ञा प्रमाण जो नांगी तस्मारके हवाले था सो ले पाए । सहस्र श्मि अपने पिता जा मुने तिनको नमस्कार कर आय बैठा। रावण ने सहस्ररश्मिका बहुत सत्कार कर बहुत प्रसन्न होय कहा-हे महाबल ! जैसे हम तीनो भाई से चौथा तू । तेरे सहायकर रचनपुरका राजा, इन्द्र भ्रमतें कहा है ताहि जीतूंगा अर मेरी राणी महोदरी उसकी लहरी बहिन स्वयंप्रभा सो तुझे परणाऊंगा। तब सहस्ररश्मि बोले-किर है इस राज्यको यह इंद्र नुष समान क्षणभंगुर है अर इन विषयों को धिक्कार है ये देखनेमात्र मनोज्ञ है महादुखरूप हैं.अर स्वर्गको धिक्कार, अबव असंयमरूप है । अर मरणके भाजन इस देहको भी Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन-पुराण धिक्कार अर मोकों धिक्कार जो अते काल विषयासक्त हा इतने काल कामादिक वैरियोंसे उगाया। अब मैं ऐसा करू जाकरिं बहुरि संसार कनविष भ्रमण न कर। अत्यन्त दुःखरूप जो चार गति तिनमें भ्रमण करना बहुत थका । अब भवसागरमें जिपसे पतन न होय सो करूंगा। तब रावण कहते भय यह मुनिका धर्म वृद्धोंको शोभै है। हे भव्य ! तू तो नवयौवन है तब सहस्ररश्मिने कहा-'लालके यह विवेचना नहीं, जो वृद्धीको प्रस तरुणको न स । काल सर्वभक्षी है बाल वृद्ध युवा सबहीको ग्रस । शरदका मेघ क्षणामात्रमें विलाय जाय तैसे यह देह तत्काल विनस है। हे रावण ! जो इन भागोंहीके विपे सार होय तो महापुरुष काहेको तर्जें, उत्तम है बुद्धि जिनकी औसे मेरे यह पिता इन्होंने भोग छोड़ योग आदरा तो योग ही सार है। यह कहकर अपने पुत्रको राज्य देय रावणसे क्षमा कराय पिताके निकट जिनदीचा प्रादरी अर राजा अरण्य अयोध्याका धनी सहस्ररश्मिका परममित्र है सो उनसे पूर्व वचन था जो हम पहिले दोक्षा धरेंगे तो तुम्हें खबर करेंगे अर उनले कही हुती हम दीक्षा धरेंगे तो तुम्हें खबर करेंगे सो उनपै वैरायके समाचार भेजे । भले मनु-योंने राजा सहसूरश्मिका वैराग्य होनेका वृत्तांत राजा अरण्यसे कहा सो सुनकर पहिले तो सहसूरश्मिका गुण स्मरण कर आंसू भर विलाप किया फिर विषादको बंदकर अपन समीप लोगोंसे महाबुद्धिमान कहते भये जो रावण बैरीका भेकर उनका परम मित्र भया जो एश्वर्यके पिंजरेमें राजा रुक रहे थे विषयोंकर मोहित था चित्त जिनका सो पिंजरेसे छुड़ाया। यह मनुष्यरूप पक्षी माया जालरूप पिंजरेमें पड़ा है सो परम हितू ही छुड़ावें हैं । माहिष्मती नगरीका धनी राजा स-सूरश्मि धन्य है जो रावण रूप जहाजको पायकर संसार रूप समुद्रको तिरंगा । कृतार्थ भया अत्यन्त दुखका देनहारा जो राजकाज महापाप ताहि तजकर जिनराजका ब्रत लेनका उद्यमी भया , या भांति मित्रकी प्रशंसा कर आप भी लघु पुत्र को राज देय बड़े पुत्र सहित अरण्य मुनि भए । हे श्रेणिक ! कोई एक उत्कृष्ट पुण्यका उदय आवै तब शत्रका तथा मित्रका कारण पाय जीवको कल्याणकी बुद्धि उपजै अर पापकर्मके उदयकर दुर्बु द्धि उपजै जो कोई प्राणीको धर्मके मार्गमें लगावै सोई परममित्र है अर जो भोग सामग्रीमें मेरै सो परम बैरी है अस्पृश्य है। हे श्रेणिक ! जो भव्य जीव यह राजा सहस्ररश्मि झी कथा भावधर सुनै सो मुनित्रतरूप संपदा तो प्राप्त होकर परम निर्मल होय, जैसा सूर्यके प्रकाशकर तिमेर जाय तैसे जिनवाण के प्रकाशकर मोह तिमिर जार ।। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण भाषा वचनिकाविषै महस्ररश्मि अर अरण्यके नैराब निरूपण करनेवाला दशवां पर्व पूर्ण भया ।। १० ।। अथानन्तर रावणने जे जे पृथ्वीविष मानी राजा सुने ते ते सर्व नवाए, अपने वश किए अर जो श्राप मिले तिनपर बहुत कृपा करी अनेक राजाओंसे मण्डित सुभृमि चक्रवर्तीकी न्याई पृथ्वीविष विहार किया। नाना देशके उपजे नाना भेषके धारणहारे नाना प्रकार आभूषणके पहरनेहारे नाना प्रकारकी भाषाके बोलनेहारे, नाना प्रकारके बाहनोंपर चढ़े नाना प्रकारके Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां पर्व मनुष्योंकर मंडित अनेक राजा उन सहित दिग्विजय करता भया ठौर ठार रत्नमई सुवर्गमई अनेक जिनमन्दिर कराये पर जीर्ण चैत्यालयोंका जीर्णोद्धार कराया, देवाधिदेव जिनेंद्रदेवकी भावसहित पूजा करी ठौर ठौर पूजा कराई, जो जैनधर्मके द्वपी दुष्ट मनुष्य हिंसक थे तिनको शिक्षा दीनी अर दरिद्रियोंको दयाकर धनसे पूर्ण किया अर सम्य दृष्टि श्रावकों का बहुत आदर किया, साधर्मियोंपर है वात्सल्यभाव जाका, अर ज मुनि सुने वहां जाय भक्तिकर प्रणाम कर जे सम्यकन्वरहित द्रव्यलिंगी मुनि अर श्रावक हुते तिनकी भी शुश्रूषा करी, जैनी मात्रका अनुरागी उत्तरदिशाको दुस्सह प्रताप गट करता विहार करता भया जैसे उत्तरायणके सूय का अधिक प्रताप होय तो पुण्यकर्मके प्रभावसे रावणका दिन दिन अधिक तेज होता भया। अथानन्तर रावण ने सुनी कि राजपुरका राजा बहूत बलवान है अतिअभिमानको थरता हुवा किसीको प्रणाम नहीं कर है अर जन्मसे ही दुष्टचित्त है मिथ्या मार्गकर मोहित है अर जीव हिंसा रूप यज्ञ मार्गविषे प्रवर्ता है । तब यज्ञका कथन सुन राजा श्रेणिकने गौतम म्वाभीसे कहाहे प्रभो! रावण का कथन तो पोछे कहिये पहले यज्ञकी उत्पत्ति कहो यह कौन वृत्तांत है जिसमें प्राणी जीवघातरूप घोर कर्ममें प्रवरते हैं। तब गणधरने कही-'हे श्रेणिक! अयोध्याविष इक्ष्वाकुवंशी राजा ययाति उसकी राणी सुरकांता अर पुत्र वसु था सो जब पढ़ने योग्य भया तब क्षीरकदम्ब ब्राह्मणपे पढ़नको सौंपा, क्षीरकदम्बकी बहू स्वस्तिमती अर नारद ब्राह्मण देशान्तरी धर्मात्मा सो क्षीरकदम्बपे पढ़े अर क्षीरकदम्बका पुत्र पर्वत महापापी सो भी पढ़े। क्षीरकदम्ब अति थर्मात्मा सर्व शास्त्रोंमें प्रवीण शिष्यों को सिद्धांत तथा क्रियारूप ग्रंथ तथा मंत्रशास्त्र काव्य व्याकरणादि अनेक ग्रंथ पड़ावै । एक दिन नारद बसु अर पर्वत इन तीनों सहित हीरकदम्ब बनविले गए। वहां चारण मुनि शिष्यों सहित विराजे हुने सो एक मुनिने कहा-ये चार जीव हैं,-एक गुरु तीन शिष्य । तिनमें एक गुरु एक शिष्य यह दो सुबुद्धि हैं पर दो शिष्य कुबुद्धी हैं ऐसे शब्द सुनकर वीरकदम्ब संसारसे अत्यन्त भयभीत भए शिष्योंको तो संख दीनी सो अपने २ घर गए मानों गायके बछड़े बंधनसे छुटे अर वीरकदम्बने मुनि दीक्षा धरी । जव शिष्य घर आए तब क्षीरकदम्बकी स्त्री स्वस्तिमती पर्वतको पूछती भई-तेरा पिता कहां तू अकेले ही घर क्यों आया ? तब पर्वतने कही हमको तो सीख दीनी कर कहा हम पीछेसे आवै हैं यह वचन सुन स्वस्तिमती महाशोकवती होय पृथ्वीपर पड़ी अर रात्रिवि चकवीकी नाई दुख कर पीडित विलाप करती भई हाय हाय, मैं मंदभागिनी प्राणनाथ विना हती गई । किसी पापीने उनको मारा अथवा किसी कारणकर देशान्तरको उठ गए अथवा सर्वशास्त्रविषै प्रवीण थे सो सर्वपरिग्रहको त्याग र वैराग्य पाय मुनि होगए इस भांति बिलाप करते रात्रि पूर्ण भई। जब प्रभात भया तव पर्वत पिताको ढूढने गया । उद्यान में नदी के तट पर मुनियोंके संघ सहित श्रीगुरु विराजे हुते तिनके समीप विनयसहित पिता बैठा देखा तब पीछे जायकर मावासे कही कि हे मात ! हमारा पिता मुनियोंने मोहा है सो नग्न हो गया है। तब स्वस्तिमती निश्चय बानकर पतिके वियोगसे अति दुखी भई । हाथोंकर उरस्थल को कूटती भई अर पुकारकर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल-पगण रोवती भई सो नारद महाधर्माला यह वृत्तात सुनकर म्बनितमीप शोकका भरा आया उसे देखकर अत्यन्त रोक्ने लगी र सिर कूटनी भई, शोक वर्ष अपने बंधुको देखकर शोक अतीव बढे है । तब नारदने कही-हे माता! काहको वृथा शोक करो हो, वे धर्मात्मा जीव पुण्याधिकारी सुन्दर है चेष्टा जिनकी, जीतव्यको अस्थिर जान तप करनेको उद्यमी भए हैं सो निर्मल है बुद्धि जिनकी, अब शोक किएसे पीछे घर न आयें या भांति नारदने सम्बोधी तव किंचित् शोक मंद भया, घरमें निष्ठी, महा दुःखित भरतारकी स्तुति भी करै अर निंदा भी करै। यह तीरकदम्बके वैराग्यका वृत्तांत सुन राजा ययाति तत्वक वेत्ता वरः पुाको राज देय महामुनि भए वसन्ना राज्य पृथ्वीवि प्रसिद्ध भया, आकाशदुल्य स्फटिक मारण उनके सिंहासनके पावे बनाए उस सिंहासन पर तिष्ठना लोक जाने कि राजा सत्यके प्रतापारि आकाशविष निराधार तिष्ठै है। अथानन्तर हे श्रेणिक ! एक दिन नारदके अर पर्वतके चर्चा भई तब नारदने कही कि भगवान वीतराग देवने थर्म दाय प्रकार प्ररूपा है-एक मुनिका दूसरा गृहस्थीका। मुनिका महाब्रतरूप है गृहस्थी का अणुव्रतरूप है । जीयहिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनका सर्वथा त्याग सो पंच महाव्रत तिनकी पच्चीस भावना यह सुनिता धर्म है अर इन हिंसादिक पापोंका किंचित् त्याग सो श्रावकका व्रत है । श्रावकके व्रतों में पूजा दान शास्त्रविष मुख्य कहा है पूजाका नाम यज्ञ है "अजैर्यष्टव्यं" इस शब्दका अर्थ मुनियों ने इस भांति कहा है जो बोने से न उगें जिनमें अंकुर शक्ति नहीं ऐसे शालिय तिनका विवाहादिक क्रिया विष होम करिए यह भी आरम्भी श्रावककी रीति है ऐसे नारदके वचन मन पापी पर्वत बोला-अज कहिये छेला (बकरा) तिनका पालम्भन कहिये हिंसन उसका नाम यज्ञ हे । तब नारद कोपकर पर्वत दुष्ट से कहते भये-हे पर्वत ! ऐसें मत कहै, महा भयंकर वेदना जिसविष ऐसे नरकमें तू पड़ेगा। दया ही धर्म है, हिंसा पाप है। तब पर्वत कहने लगा मेरा तेरा न्याय राजा वसुपै होयगा जो झूठा होयगा उसकी जिह्वा छेदी जायगी । इस भांति कहकर पर्वत मातापै गया। नारदके अर याके जो विवाद भया सो सर्व वृत्तांत मातासे कहा तब माताने कहा कि तू झूठा है तेरा पिता हमने व्याख्यान कहता अनेकवार सुना है जो अज वोई हुई न उगे ऐसी पुरानी शालिय तथा पुराने यव तिनका नाम है छेलेका नही, जीवोंका भी कभी होम किया जाय है ? तू देशान्तर जाय मांसभक्षणका लोलुपी भया है । तें मानकं उदयसे झूठ कहा सो तुझे दुःखका कारण होयगा। हे पुत्र, निश्चयरं ती तरी जिह्वा दी जायगी। मैं पुण्यहीन अभागिना पाते अर पुत्ररहित क्या करूंगी इसभांति पुत्रसे कहकर वह पापिनी चितारती भई कि राजा वसके गुरुदाक्षणा हमारी धरोहर है ऐसा जान अति श्राकुल भई । वसुके समीप गई। राजान स्वस्तिमतीको देख बहुत विनय किया । सुखासन बैठाई हाथ जद बता भवा-हे माता, तुम आज दुखित दीखो हो जो तुम आज्ञा करो सोही करू । तब स्वस्तिमती कहती भई-हे पुत्र, मैं महा दुःखिनी हूं जो स्त्री अपने पविसे राहत होय उसको काहेका सुख, संसारमें पुत्र दो भांतिके हैं एक पेटका जाया, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवा पर्व एक शास्त्रका पढ़ाया । सो इनमें पढाया विशेष है एक समल है दूसरा निर्मल है। मेरे धनी के तुम शिष्य हो, तुम पुत्रसे अधिक हो, तुम्हारी लक्ष्मी देखकर मैं धीय धरूं हूँ। तुम कही थी माता दक्षिणा लेवो, मैं कही समय पाय लूंगी। वह वचन याद करो। जे राजा पृथ्वीके पालने में उद्यमी हैं ते सत्य ही कहै हैं अर जे ऋषि जीव दयाके पालने में तिष्ठे हैं ते मी सत्य ही कहै हैं तू सत्यकर प्रसिद्ध है मोको दक्षिणा देवो इस भांति स्वस्तिम्तीने कहा तब राजा विनयकर नम्रीभूत होय कहते भये-हे माता, तुम्हारी आज्ञासे जो न करने योग्य काम है सो मी मैं करूं जो तुम्हारे चित्तमें होय सो कहो । तव पापिनी ब्राह्मणीने नारद अर पर्वतके विवादका सर्व वृत्तांत कहा पर कहा मेरा पुत्र सर्वथा भूठा है परन्तु याके झूठको तुम सत्य करो, मेरे कारण उसका मान मंग न होय तब राजाने यह अयोग्य जानते हुए भी ताकी बात दुर्गतिका कारण प्रमाण करी सब वह राजाको आशीर्वाद देय घर आई, बहुत हर्षित भई । दुजे दिन प्रभात ही नारद पर्वत राजाके समीप आए, अनेक लोक कोतूहल देखनेको आए, सामन्त मन्त्री देशके लोग बहुत अाय भेले भए। तब सभाके मध्य नारद पर्वत दोनोंमें बहुत विवाद भया, नारद तो कहै अज शब्दका अर्थ अंकुरशक्तिरहित शालिय है अर पर्वत कहै पशु है तब राजा वसुको पूछा तुम सत्यवादियों में प्रसिद्ध हो जो क्षीर कदम्ब अध्यापक कहते हुते सो कहो । तब राजा कुगतिको जानेबाला कहता भया जो पर्वत कहै है, सोई क्षीरकदम्ब कहते थे। ऐसा कहते ही सिंहासनके स्फटिकके पाए टूट गये, सिंहासन भूमिमें गिर पड़ा। तब नारदने कहा हे वसु! असत्यके प्रभावसे तेरा सिंहासन डिगा अब भी तुझे सांच कहना योग्य है। तब मोहके मदकर उन्मत्त भया यह ही कहता भया जो पर्वत कहै सो सत्य है तब महा पापके मारकर हिंसामार्गके प्रवरतनसे तत्काल सिंहासन समेत धरतीमें गढ़गया । राजा मर कर सातवें नरक गया । कैसा है नरक ? अत्यंत भयानक है वेदना जहां, तब राजा ययुको मुवा देख सभाके लोग वसुअर पर्वतको धिक्कार २ कहते भये अर महा कलकलाट शब्द भया, दया धर्मके उपदेशसे नारदकी बहुत प्रशंसा भई अर सर्व कहते भये “यतो धर्मस्ततो जयः" पापी पर्वत हिंसाके उपदेशसे थिक्कार दण्डको प्राप्त भया, पापी पर्वत देशान्तरों में भ्रमण करता संता हिंसामई शास्त्रकी प्रवृत्ति करता भया, आप पहै, औरोंको पढावै जैसे पतंग दीपकमें पड़े तैसे कई एक बहिरमुख जीव कुमार्गमें पड़े । अभक्ष्यका भक्षण अर न करने योग्य काम करना ऐसा जोकनको उपदेश दिया अर कहता भया कि यज्ञहीके अर्थ ये पशु बनाये हैं, यज्ञ स्वर्गका कारण है तातें जो यज्ञमें हिंसा सो हिंसा नहीं अर सौत्रामणि नाम यज्ञके विधान कर सुरापान (शराब पीने) का भी दूषण नहीं अर गोयज्ञ नाम यज्ञमें अगम्यागम्य (परस्त्री सेवन) हू करे हैं ऐसा तिने लोकोंको हिंसादि मार्गका उपदेश दीया । आसुरी मायाकर जीव स्वर्ग जाते दिखाये कैएक कूर जीव कुकर्ममें प्रवर्तन कर कुगतिके अधिकारी भये । हे श्रेणिक ! यह हिंसायज्ञकी उत्पत्तिका कारण कहा । अब रावणका वृत्तति सुनो। रावण राजपुर गए जहां राजा मरुत हिंसा कर्ममें प्रवीण यज्ञशालाविर्षे तिढ़ था संवर्व १५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण नामा ब्राह्मण यज्ञ करावे था तहां पुत्र दारादि सहित अनेक विप्र धनके अर्थी आये हुते और अनेक पशु होम निमित्त लाये उस समय अष्टम नारद पदवीधर बड़े पुरुष आकाश मार्ग आय निकसे, वहुत लोकनका समूह देख पाश्चर्य पाय चित्तमें चिंतवते भए कि यह नगर किसका है जौर यह दूर सेना किसकी पड़ी है अर नगरके समीप एते लोग किस कारण एकत्र भए हैं ऐसा मनमें विचार आशिसे भूमि पर उतरे ॥ __ अथानन्तर यह बात सुन राजा श्रेणिक गौतम स्वामीसे पूछते भए-हे भगवान ! यह नारद कौन है यामै कैसे २ गुण अर याकी उत्पत्ति किस भांति है तब गणधरदेव कहते भए हे श्रेणिक ! एक ब्रह्मरुचि नामा ब्राह्मण था ताके कुरमी नामा स्त्री सो ब्राह्मण तापसके व्रत धर बनमें जाय कन्दमूल फल भक्षण करे ब्राह्मणी भी संग रहे, ताकों गर्भ रह्या । तहां एक दिन मार्गके वशत कुछ संयमी महा मुनि आये । क्षण एक विराजे । ब्राह्मग अर ब्राह्मणी समीप आय बैठे । ब्राह्मणी गर्भिणी पांडुर है शरीर जिसका गर्भके भारकर दुखिा स्वास लेती मानों सर्पिणी ही है, उसको देखकर मुनिको दया उपजी । तिनमेंसे बड़े मुनि बोने देखो यह प्राणी कर्मके वशकर जगत विषै भ्रमै है धर्मकी बुद्धिकर कुटुम्बको तजकर संसार सागरसे तरणके अर्थ तो वनविष श्राया सो हे तापस ! तैने क्ण दुष्ट कर्म किया ? स्त्री गर्भवती करी । तेरेमें अर गृहस्थीमें कहा भेद है ? जैसे वमन किया जो आहार उसे मनुष्य न भषै तैसैं विवेकी पुरुष तजे हुए कामादिक विषयोंको फिर न आदरै। पर जो कोई भेष धरै अर म्त्रीका सेवन करै सो भयानक वनमें स्याली होय अनेक कुजन्म पानी नरक गिोदमें पडे है, जो कोई कुशील सेवता सर्व प्रारम्भोंमें प्रवरता मदोन्मत्त आपको तापसी मानै है सो अन्यन्त अज्ञानी है। यह काम सेवन ताकर दग्ध दुष्ट चित्त जो दुरात्मा प्रारम्भविषै प्रवर्ते उनके ता काहेका ? कुदृष्टिकर गर्वित भेषधारी विषयाभिलाषी जो कहै मैं तापसी हूं सो मिथ्यावानी है, काहेका ब्रती । सुखसों बैठना सुख सोवना, सुखमू लाहार सुख हार, अोढना निछावना आदि सब काज करै अर आपको सधु माने सो मूर्ख आपको ठग है । बलना जो घर तहांतें निकसै फिर उसमें कैसे प्रवेश नरै अर जैसे छिद्र पाय पिंजरेसे निकसा पक्षी भी फिर आपको कैसे जिसवर्षे डरै तैपे रिक्त होय कि कौन इन्द्रियों के वश "रै जो इन्द्रियोंके वश होय मा लोकविष निंदा योग्य है, आत्मकल्याणको न पावै है । सर्व परग्रहके त्यागी मुनियोंको एकाग्रचित्त कर एक आत्मा ही ध्याने योग्य है सो तुम सारिखे प्रारंभी तिन कर आत्मा कैस ध्याया जाय ? प्राणियों के परिग्रहके प्रसंगकर राग द्वेष उपजै है रागसं काम उपजै है, द्वषसे जीवसा होर है, काम क्राप पीड़ित जो जीव उसके मनको मोह पीडै है, मूर्ख के कृत्य अकृत्यमें विवेक रूप बुद्ध न होय जी अविवेकसे अशुभकर्म उपार्जे है सो घो. संसार सागरमें भ्रमे है । यह संसादिदोष जानकर जे पंडित है वे.शीघ्र हो वैरागी होय हैं आपकारि आपको जान विषय बासनासे निवृत्त हाय परमधामको पावै हैं । इस भांति परमार्थरूप उपदेशोंके वचनों से महामुनि संबोधा । तब ब्राह्मण ब्रह्मरूचि निरमोही होय मुनि भया, कुरमी नामा स्त्रीका त्याग Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां पर्व ११५ 1 कर गुरु संग ही विहार किया । गुरुमें है धर्मराग जिसके अर वह ब्राह्मणी कुरमी शुद्ध है बुद्धि जिसकी, पाप कर्म से निवृत्त होय श्रावकके व्रत आदरे । जाना है रागादिकके वशमे संसारका परिभ्रमण जिसने कुल संग छोड़ा जिनराजकी मतिर होय भरताररहित अकेली महासती सिंहनी की नाई महावनविषै भ्रम, दसवें महिन पुत्रका जन्म हुआ तब इसको देखकर वह महानती ज्ञानक्रियाकी धरणहारी चित्तविषैती भई – यह पुत्र परिवारका सम्बन्ध महा अर्थात राजने कहा था सो सत्य है इसलिये मैं पुत्रका पसलका परित्यागकर आत्म कल्याण करू' अर यह पुत्र महा भाग्यवान है इनके रक्षक देव हैं इसने जे कर्म उपार्जे हैं तिनका फल अवश्य भोगेगा वनमें तथा समुद्रविषै अथवा वैरियोंके वश पड़ा जो प्राणी उसके पूर्वीपात कर्म ही रक्षा करे हैं अर कोऊ नहीं घर जिसकी आयु क्षीग होय है सो माता की गोवा ही मृयुके वश होय है, ये सर्व संसारी जीव क क आवन हैं। भगवान सिद्ध परमात्मा कर्मलं व हैं ऐसा जाना है तवज्ञान जिसने निगल बुकर बालकको वनतिजकर यह ब्रह्मणी विकल्परूप जो जड़ता तार रहित अलोकनगर आई जहां इन्द्रमालिनी नामा श्रार्या अनेक की गुरुनी थी तिनके समीप आर्या भई, सुन्दर हैं चेष्टा जिसकी । अथानन्तर प्रकाशके मार्ग भनाना देव जाने थे सो पुण्पाधिकारी रुदनादिरहित उन्होंने वह बालक देवा, दयावान होय उठा लिया, बहुत आदरसे पाला, अनेक आगम अध्यात्मशास्त्र पढाए, सिद्धान्तका राज्य जानने लगा, महापंडित भया आकाशगामिनी विद्या सिद्धर्भा, यौवनको प्रत भया, श्रावकके व्रत धारे, शीलत्रतविषै अत्यन्त दृढ अपने माता पिता जे आर्थिक मुनि भए थे तिनका करें, कैसा है नारद १ सम्यग्दर्शनविषै तत्पर ग्यारमी प्रतिमाके कुल्लक श्रावक व्रत लेय विहार किया परन्तु कर्मके उदयसे तीव्र वैराग्य नही, न गृहस्थी न संयमी, धर्म प्रिय है अर कलह भी प्रिय है, बाचालपनेमें प्रीति है गायन विद्यामें प्रवीण राग सुनने में विशेष अनुरगवाला है मन जाका महा प्रभावयुक्त राजाओंकर पूजित जिसकी आज्ञा कोई लोप न सके, पुरुष स्त्रियोंमें सदा जिसका श्रति सम्मान है, अढाई द्वीपविषै मुनि जिन चैत्यालयों का दर्शन करें, सदा धरती ग्राकाशविषै भ्रमता ही रहे कौतूहल में लगी है दृष्टि जिसकी देवनकर वृद्धि पाई र देवन समान है महिमा जिसकी, पृथ्वीविषै देव ऋषि कहावै सदा सर्वत्र प्रसिद्ध विद्या प्रभावकरि किया है अद्भुत उद्योत जिसन । सो नारद विहार करते संते कदाचित मरुतके यज्ञकी भूमि ऊपर आय निकसे सो बहुत लोकनकी भीड देखी अर पशु बंधे देखे तब दयाभावकर संयुक्त होय यज्ञ धूमेमें उतरे तहां जायकर मरुतसे कहने लगे – हे राजा ! जीवनकी हिंसा दुर्गतिका ही द्वार है, तैने यह महा पापका कार्य क्यों रचा है ? तच मरुत कहता भया - यह सम्वर्त ब्राह्मण सर्व शास्त्रोंक अर्थविषै rete यज्ञका अधिकारी है यह सर्व जाने है इससे धर्मचर्चा करो । यज्ञकर उत्तम फल पाइए है । तब नारद यज्ञ करावनवारसे कहते भए - अहो मानव ! तैंने यह क्या आरम्भा है, यह कर्म Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण सर्वज्ञ जो वीतराग हैं तिन्होंने दुख का कारण कहा है । तब संवर्त ब्राह्मण कोपकर कहता भया अहो अत्यन्त मूढता तेरी , तू सर्वथा अमिलिती बात कहै है । तैंने कोई सर्वज्ञ रागवर्जित वीतराग कहा सो जो सर्वज्ञ वीतराग होय सो वक्ता नहीं अर जो वक्ता है सो सर्वज्ञ वीतराग नहीं पर अशुद्ध मलिन जे जीव उनका कहा बचन प्रमाण नहीं अर जो अनुपम सर्वज्ञ है सो कोई देखने में नहीं आवै इसलिए वेद अकृत्रिम है वेदोक्त मार्ग प्रमाण है वेदविर्ष शुद्र विना नीन वर्णो को यश कहा है, यह यज्ञ अपूर्व धर्म है स्वर्गके अनुपम मुख देव है वेदके मध्य पशुवों का बथ पाप का कारण नहीं । शास्त्रों में कहा जो मार्ग सो कल्याण ही का कारण है अर यह पशुओं की सृष्टि विथाताने यज्ञ होके अर्थ रचो है ताते यज्ञमें पशुके वथका दोष नहीं है। ऐसे संवर्त ब्राह्मणके विपरीत वचन सुन नारद कहते भए-हे विप्र! तैने यह सर्व अयोग्यरूप कहा है। कैसा है तू ? हिंसामार्गसे दूपित है आत्मा जाका । अब तू ग्रन्थार्थका यथार्थ भेद सुन । तू कहै है सर्वज्ञ नहीं सो यदि सर्वथा सर्वज्ञ न होय तो शब्दसर्वज्ञ अर्थसर्वज्ञ बुद्धिसर्वज्ञ यह तीन भेद काहे को कहे । जो सर्वज्ञ पदार्थ है तो कहने में आवै जैसे सिंह है तो चित्राममें लिखिए है तातै सर्वका देखनेहारा सर्वका जाननेहारा सर्वज्ञ है । सर्वज्ञ न होय तो अमूर्तिक अतेंद्रिय पदार्थको कोन जाने तातें सर्वज्ञका वचन प्रमाण है पर तैने कहा जो यज्ञमें पशुका बध दोपकारी नहीं सो पशुको बध समय दुःख होय कि नहीं जो दुःख होय है तो पापह होय है जैसे पारधी हिंसा कर है सो जीवनको दुख होय है पर तैने कही विधाता सर्वलोकका कर्ता है अर यह पशु यज्ञके अर्थ बनाए हैं सो यह कथन प्रमाण नहीं। भगवान कृतार्थ उनको सृष्टि बनानेसे क्या प्रयोजन अर कहोगे अंसी क्रीडा हे सो क्रीड़ा है तो कृतार्थ नहीं बालक समान जानिए अर जो सृष्टि रचै तो आप सारखी रचै । वह सुख पिण्ड अर.यह सृष्टि दुःखरूप है। जो कृतार्थ होय सो कर्ता नहीं अर कर्ता होय सो कृतार्थ नहीं जिसके कछु इच्छा है सो करै जिनके इच्छा है ते ईश्वर नहीं है। ईश्वर विना समर्थ नहीं। तातें यह निश्चय भया जिसके इच्छा है सो करने समर्थ नही अर जो करने समर्थ है ताके इच्छा नहीं इसलिये जिसको तुम विधाता कर्चा मानो हो सो कर्मकर पराधीन तुम सारखा है भर ईश्वर है सो प्रमूर्तिक है, जिसके शरीर नहीं सो शरीर विना कैसे सृष्टि रचै । अर यज्ञके निमित्त पशु बनाए सो वाहनादि कर्मविर्षे क्यों प्रवर्ते तातें यह निश्चय भया कि इस भवसागरमें अनादिकालसे इन जीवोंने रागादि भावकर कर्म उपार्जे हैं तिनकर नाना योनिमें भ्रमण कर हैं यह जगत अनादि निधन है, किसीका किया नहीं, संसारी जीव कर्माधीन हैं अर जो तुम यह कहोगे कि कर्म पहले हैं या शरीर पहिले हैं ? सो जैसे पीज अर वृक्ष तैसे कर्म अर शरीर जानने । बीज से वृक्ष है अर वृक्षसे बीज है, जिनके कर्मरूप व ज दग्ध भया तिनके शरीररूप वृत्त नहीं पर शरीर वृक्ष विना सुख दुखादि फल नहीं इसलिए यह आत्मा मोक्ष अवस्थामें कर्मरहित मन इंद्रियों से अगोचर अद्भुन परम आनन्दको भोगे है । निराकार स्वरूप अविनाशी है सो यह अविनाशी पद दया धर्मसे पाइए है । तू कोई पुण्यके उदयकर मनुष्य हुवा ब्राम्हस्यका कर पाया तातें पारधियोंके कर्मसे निवृत्त हो अर जो जीवहिंसासे यह मानव स्वर्ग पाते हैं तो Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 . भ्यारहवां पर्चा हिंसाके अनुमोदनसे राजा वस नरकमें क्यों पडे ? जो कोई चूनका पशु बनाय कर पात करें है मो भी नरकका अधिकारी होय है तो माक्षात् पशुवातकी का वात ? अब भी यज्ञके करणहारे ऐमा शब्द कहै हैं हो वम् ! उठ स्वर्गविषै जावो । यह कहकर अग्निमें आहुति डार हैं। इससे सिद्ध हुआ कि वसु नरकमें गया अर स्वर्ग न गया तात हे संवर्त ! यज्ञ कल्याण का कारण नहीं अर जो तू यज्ञ ही करै तो जैसे हम कहें, सो कर । यह चिदानन्द आत्मा सो तो जजमान नाम कहिए यज्ञका करणहार अर यह शरीर है मो विन कुण्ड कहिए होमकुण्ड अर संतोष है सो पुरोडास कहिए यज्ञकी सामग्री पर जो सर्व परिग्रह सो हवि कहिए होमने योग्य वस्तु पर माधुर्य कहिए केश वेई दर्भ कहिए डाभ तिनका उपारना लोंच करना अर जो सर्व जीवोंकी दया सोई दक्षिणा अर जिसका फल सिद्धपद ऐसा जो शुक्लध्यान सोई प्राणायाम अर जो सत्यमहाव्रत सोई यूप कहिए यज्ञविष काष्ठका स्थंभ जिसमे पशुको बांधे हैं अर यह चंचल मन सोई पशु अर तपरूप अग्नि अर पांच इंद्रिय वेई समाधि कहिए ईधन । यह यज्ञ धर्मयज्ञ कहिए है अब तुम कहोहो कि यज्ञकर देवोंकी तृप्ति कीजिये है सो देवनकै तो मनसा आहार है तिनका शरीर सुन्धि य है अनादिक हीका आहार नहीं तो मांसादिककी कहा बात ? कैसा है मांस महा दुर्गध जो देखा न जाय, पिताका वीर्य माताका लोहू उसकर उपजा कृमीकी है उत्पत्ति जिसमें, महा अभक्ष सो मांस देव कैसे भखें अर तीन अग्नि या शरीरविणे हैं एक ज्ञानाग्नि दूसरी दर्शनाग्नि तीसरी उदराग्नि सो इन्हीं को आचार्य दक्षिणाग्नि गार्हएन्य आहवनीय कहे हैं डर स्वर्गलोकके निवासी देव हाड मांसका भक्षण करें तो देव काहेके ? जैसे स्थान माल काक तेस वे भी भए । ये वचन नारदने कहे। __ कैसे है नारद ? देवऋषि हैं अनेकांतरूप जिनमार्ग के प्रकाशिवेको सूर्यसमान महा तेजस्वी देदीप्यमान है शरीर जिनका, शास्त्रार्थ ज्ञानके निधान तिनको मन्दबुद्धि संवर्त कहा जीते। सो पराभवको प्राप्त भया तव निर्दई क्रोधके भारकर कम्पायमान आशीविष सर्पसमान लाल हैं नेत्र जिसके महा कलकलाट कर अनेक विप्र भेल होय लड़नेको काछर छ हस्तपादादिकर नारद के मारने को उद्यमी भए । जैसे दिनमें काक घूघू पर आवें सो नारद भी कयकोंको मुक्कासे, कैयकोंको कोहनीसे मारते हुये भ्रमण करते हुए अपने शरीररूप शस्त्रकर अनेकोंको इता बहुत युद्ध मया । निदान यह बहुत अर नारद अकेले सो सर्व गात्र में अत्यन्त शाकुलताकों प्राप्त भये। पक्षीकी न्याई वधकोंने घेरा, आकाशमें उड़नेको असमर्थ भए, प्राण संदेहको प्राप्त भए तासमय रावस्यका दूत राजा मस्तपै आया हुतासो नारदको घेरा देख पीछे जाय रावणसे कही-हे महाराज! जिसके निकट मुझे भेजा हुता सो महा दुर्जन है उसके देखते द्विजोंने अकेले नारदको घेरा है अर मारे हैं जैसे कीड़ीदल सर्पको धेरै सो मैं यह बात देख न सका सो आपको कहिनेको आया हूं। तब रावण यह वृत्तांत सुन क्रोधको प्राप्त भया, पवनसे भी शीघ्रगामी जे वाहन उनपर चढ़ चलने को उधमी भया अर नंगी तलवारोंके थारक जे सामन्त वे अगाऊ दौड़ाए सो एक पलकमें यज्ञशालामें जा पहुंचे सो तत्काल नारदको शत्रुवोंके घेरेसे छुड़ाया अर निरदई मनुष्य जो परामों Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पद्म-पुराण 1 को घेर रहे थे सो सकल पशु तत्काल छुड़ाये । यज्ञके ग्रुप कहिये स्तंभ तोड़ डारे र यज्ञके करावनहारे विप्र बहुत कुठे, यज्ञशाला बखेर डारी, राजा को भी पकड़ लिया, रावणने द्विजोंसे बहुत कौप किया जो मेरे राजने जीवघात कर यह क्या बात ? सो अँसे कूटे जो अचेत होय धरती पर गिर पड़े तब सुभटलोक इनको कहते भये अहो जैसा दुख तुमको बुरा लगे है अर सुख मला लगे है तैसा पशुवोंको भी जानों अर जैसा जीतव्य तुमको बल्लभ है तैसा सकल जीवोंको जानौ, तुमको कूटने कष्ट होय हैं तो पशुवों को विनाशनेस क्यों न होय ? तुम पापका फल सहोगे नरकमें दुख भोगोगे सो घोड़ों आदिकं सवार तथा खेचर भूचर सब ही पुरुष हिंसकों कों मारने लगे । तब वे विलाप करने लगे, हमको छोड़ो फिर सा काम न करेंगे ऐसे दीन वचन कह बिलाप करते भये र रावणका तिनपर अत्यन्त कोष सो छोड़े नह। तब नारद महा दयावान रावणसे कहने लगे हे राजन् ! तेरा कल्याण होवे, तेन इन दुष्टोंसे मुझे हड़ाया अब उनकी भी दयाकर, जिन शासन में काहूको पीड़ा देनी लिखी नहीं । सर्व जीवोंको जीतव्य प्रिय है । तैंने सिद्धांतमें क्या यह बात न सुनी है कि जो हुंडावसर्पगी कालविषै पाखण्डियोंकी प्रवृत्ति होय है जबकि चौथेकाल के श्रादिमें भगवान् ऋषभ प्रगटे तीन जगत् में उच्च जिनको जन्मते ही देव सुमेरु पर्वत पर ले गये, चीर सागर के जल से स्नान कराया, वे महाकांतिके धारी ऋषभ जिनका दिव्य चरित्र पापों का नाश करनेहारा तीन लोक में प्रसिद्ध हैं सो तैंने क्या न सुना, वे भगवान जीवो के दयालु जिनके गुण इंद्र भी कहने का समय नहीं, ते र्व तर निर्वाण के अधिकारी इस पृथ्वीरूप स्त्रीको तजकर जगत् के कल्याण निमित्त मुनिपदकी आदर भये । कैस हैं प्रभु ? निर्मल है आत्मा जिनका, कैसी है रूप रत्री १ जो विन्ध्याचल पर्वत पर हिमाचल पर्वत तेई हैं उतंग कुच जिसके और ग्रार्यक्षेत्र है मुख जिसका, सुन्दर नगर बेई चूड़े तिनकर युक्त है अर समुद्र हैं कटि मेखला जिसकी अर जे नीलवन तेई हैं सिरके केश जिसके नानाप्रकारके जे रत्न तेई आभूषण हैं । ऋषभदेव मुनि होकर हजारवर्ष तक महातप किया, अचल है योग जिनका लंचायमान हैं वाहु जिनकी, स्वामीसे अनुरागकर कच्छादि चार हजार राजादन मुलक धर्म जाने बिना दीक्षा धरी । सो परीषद सह न सके तत्र फलादिकका भय बक्कलादिकका धारणकर तापसी भए, आप देवने हजार वर्ष तक तपकर बटवृक्षकं तले केवलज्ञान उपजाया तब इ द्रादिक देवोंने केवलज्ञान कल्याण किया सोशरणकी रचना भई भगवान् की दि निकर अनेक जीव कृतार्थ भए ! जे कच्यादिक राजा चारित्र भ्रष्ट हुए थे ते श्रममं ढ़ हो गए, मारीचके दीर्घ संसारके योगसे मिया भाव न छूटा अर जिस स्थान पर भगवान को केवल ज्ञान उपजा ता स्थानक में देवों कर चैत्यालयों की स्थापना भई । ऋषभदेव की प्रतिमा पथराई र भरत चक्रवर्तीने विप्रवर्ण थापा सो वह जलविषे तेलकी बून्दवत् विस्तारकों प्राप्त भया । उन्होंने यह जगत मिथ्याचारकर मोहित किया, लोक अति कुकर्मविषे प्रवर्ते, सुकृतका प्रकाश नष्ट हो गया । जीव साधुओं अनादर में तत्पर भए । आगे सुभूम चक्रवर्ती नाशको प्राप्त किये थे तौ भी इनका अभाव न हुआ । हे दशानन ! तो तुझकर कैसे अभावको प्राप्त होवेंगे तातें तू 1 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवा पर्व प्राणियोंकी हिंसासे निवृत्त होहु । काहूकी कभी भी हिंसा कर्त्तव्य नहीं अर जब भगवानके उपदेशसे जगत मिथ्या मागस रहित न होय, काई एक जीव सुलटें तो हम सारिखे तुम सारिखों कर सकल जगत का मिथ्यात्व कैसे जाय ? कैसे हैं भगवान् ! सर्वके देखनहारे सर्वके जाननेहारे। या भांति देवर्षि जे नारद तिनके वचन सुनकर केकसी माता की कुक्षमें उपजा जो रावण सो पुराण कथा सुनकर अति प्रसन्न भया अर बारम्बार जिनेश्वरदेव को नमस्कार किया, नारद अर रावण महा पुरुपनी मनोज्ञ जे कथा उनके कथनकर क्षण एक मुखते तिष्ठ, महापुरुषोंकी कथा में नाना प्रकारका रस भरा है। अथानन्तर गजा मरुत हाथ जोड़ धरतीसे मस्तक लगाय रावणको नपकारकर बिनती करता भया-हे देव ! हे लंकेश !! मैं आपका सेवक हूँ आप प्रसन्न होउ मैं अज्ञानी अज्ञानियोंके उपदेशकर हिंमा मार्ग रूप खोटी चेष्टा करी सो क्षमा करो । जीवोंके अज्ञानकर खोटी चेष्टा होय, है, अब मुझे धमके मार्गमें लेवो अर मेरी पुत्री कनकप्रभा आप परणो जे संसार में उत्ता पदार्थ है तिनके अापही पात्र हो । तव रावण प्रसन्न भए । को हैं रावण ? जो नम्रीभूत होय उसमें दयावान हैं, तव रावणने पुत्री पाणी अताहि अपनो लियो । सो राबणाकी अतिवल्लभा भई। मरुतने रावणाके सामन-लोक बहुत पूजे नानाप्रकारके बत्राभूषण हाथी घोड़े थ दिये, कनकप्रभा सहित रावण रमता भया उसके एक ष वाद कृतचित्रनामा पुत्री भई, सो देखनेहारे लोकनको रूपकर आश्चर्यकी उपजावनहारी मनों मूर्तिवंत शोभा ही है । रावण के सामन्त महाशूरवीर तेजर्व जीतकर उपजा है उत्साह जिनके संपूर्ण पृथ्वीतल में भ्रमते भए । तीन खंडमें जो राजा प्रसिद्ध हुता पर बलवान सो रावण के योद्धाओंके आगै दीनताकों प्राप्त भगा, सबही राजा वश भए, कैसे हैं राजा ? राज्य के भंगका है भय जिनको, विद्याधर लोक भरतक्षेत्रका मध्य भाग देख आश्चर्यको प्राप्त भए । मनोज्ञ नदी मनोज्ञ पहाड़ मनोज्ञ बन तिनको देख लोक कहते भए अहो स्वर्ग भी यातें अधिक रमणीक नहीं, चित्तमें ऐसे उपजे है यहां ही वास करिये। समुद्र समान विस्तीर्ण सेना जिसकी ऐसा रावण जिससमान और नहीं। अहो अद्भुत धैर्य अद्भुत उदा. रसा इस रावणकी यह समस्त विद्याधरोंमें श्रेष्ठ नजर आये है या भांति समस्त लोक प्रशंसा कर हैं जिस देशमें रण गया तहां तहां लोक सनमुख आय मिलने भए जे जे पृथ्वीमें राजाओंकी सुन्दर पुत्री हु ते रापणने परणी । जिस नगरके समीप रावण जाय निकसे ताही नगरके नर नारी देखकर आश्चय प्राप्त होवें । स्त्री सकल काम छोड़ देखनेको दौड़ी, कैयक झरोखों में बैट ऊपरसे असीस देय फूल डारें । कैसा है रावण ? मेघसमान श्याम सुन्दर कन्दूरी समान लाल हैं अथर जाके पर मुकुटविषै नाना प्रकारकी जे मणि उनकर शोभै है सीस जिसका, मुक्ताफलोंकी ज्योति रोई भया जल ताकर पखारा है चन्द्रमा समान बदन जिम्का, इन्द्रनील मा समान श्याम सघन जे केश अर सहस्र पत्र मल समान नेत्र तत्काल बैंचा नम्रीभूत हुआ जो धनुष उसके समान वक्र स्याम चिकने भौंह युगल जिसकर शोभित है शंख समान ग्रीवा (गरदन) जिसकी अर शुषभ समान कन्ध जिसके, पुष्ट विस्तार्ण वक्षस्थल जाके, दिग्गजकी सूड समान भुजा जिसके, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण केहरी समान कटि जिसकी, अर कदलीके समान सुन्दर जंघा जिसकी, कमल समान चरण समचतुरस्रसंस्थानकको थरै, महामनोहर शरीर जिसका, न अधिक लंबा न अधिक छोटा, न कृश न स्थूल, श्रीवत्स लक्षणको आदि देय बत्तीस लक्षणोंकर युक्त अर अनेक प्रकार रत्नोंकी किरणोंकर दैदीप्यमान है मुकट जिसका अर नाना प्रकारकी मणियोंकर मण्डित मनोहर है कुण्डल जिसके, बाजूबन्दकी दीप्तिकर दैदीप्यमान हैं भुजा जिसकी श्रर मोतियोंके हारसे शोभै हैं उर जिसको, अर्थ चक्रवर्तीकी विभूतिका भोगनहारा । उसे देख प्रजाके लोक बहुत प्रसन्न भए । परस्पर वात करें हैं कि यह दशमुख महावजवान जीता है वैश्रवण जिसने अर जीता है राजा यम जिसने, कैलाशके उठानेका उद्यमी हुमा अर प्राप्त कराया है राजा सहस्ररश्मिको वैराग्य जिसने, मरुतके यज्ञका विध्वंस करणहारा, महा शूरवीर साहसका धारी हमारे सुकृतके उदयकर इस दिशाको पाया। यह केकसी माताका पुत्र इसके रूपका गुण कौन वर्णन कर सकै, इसका दर्शन लोकोंको परम उत्सवका कारण है, वह स्त्री पुण्यवती धना है जिसके गर्भसे यह उत्पन्न हुआ अर वह पिता धन्य है जिससे इसने जन्म पाया अर वे बन्धु लोक धन्य हैं जिनके कुलमें यह प्रगटा अर जे स्त्री इनकी राणी भई जिनके भाग्य कौन कहे । इस भांति स्त्री झरोखावोंमें बैठी वात करै हैं अर रावणकी असवारी चली जाय है । जब रावण आय निकसै तब एक मुहूत गांवकी नारी चित्रामीमी होय रहैं, उसके रूप सौभाग्यकर हरा गया है चित्त जिनका स्त्रियोंको अर पुरुषों को रावण की कथाके सिवाय और कथा न रही। देशोंमें तथा नगर ग्राम तथा गां के बाड़े तिनमें जे प्रथान पुरुष हैं नाना प्रकारकी मेंट लेकर आय मिले अर हाथ जोड़ नमस्कर र विनती करते भये-हे देव ! महा विभवके पात्र तुम, तुम्हारे घरमें सकल वस्तु विद्यमान है । हे राजावोंके राजा ! नन्दनादि वनमें जे मनोज्ञ वस्तु पाइए हैं वे सकल वस्तु चितवनमात्रसे ही तुमको सुलभ हैं औसी अपूर्व वस्तु क्या है जो तुम्हारी भेंट करें तथापि यह न्याय है कि रीते हाथोंसे राजाओंसे न मिलिये ताते कछु हम अपनी माफिक भेंट करैं हैं जैसे भगवान जिनेंद्रदेवकी देव सुवर्णके कमलोंकर पूजा करें हैं तिनको क्या मनु य आप योग्य सामग्रीकर न पूजे हैं या भांति नाना प्रकारके देशोंके सामन्त बड़ी ऋद्धिके थारी रावणको पूजते भये । रावण तिनका मिन्ट वचन सुनकर बहुत सन्मान करता भया । रावण पृथ्वीको बहुत सुखी देख प्रसन्न भया जैसे कोई अपनी स्त्र को नाना प्रकारके रत्न आभूषणकर मंडित देख सुखी होय । जहां रावण मार्गके वश जाय निकसे उस देशमें बिना बाहे थान स्वयमेव उत्पन्न भए, पृथ्वी अति शोभायमान भई प्रजाके लोक परम आनन्दको थरते संते अनुरागरूपी जलकर इसकी कीर्तिरूपी वेलको सींचते भए । कैसी है कीर्ति ? निर्मल है स्वरूप जिसका, किसान लोग ऐसे कहते भये कि बड़े भाग्य हमारे, जो हमारे देशमें रत्नश्रवाका पुत्र रावण आया। हम रंक लाग कृषिकर्ममें आसक्त रूखे अंग खोटे बस्त्र हाथ पग करकश क्लेशसे हमारा सुख स्वादरहित एता काल गया अब इसके प्रभावसे हम सम्पदादिकर पूर्ण भए। पुण्यका उदय आया, सव दुखोंको दूर करणहारा रावण पाया। . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां पर्व जिन जिन देशों में महा कल्याणा भरा विनरै वे देश सर्व सम्पदाकर पूर्ण होय । दशमुख दलिद्रियोंका दलिद्र देख न सके, जिनको दुःख मेटनेकी शक्ति नहीं तिन भाइयों कर कहा सिद्धि होय है यह तो सर्व प्राणियोंका बड़ा भाई हाता भगा । यह रावण अपने गुणोंकर लोगोंका अनुराय बढ़ावता भया। जिसके राज्यमें शीत अर उष्ण भी प्रजाको बाधा न कर सकें तो चोर चुगल बटमार तथा सिंह गजादिकोंकी बाथा कहांसे होय ? जिसके राज्यविषपान पानी अग्निकी मी प्रजाको बाधा न होय सर्व बाप्त सुखदायी ही होती भई। अथानन्तर रावणकी दिग्विजयविप वर्षा ऋतु आई मानो रावण से साम्ही आय मिली मानों इन्द्रने श्याम घट रूपी गज भेंट भेजी। कैसे हैं काले मेघ ? महा नीलाचल समान विजुरी रूप स्वर्णकी सांकल धरै अर बगुलोंकी पंक्ति भई ध्वजा, तिनसे शोभित हैं शरीर जिनके, इन्द्रधनुषरूप आभूषण पहरे। जब वर्षा ऋतु आई तर दशों दिशा में अन्धकार हो गया, रात्रिदिवसका भेद जान न पडै सो यह युक्त ही है श्याम होय सो श्या ता ही प्रगट करै। मेघ भी श्याम अर अन्धकार भी श्याम, पृथ्वीविष मेघकी मोटी धारा अखण्ड वरसती भई जो माननी नायकाके मनविणे मानका भार था सो मेघ गर्जन कर क्षणमात्रविष विलय गया अर मेघकी ध्वनिकर भयको पाई जे भामिनी वे स्वयमेव ही भरतारसे स्नेह करनी भई । जे शीतल कोमल मेघकी धारा वे पंथीन को बाणभावको प्राप्त भई, मर्मकी विदारणहारी धाराओं के समूहकर भेदा गया है हृदय जिनका असे पंथी महाव्याकुल भए मानों तीक्ष्ण चक्रकर विदारे गये हैं। नवीन जो वर्षाका जल उसकर जड़ताको प्राप्त भए पंथो क्षणमात्र में चित्राम कैसे हो गये पर जानिए कि क्षीरसागरके भरे मेव सो गायनके उदरविष बैठे हैं तातै निरन्तर ही दुग्धधारा वर्षे है । वर्षा के समय किसान कृषिकर्म को प्रवते हैं। रावणके प्रभावकर महा :धनके धनी होते नए रावण सबही प्राणियोंको महा उत्साहका कारण होता भया। गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं कि हे श्रेणिक ! जे पुण्याधिकारी हैं तिनके सौभाग्यका वर्णन कहां तक करिये । इन्दीवर कमल सारिखा श्याम रावण स्त्रियोंके चित्तको अभिलापी करता संता मानों साक्षात् वर्षा कालका स्वरूप ही है, गम्भीर है धनि जिसकी, जैसा मेघ गाजे तैसा रावण गाजै सो रावण की आज्ञासे सर्व नरेंद्र प्राय मिले, हाथ जोड़ नमस्कार करते भये । जो राजावोंकी कन्या महा मनोहर थों सो रावण को स्वयमेव बरती भई। वे रावण को बरकर अत्यन्त क्रीड़ा करती भई । जैसे वर्षा पहाड़को पायकर अति वरस । कैसी है वर्षा ? पयोधर जे मेघ तिनके समूह संयुक्त है अर कैसी है स्त्री ? पयोधर जे कुच तिनकर मण्डित है। कैसा है रावण पृथ्वीके पालनको समर्थ है। वैश्रवण यक्षका मानमर्दन करनहारा दिग्विजयको चढ़ा समस्त पृथ्वीको जीते सो उसे देखकर मानों सूर्य लज्जा अर भयकर व्याकुल होय दव गया। भावार्थ-वर्षाकालविषै सूर्य मेघ पटलकर आच्छादित हुआ अर रावणके मुख समान चन्द्रमा भी नाहीं सो मानों लज्जा कर चन्द्रमा भी दब गया क्योंकि वर्षाकालमें चन्द्रमा भी मेघमालाकर आच्छादित होय है अर तारे भी नजर नहीं आवै हैं मानों अपना पति जो चन्द्रमा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ पष्म-पुराण उसे रावणके मुखकर जीता जान भाग गये अर रविणकी हथेली अर पगथली अत्यन्त लाल भर रावणकी स्त्रियोंको अत्यन्त लाल जानकर लज्जावान होय कमलोंके समूह भी छिप गये मानों यह वर्षा ऋतु स्त्री समान है विजुरी तेई कटिमेखला जो इन्द्र धनुष वह पस्त्राभूषण, पयोथर :जे मेघ, तेही पयोधर कहिये कुच अर रावण महा मनोहर केतकी वास तथा पमिनी स्त्रियोंके शरीरको सुगन्ध इत्यादि सव सुगन्ध अपने शरीर की सुगन्वता कर जीतता भरा। जिसके .सुगन्ध श्वासरूप पवनके खेंचे भ्रमरोंके समूह गंजार करते भए । गंगाका तट जो अतिमनोहर है वहां डेरा कर वर्षा ऋतु पूर्ण करी । कैसा है गंगाका तट जहां हरित तृण शाभ हैं नाना प्रकारके पुष्पोंकी सुगन्धता फैल रही है। बड़े बड़े वृक्ष शोभै हैं । कैसा है रावण ? जगत् । बन्धु कहिये हितु है। अति सुख चातुरमास्य पूर्ण किया । हे श्रेणिक ! जे पुण्याधिकारी मनुष्ा हैं तिनका नाम श्रवणकर सर्वता: नस्कार करे हैं। अर सुन्दर स्त्रियोंके समूह सायमेव आय वरें हैं पर ऐश्वर्य के निवास परम विभव प्रगट होय हैं। उनके तेजकर सूर्य भी शतल होय है। भैसा जानकर आज्ञा मान संभप छोड़ पुण्यके प्रवन्धमें यत्न करो। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वननिकावि मरुनके काका वियत अर रागणके दिग्निजयका वर्णन करनेवाला ग्यारहनां पर्व पूर्ण भया !! ११ ॥ __ अथानन्तर रावण मंत्रियोंसे विनार करना भया एकान्तविध । श्री मत्रियो ! यह अपनी कन्य कृतचित्रा कोनको परनावें। इन्द्र : संधानने जीतने निश्चय नहीं तातै पुत्रीका पाणिग्रहण मंगल कार्य प्रथम करना योग्य है । तब रावणको पुत्रीके विवाहकी चिन्ताविष तत्पर जानकर राजा हरिवाहनने अपना पुत्र निकट बुलाया सो हरिवाहनके पुत्र को अति सुन्दराकार विनयवान् देखकर जीके परणायवेका मनोरथ किया । रावण अपने मनमें चिंतवता भया कि सर्व नीतिशास्त्रावेष प्रवीण अहो मथुरा नगरःका नाथ राजा इरिवाहन निरन्तर हमारे गुणकी कीतिविष प्रासक्त है मन जाका, इसका प्राणांसे भी प्यारा मधु नापा पुत्र प्रशंसायोग है। महाविनयवान् प्रीतिपात्र महारूपवान् अति गुणान् मेरे निकट पाया । तब मन्त्री रावण से कहते भये -'हे देव ! यह. मधु कुमार महापराक्रमी इसके गुण वन में न आवे तथापि कछुया कहें हैं इसके शरीरविले अत्यन्त सुगन्धता है जो सर्वलोकके मन को हरे ऐ है रूप जिका, इसका मधु नाम यथार्थ है-धुनाम मिष्टानका है सो यह मिष्टवादी है अर मधु. म नारका है सो यह मकरन्दसे भी अतिसुगन्ध है पर इसके एते ही गुण आप त जानो अमुरमा इन्द्रको चमरेंद्र तान इसको महा गुणरूप त्रिशूजरत्न दिया है। वह निशूरन वैरि बोरर डारा वृशा न जावै अत्यन्त देदीप्यमान है । आप इसके करतूत कर इसके जुग जानोहागे वचनोंने कहां लग कहें तातें-'हे देव ! यासे सम्बन्ध करनेकी बुद्धि करो। यह आपसे सम्बन्ध कर कृतार्थ होयगा. ऐसा जब मंत्रियोंने कहा तब रावणने इसको अपना जमाई निश्चय किया अर जमाई Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां पर्व १२३ योग्य जो गामिग्री सो उसको दीनी । बड़ी विभूतिते वसने अपनी पुत्री परणाई सर्व जोक afia भए । यह रावण की पुत्री साक्षात् लक्ष्मी महा सुन्दर शरीर पतिके मन और नेत्रोंकी हरनहारी जगत् देव सुगन्ध नाहीं ऐसे सुगन्ध शरीरकी धारनहारी इसको पायकर मधु प्रति प्रसन्न भगा || यानंतर राजा श्रेणिक जिनको कौतूहल उपजा वह गौतम स्वामीसे पूछते भए - हे नाथ ! सुरेन्द्र कौन कारण त्रिशूल रत्न दिया दुर्लभ है संगम जिसका । तत्र गौतम स्वामी जिनधर्मियोंसे हैं बाल्य जिनके, त्रिशूल की प्रातिका कारण कहते भए । हे श्रेणिक ! arrates नामाद्वीप तहां और वन क्षेत्र शतद्वारा नगर वहां दो मित्र होते भए । महा प्रेम का है बन्धन जिनके, एकका नाम सुभित्र दूसरेका नाम प्रभव । सो यह दोनों एक चटशाला में पढ़कर पंडित भए । कई एक दिनोंमें सुमित्र राजा भया, सर्व सामन्तोंकर पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से परम उदयको प्राप्त भया अर दूजा मित्र प्रभव सो दलिद्र कुल में उपजा महादलिगी । सो सुमित्रने महास्नेहसे अपनी बराबर कर लिया। एक दिन राजा सुमित्रको दुष्ट घोड़ा हरकर बनमें लेगया। वहां दुतिदृष्टिनाम भीलोंका राजा सो इसको अपने घर लेगया उसको बनमाला पुत्री पराई को वह बननाला माचात् वनलक्ष्मी, उसको पारा राजा सुमित्र अति प्रसन्न हुवा । एक मास वहां रहा । बहुरि मौलोंकी सेना लेकर स्त्रीसहित शतद्वार नगर में वे था पर प्रभव दुइनको निकसा सा मार्ग में स्त्रीसहित मित्रको देखा । कैसी है वह स्त्री मानों कामकी पताका ही है । तो देखकर यह पाप प्रभव मित्रकी भार्याविषै मोहित भया, अशुभ कर्मके उदय से नष्ट भई हैं कृत्य अकृत्पकी बुद्धि जिसके, प्रभव कामके वाणों कर बीधा हुवा अति श्राकुलताको प्राप्त भया आहार द्रादिक सर्व विस्मरण भया, संसार में जेवी व्याधी हैं तिनमें मदन बड़ा व्याधि है जिसकर परम दुख पाइये है जैसे सर्व देवनिमें सूर्य प्रधान है तेस सर्व रोगों के मध्य मदन प्रधान हैं। सुत्र की खेट खिन्न देख पूछते भए - हे मित्र ! तू खेदखिन्न क्यों हैं ? तब यह मित्र को कहने लगा जो तुम वनमाला पाणी ताको देख कर चित व्याकुल भया है । यह बात सुन कर राजा सुमित्र, मित्र में हैं अति स्नेह जिसका, अपने प्राण समान मित्रको पनी स्त्रीके निमित्त दुखी जान स्त्रीको मित्र के घर पठावता भया । अर आप आपा छिपाय मित्र के झरोखे में जाय बैठा कर देखे कि यह क्या करें जो मेरी स्त्री याकी आज्ञा प्रमाण न करें. तो में स्त्रीका निग्रह करू' अर जो इसकी याज्ञा प्रमाण करे तो सहस्र ग्राम दूं । रुनमाला रात्रि के समय प्रभवके समीप जाय बैठी । तब प्रभव पूछता भया - हे भद्रे ! तू कौन हैं । तब इसने विवाह पयंत सर्व वृत्तान्त कहा । सुन कर प्रभव प्रभारहित हो गया, चित्तविषै अति उदास भया । विचार है- हाय ! हाय ! मैं यह क्या अशुभ भावना करी, मित्रकी स्त्री माता ममान कौन वांछे है, मेरी बुद्धि भ्रष्ट भई, इस पाप से मैं कब छुटू' । बने तो अपना सिर काट डारू, कलंकयुक्त जीने कर क्या ? ऐसा विचार मस्तक काटनेके अर्थ म्यान से खड्ग काढया । खड्गकी कांति कर दशों दिशाविषै प्रकाश हो गया तब तलवारको कण्ठके समीप लाया और सुमित्र झरोखे में बैठा हुता सो कूद कर आय Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पद्म-पुराण हाथ पकड़ लिया, मरतेको बचाय लिया, छातीसे लगाय कर कहने लगा- हे मित्र ! आत्मघात का दोष तू न जाने है । जे अपने शरीरका अविवि से निपात करे हैं ते शुद्र मर कर नरकमें जाय पडे है । अनेक भव अल्प आयुके धारक होय हैं। यह आत्मघात निगोद का कारण है । या भांति कहकर मित्रके हाथसे खड्ग छीन लीना अर मनोहर वचनकर बहुत सन्तोषा अर कहने लगा कि हे मित्र ! अब आपसमें परस्पर परममित्रता है सो यह मित्रता परभव में रहे कि न रहै । यह संसार असार है। यह जीन अपने कर्मके उदय कर भिन्न भिन्न गतिको प्राप्त होय है या संसारमें कौन किसका मित्र श्रर कौन किसका शत्रु है सदा एक दशा न रहे । यह कहकर दूसरे दिन राजा सुमित्र महामुनि भए, पर्याय पूर्खकर दूजें स्वर्ग ईशान इंद्र भए तहांसे वय कर मथुरा में राजा हरिवाहन जिसके राणी माधवी तिन मधुनामा पुत्र भए । हरिवंश रूप आकाशविषै चंद्रमा समान भए अर प्रभव सम्यक्त्व विना अनेक योनियों में भ्रमणकर विश्वावसुकी ज्योतिष्मती जो स्त्री ताकै शिखी नामा पुत्र भया सो द्रव्यलिंगी मुनि होय महा त कर निदानयोगसे असुरों के अधिपति चमरेंद्र भए । तब अवधिज्ञानकर अपने पूर्वभव विचार सुमित्र नामा मित्रके गुण ऋति निर्मल अपने मन धरे । सुमित राजाका यतिमनोज्ञ चरित्र चितारकर असुरेंद्र का हृदय प्रीतिकर मोहित भया, मनांवर्षे विचारा कि राजा सुमित्र महागुणवान मेरा परम मित्र हुता सर्वकार्यों में सहाई था उस सहित मैं चटशालाचिषे विद्या पड़ा, मैं दरिद्री था उसने आप समान विभूतिवान किया अर मैं पापी दृष्टचित्तने उसकी स्त्रीविषै खोटे भाव किए तो हू उसने द्वेष न किया स्त्री मे घर पठाई मैं मित्रकी स्त्री को माता समान जान यति उदास होय अपना शिर खड्गसे काटने लगा तब उस हीने थाम लिया पर मैने जिन शासन की श्रद्धा विना मरकर अनेक दुख भोगे अर जे मोक्षमार्ग के प्रवरतनहारे साधु पुरुष तिनकी निंदा करी सो कुयोनिर्विषै दुख भोगे अर वह मित्र मुनित्रत श्रौंगीकारकर दूजे स्वर्ग इन्द्र भया तहांसे चयकर मधुरापुरीविषै राजा हरिवाहनका पुत्र मधुवाहन हुआ है पर मैं विश्वावसुका पुत्र शिखीनामा द्रव्यलिंगी मुनि होय सुरेन्द्र भया । यह विचार उपकारका खेंचा परम प्रेम कर भीगा है मन जाका अपने भवनसे निकसकर मध्यलोकविषै आया मधुवाहन मित्र से मिला । महा रत्नोंसे मित्रका पूजन किया सहस्रांत नामा त्रिशूलरत्न दिया । मधुवाहन चमरेंद्र को देखकर बहुत प्रसन्न भया फिर चमरेंद्र अपने स्थानको गया । : हे श्रेणिक ! शस्त्र विद्या का अधिपति सिंहोंका है बाहन जिसके ऐसा मधुकुमर हरिवंशका तिलक, रावण है श्वसुर जिसका सुखसों तिष्ठ । यह मधुका चरित्र जो पुरूष पढ़ें सुने सो कांतिको प्राप्त होय अर या सर्व अर्थ सिद्ध होय | अथानन्तर मरुतके यज्ञका नाश करणहारे जो रावण सो लोकविषै अपना प्रभाव विस्तारता हुवा शत्रुत्रों को वश करता हुआ अठारहवर्ष विहार कर जैसे स्वर्ग में इन्द्र दर्प उपजावै तैसे उपजावता पृथिवीका पति कैलाश पर्वत समीर आए तहां निर्मल जल है जिसका ऐसी मन्दाकिनी कहिये गंगा समुद्र की पटराणी कमलन के मकरन्दकर पीत है जल जिसका, ऐसी गंगा के वीर कटकके डेरे कराए और आप कैलाशके कच्छ में क्रीडा करता भया । गंगाका स्फटिक Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवा पर्व समान जल निर्मल उसमें खेचर भूचर जलचर क्रीडा करते भये। जे घोडे रजमें लोटकर मलिन शरीर भए हुते गंगामें निहलाय जलपान कराय फिर ठिकाने लाय बांधे, हाथी सपराए । रावण बालीका वृत्तान्त चितार चैत्याल पोंको नमस्कार कर धर्मरूप चेष्टा करता तिष्ठा। अथानन्तर इन्द्रने दुलधार नामा नग में नलकूबर नामा लोकपाल थारा हुता सो रावम को हलकारों के मुखत नजीक पाया जान इन्द्र के निकट शीघ्रगामी सेवक भेजे और सर्व वृत्तत लिखा जो रावण जगतको जीतता समुद्ररूप सेनाको लिए हमारी जगह जीतनेके अर्थ निकट आय पड़ा है या ओरके सर्वलोक कम्पायमान भए हैं सो यह सम चार लेकर नलकूबरके इनबारी मनुष्य इन्द्रके निकट पाए, इन्द्र भगवानके चैत्याल की बन्दनाको जाते हुते सो मार्गविष इन्द्र को पत्र दिया। इंद्रने यांचकर सर्व रहस्य जानकार पीछे जबाब लिखा जो मैं पडुकवनके चैत्यालयों की बन्दनाकर श्राऊ हूं इतने तुम बहुत यत्नमे रहना, अमोघःस्त्र कहिए ख ली न पड़े ऐसा जो शस्त्र उसके धारक हो अर मैं भी शीघ्र ही आऊ हूं ऐस. लिखकर बन्दनाविषै आसक्त है मन जाका वैरियोंकी सेनाको न गिनता हुआ पांडुकवन गया पर नलकूपर लोकपालने अपने निज वर्गसे मन्त्रकर नगरकी रक्षामें तत्पर विद्यामयी सौ योजन ऊंचा बज्र गालामा कोट बनाया, प्रदक्षिणाकर तिगुणा । रावणने नलकूबरका नगर जाननेके अर्थ प्रहस्त नामा सेनापति भेजा सो जायकर पीछे आय रावणसे कहता भवा-हे देव ! मायामई कोटकर मण्डित वह नगर है सो लिया न जाय । देखो प्रत्यक्ष दीखे है सर्व दिशाओंमें भयानक विकराल दाढको धरे सर्प समान शिखर जिसके अर बलता जो सघन बांसनका वन उस समान देखी न जाय ऐसी ज्वालाके समूहकर संयुक्त, उठे हैं स्फुलिंगोंकी राशि जिसमें अर याके यंत्र बैतालका रूा धरै विकराल हैं दाढ जिसकी, एक योजनके मध्य जो मनुष्य आवै ताको निगल हैं, तिन यंत्रविष प्राप्त भए जे प्राणियोंके समूह तिनका यह शरीर न रहे, जन्मान्तरमें और शरीर धरै । ऐसा जानकर आप दीर्घदर्शी हो, सो या नगरके लेनेका उपाय विचारो। तब रावण मत्रियोंसे उपाय पूछने लगे सो मन्त्री मायामई कोटके दूर करनेका उपाय चिंतवते भए। कैसे हैं मन्त्री ? नीति शास्त्रविष अति प्रवीण हैं। अथानन्तर नलकूर की स्त्री उपरम्भा इन्द्रकी :अप्सरा जो रम्भा ता समान है गुण अर रूप जाका पृथ्वीविष प्रसिद्ध, सो रावणको निकट आया सुन अति अभिल पा करती भई। आगे रावण के रूप गुण श्रवणकर अनुरागवती थी ही, सो रात्रिवि अपनी सखी विचित्रमाला को एकांवमें एसे कहती भई-हे अन्दरी ! मेरे तू प्राण समान सखी है, तुझ समान और नहीं। अपना अर जिसका एक मन होय उस को सखी कहिए, मेरेमें अर तेरेमें भेद नहीं, तात हे चतुरे! निश्चयसे मेरे कार्यका साथन तू करै तो तुझे अपनी जी की बात कहूं । जे सखी हैं ते निश्चयसेती जीतव्यका अवलम्बन होय हैं जब ऐसे रानी उपरम्भाने कहा तब सखी विचित्रमाला कहती भई-हे देवी! एती वात क्या कहो ? हम तो तिहारे आज्ञाकारी जो मनवांछित कार्य कहो सोही करें । मैं आपन मुख से अपनी स्तुति क्या करू', अपनी स्तुति करना लोकविषे, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण निंद्य है, वहुत क्या कहूं महि तुम मूर्तिवती साक्षात् ६. यकी सांद्ध जानो। मेरा विश्वासकर तुम्हारे मनविषे जो होय सो कहो । हे स्वामिनी ; हमारं होते तोहि खेद कहा, तब उपरम्भा निश्वास लेकर कपोलविणै कर धर मुखमेंसे न निकसते जो वचन उसे बारम्बार प्रेरणाकर बाहिर निकासती भई । हे सखी ! वालपने हीसे लेकर मेरा मन रावणविणे अनुरागी है, मैं लोकविणे प्रसिद्ध महा सुन्दर ताके गुण अनेक वार सुने हैं सो मैं अन्तरायके उदयकर अबतक रावणके संगमको प्राप्त न भई चित्तविष परम प्रीति धरू हूं और अप्राप्तिका मेरे निरंतर पछताना रहै है । हे रूपिणी; मैं जानू हूं यह कार्य प्रशंसा योग्य नाही, नारी दूजे नरके सयोगसे नरकविणे पडै है, तथ पि मैं रणको सहि समर्थ नहीं जाते हैं मिश्रभाषिणी ; मेरा उपाय शीघ्र कर । अब वह मेरे मनका हरणहारा निकट आया है । किसी भांनि प्रसन्न होय मेरा उससे संयोग कर दे, मैं तेरे पायन पडूहूँ। ऐसा कहकर वह भामिनी पांय परने लगी, तब सखीने सिर थांभ लिया कार यह की कि हे स्वामिनः ; तुम्हारा कार्य क्षमात्रविणे सिद्ध करू। यह कह कर दती घरसे निकसी, जाने है सकल इन वातनकी रीति, अति सूक्ष्म श्याम वस्त्र पहरकर आकाशके मार्ग रावणाके डेरेविणे याई, राजलोकमें गई, द्वारपालो पन आगमनका वृत्तान्त कहकर रावणके निट जाय प्रणाम किया, अज्ञा पय बैठकर विनती करती भई-हे देव ; दोपके प्रसंगते रहित तिहारे सकल गुणोंकर गह सकल लोक व्याप्त हो रहा है, तुमको यही योग्य है श्रति उदार हैभव तिहाग, या पृथ्वी विणे सब हीको तृप्त करो हो, तुम सबके आनन्द निमित्त प्रगट भए हो । प्राकार देख कर य: मनधिले जानिए है कि तुम काहू की प्रार्थना भंग न करी हो, तुम बड़े दातार सबके अर्थ पूर्ण करो हो, तुम सारिखे महन्त पुरुषों की जो विभूति है तो परोपकार हीके अर्थ है सो आप सबको विदा देकर एक क्षण एकांत विराजकर चिच लगाय मेरी रात सुनो तो मैं कहूं । तब रावणने ऐसा ही किया तब याने उपरम्माका सकल वृत्तांत कानविगै कहा। तब रावण दोनों हाथ कानन पर धर सिर धुनि नेत्र संतोच केकमी मानाके पुत्र पुरुषों विष उत्तम सदा श्राचारपरायण कहते भए । हे भद्रे ! क्या कही ? यह काम पापके बंधका कारण कैसे करने में आवै ? मैं परनारियों को अंगदान करनेलिपै दरिद्री हूँ ऐसे कर्मों को धिक्कार होवे । तैंने अभिमान तजकर यह बात कही परन्तु जिनशासनकी यह आज्ञा है कि विधवा अथवा थनीको राणी अथवा कुव.री तथा वेश्या सर्व हो परनारो सदा काल सर्वथा तजनी। परनारी सवती है तो क्या, १६ कार्य इस लोक अर परलाकका विरोधी विवेकी न करें, जो दोनों लोक भ्रष्ट करै सो काहेका मनुष्य, हे भद्रे ! परपुरुषकर जाका अंग मर्दित भया ऐसी जो परदारा सो उच्छिष्ट भोजन समान है ताहि कौन नर अंगीकार करै ? यह बात सुन विभीष महामन्त्री सफल नयके जाननहारे राजविद्याविष श्रेष्ठ है बुद्धि जिनकी, रावणको एकांना कहते भए-हे देव ! राजाओंके अनेक चरित्र हैं काहू समय काह प्रयोजन के अर्थ किंचिदमात्र अलाक भी प्रतिपादन करे हैं तातें आप या अत्यन्त रूखी बात मत कहो। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ बारहवां पर्व वह उ: रम्भा वश भई सन्ती कछु गढक लेनेका उपाय कहेगी। ऐसे वचन विभीषणके सुनकर रायण राजविद्या निपुण मायाचारी विचित्रमाला सखीसे कहते भए, हे भद्रे वह मेरेमें मन गखें है अर मरे बिना अत्यन्त दुखी है तातें बाके प्राणोंकी रक्षा मुझकू करनी योग्य है सो प्राणोंसे न छूटे या प्रकार पहले उसको ले श्रावो, जीवोंके प्राणोंकी रक्षा यही धर्म है ऐसा कह कर सखीको सीख दीनी सो जायकर उपरम्माको तत्काल ले आई, रावणने याका बहुत सन्मान किया । तब वह मदन सेवनकी प्रार्थना करती भई । रावणने हो-हे देवी! दुर्लघ नगरावर्षे मेरी रमणेकी इच्छा है ! यहां उद्य नावे कहा मुख ? ऐसा करो जो नगरमें मैं उन सहित रमूं। तब वह कामातुर उसकी कुटिलताको न जानकर स्त्रियोंशा मूढ स्वभाव होय है, तान ताने नगरके मायामई कोट भवनका आय मानका नाम विद्या दीनी । पर बहुआदरसे नाना प्रकारके दिव्य शस्त्र दिए । देवोंकर करिए दै रक्षा जिनकी, तब विद्याके लाभसे तत्काल मायामई कोट जाता रहा जो सदाका कोट था माही रह गया तब रावण बडी मेनाकर नग के निकट गया अर नगर के कोलाहल शब्द सुनकर राजा नलकूवर क्षोभको प्राय भवा मायामई कोटको न देखकर निषाद मन भया र जाना कि रावणने नगर लिया तथापि महारुपार्थको थरता हुआ युद्ध करने को बाहिर निसा, अनेक सामन्तों सहित परस्पर शस्त्ररके समूहसे महासंग्राम प्रवरता जहां सूर्यके किरण भी नजर न आवै, क्रूर हैं . जहां । विभोपणन शीघ्र ही लातको दे नलकूररका रथ तोड़ डाला अर .लकूपरको पकड़ लिया जै.. रा.णने सहस्रकिर को पकड़ा था तैसे विभीषणने नलकूबरको पकड़ा। रावणकी आयुधालाटिपै मुशनचर उजा | उपरम्भा को रावणने एकांत कही-जो तुम विद्यादानसे मेरे गुराणी हो अर तुमको यह योग्य नहीं जो अपने पति को छोड़ दूना पुरुष सेवा अर सुरू भी अन्याय मार्ग सेरना योग्य नहीं। या भांति याकौं दिलासा करी । नलकूवरको इसके अर्थ छोड़ा । कैसा है नर कूकर ? शस्त्रोंसे विदारा गया है वखतर जिसका, लगा है शरीरके घाव जिसके, रावणने उपरम्भासे कही-इस भरतारसहित मनवांछित भोग कर। कामसेवनविष पुरुषों में क्या भेद है कर अयोग्य कार्य करनेसे तेरी अकति होय अर मैं ऐकलं वो और लोग भी इस मानव प्रयते । पृथतीविष अन्याय की प्रवृत्ति होय अर तू राजा आकाशध्वजकी बेटी तेरी माना मृदुकांना मो तू विमलकुलविष उपजी शीलक र ख र योग्य है। या भांति रावणने कही तब उपरम्भा लज्जामान भई अपने भरतारविष सतप किया अर नलकूबर भी स्त्री का व्यभिचार न जान स्त्रीसहित रमता भया अर राम्ण बहुत सन्मान पाया। रावणकी यही रीति है कि जो आज्ञा न मानै ताका पराभव करै अर जो आज्ञा मान उसका सन्मान करै अर युद्धविर्ष मारा जाय सो भारा जावों अर पकड़ा आवै ताको छोड़ दे । राणने संग्रामविष शत्रुओंके जोतनसे बड़ा यश पाया, बड़ी है लक्ष्मी जिसके, महासेनाकरसंयुक्त वैताड़ पर्वके समीप जाय पड़ा। तब राजा इद्र रावणको समीप आया सुन कर अपन उमराव जे विद्याधर देव कहावें तिन समस्त ही से कहता भवा हो विश्वती आदि देव हो युद्धकी तैय्यारी करो, कहा विश्राम Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल-पुराण ~ ~ कर रहे हो । राक्ष का अधिपति अावा । यह कह कर इन्द्र अपन मिला जो श्रीसहश्रार तिनके समीप सलाह करनेको गया । नमस्कार र बहुत विनयसंयुक पृथिवी पर बैठ वापसे पूछी हे देव ! बैरी प्रबल अनेक शत्रुओंका जतनहारा निकट आया है सो क्या कर्तव्य है ? हे तात ! मैंने काम बहुत विरुद्ध किया जो यह वैरी होता ही प्रलयको न प्राप्त किया, कांटा उगता ही होठनसे टूटे अर कठोर परे पीछे चुभै, रोग होता ही मटे तो सुख उपजै अर रोगकी जड़ अर्थ तो कटना कठिन है तैसे चत्री शत्रुजी वृद्धि होने न दे । मैं इसके निपात का अनेक बेर उद्यम किया परन्तु आपने वृथा मने किया तब में क्षमा करी । हे प्रभो ! मैं र जनीतिके मागसे विनती करू हूं । याके मारने में असमर्थ नहीं हूं। ऐरो गर्व अरोधके भरे पुत्रके वचन सुनकर सहस्रारने कही -हे पुत्र ! तू शीघ्रता मत कर, अपने जेष्ठ मंत्री हैं तिनसे मंत्र विचार । जे विना विचारे कार्य करें हैं तिनके कार्य विफल होय हैं अर्थ की सिद्धिका निमित्त कंवल पुरुषार्थ नहीं है । जैसे कृषिकर्मया है प्रयोजन जिसके ऐसा जो किमान उसके मेघकी वृष्टि विना क्या कार्य सिद्ध होय १ अर जैसे चटशालामे शिष्य पढ़े हैं सब ही विद्याको नाहे हैं परन्तु कर्मके वशते काहू को सिद्धि न होय तातें केवल पुरुषार्थसे ही सिद्धि न होय । अब भी रावणसे मिलाप कर जब वह अपना भगा तब तु पृथिवीका निःकंट राज्य करेगा पर अपनी पुत्री रूपवती नामा महा रूपवती रावण को परणाय इसमें दोष नहीं। यह राजावों की रीति ही है। पवित्र है बुद्धि जिनकी ऐसे पिताने इन्द्रको न्याय रूप वार्ता कही परन्तु इन्द्रके मनमें न आई । क्षणमात्र में रोषकर लाल नेत्र हो गये, क्रोधकर पसेव ायगया, महा क्रोधरूप बाणी कहता भया -हे तात ; मारने योग्य वह शत्रु उसे कन्या कैसे दीजे, ज्यों ज्यों उमर अधिक होय त्यों त्यों बुद्धि क्षण होय है तातें तुम योग्य बात न कही। कहो मैं किससे घाट हूँ, मेरे कौन वस्तुकी कमी है जिससे तुमसे असे कार वचन कहे, जिस सुमेरुके पायन चांद बर्य लग रहैं सो उतंग सुमेरु कैसे और न । जो वह रावण पुरुषार्थकर अधिक है तो मैं भी उससे अत्यन्त अधिक हूं अर देव उसके अनुकूल है तो यह बात निश्चय तुम कैसे जानी अर जो कहोगे उसने बहुत वैरी जीते हैं तो अनेक मृगतको हतनेहारा जो सिंह उसे क्या अष्टापद न हनै । हे पिता ; शास्त्रनके सम्पात कर उपजा है अग्निका समूह जहां असे संग्रामने प्राण त्यागना भला है परन्तु काहूसे नम्रीभूत होना बड़े पुरुषोंको योग्य नाहीं । पृथिवी पर मेरी हास्य होय कि यह इंद्र रावणसे नम्रीभूत हुवा, पुत्री देकर मिला सो तुमने यह तो विचारा ही नहीं अर विद्याथरपनेकर हम पर वह बराबर हैं परन्तु बुदे पराक्रम में वह मेरी बराबर नहीं जैसे सिंह पर स्याल दोऊ वनके निवासी हैं परन्तु पराक्रममें सिंह तुल्य स्थाल नाही, असे पितासे गर्व के वचन कहे। पिताकी बात मानी नहीं। पितासे विदा होयकर आयुधशालामें गये, क्षत्रिगेको हथियार बांटे अर वक्तर बांटे पर सिंधूराग होने लगे, अनेक प्रकारके वादित्र बाजने लगे अर सेनामें यह शब्द हुवा कि हाथियोंको सजावो, घड़ों के पलान कसो, रथोंके घाड़े जोड़ो, खड़ा बांधो, वक्तर पहरो, धनुष बाण लो, सिर टोप थरो, शीघ्र ही खंजर लावो इत्यादि शब्द देवजातिके विद्याथरोंके होते भये । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां पर्व अथानन्तर योधा कोपको प्राप्त भये, ढोल बाजने लगे, हाथी गाजने लगे, घोड़े हीसन लगे और थनुपके टंकार होनेलगे योधाओंके गुजार होने लगे और बंदीजन विरद बखानने लगे जमत शब्दमई होगा सर्वदिशा तरवार तथा तोमर जातिके शस्त्र तथा पांसिन कर ध्वजावोंकर शस्त्रों कर और धनुषोंकर आच्छादित भई और सूर्य भी अाच्छादित हो गया। राजा इन्द्रकी सेनाके जे विद्याधर देव कहावें थे समस्त रथनूपुरसे निकसे । सर्वसामग्री धरें युद्धके अनुरागी दरवाजे आय भेले भये । परस्पर कहै हैं रथ आगे कर, माता हाथी आया है । हे महावत ! हाथी इस स्थान से परेकर । हे घोड़े के सवार ! कहा खड़ा होरहा है ? घोड़े को आगे लेा, या भांति के वचना., लाप होते हुवे शीघ्रही देव वाहिर निकसे गाजते आये सेनामें शामिल भये और राक्षसोंके सन्मुख आये रावणके और इन्द्र के युद्ध होने लगा। देवोंने राक्षसोंकी सेना हटाई, शस्त्रात जे समूह तिनके प्रहारकर आकाश आच्छादित होगया तब रावणके योधा बजवेग, हस्त प्रहस्त, मातीच उद्भव, नज, वक्र, शुक्र, घोर, सारन, गगनोज्वल, महाजठर, मध्याभ्रकर इत्यादि विद्याधर बड़े योधा राक्षतवंशी नाना प्रकारके वाहनोंपर चढ़ अनेक प्रायुधोंके धारक देवोंसे लड़ने लगे तिनके प्रभावस क्षणमात्र में देवों की सेना हटी । तब इन्द्रके बड़े योगा कोपकर अरे युद्धको सनमुख भए तिनके नाम मेघमाली, तडिपिंग, ज्वलिताक्ष, अरि, संचर, पाचक यं न इत्यादि बड़े बड़े देवोंने शस्त्रोंके ममूह चलावते हुए राक्षसोंको दबाया सो कल्लु इक राक्षसोंकी सेना हनी।ज्यों समुद्रमें भंवर भ्रमै त्यों राक्षमलोक अपनी सेनाविष भ्रमते भए। कछु इक शिथिल हो गए तब और बड़े २ राक्षस इनको धीर्य बंधावते भए । महालामा राक्षसवंशी विद्याधर प्राण तजते भए परंतु शस्त्र न डारते भए । राजा महेन्द्रसेन वानरवंशी राक्षसोंके बड़े मित्र उनका पुत्र प्रसन्नकीर्ति ताने बाणोंके प्रहारकर देवनकी सेना हटाई। राक्षसोंके बल को बड़ा धीर्य बंगा तब अनेकदेव प्रसन्नकीर्तिपर आये। सो प्रसन्नीसिने अपने बाणोंसे विदारे जैसे खोटे तपस्वियोंका मन मन्मथ (काम) विदारे तब और बड़े २ देव आए । कषि राक्षस अर देवोंके खड़ा कन: गदा शक्ति धनुष मुद्गर इनकर अति युद्ध भया तब माल्यवानका बेटा श्रीमाली रावणका काका महा प्रसिद्ध पुरुष अपनी सेनाकी मददके अथे देवापर आया । सूर्य समान है कांति जिसकी सो उसके बाणों की वर्षासे देवोंकी सेना हट गई जैसे महाग्राह समुद्रतो झकोले तैसे देवनकी सेना श्रीमालीन झकोली तब इंद्रके योधा अपने बलकी रक्षा निमित्त महाक्रोधक भरे अन आयुगों के धारक शिखि केसर दंडाग्र कनक प्रवर इत्यादि इन्द्र के भानजे वाण वर्षाकर आकाशको बाच्छादते हुए श्रीमालीपर आए सो श्रीमालीने अर्धचन्द्र वाणगे उनके मिररूप कमलोंकर पृथ्वी आच्छादित करी तब इन्द्रने विचारा कि यह श्रीमाली मनुष्योंविपै महायोधा राक्षसबंशियों का अधिपति माल्यवानका पुत्र है उसने बड़े २ देव मारे हैं अर ये मेरे भानजे मारे या राक्षसके सम्मुख मेरे देवोंमें कौन आवै यह अतिवीर्यवान महातेजस्वी देखा न जाय तातें मैं युद्धकर याहि मारू नातर यह मेरे अनेक देवोंको हतैगा असा विचार अपने जे देवजातिके विद्याधर श्रीमालीसे कम्पायमान भए हुते तिनको धीर्य बंधाय आप युद्ध करनेको उद्यमी भया । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० पद्म-पुराण तब इन्द्रका पुत्र जयंत बापके पायनपर विनती करने लगा - हे देवेंद्र ! मेरे होते संते आप युद्ध करो तब हमारा जन्म निरर्थक है । हमको आपने बाल अवस्थाविषै अति लड़ाए अब तुम्हारेडिंग शत्रुवोंको युद्धकर हटाऊ यह पुत्रका धर्म है आप निराकुल विराजिए जो अंकुर नखसे छेदा जाय उसपर फरसी उठावना क्या, ऐसा कहकर पिता की आज्ञा लेय मानों अपने शरीरकर आकाशको ग्रसेगा भैमा क्रोधायमान होय युद्धके अर्थ श्रीमाली पर भाया । श्रीमाली इसको युद्ध योग्य जान खुशी भयो इसके सम्मुख गए ये दोनों ही कुमार परस्पर युद्ध करने लगे धनुष खैच बाण चलावते भए इन दोनों कुमारोंका बड़ा युद्ध भया । दोनों ही सेना के लोक इनका युद्ध देखते भए सो इनका युद्ध देख आश्चर्य को प्राप्त भए । श्रीमाली ने कनक नामा हथियारकर जयंत का रथ तोड़ा और उसको घायल किया मो मूर्छा खाय पड़ा फिर सचेत होय लड़ने लगा । श्रीमाली के भिंडमाल की दीनी रथ तोड़ा र मूर्हित किया तब देवोंकी सेनाविषैति हर्ष भया र राक्षसोंको सोच भया फिर श्रीमाली सचेत भया, जयंत के सम्मुख भषा, दोनों में महायुद्ध या दोनो सुट राजकुमार युद्ध करते शोभते भये मनों सिंहके बालक ही हैं बड़ी देर में पुत्र जयन्तने मान्यवानका पुत्र जो श्रीमाली उसके गदा की छाती दोनी सो पृथ्वीवर पड़ा, बदनकर रुषिर पढ़ने लगा तत्कल सूर्य अस्त हो जाय तैसे प्राणांत हो गया । श्रीमाली को मारकर इन्द्र का पुत्र जयंत शंखनाद करता भया तब राक्षसोंकी सेना भयभीत भई पर पीछे हटी । माल्यवान के पुत्र श्रीमालीको प्राणस्ति देख कर जयंतको उद्यत देख रावण के पुत्र इंद्रजीतने अपनी सेना को धीर्य बंधाया श्रर कोदकर जयंत सम्मुख काया सी इंद्रजीतन जयंतका बखत तोड़ डाला अर अपने बाणोंकर जयंत जर्जरा किया तब इंद्र जयंतको घायल देख छेदा गया है खतर जिसका, रुधिरकर लाल हो गया है शरीर जिसका औसा देखकर आप युद्धको उद्यमी भया, आकाशको अपने आयुधोंकर आच्छादित करता सन्ता अपने पुत्रकी मदद के अर्थ रावण के पुत्र पर आया । तब रावणको सुमति नामा सारथ ने कहा- हे देव; यह इन्द्र याया ऐरावत हाथीपर चढा लोकपालोंकर मण्डित हाथविषै चक्र धरे मुकुटके रत्नोंकी प्रभाकर उद्योत करता हुवा उज्ज्वल छत्रकर सूर्यको आच्छादित करता संता क्षोभको प्राप्त भया ऐसा जो समुद्र उस समान सेनाकर संयुक्त । यह इन्द्र महाबलवान है इन्द्रजोत कुमार यासू युद्ध करने समर्थ नहीं तातें आप उद्यमी होकर अहंकारयुक्त जो यह शत्रु इसे निराकरण करो तब रावण इन्द्रको रुम्मुख आया देख आगे मालीका मरण यादकर अर हाल श्रीमालीके बथकर महाक्रोनरूप भार शत्रुओंकर अपने पुत्रको बेढ़ा देख आप दौड़ा, पवन समान है वेग जिसका ऐन रथवि चढ़ा दोनों सेनाके योद्धाओंति परस्पर विषम युद्ध होता भया, सुभटोके रोमांच हाय आए, परस्पर शस्त्रों के निपातर अंधकार हो गया, रुधिरकी नदी बहने लगी, योद्धा परस्पर पिछाने न परं । केवल ऊँचे शब्द कर पिछाने परें, अपने अपने स्वामीके प्रेरे योद्धा प्रति युद्ध करते भए । गदा शक्ति बरी मूसल खड्ग वाण परिव जातिके शरत्र कनक जातिवं शस्त्र चक कहिए सामान्य चक्र Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहगां पर्व बरछी तथा त्रिशूल पाश भुगएडी जातिके शस्त्र कुराडा मुद्गर वज्र पाषाण हल दण्ड कोख जातिके प्रस्त्र चां-नके बाण अर नाना प्रकारके शस्त्र तिनकर परस्पर अति युद्ध भया । परस्पर उनके रास्त्र उनने काटे उनके उन्होंने काटे, अति विकराल युद्ध होते परस्पर शस्त्रोंके घातसे अग्नि प्रज्वलित भई, रणविणे नाना प्रकारके शब्द होय रहै हैं, कहीं मार लो मार लो यह शब्द होय रहे हैं की एक रण २ कहीं किण २ त्रम २ दम २ छम २ पट २ छस २ दृढ़ २ तथा तट २ चट २ वध २ इत्यादि शत्रुओंकर उपजे अनेक प्रकारके जे शब्द उनसे रणमण्डल शब्दरूप हो गया । हाथियोंकर हा मारे गये, घोड़ोंकर घोड़े मारे गए, रथोंकर रथ तोड़े गए, पियादोंकर पियादे हते गए, हाथियोंसी मूडकर उछने जे जलके छांटे तिनकर शस्त्र सम्पात कर उपजी थी जो अग्नि सो शांत भई । परस्पर गज युद्धकर हाथियोंके दांत टूट पड़े, गजमोती विखर गए, योद्धावोंमें परम्पर यह आलाप भए-हो शुरवीर शात्र चला, कहा कायर होय रहा है । हे भटसिंह, हमार खडगका प्रहार सम्हार, हमारेसे युद्ध कर, यह मूबा तू अब कहां जाय है अर कोई कोई कहै है तू यह युद्धकला कहांसीखा, तरवार का भी सम्हारना न जाने है पर कोई कहै है तू इस रणने जा अपनी रक्षा कर तू क्या युद्ध करना जानै, तेरा शस्त्र मेरे लगा सो मेरो खाज भो न सिटी, तें वृथा ही धनीकी आजीविका अब तक खाई, अबतक ते युद्ध कहीं देखा नहीं, कोई ऐस कहे हैं तू क्यों कांप है, तू थिरता भज मुष्टि दृढ़ राख तेरे हायसे खड़ा मिरेगा इत्यादि योद्धावोंमें परम्पर पालाप होते भए । कैसे हैं योधा महा उत्साहरूप हैं, न मरनेका भय नहीं, अपने अपने स्वामीके आगे उभट भते दिख.ए, किसीकी एक भुजा शत्रु की गदाके प्रडारकर टूट गई तो भी एक ही हाथसे युद्ध कर रहा है । किसीका सिर टूट पड़ा तो बड़ी लड़े है, योधायक बालोंसे वक्षस्थल विदारे गए परन्तु मन न चिगे। सामंतो के सिर पड़े परन्तु मान न छडा । सूरवीरोंके युद्ध में मरण प्रिय है टसर जावना प्रिय नहीं, वे चतुर महा धीर वीर मला पराक्रमी महासुभट यशकी रक्षा क ते हुए रास्त्र के धारक प्राण त्याग करते भए परन्तु कायर होकर अपयश न लिया कोई इक सुभट माता हुप्रा भी बैरीके मारनेकी मांभेलापाकर क्रोधका भरा वैरीके ऊपर जाय पड़ा, उसको मार आप मरा । किसीके हाथसे शस्त्र शत्रुके शस्त्रघातकर निपात भए तब वह सामन्त मुष्टिरूप जो मुद्गर उसके घातकर शत्रुको प्राणरहित करता भया । कोई एक महाभट शत्रुओंको भुजाओंसे मित्रवत् आलिंगनकर ममल डारता भया, कोई एक सामन्त पर चक्रके योवाबों की पंक्ति को हणता हुआ अपने पक्षके योधावोंका मार्ग शुद्ध करता भया, कोई एक जो रणभूमिविणे परते संते भी वैरियोंको पीठ न दिखाबते भए सूधे पड़े । रावण अर इन्द्र के युद्ध में हाथी घोड़े रथ योधा हजारों पड़े, पहिले जो रज उठी थी सो मदोन्मत्त हाथियोंक मा झरनेकर तथा सामन्तोंके रुधिर प्रवाहकर दब गई, सामंतों के आभूषणों कर रत्नोंकी ज्योतिकर आकाशविष इंद्रधनुष हो गया। कोई एक योधा बाये हाथकर अपनी प्रांतां थामकर खड्ग काढ वैरी ऊपर गया महा भयकर कोई एक योधा अपनी मांख ही कर गाड़ी कमर बांधे होंठ डसता शत्रु ऊपर गया, कोई एक आयुधरहित होय गमा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२. पदा-पुराण तौ भी रुधिरका रंगाविषै तत्पर वैरीके माथेमें हस्तका प्रहार करता भया, कोई एक रणधीर महाशूरवीर युद्धका अभिलापी पाशकर बैरीको बांधकर छोड़ देता भया, राकर उपजा है हर्ष जिनके कोई एक न्याय संग्रामविस्तार वैरी को व्यायुधरहित देखकर आप भी आयु डार खड़े होय रहे, कोई एक अन्त समय सन्यास धार नमोकार मंत्र का उच्चारणकर स्वर्ग प्राप्त भए, कोई एक योधा आशीविप सर्प समान भयङ्कर पड़ता २ भी प्रतिपक्षीको मारकर मरा, कोई एक अर्थ सिर छेदा गया उसे बायें हाथविषै दाव महापराक्रमी दौड़कर शत्रु का सिर फाड़ा, कोई एक सुभट पृथ्वी की बगल समान जो अपनी भुजा तिन ही कर युद्ध करते भये, कोई एक परम क्षत्रिय धर्मज्ञ शत्रुको मूति भया देख आप पवन झोल सचेत करते भये या भांति कायरोंको भयका उपजावनहारा घर यो आनन्द उपजायनहारा महासंग्राम प्रवरता । अनेक गज अनेक तुरंग अनेक योधा शस्त्रोंवर हते गये, अनेक रथ चूर्ण होगये, अनेक हाथियोंकी सूड़ कट गई, घोड़ावो पांच टूट गये पूछ कट गई पियादे काम आये गये रुधिर के प्रवाहकर सर्व दिशा रक्त हो गई। एता र भया सो रावण किंचितमात्र भी नगिना, रवि हैं कौतूहल जिसके ऐसे सुभट भावका धारक रावण सुमति नामा सारथीको कहता भया - हे सारथी ! इस इंद्रके सम्मुख रथ मलाय घर सामान्य मनुष्योंके मारकर कहा ! ये तृण समन सामान्य मनुष्य तिनपर मेरा शस्त्र न चलें, मेरा मन महा योधावक ग्रहणवि तत्पर है, यह क्षुद्र मनुष्य अभिमान से इन्द्र कहा है इसे आज मारू अथवा पकड़ यह विडम्बना करणहारा पाखण्ड कर रहा है सो तत्काल दूर करू | देखो इसकी ढीठता आपको इन्द्र कहा है अर कल्पनाकर लोकपाल थापे हैं और इन मनुष्योंने विद्याधरोंकी देव संज्ञा घरी हैं। देखो ! श्रल्पसी विभूति पाय मूढती गया है लोक हाम्यका भय नहीं जैसे नट स्वांग धरै तैसे स्वांग धरा हैं, दुर्बुद्धि आपको भूल गया । पिता के वीर्य माता के रुधिरकर मांस हाडमई शरीर माता के उदरसे उपजा वृथा आपको देवेंद्र गान है, विद्याके बलकर इसने यह कल्पना करी है जैसे काग आपको गरुड़ कहा है तैसे यह इन्द्र कहावे है यामांति जय रावणने कहा तब सुपति मारथीने रावणका रथ इन्द्रके सम्मुख किया रावणको देख इन्द्रके सब सुभट भागे रावण से युद्ध करने को कोई समर्थ नहीं रावण सर्वको दयालु दृष्टिकर कीट समान देखे रावण के सम्मुख यह इन्द्र ही टिका अर सब कृत्रिम देव इसका छत्र देख भाज गये जैसे चन्द्रमा के उदयसे अन्धकार जाता रहै, कैसा है रावण ? वैरियोंकर केला न जाय जैसे जलका प्रभाव ढाहोकर थांभा न जाय अर जैसे क्रोधसहित चित्तका वेग मिध्यादृष्टि तापसियोंकर थांभा न जाय तैसे सामन्तोंकर रावण थांभा न जाय । इन्द्र भी कैलाश पर्वत समान हाथी पर चढ़ा अनुपको धरै तरकशसे तीर काढ़ता रावणके सम्मुख आया, कानतक धनुषको रौंच रावणपर बाण चलाये जैसे पहाड़पर मेघ मोटी धारा श्रवते काट डारे - ऐसा युद्ध देख नारद: जाना कि यह रावण तैसे रावणपर इन्द्रने बाणोंकी वर्षा करी । रावणने इन्द्रके बाण आवते र अपने वाणकर शरमण्डप किया सूर्यको किरण बाणों दृष्टि न माकाशमें नृत्य करता भया, कलह देख उपजें हैं दर्प जिसको । जब इन्द्रने Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां पर्व सामान्य शस्त्रकर असाध्य है तब इन्द्रने अग्नि बाय रावणापर चलाया उससे र रणकी सेनाविक आकृलता उपजी जैसे वांसोंका वन जलै श्रर इसकी तड़तड़ात नि होय, अग्निकी जाला उठे तैसे अग्निबाण प्रज्वलित आया तब रावणने अपनी सेनाको व्याकुन देख तत्काल जलवाण चलाया सो मेघमाला उठी, पर्वत समान जलकी मटी धारा बरसने लगः क्षणमात्रमें अग्नि बाण बुझ गया । तब इन्द्रने रावणार तामस बाण चलाया उसकर दशों दिशामें अन्धकार हो गया, रावणके कटकविणे किसी को कुछ भी न सूझे तब रावणने प्रभास्त्र कहिए प्रकाश बांण चलाया उसकर क्षणमात्रमें सकल अन्धकार विलय होगया जैसे जिनशार.नके प्रभावकर मिथ्यात्वका मार्ग विलय जाय फिर रावणने कोपकर इन्द्र पर नाग बाण चलाया स महाकाले नाग चलाये मानों भयङ्कर है जिह्वा जिनकी, रन्द्रकै अर सकल सेनाकै लिपट गरे । मोर बेढ़ा इन्द्र अति व्याकुल भया जैग भवसामरविणे जीव कर्म जाजकर वेढा व्याकुन होय है तब इन्द्रने गरुड़वाण चितारा सो सुर्ण समान पीत पंखों के समूहकर पाका पीत हो ग | अर पंखोंकी परनकर रावण का कटक हालने लग मानों हिंडोलेमें भूले है, गड़के प्रभावकर न ग ऐसे विलाय गये जैसे शुक्लध्यानके प्रभाव र मौके बंध विलय हो जाय, जा इन्द्र नागपाणसे छूटकर जेठके सूर्य समान अति दारुणा तपना भया तर रावणने त्रलोक मण्डन हाथीको इन्द्रके ऐरावत हाथीपर प्रेरा । कै।। है लोकमण्डन ? सदा मद भरै हैं अर वैरियों को जीतनहारा है इन्द्रने भी ऐरावतको त्रैलोक्यमण्डन पर धकाया। दोनों ग र महा ग के भरे लड़ो लगे, भरै है मद जिनके, क्रूर हैं नेत्र जिनके, हालै हैं कर्ण जिनके, देदीप्यमान है विजुरी समान स्वर्णकी सांकल जिनके दोऊ हाथी शरदके मेघ समान अति गाजत परस्पर अति भयङ्कर जो दांत तिनके घातोंकर पृथ्वीको शब्ायमान करते चपल है ५र र जिना, परस्पर सूड़ोंसे अद्भुत संग्राम करते भये। तब रवणने उछलकर इन्द्र के हाथीके मस्तकपर पग धर अति शीघ्रताकर गज सारथी को पाद प्रहारतें नीचे डारा अर इन्द्रको वस्त्रसे बांधा अर बहुत दिलासा देकर पकड़ अपने गज पर ले आया अर रावणके पुत्र इन्द्रजीतने इन्द्रका पुत्र जयंत पाड़ा अपने सुप्रटीको मोपा अर आप इन्द्र के सुभटोंपर दौड़ा तारामणने मने किया—हे पुत्र ! अब रणले निवृत्त होगी क्योंकि समस्त विजयाधके जे निवासी विद्याधर तिनका सिर पकड़ लिया है अब सम त अपने अपने स्थानक जावो सुख से वो शालिसे चारल लिया तब परालका कहा काम ? जब रावणने ऐसा कहा तब इन्द्रजीत पिताशी आज्ञासे पीछे बाहुडा अर सर्व देवों की सेना शरदके मेष समान भागे गई जैसे पानकर शरद भेष विलय जाय, रावण की सेना में जीतके वादित बाजे, ढोल नगारे शंख झांझ इत्यादि अनेक वाटित्रोंका शब्द भया, इन्द्रको पकड़ा देख रावणकी सेना अति हर्षित भई । रावण लंकामें चलनेको उद्यमी भया, सूर्यके रथ समान रथ ध्वजावोंसे शोभित कर चंचल तुरंग नृत्य करते भए । अर मद झरते हुए नाद करते हाथी तिन पर भ्रमर गुंजार करे है इत्यादि महासनासे मंडिस राक्षसोंका अधिपति रावण लंकाके समीप आया Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पद्म-पुराण तत्र समस्त बन्धु जन कर नगरके रक्षक तथा पुरजन सब ही दर्शनके अभिलाषी भेंट ले ले सन्मुख आए र रावणकी पूजा करते भए, जे बड़े हैं तिनकी रावणने पूजा करी, रावणको सकल नमस्कार करते भए र बड़ोंको रावण नमस्कार करता भया । कैयकों को कृपादृष्टि से, कैकोंको मंदहास्यसे, कैयकों को वचनोंसे रावण प्रसन्न करता भया । बुद्धिके बलसे जाना है सबका अभिप्राय जिसने । लंका तो सदा ही मनोहर है परन्तु रावण बड़ी विजय कर आया त अधिक समारी है, ऊचे रत्नोंके तोरण निरमापे, मंद मंद पवन कर अनेक वर्णकी ध्वजा फर हरे हैं, कुंकुमादि सुगन्ध मनोज्ञ जल कर सींचा है समस्त पृथिवीतल जहां और सब ऋतुके फूलोंसे पूरित है राजमार्ग जहां श्रर पंच वर्ण रत्नोंके चूर्ण कर रचे हैं मंगलीक मांडने जहां र दरवाजों पर थांभे है पूर्ण कलश कमलोंके पत्र पर पल्लवसे ढके, संपूर्ण नगरी वस्त्राभरण कर शोभित है जैसे देवोंसे मंडित इन्द्र अमरावती में आवै तैसे विद्याधरों कर वेढा रावण लंका में पा, पुष्पक विमान में बैठ, देदीप्यमान है मुकट जाका, महारत्नोंके बाजूबंद पहिरे निर्मल प्रभा कर युक्त मोतियों का हार वक्षस्थल पर धारे, अनेक पुष्पोंक समूह कर विराजित, मानों बसंतही का रूप है सो उसको दर्ष मे पूर्ण नगर के नर नारी देखते देखते तृप्त न भए असीस देय हैं नाना प्रकारके वात्रि के शब्द हो रहे हैं जय जयकार शब्द होय है श्रानन्दसे नृत्यकारिणी नृत्य करे हैं इत्यादि हर्षसंयुक्त रावणने लंकामें प्रवेश किया, महा उत्साहकी भरी लंका उसे देख रावण प्रसन्न भए बंधुजन सेवकजन सब ही आनन्दको प्राप्त भए । रावण राजमहल में अ. ए । देखो भव्य जीव हो कि रथनूपुःके धनी राजा इन्द्रने पूर्व रायके उदय से समस्त वै रयोंके समूह जीत कर सर्व सामग्री पूर्ण दिन को तृणवत ज न सर्वको जीनकर दोनों का राज बहुत वर्ष किया इंद्रके तुल्य विभूतिको प्राप्त भया अर जब पुरुष क्षीण भया तब सकल विभूति विलय हो गई | रावण उसको पड़कर लंका में ले आया तार्तें मनुष्यके चपल सुखको धिक्कार हो यद्यपि स्वर्गलोकके देवोंका विनाशीक सुख है तथापि आयु पर्यंत और रूप न होय अर जब दूसरी पर्याय पावै तब और रूप होय अर मनुष्य तो एक ही पर्यायमें अनेक दशा भोगे तातें मनुष्य होय जे मायाका गर्व करे हैं ते मूर्ख हैं अर यह रावण पूर्व पुण्यसे प्रवल वैरियों को जीत कर अति वृद्धिको प्राप्त भया । यह जानकर भव्य जीव सकल पाप कर्मका त्याग कर शुभ कर्म ही को अंगीकार करो । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा व निकाविषे इंद्रका पराभव नाम बारहवां पर्व पूर्ण भयः ॥ १२ ॥ श्रथानन्तर इंद्रके सामन्त धनीक दुःखसे व्याकुल भए तत्र हन्द्रा पिता सहस्रार जो उदासीन श्रावक है तासौं वीनती कर इंद्रके छुडावने के अर्थ सटरको लेकर लंका में रावण के समीप गये । द्वारपाल से बीनती कर इन्द्रके सफल वृत्तांत कहकर रावणक टिंग गए, रावणने सहसरको उदासीन भाषक जानकर बहुत विनय किया, इनको शासन दिया, आप सिंहासनसे उतर बैठे, सहस्रार रावखको विवेकी जान कहता मया - हे दशानन ! तुम जगजीत दो सो Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां पर्व १३५ इंद्रको भी जीता तुम्हारी भुजाओंकी सामथ्र्य अत्रने देखी, जे बड़े राजा ते नववंतोंका गर्व दूरकर फिर कृपा करें, तात अब इंद्रको छोड़ो यह सहस्रारने कहीं अर जे चारों लोकपाल तिनके मुंहसे भी यही शब्द निकमा मानों मत्सरका प्रतिशब्द ही कहते भए तब रावण सहस्रारको तो हाथ जोड़ यही कही जो आप कहो सोई होगा अर लोकपालोंसे हंस कर क्रीडारूप कही तुम चारो लोकपाल नगरीमें बुदोरी देवो, कमलोंका मकरंद अर तृण कंटकरहित पुरी करो अर इन्द्र सुगन्ध जलकर पृथ्वीको सींचे कर पांच वर्ण के सुगन्ध मनोहर जो पुष्प तिनसे नगरी को शोभित करो यह बात जब रावणने कही तब लोकपाल तो लज्जावान होय नीचे हो गए अर सहस्रार अमृतरूप वचन बोले-हे धीर ! तुम जिसको जो आज्ञा करो सो ही वह करे, तुम्हारी आज्ञा सर्वोपरि है यदि तुम सारिखे गुरुजन पृथ्वीके शिक्षादायक न हों तो पृथ्वी के लोक अन्यायमार्गविष प्रवरतें, यह वचन सुनकर रावण अति प्रसन्न भए अर कही-हे पूज्य! तुम हमारे सात तुल्य हो अर इंद्र मेरा चौथा भाई, इसको पायकर मैं सकल पृथ्वी कंटकरहित करूंगा इसको इंद्रपद वैसा ही है और यह लोकपल ज्योंके त्यों ही हैं अर दोनों श्रेणीकेराज्यसे अर अधिक चाहो सो लेह मोमें अर इसमें कछु भेद नहीं अर आप बड़े हो गुरुजन हो जैसे इंद्रको शिक्षा देवो तैसे मुझे देवी ' तुम्हारी शिक्षा अलंकाररूप है पर आप रथनू पुरविष विर को अथवा यहां निराजा, दोऊ आप ही की भू मे हैं ऐसे प्रिय बचनोंसे स.सारका मन बहुत संतापा तब सहस्रार कहने लगा हे भव्य ! तुम सारिखे सज्जन पुरुषोंकी उत्पत्ति सर्व लोकको आनन्दकारिणी है । हे चिरंजीव ! तुम्हारे शूरवीरपनेका आभूषण यह उत्तम विनय समस्त पृथ्वीमें प्रशंसा को प्राप्त भया है तिहारे देखनेसे हमारे नेत्र सुफल भए । धन्य तुम्हारे माता पिता जिनसे तुम्हारी उत्पत्ति भई कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल तुम्हारी कीर्ति तुन समर्थ अर क्षमावान दातार अर निर्गर्व ज्ञानी अर गुणप्रिय तुम जिनशासनके अधिकारी हो। तुमने हमको जो कही यह तुम्हारा घर है अर जैसे इंद्र पुत्र तैर मैं, सो तुम इन बातोंके लायक हो, तुम्हारे मुखसे ऐसे ही वचन झरें, तुम महाबाहु दिग्गजकी सूड समान भुजा तिहारी, तुम सारिखे पुरुष इस संसारविष विरले हैं परन्तु जन्मभूमि माता समान है सो छांडी न जाय, जन्मभूमिका वियोग चिचको श्राकुल वर है, तुम सर्व पृथ्वीके पति हो परन्तु तुमको भी लंका प्रिय है । मित्र बान्धव अर समस्त प्रजा हमारे देखनेके अभिलाषी श्रावनेका मार्ग देखे हैं तातें हम रथनू पुर ही जायेंगे अर चित्त सदा तुम्हारे समीप ही है। हे देवनके प्यारे ! तुम बहुत काल पृथ्वी की निर्विघ्न रक्षा करो। तब रावणने उसही समय इन्द्रको बुलाया और सहस्रारके लार किया पर आप रावण कितनिक दूर तक सहस्रारको पहुंचाने गये और बहुत विनयकर सीख दीनी । - सहस्रार इन्द्रको लेकर लोकपाल सहित विजयागिरि पर आए सर्व राज ज्योंका त्योंही है लोकपाल आयकर अपने २ स्थानक बैठे परन्तु मान भंगसे अमाता को प्राप्त भए, ज्यों २ विजयार्धके लोक इन्द्रके लोकपालोको और देवोंको देखें त्यों २ यह लज्जा कर नीने हो जाय अर इन्द्रके भी न तो स्थ रमें प्रीति न राणियोंमें प्रीति, न उपवनादिमें प्रीति, न लोकपालोंमें Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण प्रीति, न कमलोंके मकरंदसे पीत होरहा है जल जिनका ऐल मनोकर सरोवर तिनमें प्रीति और न किसी क्रीड़ा विष प्रीति, यहांतक कि अपने शरीरसे भी प्रीति नहीं, लज्जाकर पूर्ण है चिर जाका सो उसको उदाम जान लोक अनेक विधिकर प्रसन्न किया चाहें और कथाके प्रसंगसे वह बात भुनाया चाहे परंतु ये भूले नहीं, सर्व लीला पिलात तजे। अपने राजमहलके मध्य गंधमादन पर्वतके शिखर समान ऊचा जो जिनमंदिर उपके एक थंभके माथेविष रहै कांतिरहित हो गया है शरीर जिसका, पंडितोफर मण्डित यह विचार कर है कि धिक्कार है इस विद्याधर पदके ऐश्वर्यको जो एक क्षणमात्रविर्ष विलाय गया जैसे शरद ऋतुके मेघोंके समूह अत्यन्त ऊंचे हो परन्तु क्षणमात्र विष विलय जांय तैसे वे शस्त्र वे हाथी वे शोधा वे तुरंग समन्त ऋण समान हो गए, पूर्षे अनेक बेर अद्भुत कार्यके करणहारे। अथवा कर्मों की यह विचित्रता है कौन पुरुष अन्यथा करनको समर्थ है ताते जगतमें कर्म प्रबल हैं मैं पूर्व नानाविधि भोग सामग्रियों के निपजावनहारे कर्म उपजे थे सो अपना फल देकर खिरि गए जिससे यह दशा वरते है रण संग्रामविषे शूरवीर सामन्तों का मरण होय तो भला जिस कर पृथ्वीविषे अपयश न होय । मैं जन्म से लेकर शत्रु रों के शिरपर चरण देकर जिया सो में इन्द्र शत्रु । अनुचर होयकर कैसे राज्य लनी भोगू तात अा संरके इन्द्रियजनित सुखोंकी अभिलाषा तजकर मोक्षपद की प्राप्तिके कारण जे मुनिबत तिनको अंगीकार करू । रावण शत्रका भेष धर मेरा महामित्र आया जिसने मुझे प्रतिबंध दिया । मैं असार सुख के आस्वादविणे आशक्त था ऐसा विचार इन्द्रने किया उस ही समय निर्वाणसंगम नामा चारण मुनि विहार करते हुए आकाश मार्गस जाते थे सो चैत्यालयके प्रभावकर उनका आगे ममन न हो सका ना वह चैत्यालय जान नीचे उतरे, भगवान के प्रतिबिंबका दर्शन किया मुनि चार ज्ञानके धारक थे सी उनको राजा इन्द्रने उठकर नमस्कार किया मुनिके समीप जा बैठा बहुत दे तक अपनी निंदा करी, सर्व संसारका वृत्तांत जाननेहारे मुनिने परम अमृतरूप वचनोंसे इन्द्रको समाधान किया-कि हे इंद्र ! जैसे अरहटको घड़ी भरी रीती होय है अर रीती भरी होय है तैसे यह संसारकी माया क्षणभंगुर है इसके और प्रकार होने का आश्चर्य नहीं, मुनिके मुख से धर्मोपदेश सुन इन्द्रने अपने पूर्वभन पूछे तब मुनि कहै हैं कैसे हैं मुनि ? अनेक गुणोंके समूहसे शोभायमान हैं । हे राजा ! अनादिकालका यह जीव चतुरगतिविङ्ग भ्रमण वर है जो अनन्तभव धरै सो केवल ज्ञानगम्य हैं । कैयक भव कहिए हैं सो सुन, शिखापद नाया नगर में एक मानुषी महादलिद्रनी जिसका नाम कुलवंती सो चीपड़ी अमनोज्ञ नेत्र नाक चिपटी अनंक व्याधिको भरी पापकर्मके उदयसे लोगोंकी जूठ खायकर जीवै खोटे वस्त्र अभागिनी फाटा अंग महा रूक्ष सोटे केश जहां जय वहां लोक अनादरै हैं जिसको कहीं मुख नहीं । अन्तकालविणे शुभमति होय एक मुहूर्तका अनशन लिया ाण त्यागकर किंपुरुष देवकै शीलधरा नामा किन्नती भई तांसे चयबर रत्न नगरवि गोमुखनाना कलुबी उसके धरिनी नाभा स्त्री उसके सा सभाग न मा पुत्र भया सो परम सम्यक्त्वको पायकर श्रावकके व्रत आदरे, क्रिनामा नवना गवां उत्तम देव भया वांजे चयकर महा विदेह क्षेत्र के रत्नसंचय नगरमें Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां पर्व मणिनामा मंत्री उराके गुणावली नामा स्त्री उसके सामंतवर्धन नामा पत्र भया सो पिताके साथ वैराग्य अंगीकार किया अति तीव्र तप किए तत्वार्थविणै लगा है चित्त जिसका, निर्मल सम्यक्त्वका धारी, कषायरहित बाईस परीपह सहकर शरीर त्याग नवग्रीवक गया, अइमिंद्रके बहुत काल सुख भोगकर राजा सहस्रार विद्याधरके रानी हृदयसुन्दरी उनके तू इन्द्र नामा पुत्र भया। रथनूपुर नगरविणे जन्म लिया। पूर्वके अभ्यासकर इंद्रके सुखमें मन आसक्त भया सो तू विद्याधरोंका अधिपति इन्द्र कहलाया अब-तू पृथा मनविणे खेद करै है जो मैं विद्याविणे अधिक था सो शत्रवोंसे जीता गया सो हे इन्द्र ! कोई निर्बुद्धि कद् बोयकर वृथा शालिकी प्रार्थना करे हैं ये प्राणी जैसे कर्म करे हैं तैसे फल भोगे हैं तेने भोगका साधन शुभकर्म पूर्वे किया था सो दीण भया, कारण विना कार्य की उत्पत्ति न होय है इस बातका आश्चर्य कहा १ सूने इसी जन्मविणे अशुभ कर्म किए रिनसे यह अपमान रूप फल पाया अर रावण तो निमित्तमात्र है। तैंने जो अज्ञान चेष्टा करी सो कहा नहीं जाने है ? तू ऐश्वर्य मदकर भ्रष्ट भया बहुत दिन भए तातें तुझे याद नहीं आवै है। एकाग्रचित्त कर सुन । अरिंजयपुरमें वहिवेग नामा विद्याधर राजा उसकी रानी वेगवती पुत्री अहिल्या उसका स्वयम्बर मण्डप रचा था तहां दोनों श्रेणीके विद्याधर अति अभिलावी होय विभवसे शोभायमान गए अर तू भी बड़ी सम्पदासहित गया अर एक चन्द्रावर्त नामा नगरका धनी राजा अानन्दमाल सो भी तहां आया । अहिल्याने सवको तजकर उसके कण्ठविणे बरमाला डाली । कैसी है अहिल्या ? सुन्दर है सर्व अंग जिसका सो आनन्दमाल अहिल्या को परणकर जैसे इंद्र इन्द्राणीसहित स्वर्गलोकमें सुख भोगे तैसे ग्नमांछित भोग भोगता भया सो जा दिन। वह अहिल्या परणाया ता दिनसे तेरे इससे ईर्षा बही, तैने उसको अपना बड़ा वैरी जाना । कैरक दिन वह घरविणे रहा फिर उसको ऐसी बुद्धि उपजीं कि यह देह विनाशीक है इससे मुझे फछु प्रयोजन नहीं, अब मैं तप करू जिसकर संसारका दुःख दूर होय । ये इन्द्रियोंके भोग महाठग तिनविर्षे सुखकी आशा कहां ? ऐसा मनमें विचारकर वह ज्ञानी अन्तरआत्मा सर्व परिग्रहको तजकर परम तप आचरता भया । एक दिन हंसावली नदीके तीर कायोत्सर्ग धर तिष्ठ था सो तैने देखा ताके देखनेनात्र रूप ईधनकर बढ़ी है क्रोधरूप अग्नि जाके सो ते मूर्खने गर्वकर हांसी करी अहो अनि दमाल ! तू कामभोगविष अति आसक्त था अहिल्याका रमण अब कहा विरक्त होर पहाड़ तारिखा तिश्चल तिष्ठा है । तत्त्वार्थके चितवनविष लगा है अत्यन्त स्थिर मन जाका । या भांत परम मुनिकी तैने अवज्ञा करी सो वह तो आत्मसुखावणे मग्न, तेरी बात कुछ हृदयविष न धरी । उनके निकट उनका भाई कल्याण नामा मुनि तिष्ठ था ताने तुझे कही यह महामुनि निरपराब तैंने इनकी हांसी करी सो तेरा भी पराभव होगा तब तेरी स्त्री सर्वश्री सम्यग्दृष्टि साधुवोंकी पूजा करनहारी ताने नमस्कारकर कल्याणस्वामीको उपशांत किया जो वह शांत न करती तो तू तत्काल साधुवोंका कोपाग्निसे भस्म हो जाता। तीन लोकमें तप समान कोई बलवान नहीं जैसी Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण साधुओंकी शक्ति है तैसी इन्द्रादिक देवोंकी शक्ति भी नाहीं । जो पुरुष साधु लोगोंका निरादर करें हैं ते इस भवमें अत्यन्त दुःख पाय नरक निगांद विषे पड़े हैं मनकर भी साधुओंका अपमान न करिए । जे मुनिजनका अपमान करे हैं सो इस भव अर परभवमें दुखी होय हैं । क्र रचिच मुनियोंको मार अथवा पीडा करें सो अनन्तकाल दुःख भोगे हैं । मुनिकी अवज्ञा समान और पाप नहीं। मन वचन कायकर यह प्राणी जैम कर्म करें हैं तैसे ही फल पावै हैं या भांति पुण्य पाप कर्मोंके फल भले बुरे जीव भोग हैं ऐसा जानकर धर्मविपै बुद्धिकर अपने आत्माको संसारके दुःखसे निवृत्त करो। महामुनिके मुखसे राजा इन्द्र पूर्व व सुन आश्चर्यको प्राप्त भया । नमस्कारकर मुनिसे कहता भया--हे भगवान ! तुम्हारे प्रसादसे मैंने उत्तम ज्ञान पाया, अब सकल पाप क्षणमात्रविष दिलय गए, साधुओंके संगसे जगतविष कुछ दुर्लभ नहीं, तिनके प्रसादकर अनन्त जन्मविप न पाया जो आत्मज्ञान सो पाइए है। यह कहकर मुनिकी बारम्बार बंदना करी। मुनि आकाश मार्ग विहार कर गए । इंद्र गृहस्थाश्रमसे परम वैराग्यको प्राप्त भया । जलके बुदबुदा समान शरीरको असार जान धर्ममें निश्चय वुद्धिकर अपनी अज्ञान चेष्टाको निन्दना हुशाय. महापुरुष अपनी राजविभूति पुत्रको देकर अपने बहुत पुत्रोंसहित अर लोग पा जो नाहित तथा अनेक राजाओंसहित सवेकर्मका नाश करनहारी जिनेश्वर दीना आदी, सधे परिग्रहका स्लाम किया। निर्मल है चित्त जिसका, प्रथम अवस्थाविषे जैसा शरीर भागों में लगा था तैसा ही ताके समूहमें लगाया ऐसा तप औरोंसे न बन पड़े, पुरुषोंकी बड़ शक्ति है जैसी भागों में प्रवतै तैसे विशुद्धभावविष प्रवर्ते है। राजा इन्द्र बहुत काल तपकर शुक्लध्यानके प्रतापसे कर्मोका क्षय कर निर्वाण पथारे, गौतम स्वामी राजा श्रोणकसे कहै हैं-देखो ! बड़े पुरुषोंके चरित्र आश्चर्यकारी हैं प्रबल पराक्रमके धारक बहुत काल भोग भोगकर वैराग्य लेय अविनाशी सुखकों भोगवै हैं इसमें कुछ आश्चर्य नहीं। समस्त परिग्रहका त्यागकर मणमायविष ध्यानके बलसे मोटे पापोंका क्षय करे हैं जैसे बहुत कालसे ईधनकी राशि संचय करी सो क्षणमात्रमें अग्निके संयोगसे भस्म होय है ऐसा जानकर हे प्राणी ! आत्मकल्याणका यत्न करो, अन्तःकरण विशुद्ध करो, मृत्युके दिनका कुछ निश्चय नहीं, ज्ञानरूप सूर्यके प्रतापसे अज्ञान तिमिरको हरो। इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै इन्द्रका निर्वाण गमन नामा तेरहवां पर्व पूर्व भया ।। १३ ।। अथानन्तर रावण विभव और देवन्द्र समान भोगोंकर मूढ है मन जिसका गनबांछित अनेक लीला विलास करता भया । यह राजा इन्द्रका पकड़नहारा एक दिन सुमेरुपर्व ६. चैत्यालयों की बन्दनाकर पीछे आवता था, सप्त क्षेत्र, पट कुलाचल तिनकी शोभा देखता नाना प्रकारके वृक्ष नदी सरोवर स्फटिकमणि हूँ से निर्मल महा मनोहर अवलोकन करता हुआ सूर्यके भवन समान विमानमें विराजमान महा विभूतिस संयुक्त लंकाविणे आवनेका : मन जिसका तत्काल Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ alesai पर्व मा मनोहर उत्पाद सुनता भया तब मा हर्षवान होय मारीच मंत्रीको पूछता भया हे मारीच ! यह सुन्दर महानाद किसका है और दशोदिशा काहेसे लाल हो रही हैं। तब मारीचने कहा- हे देव ! यह केवलीकी गन्धकुटी है और अनेक देव दर्शनको आये हैं तिनके मनोहर शब्द हो रहे हैं और देवोंके मुकटादि किरणोंकर यह दशदिशा रंग रूप होय रही हैं इस पर्वतविषै वीर्य मुनि तिनको केवलज्ञान उपजा है । ये वचन सुनकर रावण बहुत आनन्दको प्राप्त भया । सम्यक् दर्शन कर संयुक्त है और इन्द्र का वरा करणहारा है महाकांतिका धारी से केवलही बन्दना के अर्थ पृथ्वी पर उारा, बन्दना कर स्तुति करी, इन्द्रादिक अनेक देव केवली के समीप बैठे थे, रावण भी हाथ जोड़ कर नमस्कारकर अनेक विद्याधर सहित उचित स्थानकमें तिष्ठा । 1 चतुरनिकाय के देव तथा तिर्यंच पर अनेक मनुष्य केवलीके समीप तिष्ठे हुते तासमय किसी शिष्यने पूछा— हे देव हे प्रभो ! अनेक प्राणी धर्म र धर्मके स्वरूप जाननेकी तथा तिनके फल जानने की अभिलाषा राखँ हैं अर मुक्तिके कारण जानना चाहें हैं सा तुम कहने योग्य हो सो कृपाकर कहो । तब भगवान केवलज्ञानी अनन्तवीर्य मर्याद रूप अक्षर, जिनमें विस्तीर्ण प्रति निपुण शुद्ध सन्देहरहित सर्वक हितकारी प्रिय वचन कहते भए - अहो भन् जीव हो ! यह जीव चेतनालक्षन अनादिकालका निरन्तर अष्ट कर्मोकर बंधा आच्छादित है आत्मशक्ति जिसकी सो चतुरगति में भ्रमण करें हैं। चौरासी लक्ष योजियोंमें नानाप्रकार इंद्रियों कर उपजी जो वेदना ताहि भोगता हुआ सदाकाल दुःखी होय रागी द्वेषी मोही हुआ कर्मोंके तीव्र मन्द मध्यम पावसे कुम्हारके चक्रवत् पाया हैं चतुरगतिका भ्रमण जानै, ज्ञानावरणी कर्म कर आदि हैं ज्ञान जिसका, अतिदुर्लभ मनुष्यदेह पाई तो भी आत्महितको नहीं जाने है रसनाका लोलुकी स्पर्श इन्द्रीका विपयी पांच इन्द्रियोंके वश भया अति निद्य पाकर्म कर नरकवि पड़े हैं जैसे पापाय पानी में डूबे हैं । कैसा है नरक ? अनेक प्रकार कर उपजे जे महा दुख तिनका सागर है महा दुखकारी है । जे पापी क्रूरकर्मा धनके लोभी मातापिता भाई पुत्र स्त्री मित्र इत्यादि सुजन तिनको हर्ने हैं जगतमें निद्य है चि जिनका ने नरकमें पड़े है तथा जे गर्भपात करें हैं तथा बालक हत्या करें हैं वृद्धको हणे हैं यवला (त्रियों ) की हत्या करे हैं मनुष्यों को पकड़े हैं के हैं बांधे हैं मरे हैं पक्षी तथा मृगनको हनैं हैं जे कुबुद्धि स्थलचर जलचर जीवों की हिंसा करें हैं धर्मरहित हैं परिणाम जिनका ते महा वेदनारूप जा नरक उसावेषै पढे हैं अर जे पापी शहद अथ मधु साखियोंका छाता तोड़े हैं तथा मांस आहारी मद्यपायी सहदके भक्षण करनेदारे बनके भस्म करनेहारे तथा ग्रामोंक बालनहारे बन्दीक करणहारे गायनके घेरनहारे पशुवाती महा हिंसक भील अहेड़ा वागरा पारथी इत्यादि पापी महा नरक में पड़े हैं अर जे मिथ्यावादी परदोष भाषणहारे अभक्ष के भक्षण करनेहारे परवनके हरनहारे परदाराके रमनेहरे वेश्याओंके मित्र हैं वे घोर नरक में पड़े हैं जहां किसीकी शरण नहीं, जे पापी मांसका मक्षग करें हैं वे नरक में प्राप्त होय हैं तहां तिनहीका शरीर काट काट तिनके मुखविषै दीजिये है भर Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण खाते खोहेके गोले तिनके मुख में दीजिये है अर मद्यपान करने वालों के मुम्बमें सीसा गाल गाल दारिए है अर परदारा लंपटिगोंको ताती लोहे की पूतलि पोसे आलिंगन करावे हैं जे महापरिग्रह के धारी महा प्रारम्भी कर है चित्त जिनका प्रचण्ड कर्मके करनहारे हैं ते सागरा पर्यन्त नरकमें बसे हैं साधुओं के द्वषी पापी मिथ्यादृष्ट कुटिल कुबुद्धि रौद्रध्यानी मरकर नरकमें प्राप्त होय हैं जहां विक्रियामई कुहाड़े तथा खड्ग चक्र करोंत अर नाना प्रकारके विक्रियामई शत्र तिनसे खण्ड खण्ड कीजिए है फिर शरीर मिल जाय है गायु पर्यन्त दुख भोगे हैं तीवण हैं चौंच जिनकी ऐसे मायामई पक्षी ते तन विदारें हैं तथा मायामई सिंह व्याघ्र स्वान सर्व अष्टापद ल्याली वीछू तथा और प्राणियोंसे नानप्रकारके दुख पावे हैं नरकके दुःखको कहां लग बरणन करिए अर जे मायाचारी प्रपंची विषयाभिलापी हैं वे प्राणी तियंचगति को प्राप्त होय हैं तहां परस्पर बध अर नानाप्रकारके शस्त्रनको घातसे महा दुःख पावे हैं तथा अति भारका लादना शीत उष्ण क्षुधा तृषादिकर अनेक दुख भोगवे हैं । यह जीव भवसंकटविणे भ्रमता स्थल विषै जलवि गिरि वि तरुविणे और गहनवनविषे अनेक ठौर सूता एकेंद्री वेइंद्री तेइन्द्री चौइन्द्री पंचेन्द्री अनेक पर्याय में अनेक जन्म मरण किये । जीव अनादि निधन है इसका आदि अन्त नहीं, तिलमात्र भी लोकाकाशविर्षे प्रदेश नहीं जहां संसार भ्रमणविपे इस जीवने जन्म मरण न किये हों अर जे प्राणी निगर्व है काटरहित समभाव ही कर संतोषी हैं ते मनुष्य देहको पात्र हैं सो यह नरदेह परम निर्माण सुखका कारण उसे पायकर भी जे मोहमदकर उन्मत्त कल्याण मार्गको तजकर क्षणमात्र सुखके अर्थ पाप करे हैं ते मूर्ख हैं । मनुष्य भी पूर्व कर्मके उदयसे कोई आर्यखण्डविणे उपजे हैं, कोई म्लेक्षखण्ड हिपे उपजे हैं तथा कोई धनाढ्य कोई अत्यन्त दरिद्री होय हैं कोई कर्मके परे अनेक मनोरथ पूर्ण करे हैं, कोई कष्टसे पराए घरों में प्राण पोषण करे हैं, केई कुरूप केई रूपवान केई दीर्घ आयु केई अल्प आयु केई लोकोंको वल्लभ केई अमावने केई सभाग केई अभागे केई औरोंको आज्ञा देवें केई औरनके आज्ञाकारी केई यशस्वी केई अपयशी केई शूर कई कायर केई जलविषे प्रवेश करें कई रणमें प्रवेश करें केई देशांतरमें गमन करें केई कृषि कर्म करें कई व्यापार करें, केई सेवा करें। या भांति मनुष्य गतिमें भी सुख दुम्सकी विचित्रता है, निश्चय विचारिये तो सर्वगतिमें दुख ही है, दुःख हीको कल्पना कर सुख माने हैं अर मुनिग्रन तथा श्रावकके बनोंसे तथा अव्रत सम्यक्त्वसे तथा अकाम निर्जरासे, तथा अज्ञान तपसे देवगनि पावै हैं । तिनमें केई बड़ी ऋद्धिके धारी केई अल्प ऋद्धिके धारी आयु क्रांति प्रभाव बुद्धि सुख लेश्याकर ऊपरले देन चढ़ते अर शरीर अभिमान अर परिग्रहसे घटते देवगतिमें भी हर्प विषाद कर कर्मका संग्रह करै है। चतुरगतिमें यह जीव सदा अरहटकी घड़ीके यन्त्र समान भ्रमण करै हैं । अशुभ संकल्पसे दुःखको पावे हैं। पर शुभसंकल्पसे सुखको पावे हैं, अर दानके प्रभावसे भोग भूमि विषै भोगोंको पावे हैं, जे सर्व परिग्रह रहित मुनिव्रत के धारक हैं उत्तम पात्र कहिए अर जे अणुव्रतके धारक श्रावक हैं, तथा श्राविका, तथा आर्थिका सो मध्यम पात्र कहिये हैं अर बतरहित सम्यग्दृष्टि हैं सो जघन्यपात्र हिये है। इन पात्रों को विनय Jain Education Interational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ चौन्हा पर्व भक्तिकर आहार देना सो पात्रका दान कहिये पर बाल वृद्ध अंध पंगु रोगी दुबन दाखित मुखित इनो करुणा र अत्र जल और िवस्त्रादिक दीजिये सो करुणादान कहिये, पात्रके दान कर उत्कृष्ट भोगभू पे अर मध्यम पात्रके दानकर मध्य भोगभू ने अर जघन्य पात्रके दानकर जघन्य भोगभूमि होय है, जो नरक निगोहादि दुःख से रक्षा कर सो पात्र कहिये। सो सम्यग्दृष्टि मुनिराज हैं ते जीवोंकी रक्षा करे हैं । जे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र कर निर्मल हैं ते परमपात्र कहिये जिनके मान अपमान सुख दुःख तृण कांचन दोनों बराबर हैं तिनको उत्तम पात्र कहिये। जिनके राग द्वेष नहीं जे सर्व परियारहित महा तपती आलध्यान में तत्पर ते मुनि उत्तम पात्र कहिये, तिनको भाषकर अपनी शक्ति प्रमाण अन्न जन औषध देनी तथ: बनमें तिनके रहनेके वसतिका करावनी तथा पायांवोंको अन्न जल वस्त्र प्रोषधी देसी, श्रापक श्रविका सम्पादृष्टियोंको अन्न जल वस्त्र औषधि इत्यादि सर्व सामग्री देनी बहुत विनयो, सो पादानकी विधि है । दीन अंधादि दुःखित जीवोंको अन्न वस्त्रादि देना, बंदीसे छुड़ावना यह करु णादान की रीति है। __यद्यपि यह पात्रदान तुल्य नहीं तथापि योग्य है, पुपका कारण है, पर उपकार सो ही पुण्य है अर जैसे भले क्षेत्रमें बोया बीज बहुत गुणा होय फलै है तैसे शुद्ध चित्त कर पात्रों को दिया दान अधिक फलको फल है, अर जं पापी मिथ्यादृष्टि रागपादि युक्त ब्रा क्रिधारहित महामानी ते पात्र नहीं अर दीन भी नहीं, तिनको देना निष्फल है नरकादिकका कारण है जैसे ऊसर (कल्लर ) खेतविणे बोया बीज वृथा जाय है और जो एक काका जन ईखविणे प्रात हा मधुरताको लहै है अर नीवविष गया कडकताको भने है तथा एक सरोंर का जल गायने दिया सो धरूप होय परण है अर सपने पियापि होय परणवै है तै । सम्पष्ट पात्रों को भक्ति कर दिया जो दान सो शुभ फलको फल है .र पापी पाखंडी मिथ्या दृष्टि अभिमानी परिग्रही तिनको भक्तिसे दिया दान अशुभ फल को फल है । जे मांसाहारी मद्यानी कुशील आपको पूज्य माने तिनका सत्कार न करना जिनर्धामयों की सेवा करना दुःखपों को देख इया करनी अर विपरीतियोंसे मध्यस्थ रहना, दया सर्व जीवों कर राखना, किसी को क्लेश न उपजावना अर जे जिनधर्मसे पराङमुख हैं परवादी हैं ने भी धर्म को करना ऐ । कहे हैं परन्तु धर्मका स. रूप जाने नहीं तात जे विवेकी हैं ते परखकर अंगीकार कर हैं । केपे हैं विवेकी ? शुभोपयोग रूप है चिच जिनका, वे ऐसा विचार करै हैं जे गृहस्थ स्त्री सयुक प्रारम्मी पारग्रही हिंसक काम क्रोधादि कर संयुक्त गवन्त धनाढ्य अर आपको पूज्य माने उनका भक्तिसे बड़ा धन देना उसविषे कहा फल है अर उनसे आप कहा ज्ञान पावें ? अहो यह बड़ा अज्ञान है कुमारग से ठगे जीव उसे पात्रदान कहे हैं और दुःखी जीवों को करुणादान न करे हैं। दुष्ट धनाढ्योंको सर्व अवस्थामें धन देय हैं सो वृथा थनका नाश करै हैं धनान्तों को देने कहा प्रयोजन, दखिगों को देना कार्यकारी है। धिक्कार है उन दुष्टोंको जे लोभके उदयसे खोटे ग्रन्थ बनाय मह जीवोंको ठगे हैं। जे मृषावादके प्रभावसे मांसहूका भvण ठहरावें हैं। पापी पाखण्डी मांसका भो त्याग न करें तो और कहा करेंगे । जे क्रूर मांसका भक्षण करै हैं तथा जो मांसका दान करे हैं वे घोर Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ पल-पुराण वेदनायुक्त जो नरक ताविषे पड़े हैं और जे हिंयाके उपकरण शस्त्रादिक तथा जे बन्धनके उपाय पांसी इत्यादि तिनका दान करै हैं तथा पंचेंद्रिय पशु प्रों का दान करे हैं और जे इन दानों को निरूपण करे हैं ते सर्वथा निंद्य हैं । जो कोई पशुका दान करै और वह पशु बांधने कर मारने कर ताडनेकर दुःखी होय तो देनहारेको दोष लागे और भूमिदान भी हिंसाका कारण है जहां हिंसा वहां धर्म नहीं। श्रीचैत्यालयके निमित्त भूमिका देना युक्त हैं और प्रकार नहीं। जो जीव. घातकर पुण्य चाहै हैं सो पाषाण से दुग्ध चाहै हैं तात एकेंद्रो आदि पन्द्री पर्यंत सर्व जीवोंको अभय दान देना, विवेकियों को ज्ञान दान ना पुस्तकादिक देना र अंषध अन्न जल वस्त्रादि सबको देना पशुओंको सूखे तृण देना और जैसे समुद्र वषै सीप मेषका जल पिया सो मोती होय परणवै है तैसे संसारबिपै द्रव्यके योगसे सुपात्रों को यव आदि अन्न में दिये महा फल को फलें हैं और जो धनवान होय सुपात्रोंको श्रेष्ठ वस्तुका दान नहीं करै हैं सो निंद्य हैं । दान बड़ा धर्म है सो विधिपूर्वक करना । पुण्य पापविणै भाव ही प्रधान है जो विना भाव दान करै हैं सो गिारेक सिरपर बरसे जल समान हैं सो कार्यकारी नहीं, क्षेत्रविणे बरसे है सो कार्यकारी है। जो कोई मर्वज्ञ वीतरागको ध्यावे है और सदा विधिपूर्वाक दान कर है उसके फनको कौन कह सके, तातें भगवान शिवम्ब तथा जनन्दिर जि । म जिन पीडा सिद्ध की मात्रा चतुरविव संघकी भक्ति शास्त्र सर्व देशविपै चार करना यह धन खन : सप्त महा क्षेत्र हैं। तिनविणे जो धन लगावै सोफन है । तथा करुगादान परोपकारी जनै सो सफल है। जे आयुधका ग्रहण करै हैं ने द्वषसंयुक्त जानने । जिनके रग द्वेष है तिनके मोह भी है अर जे कामिनीके संगसे श्राभूषणों को धारण कर हैं ते रागी जानने अर मोह बिना राग द्वेष होय नहीं, सकल दोषोंका मह कारण है, जिनके रागादि कलंक है, ते संसारो जीव हैं जिनके ये नहीं वे भगनान हैं। जे दश काल कामादिक सेवनहारे हैं, ते मनुष्य तुल्य है तिनमें देवत्व नहीं तिनकी सेवा शिवपुरका कारण नहीं अर काहूके पूर्व पुण्यके उदयसे शुभ मनोहर फल होय है सो कुदेव सेवाका फल नहीं. कुदेव की सेना सांसारिक सुख भी न ओयो शिवमुख कहांसे होय याने कुदेवोंको सेवनः बलू को पेल तेलका काढना है अर परिनके सेवन तृपाका बुझावना है जैसे कोई पंगुको पगु देशांतर न ले जाय सकै तैम कुदेशोंक आराधना से परम पदकी प्राप्ति कदाचित् न होय । भगवान विना और देवोंके सेवनका क्लेश करै सो वृथा है, कुदेवनमें देवत्व नाही अर जे कुदेवोंके भक्त हैं ते पात्र नहीं, लोभकर प्रेरे प्राली हिंसाहर्म वषै प्रवरते हैं हिंसाका मय नहीं, अनेक उपायकर लोकोंसे धन लय हैं संसारी लोक भी लोमा सो लोभि ठगावें है तातै सर्व दोषरहित जिन आज्ञा प्रभागा जो महा दान करै सो माफल पावै, वाणिज्य समान धर्म है, कभी किसी वाणिज्यविष अधिक नफा होय, कभी अल्प होय, कदापि टोटा होय, कभी मूल ही जाता रह, अल्पसे बहुत फल हो जाय, बहुतसे अल्प हो जाय अर जैसे विषका कम सरोवरीमें प्राप्त भया सरोवरोको विषरूप न करे तैसे चैत्यालयादिके निमित्त अन्य हिंता सो धर्मका विघ्न न करे तातै गृहस्थी भगवानके मंदिर करावें । कैसे हैं गृहस्थी ? जिनेन्द्र Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां पर्व की भक्तिविष तत्पर हैं अर व्रत क्रियामें प्रतीण हैं अपन: विभूति प्रमाण जिनमंदिकर जल चंदन धूप दीपादिकर पूजा करनी । जे जिनमदिरादिमें धन खरचं ते स्वर्गलोकमें तथा मनुप्य लोकविणे अत्यन्त ऊंचे भोग भोगि परम पद पाये हैं अर जे रविध संघको भक्तिपूर्वक दान करें हैं ते गुणानिके भाजन हैं, इन्द्रादि पदके भोगों को पाव है तात जे पी शक्तिप्रमाण सम्यग्दृष्टि पात्रोंको भक्तिसे दान करे हैं तथा दुखियोंको दयाभाव कर दान करें हैं सो धन सफल है अर कुमारगमें लगा जो धन सो चोरांस लूटा जानो अर आत्मध्यानके योगसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होय है जिनको केवलज्ञान उपजा तिनको निर्वाण पद है। सिद्ध सर्व लोकके शिखर तिष्ठ हैं सर्व बाधारहित अष्टकमसे रहित अनंतशान अनंतदर्शन अनंसुख अनंतवीर्य से संयुक्त शरीरसे रहित वामूर्तिक पुरुषाकार जन्म मरणसे रहित अविचल विराजै हैं, जिनका संसार विर्य आगमन नाही. मन इन्द्रीसे गंच है यह सिद्धपद धर्मात्मा जीव पाये अर पापी जीव लोभरूप पक्न से वृद्धिको प्राप्त भई जो दुखरूप अग्नि उसमें बलते तुक्रतरूप जल बिनः सदा क्लेशको पावै हैं, पारूप अन्धकारके मध्य मिष्ठे मिथ्यादर्शनके वशीभूत हैं। कोई एक भव्यजीव धर्मरूप सूर्यकी किरणोंसे पाप ति रको हर केवलज्ञान को पावै है अर ये जीव अशु रूप लोहेके पिंजरेमें पड़े आशारूप पाशकर बेढ़े धर्मरूप वाधव कर छूट हैं, व्याकरणहूं धर्म शब्दका यही अर्थ हुआ है जो धर्म आचरता हुया दुर्गतिविणे पड़ते प्राणियोंको थांभ सो धर्म कहिए,ना धर्मका जो लाभ सो लाभ कहिये, जिनशासनविषै जो धर्मका स्वरूप कहा है सो संक्षेपसे तुमको क है हैं, धर्मके भेद पर धर्मके. फलके भेद एकाग्रमन कर मुनो, हिंसासे असत्यसे चोरीसे कुशीलसे धन पारिग्रहके संग्रहसे विरक्त होना इन पापोंका त्याग करन सो महाव्रत कहिये । विवेकियोंको उसका धारण करना श्रर भूमि निरखकर चलना हित मिन संदेहरहित बोलना निर्दोष आहार लेना यत्नसे पुस्तकादिक उठावना मेलना निजाभूमिविणे शरीरका मल डारना ये पांच समिति कहिये तिनका पालना यत्नकर र मन वचन कायकी जो वृत्ति ताका अभाव ताका नाम तीन गुप्ति कहिये सो परम आदरतें साधुओंको अंगीकार करनी। क्रोध मान माया लोभ ये कषाय जीक्के महाशत्रु हैं सो क्षमासे क्रोधको जीतना अर मार्दव कहिये निगर्व परिणाम निहार मनको जीतना अर आर्जव कहिये सरल परिणाम निष्ट पट भाव ताकरि मागाचारको जीतना अर संतोषसे लोभको जीतना, शास्त्रोक्त थर्मके करनहारे जे मुनि तिनको कपाशेंका निग्रह करना योग्य है। ये पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्ति कषयनिग्रह मुनिराजका धर्म है अर मुनिका मुख्य धर्म त्याग है। जो सर्व त्यागी होय सो ही मुनि है अर रसना स्पर्शन घाण चक्षुः श्रोत्र ये प्रसिद्ध पांच इन्द्री तिनका वश करना सो धर्म है अर अनशन कहिये उपवास, अवमोदर्य कहिए अल्प आहार, व्रतपरिसंख्या कहिए विषम प्रतिज्ञाका धारणा अटपटी बात विचारनी इस विधि श्राहार मिलेगा तो लवेंगे, नातर नहीं अर रसपरित्याग कहिए रसोंका त्याग, विविक्त शय्यासन कहिये एकान्त वनविष रहना, स्त्री तथा बालक तथा नपुंसक तथा ग्राम्यपशु इनकी संगति साधुवों को न करनी तथा और भी संसारी जीवोंकी संगति न करनी, मुनिको मुनिहीकी सङ्गति करनी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पभ-पुराण अर काय क्लेश कहिये ग्रीष्ममें गिरि शिखर, शीतविष नदीके तीर, वर्षा में वृक्षके तले तीनों कालके तप करने तथा विपमभूमिविष रहना, मासोपवासादि अनेक तप करना ये षट् वाह्य तप कहे अर प्राभ्यन्तर एट तप सुनो-प्रायश्चित्त कहिए जो कोई मनसे तथा वचनसे तथा कायसे दोष लगा सो सरल परिणामकर श्रीगुरुये प्रकाशकर तपका दंड लेना बहुरि विनय कहिये देव गुरु शास्त्र साधर्मियोंको विनय करना तथा दर्शन ज्ञान चारित्रका आचरण सो ही इनका विनय अर इनके जे धारक तिनका आदर करना आपसे जो गुणाधिक होइ ताहि देखकर उठ खड़ा होना सम्मुख जाना आप नीचे बैठना उनको ऊंचे विठाना मिष्ट वचन बोलने दुख पीड़ा मेटनी अर वैयाव्रत काहिए जे तपसे तमायम न है रोमकरि युक्त हैं गात्र जिनका वृद्ध है अथवा नव वयके जे बालक हैं तिनका नाना प्रकार यन्न करना औषध पथ्य देना उपसर्ग मेटना अर स्वाध्याय कहिए जिनशासनका वाचना पूछना, अाम्नाय कहिये परिपाटी, अनुप्रेक्षा कहिये बारम्बार चितारना, धर्मोपदेश कहिये धर्मका उपदेश देना पर व्युस्सर्ग कहिए शरीरका ममत्व तजना तथा एक दिवस आदि वर्ष पर्यत कायोत्सर्ग धरना पर ध्यान कहिए आर्त रौद्र ध्यानका त्यागकर धर्म ध्यान शुक्लध्यान ध्याना ये छह प्रकारके अभ्यन्तर तप कहे । ये वाह्याभ्यन्तर द्वादश तप सब ही धर्म हैं। ___ इस धर्मके प्राबसे भाव वर्मका नाश करै हैं पर तपके प्रभावये अद्भुत शक्ति होय है सर्व मनु य अर देवों को जीतनकू समर्थ होय है। विक्रया शक्तिकर जो चाहै सो करै। पिक्रियाके अष्ट भेद हैं अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्रालि, प्राकाम्य, ईशन, वशिन्व । सो महामुनि तपोनिधि परम शांत हैं सकल इच्छ त रहिा हैं और ऐसी पार्थ है चाहें तो सूर्यका अाताप निवार, चन्द्रमाकी शीतलता निवारें, चाहें तो जलवृष्टि कर चणमात्रविष जगत को पूर्ण करें, चाहे तो भस्म करें, क्रूर दृष्टि कर देसै तो प्राण , कृपादृष्टि कर देखें तो रंकसे राजा करें, चा हैं तो रत्न स्वर्णकी वर्षा करें, चाहें तो प.प.णकी वर्षा करें इत्यादि सार्थ्य है परन्तु बारें नाहीं । करें तो चारित्रका नाश होय । तिन मुनिक चरणरजकर सर्व संग जाय, मनुष्योंको अद्भुत विभनके कारण निके चरण मल हैं । जीव धर्म कर अनन्त शक्ति को प्राप्त होय हैं धर्म कर कर्मनको हरै हैं अर कदाचित् को जन्म लय तो सौधर्म सर्ग अदि सवार्थ सिद्धि पर्वत जाय स्वर्गविष इन्द्रपद पावै तथा इन्द्र समान रिभूतिके धारक देव होंय जिनके अोक खण के मन्दिर, स्वर्णके, स्फटिक मणिके, वैये मणिक थंभ अर रत्नमई भीति देदीप्यम न अर सदर झरोखोंसे साभायनान पमरागाण आदि नाना प्रकारकी मणिक शिखर हैं जिनके पर मोतियोंकी झालरोंस शोभित अर जिनमहलोंमें अनेक चित्राम ति के गजोंक हंसाक स्थानोंके मयूर कोकिलादिकोंक दोनों भीतविषे रत्ननई चित्रामाभायमान है। चन्द्रशालादिकर युक्त, ६.जावोंकी पंक्तिकर शोभित, अत्यन्त मनके हर पहारे, मन्दिर म हैं। बापनादिन संयुक जहां नाना प्रक र वात्रि बाजे हैं, माज्ञाकारी सेवक देव अर महामनोहर देशांगना, अद्नत र लोकं सुख नहा मुं.र परावर कमलादेिकर संयुक्त कल्पवृक्षांक वन विमान आदि विभाग यह सनी जांच ध माका Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ चौदहवां पर्व ये हैं कैसे हैं स्वर्गनिवासी देव १ अपनी कांतिकर र दीप्तिकर चांद सूर्य को जीते हैं। स्वर्गलोकविषै रात्रि अर दिवस नाहीं, पट्ऋतु नाहीं, निद्रा नाहीं अर देवोंका शरीर माता पिता स उत्पन्न नाहीं, होता जब अगला देव खिर जाय तत्र नया देव श्रपपादिक शय्याविषै उपजै है जैसे कोई सूता मनुष्य सेजतें जाग उठे तैसे क्षणमात्रमें देव औपपादिक शय्याविषै नवयौवनको प्राप्त भगा प्रकट होय हैं कैसा है तिनका शरीर ? सात धातु उपधातु रहित, निर्मल रज पसेव र रोगों रहित सुगंध पवित्र कोमल परम शोभायुक्त नेत्रोंको प्यारा ऐसा औपपादिकशुभ वैयिक देवका शरीर होय सो ये प्राणी धर्मकरि पावै हैं जिनके आभूषण महा देदीप्यमान तिनकी कान्तिके समूहकर दशदिशामें उद्योत हो रहा है अर तिन देवनके देवांगना महासुन्दर हैं कमलोंके पत्र समान सुंदर हैं चरण जिनके अर केले के थंभ समान है जङ्घा जिनकी कांचीदाम (तागड़ी) कर शोभित सुन्दर कटिअर नितंब जिनके जैसे गजोंके घण्टीका शब्द होय तैसे कांचीदामकी क्षुद्र टिकाका शब्द होय है उगते चन्द्रमासे अधिक कांति धरै हैं मनोहर है स्तनमंडल जिनका, रनों के समूहसे ज्योतिको जीते अर चांदनीको जीते ऐसी है प्रभा जिनकी, मालतीकी जो माला साहू अति कोमल भुजलता है जिनकी, महा अमौलिक बाचाल मणिमई चूड़े उनकर शोभित . है हाथ जिनके, अर शोकवृक्षकी कोंपल समान कोमल अरुण हैं हथेली जिनकी, अति सुन्दर करकी अंगुली, शंख समान ग्रीवा, कोकिल यति मनोहर है कंठ, अति लाल अति सुंदर रसके भरे र तिनकर आच्छादित कुन्दके पुष्प समान दन्त पर निर्धन दर्पण समान सुन्दर हैं कपोल जिनके, लावण्यताकर लिप्त भई हैं सर्वदिशा र अति सुन्दर तीक्ष्ण काम के बाण समान नेत्र सोनेत्रों की कटाक्ष कर्णपर्यत प्राप्त भई हैं सांई मानों कर्णाभरण भये अर पद्मराग मणि आदि अनेक मणियोंके भूपण र मोतियोंके हार उन से मण्डित र भ्रमर समान श्याम अति सूक्ष्म ति निर्मल अति चिकने प्रति वक्रता धरै लम्बे केश कोमल शरीर अति मधुर स्वर अत्यन्त चतुर सर्व उपचार की जाननहारी महा सौभाग्यवती रूपवती गुणवती मनोहर क्रीड़ाकी करणहारी नन्दनादि वन से उपजी जो सुगन्ध ताहू अति सुगन्ध है श्वास जिनके पराये मनका अभिप्राय चेष्टासे जान जाय ऐसी प्रवीण पंचेंद्रियोंके सुखकी उपजावनहारी मनवांछित रूपकी धरण हारी ऐसी स्वर्ग में जो अमरा बह धर्मके फलसे पाइए हैं अर जी इच्छा करें सो चितवतमात्र सर्व सिद्धि होय, इच्छा करें सो ही उपकरण प्राप्त होय, जो चाहें सो सदा संग ही हैं, देवांगनावोंकर देव मनवांछित सुख भोगे हैं। जो देवलोकमें सुख हैं तथा सनुष्य लोकविषै चक्रवर्त्यादिकके सुख हैं। सो सर्व धर्मका फल जिनेश्वर देवने कहा है, पर तीन लोकमें जो सुख ऐसा नाम धरावे हैं सो सर्व धर्मकर उत्पन्न होय है । जे तीर्थकर तथा चक्रवर्ती बलभद्र कामदेवादि दाता भोक्ता मर्यादाके कर्त्ता निरन्तर हजारों राजावों तथा देवोंकर सेइए हैं सो सर्व धर्म का फल है । अर जो इंद्र स्वर्गलोकका राज्य हजारों जे देव मनोहर आभूषण के धरणारे तिनका प्रभुत्व भरे हैं सो सर्व धर्मका फल है, यह तो सकल शुभांपयोगरूप व्यवहार धर्मके फल कहे अर जे महामुनि निश्चयसे रत्नत्रय के धरणारे मोहरिका नाशकर सिद्धपद पावै हैं सो शुद्धोपयोगरूप आत्मीक धर्मका फल १३ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४६ पद्म-पुराण है सो मुनिका धर्म मनुष्य जन्म विना नहीं पाइए है, तातैं मनुष्य देह सर्व जन्मविषैश्रेष्ठ है, जैसे मृग कहिए वनके जीव तिनमें सिंह अर पक्षियोंविषै गरुड अर मनुष्यविषैराजा, देवोत्रिषै इंद्र, तृणोंविष शालि, वृक्षों विषै चन्दन र पाषाणांविषै रत्न श्रेष्ठ है, तैसे सकल निषै मनुष्य जन्म श्रेष्ठ हैं, तीन लोकविषे धर्म सार है । सो मुनिका धर्म मनुष्य देहसे ही होय हैं तातैं मनुष्य समान और नही । अनंत काल यह जीव परिभ्रमण करें है तामैं मनुष्य जन्म कब ही पावै हैं यह मनुष्यदेह महादुर्लभ है। ऐसे दुर्लभ मनुष्य देहको पाय जो मूढ़ प्राणी समस्त क्लेश से रहित करणद्वारा जो मुनिका धर्म अथवा श्रावका नहीं करै है सो वारम्वार दुर्गतिविषै भ्रमण करै है । जैसे समुद्र विषै गिरा महागुणों का वरणहारा रत्न बहुरि हाथ आवना दुर्लभ है तैसे भव समुद्रविषै नष्टहुआ नर देह बहुरि पावना दुर्लभ है, इस मनुष्य देहविषै शास्त्रोक्त धर्मका साधन कर कोई मुनिव्रतधर सिद्ध होय हैं अर कोई स्वर्गनिवासी देव तथा हमिंद्र पद पावें, परम्परा मोक्ष पात्र हैं, या भांति धर्म अधर्म के फल केवलीक मुखतें सुनकर सब ही सुखको प्राप्त भए । ता समय कमल सारिखे हैं नेत्र जाके ऐसा कुम्भकरण हाथ जोड़ नमस्कारकर पूछता भया उपजा है अति आनंद जाकेँ । हे भगवान ! मेरे श्रव भी तृप्ति न भई तातैं विस्तार कर धर्मका व्याख्यान विधिपूर्वक मोहि कहो । तब भगवान अनन्तवीर्य कहते भए - 'हे भव्य ! धर्मका विशेष वन सुनोजाकर यह प्राणी संसार के बंधननितें छूटे सो धर्म दो प्रकारका है- एक महात्रतरूप दूजा अणुव्रतरूप । सो महाव्रतरूप यतिका धर्म है, अणुत्रतरूप श्रावकका धर्म है । यति घरके त्यागी हैं श्रावक गृहवासी हैं, तुम प्रथम ही सर्व पापों का नाश करण द्वारा सर्व परिग्रह के त्यागी जे महामुनि तिनका धर्म सुनो । 1 या अवसर्पिणी कालमें ब तक ऋषभदेवतं मुनिसुव्रत पर्यंत बीस तीर्थकर हो चुके हैं अत्र चार और होंगे या भांति अनन्त भए अर अनन्त होवेंगे सो सबका एक मत है । यह श्रीमुनिसुव्रतनाथका समय है । सो अनेक महापुरुष जन्म मरणके दुःखकरि महा भयभीत भए या शरीरको एरण्डकी लकड़ी समान असार जान सर्व परिग्रहका त्याग कर मुनिब्रतको प्राप्त भए । ते साधु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्यागरूप पंचमहाब्रत तिनदिषै रत तत्त्वज्ञानविषे तत्पर पंचसमिति के पालनहार, तीन गुप्ति के धरनहारे, निर्मलचित्त महापुरुष परमदयालु निजदेहविष भी निर्ममत्व रागभावरहित जहां सूर्य अस्त होय तहां ही बैठ रहें, आश्रय कोई नहीं, तिनके कहा परिग्रह होय, पापका उपजावनहारा जो परिग्रह सो तिनके वालके अग्रभाग मात्र हू नाहीं, वे महाथीर महामुनि सिंह समान साहसी, समस्त प्रतिवन्ध रहित, पवन सारिखे असंगी, तिनके रंचमात्र भी संग नहीं, पृथिवी समान क्षमावंत, जल सारिखे विमल, अग्नि सारिखे धर्मको भस्म करनहारे, आकाश सारिखे अलिप्त, सर्व सम्बन्ध रहित, प्रशंसा योग्य है चेष्टा जिनकी, चन्द्र सारिखे सौम्य, सूर्य सारिखे तिमिर हरता, समुद्र सारिखे गम्भीर, पर्वत सारिखे अचल, कछुवा समान इन्द्रियां के संकोचन हारे, कपायोंकी तीव्रतारहित, अठाईस मूलगुण चैरासी लाख उत्तर गुणोंके धारणहारे, अठारह हजार शील के भेद, तिनके धारक, तपोनिधि मोक्षमार्गी जिन Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० चौedia धर्ममें लवलीन. जिन शास्त्रोंके पारगामी अर सांख्य पातंजल बौद्ध मीमांसक नैयायिक वैशेषिक बेदान्ती इत्यादि पर शास्त्रोंके भी बेचा महा बुद्धिमान् सम्यग्दृष्टि यावज्जीव पापके त्यागी यम नियमके धरनहारे परम संयमी परम शान्त परम त्यागी निगर्व अनेक ऋद्धिसंयुक्त महामंगलमूर्ति जगत के मण्डन महागुणवान् केई एक तो उस ही भवमें कर्म काट सिद्ध होंय कई एक उत्तम देव होय ढा तीन भयमें ध्यानाग्निकर समस्त कर्म काष्ठ बाल अविनाशी सुखको प्राप्त होय हैं यह यतीका धर्म कहा । श्रथ स्नेहरूपी पींजरे में पड़े जे गृहस्थी तिनका द्वादशव्रतरूप जो धर्म सो सुनो। पांच अणुव्रत तीन गुणनत चार शिक्षात्रत अर अपनी शक्ति प्रमाण हजारों नियम त्रसघातका त्याग र मृषावादका परिहार परधनका त्याग परदारा परित्याग र परिग्रहका परिमाण तृष्णाका त्याग ये पांच अणुव्रत र दिशादिका प्रमाण देशों का प्रमाण जहां जिनधर्मका उद्योत नहीं तिन देशनका त्याग अनर्थ दण्डका त्याग ये तीन गुणत्रत र सामायिक प्रोषधोपवास अतिथि संविभाग भोगोपभोग - परिमाण ये चार शिक्षाव्रत । ये बारह व्रत हैं अब इन व्रतोंके भेद सुनो। जैसे अपना शरीर आपको प्यारा है तैसा सबनिको प्यारा है ऐसा जान सर्व जीवोंकी जीवदया करना । उत्कृष्ट धर्म दया ही भगवानने कहा है, जे निर्दई जीद ने हैं तिनके रंचमात्र भी धर्म नाहीं अर जामें परजीवको पीडा होंय सो वचन न कहना परबाधाकारी वचन सोई मिथ्वा अर परउपकाररूप वचन सोई सत्य र जे पापी चोरी करें पराया धन हरें हैं वे इस भवमें बध बन्धनादि दुख पावे हैं, कुमरणसे मरे हैं श्रर परभव नरकमें पड़े हैं नाना प्रकारके दुःख पावैं हैं चोरी दुःखका मूल है तातें बुद्धिमान सर्वथा पराया धन नहीं हरें हैं सो जाकर दोनों लोक बिगड़ें ताहि कैसे करें पर सर्पि समान परनारी को जान दूरहीतें तजो यह पापिनी परनारी काम लोभके वशीभूत पुरुषको नाश करनहारी है । मर्पणी तो एक भव ही प्राण हरे है यर परनरी अनन्त भव प्राण हरे है । कुशल पातें निगोद में जाय हैं सो अनन्त जन्म मरण करे हैं, पर इस ही भवमें मारना. ताडनादि अनेक दुःख पावे हैं । यह परदारासंगम नरक निगोदके दुस्सह दुःखका देनहारा है. जैसे कोई पर पुरुष व स्त्रीका पराभव करें तो आपको बहुत बुरा लगै अति दुःख उपजै तैसे ही सकलकी व्यवस्था जानवी अर परिग्रहका परमाण करना बहुत तृष्णा न करनी जो यह जीव इच्छाको न रोके तो महा दुखी होय । यह तृष्णा ही दुःखका मूल है, तृष्णा समान अर व्याधि नाहीं । या ऊपर एक कथा है सो सुनो- एक भद्र दूजा कंचन ये दोय पुरुष थे तिनमें भद्र फलादिकका बेचनहारा सो एक दीनार मात्र परिग्रहका प्रमाण करता भया । एक दिवस: मार्ग में दीनारोंका बटवा पड़ा देखा उसमेंसे एक दीनार कौतूहलकर लीनी श्रर दूजा कांचन है नाम जिसका ताने सर्व बटुवा ही उठाया सो दीनारका स्वामी राजा उसने बटवा उठावता देख कांचनको पिटाया र गामते कढाया अर भद्रने एक दीनार लीनी हुती सो राजाको बिना मांगे स्वयमेव सौंप दीनी । राजाने भद्रका बहुत सन्मान किया ऐसा जानकर बहुत तृष्णा न करनी, संतोष धरना ये पांच अणुव्रत कहे । --- I Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण __ अर चार दिशा चार विदिशा एक अधः एक ऊर्ध्व इन दश दिशाका परिमाण करना कि इस दिशाको एती दूर जाऊंगा, आगे न जाऊंगा। बहुरि अपध्यान कहिये खोटा चितवन, सपोपदेश कहिये अशुभ कार्यका उपदेश, हिंसादान कहिये विष फांसी लोहा सीसा खड्गादि शस्त्र तथा चाबुक इत्यादि जीवनके मारनेके उपकरण तथा जे जाल रस्मा इत्यादि बन्धनके उपाय तिनका व्यापार अर श्वान मार्जार चीतादिका पालना अर कुश्रुतिश्रवण कहिये कुशास्त्र का श्रवण, प्रमादचर्या कहिये प्रमादसे वृथा कायके जीवोंकी बाधा करनी ये पांच प्रकारके अनर्थ दण्ड तजने अर भोग कहिये आहारादिक, उपभोग कहिये स्त्रीवस्त्राभूषणादिक तिनका प्रमाण करना अर्थात् यह विचार जे अभक्ष्य भक्षणादि तिनका नियमरूप प्रमाण यह भोगोप. भोग परिसंख्यावत कहिये । ये तीन गुणत्रत कहे पर सामायिक कहिये समताभाव पंचपरमेष्ठी भर जिनयम जिनवचन जिनप्रतिमा जिनमंदिर तिनका स्तवन अर सर्व जीवोंसे क्षमाभाव सो प्रभात मध्याह्न सायंकाल छै छ घड़ी तथा चार २ घड़ी तथा दो दो घड़ी अवश्य करना कर प्रोषथोपवास कहिये दो आठे दो चौदस एक मास में चार उपवास पोडश पहरके पोसे संयुक्त अवश्य करने । सोलह पहरतक संसारके कार्यका त्याग करना आत्मचिंतवन तथा जिन भजन करना भर अतिथि संविभाग कहिये अतिथि जे परिग्रहरहित मुनि जिनके तिथि वार का विचार नहीं सो आहारके निमित्त आवें, महागुणोंके धारक तिनको विधिपूर्वक अपने वित्तानुसार बहुत श्रमदरसे योग्य आहार देना अर श्रायुके अन्तविणै अनशन व्रत धर समाधिमरण करना सो सल्लेखनाव्रत कहिये । ये चार शिक्षाव्रत कहे। पांच अणुव्रत तीन गुणवत चार शिक्षाप्रत ये बारहवत जानने । जे जिनधर्मी हैं तिनके मद्यमांस मधु माखण (मक्खन) उदंबरादि अयोग्य फल रात्री भोजन पीथा अन्न अनछाना जल परदारा तथा दासी वेश्यासंगम इत्यादि अयोग्य क्रियाका सर्वथा. त्यांग है। यह श्रावकके धर्म पालकर समाधिमरणकर उत्तम देव होय फिर उत्तम मनुष्य होय. सिद्धपद पावै है अर जे शास्त्रोक्त आचरण करनेकों असमर्थ हैं न श्रावकके वृत पालें न यतिके परन्तु जिनभाषितकी दृढ़ श्रद्धा है ते भी निकट संसारी हैं सम्यक्त्वके प्रसादसे व्रतको धारण का शिवपुरको प्राप्त होय हैं। सर्व लाभमें श्रेष्ठ जो सम्यग्दर्शनका लाभ ताकरि ये जीव दुर्गतिके वाससे छूटें हैं। जो प्राणी मावसे श्रीजिनेन्द्रदेवको नमस्कार करे हैं सो पुण्याधिकारी पापोंके क्लेशसे निवृत्त होय हैं अर जो प्राणी भावकर सर्वज्ञदेवको सुमरे है ता भव्यजीवकं अशुभकर्म कोट मवके उपारजे तत्काल क्षय होय हैं अर जो महाभाग्य त्रैलोक्यविष सार जो अरिहंत देव विनको हृदयविष धारे हैं सो भवकूपविष नहीं परे हैं। ताके निरन्तर सर्व भाव प्रशस्त हैं अर वाको अशुभ स्वप्न न आवें, शुभ स्वप्न ही आवें अर शुभ शकुन ही होय हैं अर जो उत्तम जन "भई नमः" यह वचन भावतें कहे हैं ताके शीघ्र ही मलिन कर्मका नाश होय है याविष सन्देह नाहीं। मुक्ति-योग्य प्राणीका चित्त रूप कुमुद परम निर्मल वीतराग जिनचन्द्रकी कथारूप जो किरण तिनके प्रसंगर्ते प्रफुल्लित होय है अर जो विवेकी अरिहंत सिद्ध साधुवोंके ताई नमस्कार कर है सो सव जिनपनियोंका प्यारा है ताहि अल्प संसारी जानना अर जो. उदार, Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां पर्व १४ चित्त श्रीभगवानके चैत्यालय करावै जिनबिंब पधरावै है जिनपूजा करै है जिनस्तुति करै है ताके इस जगत विष कछु दुर्लभ नाहीं। नरनाथ कहिए राजा होहु अथवा कुटुम्बी कहिए किसान होहु, धनाढय होहु तथा दलिद्री होहु जो मनुष्य धर्मसे युक्त है सो सर्व त्रैलोक्यमें पूज्य है । जे नर महाविनयवान हैं अर कृत्य अकृत्य के विचारविणे प्रवीण हैं जो यह कार्य करना यह न करना ऐसा विवेक थरै हैं ते विवेकी धर्मके संयोगते गृहस्थि निवि मुख्य हैं । जे जन मधु मांस मद्य यादि अभक्ष्यका संसर्ग नहीं करै हैं तिन हीका जीवन सफल है। अर शंका कहिए जिनवचनों में सन्देह, कांक्षा कहिए इस भवविष अर परभवविष भोगोंको बांछा, विचिकित्सा कहिए रोगी वा दुखीको देख घृणा करणी आदर नहीं करना । अर आत्मज्ञ नसे दूर जे परदृष्टि कहिए जिनधर्मसे पराडमुख मिथ्यामार्गी तिनकी प्रशंसा करनी अर अन्य शासन कहिए हिंसामार्ग ताके सेवनहार जे निर्दयी मथ्या दृष्टि उनके निकट जाय स्तुति करनी, ये पं सम्यक दर्शन के अतीचार हैं। जिनके त्यागी जे जंतु कहिये प्राणी ते गृहस्थिनिविष मुख्य हैं अर जा प्रिय दर्शन कहिए प्यारा है दर्शन जाका, सनर वग्त्रा मरग पहिरे, सुगंध शरीर पयादा थरतीको देखता निर्विकार जिनमदिरमें जाय है, शुभ कानिदै उद्यमी ताके पुण्यका पार नाही अर जो पराए द्रव्यको तण समान देखै है अर पर जीको आप समान देखे हैं अर परनारीको माता समान देखें हैं सो धन्य हैं अर जाके ये भाव हैं-ऐमा दिन कबहोयगा जो मैं जिनेंद्री दीक्षा लेकर महामुनि होय पृथ्वीवियु निर्वेन्द्र विहार करूंगा, ये कर्म शत्रु अनादिके लगे हैं तिनका क्षयकर कब सिद्ध पद प्राप्त करू या भांति निरंतर ध्यानकर निर्मल भया है चित्त जामा साके कर्म कैसे रहें, भयकर भाग जाय। . . कैयक विवेकी सात आठ भ में मुक्त जाय हैं, कैक दो तीन भरविणे संसार समुद्रके पार होय हैं, कैयक चरमशरीरी उग्र तपकर शुद्ध पयोगके प्रस.दरों तद्भव मोक्ष होय हैं जैसे कोई मार्गका जाननहारा पुरुष शीघ्र चले तो शीघ्र ही स्थानकको जाय पहुंचे अर कोई थीरे धीरे चलै तौ धने दिनमें जाय पहुंचे परन्तु मार्ग चले सो पहुंचे ही अर जो माग ही न जान अर सौ सौ योजन चले तो भी भ्रमता ही रहै स्थानकको न पहुंचे तैसे मिथ्या दृष्टि उन तप करें तो भी जन्म मरण वर्जित जो अविनाशी पद ताहि न प्राप्त होय, संसार वन ही विषै भ्र, नहीं पाया है मुक्तिका मार्ग तिनने । कैसा है संसारवन ? मोहरूप अंधकारकर आच्छादित है अर कषायरूप सोकर भरा है । जिस जीवके शील नाहीं, छत नाहीं, सम्यक्त्व नाही, त्याग नाही, वैराग्य नाही, सो संसार समुद्रको कैसे तिरे । जैस विन्ध्याचल पर्वततै चला जा नदीका प्रवाह वाकरि पर्वत समान ऊंचे हाथी वह जांय तहां एक शसा क्यों न बहे तैसे जन्म जरा मरणरूप भ्रमणको धरै संसाररूप जो प्रवाह ताविणे जे कुतीर्थी कहिए मिथ्यामार्गी अज्ञान तापस हैं तेई. डूबे हैं फिर उनके भक्तोंका क्या कहना ? जैन शिला जलविणे तिरणे शक्त नहीं तैसे परिग्रहके थारी कुदृष्टि शरणागतोंको तारणे समर्थ नाहीं अर जे तत्वज्ञानी तपकर पापोंके भस्म करणहारे.. हलके हो गये हैं. कर्म. जिनके, ते उपदेशथकी प्राणियोंकों वारने समर्थ हैं. यह संसार सागर महार Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र-पुराण भयानक है । यामें यह मनुष्य-क्षेत्र रत्नद्वीप समान है सो महा कष्टसे पाइए है तातै बुद्धिवंतनको इस रत्नद्वीपविष नेमरूप रत्न ग्रहण अवश्य योग्य है । यह प्राणी या देहको तजकरि परभववियु जायगा अर जैसे कोई मूर्ख तागाके नार्थ महामणिको चूर्ण करै तैसे यह जडबुद्धि विषयके अर्थ धर्मरत्नको चूर्ण करै है अर ज्ञानी जीवोंको सदा द्वादश अनुप्रेक्षाका चितरन करना-ये शरीरादि सर्ग अनित्य है, आत्मा नित्य है या संसारविगै कोई शरण नहीं, आपको आप ही शरण है तथा पंच परमेष्ठीका शरण है अर संसार महा दुखरूप है चतुर्गतिविणै काहू ठौर सुख नहीं, एक सुखका धाम सिद्धपद है। यह जीव सदा अकेला है याका कोई संगी नहीं अर सर्ग द्रव्य जुदे जुदे हैं कोई काहसे मिल नहीं अर यह शरीर महां अशुचि है, मल मूत्रका भरा भाजन है, आत्मा निर्मल है अर मिथ्यात्व अत्रत कषाय योग पमोदनिकर कर्मका आश्रव होय है अर व्रत समिति गुप्ति दशलक्षण धर्म अनुप्रेक्षा-चतवन पर पदजय चारित्रकरि संवर होय है आश्रवका रोकना सो संवर सर तपकर पूर्वोपार्जित कर्मकी हिर्जरा होय है अर यह लोक पद्व्यात्मक अनादि अकृत्रिम शाश्वत है, लोकके शिखर सिद्ध लोक है । लोकालोकका ज्ञायक मात्मा है पर जो आत्मस्वभाव सो ही धर्म है. जीवदया धर्म है अर जगतविणे शुद्धोपयोग दुर्लभ है सोई निर्वाणका कारण है। द्वादश अनुप्रेक्षा विवेकी सदा चितवै । या भांति मुनि अर श्रावकके धर्म कहे । अपनी शक्ति प्रमाण जो धर्म सेवै उत्कृष्ट मध्यम तथा जघन्य सो सुरलोकादिविषै तैसा ही फल पावै । या भांति केवली कही तव भानुकर्ण कहिये कुम्भकर्णने केवलीसे पूछी-हे नाथ ! भेदसहित नियमका स्वरूप जानना चाहूँ हूँ। तब भगवानने कही-हे कुम्भकर्ण ! नियममें अर तपमें भेद नहीं, नियमकर युक्त जो प्राणी सो तपस्त्री कहिए तातै बुद्धिमान नियमविणै सर्वथा यत्न करे । जेता अधिक नियम करै सो ही भला अर जो बहुत न बने तो अन्य ही नियम करना परन्तु नियम विना न रहना जैसे वनै सुकृतका उपार्जन करना, जैसे मेघकी बूंद परे हैं तिन बूंदनिकरि महानदीका प्रवाह होय जाय है सो समुद्रवि जाय मिले है तैसे जो पुरुष दिनविणे एक मुहूर्तमात्र भी आहारका त्याग करै सो एक मासमें एक उपवासके फलको प्राप्त होय ताकर स्वर्गविणे बहुत काल सुख भोग, मनवांछित भोग प्राप्त होय, जो कोई जिनमार्गकी श्रद्धा करता संता यथाशक्ति तप नियम करै तो महात्माके दीर्घ काल स्वर्गविणे सुख होय बहुरि म्वर्ग” चयार मनुष्य भवविणे उत्तम भोग पावै है । एक अज्ञान तापसीकी पुत्री वनविङ्ग रहे सो महादुखवंती बदरीफल (वेर) आदि कर आजीविका पूर्ण करै ताने सत्संगत एक मुहूर्तमात्र भोजनका नियम लिया ताके प्रभावतें एक दिन राजाने देखी, आदरत परणी, बहुत संपदा पाई श्रर धर्ममें बहुत सावधान भई, अनेक नियम अादरे सो जो प्राणी कपटरहित होय जिनवचनको धारण करै सो निरन्तर सुखी होय, परलोकमें उत्तम गति पावै अर जो दो मुहूर्त दिवस प्रति भोजनका त्याग करे ताके एक मामविणै दो उपवासका फल होय। तीस मुहूर्तका एक अहोरात्र गिनो अर तीन मुहूर्त प्रति दिन भन्न जलका त्याग कर तो एक मासविणे तीन उपवासका फल होय । या मांति Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहमा पर्न जेता अधिक नियम देता ही अधिक फल । नियमके प्रसादकरि ये प्राणी स्वर्गविणे अद्भुत सुख भोगे हैं अर स्वर्गत चयकर अद्भुत चेष्टाके धारण हारे मनुष्य होय हैं, महा कुलवंती महारूपवंती महागुणवंती महालावण्यकर लिप्त मोतियोंके हार पहरे पर मनके हरनहारे जे हाव भाव विलास विभ्रम तिनको धरें जे शीलवंती स्त्री तिनके पति होय हैं अर स्त्री स्वर्गत चयकर बड़े कुलविणे उपजे बड़े राजाओंकी रानी होय हैं, लक्ष्मी समान है स्वरूप जिनका अर जो प्राणी रात्रि भोजनका त्याग करै हैं अर जलमात्र नाहीं ग्रई हैं नाके अति पुण्य उपजै है, पुण्यकर अधिक प्रताप होय है अर जो समापदृष्टि ब्रत घार ताके फलका कहा कहना १ विशेष फल पावै स्वर्गविगै रत्नई विमान तहां अप्सराबोंके समूहके मध्यमें बहुत काल धर्मके प्रभावकर तिष्ठ है बहुरि दुर्लभ मनुष्यदेही पावै तातें सदा धर्मरूप रहना अर सदा जिनराजकी उपासना करनी । जे धर्मपरायण हैं तिनको जिनेंद्रका अाराधन ही परम श्रेष्ठ है। कैसे हैं जिनेद्रदेव ? जिनके समोसरणकी भूमि रत्न कंचन कर निरमापिन देव मनुष्य ति चनिकर वंदनीक है। जिनेंद्र देव काठ प्रातिहार्य चौंतीस अतिशय महा अद्भुत हजारों सूर्य समान तेज महासुन्दर रूप नेत्रोंको सुखदाता हैं, जो भन्यजीव भगवानको भावकर प्रणाम करै सो विचक्षण थोड़े ही कालविणे संसार समुद्रको तिरै। श्री वीतरागदेवके सिवाय कोई दूसरा जीवोंको कल्याणकी प्राप्तिका उपाय और नाही तातें जिनेंद्रचंद्रहींका सेवन योग्य है अर अन्य हजारों मिथ्यामार्ग उक्ट मार्ग हैं तिनविष प्रमादी जीव भूल रहे हैं, तिन कुतीनिके सम्यक्त्व नाहीं पर अन्य मद्य मांसादिकके सेवन दया नाहीं अर जैनविष परम दया है, रंचमात्र भी दोषकी प्ररूपणा नाही पर अज्ञानी जीवोंके यह बड़ी जड़ता है जो दिवसमें श्राहारका त्याग करें और रात्रिमें भाजन कर पाप उपार्जे, चार पहर दिन अनशन व्रत किया ताका फल रात्रिभोजनतें जाता रहै, महा पापका बन्ध होय, रात्रीका भोजन महा अधर्म जिन पापियोंने धर्म कह कल्पा, कठार है चित्त जिनका तिनको प्रतिबोरना बहुत बटिन है। जब सूर्य अस्त हाय जीव जन्तु दृष्टि न आवै तब जो पापी विषयोंका लालची भोजन करे है सो दुर्गतिके दुःखको प्राप्त होय है योग्य अयोग्यको नहीं जाने है । जो अविवेकी पापबुद्धि अन्धकारके पटल कर आच्छादित भए हैं नेत्र जाके रात्रीको भोजन कर हैं सो मक्षिका कीट केशादिकका भक्षण करै हैं । जो रात्री भोजन कर हैं सो डाकनि राक्षस स्वान मार्जार {मा आदिक मलिन प्राणियोंका उच्छिष्ट आहार करे हैं। अथवा बहुत प्रपंच कर कहा ? सवथा यह व्याख्यान है कि जो रात्रीको भोजन करे है सो सर्व अशुचिका भोजन करें है, सूर्यके अस्त भए पीछे कछु दृष्टि न आवै तातें दोय मुहूर्त दिवस वाकी रहै तब से लेकर दो मुहूर्त दिन चढ़े तक विवेकियोंको चौविधि आहार न करना । अशन पान खाद स्वाद ये चार प्रकारके आहार तजने । जे रात्रीभोजन करे हैं ते मनुष्य नहीं, पशु हैं । जो जिनशासनत विमुख व्रत नियमसे रहित रात्री दिवस भखवे ही करे हैं सो परलोकमें कैसे सुखी होय १ जो दयारहित नीच जिनेन्द्रकी जिन धर्मकी पर धर्मात्मावोंकी निंदा करें हैं सो परभवमें Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १५२ पद्म-पुराण I महा नरकमें जाय हैं और नरक निकस कर तिर्यंच तथा मनुष्य होय सो दुरगन्धमुख होय हैं । मांस मद्य मधु निशिमोन चोरी कर परनारी जो सेवै हैं सो दोनों जन्म खोचे हैं । जो रात्री भोजन वरैं हैं सो अल्प आयु हीन व्याधिपं डित सुखरहित महादुखी होय हैं । रात्रीभोजन के पापतैं बहुकाल जन्म मरण के दुख पावे हैं, र्भवासविषै बसे हैं, रात्रिभोजी, अनाचारी, शूकर, कूकर, गरदभ, मार्जार, काग बन, नरकनिगोद स्थावर त्रस अनेक योनियों में बहुत काल भ्रमण हैं। हजारों वसर्पणीकाल अर हजारों उर्पणी काल योनिनिविषै दुःख भोगे हैं । जो कुबुद्धि निशि-भोजन करें है सो निशाचर कहिये राचस समान हैं और जो भव्यजीव जिनधर्मका पाकर नियम वर्षे तिष्ठ है सो समस्त पापको भ+मकर मोक्षपदको पा हैं । जो व्रत लेइकरि भंग करें को दुःखी हो हैं । जे खुवोंमें परायण रत्नत्रय के धारक श्रावक हैं ते दिवसविप ही भोजन करें, दो परहित योग्य आहार करें, जे दयावान रात्रीभोजन न करें स्वर्ग सुख भोगकर तहांते चयकर चक्रवत्र्यादिकके सुख भोगे हैं शुभ है चेष्टा जिनकी, उच्चम वूतळनियम चेष्टाके धरनहारे सोधर्मादि स्वर्गविष ऐसे भोग पावैं जो मनुष्योंको दुरलभ हैं अर दवोंसे मनुष्य होय सिद्ध पद पावें हैं । कैस मनुष्य होय ? चक्रवर्ति, कामदेव, बलदेव, महामण्डलीक, भडलीक, महाराजा राजाधिराज महा विभूतिके धनी, महागुणवान उदारचित्त दीरघायु सुंदररूप जिनधर्मके मर्ती जगतके हितु अनेक नगर ग्रामादिकों के अधिपति नाना प्रकार के बाहर मण्डित सर्व लोकके बल्लभ अनेक सामन्तोंके स्वामी दुस्सह तेजके धारनहारे ऐसे राजा होय हैं अथवा राजावकि मन्त्री पुरोहित सेनापति राजश्रेष्ठी तथा श्रेष्ठी वड़े उमराव महा सामंत मनुष्या में यह पद रात्री भोजनके त्यागी पावे हैं । देवनि इन्द्र भवनवासियोंके इन्द्र वक्र के धनी मनुष्यों इन्द्र महालक्षणों कर सम्पूर्ण दिनभोजनतें होय हैं। सूर्य सारिखे प्रतापी चन्द्रमा सारखं सौम्यदर्शन, अस्तको प्राप्त न होय प्रताप जिनका, देवनि समान हैं भोग जिनके ऐसे तेई होंइ जे सूर्य अस्त भए भोजन न करें और स्त्री रात्रिमानक पावसे माता पिता भाई कुटुम्ब राहव अनाथ का परिरहित मागनी शोक दलिद्र कर पूर्ण रूक्ष फटे अर हस्त पादादि सूका शरीर चिपटी नासिका जी देखे सो ग्लान करें दुष्ट लक्षण बुरी, मांजरी, श्राषी, लूली, गूंग े, वहरा, व.वरी, कानी, चीड़, दुरगन्धयुक्त, स्थूल अथर खांटे फर्ण भूरे ऊ'चे बुरे सिरके कश तूं बड़ीके बीज समान दांत कुवरण कुलक्षण कादिरहित कठोर अंग अनक रोगोंकी भरी मलिन फटे वस्त्र उच्छिष्ट की भक्षणहारी पराई मंजूरी करणारी नारी होय है । रात्रिभोजनकी करणहारी नारी जा पति पावै तो कुरूप कुशील काढी बुर कान बुरी नाक बुरी श्राखें चितावान धर्म कुटुम्बरहित ऐसा पावें । रात्री भोजन तें विधवा बालावेधवा महादुखवन्ती जल काष्ठादिक भारके बहनहारी दुख कर भरे है उदर जाका सबै लोग कर हैं अपमान जाका, बचनरूप बसूलोंकर छीला है चित्त जाका अनेक फोड़ा फुनसीकी वरणहारी ऐसी नारी होय हैं वर जे नारी शीलवन्ती शान्त है चित्त जिनका दयावन्ती रात्रि भोजनका त्याग करें हैं वे स्वर्ग में मनवांछित भोग पावै हैं । तिनकी आज्ञा अनेक देव देवी सिरपर धारै हैं हाथ जोड़ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहा पव सिर निवाय सेवा कर हैं। स्वर्गमें मनवांछित भोग भोगकर महा लक्ष्मीवान ऊंचकुलमें जन्म पावें हैं, शुभ लक्षण सम्पूर्ण सर्व गुण मण्डित सर्वकलाप्रवीण देखनहारोंके मन और नेत्रोंको हरणहारी अमृत समान वचन बोलें आनन्दकी उपजाबनहारी जिनके परिणयेकी अभिलाषा चक्रवर्ती वलदेव पासुदेव तथा विद्याधरोंके अधिपति राखें, विजुरी समान है कांति जिनकी, कमल समान है पदन जिनका, सुन्दर कुण्डल आदि आभूषणको धारणहारी, सुन्दर वस्त्रोंकी पहरनहारी नरेंद्रकी राखी दिन भोजनतें होय हैं। जिनके मनर्वाछित अन्न धन होय है और अनेक सेवक नाना प्रकारको सेवा करें । जे दयावन्ती रात्रिविष भोजन न करें श्रीकांता सुप्रभा सुभद्रा लक्ष्मी तुल्य हवे ताते नर अथवा नारी नियमविष है चित्त जिनका ते निशिभोजनका त्याग करें। यह रात्रिभोजन अनेक कष्टका देनहारा है, रात्रिभोजनके त्यागविषै अति अल्प कष्ट है परन्तु याके फलकरि सुख अति उत्कृष्ट होय है तातै विवेकी यह व्रत आदरें, अपने कल्याणको कौन न वांछे, धर्म सो सुखकी उत्पत्तिका मूल है और अधर्म दुःखका मून है ऐसा जानकर धर्मको भजो, अधर्मको नजो। यह वार्ता लोकवि समस्त बालगोपाल जाने हैं जो धर्मसे सुख होय है अर अधर्मकरि दुःख होय है । धर्मका माहात्म्य देखो जाकरि देवलोकके चये उत्तम मनुष्य होय हैं, जलस्थलके उपजे जे रत्न तिनके स्वामी अर जगतकी मायासे उदास परन्तु कैएक दिनतक महाविभूतिके धनी होय गृहवास भोगे हैं। जिनके स्वर्ण रत्न वस्त्र धान्यनिके अनेक भण्डार हैं जिनके विभवकी बड़े २ सामन्त नानाप्रकारके आयुधोंके धारक रक्षा करें तिनके बहुत हाथी घोड़े रथ पयादे वहुत गाय भैंस अनेक देश ग्राम नगर मनके हरनहारे पांच इन्द्रियों के विषय पर हंसनीकीसी चाल चलें अति सुन्दर शुभ लक्षण मधुर शब्द नेत्रों को प्रिय मनोहर चेष्टाकी धरणहारी नानाप्रकार आभूषणकी धरणहारी स्त्री होय हैं । सकल सुखका मूल जो धर्म है ताहि कैयक मूर्ख जाने ही नाहीं तातै तिनके धर्मका यत्न नहीं पर कैएक मनुष्य सुनकर जान हैं जो धर्म मला है परन्तु पापकर्मके वशतें अकार्यविष प्रवरतें हैं, सुखका उपाय जो धर्म ताहि नाही सेवे हैं पर कैएक अशुभ कर्मक उपशान्त होते उत्तम चेटाके घर पहारे श्रीगुरुके निपट जाय धर्मका स्वरूप उद्यमी होय पूछ हैं। वे श्रीगुरुके वचन प्रभावों स्तुका रहस्य जानकर श्रेष्ठ आचरणको आचरौं है । यह नियम जे धर्मात्मा बुद्धिमान पापक्रियाते रहित होयकर करे हैं ते महा गुणवन्त स्वर्गविणे अद्भुत सुख भोगे हैं परम्पराय मोक्ष पावै हैं। जे मुनिराजोंको निरन्तर आहार देय हैं अर जिनके ऐसा नियम है कि मुनिके आहारका समग टार भोजन करें, पहिले न करें वे धन्य हैं, तिनके दर्शनकी अभिलाषा देव राखे हैं, दानके प्रभाव करि मनुष्य इन्द्रका पद पावै अथवा मनवांछित सुखका भोक्ता इंद्रके बरावरके देव होय हैं जैसे बटका वीज अल्प है सो वड़ा वृक्ष होय परणवै है तैसे दान तप अन्य भीमा फलके दाता हैं सहस्रभट सुभटने यह व्रत लिया हुता कि मुनिके आहारकी बेला उलंघकर भोजन करूंगा सो एक दिन ऋद्धिके थारी मुनि प्रहार को आए सो निरन्तराय पाहार भया तब रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य सुभटके घर भए । बह २० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्ना-पुराण सहस्रभट धर्मके प्रसादत कुवेरकान्त सेठ भया । सबके नेत्रोंको प्रिय, धर्मविष जाकी बुद्धि सदा आसक्त है, पृथ्वीविर्षे विख्यात है नाम जाका, उदार पराक्रमी महा धनवान जाके अनेक सेवक जैसे पूर्णमासीका चन्द्रमा तैसा कातिधारी परम भोगोंका भोक्ता सर्व शास्त्र प्रवीण, पूर्व धर्मके प्रभावतें ऐसा भया बहुरि संसारसे विरक्त होय जिन दीक्षा श्रादरी संसार को पार भया तात जे साधुके आहारके समयसे पहिले आहार न करनेका नियम थारे ते हरिपेण चक्रवर्तीकी न्याई महा उत्सवको प्राप्त होय हैं, हरिषेण चक्रवर्ती ही व्रतके प्रभावकरि महा पुण्यको उपार्जन कर अत्यन्त लक्ष्मीका नाथ भया ऐसे ही जे सम्यकदृष्टि समाधान के धारी भव्य जीव मुके निकट जायकर एकबार भोजनका नियम करें हैं ते एक भुक्तिके प्रभावकर स्वर्ग विमानविष उपजै हैं जहां सदा प्रकाश है अर रात्रि दिवस नाहीं, निद्रा नाहीं, वहां सागरांपर्यंत अप्सरावोंके मध्य रमै हैं मोतिनिके हार रत्नोंके कड़े कटिसूत्र मुकुट वाजूबन्द इत्यादि आभूषण पहरें, जिनपर छत्र फिरें चमर दुरे ऐसे देवलोकके सुख भोग चक्रवादि पद पावै हैं, उत्तमव्रतोविर्षे आमक्त जे अणुव्रतके धारक श्रावक शरीरको विनाशीक जानकर शांत भया है हृदय जिनका अष्टमी चतुर्दशी का उपवास मन शुद्ध होय प्रोषध संयुकथाएँ हैं वे सौधर्मादि सोलहवें स्वर्गविष उपजै हैं, वहुरि मनुष्य होय भावनको तजे हैं, मुनित्रत के प्रभावकरि अहमिंद्रपद तथा मुक्तिपद पावै हैं । जे व्रत गुणशील तप कर मंडित हैं ते साधु जिनशासनके प्रसादकरि सर्व कर्म रहित होय सिद्धोंका पद पात्र हैं। जे तीनों कालविणे जिनेंद्रदेवकी स्तुति कर मन बचन काय कर नमस्कार करै हैं अर सुमेरु पर्वत सारिखे अचल मिथ्यास्वरूप पवनकर नहीं चले हैं, गुण रूप गहने पहरें शीलरूप सुगन्ध लगाए हैं सो कईएक भव उत्तमदेव उत्तम मनुष्यके सुख भोगकर परम स्थानको प्राप्त होय हैं। ये इन्द्रियनिके विषय जीवने जगामें अनन्तकाल भागे तिन विषयोंसे मोहित भया विरक्त भावको नहीं भजे है। यह बड़ा आश्चर्य है जो इन विषयोंको विषमिश्रित अन्न सभान जानकर पुरुषोत्तम कहिये चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुष भी सेवै हैं। संपारमें भ्रमते हुवे इस जीवके जो सम्यकत्व उपजे और एक भी नियम व्रत साधे तो यह मुक्तिा वीज है और जिन प्राणधारियोंके ए. भ. नियम नहीं वे पशु हैं अथवा फूटबलश हैं गुणरहित हैं। अर जे भव्य जीव संसार समुद्रको तिरा चाहे हैं ते प्रमादरहित होष गुण अर व्रतनिकारे पूर्व सदा नियमरूप रहें, जे मनुष्य कुबुद्धि खोटे कर्म नहीं तजै हैं अर व्रत नियमको नहीं भजे है ये जन्मके अन्धेकी न्याई अनन्तकाल भववनविषे भटक हैं । या भांति जे श्रीनन्तवीर्य कंवली वेई मए तीनलोकके चन्द्रमा तिनके वचनरुप किरणके प्रभावतें देव विद्याधर भूमिगोचरी मनुष्य तथा तिर्यंच सर्व ही आनन्दको प्राप्त भए । कई एक उत्तम मानव मुनि भए तथा श्रावक भए सम्यक्त्वको प्राप्त भए और कई एक उत्तम तिर्यंच भी सम्यकदृष्टि श्रायकः अणुव्रतधारी भए भर चतुरनिकायके देवोंमें कई एफ सम्यकदृष्टि भए कोंकि देवनि : व्रत नाहीं । .: अथानन्तर एक धर्मरथ नामा मु.ने रावणको कहते भए–'हे भद्र कहिये भव्यजीव ! तू मी अपनी शक्ति प्रमाण कछु नियम धारण कर, यह धर्मरत्नका द्वीप है अर भगवान केवली Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ सोहना मे महा महेश्वर हैं या रत्न द्वीपत छु नियम नामा रत्न पहण कर, काहेते चिंताके भारके वश होय रहा है, महापुरुषनिके त्याग खेका कारण नाहीं । जैसे काई रत्न द्वीपमें प्रवेश करे अर वाका मन भ्रमे जो मैं कैसा रन लू तैसे इसका मन पाकुलित भया जो मैं कैसा वत लू । यह रावण भोगासक्त सो याके चित्तमें यह चिन्ता उपजी जो मेरे खान पान तो सहज ही पवित्र है । सुगंध मनोहर पौष्टिक शुभ स्वाद मांसादि मलिन वस्तुके प्रसंग रहित आहार है अर अहिंसा व्रत आदि श्रावकका एक हु ब्रत करिव समर्थ नहीं, मैं अणुव्रा हू धारवे समर्थ नहीं तो महाप्रत कैसे धारू, माते हाथी समान चित्त मेरा सर्व वस्तुविषे भ्रमता फिरै है, मैं आत्मभावरूप अंकुशसे याको वश करचे समर्थ नाहीं । जे निग्रंथका ब्रत धरै हैं ते अग्निकी ज्वाला पीवै हैं अर पवनको वस्नमें वांधे हैं पर पर डो उठ वै हैं। मैं महा शूरवीर भी तप ब्रत धरने समर्थ नहीं । अहो धन्य हैं वे नरोत्तम! जो मुनिना धारे हैं, मैं एक यह नियम थरू जो परस्त्री अत्यन्त रूपवती भी होय तो ताहि बलात्कार करे न इच्छू अथवा सर्वलोकमें ऐसी कौन सावनी नारी है जो मोहि देखकर मन्मथको पड़ी विफल न होय अथवा ऐसी कौन परस्त्री है जो विवेकी जीवोंके मनको वश करै। कैसी हैं परस्त्रो, परपुरुष के संयोगकरि दूषित है अंग जाका, स्वभाव ही करि दुर्गन्ध बिष्टाकी राशि ताविर्षे कहा राग उपजै ऐसा मनमें विचार भावसहित अनन्तवीर्य केवली को प्रणाम कर देव मनुष्य असुरोंकी साक्षितामे प्रगट ऐना बचन कहता भया-हे भगवान! इच्छारहित जो परनारी ताहि हूं (मैं) न से। यह मेरे नियम है । अर कुम्भकर्ण अहंत सिद्ध साधु केवलीभाषित धर्मका शरण अंगीकार कर सुमेरु पर्वत सारिखा है अबल चित्त जाका सों यह नियम करता भया जो मैं प्रात ही उठकर प्रति दिन जिनेन्द्रकी अभिषेक पूजा स्तुति कर मुनिकों विधिपूर्वक आहार देकर आहार करूंगा । अन्यथा नहीं मुनिके श्राहारकी बेला पहिले सर्वथा भोजन न करूगा अर सर्व साधुश्रोंको नमस्कार कर और भी घने नियम लिये अर देव कहिये कल्पवासी असुर कहिये भवन त्रिक पर विद्याधर मनुष्य हर्षसे प्रफुल्लित हैं नत्र जिनके, सर्व केवली को नमस्कार कर अपने अपने स्थानक गए । रावण भी इन्द्रकीसी लीला धरै प्रवल पराक्रमी लंकाकी ओर पयान करता भया अर आकाशके मार्ग शीघ्र ही लंकामें प्रवेश किया। केसा है रावण ? समस्त नरनारियोंके समूहने किया है गुण वर्णन जिसका अर कैसी है लंका ? वस्त्रादि कर बहुत समाती है । राजमहलमें प्रवेश कर सुखसे तिष्ठते भए । राजमन्दिर सर्व सुखका भरा है। पुण्याधिकारी जीवनिके जब शुभकर्मका उदय होय ह तब नानाप्रकारकी सामग्रीका विस्तार होय है। गुरुक मुखतें धर्मका उपदेश पाय परमपदके अधिकारी होय हैं ऐसा जान कर जिनश्रुविमें उद्यमी है मन जिनका त वारंवार निजपरका विचारकर धर्मका सेवन करें। विनयकर जिन शास्त्र सुननेवालोंके ज्ञान हाय है सो रविसमान प्रकाशको धारे है, मोहतिमिरका नाश करे है। इति श्रीरविषेगाचार्यविरांचत महापद्मपुराण सस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै अनंतवीर्य केवलीके धर्मोपदेशका वर्णन करने वाला चौदहवां पर्न पूर्ण भया ॥१४॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण १४६ अथानन्तर ताही केवलीके निकट हनुमानने श्रावकके व्रत लिए अर विभीषणने भी ब्रत लिए भाव शुद्ध होय व्रत नियम आदरे जैसा सुमेरु पर्वतका स्थिरपना होय ताहूते अधिक हनूमानका शील अर सम्यक्त्व परम निश्चल प्रशंसा योग्य है । जब गौतम स्वामीने हनुमानका अत्यन्त सौभाग्य आदि वर्णन किया तब मगध देशकै राजा श्रेणिक हर्षित होय गौतम स्वामी से पूछते भए । हे गणाधीश हनुमान कैसे लक्षणोंका धरणहारा कौनका पुत्र कहां उपजा ? मैं निश्चयकर ताका चरित्र सुनना चाहूँ हूं । तब सत्पुरुषोंकी कथासे उपजा है प्रमोद जाको ऐसे इन्द्रभूति कहिए गौतम स्वामी आह्लादकारी वचन कहते भए–'हे ना ! विजयाध पर्वतकी दक्षिणश्रेणी पृथ्वीसे दश योजन ऊंची तहां श्रादित्यपुर नामा मनोहर नगर तहां राजा प्रह्लाद रानी केतुमती तिनके पुत्र वायुकुमार ताका विस्तीर्ण वक्षस्थल लक्ष्मीका निवास । सो वायुकुमार को संपूर्ण यौवन घरे देखकर पिताके मनविष इनके विवाहकी चिन्ता उपजी। कैसा है पिता ? परंपराय संतानके वह वनेकी है यांचा जाके । अब जहां यह वायुकुमार परणेगा सो कहिए है। भरतक्षेत्र में समुद्रतें पूर्व दक्षिण दिशाके मध्य दंतीनामा पर्वत जाके ऊचे शिखर आकाश लगि रहे हैं नाना प्रकार वृक्ष औषधि तिन संयुक्त अर जलके निझरने झरे हैं जहां, इंद्र तुल्य राजा महेंद्र विद्याधर दाने महेन्द्रपुर नगर बसाए । राजाके हृदयवेगा रानी ताके अरिंदमादि सौ पुत्र महागुणवान भर अंजनी सुन्दरी पुत्री सो मानो त्रैलोक्यकी सुन्दरी जे स्त्री तिनके रूप एकत्रकर वनाई है, नील कमल सारिखे हैं नेत्र जाके, कामके बाण समान तीक्ष्ण दूरदर्शी कर्णान्तक कटाच अर प्रशंसा योग्य कर-पल्ला,रक्तकमल समान चरण, हस्तीके कुम्भस्थल समान कुच अर केहरी समान कटि, सुन्दर नितम्ब, कदलीस्तंभ समान कोमल जंघा, शुभ लक्षण प्रफुल्लित मालती समान मृदु बाहुयुगल, गंधर्वादि सर्व कलाको जाननहारी मानों साक्षात् सरस्वती ही है अर रूपकर लक्ष्मी समान सर्वगुणमण्डित एक दिवस नव यौवनमें कंद्रुक क्रीड़ा करती भ्रमण करती सखियोंसहित रमती पिताने देखी । सो जैसे सुलोचनाको देखकर राजा अकंपनको चिंता उपजी हुवी तैसे अंजनीको देख राजा महेन्द्रको चिंता उपजी तब इसके बर ढंढनविणे उद्यमी हुए। संसारविगै माता पिताको कन्या दुखका कारण है। जे बड़े कुलके पुरुष हैं तिनको कन्याकी ऐसी चिंता रहै है-यह मेरी कन्या प्रशंसा योग्य पतिको प्राप्त होय अर बहुत काल इसका सौभाग्य रहे भर कन्या निर्दोष सुखी रहे । राजा महेन्द्रने अपने मंत्रियोंसे कहा-जो तुम सर्व वस्तुविष प्रवीण हो कन्यायोग्य श्रेष्ठ बर मुझे बतावो । तब अमरसागर मंत्रीने कही-यह कन्या राक्षसोंका भाषीश जो रावण वाही देवी, सर्व विद्याधरोंका अधिपति ताका सम्बन्ध पाय तुम्हारा प्रभाव समुद्रात पृथ्वीपर होगा अथवा इन्द्रजीत तथा मेघनादको देवो अर यह भी तुम्हारे मनविष न मावै तो कन्याका स्वयम्बर रचो ऐसा कहकर अमरसागर मंत्री चुप रहा तब सुमतिनामा मंत्री महापंडित बोला-रायणके तो स्त्री अनेक अर महा अहंकारी इसे परणावें तो भी अपने अधिक प्रीति न होय अर . कन्याकी वय छोटी अर रावण की वय अधिक सो बनै नहीं, इन्द्रजीत तथा मेघनादको परणावें तो उन दोनोंमें परस्पर विरोध होय, श्रागै राजा श्रीपेणके पुत्रों Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां पर्व १५७ विषै विरोध भया तातें यह न करना तब ताराधन्य मंत्री कहता भया - - दक्षिण श्रेणीविष कनकपुर नामा नगर है तहां राजा हिरण्यग्रम ताके रानी सुमना । पुत्र सौदामिनीप्रभ सो महा यशवंत कीर्तिधारी नवयवन नववय अति सुन्दर रूप सर्व विद्या कलाका पारगामी लोकनिके नेत्रोंको श्रानन्दकारी अनुपम गुण, अपनी चेष्टासे हर्षित किया है सकल मण्डल जाने घर ऐसा पराक्रमी है जो सर्व विद्याधर एकत्र होंय तासें लड़ें तो भी उसे न जीतें म'नों शक्तिके समूह से निरमाया है । सो यह कन्या उसे दो जैनी कन्या तेरा वर, योग्य सम्बन्ध है यह वार्ता सुनकर संदेहनामा मंत्री मात्रा धुने, आंख मीच र कहता भया - वह सौदा मिन पभ महा भव्य है। ताके निरन्तर यह विचार है कि यह संसार अनित्य है सो संसारका स्वरूप जान वरम अठारहमें वैराग्य धारेगा, विष भिनाषी नहीं, भागरूप गज बंधन तुडय गृहस्थीका त्याग करेगा, बाह्याभ्यन्तरपरिग्रह परिहारकर केवलज्ञानको पाथ मोक्ष जायना सो याहि परणावें तो कन्या पति विना शोभा न पावै जैसे चन्द्रमा चिन र नीका न दीखें । कैसा है चन्द्रमा ? जगतमें प्रकाश करणहारा है तातें तुम इन्द्रके नगर समान आदित्यपुर नगर है रत्नोंकर सूर्य समान देदीप्यमान है। वहां राजा प्रह्लाद महाभोगी पुरुष, चन्द्रमा समान कांवेका धरी ताके राणी केतुमती कामकी ध्वजा उनके वायुकुमार कहिए परनंजय नामा पुत्र पराक्रमका समूह रूपवान शीलवान गुणनिधान सर्व कलाका पारगामी शुभ शरीर महावीर, खोटी चेष्टासे रहित ताके समस्त गुण सर्व लोकोंके चित्तविषै व्याप रहे हैं, हम सौ वर्षमेंदू न कह सकें तातैं आप ही वाहि देख लेहु | पवनंजयके ऐसे गुण सुन सर्व ही हर्षको प्राप्त भए । कैना है पवनंजय ? देवनिके समान है द्युति जाकी जैसे निशाकरकी किरणोंकर कुमुदनी प्रफुल्लित होय तैसे कन्या भी यह वार्ता सुनकर प्रफुल्लित भई । अथानन्तर बसंत ऋतु आई, स्त्रियों के मुख कमल की लावण्यताकी हरणहारी शीतऋतु गई कमलिनी प्रफुल्लित भई, नवीन कमलों के समूहकी सुगंधाकरि दशों दिशा सुगंध भई कमलोंपर भ्रमर गुंजार करते भए । कैसे हैं अनर 3 मरंद कहिए पुष्पकी सुगंध रज ताके अभिलाषी हैं । वृक्षनिके पल्लव पत्र पुष्पादि नवीन प्रकट भए मानों संतके लक्ष्मीके मिलापसे हर्ष कुर उपजे हैं अर आम पैं मौल आए तिनपर भ्रमर भ्रम है लोकोंके मनको कामबाण बींधते भए, कोकिलावोंके शब्द मानिनी नायिकावोंके मानका मोचन करते भए । बसन्त समय परस्पर नर नारियोंके स्नेह बढता भया । हिरण जो है सो दू के अकुर उखाड़ हिरणी मुखमें देता भया सो ताको अमृत समान लगे अधिक प्रीति होती भई अर बेल वृक्षोंसे लपटी, कैसी हैं बेल ? भ्रमर ही हैं नेत्र जिनके, दक्षिण दिशाकी पवन चली सो सब ही को सुहावनी लगी । पवन के प्रसंगकरि केसर के समूह पड़े सो मानों बसन्त सिंहके केशों के समूह दी हैं, महा सघन कौरव जातिके जे वृक्ष तिनपर भ्रमरोक समूह शब्द करें हैं मानों वियोगिनी नायिकावोंके मनको खेद उपजावनेको बसन्तने प्रेरे हैं, अर अशोक जातिके वृक्षोंकी नवीन कोंपल लहलहाट कर हैं सो मानों सौभाग्यवती स्त्रियोंके रागकी राशि ही शोभे हैं । अर वनोंमें टेसू Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण भस्यन्त फूल रहे हैं सो मानो वियोगिनी नायिकाके मनके दाह उपत्र वनेको अग्नि समान हैं दशों दिशा बिष फूलोंकी सुगन्य रज जिसको मकरन्द कहिए सो परागकर ऐसी फैल रही है मानो बसन्त जो है सो पटवास कहिए सुगन्ध चूर्ण अवीर ताकरि महोत्सव करे है । एक दिन भी स्त्री पुरुष परस्पर वियोगको नहीं सहार सके हैं। ता ऋतु न विदेश गमन कैसे रुचै ऐसी रागरूप वसन्त ऋतु प्रगट भई । ता समय फागुण सुदि अष्टमीमे लेकर पूर्णमासी तक अष्टानिहकाके दिन महामंगलरूप है, सो इन्द्रादिक देव शची आदि देवी पूजाके अर्थ नंदीश्वर द्वीप गए पर विद्याधर पूजाकी सामग्री लेकर कैलाश गए। श्रीऋषभदेव निर्वाण कल्याणक से वह पर्वत पूजनीक है सो समस्त परिवार सहित अंजनीके पिता राजा महेन्द्र भी गए । तहां भगवानकी पूजाकर स्तुतिकर पर भावसहित नमस्कार कर सुवर्णकी शिलापर सुखसे विराजे अर राजा प्रल्हाद परनंजा के पिता तेहू भरत चक्रवर्तीके कराए जे जिनमन्दिर तिनकी बन्दना अर्थ कैलास पर्वत पर गये सो बंदना कर पर्वत पर विहार करते राजामहेन्द्रकी दृष्टिविष आए। सो महेन्द्र को देखकर प्रीतिरूप है चित्त जिनका प्रफुल्लित भए हैं नेत्र जिनके ऐसे जे प्रल्हाद ते निकट पाए तब महेंद्र उठकर सम्मुख आयकर मिले एक मनोज्ञ शिलापर दोनों हितमे तिष्ठे, परस्पर शरी. रादि कुशल ते भए तब राजा महेंद्रन कही । हे मित्र ! मेरे कुशल काहेकी कन्या करयोग्य भई सो ताके परणानेका पिताकरि चित्त ब्याकुल है जैगी कन्या है तैसा बर चाहिए अ बड़ा घर चाहिये कौनको दें यह मन भ्रम है। रावणको परणाइए तो ताक स्त्री बहुत हैं अर आयु अधिक है अर जो उसके पुत्रांविषे दें तो तिनमें परस्पर विरोध होइ अर हेमपुरका राजा कनक यति ताका पुत्र सौदामिनीप्रभ कांहेये विद्युत्प्रभ मो थोड़े ही दिनविष मुक्तिको प्राप्त होयगा यह बार्ता सर्व पृथ्वीपर प्रसिद्ध है ज्ञानी मुनिने कहा है। हमने भी अपने मंत्रियों के मुखने सुना है। अब हमारे यह निश्चय भया है कि आपका पुत्र पवनंजय कन्याके परिवे योग्य है यही मनोरथ कर हम यहां आए हैं सो आपके दर्शनकर अतिप्रानन्द भया जाकरि कछु विकल्प मिटा । तब प्रल्हाद बोले-मेरे भी चिन्ता पुत्रके परणारने की है तात मैं भी आपका दर्शनकर अर वचन सुन वचनसे अगोचर सुखको प्राप्त भया जो आप आज्ञा करो सो ही प्रमाण । मेरे पुत्रका बड़ा भाग्य जो आपने कृपा करी। वर कन्याका विवाह मानससरोवरके वटपर ठहरा । दोनों सेनामें मानन्दके शब्द भए ज्योतिषियोंने तीन दिनका लग्न थापा । . अथानन्तर परनंजयकुमार अंजनीके रूपकी अद्भुतता सुनकर तत्काल देखने को उद्यमी भया, तीन दिन रह न सका, संगमकी अभिलाषा कर यह कुमार कामके वश हुआ वेगोंकर परित भया प्रथम विषयकी चिंताकरि व्याकुल भया अर दूजे वेग देखनेकी अभिलाषा उपजी, तीजे वेग दीर्घउच्छवास नाखने लगा चौथे वेग कामज्वर उपजा मानों चंदनके अग्नि लगी, पांचवें वेग अंग खेदरूप भया, सुगंध पुष्पादिसे अरुची उपजी, छठे वेग भोजन विष समान पुरा लगा, सातवें वेग उसकी कथाकी आशक्तताकर विलाप उपजा, आठवें बैग उन्मत्त हुआ विभ्रमरूप सर्प कर डसा गीत नृत्यादि अनेक चेष्टा करने लगा नवमें वेग महामृच्छा उपजी। दशय वेग दाख Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवी पर्व १५६.. के मारसे पीडित भया । यद्यपि यह पवनंजय बिवेकी था तथापि कामके प्रभावकर विह्वल मया । सो कामको धिक्कार हो, कैसा है काम १ मोक्षमार्ग का विरोधी है, कामके वेगकर पवनंजय धीरजरहित भया, कपोलनिके कर लगाय शोकवान बैठा, पसेवसे टपके हैं कपोल जाके, उष्ण निश्वासकर मुराए हैं होंठ जाके अर शरीर कम्पायमान भया बारम्वार जंभाई लेने लगा पर अत्यन्त अभिलाषरूप शल्यसे चिंतावान भया, स्त्रीके ध्यानतें इन्द्रिय व्याकुल भए, मनोज्ञ स्थान भी याको अरुचिकारी भासे, चित्त शून्यता थारता भया, तजी है समस्त श्रृंगारादि क्रिया जाने, क्षणमात्रविषै तो श्राभूषण पहिरें, क्षणमात्रविषै खोल डारै, लज्जारहित भया, चीख होगया है समस्त अंग जाका, ऐसी चिंता धारता भया कि वह समय कब होय जो मैं उस सुन्दरी को अपने पास बैठी देखूं अर बाके कमल तुल्य गात्रको स्पर्श करू वा कामनिके रस की वार्ता करू" | की बात ही सुन कर मेरी यह दशा भई है, न जानिए और क्या होय; वह कल्याणरूपिणी जिस हृदयमें बसै है ता हृदयमें दुःखरूप अग्निका दाह क्यों होइ, स्त्री तो निश्चयसेवी स्वभावसे ही कोमलचित्त होय है मुझे दुख देने अर्थ चित्त कठं र क्यों भया ! यह काम पृथ्वीविषै नंग कहावे है जाके रंग नहीं सो अंग विना ही मुके गरहित करे है | मार डारे हैं ! जो याके अंग होग तो न जाने क्या करें, मेरी देहविषै घाव नहीं परन्तु वेदना बहुत है । मैं एक जगह बैठा हूं अर मन अनेक जगह भ्रम है ये तीन दिन उसे देखे बिना मुझे कुशल से नजांग नातें ताके देखनेका उपाय करू जाकरि मेरे शांति होय अथवा सत्र कार्यों मित्र समान जगत विषै और आनन्दका कारण कोई नहीं, मित्र सत्र कार्य सिद्ध होंय ऐसा विचार अपना जो प्रहरत नामा मित्र सर्व विश्वास का भाजन वासों पवनंजय गदगद बाणीकर कहता भया । कैसा है मित्र ? किनारे ही बैठा है छायाका मूर्ति ही हैं रूपना हीं शरीर मानों विक्रियाकर दूजा हो रहा है ताहि या मांति कही- हे मित्र ! तू मेरा सर्व अभिप्राय जाने है तोहि कहा कहूं ? परन्तु यह मेरी दुःख अवस्था मोह बाचाल करें है। हे सखे ! तुम बिना बात कौनसे कही जाय ? तू समस्त जगतकी रंति जानें है जैसे किसान अपना दुःख राजा से कहै अर शिष्य गुरुसे कहै श्रर स्त्री पतिसों कहै अर रोगी वैद्य सों कहै बालक मवासों कहै तो दुख छूटै तैसें बुद्धिमान अपने मित्र मे कहै तातें मैं तोहि कहूं हूँ। वह राजा महेंद्रकी पुत्री ताके श्रवण ही कर कामवाणकर मेरी विकल दशा भई है जो ताके देखें विना मैं तीन दिन नियाहि समर्थ नहीं तार्तें कोई ऐ । यत्न कर जो मैं वाहि देखूं, ताहि देखे बिना मेरे स्थिरता न आवेअर मेरी स्थिरतास ताहि प्रसन्नता होय । प्राणियोको : सर्व कार्यसे जीतन्य वल्लभ है क्योंकि र्जतव्य के होते संत आत्म लाभ होय है । या भांति पवनंजयने कही तब प्रहस्त मित्र हंसे, मानों मित्रके मनका अभिप्राय पायकर कार्य सिद्धिका उपाय करते भए । हे मित्र ! बहुत कहनेकर कहा ? अपने मांहीं भेद नाहीं जो करना हो ताकरि ढील मत करो या भांति उन दोनोंके बचनालाप होय है एते ही सूर्य मानों इनके उपकार निमित्त श्रस्त मया तब सूर्यके वियोगसे दिशा काली पड़ गई अन्थकार फैल गया वृद्धमात्र में नीलवस्त्र पहिरे निशा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण प्रकट भई तब रात्रीके समय उत्साहसहित मित्रको पवनञ्जय कहते भए । हे मित्र ! उठो आवो वहां चलें जहां वह मनकी हरणहारी प्राणवल्लभा तिष्ठै है, तब ये दोनों भित्र विमानमें बैंठ आकाशके मार्ग चले, मानों आकाशरूप समुद्रके मच्छ ही हैं। क्षणमात्रविष जाय अंजनीके सतखणे महलपर चढ़ झरोखामें मोतियों की झालरोंके आश्रय छिपकर बैठे, अंजनी सुंदरीकों पक्नंजय कुमारने देखा कि पूर्णमामोके चन्द्राके समान है मुख जाका, मुखकी ज्योतिसे दीपक मंद ज्योति होय रहै हैं अर श्याम श्वेत अरुण त्रिविध रंगको लिये नेत्र महा सुंदर हैं मानों कामके बाण ही हैं अर कुच ऊचे महा मनोहर श्रृंगाररसके भरे कलश ही है, नवीन कोंपल समान लाल मुंर सुलक्षण हैं हस्त पर पांव जाके पर नखोंकी कांतिकर मानों लावण्यताको प्रकट करती शाम है अर शरीर महासुन्दर है अति नाजुक चीण कटि कुनोंके भारनितें मति कदाचित् भग्न हो जाय ऐनी शंशाकारे मानों त्रिनलीरूप डोरीसे प्रतिबद्ध है। पर जिसकी जंघा लावए पताको धरै हैं सो कलेहौं अति कोमल मानों कामके मंदिरके स्तंभ ही हैं। सो मानों वह कन्या चांदनी रात ही है। मुक्ताफलरूप नक्षत्रोंसे युक्त इन्दीवर कमल समान है रूप जाका । सो पवनंजय कुमार एकाग्र लगे हैं नेत्र जाके अंजनीको अले प्रकार देख सुखकी भूमि को प्राप्त भया । ताही समय बसंततिलका सखी महाबुद्धिवंती अंजना सुन्दरीत कहती भई-हे सुरूपे ! तू धन्य है जो तेरे पिताने तुझे वायुमारको दानी, ते वायुकुमार महा प्रतापी हैं जिनके गुण चन्द्रमाकी किरम समान उज्ज्वल हैं तिनसे समस्त जगत व्याप्त होय रहा है जिनके गुण सुन अन्य पुरुषोंके गुण मंद भासे हैं जैसे समुद्र में लहर तिष्ठे तैस तू वा योथाके अंगविष विठेगी । कैसी है तू ? महा मिष्टमाएिगी चन्द्रकांति रत्नों की प्रभाको जीते ऐसी कांति तेरी, तू रत्नकी धरा रत्नाचन पर्वतके तटविषे पड़ों तुम्हारा सम्मन्ध प्रशंसाके योग्य भया याकरि सर्व ही कुटुंबके जन प्रसन्न भए । या भांति जब पतिके गुण सखीने गाए तब वह लाजकी मरी चरणोंके नखकी ओर नीचे देखती भई आनन्दरूप जलकर हृदय भर गया अर पवनंजयकुमार हू हर्षसे फूल गये हैं नेत्र कमल जाके, हर्पित भया है बदन जाता। ता समय एक निश्रकशी नामा दुजी सखा होंठ दाबकर चोटी हलायकर बोली-अहो परम अज्ञान तेरा यह कहा परनंजया सम्बन्ध सराहा जा विपु: कुं रस सम्बाथ होता तो अति श्रेष्ठ था जो पुण्यके योगों कन्याका विद्युत्नभ पति होता तो जन्म सफल होता। हे बंसतमाला! विद्युत्प्रभ और पवनंजयमें इतना भेद है जितनः समुद्र अर गोष्पदम भेद है। विद्युत्प्रमकी कथा बड़े बड़े पुरुषों के मुखसे सुनी है जैसे मेघ, बू, . सख्या नहीं ते. ताक गुणों का पार नहीं। वह नवयौवन है । महासौम्प, विनयवान, देदीप्यमान, प्रतापवान् , रूपवान, गुणवान, विद्यावान, बुद्धिमान बलवान सर्व जगत चाहे दर्शन याका सब यहो कहै है कि यह कन्या वाहि देनी थी सो कन्याके बापने सुनो-वह थोड़े हो वर्ष मुनि हायना तात सम्बन्ध न किया सो भला न किया, यि प्रमका संयोग एक क्षणमात्र हो भला अर क्षुद्र पुरुषका संयोग बहुत काम भी किस अर्थ ? यह वार्ता सुनकर सरनंजय क्रायका प्रग्नि कर प्रज्वलित Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्र प १६ भए क्षणमात्रमें और ही छाया हो गई से विरस गए लाल आंखें हो गई होंठ हमकर तलवार म्यानसे काढी र प्रहस्त मित्रसों कहते भए याहि हमारी निन्दा सुहावै हैं र यह दासी ऐसे निंद्य वचन कहै पर यह सुनै सो इन दोनों का सिर काट डारू' । विद्युत् के हृदयका प्यारा है सो कैसे सहाय करेगा यह वचन पवनंजय के सुन प्रहस्तमित्र रोपकर कहता भया - हे सखे हे मित्र ! ऐसे अयोग्य वचन कहनेकर क्या ? तुम्हारी तलवार बड़े सामंतोंके सीसपर पड़े स्त्रीला अवध्य है तापर कैसे पडे यह दुष्ट दासी इनके अभिप्राय बिना ऐसे कहे है तुम आज्ञा करो तो या दासीको एकदंडकी चोटसे मार डालू परन्तु स्त्रीहत्या बालहत्या पशुहत्या दुर्बल मनुष्य की हत्या इत्यादि शास्त्रमें बर्जनीय कहीं है ये वचन भित्रके सुनकर पवनंजय क्रोधको भूल गये अर मित्र को दासीपर क्रूर देखकर करते भये । हे मित्र ! तुम अनेक संग्रामके जीतनहारे यशके अधिकारी माते हाथियोंके कुंभस्थत विदारनेहारे तुमको दीन पर दया ही करनी योग्य है अर सामान्य पुरुष भी स्त्रीहत्या न करें तो तुम कैसे करो जे बड़े कुलमें उपजे पुरुष हैं अर गुणोंकरि प्रसिद्ध हैं शूरवीर हैं तिनका यश योग्य क्रियासे मलिन होय है तातें उठो जा मार्ग आए ताही मार्ग चलो जैसे छाने आए थे तैसे ही चले । पवनंजय के मनमें भ्रांति पड़ी कि या कन्याको विद्युत्प्रभ ही प्रिय है तातें बाकी प्रशंसा सुन है जो याहि न भावै तो दासी काहेकों कहै ? यह रोस घर अपने कहे स्थानक पहुंचे । पवनंजयकुमार अंजनी से प्रति फीके पड़ गए चित्तमें ऐसे वितवते भये कि दूजे पुरुषका है अनुराग जाको ऐसी जो अजना सो विकराल नदीकी न्याई दूरहीतें तजनीं । कैसी है वह अंजनारूप नदी ? संदेहरूप जे विपम भंवर तिनको थरै है अर खाटे भावरूप जे ग्राह तिनसे भरी है र वह नारी वनी समान है अज्ञानरूप अन्धकारसे भरी इन्द्रियरूप जे सर्प तिनको घर हैं। पंडितोंको कदाचित् न सेवना । खोटे राजाकी सेवा और शत्रुके आश्रय जाना और शिथिल मित्र और अनासक्त स्त्री इनसे सुख कहां ? देखो ! जे विवेकी हैं ते इष्टबन्धु तथा सुपुत्र र पतिब्रता नारी इनका भी त्यागकर महाव्रत धारे हैं और शूद्र पुरुष कुसंग भी नहीं तजै हैं मद्यपायी वैद्य और शिक्षारहित हाथी पर निःकारण वैरी क्रूरजन र हिंसारून धर्म श्रर मूर्खनित चर्चा श्रर मर्यादाका उलंघना, निर्दयी देश, बालक राजा, स्त्री परपुरुषअनुरागिनी इनको विवेकी तजें । या मांति चितवन करता पवनंजयकुमार ताके जैसे दुलहिनसे प्रीति गई तैसे रात्रि गई र पूर्व दिशा में सन्ध्या प्रकट भई मानों पवनंजयने अंजनीका राग छोड़ा सो भ्रमता फिर है । ( भावार्थ ) रागका स्वरूप लाल है श्रर इनतें जो राग मिटा सो ताने सन्ध्याके मिस पूर्व दिशामें प्रवेश किया है पर सूर्य ऐसा आरक्त उगा जैसा स्त्रीके कोपतें पवनंजयकुमार कोपा केसा है सूर्य ? तरुण बिम्बको धरै है बहुरि जगतकी चेष्टाका कारण है तत्र पवनंजयकुमार प्रहस्त मित्रको कहते भए अत्यन्त रुचिको थरें अंजनीसे विमुख है मन जाका । हे मित्र ! यहां अपने डेरे हैं सो यहां बाका स्थानक समीप है सो यहां सर्वथा न रहना ताको स्पर्शकर पवन आवै सो मोहि न सुहावै तातें उठो अपने नगर चलें, ढील करनी उचित नहीं। तब मित्र कुमार २१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रज्ञा प्रमाण सेनाके लोगोंको पयान की आज्ञा करता भया, समुद्रसमान सेना रथ घोड़े पयादे इनका बहुत शब्द भया कन्या का निवास नजीक ही है सो सेनाके पयानके शब्द कन्या के कान में पड़े तब कुमार का कूच जानकर कन्या अति दुखित भई । वे शब्द कानको ऐसे बुरे लगे जैसे बज्रकी शिला कान में प्रवेश करै अर उ.परसे मुद्गरकी धात पडै । मनमें विचारती भई । हाय हाय ! मोहि पूर्वोपार्जित कर्मने महानिधान दिया था सो छिनाय लिया, कहा करूं अब कहा होय मेरे मनोरथ हुता जो इस नरेंद्रके साथ क्रीड़ा करूंगी सो और ही भांति दृष्टि श्राव है तो अपराध कछु न जान पडै है परन्तु यह मेरी वैरिन मिश्रवेशी ताने निंद्य वचन कहे हुते सो कदाचिन् कुमारको यह खबर पहुंची पर मोवि कुमाया करी होय यह विवेकरहित पापिनी कटुभापिर्णा धिक्कार इसे, जानें मेरा प्राणवल्लभ मांत कृपारहित किया अब जो मेरे भाग्य होय पर मेरा पिता मुमार कृयाकर प्रणनाथ को पीछा बहोड़े पर उनकी सुदृष्टि होय तो मेरा जीतव्य हे अर जो नाथ मेरा परित्याग करे तो मैं आहारको त्याग कर शरीरको तजंगी ऐमा चिंतन करती यह सती मूर्छा खाय धरती पर पड़ी जैसे बेलिकी जड़ उपाड़ी जाय अर वह पाश्रयतै रहित होय कुमलाय जाय तैसे कुमलाय गई तब सर्व सखी जन यह कहा भया ऐसे कहकर अति संभ्रमको प्राप्त भई । शीतल क्रियाएँ इसे सचेत किया तघ यामू का कारण पूछा सो यह लज्जासे कह नर के निश्चन लोवन होय रही। ___अथानन्तर पवनंजयकी सेना के लोकम.नमें पाकुन भए पर विचार करते भए जो निःकारण कूच काहेका? यह कुमार विवाह करने आया सा दुलहिन को परण कर क्यों न चले, याके कोप काहेसे भया इसको कोजने कहा, सर्व वस्तुकी सामग्री है काहू वस्तु की कमी नाही याका सुसरा बड़ा राजा कन्या अतिसुन्दरी यह पराङ मुख क्यों भया तब कैयक हसि करि कहते भए नाम पवनंजय है सो अपनी चंचलतात पश्नको जीत है श्रार कैपक कहते भए अभी स्त्रीका सख नहीं जाने है तातें ऐसी कन्याको छोड़ कर जानेको उद्यमी भया है, जो याके रतिकालका राग होय तो जैसे वनहस्ती प्रेमके बन्धनसे बंधे हैं तैसे यह बंध जाय, या भांति सेनाके सामन्त कहै हैं अर पवनंजय शीघ्रगामी वाहन पर चढ़ चलनेको उद्यमी भए तब कन्याका पिता राजामहेन्द्र, कुमार का कूच सुन कर अति प्राकुल भषा समस्त भाईयों सहित राजा प्रल्हादपै आया । प्रल्हाद अर महेन्द्र दोनों प्राय कुमारको कहते भए-हे कल्याणरूप हमको शोकका करणहारा यह कूच काहेको करिये है अहो कोनने आपको क्या कहा है शोभायमान तुम कौनको अप्रिय हो जो तुमको न रुचे सो सबहीको न रुचं तुम्हारे पिताका घर हमारा वचन जो सदोप होय तो भी तुमको मानना योग्य है सो तो हम समस्त दापरहित रहे हैं तुमको अवश्य धारना योग्य है । हे शूरवीर कृचसे पीछे फिरो हमको हमारे दोनोंके मनवांछित सिद्ध करो। हम तुम्हारे गुरु जन हैं सो तुम सारिखे सत्पुरुषोंको गुरु नोंकी आज्ञा अानन्दका कारण है ऐसा जब राजा महेन्द्रने अर प्रल्हादने कहा तब यह कुमार धीर वीर विनयकर नम्रीभूत भया है मस्तक जाका । जब तातने पर ससुरने बहुत अादर सों हाथ पकड़े तब यह कुमार गुरुजनोंकी जो गुरुता ताको उलंघनेको असमर्थ भया । उनकी Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवा पर्य १६३ आज्ञा पाळा बाहुडा र मनमें विचारों कि याहि परकर तज दूंगा ताकि दुःख ते जन्म पूरा करैर परका भी याहि संयोग न होय रु ! करावा मी अशोक के पल्लव की जाला समान लागे अथानन्तर कन्या प्राणवल्लभको पाछा आया सुनकर हर्षित भई रोमांच होय आए लग्न के समय इनका विवाह मंगल भया जब दुलहिनका परग्रहण समान आरक्त प्रति कोमल कन्यार्क कर से इस विरक चितके बिना इच्छा कुमारकी दृष्टि कन्या तनुपर काहू भांति गई सो क्षणमात्र भी न सह सका जैसे कोई विद्युत्प्रातको न सह सके | कन्नाके प्रीति बरको प्रीति यह इसके भावको व जाने ऐसा जान मानों अग्नि हंसती भई और शब्द करती भई, बड़े इनका विवाह कर सर्वबंधु जन आनन्द को प्राप्त भए । मानसरोवर के तट विवाह भया नानाप्रकार वृक्षलता फल पुष्प विराजित जो सुन्दर वन तहां परम उत्तवकर एक मास रहे । परस्पर दोनों समधियोंने अति हितके वचन आलाप करे परस्पर स्तुति महिमा करी सन्मान किए पुत्र के पिताने बहुत दान दिया अपने अपने स्थानको गए । हे श्रेणिक ! जे वस्तुका स्वरूप नहीं जाने हैं और बिना समझ पराये दो ग्रह हैं ते मूर्ख | पराये दोपकर आप ऊपर दोष याय पड़े है सो सब पाप कर्मका फल है पाप तापकारी है। इति श्रीरविषेणाचार्य विरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताड़ी भाषा वचनका विषै अजना पत्रका विवाह घन करने वाला पन्द्रहवां पर्व पूर्ण भया ।। १५ ।। 1 अथानन्तर पवनंजय कुमारने अंजनी सुन्दरीको परख कर ऐसी जी जो कबहूं बात न बूझे सो वह सुन्दरी पति अमापणसे अर कृपादृष्टि कर न देखने पर दुःख करती मई रात्री में भी निद्रा न लेय निरन्तर अनुपात ही द्वारा करें शरीर मलीन होय गया पतिसे व्यति स्नेह धनीका नाम प्रति सुहावै पवन आवै सो भी व्यति लागे । पतिका रूप तो विवाहको वेदी में अवलोकन किया था ताका मनमें ध्यान करवो करें र निश्चल लोचन सर्व चेष्टारहित बैठी रहे अन्तरंग ध्यानमें पतिका रूप निरूपणकर वाह्य भी दर्शन किया चाहे सो न हो तब शोक कर बैठ रहे, चित्रपटमें पतिका चित्रम लिखनेका उद्यम करे व हाथ कांप कर कलन गिर पड़े, दुरबल होय गया है समस्त अंग जाका, ढीले होय कर गिर पडे हैं सर्व आभूषण जाके, दीर्घ उष्णा जे उच्छ्वास उनकर मुस्काय गये हैं कपोल जाके, अंग में वस्त्र के भी भारकर खेदको धरती संती अपने शुभ कर्मको निंदती माता पिताको बारम्बार याद करती संत्री, शून्य भया है हृदय जाका, दुःखकर क्षीण शरीर मूर्छा द्याजाय चेष्टारहित होय जाय, अश्रुपात मे रुक गया है कण्ठ जाका, दुखकर निकसे हैं वचन जावे, विह्नत भई संती देव कहिये पूर्वोपार्जित कर्म ताहि उलाहना देय, चन्द्रमाकी किरण हू करि जाको अतिदाह अजै थर मन्दिर में गनन करती मूर्छा खाय गिर पढेर की गारी ऐसे विचार कर अपने मनहीमें पति बतलावे । हे नाथ ! तिहारे मनोज्ञ अंग मेरे हृदय में निन्दर है है मुझे आताप क्यों करें हैं घर मैं आपका कछ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ બંદપુરાણ अपराध नहीं किया, निःकारण मेरे पर कोप क्यों करो, अब प्रसन्न होवो मैं तिहारी भक्त हूं मेरे चिचके विपादको हरो जैसे अंतरंग दर्शन देवो हो तैसे वहिरंग देवो । यह मैं हाथ जोड़ चीनती करू हूं। जैसे सूर्य विना दिनकी शोभा नहीं और चन्द्रमा विना रात्रीकी शोभा नहीं और दया क्षमाशील संतोषादि गुण विना विद्या शोमै नहीं तैमे तिहारी कृ बिना मेरी शोभा नहीं । या भांति चित्तविषै बसे जो पति उसे उलाइना देव भर बड़े मोतियों समान न्त्रोंसे यांतुवोंकी बूंद भरें । महा कोमल सेज अर अनेक सामग्री सखीजन करें परन्तु याहि कछु न सुहा, चकारूढ समान मनमें उपजा है वियोगसे न जाको, स्नानादि संस्काररहित कभी भी केश समारे गूथे नहीं, केश भी रूखे पडगये सर्व क्रियामें जड़ मानों पृथिवीहीका रूप हो रही हैं र निरन्तर प्रवाद मानो जलरूप ही होय रही है । हृदयके दाहके योगतें मानों अग्नि रूप ही हो रही है पर चल चित्तके योग मानो वायुरूप ही हो रही है पर शून्यता के योगतें मानो गगन रूप ही होय रही है । मोहके योगत आच्छादित होय रहा है ज्ञान जाका, भूमि पर डार दिये हैं सर्व अंग जाने, बैठ न सकै र विष्ठे तो उठ न सकें पर उठे तो देहीको थांभ न सकै सो सखी जनका हाथ पकड़ विहार करें सो पग डिग जाय अर चतुर जे सखीजन तिनसों बोलनेकी इच्छा वरै परन्तु बोल न सकै अर हंसनी कबूतरी यदि गृहपक्षी तिनसों क्रीडा क्रिया चाहे पर कर न सकै । यह विचारी सबसे न्यारी बैठी रहै । पतिमें लग रहा है मन पर नेत्र जाका निःकारण पतिर्वै अपमान पाया सो एक दिन बरस बराबर जाय यह याकी अवस्था देख सकल परिवार व्याकुल भया । सच ही चिंतवते भये कि इता दुख याको विना कारण क्यों मया है यह कोई पूर्वोपार्जित पाप कर्मका उदय है पिछले जन्भर्म याने किसी के सुखविषै अंतराय किया है सो याके भी सुखका अंतराय भया । वायुकुमार तो निर्मित मात्र है । यह बारी भोरी निर्दोष याहि परणकर क्यों तजी, ऐसी दुलहिन सहित देवों समान भोग क्यों न करै । याने पिता के घर कभी रंचमात्र हू दुख न देखा सो यह कर्मानुभव कर दुखके मारको प्राप्त भई । यकी सखीजन विचारें हैं कि क्या उपाय करें हम भाग्यरहित हमारे यत्नसाध्य यह कार्य नाहीं कोई ऋशुभकर्मकी चाल है अब ऐसा दिन कम होयगा वह शुभ मुहूर्त शुभ बेला कम होयगी जो वह प्रीतम या प्रियाको समीप ले बैठेगा अर कृपादृष्टिकर देखेगा मिष्ट वचन बोलेगा यह सबकी अभिला लग रही है। श्रथानंतर राजा वरुण ताके रावणसे विरोध पड़ा, वरुण महा गर्ववान रावणकी सेवा न करें सो दाने दूत भेजा । दूत जाय वरुणसे कहता भया । दूत धनीकीं शक्तिकर महाकांतिको धरै है । विद्याधिपतं वरुण ! सर्वका स्वामी जो राज्य ताने यह आज्ञा करी है जो आप मुझे प्रणाम करो अथवा युद्धकी तैयारी करो । तब वरुणने हंसकर कही, हो दूत ! कौन है रावण कहां रहें हैं जो मुझे दबाव है सो मैं इंद्र नहीं हूँ वह वृथा गर्वित लोकनिंद्य था । मैं वैश्रवण नहीं मैं यम नहीं, मैं सहस्रस्मि नहीं, मैं मरुत नहीं, रावणके देवाधिष्ठित रत्नोंसे महा गर्व उपजा है । की सामर्थ्य है वो आवो मैं गर्वरहित करूंगा घर तेरी मृत्यु नजीक है जो हमसे ऐसी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DAAR.. . सोलहवा पर्व वात कहै है । तब इतने जायकर रावणसे सर्व वृत्तांत कहा रावणने कोपकर समुद्र तुल्य सेनासहित जाय बरुणका नगर घेरा अर यह प्रतिज्ञा करी जो मैं याहि देवाधिष्ठित रत्नों विना ही वश करूंगा, मारू अथवा बाधू । तर बरुणके पुत्र राजीव पुण्डरादिक क्रोधायमान होय रावणके कटकपर मारे । रावण की सेनाके पर इनके बड़ा युद्ध भया, परस्पर शस्त्रोंके समूह छेद दारे, हाथी हाथियोंसे, घोड़े घोड़ोंसे, रथ रथोंसे, भट भटोंसे महायुद्ध करते भए, बड़े २ सामन्त होठ डस डसकर लाल नेत्र हैं जिनके वे महाभयानक शब्द करते भए । बड़ी बेरतक संग्राम भया । सो दरुणकी सेना रावणकी सेनासे कछु इक पीछे हटी तव अपनी सेनाको हटी देख वरुण राक्षसोंकी सेना पर आप चला आया कालाग्नि समान भयानक | तब रावण वरुणको दुर्निवार रणभूभिविषे सम्मुख आवता देख कर आप युद्ध करनेको उद्यमी भए । यरुणके रावणके आपसविणे युद्ध होने लगा अर वरुण के पुत्र खरदूषण से युद्ध करते भए । कैसे हैं वरुणक पुत्र महाभटोंके प्रलय करनहारे अर अनेक माते हाथियों के कुम्भस्थल विदारनहारे । सो रावण क्रोधकर दीप्त है मन जाका महाकर जो भृकुटि तिनकरि भयानक है मुख जाका, कुटिल हैं कैश जाके जव लग धनुषके वास तानकर वरुणपर चलायै तब लग वरुण के पुत्रोंने राणके बहनेऊ खरपण को पकड़ लिया तव रावणने मनमें विचारी जो हम बरुण से युद्ध करें अर खरमणका मरण होय तो उचित नहीं तात संग्राम मने किया, जे बुद्धिमान है ते मंत्रविणे चूके नहीं, तब मंत्रियों ने मंत्रिकर सब देशोंके राजा बुलाए, शीघ्रगामी पुरा भेजे, सवनको लिखा-बड़ी सेनासहित शीघ्र ही आवो पर राजा प्रल्हादपर भी पत्र लेय मनुष्य आया सो राजा प्रल्हादने स्वामीकी भकिकर रावण के सेवकका बहुत सन्मान किया पर उठकर बहुत आदरसे पत्र माथे चढ़ाया भर बांचा सो पत्रविणे या भांति लिखा था कि पातालपुरके समीप कल्याणरूप स्थानको विष्ठता महाक्षेमरूप विद्याधरोंके अधिपतियों का पति सुमालीका पुत्र जो रत्नश्रया ताका पुत्र राक्षसवंशरूप आकाशमें चन्द्रमा ऐसा जी रावण सो आदित्य नगरके राजा प्रन्हादकों आज्ञा करें है। कैसा है प्रन्हाद ? कल्याणरूप हैं, न्यायका वेत्ता है, देश काल विधानका शायक है, हमारा बहुत वल्लभ है, प्रथम तो तुम्हारे शरीरकी कुशल पूल है बहुरि यह समाचार है कि हमको सर्व खेचर भूचर प्रणाम करै हैं हाथोंकी अंगुली तिनके नखकी ज्योतिकर ज्योतिरूप किए हैं निज शिरके केश जिनने पर एक अति दुय द्धि वरुण पाताल नगर में निवास करें है सो प्राज्ञासे पराक मुख होय लड़नेको उद्यमी भया है, हृदयको व्यथाकारी विद्याधरोंके समूहसे युक्त है, समुद्रके मध्य द्वीपको पायकर वह दुरात्मा गर्वको प्राप्त भया है सो हम ताके ऊपर चढ़कर आये हैं। बड़ा युद्ध भया वरुण के पुत्राने खरदूषण को जीवता पकड़ा है सो मंत्रियोंने मंत्रर खरदूषण के मरपकी शंकातें युद्ध मने किया है तातै खरदूषण का छुड़ावना अर वरुणको जीतना सो तुम अवश्य शीघ्र आइयो डील करो मत, तुम सारिखे पुरुष कर्तव्यमें न चूकें । अव सव विचार तुम्हारे आवनेपर है यद्यपि सूर्य तेजका पुंज है तथापि अरुण सारिखा सारथी चाहिये। .तब राजा प्रल्हाद पत्रके समाचार. जान मंत्रियोंसों मंत्र कर रावणके समीप चलनेको Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..१६६ पद्म-परोण उद्यमी भए तव प्रल्हादको चलता सुनकर पवनंजयकुमारने हाथ जोड़ गोड़ों से धरती स्पर्श नमस्कार कर विनती करी । हे नाथ ! मुझ पुत्रके होते संते तुमको गमन युक्त नहीं, पिता जो पुत्रको पालै है सो पुत्र का यही धर्म है कि पिताकी सेवा करें जो रुंवा न करें तो जानिए पुत्र भया ही नाहीं तार्ते आप कूच न करें, मोहि आज्ञा करें, तब पिता कहते भये - हे पुत्र ! तुम कुमार हो अबतक तुमने कोई खेत देखा नहीं तातें तुम यहां रहो मैं जाऊंगा । तब पवनंजयकुमार कनकाचलके तट समान जो वक्षस्थल उसे ऊंचाकर तेजके वरणहारे वचन कहते भए— हे वात; मेरी शक्तिका लक्षण तुमने देखा नही, जगत के दाहमें अग्नि के स्फुलिंगे का क्या वीर्यं परखना । तुम्हारी आज्ञारूप आशिषाकर पवित्र मया है मस्तक मेरा ऐसा जो मैं इंद्र को भी जीतनेको समर्थ हूँ यामें सन्देह नहीं। ऐसा कहकर पिताको नमस्कार कर महाहर्षसंयुक्त उठकर स्नान भोजनादि शरीरकी क्रिया करी, अर यादरसहित जे कुल में वृद्ध हैं तिन्होंने असीम दीनी, भावसहित रिहंत सिद्धको नमस्कार कर परम कांतिको धरता हुआ महा मंगलरूप पितासे विदा होने आया सो पिताने अर माताने अमंगल के भय से आंसू न काढे, आशीर्वाद दिया- हे पुत्र ; तेरी विजय होय छाती से लगाय मस्तक चूमा । पवनंजयकुमार श्रीभगवानका ध्यान घर माता पिताको प्रणामकर जे परिवार के लोग पायन पड़े तिनको बहुत धीर्य बंधाय सबसे अतिस्नेह कर विदा भए पहले अपना दाहना पांव आगे घर चले । फुरकै है दाहिनी भुजा जिनकी घर पूर्ण कलश जिनके मुखपर लाल पल्लव तिनपर प्रथम ही दृष्टि पड़ी अर थम्भ से लगी हुई द्वारे खड़ी जो अंजनी सुन्दरी से भीज रहे हैं नेत्र जाके, ताम्बूलादिरहित घूसरे होय रहे हैं अधर जाके मानों थम्भत्र उकेरी पुतली ही हैं । कुमारकी दृष्टि सुन्दरीपर पड़ी सो क्षणमात्र दृष्टि संकोच कोपकर बोले- हे दुरीक्षणे कहिये दुःखकारी है दर्शन जाका इन स्थानकतें जावो, तेरी दृष्टि उल्कापात समान है सो मैं सहार न सकू । श्रहो बड़े कुलकी पुत्री कुलवन्ती ! तिनमें यह ढीठपणा कि मने किए भी निर्लज्ज ऊभी रहें। ये पति के अतिक्रूर बचन सुने तौ भी याहि अति प्रिय लगे जैसे घने दिनके तिसाए पपैयेको मेघकी बूंद प्यारी लगे सो पतिके वचन मनकर अमृत समान पीवती भई । हाथ जोड़ चरणारविंदकी ओर दृष्टि घर गद्गद बाणीकर डिमते डिगते वचन नीठि २ कहती भई – हे नाथ; जब तुम यहां बिराजते हुते तव भी मैं वियोगिनी ही हुती परन्तु आप निकट हैं सो इस आशाकर प्राण कष्टसे टिक रहे हैं अब आप दूर पवार हैं मैं कैसे जीऊंगी। मैं तिहारे वचनरूप अमृत के आस्वादनकी अति आतुर तुम परदेशके गमन करते स्नेहसे दयालु चित्त होय कर वस्तीके पशु पक्षियोंको भी दिलासा करी, मनुष्योंकी तो कहावात ९ सबसे अमृत समान वचन कहे मेरा चित्त तुमारे चरणारविंदविषे है, मैं तुम्हारी अप्राप्तिकर यति दुःखी औरोंको श्रीमुखसे एती दिलासा करी मेरी औरोंके मुखसे ही दिलासा कराई होती । जब मुझे आपने वजी तब जगतमें शरण नहीं, मरण ही है । तब कुमारने मुख संकोचकर कोपसे क.ही, मर । तब यह सखी खेद खिन्न होय धरती पर गिर पड़ी, पवनकुमार इससे कुमाया ही रखविषै चले, बड़ी ऋद्धिसहित हाथी पर सवार होय सामन्यों सहित प्रयान किया Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैता पर्व पहले ही दिनविज मानसरोवर जाय डेरे भए, पुष्ट हैं बाहन जिनके सो विद्याधरोंकी सेना देवों की सेना समान आकाश उतरती हुई यति शोभायमान दीखती भई । कैमी सेना? नाना प्रकारके जे वाहन अर शस्त्र तेई हैं आभूषण जाके अपने २ बाहनोंके यथायोग्य यत्न कराये स्नान कराये खानपानका यत्न कराया। ____ अथानन्तर विद्याके प्रभावतें मनोहर एक बहुखणा महल बनाया चौडा अर ऊचा सो श्राप मित्र सहित महल ऊपर विराजे । संग्रामका उपजा है अति हर्ष जिनके, झरोखावों की जाली के छिद्रोंसे सरोवरके तटके वृक्षोंको देखते थे, शीतल मंद सुगंध पवनसे वृक्ष मन्द मन्द हालते हुते अर सरोवरवि लहर उठती हुती सरोवरके जीव कछुवा, मीन, मगर अर अनेक प्रकार के जलचर गर्वके धारणहारे तिनकी भुनानिकरि किलोल होय रही हैं उज्ज्वल स्फटिक मणि समान निर्मल जल है जामें, नाना प्रकारके कमल फूल रहे हैं हंस, कारंड, क्रौंच, सारस इत्यादि पक्षी सुन्दर शब्द कर रहे हैं जिनके मुननेसे मन अर कर्ण हर्ष पावै अर भ्रमर गुजार कर रहे हैं तहां एक चकवी चकवे बिना अकेली वियोगरूप अग्नितें तप्तायमान अति अाकुल नानाप्रकार चेष्टाकी करणहारी अस्ताचलकी ओर सूर्य गया सो वा तरफ लग रहे हैं नेत्र जाके पर कम- : लिनीके पत्रोंके छिद्रांविष बारम्बार देखे है, पांखोंको हलावती उठे है अर पडै अर मृणाल कहिये कमलकी नाल का तार ताका स्वाद विप समान लगे है, अपना प्रतिविम्ब जल विषै देखकर जान है कि यह मेरा प्रीतम है सो उसे बुलावै है सो प्रतिविम्ब कहा आवै तव अप्राप्तिते परम शोकको प्राप्त भई है । कटक आय उतरा है सो नाना देशोंके मनुष्यों के शब्द अर हाथी घोड़ा आदि नाना प्रकारके पशुयोंके शब्द सुनकर अपने वल्लभ चकवाकी आशाकर भ्रमै है चित्त जाका, अश्रुपात सहित हैं लोचन जाके, तटके वृक्षपर चढ़कर दशोंदिशाकी ओर देखे है। पीतम को न देखकर अति शीघ्र ही भूमिपर पाय पड़े है, पांख हलाय हलाय कमलिनीकी जो रज शरीरके लगी है सो दूर कर है सो पवन कुमारने धनी वेर तक दृष्टि थर चकवीकी दशा देखी दयाकर भीज गया है चित्त जाका चित्त में ऐसा विचारा कि पीतमके वियोगकर यह शोकरूप अग्निविणे बलै है यह मनोज्ञ मानसरोवर अर चंद्रमा की चांदनी चंदन समान शीतल सो इस वियोगिनी चकवीको दावानल समान है, पति बिना इसको कोमल पल्लव भी खड्ग समान भासै हैं चन्द्रमाको किरण भी वज्र समान भास है, स्वर्ग भी नरकरूप होय आचरै है। ऐसा चितवनकर याका मन प्रियाविषे गया अर या मानसरोवरपर ही विवाह भया था सो वे विवाह के स्थानक दृष्टिमें पड़े सो याको अति शोकके कारण भए, मर्मके भेदनहारे दुःसह करौंत समान लगे। चित्तविणै विचारतो भया-हाय ! हाय ! मैं क्रूरचिच. पापी, वह निर्दोष वृथा तजी, एक रात्रिका वियोग चकवी न महार सकै तो बाईस वर्षका वियोग वह महासुन्दरी कैसे सहारे कटुक वचन वाकी सखीने कहे हुते, वाने तो न कहे हुते, मैं पराए दोषसे काहेको ताका:परित्याग किया । धिक्कार है मो सारिखे मूर्खको जो विना विचारे काम करै ऐसे निष्कपट प्राणी को निष्कारणं दुख अवस्था करी मैं पापचित हूं वन समान है हृदय मेरा जो मैंने एते वर्ष असी. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पी-पगण प्राणवल्लभाको वियोग दिया अब क्या करू पितासे विदा होकर घरसे निकसा हूं कैस पीछे जाऊपड़ा संकट पड़ा जो मैं वासे मिले विना संग्राम मैं जाऊं तो वह जीवे नहीं अर वाके श्रभाव भए मेरा भी अभाव होगा जगतविगै जीतव्य समान कोई पदार्थ नहीं तात सर्व संदेह का निवारणहारा मेरा परम मित्र प्रहस्त विद्यमान है वाहि सवै भेद पूछ वह सर्व प्रीतिकी रीतिमें प्रवीण है जे विचारकर कार्य कर हैं ते प्राणी सुख पावै हैं ऐसा पवनकुमारको विचार उपजा सो प्रहस्त मित्र ताके सुखविणे सुखी दुःखविणे दुःखी याको चिंतावान देख पूछता भया कि हे मित्र; तुम रावणकी मदद करनेको वरुण सारिखे योधासे लड़नेको जावो हो सो अति प्रसन्नता चाहिए तव कार्यकी सिद्धि होय आज तुम्हारा वदनरूप कमल क्यों मुरझाया दीखे है, लज्जाको तजकर मुझे कहो, तुमको चिन्तावान देखकर मेरा व्याकुल भाव भया है तब पवनंजय ने कहीहे मित्र ; यह वार्ता काहूसों कहनी नहीं परन्तु तू मेरे सर्व रहस्यका भाजन है तो अन्तर नाही, यह वात कहते परम ला उपजै है । तब प्रहस्त कहते भए जो तिहारे चित्तविष हो सो कहो, जो तुम आज्ञा करोगे सो बात और कोई न जानेगा,जैसे ताते लोहे पर पड़ी जलकी बूंद चिलाय जाय प्रगट न दीखे तैसे मोहि कही बात प्रगट न होय । तब पवनकुमार बोले हे मित्र ! सुनो-मैं कदापि अजनी सुन्दरीसे प्रीति न करी सो अब मेरा मन अति व्याकुल है, मेरी करता देखो एते वर्ष परणे भए सो अब तक वियोग रहा, निःकारण अप्रीति भई सदा वह शोककी भरी रही अश्रुपात झरते रहे पर चलते समय द्वारे खडी विरहरूप दाह से मुरझा गया है मुखरूप कमल जाका सर्व लावण्य संपदारहित मैंने देखी अब ताके दीर्घ नेत्र नीलकमल समान मेरे हृदयको बाणवत् भेदै हैं तात ऐसा उपाय कर जाकरि मेरा वासों मिलाप होय । हे सज्जन ; जो मिलाप न होयगा तो हम दोनों हीका मरण होगा । तब प्रहस्त क्षण एक विचारकर बोले-तुम माता पितासे आज्ञा मांग शत्रुके जीतको निकसे हो ताते पीछे चलना उचित नाहीं, अर अबतक कदापि अंजनी सुन्दरी याद करी नाहीं अर यहां बुलावे तो लज्जा उपजै है तातें गोप्य चलना अर गोप्य ही आवना वहां रहना नहीं उनका अवलोकनकर सुख सम्भाषमाकर आनन्दरूप शीघ्र ही आवना । तब आपका चित्त निश्चल होगा, परम उत्साहरूप चलना शत्रुके जीतनेका निश्चय यही उपाय है तब मुद्गर नामा सेनापतिको कटक रक्षा सौंपकर मेरुती बन्दनाका मिसकर प्रहस्त मित्रसहित गुप्त ही सुगंवादि सामग्री लेकर आकाशके मार्गसे चले । सूर्य भी अस्त हो गया अर सांझका प्रकाश भी हो गया, निशा प्रकट भई अंजनी सुन्दरीके महलपर जाय पहुंचे । पवनकुमार तो वाहिर खड़े रहे; प्रहस्त खबर देनेको भीतर गये, दीपका मन्द प्रकाश था अंजनी कहती भई-कौन है ? पसंनमाला निकट ही सोती हुती सो जगाई, वह सब वातोंविगै निपुण उठकर अंजनीका भय निवारण करतो भई, प्रहस्तने नमस्कारकर जा पवनंजयके आगमनका वृत्तान्त कहा, तर सुन्दरीने प्राणनाथका समागम स्वप्न समान जाना, प्रहस्तको गद्गद वाणीकर कहती मई-हे प्रहस्त ; मैं पुण्यहीन पतिकी कृपाकर वर्जिन मेरे ऐसा ही पाप फर्म का उदय आया तू हमसे क्या हंस है, पतिसे जिसका निरादर होय वाकी कौन अवज्ञा न Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAPUR 11 . .. सालहवा पर्व करें। म अभागिनी दुःख अवस्थाकी प्राप्ति भई. नामकारकर विनती करी- कन्याण रावणी हपतित शाहमा अपरोक्षमा करो अवसब अशुभ कर्म गए तुम्हारा मरूप मुगको प्रतिभाग प्राणनाथाया, सुममधति नभन भया तिनको प्रमन्नताकर क्यों क्या ग्रान हैं न हाया जा चंद्रमोकामगरका माज्ञता होय । त अंजनी संदरीक्षण करनी की हो रही और वसन्तमाल हा हे भद्र ! मेघ वरमैं जब भला तति प्राणनाथ इन महसे पर सारी ईमका वडा भोग्यारं हमारा पुण्यरूप वृक्ष फैला यह, बात हो रही थी, आनन्दक अश्रयाती कर बात हो गए है, नत्र जिनके नो कुमार पधारे ही मानों करुणारूप सखी ही पीतमको प्रिया हिंग ले आई, तयं भुगभीत हिरणीके नेत्र समान महर हैं नेत्र कि अपी प्रिया पनिको देख म्मुख जोय होय जोड सोस निवीय पायन पडी, प्रविन ने अपने करसे मी उठी हा पर्स, सममि वार्चन कहें कि हे देवी ! क्लेशका सर्कल खेद निवृत्त होवै, संदी हाथ जोड़ पतिकनिकट खडी थी । पतिने अपने करसे कर' एकडकर सेजपर बैठाई. तब नमस्कार कर प्रहस्त सौ वाहिर गए और वसन्तमाला भी अपने स्थानक जाये बैंठी । परनंजयकुमारने अपने अज्ञान में लज्जावान हो मेरी से बारम्बार कुशल पूछी अर कही हे प्रिये ! मैंने अशुभ कर्म के उदयत जी तुम्हारी वृथा निरा. दर किया सो क्षमा करो तव संदरी नीचा मुख कर मन्द मन्दं वचन कहती मईनाथापन पराभव कछु न किया कर्मका ऐसा ही उदय हता अब आपने 'कृपा करी अति स्नेह जताया सो मेरे सर्व मनोरथं सिद्ध किए आपके ध्यान कर संयुक्त हृदय मेरा सौ श्राप सदा ही याविषै विराजते आपका अनादर भी आदर समान भासा । . या मांति अंजना सुन्दरीने कहा तब पवनंजयकुमार हाथ जोड़ कहते भए कि हे प्राणप्रिये ! मैं वृथा अपराध किया, पराए दोषसे तुमको दोप दिया सो तुम सबै अपराधहमारा विस्मरण करो, मैं अपना अपराध क्षमावने निमित्त तुम्हार पायने पर तुम हमपर अति प्रसन्न होवों ऐसा कहकर परनंजयकुमारने अधिक स्नेह जनाया त अंजना सुन्दरी महासती पतिका ऐता स्नेह देखकर बहुत प्रसन्न भई और पतिको प्रियवचन कहती भई-ह नाथ मिश्रति जैसेन्न भई हम तुम्हारे चरणारपिंदकी रज हैं हमास इतना विनथ लुमको उचित नहीं ऐसा कहकर सुख से सेजपर विराजमान किये, प्राणनाथकी कृपासे प्रियाका मन अति प्रसन्न मया र शरीर अतिकांतिको धरता भया, दोनों परस्पर अतिस्नेह के भरे एकचित्त भया सुखरूप जीत रहे, निद्रा न लींनी पिछले पहिर अल्पमिद्री श्राई प्रभातको समय हो गया है। यह पतिता सेमेसें उतर पतिके पाय पलोटने लगी, शत्रि व्यतीत भई सो सुख में जानी माही. प्रातः समय चन्द्रमाकी किरण फीकी पड गई कुमार आनन्दके भारमें भर गये श्रर स्वामीकी श्राशी' ल गए, तब मित्र प्रहस्तने कुमारके हितविष है चिंत्त जाका ऊचा शकर वसन्तमालाको जगाकर भीतर पठाई अर मन्द मन्द आप सुगन्ध महलमें मित्र के समीप गएं और कहते भय-हे सुन्दर ! उठो कहा सोवो हो ? अब चन्द्रमा भी तुम्हारे मुखसे कांतिरहित होगया है यह वचन सुनकर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण पवनंजय प्रबोध को प्राप्त भए, शिथिल है शरीर जिनका, जंभाई लेते, निद्राके आवेश कर लाल हैं नेत्र जिनके, कानोंको बांए हाथकी तर्जनी अंगुलीसे खुजावते, खुले हैं नेत्र जिनके दाहिनी भुजा संकोचकर अरिहंतका नाम लेकर सेजसे उठे, प्राणप्यारी आपके जगनेसे पहिले ही सेजसे उठ उतर कर भूमिावर्षे विराजती थी लज्जाकर नम्रीभृत हैं नेत्र जाके, उठते ही पीतमकी दृष्टि प्रिया पर पड़ी बहुरि प्रहस्तको देख कर, आवो मित्र ऐसा शब्द कहकर सेजसे उठे, प्रहरतने मित्रसे रात्रिकी कुशल पूछी निकट बैठे, मित्र नीतिशास्त्रके वैसा कुमारसे कहते भए-हे मित्र ! अब उठो प्रियाजीका सन्मान बहुरि आयकर करियो। कोई न जाने या भांति कटकमें जाय पहुंचें अन्यथा लज्जा है। रथनू पुरका धनी किन्नरगीतनगरका धनी रावण के निवट गया चाहे है सो तुम्हारी ओर देखे है जो वे आगे आयें तो हम मिलकर चलें अर रावण निरन्तर मंत्रियों से पूछ है जो पवनंजयकुमारके डेरे कहां हैं अर कब आवेंगे तातें अब आप शीघ्र ही रावणके निकट पधारो प्रियाजीसे विदा मांगो, तुमको पिताकी अर रावणकी आज्ञा अवश्य करनी है, कुशल क्षेमसे कार्य कर शिताव ही आवेंगे तब प्राणप्रियासे अधिक प्रीति करियो तब पवनंजयने कही हे मित्र ! ऐसे ही करना । ऐसा कहकर मित्रको तो बाहिर पठाया अर आप प्राणवल्लभास अतिस्नेहकरा उरसों लगाय कहते भए हे प्रिये ; अब हम जाय हैं तुम उद्वेग मत करियो थोड़े ही दिनोंमें स्वामीका कामकर हम आवेंगे तुम आनन्दसे रहियो । तव अंजना सुन्दरी हाथ जोड कर कहती भई हे महाराजकुमार ! मेरा ऋतुसमय है सो गर्म मोहि अवश्य रहेगा अर अब तक आपकी कृपा नहीं हुती यह सर्व जाने हैं सो माता पितासों मेरे कल्याणके निमित्त गमका वृता त कहजावो। तुम दीर्घदर्शी सब प्राणियोंमें प्रसिद्ध हो ऐसे जब प्रियाने कहा तब प्राणवल्लभाको कहते भए – हे प्यारी! मैं माता पितासे विदा होय निकसा सो अब उनके निकट जाना बने नाहीं लज्जा उपजै है लोक मेरी चेष्टा जान हंसेंगे तातें जब तक तम्हारा गर्भ प्रकाश न पाये ताके पहिलेही मैं आबू हूं तुम चित्त प्रसन्न राखो अर कोई कहे तो ये मेरे नामकी मुद्रिका राखो, हाथोंके कडे राखो तुमको सब शांति होयगी ऐसा कहकर मुद्रिका दई अर बसंतमालाको प्राज्ञा दई इनकी सेवा बहुत नीके करियो । आप सेजसे उठे प्रियावि लगरहा है प्रेम जिनवा । कैसी है सेज संयोगके योगसे बिखर रहे हैं हारके मुक्ताफल जहां पर पुष्पोंकी सुगंध मकरं इसे भ्रमें हैं भ्रमर जहां, क्षीरसागरकी तरंग समान अति उज्ज्वल बिछे हैं पट जहां, आप उठ करत्रिके सहित विमानपर बैठ आकाशके मार्गसे चले । अंजनासुन्दरीने अमंगलके कारण प्रांरा न काढे । हे श्रेणिक ! कदाचित् या लोकविष उत्तम वस्तुके संयोगते किंचित् सुख होय है सो क्षणभंगुर है अर देहधारियोंके पापके उदयतें दुख होय है, सुख दुख दोनों विनश्वर हैं ताते ह प विषाद न करना । हो प्राणी हो, जीवों को निरन्तर सुखका देनेहारा दुःखरूप अन्धकारका दूर करणहारा जिनवर भाषित धर्म सोई भया सूर्य ताके प्रतापकर मोहतिमिर हरो। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै . पअनंजय अन्जनाका संयोग वर्णन करनेबाला सोलहबां पर्व पर्ण भया ।। १६!! Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां पर्व अथानन्तर कैयक दिनोविणे महेंद्रकी पुत्री अजनाके गर्भके चिन्ह प्रगट भए कछु इक मुख पाडवर्ण हो गया मानों हनुमान गर्भ में पाए सो उनका यश ही प्रगट भया है मंद चाल चलने लगी जैसा मदोन्मत्त दिग्गज विचरै , स्तन युगल अति उन्नतिको प्राप्त भए. श्यामलीभूत है अग्र भाग जिनके, पालमसे वचन मंद २ निसरै भौहोंका कंप होता इन लक्षणोंकर उसे सास गर्भिणी जानकर पूछती भई । तैंने यह कर्म किससे किया तब यह हाथ जोड प्रणामकर पतिके आवनेका समस्त बृत्तान्त कहती भई तब केतुमती सासू क्रोधायमान भई । महा निठुर बाणीरूप पापाणकर पीडती भई-हे पापिनी ! मेरा पुत्र तेरेसे अति विरक्त तेरा आकार भी न देखा चाहै तेरे शब्दको श्रवणविणे थार नहीं माता पितासे विदा होयकर रण संग्रामको बाहिर निकसा, वह धीर कैसे तेरे मंदिरमें श्रावै, हे निर्लज्जे ! धिक्कार है तुझ पापिनीको। चंद्रमा की किरण समान उज्ज्वल. वंशको क्षण लगायनहारी यह दोनो लोकमें निंद्य अशुभ क्रिया तेने आचरी अर तेरी यह सखी बसन्तमाला याने तुझे असी बुद्धि दीनी, कुलटाके पास वैश्या रहै तब काहेकी कुशल । मुद्रिका अर कडे दिखाए तो भी ताने न मानी प्रत्यन्त कोप किया एक क्रूर नामा किंकर बुलाया वह नमस्कारकर ठाढा, तब क्रोधकर केतुमतीने लाल नेत्रकर कहा हे क्रूर ! सखीसहित याहि गाडीमें यठाय महेंद्रके नगरके निकट छोड था। तब वह क्रूर केतु. मतीकी आज्ञातें सखीसहित अंजनीको गाडीमें बैठायकर महेंद्रके नगरकी ओर ले चला । कैसी है अंजनी सुन्दरी ? अति कापै है शरीर जाका महा पवनकर उपडी जो बेल ता समान निराश्रय अति श्राकुल कांतिरहित दुःखरूर अग्निकर जल गया है हृदय जाना, भयकर सासूको कछु उत्तर न दिया । सखीकी ओर धरे हैं नेत्र जिसने, मनकर अपने अशुभ कर्मको बारंबार निंदती अश्रुधारा नाखती निश्चल नहीं है चित्त जिमका । कर इनको ले चला वह क्रूर कर्मविणे अति प्रवीण है दिवसके अंत में महेंद्र नगरके समीप पहुँचायकर नमस्कारकर मधुर वचन कहता भया । हे देवी ! मैं अपनी स्वामिनीकी आज्ञातें तुमको दुखका कारण कार्य किया सो क्षमा करो ऐसा कहकर सहीसहित सुन्दरी गाडीत उतार विदा होय गाडी लेय स्वामिनीपै गया । जाय विनती करी-अापकी आज्ञा प्रमाण तिनक वहां पहचाय आया हूं। अथानन्तर महा उत्तम महापतिव्रता जो अंजना सुन्दरी ताहि दुखके भारत पीडित देख सूर्य भी मानो चिंताकर मंद हो गई है प्रभा जाकी, अस्त हो गया 'अर रुदनकर अत्यन्त लाल हो गए हैं नेत्र जाके ऐसी अंजनी सो मानो याके नेत्रकी अरुणताकर पश्चिम दिशा रक्त हो गई, अंधकार फैल गया रात्रि भई, अंजनीके दुःखत निकमैं जो आंच ते भए मेव तिनकर मानों दशो दिशा श्याम होय गई अर पंछी कोलाहल शब्द करते भए मानों अंजनी के दुःखसे दुखी भए पुकारै हैं वह अंजनी अपवादरूप महा दुःखका जो सागर तामें डूबी क्षधादिक दुख भूल गई, अत्यन्त भयभीत अश्रुपात नाखै रुदन करै, सो वसन्तमाला सखी धीर बंधा रात्रीको पल्लवका साथरा बिछाया सो याको निद्रा रंच भी न आई निरतर उष्ण अश्रपात पडै मानो दाहके भय निद्रा भाग गई, वसन्तमाला पोव दाब, खेद दूर किया दिलासा करी, दुःखके योग Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुसण "करें एक शत्रवर्णपुर जाती, "प्रभातमें साथर को तेजकर शंका कर यति, विहतु पिताके घर की और चली। सखी छाया समन सँग चली । पिता के मन्दिरकै द्वार जाय पहुंची। भीतर पूर्व "करती द्वारपालन रोकी। 'दुःखक योगा और ही रूप होगया सो जानी न पड़ी तब सखीने सर्व "वृत्तीत फहा सो जानकर शिलाकबाट नामा हाईपालने एक और मनुष्यको द्वारे मेल, अपने राज, के निपट जाये, नमस्कार करि विनंती करीं । पुत्रीके आगमन का अतिकृया । तब राजा के निकट 1 प्रसन्नकीर्त्ति नामा" पुत्र बैठा था सो राजाने पुत्रको आज्ञा करो = तुम सन्मुख, जाब उसका शीघ्र ही प्रवेश करावा नगरकी शोभा करावा तुम तो पहिले जावो पर हमारी सवारी तयार कराव हम भी पीछेसे अवि हैं । तब द्वारपालन हाथ जोड़ नमस्कार कर यथार्थ बिनती करी । तब राजा मुहेंद्र लज्जाका कारण सुनकर महा कोपबान एअर पुत्रको आज्ञा करो कि पापिनींकू नगरमेत कार्ड दे॒वों जाकी व्राती उनकर मेरे कान मौनो बज्रयान इत गये हैं । तब एक महोत्साह नामा 'बड़ा सामन्त राजीका अति, वल्लभ, सो कहता भया हे नाथ ! ऐसी श्राज्ञा करनी उचित नहीं, बसन्तमालासे सब ठीक पाडलेवो, सोसू केतुमती अतिक है पर जिनधर्मसे पराङमुख है, लौकिक सूत्र जो नास्तिक मत तदिष शर्वण है, तारों बिना विचारें झूठा दोष लगाया यह धर्मात्मा श्रावक के जतकी धारणहारी, कल्प कल्याणचारवििष तत्पर पापिनो सासूने निकासी है अर तुम भी निकासी सो कौन के शरणे जाय, जैसे व्याघ्रकी दृष्टि से मृगी त्रासको प्राप्त भई सन्ती महागहन उनका शरण ए लय, ते तैसे यह भोखी निश्कपट सामू शंकित भई, तुम्हारे शरण आई है मानो जेठके सूर्यकी (करणके संतापतै दुखित गई महावृचरूप जी तुम सो तिहारे आश्रय आई हूँ यह गरीबनी विह्वल आत्मा अपवादरूप, थाताप्रसे पीड़ित तिहारे 'आश्रय' भी साता न पावै तो कहां पार्श्वे मानो स्वर्मर्ते लक्ष्मी हो आई है । द्वारपालने रोकी सो अत्यन्त लज्जाकी प्राप्त भई बिलखि डाक द्वारे खड़ी है आपके स्नेहकर सदा लाडली है माथा सो तुम दया कर' यहु' निर्दोष है मन्दिरमांहि प्रवेश करावी अर केतुमतीको तु स्वा पृथिवीविष प्रसिद्ध हैं, ऐसे रसे न्यायरूप वचन महोला सामान वह सो राजाने कान व घर जैसे कमल के पत्र - निविषै जलकी बूंद न ठहरे तैसे राजाक वित्तमें यह बात न ठरौ । राजा सामन्तसे कहते कला यह सखी बसंतमाला सदा याके 'भए - पा रहे अर ग्राही के स्नेहकें योग कदाचित मृत्यू न 'तो हमको निश्चय कैसे थावे यात यावे शीलविषै संदेह है सो ग्राको नगरते निकाल देह जब यह बात प्रसिद्ध होयगी तो हमारे निर्मल कुलविणे कलक आवेगा जे बड़े कुलका बालिका "निर्मल है और महा विनयवन्ती उत्तम चेष्टाकी धारणहारी हैं ते पोहर सासरे सर्वत्र स्तुति करने योग्य हैं जे पुण्याधिकारी बड़े पुरुष जन्महीत निर्मल शौल पल हैं ब्रह्मचर्यको धारण ६.रै है अर दोषको मूल. जो स्त्री तिनको अगीकार नहीं कर हैं वे धन्य हैं। ब्रह्मचर्य समान पर कोई व्रत नहीं और स्त्री गोकार यह फल होय है जो कुपून बेटा बेटी होने यर उनके गुण पृथिवीविषे प्रसिद्ध होय तो पिता कर धरतीमें गड़ जाना होय है सब ही कुलको लज्जा उपज है "मेरा मन आज अतिदुखित दीय गया है मैं यह बात पूर्व अनेकवार सुनी हुती जो वह भरतार 5 T 6. 1. PI क Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ के अपि गरे र वह याहि अंगने नाहीं देखे है मो ताकर गर्भी उत्पत्ति कैसे भई तात यह निश्चयोती सदोष है तो कोई याहि मेरे राज्य में रहेगा को मेरा शत्रु है। ऐगे वचन कहाराजाने कोपकर जैसे कोई जाने नहीं या भांति याको द्वारये निकाल दीनी । मरखो सहित दुखकी भरी अंजना राजाके निजपर्ग के जहां जहां आपके अथ गई मो आने न दीनी, कपाट दिए, जहां पाप ही क्रोधायमान होय निराकरण करे तहां कुटुम्बास की प्राशा, वे तो सब राजाके आधीन हैं ऐसा निचरकर सको उदार होय सखीसे कहती गई आंसूबोंके समूह कर भीज गया है ग याका, हे प्रिये यहां सर्व पापाणचिन हैं यहां कैसा वास ? नाते वन में चले, अपमानमे तो मरना भला । ऐसा कहकर सखीसहित वनको चाली मानों मृगरज से भयभीत मृगी ही है, शीत उष्ण अर वातके खेद से महा दुखकर पीडित वनमें बैठी महा रुदन करती भई । हाय हाय ! मैं मन्द मागिनी दुखदाई जो पूर्वोप र्जित कर्म तारि मदा कष्ट को प्राप्त भई कौनके शरणे जाऊ? कौन मेरी रक्षा कर, मैं दुर्भाग्यसागरके मध्य को कर्मस पर्श । नाथ मेरा अशुभ कर्मका प्रेरा कहांसे पाया काहे को गर्भ रहा, मेरा दोनों ही ठोर निरादर भया । माताने भी मेरी रक्षा न करी सो वह क्या कर छपने धनीकी आज्ञाकारिणी पवित्रताओंका यही धर्म है अर नाथ मेरा यह वचन कह गया था कि तेरे गर्भ की वृद्धि से पहिले में पाऊंगा मो हाय नाथ दयावान होय वह वचन को भूले और सासून विना परख मेरा त्याग क्यों किया ? जिनके शीलमें संदेह होय तिनके पर खनके अनक उपाय हैं अर पिताको मैं बालवस्था में अति लाडली हुती निरंतर गीदमें खिलावते हुते सो विना परखे निरादर किया उनकी ऐसी बुद्धि उपजी पर माताने मुझे गर्भ धारी, प्रतिपालन किया एक बात भी मुखले न निकाली कि इसके दोपका निश्चय कर लेबे अर भाई जो एक माता उदरसे उत्पन्न भया हु, माहू मो दुखिनीको न राख सका, सपही कठोरचित्त हो गये, जहां माता पिता भ्राताहीकी यह दशा, तहां काका बाबाके दूर भाई तथा प्रधान सामंत कहां करें अथवा उन सबका कहा दोष ? मेरा जो कर्मरूप वृक्ष फला सो अवश्य भोगना। या भांति अंजनी विलाप कर सो सखी भी याके लार विलाप करें । मनमे धीर्य जाता रहा अत्यन्त दीन मन होय यह ऊचेवर रुदन कर सो मृगी भी याकी दशा देख आंसू डालने लगी बहुत देर तक रोनेसे ला न होय गये हैं नत्र जाके ! तब सखी बसंतमाला महाधिवन याहि छ नीलगाय कहती भई-हे मामिनी ! बहुत रोने से क्या ? जो कर्म न उर्जाको अवय भोगना है, सब ही जीवन के कर्म आगे पीछे लग रहे हैं सो कर्मके उदयविणे अशोक कहा ? हे देवी! जे स्वर्गलोरके देव से डों पारावोंके नेत्रनिकर निरंतर अवो है तेह मुकत के अंत होने परमख पात्र है मन चिंतिये कछू और होय जाय कछु और । जगतके लोक उद्यममें प्रकरते है दिनको पूर्वोपार्जित कर्मका उदय ही कारण है जो हितकारी वस्तुअर प्रोप्त भई सो शुभकर्मके, उदयसे विघट जाय अर नो वस्तु मनमें अगोवा है सो वार कि कमीशी गीि विचित्र ई त गई ! तू मी खेः करि पीडित है पृथा क्लेश मत पर तूपना मन दह कर ! जो सन पूर्व जन्म में कम उपारजे हैं तिनके फल टारे Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ पा-पुराण न टरें पर तू ती मा बुद्धिमती है तोहि कहा सिखाव जो तू न जानती होय तो मैं कहूं ऐसा रकर या नेत्रनिके वस्त्रसे आंसू पोंछे बहुरि कहती भई-हे देवी ! यह स्थानक अाश्रयरहित है तो उठो शारे १.८. या पहाड निकट व ई गुफा होयहां दुष्ट जीवनिका प्रवेश न होय, तेरे प्रसून का समय आया है सो के एक दिन यत्न रहना तब यह गर्भके भारतें आकाशके मार्ग चलवे में असमर्थ सो भूमिपर मखीके संग गमन करती महा कष्टकरि पांव धरती भई । कैसी है वनी ? अनेक अजगनित भरी दुष्ट जीवनि नादकरि अत्यन्त भयानक अति सघन नानाप्रकारके वृक्षनिकरि सूर्य की किरण का भी संचार नाही, जहाँ मुईके अग्रभाग समान डाभकी अणी अनितीक्ष्ण जहां कंकर बहुन, माते हाथियों के समूह अर भीलोंके समूह बहुत हैं अर वनीका नाम मातंगमालिनी है जहां मनको भी गम्यता नाही तो मनुष्यकी कहा गम्यता ? सखी आकाशम र्गसे हायवेको समर्थ अर यह गर्भके भारकरि समर्थ नाहीं तातें सखी या प्रेमके बंधनसे बंधी शरीर की छाया समान लार लार चले है । अंजनी वनीको अतिभयानक देखकर कांपे है, दिशा भूल गई तब बसंतमाला राको अति व्याकुल जानकर हाथ पर.डकर कहती भई हे--स्वामिनी ! तू डरै मत, मेरे पाछे पीछे चली था। सब यह रखी के कांधेपर हाथ रख चली जाय, ज्यों २ डामकी अणी चुभै त्यों २ अति खेद सिन विलाप करती देहको कष्टसे धारती जल के नीझरने जे अति तीव्र वेगसंयुक्त बहैं तिनको अतिकष्ट से उतरती अपने जे सब स्वजन अति निर्दई तिनको अनि चितारती अपने अशुभ कर्मको वारंवार निंदती बेलोको पकड भयभीत हिरणी कैसे हैं नेत्र जाके, अंगविणे पसेव को धारती कांटोंसे वस्त्र लग लग जांय सो छुडावती, लहसे लाल होगये हैं चरण जाके, शोकरूप अग्निके दाहकरि श्यामताको धरती, पत्र भी हाले तो त्रासको प्राप्त होती, चलायमान है शरीर जाका, बारम्बार विश्राम लेती ताहि सखो निरंतर प्रियवाक्य कर धीर्य बंधावे सो धीरे २ अंजनी पहाडकी तलहटीतक आई. तहां आंसू भर बैठ गई । सखीसे कहती भई अब मुभम एक पग थरनेकी शक्ति नहीं, यहां ही रहूंगी मरण होय तो होय तर रही अत्यन्त म भरी महा प्रवीण मनोहर पचनकरि य.को शांति उपजाय नमस्कार कहती भई-हे देवी देख यह गुफा नजदीक ही है कृपाकर यहांतें उठकर वहां सुर से तिटो, यहां कर जीव विचरें हैं तोकों गमकी रक्षा करनी है ताते हठ मत कर । ऐसा कहा तक वह आतापकी भरी सखीके. वचनानकारि अर रुघन वनके भयकारि चलको उठी तब सखी हस्तावलम्बन देकर याको विषम भूमित निकासकर गुफाके द्वार पर ले गई। निा विचारे गुफामे बंटनेका भय होय सो ये दोनो बाहिर खडी विषम पापाणके उलंघकर उपजा है खेद जिनको, तात बट गई। वहाँ दृष्टि धर देस्या, कैसी है दृष्टि ? श्याम श्वेत आरक्त कमल र मान प्रभाको धरै सो एक पवित्र शिलापर विराजे चारण मुनि देखे । जो पल्यंकासन धरें नक ऋद्धिसंयुक्त निश्चल हैं श्वासोच्छवास जिनके, नासिकाके अग्रभागार घरी है दृष्टि जिनने शरीर र समान निश्चल है गोदप धरा है जो बामा हाथ ताके ऊपर दाहना हाथ समुद्र समान गंभीर अनेक उपमादोंसे विराजमान आत्मरकरूपका जो पर्याय स्वभाव जैसा lein Education International ForPrivateLPersonalise only. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्र वर्ष जिनशासनवियै गाया है तैा ध्यान करते, समस्त परिग्रहरहित, पवन जैसे अमंगी आकाश जैसे निर्मल, मानी पहाडके शिखर ही हैं सो इन दोनोंने देखे । कैसे हैं वे साधु ? महापराक्रमकेधारी महा शांति ज्योतिरूप है शरीर जिनका । ये दोनों मुनिके पास गईं सर्व दुख विस्मरण भया तीन दक्षिणा देय हाथ जोड नमस्कार किया. मुनि परम बांधव पाए, फूल गए हैं नेत्र जिनके जा समय जो प्राप्ति होनी होय सो होय तब ये दोनों हाथ जोड विनती करती भई । मुनिके चरगारविंदकी ओर धरै हैं अश्रुपातरहित स्थिर मंत्र जिनने । हेगन ! हे कल्याणरूप ! हे उत्तम चेष्टाके धरण हारे ! तिहारे शरीर में कुमल है, कैसा है तिहारा देह ? सर्व तपव्रत आदिका मूल कारण है । हे गुणके सागर ऊपरां ऊर तपी है वृद्धि जिनकी, हे महाक्षमावान, शांति भावके धारी, मन इन्द्रियों के जीवनबारे बिहारा जो विहार है सो जीवन के कल्याण निमित्त है तुम सारिखे पुरुष सकल पुरुषों को कुशन के कारण हैं सो तिहारा कुशल का पूछना परन्तु यह पूछने का आचार हैं है ऐसा कह विनयसे नत्रीभूत भया है शरीर जिनका तो चुप हो रही अर मुनिके दर्शन से सर्व भयरहित भई ॥ अथानन्तर मुनि अमृत तुल्य परम शांति वचन कहने भए - हे कल्याणरूपिणी ! हे पुत्री हमारे कर्मानुसार सब कुशल है ये सर्व ही जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगे हैं। देखो कर्मनि की विचित्रता, यह राजा महेंद्र की पुत्री अपराधरहित कुटुम्ब के लोगनिने काढी है । सो मुनि बड़े ज्ञानी विना कहे त्तांत जाननहारे तिनको नमस्कारकर बसन्तमाला पूछती भई - हे नाथ कोन कारण से भरतार इसे बहुत दिन उदास रहे बहुरि कौन कारण अनुरागी भएर ना सुख योग्य बनविणै कौन कारणले दुसको प्राप्त भई । कौन मंदभागी याके गर्भ में आया जिससे इसको वनेका संशष भय तर स्वामी श्रमितगति तीन ज्ञानके धारक सर्व वृजात यथार्थ कहते भए, यहाँ महापुरुषों की वृद्धि है जो पराया उपकर करें। 1 भवमें पापका च मुनि मामालास कह हैं - हे पुत्री ! या गर्भविषे उत्तम पुरुष आया है सो प्रथम तो ताके भव सुनि बहुरि जा कारण यह अंजनी ऐसे दुःखको प्राप्त भई जो पूर्व रण किया सो सुन | जम्बूद्वीप में भरत नामा क्षेत्र तहां मंदिर नामा नगर तहां प्रियनरी नामा गृहस्थी ताके जाया नाम स्त्री र दमयंत नाम पुत्र था सो महा सौभाग्य संयुक्त कल्याणरूप जे दया क्षमाशील संतोपादि गुण तेई हैं आभूषण जाके । एक समय वसन्तऋतु नन्दनवन तुल्य जो बन तहां नगर के लोग क्रीडाको गए । दमयन्तने भी अपने मित्रोंसहित बहुत क्रीडा करी, वीरादि सुगन्धोंसे सुगन्धित हैं शरीर जाका अर कुण्डलादि आभूषणनिकर शोभायमा नसो ताने ताही समयविषै महामुनि देखे, कैसे हैं मुनि ? अम्बर कहिए आकाश. सोई है अम्बर कहिए बन जिनके तप ही है धनि र ध्यान स्वाध्याय आदि जे क्रिया तिन मैं उद्यमी सो गह दमयन्तमहा देदीयमान क्रीडा बरते जे अपने मित्र तिनको छोड मुनियों की मंडली में गया । बंधनाकर धर्मका व्याख्यान सुन सम्यग्दर्शन ग्रहण किया । श्रावक के व्रत धारे, नाना प्रकार के नियम अंगीकार किए एक दिन जे रुक्ष गुण दाताचे कर नवधा भक्ति तिन संयुक्त होय साधुवोको आहार दिया, 8 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ पापैराण 1 कैदिन समाधि मरणकर स्वर्ग लोकको प्राप्त भया, नियमके पर दान के प्रभावतें अद्भुत भोग भोगना भया, सैकडों देवांगनाओंके नेत्रों की कांति ही भई नील कमल तिनकी माला अर्चित चिरकाल स्वर्गके सख भोगे बहरि स्वर्गत चयकर जम्बूद्वीपमें मृगांकनामा नगर में हरिचन्द् नाम राजा ताकी प्रियंगुलक्ष्मी गणी, याके सिंहचन्द नामा पुत्र भए । अनेक कला गुणविषै प्रवीण अनेक विवेकियोंके हृदय में बसै, तहां भी देवों कैसे भोग किए, माधुवोंकी सेवा करी बहुरि समाधि कर देवलोक गए तहां मनवांछित अतिउत्कृष्ट सुख पाए | कैसा है वह ? देव देवियोंके जे वदन तेई भए कमल तिनके जोवन तिनके प्रफुल्लित करनेको सूर्य समान है बहुरि तहसेि चयकर या भरतक्षेत्र में विजयार्ध गिरिपर अहनपुर नगर में राजा सुकण्ठ रानी कनकोट ताके सिंहवाहन नाम पुत्र भए । अपने गुणनिकरि खैचा है समस्त प्राणियोंका मन जाने, तहां देवों कैसे भांग भांगे, अप्सरा समान स्त्री तिनके मनके चोर । भावार्थ अति रूपवान अति गुणवान सो बहुत दिन राज्य किया । श्रीविमलनाथजी के समोसरण मैं उपजा हैं आत्मज्ञान र संसारसे वैराग्य जिनको सो लक्ष्मी वाहन नामा पुत्रको राज्य दे संसारको सार जान लक्ष्मी तिलक मुनिके शिष्य भए । श्रीवीतराग देवका भाषा महात्रतरूप यतिका धर्म अंगीकार किया । श्रनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षाका चितवनकरि ज्ञान चेतनारूप भए । जो तप काहू पुरुपसे न बने सो तप किया, रत्नत्रयरूप अपने निज भावनिविषै निश्चल भए तत्व ज्ञानरूप श्रात्मा के ऋनुभवदिएँ मग्न भए तपके प्रभाव अनेक ऋद्धि उपजी सर्व बात समर्थ, जिनके शरीर को स्पर्श पवन सो प्राणियोंके अनेक रोग दुःख हरै परन्तु आप कर्म निर्जरा के कारण बाईस परिप सहते भए बहुरि आयु पूर्ण कर धर्म ध्यानके प्रसाद से ज्योतिष चक्रको उलंघ सातव लांतवनामा जो स्वर्ग तहां बडी ऋद्धिके धारी देव भए चाहे जैसा रूप करें चाहें जहां जाय, जो वचनकरि कहने मैं न था ऐसे अद्भुत सुख भोगे परन्तु स्वर्गके सुखमें मग्न न भए, परम धामकी है इच्छा जिनके । तहां चयकर या अंजनीकी कुक्षिविषै आए हैं सो महा परम सुखके भाजन हैं बहुरि देह न रंगे अनाशी सुखको प्राप्त होवेंगे, चरम शरीर हैं। यह तो पुत्रके गर्भ में वनेका वृत्तांत कहा। अब हे कल्याण वेष्टिनी ! याने जिस कारण से पतिका विरह अर कुटुम्ब निदर पाया सो वृत्तांत सुन। इस अजनी सुंदरीने पूर्व भवमें देवाधिदेव श्रीजिनंद्रदेवकी प्रतिमा पटराणी पदके अभिमानकर सोकन के ऊपर क्रोधकर मंदिरसे बाहिर निकासी, ताही समय एक समयश्री आर्यिका याके घर आहारकी आई हुती, तपकर पृथ्वी पर प्रसिद्ध थी सो याके श्रीजीकी मूर्तिका अविनय देख पारणा न किया पीछे चली अर याको अज्ञानरूप जान महादयावती होय उपदेश देती भई । जे साधु जन हैं ते सबका भला चाहें जीवनिके समझावनेके निमित्त विना पूछेही साधु जन श्रीगुरुकी श्राज्ञातैं धर्मोपदेश देनेको प्रचरतें हैं ऐसा जानकर वह संयमश्री शील सम्म रूप प्रापण की धरणहारी पटराणी को महामाधुर्य भरे अनुपम वचन कहती भई है भी सुन | तू राजाकी पराणी है अर महारूपवती हैं, राजाका बहुत सन्मान है, भोगोंका स्थानक ६ र शीत का फल है, या चतुर्गविविधै जीव भ्रम है, महादुख Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ संवहा पर्व भोगै, कवहक अनन्तकाल पुन्यके योगत मनुष्य देह पावे है । हे शोभने मनुष्य देह का पुण्यके योम तपाई है तातें यह निंद्य श्राचार तू मत कर, योग्य क्रिया करने के योग्य है । यह मनुष्य देह पाय जो मुक्त न कर है मो डारे रत्न खोवै मन तथा वचन तथा कायसे जो शुभ क्रियाका साधन है सोई गेष्ठ है अर अशुभ क्रियाका साधन है सो दुःखका मूल है । जे अपने कल्याणक अर्थ पुकनधि प्रवरते हैं तेई उत्तम हैं यह लोक महानिंद्य अनाचारका भरा है जे संत संसार सागर ते आप तर हैं औरोंको तार हैं, भव्य जीवोंको धर्म का उपदेश देय हैं तिन समान और उत्तम नाही. ते कृतार्थ हैं तिन मुनियोंके नाथ सर्व जगतके नाथ धर्मचक्री श्रीअरिहंत देव तिनके प्रतिविम्बका जे अविनय कर हैं वे अज्ञानी अनेक भवमें कुगतिक महादुख पावै है सो वे दुःख कोन वर्ण कर मकै, यद्यपि श्रीवीतराग देव राग द्वेषरहित हैं जे सेवा करें तिनतें प्रसन्न नहीं, अर जे निंदा करें किन द्वष नाही महा मध्यम भाको धारै हैं परन्तु जे जीव सेवा करे ते स्वर्ग मोक्ष पावै है जे निंदा करें ते नर निगोद पात्रं काहेत. जीवोंके शुभ अशुभ परणापनिते सुख दुख की उत्पत्ति होय है जैस अग्नि के सेवनसे शीतका निवारण होय; अर खान पानसे क्षधा तृषाझी पीडा मिटे तैसे जिनराजके अर्चन स्वयमेव ही सुख होय है अर अनियस परम सोय है हे शोनन ! जे संसारविषे दुख दोखे हैं वे सब पापक फल हैं अर जे सुख है ते पन फल है। सो तू पूर्व पुए पक प्रभावते महाराज की पटराणी भई अर महासंपत्ति ती भई अर अद्भुत कार्यका करणहारा तरा पुत्र इ अब तू ऐसा कर जो फिर सुख पावै अपना कल्याण कर, मर वचनोंसे। हे भव्ये ! भूयक पर नेत्रा हात संत तू कूपमें मत पड़े जो श्रेय में करेगी तो धार नर कमें पडेगी देव गुरु शास्त्रका अविनय करन अन्त दुखका कारण है अर ऐन दोष ख जो मैं ताहि न संबाध्' ती माहि प्रमादका दोष लाग है ताते तरे कल्याण निशिच धर्मोपदेश दिया है जब श्री. आणिकाजीन ऐसा कहा तब यह नरक दुखसे डरी सम्यक दर्शन धारण किया श्राविकाके व्रत श्रादरे श्राजाकी प्रतिमा मंदिरमें पथरा, बहुत विधानसे अष्ट प्रकार की पूजा करादे, या भांति राणी कनकादरीका आधिका धर्मका उपद अपने स्थानको गई अर वह कनकोइरी श्रीसवज्ञ देव का धर्म पारावकर समाधिमरण कर स्वर्ग लो में गई, तहां महामुख भोगे, स्वर्गत चयकर राजा महेंद्रकी राणी जी मनाचंगा ता अंजना सुन्दरी नामा तुमुनी भई सो पुलके प्रभावी रजालावष उपजी उत्तम दर पाया पर जा जिन्द्रिदेवकी प्रतिमा को क क्षण मन्दिरके माहिर रख. था प.प कर धमाका विग जुम्मन पर प.! । बिबाइक तीन दिन पहिले प.जा प्रकारुपाए रात्रि तिहारे झरोखेविष प्रहमन मित्र माहन वठ हुतो का समय मिकेशी वधु प्राकी स्तुति करा, ५ नंजी निंदा करीला कारण पानंज द्वको प्राप्त भए । वर युद्धक अर्थ धरते चले मानसराम्रपर डेरः किया वहां चकीका विरह देखकर करुणा उपनी की करुणा ही मानों सखीक रूप होय कुमरको सुन्दरी मीप लाई तत्र ताकरि गर्भ रहा बार कुमार प्रछन ही पिता की माज्ञाक साधिवेक अर्थ रावष निकर गए । ऐसा कर २३ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ पभ-पुराण कर कर शुनि अंजनीसे कहते भए, मह करुणा भा कर अमृतवचन खिरते भए हे बालके तू कर्म के उदकर से दुखको प्राप्त भई ताते वहरि ऐमा निंद्य कर्म मत करना । संसार समुद्र के ताररणहारे जे जनेन्द्रदेव तिनकी भक्ति कर या पृथ्वी जे सुख हैं ते सव जिनभक्तिके प्रः पर्ते होय है। श्रसैं अपने भव सुनकर अंजनी विस्मयको प्राप्त भई अर अपने किए जे कर्म निनको निधती अति पश्चाताप करती भई । तब मुनिने कही हे पुत्री ! अब तू अपनी शक्ति प्रमाण नियम ले अर जिनधर्मका सेवन कर, यति व्रतियोंकी उपासना कर । तैंन असे कर्म शिए थे जो अधोगतिको जातो परंतु संयमश्री प्रार्याने कृपाकर धर्मका उपदेश दिया सो हस्तावलम्पन दे कुमति के पतनस चाई । अर यह बालक तेरे गर्मविष आया है सो महा कल्याण का भाजन है। या पुत्र के प्रभा ते तू परम सुख गावेगो, नेरा पुत्र अखण्डनीय है, देशनिकरि जीता न जाय । अब थोडे ही निमें तेरा भरतारतें मिलाप होयगा ताते हे भव्य ! तू अपने वित्त खेद मा करें, प्रमादरहित जो शुभ किया ना उद्यमी हो। ये मुनिके वचन सुन अंजनी अर बान्तभाला बहुा प्रसन्न भई अर बारम्बार मुनिको नमस्कार किया. फूल गए हैं नेत्र जिनके। मुनिराजने इलको धर्मोपदेश देय प्राशमार्ग विहार किया, मो निर्मल चित्त है जिनको ऐसे संयमियों को यही उचित है कि जो निजी स्थानक हो तहां नियोस करें नो अल्प ही रहै या प्रकार निज भर गुन अंजनी पाप कमी ते इरी और धर्म वा पावधान भई । वह गुफा मुनिके विराजवेसे पवित्र भई । सो वहां अंनी वमन्त बालासहित पुत्र की प्रसूति समय देखकर रही। गौतम वाली राजा श्रेणिक कहे हैं -हे श्रेणिक ! अब वह महेंद्रकी पुत्री गुफामें रहै, बसंतमाला विद्यावलकार पूर्ण विद्याके प्रभावकरि खान पान आदि याके मनवांछित सर्व सामग्रं करे. अथानगर अंजना पतिव्रता पियारहित वनविष अकेली सो मानों सूर्य याका दुःख देख न सका सो अम्न होने लगा मानो याके दुःखत सूर्य की किरण मंद हो गई. सूर्य अस्त हो गा, पाड़ शिखर अर वृक्षोंके अग्रभागमें जो किरणोंका उद्योत रहा था सो भी संकोच लिया सन्ध्य कर ६ण एक आकाश मण्डल लाल होगया सो सानो अब क्रोधका भरा सिंह आवेगा, ताक लाल नेत्रनिकी ललाई फैली है बहुरि होनहार जो उप-र्ग ताकी प्रेरी शीघ्र ही अन्धक रक्षा म्वरूप रात्री प्रगः भई मानों साचसिनी ही रसातलसे निसरी है, पक्षी सन्ध्या समय गडन बनमें चिगनगाटक शब्दरहित वृक्षनिके अग्रभागपर तिष्ठे मानों रात्रीको श्याम स्वरूप डरावनी देख भरकर चुप होय रहे । शिवा कहिए स्यालिनी जिनके भयानक शब्द प्रबरते सो मानों होनहार उपसर्गके ढोज ही बने हैं। अथानन्तर गुफाके मुख सिंह आया, कैसा है सिंह १.विदारे हैं हाथियोंके जे कुम्भस्थल, नि रुधिरकर लाल होरहे हैं केश जाके अर काल समान कर भृकुटीको धरै अर महा पिम न करता जिसके शब्दकर वन गुजार रहा है अर प्रलय कालकी अग्निकी जाला समान जीभो एखर प गुफासे काढता, कैसी है जीभ महाकु िल है अनेक प्राणियोंकी नाश करनहारी बहुरि जीव लोचनको जाकी अंकुश समान तीन दाद महा कुटिल हैद्र रघको भयंकर है पर Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां पर्व जाके नेत्र अनित्रासके कारण उगना जो प्रलयकालका सूर्य ता समान तेजको धरै दिशाओंके मू. हको रंग रूपकर वह सिंह छकी अगीको मस्तक ऊपर धरे नखसी अणीसे वि री है धरती जाने पहाडके तट समान उरस्थल पर प्रबल है जांब जाकी, मानों वह सिंह मृन्युका स्वरूप देय समान अनेक प्राणियोंका क्षय करणहारा अन्नकको भी अन्तक समान अग्निसे अध... जालित ऐसे डरावने सिंहको देखकर वनके सब जीव डरे । ताके नादकर सब गुफा नाज उठीको माग भयकर पहाड रोवने लगा अर याका निठुर शब्द बनके जीवोंके कानोंको एमा चुरा लग मानों भयानक मुद्गरका घात ही है अर जाके चिरनी सभान लाल नेत्र सो ताके भवहिण चित्र म कसे हो रहै और मदोन्मत्त हाथियों का मद जाता रहा, सबही पशुग। अपन अपा ताई पचावनेके लिए भयकर कंपायमान वृक्षोंके आसरे होय रहे । नारकी ध्वनि सुर जीन ऐसी प्रतिज्ञा करी जो उपसर्गसे मेर शरीर जाय तो मेरे अनशनवा है उपसर्ग टर में जा लेकर सखी बसन्तमाल खडग है हाथमें जाके कबहूं तो आकानाविध जाय कबहू भूमि र अाले अतिव्याकुल भई पक्षिानेकी नाई भ्रमै ये दोनों मह भयान कंगायमान है हृदय जिना तब गुफका निवासी जो मणिचूल नामो गंधर्वदेव तार तार्क रनचूल नामः स्त्री महादय वीत भ. हे देव देखो ये दोनों स्त्र सिंहसे महाभयभीत हैं और अति हिल है, हम इनकी रक्षा रोय. धर्वदेवको दया उपजी तत्काल विक्रिया कर अष्टापदका म्वरूप रच मोहिकार अपदका महा शब्द होता भवा सो अंजनी हृदय भगानका ध्यान धरती भई र मला सारनको नाई विलाप करें -हाय अंजना पहिले वो तू धनीके दुर्भागनी भई बहुर काह इककारीका आगमन भयः सो ताने दोको गर्भ रहा मो सासने विना समझे घर से निकाली बहुरे माता पिता ने भी न राख मोहा भयानक बनविणं पाई जहां पुण्यके योगत मुनिका दर्शन भपा, मुनिने धीर्य बंशय पूर्व भव कहे, धर्मोपदेश देय आकाशके मार्ग गए पर तू प्रमूके पथ जुफावि रही सो अब था हिके मुख में प्रवेश करेगी। मार, हाय राजपुत्री निर्जन वनविणे मरणको प्राशीष है व मावा दे दगाकर रक्षा करो। मुनिने कही थी कि तेरा सकल दुःख गया तो कहा मुरे के पचन यन्यथा होय हैं या भांति विलाप करती बसंतमाला हिंडोले भूल की एक स्थल लुरोके समीप पावै, पाषेष बाहिर जावे। ___ अथानन्तर वह गुफाका गंधर्वदेव जो अष्टापदका स्वरूप पर आया हुता ताने सिंडके पंजों की . दीनी तब सिंह भागा भर अष्टापद भी सिंहको भगय र निजस्थान हो गया समसमा नहि और अष्टा पदके युद्धका चरित्र देख बसंतमाना गुफामें अंजनी सुन्दरीके समीर आई, पल्लाबों से भी अति कोमल जो हाथ तिनसे विश्वासती भई, मानों नवा जन्म पाया. हितका संनापण करती भई सो एक वर्ष बरावर जाय है रात्री जिनकी ऐसी यह दोनों कभी तो कुम्म निर्दईपनेकी कथा कर, कभी धर्म कथा करें अष्टापदने सिंहको ऐसे भगाया जैसे हाथी को सिंह भगावै पर सर्पको गरुड भगावै बहुरि वह गंधर्व देव बहुत आनन्दरूप गावने लगा सा ऐसा गायता Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पद्म पुराण भगा जो देवों को तो मनुष्यकी कहा बात ? अर्धरात्रीके समय शब्दरहित होय गए, तब यह गता भया अर वारंवार वीणाको श्रतिरागत बजावता भया और भी मारबाजे बजावता भया अर मंजीरादिक बजावता भया. मृदंगादिक बजावता भया, बांसुरी आदिक फूरुके बाजे बजावता भया र सप्त स्वरोंमें गया के नाम निषाद १, ऋषभ २, गांधार ३, पडज ४, मध्यम ५, चैत्र ६, पंचल ७, इन सके तीन ग्राम शीघ्र मध्य विलंबित पर sate मृग हैं सो गंवों में जे बड़े देव हैं तिनके समान गान किया या गानविद्या में गंधर्व देव प्रसिद्ध हैं उनंचास स्थानक रागके हैं सब ही गंधर्वदेव जाने हैं भगवान श्रीजिनेन्द्रदेव के गुण सुन्दर अक्षरों में गाए कि मैं श्री अरिहंतदेवको भक्ति कर बंन्दु हूं कैसे हैं भगवान १ देव पर देन्यों कर पूजनीक हैं | देव कहिये स्वर्गवासी दैत्य कहिये ज्योतिषी वितर पर भवनवासी ये चतुरनिकाके देव हैं सो भगवान सब देवों के देव हैं, जिनको सुरनर विद्याधर अष्ट द्रव्यसे पूजे हैं बहुत कम हैं तीन भुवनमें अति प्रवीन हैं यर पवित्र हैं अतिशय जिनके ऐसे जे श्रीमुनिसुव्रतनाथ तिनक चरण युगल में भक्ति पूर्वक नमस्कार करू हूं जिनके चरणारविंदके नखोंकी कांति इंद्रके मुकुटकी रत्नोंकी ज्योतिको प्रकाश करें हैं, ऐसे गान गंधर्वदेवने गाए मो बसंतमाला अति प्रशंसा करती भई धन्य है यह गीत, काहुने अतिमनोहर गाए, मेरा हृदय अमृतकर श्राच्छादित किया अजंनी को मला कहती भई यह कोई दयावान देव हैं जाने अष्टापदका रूपकर सिंहको भगाया अर हमारी रक्षा करी पर यह मनोहर राग याहीने अपने आनन्द के अर्थ गाए हैं। हे देवी हे शोभने हे शीलवंती ! तेरी दया सत्र ही करें । जे भव्य जीव हैं तिनके महाभयंकर वन में देव मित्र दाँव । या उपसर्गके विनाश से निश्वय तेरा पनि मिलाप होयगा और तेरे पुत्र अद्भुत पराकसी डोगा सुनिके वचन अन्यथा न हों, सो सुनिके ध्यानकर जो पवित्र गुफा तःवि श्रीमुनिसुव्रतनाथकी प्रतिमा पथराय दोनों सुगंध द्रव्यनितें पूजा करती भई। दोनोंके चित्तमें यह विचार कि प्रसूत सुखसे होय । बसंतमाला नानाभांति अंजनी के चित्तको प्रसन्न करे पर कहती भई कि हे देवी ! aat यह वन र गरि तिहारे पधारनेसे परम हर्षको प्राप्त भया सो नीझरने के प्रवाहकर यह पर्वत मानों हमें ही है । यह वन वृत्र फलोंके भारसे नम्राभूत लहलहाट करें हैं कोमल हैं पल्लव जिनके बिखर रहे हैं फूल जिनके सी मानी हर्षको प्राप्त भए हैं और जे मयूर मैना कोकिलादिक मिष्टशब्द कर रहे हैं सो मानो वन पहाडसे वचनालाप करें है पर्वत नानाप्रकारको जे धातु तिनकी हैं खान जहां पर सघन वृत्रोंके जे समूह सोई इस रूप राज के सुन्दर वस्त्र हैं और यहां नानाप्रकारके रत्न हैं सोई इस गिरिके आभूषण भए बर इन पर्वत भलो भली गुफा हैं पर यहां अनेक जातिके सुगन्ध पुष्प हैं अर या पर्वत ऊ बड़े बड़े सरोवर हैं तिनमें सुगन्ध कमल फूल रहे हैं तेरा मुख महासुन्दर अनुपम सो चन्द्रमा और कमलकी उपमाको जीते हैं 1 हे कन्यारूपणी ! चिंताके वश मत हो, वीर्य घर या में सव कल्याण होयगा, देव सेवा करेंगे। हे पुण्याधिकारिणी तेरा शरीर निःपाप है, हर्षने पक्षी शब्द करें हैं मानों तेरी प्रशंसा करें मैं यह वृक्ष शीतल मंद सुगन्धके प्रेरे पत्रांक लहलहाटसे मानों तेरे विराजने से महाहर्षको प्राप्त Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहत्रां पर्ण भए नृत्य ही करें हैं अब प्रभातका समय भय है पहले तो रक्त संध्या भई सो मानो सूर्यन तेरी सेवा निभेत पठाई अर सूर्य भी तेरा दर्शन करनेके अर्थ मानों उदय होने को उद्यमी भया है यह प्रसन्न करनेकी बात वसंतमालाने जब कही तत्र अंजनी सुन्दरी कहती भई हे सखी तेरे होते संते मेरे निष्ट सर्व कुटुम्ब है श्रर यह वन ही तेरे प्रसादतें नगर है जो या प्राणीको आपदा में सहाय करें है सो ही बांधव है अर जो वाचव दुःख दाता मो शत्रु है या भाँति परस्पर मिष्ट सभाषण करती ये दोनों गुफा में रहें श्रीमुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमाका पूजन करें विद्या प्रभाव से बसन्तमाल खान पान आदि भली विधिमेती सब सामग्री करे वह गंधर्वदेव सर्व प्रकार इनकी दृष्ट जीवोंसे रचा करें पर निरन्तर भक्ति से भगवान के अनेक गुण नाना प्रकार के राग रचना गावै । अथानन्तर अञ्जनीके प्रसूतिका समय आया तब वसंतमालाको कहती भई हे सखी आज मेरे कछु व्याकुलता हैं तब बसं मला बोली – हे शोभने तेरे प्रसूतिका समय है तू आनन्दको प्रत हो तब याके लिये कोमल पल्लवांकी मेज रची उस पर इसके पुत्र का जन्म भया जैसे पूर्व दिशा सूर्यको प्रकट करे यह हमको प्र टकरी भई । पुत्रके जमसे गुफाका अंधकार जाता रहा, प्रकाशरूप हो गई म सुम ही भई । तब अंजनी पुत्रको उरसे लगाय दीनता के वचन कही भई कि हे तू गहन वनमें उत्पन्न भया तेरे जन्मका उत्सव कैसे कब जो तेरे दादे तथा नाना के घर जन्म होता तो जन्म का बड़ा उत्सव होता, तेरा मुखरूप चन्द्रम देख कौनको आनन्द न होय मैं क्या करू मंदभगिनी सर्व वस्तुरहित हूँ देव कहिए पूर्वोपार्जित कर्मने मोहि दुःखदायिनी दशा को प्राप्त करी जो मैं कल्लु चरने को समर्थ नहीं हूं परन्तु प्राणियों को सर्व वस्तुसे दीर्घायु होना दुर्लभ है सो हे पुत्र तू रंजीव हो, तू है तो मेरे सर्व है यह प्राणों को हर हारा महा गहन वन है इसमें जो मैं जीनू हूं सो तो तेरे ही पुण्यके प्रभावत, ऐसे दीनता के वचन अंजनी मखतें सुनकर मला कही भई कि हे देवी त कल्याणपूर्ण है ऐसा पुत्र पाया यह सुन्दर लक्षण शुभरूपखे है बड़ी ऋद्धिका धारी होगा तेरे पुत्र उत्सवसे मानों यह वेलरूप वनिता नृप करें हैं चलायमान हैं कोमल पलव जिनके घर जो भ्रमर गुजार हैं तो मानों संगीत कर हैं । यह बालक पूर्ण तेज है सो इसके प्रभासे तेरे सकल कल्याण होगा । तू वृथा चिंतावती मन हो इस भांति इन दोनों बचत होते भए । १८८१ अथानन्तर वसंतमालाने आकाश में सूर्य के तेज समान प्रकाशरूप एक ऊंवा विमान देखा देख कर स्वामिनीसे कहा तब वह शंकाकर लिप की भई वह कोई निःकारण वैरी पुत्रको ले जायगा अथवा मेरा कोई भई हैं । तिनके लिप सुर विद्याधरने विमान थांगा | दयासंयुक्त श्राकाशसे उतरा गुफा के द्वार पर विमानको भ महा नंतिवान महा विनयवान शंक्षको धरता हुवा स्त्री सहित भीवर प्रवेश किया तब बसं मालाने देवकर आदर किया यह शुभ मनविसे बैठा और वणएक बैठ कर महा मिष्ट कर गम्भीरवाणी कहकर वसंतमालाको Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पद्म-पुराण पूछत भगा मानो मयूर हर्षित करता ही गरजा है । सुमर्यादा कहिये मर्यादाकी eet यह भाई किमकी बेटी किस परणी कारण महावनमें रहे हैं । ह बड़े घर की पुत्री हैं किस कारण पर्व कुवरहित भई है अथवा इस लोक रागद्रष रहित जे उत्तम जीव हैं तिनके पूर्व कर्मोंक मेरे ठिकर बेरी होय हैं तब संगम ला दु:बके भार रुक गया कठ जिसका सीना है इटकर न कही भई - महानुभाव तुम्हारे वचनहीसे तुम्हारे मक्की शुटता जानी जाय है जैसे दाहके नाशका मूल जो चन्दनका वृत्र उसकी छायः भी सुन्दर लगे है तुम सारिखे जे गुणवान पुरुष हैं सो शुद्धभाव प्रकट करनेके स्थानक हैं आप बड़े ही दयालु हो यदि तुम्हारे इसके दुःख सुनने की इच्छा है तो सुनो मैं कहूँ हूँ तुम मारिखे बड़े पुरुषोंने वह हुबा दुःख निवृत्त होय है तुम दुःखह री पुरुष हो तुम्हारा यह स्वभाव ही है कि आप हाथ करो को सुनो ग्रह अंजनी सुन्दरी रजा महेन्द्रकी पुत्री है हरा पृथि पर प्रसिद्ध महायान नी वान निर्मल स्वभाव है और राजा प्रल्हादका पुत्र पनंजय गुणांक सागर की प्राणहून परी यह स्त्री हैं सो पवनंजय एक समय बापकी आज्ञास अपहरण कर युवक अर्थ विदा हो चले थे सो मानसरोवरसे रात्रिको इसके मह तमें आए डर इसको गर्भ रही इसकी मासूका क्रूर स्वभाव दयारहित महामूर्ख था ही उसके चित्त में गर्भका भर्म उपजः तर उगने इमको पिताके घर पठाईं यह सर्व दोषरहित महालीशी निर्विकार है सो तिने भी प्रकीर्तिक भयसे न राखी । जे मज्जन पुरुष हैं वे भृठे भी दोषसे डरें हैं यह बड़े कुनकी बालिका सर्वश्रालंबन रहित इस वनमें मृगीसमान रहे है मैं इसकी सेवा करू' हूँ । इनके कुल क्रमसे हम आज्ञाकारी सेवक है इतवारी हैं अर कृपापात्र हैं सो यह श्राज इस वनमें प्रसूति भई है यह वन नाना उपसर्ग का निवास है न जानिए कैसे इसको सुख होगा ! हे राजन् यह इसका वृत्तांत संक्षेपसे तुमसे कहा थर संपूर्ण दुःख कहां तक कहूँ इस भांति स्नेहमे पूरित जो बसन्तमाला के हृदयका राग मो अन्जनीके तापरूप अग्नि से पिवला र अङ्गमें न समाया को मनो बसन्तमालाके वचन द्वारकर वाहिर निकसा तब वह राजा प्रतिसूर्य हनुहन मद्वी का स्वामी बसन्तमा लागू कहना भया - हे भव्ये मैं राजा चित्रभानु र राणी सुन्द मालिनी का पुत्र हूं, यह अजी मेरी भानजी हे मैंने बहुत दिनमें देखी सो पिछानी नहीं ऐसा क कर अन्जीको बालावस्था से लेकर सकल वृत्तांत कड़कर गद्गद् वाणीकर वचन लापकर प्रसू डलता भया तब पूर्ण वृत्तां कनेर्ते अन्जनीने इसको मामा जान गले लग बहुत रुदन किया तो मानों क न दुःख रुदनमहित कप गया । यह जगरकी रीति है, हिनुको देन अश्रुपात पड़े' हैं वह राजा भी रुदन करने लगा अर ताकी रानी भी रोने लगी बसन्तमाला ने भी प्रति रुद किया इन सबके रुदनसे गुफा गुंजार करती भई सो मानों पर्वतने भी रुदन किया । जतके जे नीझग्ने तेई भए अत उनसे व वन मई हो गया वनके जीव जे मृगा दे सो भी रुदन करते भए तब राजा प्रज से अन्जनीका मुख प्रक्षालन कराया पर आप भी जलसे मुख प्रक्षाला | वन भी शब्दरहित हो गया मानों इनकी वार्ता सुनना चाहे है । - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रहवा पर्व १८३ अंजनी प्रतिसूयकी स्त्रीत सम्भाषण करती भई यो बड़ की ही है जो दुखविणे हू यते न चूकें बहुरि अंजनी मामासे हती भई हे पूज्यत्रक समाप्त शुभाशुभ वृत्तांत ज्योतिपियों से पूछो व सांवत्सरनामा ज्योतिषी लार था ताको पूछ तर जोगिती योना बालकके ज मकी वेला बतायो तव वसंतमालाने कही आज धर त्रि गए ज म भया तब ल न थ पकर बालकके शुभ लक्षण जान ज्योतिषी कहना भया कि 'ह मुक्तिका भाज। है व रि ज म धग जो तिहरे मनमें संदेह है तो मैं संपतासे कहूँ सो सुनो-चैत्र वदी अष्टमीकी थि है अर प्राण नक्षत्र है अर सूर्य मेषका उच्चस्थानकविणे बैठा है अर चन्द्रम' वृपका है म रका गल हे र बुध मीनका है अर वृह पति ककका है सो उच्च है शुक्र तथा शनेश्चर दोना मी. के है सूर्य पूर्ण किरको देखी है अर मंगल दश विश्वा सूर्यका देखी है अर वृह प. पद्रह विराभूका रखा है अर सूर्य दश विश्वा वृहस्पतेिको देख है अर चंद्रमा को पूण हांष्ट वृहस्प त देखी है और वृह पतिको चन्द्रमा देखी है अर वृहस्पति शनीचरको प; ह विश्वा देखो हं र शरीरको दस विश्वा देखो है अर वृह प।ि शुक्रको पन्द्रह श्विा दो है ...र शुक्र वृह पा को पन्द्रह विश्वा देख याके सव ही ग्रह बलवान बैठे हैं सूर्य और मंगल दोनों याका अद्भु। राज्यसि पर करें है अर वृह. स्पति पर शनि मुक्तिका देनहा। जो योगी द्र ताका पणि । कर है जो । क ह पात ही उच्च स्थान बैठा होय तो सर्व कल्याणके प्राप्तिका कारण है अर ब्रह्मनामा माग ह ५ र मुहूर्त शुभ है सो अविनाशी सुखका समागम याके होगग या भ ति माही ग्रह लिव न बैठ है सो सर्व दोषरहित यह होयगा ऐसा ज्यो िपीने जब कहा नव प्रतिसूर्यने ताको बहुन दान दिया कर भानजी को अतिहर्ष उपजाया पर कही कि हे वन्से अब हम सब हारूह द्वीपको गले न्हां बालकका जन्मोत्सब भली भांति होगग ! तब अंजना भगवान्की वेदना का प्रत्रको गोदी में लेग गुफाका अधिपति जो वह गंधर्व देव तासे बारंबार क्षमा कर य सूर्यके परि र हि गुफाकली अर विमानके पास आई, ऊभी रही मानो माक्षात् वन ची ही है कैा है विमान ? मोनिके जे हार सोई मानों नीझरने हैं कर पानकी प्रेरी क्षद्र पणिया बाज रहीं हैं र हलहाट कर ी जे रन्नोंकी झालरी नसे शोभायमान अर केलिके वन से : भयान, सूर्यके रि के ग्पर्श कर ज्योतिरूप होय रहा है अर नानाप्रकारके रन्नोंकी : भर उधो िक मंडल पड रहा है सो मानों इंद्रधनुाही चढ रहा हैर नानाप्रकरके वाडा ..जः फरह है और हमान कल्प पक्ष समान मोहर नानाप्रकारके र ननिकर पित न.पको घर ना गलो से पाया है, सो वा विमानम पुत्रसहित अंजना बसमा । त २जी सियका बारव र सबल बैठ र आकाशके मा चले, सोय लक को क र भुलका माता गोते. छार पर्व. ऊपर जा पडा । माता हाहाकार करता भई २५ सोन र ज प्रामह हार भए बर राजा प्रतिसूर्य बालकके ढूंढनेको आकाशसे पृथ्वीपर ..या, जना *ति नमिलाप कर है। ऐसे विलाप कर है जाको सुनकर तिर्यंचांका मन भी करुण र कोमल होमया । हाय पुत्र कहा भया देव कारय पूर्वोपार्जित कर्मने कहा किया मोह रत्न सह निधान दिखाकर बहुर हर लिया Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पी-पुराण वियोग : दुखसे व्याकुल जो मैं बो मेरे जीवनका अवलम्बन जी बालक भया हुता सो भी पूर्वोपार्जित कर्मने छ य लिया। सो माना तो यह विलाप करै है अर पुत्र पन्थ पर पडा लो एत्थरके हजारों खंड हो गए अर महा शब्द मा प्रतिसू दे नो वालक एक शिल ऊपर सुःइसे विराजे अपने अंगूठे प्राप आपली चूसै है भीडा कर हे अर मुलकै है प्रतिशोभा समान सूरे पडे हैं ल- लहाट करे हैं कर चरण कमल जि के, सुन्दर शरीर जिनका चेक नदेश पदके धारक उनको कौनकी उमादीने मन्द मन्द जापान तारि लहाट कर । जो रक्त कमलाका न ता समान है प्रभा जिनकी, अपने तेजा रे पहाडके खण्ड खण्ड कर एसे बजकको दु से दे कर राजा प्रसूर्य अनि छाश्चर्यको प्राप्त गया। कैसा है बालक ? निष्पाप है शरीर जाक: च..का स्वरूप तेज पुंज से पुत्र को देश माता बहुत विग्म को प्राप्त पई उठःय सिर चूमा अर छातीले लगा लिया तब प्रतिसूर्य अजह माना हे ब क ह वाक राम-सुरसस्थान बज्र वृषभ नाराच संहननका घर हरामहः वज्रका स्वरूप है जकपडनेकर हड चूर हो गया। जब या बालककी ही देत आवक अद्भु: शक्ति है तो पो न अवस्थाकी सातका कहः कहनः १ यह निश्चय सनी शरीर हे तद्भ। माक्षगमा ह Ti दे: पारंग यानी यही पयायामद्ध पदका कारण है श्री जनकरीन प्रदा। ५९14 जाड स न य अपनी रियाक .मू सहित बालकको नमस्कार करता भया । यह बात का स्त्री ... ना तइ भए श्यामश्वेत अरुण कमल तिनकी ज भाग तिनसे पूजा म .म.५ मद मुलकनका पर हर व ही नर नारिमाका मन हो, राजा प्रात। पुत्र सात अजमानजात विमाम बठाया ने स्थानमें ले आया । कता ह नगर ?जा तारणोते शानायमान हर जाको आया सुन सर्व नगरके लोक नाना प्रकारक मगल द्रासहित सम्मुख पाए र जा पा सूपन र जमलमें प्राश किया ,दिनांके नादतें व्यत नई ह दशादिशज.बालकक जामका बहा उत्साद्याधरने काग। जैसा स्वर्गलोकविषद्र का उत्सांता उत्तर दे कर ह पर्वताव जन्म पाया और मानत पड र पर्वतको चूर्ख किया जात बालक नाम माता अर बालक के मामा प्रसूर्पन *शल ठराया अर 'हरुद्वीमावर्षे जनात्सब भया तात ह भान यह नाम पृथ्वी प्र.सद्ध भया। यह श्रीशल (हनूमान) हनूरुद्वाप रमै। केसा ह कुमाः । दे नि सम न ह प्राजाकी , महातिवान सबको महा उत५.५ ६ शरीर का साकमा र नाका हरनहारा तिहकि मुरविष पिराज। अथाननार गणधरदेव राजा श्रेणिकत कह हैं-हे नृi ! प्रशि के पूर्योपार्जित गुपके प्रभावतें मिनिका चूरण करनारा नहाकठार जानाभा पुर समान कोमल होय परणव हे अर महा आताप की करणहारी जाग्नि सी भी चद्राको किरण समान तथा सिर्ण कमलिनीक वन समानतल होय है अर महा तीचा खडगी धारा सो महामनोहर कोमल लता मान होय है ऐसा जानकर जेविकी जीव है त पाप विरक्त होय है कैसा है पाप ? महा दुख इनेविष Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ अठारहवां पर्व प्रवीण है । तुम जिर जा चरित्रविर्ष अनुरागी होवो। कैसा है जिनराजका चरित्र ? सारभूत जो मोक्षका सुख ताके देनेविष चतुर है, यह समस्त जगत निरन्तर जाम जरा मरणरूप सूर्यके आतापसे तप्तायमान है तामें हजारों जे व्याधि हैं तोई किरणोंका समूह है। इति श्रीरविषेणाचार्यविरक्ति महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, नाकी भाषा वचनिकाविषै हनुमानकी जन्म कथाका वर्णन करनेवाला सत्रहवां पर्व पूर्ण भया ।। १७ ॥ अथारन्तर गौतमम्थामी राजा श्रोणिकसे कहे हैं---हे माधदेशक मण्डन ! यह श्रीहनुमानजीके जन्भका वृत्तांत तो तुझे कहा अब इनुमानके पिता पवनंजयका वृत्तात सुन । पवनंजय पवनकी न्याई शीघ्रही रावण पै गया अर रावणसे आज्ञा पाय वरुणसे युद्ध करता भया सो बहुत देरतक नाना प्रकारके शस्त्रोंसे वरुणके पर पवन जयके युद्ध भया मो युद्ध विणे वरुणको बांध लिया ताने जो खरदूषणको बांधा हुता सो छुड़ाया अर वरुण को रावण के समीप लाया, वरुणने रावण की सेवा अंगीकार करी । रावण पधनंजयसे अति प्रसन्न भये तब परनंजय रावणसे विदा होय अंजनीके स्नेहसे शीघ्रकी घरको चले । राजा प्रल्हादने सुनी कि पुत्र विजय कर आया तब ध्वजा तोरण मालादिकोंसे न रोभित किया तब सब ही परिजन लोग सम्मुख आये नगरके सर्व नर नारी इनके कर्तव्य की प्रशंसा करें राजमहल द्वारे अर्घादिककर बहुत सम्मानकर भीतर प्रवेश कराया सारभूत मंगलीक वचनोंसे कुंवरकी सवही ने शंक्षा करी कुंवर माता पिताको प्रणाम कर सबका मुजरा लेय क्षण एक समाविष सवनकी शुश्रूषा कर आप अंजन के महल पधारे, प्रहस्त मत्र लार सो वह मल जैसा जीवरहित शरीर सुन्दर न लागे तैसे अंजनी बिना मनोहर न लागे तब मन अप्रसन्न होय गया । प्रहस्तसे कहते भए-हे मित्र ! यहां वह प्राणप्रिया कमलनयनी नहीं दीखै है सो कहा है यह मन्दिर उस विना मुझे उद्यान समान भासे है अथवा प्राकाश समान शून्य भासे है तातें तुम वार्ता पूछो वह कहां है ? तब प्रहस्त बाहिरले लोगोंसे निश्चय कर सकल वृत्तांत कहता भया, तब याके हृदयको क्षोभ उपजा माता पितासे विना पूछे मित्रसहित महेद्रके नगरमें गये, चित्तमें उदास जब राजा महेन्द्र के नगर के समीप जाय पहुंचे तब मनमें ऐया जाना जो आज प्रियाका मिलाप होयगा तब मित्रसे प्रसन्न होय कहते भए कि हे मित्र! देखो यह नगर मनोहर दिखे है जां वह सुन्दर कटानकी धरनहारी सुन्दरी 'विराजे है, जैसे कैलाश पर्वतके शिखर शोभाय न दोखे है तैन ये मालके शिखर रमणीक दीखे हैं अर वनके वृक्ष ऐम सुन्दर हैं मानां वर्षा काल की सघन घटा ही है । ऐसी वार्ता मित्रसे करते संते नगर के पास जाय पहुंचे। मित्र भी बहुत प्रशंसा करता आया । राजा महेंद्र ने सुनी कि पवनं. जयकुमार विजयकर पितासों मिल यहां आये हैं तब नगरकी बड़ा शोमा कराई अर आप अघोदिक उपचार लेय सम्मुख माया, बहुत आदर कुंवरको नगरमें लाये नगरके लोगोंने बहुत आदरतें गुण वर्णन किए। कुर राजमन्दिरमे आये एक मुहर्त समुरके निकट विराजे, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** पद्म-पुराण -हे सबका सम्मान किया अर यथायोग्य वार्ता करी बहुरि राजातैं श्राज्ञा लेकर सासू का मुजरा करा बहुरि प्रिया के महल पारे । कैम हैं कुमार ? कांताके देखनेकी है अभिलाषा जिनकी, तहां भी स्त्रीको न देखा तब अति विरहातुर होय काहूको पूछा— हे बालिके; हमारी प्रिया कहां है ? तब वह बोली- हे देव : यहां तिहारी प्रिया नाहीं तब वाके वचनरूप वखकर हृदय चूर्ण हो गया पर कान मानों ताते खारे पानी से सींचे गये जैसा जीवरहित मृतक शरीर होय तैमा होय गया, शोक रूप दाहकर मुरझाया गया है मुख कमल जाका, यह ससुरारके नगरसे कसकर पृथ्वीविषै स्त्रीका निमित्त भ्रमण भया, मानों वायुकुमारको वायु लगी तब प्रहस्त मित्र याको अति आतुर देखकर याके दुःखते अति दुखी भया अर यासे कहता मया -- मित्र कहा खेद चिन्न होय है ? अपना वित्त निराकुल कर । यह पृथ्वी केतीक है जहां होयगी यहां ठीक कर लेवेंगे, तत्र कुमारने मित्रों कही तुम आदित्यपुर मेरे पिता जावो थर सफल वृत्तांत कहो जो मुझे प्रियाकी प्राप्ति न होयगी तो मेरा जीवना नहीं होयभा में सकल पृथ्वीपर भ्रमण करू हूं और तुम भी ठीक करो। तब मित्र यह वृत्तांत कहनेको श्रादित्यपुर नगरवि या पिताको सर्व वृत्तांत ह र पवनकुमार अम्बरगोवर हाथीपर चढ़कर पृथ्वीदिविचरता भया र मनविषे यह ता करी कि नह सुन्दरी कमल समान कोमल शरीर शोकके आता संतापको प्राप्त भई वह गई, मेर ही हैं हृव्यविषै ध्यान जाके । वह गरीबनी विरहरूप अग्निर्ते प्रज्वलित विषम नमे कौन दिशाको गई । : ह सत्यवादिनी निःपट धर्मकी थरनहारी गर्भका है भार जाके मत कवि वसन्तमालास रहित हो गई होय । वह पवित्रता श्रावकके व्रत पालनहारी राजकुमारी शोककर अन्ध हो गए है दोनों नेत्र जाके, र विकट वन विहार करती दुपासे पीड़ित जगरकर युक्तः जो अन्धकूप तामें ही पड़ी हो अथवा वह गर्भवती दृष्ट पशुवोंके भयङ्कर शब्द सुन प्राणरहित ही होय गई होय, वह प्राणोंतें भी अधिक प्यारी इस भयंकर अलि विना प्यासकर सूख गये हैं कंठ तालु जाके तो प्राणोंसे रहित होय गई होय, वह भोरी कदाचित गंगाविषै उत्तरी होय तहां नाना प्रकार के ग्राह सो पानी में बह गई हो, अथवा वह ऋति कोमल तनु डामकी अणीकर विहारे गये होंय चरण जाके सो एक पैंड भी पग धरनेकी शक्ति नाहीं सो न जानिये कहा दशा भई अथवा दुःखतें गर्भपात भया होय अर कदाचित बह जिधर्मकी सेहरी महादिरक्त भाग होय श्रार्या भई हाय ऐसा चितवन करते पवनंजयकुमारने पृथ्वीविषै भ्रमण किया सी वहान देखी तब विरह पीडित सर्व जगतको शून्य देखवा भया, मरणका निश्चय किया, न पर्वतविषै, न मनोहर अनिवि, न नदी के तटपर का ठौर ही . प्राणप्रिया विना इसका मन न रमता भया, ऐसा विवेति भया जो सुन्दराका वाता वृक्षों को पूछे भ्रमता २ भूतव नामा वनमें श्राया तां हाथत उतरा पर जैसे मुनि आत्माका ध्यान करें तेस प्रियाका ध्यान करें बहुरि हथियार घर बचतर पृथ्वीपर डार दिये श्रर गजेंद्रों कहते भए - हे गजराज ! अब तुम वनस्वच्छन्द विहारी हावो, हाथो दिनयकर निकट खड़ा है, आप बद्ध ६ है रजेन्द्र, नदीक तीर में शलका बन है ताके ओपल्लव सा चरते विव भर यहाँ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अठारहवां गर्व हथिनियोंके समूह हैं सो तुम नायक हाय विपरो। कंचने ऐसा कहा परन्तु वह कृतज्ञ धर्नाके स्नेहविगै प्रवीण कंबरका संग नहीं छोड़ता भया जैसे भला भाई भाईका संग न छोडे कवर अतिशोकवन्त ऐसे विकल्प कर कि अति मनोहर जो वह स्त्री नाहि यदि न पाऊं तो या वनविौ प्राण त्याग करू, प्रियाविौ लगा है मन जाका ऐसा जो पवनंजय तडि बनविणे रात्रि भई सो रात्रिके चार पहर चार वर्ष समान बीते नाना प्रकार के विकल्पकर कुल भया। यहां की तो यह कथा श्रर मित्र पितापै गया सो पिलायो पर्व वृत्तांत कहा : पिता सुःकर परम शोकको प्राप्त भया सबको शोक उपजा अर फेतुमती माता पुत्र शोझसे अति पीड़ित होय रोवती संती प्रहस्तकहती भई कि जो तू मेरे पुत्रको महल छोड़ श्राया सो भल न किया तब प्रहस्तने कही मोहि अति प्राग्रहकर तिहारे निस्ट भेजामो पाया अत्र तहां जाऊंगः सा माल ने कहीवह कहां है ? तप प्रहस्त ने कही जहां अंजनी है तहां होयगा ता याने कही अंजनी कहा है, ताने कही मैं न जानू । हे माता, जो विना विचार शीघ्र ही काम करें तिनको पश्चाताप होय । तिहारे पुत्रने ऐसा निश्चय किया कि जो मैं प्रियाको न देखू तो प्राण त्याग कर । यह सुनकर माता अति विलाप करती भई अन्तःपुरकी सकल स्त्री रुदन करती भई . माता विलाप करे हैं हाय मो पापिनीने कहा किया ? जो महासतीको कलंक लगाया जाकरि मेरा पुत्र जीवनेके संशयको प्राप्त भया । मैं कर भावकी धरण हारी महावक्र गन्द मा गनीन विना विनारै काम किया यह नगर या कुल अर विजया पर्वत पर रावण का अटक एवनंजय विना शोभे नहीं, मेरे पुत्र समान पर कौन, जाने वरुण जो रावण ने असाध्य ताहि ण देणे तामात्र में बांध लिया। हाय वत्स, विनयके श्राधार गुरु पूजनमें तस्पर, जगनसुन्दर विख्या गुण तू कहाँ गया ? तेरे दुखरूप अग्नि झरि तप्त यनान जो मैं, सो हे पुत्र, पादासे बचनाल प कर, मेरा शोक निबार, ऐसे विज्ञाप करती अपना उरस्थल पर सिर कूटनी जो केतुमती सो ताने सब कुम्ब शीकरूप किया। प्रल्हाद भी धान डारने भए सर्व परिवारको साथ ले प्रहस्तको अगवानी र अपर नगरसे पुत्र सोने चले दोनों श्रेणियोंके सर्व विद्या प्रीनिसों बुलाय सो परिवार सहित पाये । सब ही आकाशक मार्ग कवरको हदे हैं प्र येवी देखें है कर गम्भीर वन और लताओंमें देखे हैं पर्वतों देख ई पर प्रतिसूर्यके पास भी प्रल्वादका दूत गमा सो सुनकर महा शोकवान मया पर अंजना कहा सो अंजना प्रथम दुःखते भी अधिक दुःखका प्राप्त भई अश्रुधारास वदन पखालती रुदन करती भई कि हाय नाथ मेरे प्राणोंक आधार मुझमें बंधा है मन !जन्ह ने मो मोहि जन्मदुखारीको छोड़कर कहां ग १ कहा मुझसे कोप न छोड़ो हो जो सर्व विद्याथरोंसे अदृश्य होय रहे हो । एकवार एक भी अमत समान व वन मा । बोलो, एतदिन ये प्राण विहारे दर्शनकी वांछाकर राख हैं अब जो तुम न दीखा को ये प्राण मेरे किस कामके हैं, मेरे यह मनोरथ हुसा कि पतिका समागम होगा सो दैवने मनोरथ भग्न किया । मुझ मंद भागिनीके अर्थ आप कष्ट अवस्थाको प्राप्त भए तिहारे कष्टकी दशा सुनकर मेरे प्राण पापी क्यों न पिनश जाय ऐसे विलाप करती अंजनाको देखकर वसंतमाला कहती भई-हे देवी, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं-परण १८८ ऐगे अमंगल वचन मत कहो तिहारे धनीसे अवश्य मिलाप होयगा अर प्रतिसूर्य बहुत दिलासा करता भया कि तेरे पतिको शीघ्र ही लावै हैं ऐसा कह कर राजा प्रतिसूर्यने मनसे भी उतावला जो विमान ताविप चढ़कर आकाशतें उतरकर पृथिवी विष द्ढा प्रतिसूर्य लार दोनों श्रेणियों के विद्याधर अर लंकाके लोग यत्नकर ढढे हैं देखते २ भूतरख नामा अटवी विष आये तहां अम्वरगांचर नामा हाथी देखा, वर्षाकालके सघन मेघ समान है आकार जाका तब हाधीको देखकर सर्व विद्याधर प्रसन्न भए कि जहां यह हाथी है तहां पवनंजय है पूर्वे हमने यह हाथी अनेक वार देखा है यह हाथी अंज. गिरि समान है रंग जाका अर कुंदके फूल सान श्वेत हैं दांत जाम् र जेसी चाहिये तेथी सुन्दर है सूड जाकी। जव हाथीक समीप विद्याधर आए तब वाहि निरंकुश देख डरे अर हाथी विद्याधरोंके पटकका शब्द सुन महाक्षोभको प्राप्त भया, हाशी महाभयंकर दुबार शीघ्र है वेग जाका मदकर भोज रहे हैं कपोल जाके अर हाले हैं पर गाजे हैं कान जाके जिस दिशाको हाथी दौड़े ताही दिशासे विद्याधर हट जावें, यह हाथी लोगों का सम्रद देख स्वामीकी रक्षाविणे तत्पर सड़से बंधी है तलवार जाके महाभयंकर पवनंजका समीप न तजे सो विद्याधर बाल्पाय या के समीप न आवे तब विद्याथोंने हथिनियोंके समृासे इसे वश किया क्योंकि जेते वशीकरण के उपाय हैं, तिनमें स्त्री समान और कोई उपाय नहीं। तब ये आगे आय पवनकुमारको देवते भए मानो काठला है मौनसे बैठा है, वे यथायोग्य याका उपचार करते भए पर यह पितामें लीन काहूमों न बोलें जैसे ध्यानारूढ़ मुनि कामों न बोलें तव पवनजयके माता पिता आंसू डारते याके मस्तकको चूमते भए अर छातीसे लग वने भए पर कहते भए कि हे पुत्र, तू ऐसा विनयवान हमको छडकर कहां आया, महाकोमल सेजार सोवनहारा तेरा शरीर या समि वनविणै कैसे रात्री पतीत करी ऐसे वचन कहे तो भी न बोले तब इसे नमीभृत और मौवत्रत घरे, मरणका है निश्चय जाके ऐसा जानकर समस्त विद्याधर शोकको प्राप्त भए, पितः सहिन ब मिलाप करते भए। तब प्रतिमूर्य अननीका मामा सब विद्याथोंसे हता भया कि मैं वायुकुमारसे पचनालाप करूगा तब वह पवनंजयको छातीसे लगायकर कहना भया-हे कुमार ! मैं समस्त वृत्तांत कहूं सो सुनो। एक मह रमशीक संध्या भ्रनामा पर्वत तो अनंगवीचि नामः मुनिको केवलज्ञान उपजा था सो इन्द्रादिकदेव दर्शन को आए हुते भर में भी गया हुना भो बन्दनाकर आवता हुता सो मार्गमें पर्वतकी गुफा ता ऊपर मेरा विमान आया सो मैने स्त्रीके रुदनकी ध्वनि सुनी मानो वीन वाजे है तब मैं वहां गया, गुफरविणे अंजन देखी मैो वनके निवासका कारण पूछा तब बसंतमालाने सर्ववृत्तांत कहा । अंजनी शोक कर विठ्ठल रुदन कर सो मैं धैर्य बंधाया मर गुफामें ताके पुत्रका जन्म भया सो गुफा पुत्रके शरीर की कांतिकार प्रकाशरूप हो गई मानो स्वर्णकी रची है। यह वार्ता मुनसर पवनंजय परम हर्षमाप्त भए र प्रतिसूर्यको पूछते भए बालक सुखसे तिछे है ? तब प्रतिसूयेंने कहा बालकको में दिमाक में थापकर हनूमान द्वीपको जाऊं था सो मार्गमें बालक एक पर्वत पर पढा सो पर्वतके पस्नेका नाम सुनकर पवनजयने हाय हाय Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्तीमा पर्व ऐसा शब्द कहा तब प्रतिसूर्यने कहा- सोच मत करो जो वृत्तांत भगा सो सुनो जा करि सर्व दुखसे निवृत्ति होय, बालकको पड़ा देख मैं विमानसे नीचे उतरा तब क्या देखा पर्वतके खंड २ हो गये पर एक शिला पर बालक पड़ा है पर ताकी मोते कर दशों दिशा प्रकाशरूप होय रही हैं तब मैंने तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कार कर बालकको उठाय लिया अर माताको सौंपा सो माता अति विस्मयको प्राप्त भ पुत्र का श्रीशैल नाम धरा । बसंतमाला अर पुत्र सहित अंजनी को हनुमान द्वीप ले गया वहां पुत्र का जन्मोत्सव भया सो बालकका दूजा नाम हनुमान भी है यह तुमको मैंने सकल वृत्तांत कहा । हमारे नगरमें वह पतिव्रता पुत्र हित आनन्दसे तिष्टै है। यह वृतांत सुनकर पवनंजय तत्काल अंजनीके अवलोकनके अभिल पी हनुरुद्वीपको चले अर सर्व विद्याधर भी इनके संग चले हनूरुद्वोपमें गये सो दोय महीना सबको प्रतिसूर्णने बहुा आदर से राखा बहुरि सब प्रसन्न होय अपने २ स्थानको गये। बहुत दिनोंमें पाया है स्त्रीका संयोग जाने सो ऐसा पानंजय यहां ही रहै । कैना है परनंजय ? सुन्दर है चेटा जाकी और पुत्र की चेष्टासे अति आनन्दरूप हनूरुद्वीपमें देानकी न्याई रमते भए । हनूमान नव यौवन को प्राप्त भए मेरुके शिखर समान सुन्दर है सीम जिनका, सर्व जीवोंके मनको हरणहारे होते भए, सिद्ध भई हैं अनेक विद्या जिनको अर महाप्रभावरूप विनयवान् बुद्धिमान् महाबली सर्व शास्त्रके अर्थ विष प्रवीण परोपकार करनेको चतुर पूर्वभव स्वर्गमें सुख । ग आए अब यहां हनुरुहद्वीप विष देवोंकी न्याई रमें हैं। हे श्रेणिक ! गुरु पूलामें तत्पर श्री हनुमानके जन्मका वर्णन अर पवनंजय का अंजनीसे मिलाप यः अद्भुत कथा नाना रसकी भरी है, जे प्राणी भावधर यह कथा पढें पह वें सुनें सुनावें उनकी अशुभकर्म में प्रवृत्ति न हाय, शुभक्रि गाके उद्यमी होय हार जो यह कथा भावधर पढ़ें पढ़ वं उनकी परभवमें शुभगति दीर्घ आयु होय शरीर निरंग सुन्दर होय महापराक्रमी हाय अर • उनकी बुद्धि करने योग्य कार्यके, पारको प्राप्त होय अर चन्द्रमा समान निर्मलानि होय अर जासे स्वर्ग मुक्तिके सुख पाये ऐप धर्म की बढवारी होय ना लोकमें दुर्लभ वस्तु हैं सा व सुलभ होय सूर्य समान प्रताप के धारक होय। इति श्रीरविषेणाचार्यविचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै बनंजय अन्जनाका मिला५ वर्णन करने वाला अठारहबां पर्व पर भया ।।१८।। अथा नंतर राजा वरुण बहुरि आज्ञालोप भयः तब कोप कर तापर रावण फिर चहे सर्व भूमि गोचरी विद्याधरोंको पाने समीप बुलाया, मुबके नि:ट आज्ञा पत्र लेष दूत गए । कैसा है रावण ? राज्यकार्यविष निपुण है, किहकंधाप के धनी अर लंकाके धनी रयापुर पर चक्रवालपुर के धनी तथा बताध्य की दोनों श्रेणीक विद्याधर तथा भूमिगोचरी सब ही आज्ञा प्रमाण रावणके समीप आए हनूरुद्वापर भी प्रतिसूर्य तथा पवनंजयकं नाम आज्ञा पत्र रु य दत पाए सो ये दोनों आज्ञा पत्रका माथ चढाय दूत का बहुत सन्मानकर आज्ञा प्रमाणे गमनक Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच-पुराण उद्यमी भए । तब हनुमान को गज्याभिषेक देने लगे । वादित्रादिकके समूह वाजने लगे पर कलश हैं जिनके हाथमें ऐसे मनुष्य आगे आय ठाडे भए सब इनूमानने प्रतिसूर्य अर पवनंजय पूछा यह कहा है ? तब उन्होंने कही-हे वत्स! तू हनुरूहद्वीपका प्रतिपालन कर, हम दोनों को रावण बलावै है मो जांय हैं, रावण की मदद के अर्थ गवस वरुप पर जाय है वरुपने सहुरि माया उठाया है महामामंत है ताके बडी सेना है पुत्र बलवान् हैं । पर गढ़का बस है तब हनुमान विनयकर कहते भए कि मेरे होते तुम जाना उचित नहीं, तुम मेरे गुरुजन हो तब उन्होंने कही हे वत्स ! तू वालक है अबतक रण देख। नाहीं तब हनुमान बोले अनादि काल जीव चतुर्गतिवि भ्रमण करै है पंचमगति जो मुक्ति मो जब तक अज्ञानका उदय है, तब तक जीवने पाई नाही परंतु भव्य जीव पावे ही हैं तैसे हमने अब तक युद्ध किया नाही परंतु भव युद्धकर वल्पको जीतेहींगे अर विजय कर तिहारे पास आवें सो जब पिता भादि कम्बके जन उनने राखनेका घना ही यत्न किया परंतु ये न रहते जाने तब उनको मात्रा दई। यह स्नान भोजन कर पहिले पहिल मंगलीक द्रव्यों कर भगवान्की पूजाकर अरिहंत सिद्धको नमस्कारकर माता पिता भर मामाकी अाज्ञा लेय बडोंका विनयकर यथायोग्य संभाषण कर सूर्य तुम्य उपोतरूप जो विमान तामें चढकर शस्त्रके समूह कर संयुक्त जे सामंत उन सहित दशों दिशामें व्याप्त रहा है यश जाकर लंकाकी ओर चला पो त्रिकूराचल के सन्मुख विमानमें बैठा जाता ऐसा शोमता जैसा मंदराचलके सन्मुख जाता, ईशान इंद्र शोभ है तब बी चनामा पर्वत पर सूर्य अस्त भया । कैसा है पर्वत ? समुद्र की लहरोंके समूहकर शीतल हैं नट जाके, तहां रात्री सुखसे पूर्ण करी अर करी है महा योधावोंमे वीररसकी कथा जाने महा उत्साहकर नाना प्रकारके देश द्वीप पर्वतोंको उलंघता समुद्रके तरंगोंसे शीतल जे स्थानक तिनको अवलोकन करता समुद्रविष बडे २ जलचर जीवनिको देखता रावणके कटकमें पोंहचा हनूमानकी सेना देखकर बडे २ राचस विद्याधर विस्मयको प्राप्त भए, परस्पर बार्ता करै हैं यह बली श्रीशैल हनूमान भव्य जीवोंविष उत्सम जाने पाल अवस्थामें गिरिको चूर्ण किया । ऐसे अपने यश को श्रवण करता हनूमान् रावणके निकट गया, रावस हनूमानको देखक सिंहासनमे उठे अर विन किया । कैसा है सिंहासन ? पारिजातादिक कल्प वचोंके फूलों से पूरित है, जाकी सुगंधकरि भ्रमर गुंजार करै हैं जाके रत्तोंकी ज्योतिकर भाकाशविष उद्योत होय रहा है जाके चारों ही तरफ बड़े सामन्त हैं ऐसे सिंहासनतें उठकर रावसने हनूमानको उरसे लगाया! कैसा है हनूमान ? रावण के विनय । नम्रीभूत होगया है शरीर जाका, गवस हनूमान को निकट ले वैठा, प्रीति कर प्रसन्न है मुख जाका, परस्पर कुशल पूछी कार पर पर स्प सम्पदा देख हर्षित भए, दोनों महाभाग्य ऐस मिले मानों दोय इन्द्र मिले, रावण अति स्नहकारे पूर्ण है मन जाका सो कहता भया-पवनकुमारने हमसे बहुत स्नेह बढाया जो ऐसे गुणोंके सागर पुत्रको हमपर पठाया ऐसे महाबलीको पायकर मेरे सर्व मनोरथ सिद्ध होवेंगे असा रूपवान असा तेजस्वी और नहीं जैसा यह योधा सुना तैसा ही है यामें गन्देह नाही यह भनेक शुभ लक्षणों का मरा है याके शरीरका आकार ही गुणोंको प्रगट करें है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ KAAM उन्नीसर्वा पर्व गग्मने जब हनूमानके गुण वणन किए तब हनूमान नीचा होय रहा, लज वंत पुरुषकी माई नम्रीभून है शरीर जाका सो संतोंकी यह रीति है। अब रावण का वरुणसे संग्राम होयगा सो मानों सूर्य भयकर अस्त होनेको उद्यमी भया मन्द होगई हैं किरण जाकी सूर्यके अम्त भए पीछे संध्या प्रगट भई, बहुरि गई सो मानों प्राणनाथकी विनयवंती पतिव्रता स्त्री ही है अर चंद्रमारूप तिलकको धरै रात्रीरूप स्त्री शोभती भई बहुरि प्रभात भया सूर्य की किरणोंसे पृथ्वीविष प्रकाश भया, तब रायख समस्त सेनाकी लेय युद्धको उद्यमी भया, हनूमान विद्याकर समुद्रको भेद वरूणके नगरविणे गया । वरुणपर जाता हनूमान श्रेसी कांतिको धारता भया जैसा सुभम चक्रवर्ती परशुगमके ऊपर जाता शोभ, रावण को कटकसहित आया जानकर वरुणकी प्रजा भयभीत भई, पाताल पुंडरीक नगरका वह थनी सो नगरमें योधायोंके महाशब्द होते भए, योधा नगरसे निकसे, मानों वह योथा असुरकुमार देवक समान हैं और वरुण चमरेंद्र सुल्य है, महाशूरवीरपनेविगै गर्वित पर वरुणके सौ पुत्र महा उद्धत युद्ध करनेको पाए, नानाप्रकारके शस्त्रोंके समूहकरि रोका है सूर्यका दर्शन जिन्होंन, सो रुमके पुत्रोंन आवते ही रावणका कटक ऐसा व्याकुल किया जैसे असुरकुमार देव चद्र देवोंको कम्पायमान करें, चक्र, धनुष, षञ, सेल, परछी इत्यादि शस्त्रों के समूह राक्षसोंके हाथमे गिर पडे अर वरुणके सो पुत्रों के भागे राक्षसोंका कटक ऐसे भ्रमता भया जैसे वृक्षनिका समूह अशनिपातके भयस भ्रमै तब अपने कटकको व्याकुल देख रावण यरुणके पुत्रोंपर गया जैसे गजेंद्र वृक्षोंको उपाडै तैम बडे बडे 'योधवोंको उपाडे, एक सरफ रावण अकेला एक तरफ वरुणके सौ पुत्र, सो द्यपि उनके वाणों से रावणका शरीर मेड़ा गया तथापि रावण महायोधाने कछु न गिना, जेसे मेषके पटल गाजते वर्षते सूर्य मण्डलको आच्छादित करें तैसे वरुणके पुत्रोंने रावणको बेदा अर कुम्भकरण इन्द्रजीतसे वरुख खडने लगा । जब इनूमानने रावणको अरुणके पुत्रोंकर वेध्या टेसू फूलोंके रंग समान भारक्त शरीर देखा तब रथमें असवार होय वरुणके पुत्रोंपर दोडा । कैसा है हनूमान ? रावणसे प्रीतियुक्त है पिच जाका अर शत्रुरूप अंधकारके हरिवेको सर्य समान है पवनके वेग से भी शीघ्र वरुनके पुत्रोंपर गया सो हनूमानसे वरुणके पुत्र सोही कम्पायमान भए जैसे मेषके समूह पवनसे कम्पायमान होंय, बहुरि हनूमान वरुणके कटकपर ऐसा पडा जैसा माता हाथी कदलीके वनमें प्रवेश कर, कइयोंकों विद्यःमई लांगल पाशकर बांध लिया अर कइयोंको मुद्गरके घातकर वायल किया, वरुणका समस्त कटक, हरमानसे हर जैस जिनमार्गीके अनेकांतनयसे मिथ्यादृष्टि हारे। हनूमानको अपने कटकविणे रण क ड करते देख राजा वरुणने मोर कर रक्तनेत्र किए पर हनूमान पर पाया तब गवण बरुण को हनूमानपर श्रावता देख आप जाय रोका जैसे नदीके प्रवाहको पहाड रोके, वरुणाका पर रावणके महायुद्ध भया तब ताही समयमें घरुण के सौ पुत्र हनूमानने बांध लिये। सो पुत्रों को बधि सुनकर वरुणशोकर विह्वल भया पर विद्याका स्मरण न रहा तब रावणने याको पकड लि । सो मानों बरुण सूर पर शाके पत्र किस तिनके रोकनेसे रावण राहु का रूप धारता भया । रुएको अम्मरण के हवाले Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच-पुर किया अर आप डेरा भनोन्माद वनमें किया । कैसा है वह वन ? समुद्र की शीतल पवनसे महाशीतल है सो उसके निवासकर सेनाको रणजनित खे. रहित किया अर वरुण की पकडा सुन उसकी सेना भाजी, पुण्डरीकपुरमें जाय प्रवेश किया। देसी गुण्यका प्रभाव जो एक नायक के जीतन्तें बही जीते। कम्भ रताने कोपकर वरुणाके नगरको लूटनेका विचार किया तब रावण ने मना किया, यह राजाओं । धर्म नहीं। कैसे हैं रावणा ? करुणाकर कोनल है चित्त जाका, सो कुम्भकरण कहते भए-हे मानक ! तैंन यह क्या दुराचारकी बात कही १ जो अपराध था सो तो वरुणका था प्रजाका कहा .पराध ? दुर्वलको दुःख देश दुर ति। कारण है और महाअन्याय है ऐश कहकर कम्पकरणको प्रशांत किया अर वरुण को बुलाया । कैना है वरुण ? नीचा है मुख जाका, ता रावण वरुणको क ते भए- हे प्रवीण ! तुम शोक मत करो जो में युद्धविणे पकडा गया, गोधावोंकी दोपही रीत हैं, मारे जांय अथवा पडे अर रणास भागना कायरका काम है तातें तुम हमसों क्षमा ३.1 अ अपने स्थानक जायकर मित्र बांधवसहित सकल उपद्रवरहित अपना राज्य सुन्वतें करहु । श्रमे मिष्ट वचन रावण के सुनकर वरुण हाथ जोड रावण सू कहता भवा-हे वीराधिीर ! हे महाधीर ! तुम इस लोकमें महापुण्याधिकारी हो तुमसे जो घेर भाव करें गो मूर्ख है, अहो स्वामिन्, यह तिहारा परम धीर्य हजारों स्तोत्रोंसे स्तुति करने योग्य है, तुम देवाधिष्ठित रत्न विना मुझे सामान्य शस्त्रोंसे जीता, कैसे हो तुम ? अद्भुत है प्रताप जिनका अर इस पवनके पुत्र हनूमानके अद्भुत प्रभावको कहा माहेमा कहूं ? तिहार पुण्य के प्रभावतें औसे श्रेस सत्पुरुष तिहारी सेवा करें है । हे प्रभो ! यह पृथ्वी काहू के गोत्रम अनुक्रमकर नहीं चली आई है यह कंवल पराक्रमके वश है । शूरवीर ही याके भाक्ता हैं सो आप सर्व योधायोंके शिरोमणि। हो सो भूमिका प्रतिपालन करी । हे उदारकीर्ति ! हमारे स्वामी आप ही हो, हमारे अपराध क्षमा करो । हे नाथ ! आप जैसी उत्तम क्षमा कहूं न देखो तातें आप सारिखे उदारवित्त पुरुषसे सम्बन्ध कर मैं कृतार्थ होऊंगा तातै मेरी सत्यवती नामा पुत्री श्राप परलो याके परणवे योग्य आप ही हो या भांति बनताकर अति उन्साहत पुत्र परणाई। कैसी है वह सत्यवती ? सर्वरूपवं तयोंका तिलक है, कमल समान है मुख जाका, वरुणने रावणका बहुत सत्कार किया अर कई एक प्रयाए। रावण के लार गया, रा.णन अति स्नहत सीख दीनी तव वरुण अपनी राजधानी आया, पुत्रीक वियोगते व्याकुल है चित्त जाका । कैलःशकप जी रावण ताने हनुमानका अति सन्मानकर अपनी बांहेन जो चंद्रनखा ताकी पुत्रा अनंगकुसुला महारूपबती सो हनुमानको परणाई सो हन न ताको परण र अतिप्रसन्न भए, कैस है अन कुसुमा ? सर्वलोकविणे जो प्रसिद्ध गुण तिनकी राजधानी है। कैसी है कामके आयुध है नेत्र जाके, अर अति सम्पदा दीनी अर कर्णकुण्डलपुरका राज्य दिगा अभिषेक कराया ता नगरमें हनुमान सुखसे विराजे जैस स्वर्गलोकमें इद्र बिराजें तथा किहकपुर नगर का राजा नल द्वाशी पुत्री हरिना लनी नामा रूप सम्पदा र लसीको जीत ही सो महा विभूमि हनुमानको परणाइ तथा किन्नरगत नगरविष जे निरवाधिक विद्यावर तिनकी तो पुत्री रणों या भांति ए. सहसरातों परणी पृथ्याविणे Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवा पर्व हनमानको श्रीशैल नाम प्रसिद्ध भया काहेते पर्वतकी गुफामें जन्म भया, था । सो पहाडपर हनमान पाय निकसे सो देख अति प्रसन्न भए । रमणीक है दलहटी जाकी वह पर्वत भी पृथ्वीवि प्रसिद्ध भया। . अथानन्तर किहकंध नगरलिपे राजा सुग्रीव ताके रानी सुतारा चंद्र समान कांतिको धरै है मुख जाका, अर रति समान है रूप जाका तिनकी पुत्री पारागा नवीन कमल समान है रंग जाका पर अनेक गुणोंसे मंडित पृथ्वी पर प्रसिद्ध लक्ष्मी समान सुन्दर हैं नेत्र जाके, ज्योतिके मंडलसे मंडित है मुख कमल जाका अर महा गजराजके कुम्भस्थल समान ऊंचे कठोर हैं स्तन जाके अर सिंह समान है कट जाकी, महा विस्तीर्ण अर लावण्यता रूप सरोवर में मग्न है मूर्ति जाकी, जाहि देख चित्त प्रसन्न होग, शोभायमान है चेष्टा जाकी, ऐसी पुत्रीको नवयौवन देख माता पिताको याकै परणायवेको चिता भई या योग्य वर चाहिए सो माता पिताको रात दिन निद्रा न आवै अर दिनमें भोननका रुब गई चितारूप है चित्त जिनका । तब रावण के पुत्र इन्द्रजीत आदि अनेक राजकुमार कुल न शीतवान तिनके चित्रपट लिखे, रूप लिखाय सखियों के साथ पुत्री को दिखाये, सुन्दर है शांति जिनकी सो कन्याकी दृष्टि में कोई न आया, अपनी दृष्टि संकोच लीनी बहुरि हनुमानका चित्रपट देखः नाहि देवकर शोषण, संतापन, उच्चाटन, मोहन, वशीकरण कामके इन पांचां बाणोंसे बेथा गई तब तामह हनूमानविष अनुरागिनी जान सखाजन ताके गुण मान करता भई । हे कन्या ! यह पवनंजयका पुत्र जो हनुमान ताके अपार गुण कहां लो कहैं अर रूप सौभाग्य तो याके चित्रपटमें तैने देखे नाते याको वर. माता पिताकी चिंता निवार, कन्या तो चित्रपट देख मोहित भई हुती और सखा जनोंने गुण वर्णन किया ही है तब लज्जाकर नीची हो गां पर हाथमें क्रीडा करनका कमल था ताकी चित्रपटन दी। तब सबने जाना कि यह हनुमान से प्रीतिवंती भई तब याके पिता सुग्रीवने याका चित्रपट लिखाय भले मनुष्य के हाथ वायुपुत्र भेजा सो सुग्रीवका सेवक श्रीनगरमे गया और कन्याका चित्रपट हनुमानको दिखाया सो अंजनी का पत्र सुताराकी पुत्रीके रूपका चित्र ट देख मोहित भया । यह बात सत्य है कै कामके पांच ही बाण हैं परन्तु कन्याके प्रेरै पवनपुत्रके मानो सौ वाण होय लगे चिचमें चिंतवता भया मैं सहस्र विवाह किए भर बड़ी बड़ी ठौर परणा खरदक्षणकी पुत्री. रावण की भाणजी परणी तथापि जब लग यह परागा न परण तो लग परणा ही नहीं ऐसा विचार महाऋद्धिसंयुक्त एक क्षणमें सग्रीवके पुरमें गया । सुग्रावने सुना जो हेनुमान पधारे तर सुग्रीव अतिहर्षित होय सन्मुख आए बडे उत्साहस नगरमें ले गए सो राजमहलकी स्त्री झरोखोंकी जालीसे इनका अद्भुत रूप देख सकल चेष्टा मज आश्चर्य रूप होय गई अर सुग्रीवकी पुत्री पभरागा इनके रूपको देखकर चकित हो गई। कैपी है कन्या ? अति सुकुमार है शरीर जाका, बड़ी विभूतिसे पवनपुत्रसे पारागाका विषाह मया, जैसा वर तैसी दुःसहन सा दोनों अति हपको प्राप्त भए स्त्रीसहित हनुमान अपने Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पत्र-पुराण नगरमें ए राजा सुग्रीव और राणी सुारा पुत्रों के वियोगते कैएक दिन शोकसहित रहे अर हनुमान महालक्ष्मीवान् समस्त पृथ्वी पर प्रसिद्ध है कीर्ति जाकी सों ऐसे पुत्रको देख परनंजय पर अंजना महासखरूप समुद्र में मग्न भए । रावण तीन खण्डका नाथ अर सुग्रीव जैसे पराक्रमी हनुमान सारिखे माभट विद्याधरों के अधिपति तिनका नायक लंका नगरीमें मुखसे रमै समस्त लोकको सुखदाई जैस स्वर्गलोकविष इन्द्र रमै विस्तीर्ण है कांति जाकी, महासुन्दर अठारह ह गर राणी तिनके मुखकमल तिनका भ्रमर भया, आयु व्यतीत होती न जानी, जाके एक स्त्री कुरूप और आज्ञा रहित होय सो पुरुष उन्मत्त होय रहे है जाके अष्टादश महस्र पमिनी पतिव्रता आज्ञाकारिणी लक्ष्मी समान होय ताके प्रभावका कहा कहना, तीन खण्ड का अधिपति अनुपम है कांति जाकी समस्त विद्याधर अर भूमिगोचरी सिर पर धारे है अाज्ञा जकी सो सर्व राजावाने अधचक्री पदका अभिषेक कराया और अपना स्वामी जाना, विद्याधरोंके अधिपति तिन करि पूजनीक हैं चरण कमल नाके, लदी कीनि कांति परिवार जा समान औरके नाही, मनोझ है देह जाका, वह दशमुख राजा चन्द्रमा समान बड़े २ पुरुषरूप जे ग्रह तिनसे मण्डिन माल्हादका उपजावनहारा कौनक चितको न हरै ? जाके सुदर्शन चक्र सर्व कार्यकी सिद्धि करणहारा देवाधिष्ठित मध्यान्हके सूर्यको किरणोंके समान है किरणोंका समह जा विषे, जब जे उद्धत प्रचंड नृविग प्राज्ञा न माने तिनका विध्वन्सक अति देदीप्यमान नानाप्रकारचे रत्नोंकर मण्डिन शोभना भया और दण्डरत्न दुष्ट जीवोंको काल समान भयंकर देतीप्य. मान है उग्र तेज जाश मानों उन्कापातका समू: ही है सो प्रचंड जागी आयुध शालाविये प्रकाश करना भया सो रावण आठमा प्रतिवासुदेव सुन्दर है कीतिजाकी, पूर्वोपार्जित कर्मके षशत कुलकी परिपाटी कर चली आई जो लंकापुरी वा विर्ष संसारके अद्भन सुख भोगता मया। कैसा है रावण ? राक्षस कहावें ऐये जे विद्याधर तिनके कुलका तिलक है पर कैपी है लंका किसी प्रकारका प्रजाको नहीं है दुख जहाँ. मुनिसुव्रतनाथके मुक्ति गए पीछे और नमिनाथक उपजनेसे पहिले रावण भया मो बहुत पुरुष जे परमार्थराहेत मूढ लोक तिन्होंने उनका कथन औरसे और किया मांसभक्षी ठहराया सो वे मांसाहारी नहीं थे, अमके आहारी थे, एक सीताके हरणका अपराधी बना उसकर मारे गए और परलोकविर्ष कष्ट पाया। कैसा है श्रीमुनिसुव्रतनाथका समय ? सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी उत्पत्तिका कारण हैं सो यह समय वीते बहुत वर्ष भए तातें तत्वज्ञानरहित विषगी जबोंने बड़े पुरुषोंका वर्णन औरसे और किया। पापाचारी शीलव्रत रहित जे मनुष्य नो तिनकी कल्पना जालसा फांसीकर अविवेकी मन्दभाग्य जे मनुष्य तेई भए मृग सो बांधे । गौतमस्वामी कहै हैं ऐण जान कर हे श्रेणिक ! इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवादि कर बंदनीक जो जिन राज्यका शास्त्र भोई रत्न भया ताहि अंगीकार कर । कैसा है जिनराजका शास्त्र ? मुरासे प्राधिक है तेज जाका और कैरगा है त ? जिन शास्त्रके श्रवण कर जाना है वस्तुका स्वरूप जाने और धोग है मिथ्यात्वरूप कर्दमका कलंक जाने। इति श्रीरगिरोणावागिराचेत महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा गचनिकालिनौं राणका चकराज्याभिषेक गर्णन करनेवाला उन्नीसगां पर्व पूर्ण भया ॥ १६॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atest पर्व १६५ अथानन्तर राजा श्रेणिक महा विनयवान निर्मल है बुद्धि जाकी सो विद्याधरोंका सकल सुनकर गौतम गणधर के चरणारविंदको नमस्कार कर आश्चर्य को प्राप्त होता मंता कहन भया- हे नाथ ! तिहारे प्रसादतें आठवां प्रतिनारायण जो रावण ताकी उत्पत्ति और सकल ति मैने जाना, तथा राचसवंशी और वानरवंशी जे विद्याधर तिनके कुलका भेद भलीभांति जाना। अब मैं तीर्थ के पूर्व भर सहित सकल चरित्र सुना चाहूँहूँ ९ कैसा है तिनका चरित्र १ बुद्धिकी निर्मलता का कारण है अर आठवें बलभद्र जे श्रीरामचन्द्र, सकल पृथिवीविषै प्रसिद्ध सो कौन वंश विषै उपजे तिनका चरित्र कहो पर तीर्थकरोंके नाम और उनके माता पिताके नाम सब सुनने की इच्छा है सो तुम कहने योग्य हो । या भांति जब श्रेणिकने प्रार्थना करी तब गौतम गणधर भगवत चरित्रके प्रश्न कर बहुत हर्षित भए ! कैसे हैं गगयर ! महा बुद्धिमान परमार्थवि प्रवीण । ते कहे हैं कि हे श्रेणिक ! चौबीस तीर्थकरोके पूर्व भवका कथन पापके बिध्वंसका कारण इन्द्रादिक कर नमस्कार करने योग्य है तू सुन ऋषभ १ अजित २ संभव ३ अभिनन्दन ४ सुमति ५ पद्मप्रभ ६ सुपार्श्व ७ चन्द्रप्रभ ८ पुष्पदन्त ( दुजा नाम सुविधिनाथ ) ६ शीतल १० श्रेयांस ११ वासुपूज्य १२ विमल्ल १३ अनन्त १४ धर्म १५ शान्ति १६ कुंथु १७ र १८ मलि १६ मुनिसुव्रत २० नमि २१ नेमि २२ पार्श्व २३ महावीर २४ जिनका अब शासन प्रवरते हैं ये चौवीस तीर्थ के नाम कहे । अब इनकी पूर्व भवकी नगरेयोंके नाम सुनो। पुण्डरीकनी १ सुसीमा २ चेमा ३ रत्नसंचयपुर ४ ऋषभदेव आदि तीन तीन एक एक नगरीवि श्रनुक्रमतें • वासुपूज्य पर्यतकी ये चार नगरी पूर्व भवके निवासकी जाननी र महानगर १३ अरिष्टपुर १४ सुभद्रिका १५ पुण्डरीन १६ सुमीमा १७ चेमा १८ वी शोका १६ चम्पा २० कौशांबी २१ हस्तिनापुर २२ साकेता १३ छत्राकार २४ ये चौबीस तीर्थकरों की या भरका पहिले जो देवलोक ताभव पहिले जो मनुष्य भव ताकी स्वर्गपुरी समान राजवानी कही । अब ता भवक नाम सुनोनाभि १ बिमलवाहन २ विपुलख्याति ३ बिपुलबाहन ४ महाबन ५६ जित ७ नंदिषेस ८ पत्र 8 महापद्म १० पद्मोचर ११ पंकजन्म १२ कमल समान हैं सुख जिनका ऐसा नलिनगुन्म १३ पद्मासन १४ पद्मरथ १५ हदरथ १६ मेघरथ १७ सिंहस्थ १८ वैश्रवण १३ श्रीर्मा २० सुरश्रेष्ठ २१ सिद्धार्थ २२ आनन्द २३ सुनंद २४ ये तीर्थकरों के या भव पहिले तीजे भवके नाम कहे । अब इनके पूर्व भव के पिता के नाम सुनो, वज्रसेन १ महातेज २ रिपुदमन ३ स्वयंप्रम ४ विमलवाहन ५ सीमंधर ६ पिहिताश्रव ७ अरिंदम = युगंधर ६ सर्व नान्द १० अभयानन्द ११ वज्रदंत १० वज्रनाभि १३ सर्व पुस १४ गुप्तिमान १५ चिंतारक्ष १६ विमलवाहन १७ धनरव १८ वीर १६ संवर २० त्रिलोकी २१ सुनंद २२ वीतशोक २३ प्रोटिल २४ ये पूर्व भवके पितावोंके नाम कहे । अव चौवीसो तीर्थंकर जिस जिस देवलोक से mr तिन देव लोकोंके नाम सुनों । सर्वार्थसिद्धि १ वैजयन्त २ ग्रैवेयक ३ वैजयन्त ४ ऊ वे ५ वैजयन्त ६ मध्यग्र वेयक ७ वैजयन्त ८ अपराजित ६ वरणस्वर्ग १० पुष्पोत्तर बिमान ११ कापि स्वर्ग १२ शुक्रस्वर्ग १३ सहस्रारस्वर्ग १४ पुष्षोत्तर १५ पुष्पोवर १६ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ पग-पुराण पुष्पोत्तर १७ सर्वार्थसिद्धि १८ विजय १६ अपराजित २० प्राणत २१ वैजयन्त २२ आनत २३ पुष्पोत्तर २४ ये चौवीस तीर्थकरोंके आयने के स्वर्ग कहे। ___अब आगे चौवीस तीथंकरों की जन्मपुरिये जन्म-नक्षत्र माता पिता पर वैराग्यकेवृक्ष अर मोक्ष के स्थान मैं कहूँहूँ मो सुनो-अयोध्यानगरी पिता नाभि राजा माता मरुदेवी राणी उत्तराषाढ़ नक्षत्र वटवृक्ष कैलाश पर्वत प्रथम जिन, हे मगध देशके भूपति ! तुझे अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति करें ॥१॥ अयोध्यानगरी जितशत्रु पिता विजया माता रोहिणी नक्षत्र सप्तच्छद वृक्ष सम्मेद शिखर अजितनाथ, हे श्रेणिक ! तुझे मंगलके कारण हों ॥२॥ श्रावस्ती नगरी जितारि पिता सैना माता पूर्वाषाढ नक्षत्र शाल वृक्ष सम्मेद शिखर संभवनाथ तेरे भवबन्धन हरें ॥३॥ अयोध्या पुरी नगरी, मंवर पिता, सिद्धार्था माता पुनर्गसु नक्षत्र सालवक्ष सम्मेद शिखर अभिनन्दन तुझे कल्याणके कारण होवें ॥४॥ अयोध्यापुरी नगरी मेघषम पिता सुमंगला माता मघा नक्षत्र प्रियंगुवृक्ष सम्मेदशिखर सुमतिनाथ जगतमें महामंगल रूप तेरे सर्व विघ्न हरें ॥॥ कौशांबी नगरी धारण पिता सुमीमा माता, चित्रा नक्षत्र प्रियंगुवक्ष सम्मेदशिखर पद्मप्रभ तेरे काम क्रोधादि अमंगल हरें ॥६॥ काशीपुरी नगरी सुप्रतिष्ठ पिता पृथिवी माता पिशाखा नक्षत्र शिरीपवृक्ष सम्मेद शिखर सुपारगनाथ, हे राजन् ! तेरे जन्म जरा मृत्यु हरें ॥७॥ चन्द्रपुरी नगरी महासेन पिता लक्षणा माना अनुराथा नक्षत्र नागवृद सम्मेदशिखर चन्द्रप्रभ तुझे शान्ति भावके दाता होहु ॥८॥ काकन्दी नगरी सुग्रीव पिता रामा माता मूल नक्षत्र शाल वृक्ष सम्मेदशिखर पुष्पदन्त तेरे चित्तको पवित्र करें ॥४।। भद्रिकापुरी नगरी दृढरथ पिता सुनन्दा माता पूर्वापाढ नक्षत्र स वक्ष सम्मेदशिखर शीतलनाथ तेरे प्रिस्थिताप हरें ॥१०॥ सिंहपुरी नगरी विष्णु पिता विष्णुश्री देवी माता श्रवण नक्षत्र सिंदुकवृक्ष सम्मेदशिखर श्रेयांसनाथ तेरे विषय कपाय हरें ॥११॥ चम्पापुरी नगरी वासुपूज्य पिता विजयामाता शतभिषा नक्षत्र पाटनवृक्ष निर्वाण क्षेत्र चम्पापुरीका वन श्रीवासुपूज्य तोहि निर्वाण प्राप्त करें ॥१२॥ कंपिला नगरी कृतवर्मा पिता सुरम्या माता उत्तराषाढ नक्षत्र जम्बृवृक्ष सम्मेदशिखर विमलनाथ तुझे रागादि मलरहित करें ॥१३॥ अयोध्या नगरी सिंहसेन पिता सनशा माता रेवती नक्षत्र पीपलवृक्ष सम्मेदशिखर अनन्तनाथ तुझे अन्तरहित करें ॥१४॥ रत्नपुरी नगरी भानु पिता सुव्रता माता पुष्प नक्षत्र दधिपर्ण वृक्ष सम्मेदशिखर धर्मनाथ तुझे धर्मरूप करें ॥१॥ हस्तनागपुर नगर विश्वसेन रिता ऐरा माता भरणी नक्षत्र नीवृत सम्मेदशिखर शान्तिनाथ तुझे सदा शान्ति करें ॥१६॥ हस्तनागपुर नगर सूर्य पिता श्रीदेवी माता कृतिका नक्षत्र तिलकवक्ष सम्मेदशिखर कुंथुनाथ हे राजेंद्र ! तेरे पापडरणके कारण होवे ॥१७॥ हस्तनागपुर नगर सुदर्शन पिता मित्रा माता रोहिणी नक्षत्र आम्रवृक्ष सम्मेदशिखर अरनाथ हे श्रेणिक ! तेरे कर्मरज रें।।१८। मिथिल पुरी नगरी कंभ पिता रक्षिता माता अश्वनी नक्षत्र अशोकवृक्ष सम्मेदशिखर मल्लिनाथ हे राजा, तुझे मन शोकरहि । करें ॥१६॥ कुशाग्र नगर सुमित्र पिता पदभावती माता श्रवण नक्षत्र चम्पकवृक्ष सम्मेदशिखः मुनिसुव्रतनाथ सदा रं मनावणे Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ atest पर्व बसें ॥ २० ॥ मिथलापुरी नगरी विजय पिता वत्रा माता अश्विनी नक्षत्र मौलश्री वृच सम्मेदशिखर मिनाथ तु धर्मका समागम करें ||२१|| सौरीपुर नगर समुद्रविजय पिता शिवादेवी माखा चित्रा नक्षत्र मेषशृङ्ग बृत गिरनार पर्वत नेमिनाथ तुझे शिवमुखदाता होवें ॥ २२ ॥ काशीपुरी नगरी अश्वसेन पिता वामा माता विशाखा नक्षत्र धव वृच सम्मेद शिखर पार्श्वनाथ तेरे मनको धैर्य देवे ||२३|| कुण्डपुरनगर सिद्वार्थ पिता त्रियहारिणी माता उत्तरा फाल्गुनी नचत्र शालवृक पावापुर महावीर तुझे परम मंगल करें आप समान करें ||२४|| आगै चौवीस तीर्थंकरनिके निर्वाण क्षेत्र कहिए है-देवका निर्वाण कल्याण कैलारा १ वासुपूज्यका चम्पापुर २ नेमिनाथकन गिरिनार ३ महावीरका पावापुर ४ औरोंका सम्मेदशिखर है । शान्ति कुंथु पर ये तीन तीर्थंकर 'चक्रवर्ती भो भए अर कामदेव भी भए राज्य छोड वैराग्य लिया अर वासुपूज्य मल्लिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ पर महावीर ये पांच तीर्थंकर कुमार अवस्थामें वैरागी भए, राज भी न किया अर विवाह भी न किया । अन्य तीर्थकर महामंडलीक राजा भए राज्य छोड वैराग्य लिया घर चन्द्रप्रभं पुष्पदन्त ये दोय श्वेतवर्ण भए अर श्रीसुपार्श्वनाथ प्रियंगु मंजरीके रङ्ग समान हरिब वर्ण भए पर पार्श्वनाथका वर्ण कच्ची शालि समान हरित भया, पद्मप्रभका वर्ण कमल समान आरक्त भर वासुपूज्यका वर्ण टेसू के फूल समान भारत पर मुनिसुव्रतनाथका व अंजनगिरि समान श्याम पर नेमिनाथका वर्ण मोरके कंठ समान श्याम अर सोलह तीर्थंकर माया सोनेके समान वर्णक धारक भए । ये सर्व ही तीर्थकर इन्द्र धरणेंद्र चक्रवर्त्यादिकों से पूजने योग्य र स्तुति करने योग्य भए हैं अर सब होका सुमेरुके शिखर गंडुक शिला पर जन्माभिषेक भया सवहीक पंचकन्यापक प्रकट भए सम्पूर्ण कल्याणकी प्राप्तिका कारण है सेवा जिनकी, ते जिनेन्द्र तेरी अद्या हरें । या भांति गणधर देवने वर्णन किया । तब राजा श्रेणिक नमस्कारकर विनती करते भए कि हे प्रभू ! छहों कालविषै आयुका प्रमाण कहां अर पापकी निवृत्तिका कारण परम वस्त्र जो आत्मस्वरूप ताका वर्णन बारम्बार करो अर जिस जिनेन्द्र के अन्तराल में श्रीरामचन्द्र प्रकट भए सो आपके प्रसादसे मैं सर्व वर्गान सुना चाहूं हूँ ऐसा जब श्रेणिकन प्रश्न किया तब गणवरदेव कृपाकरि कहते भए । कैसे हैं गणथरदेव ? वीरसागर के जल समान निर्मल है चित्त जिनका, हे श्रोणक, काल नामा द्रव्य है खो अनन्त समय है ताकी आदि अन्न नाहीं ताकी संख्या कल्पनारूप दृष्टांत से पल्य सागरादि रूप महामुनि कई हैं। एक याजन प्रमाण लम्बा चौडा ऊदा गोल गर्त (गढ़ा ) उत्कृष्ट भोगभूमिका तत्कालका जन्मा हुआ भेडका बच्चा ताके रोमके अग्रभाग से भरिए सो गर्त घना गाढ़ा भरिए पर सौ वर्ष गये एक रोम का बाके वीते जो काल लागै ताके समस्तकी संख्याका प्रमाण होइ सी व्योहार पल्य कहिये । सो यह कल्पना दृष्टांतमात्र है किसीने ऐसा किया नाही । यासे असंख्यातगुणा उद्धार पन्य है या असंख्यातगुणा श्रद्धापन्य है ऐसी दश कोटाकोटी पल्य जाय तब एक सागर कहिये पर दश कोटाकोटी सागर जांय तब एक अवसर्पिणी कहिए । अर दस कोटाकोटी सागरको एक उत्सर्पिणी पर बीस कोटाकोटी सागरका कम्पकाल कहिये जैसे { Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ प एक माममें शुक्लपच भर कृष्णपच ये दोय वर्ते तैसे एक कल्पकालविषै एक अवसर्पिणी पर एक उत्सर्पिणी ये दोय वर्ते । इनके प्रत्येक वह २ काल है तिनमें प्रथम सुखमासुखमा काल चार कोटाकोटी सागरका है दूजा सुखमाकाल तीन कोटाकोटी सागरका है तीजा सुखमा दुखना दो कोटाकोटी सागरका है अर चौथा दुखमासुखमा काल बयालीस हजार वर्ष बाट एक छोटाकोटी सागरका है पांचवां दुखमा काल इक्कीस हजार वर्षका है छठा दुःखमा दुःखमा काल सो भी इक्कीस हजार वर्षका है यह अवसर्पिणी कालकी रीति कही। प्रथम कालसे लेव छठे काह पर्यंत आयु आदि सर्ग घटती भई अर यासे उलटी जो उत्सर्पमी तामें फिर छठेसे लेकर पहिले पर्यंत आयु काय बल पराक्रम बढ़ते गए । यह कालचक्रकी रचना जाननी ॥ सो जब तीजे काल में पल्यका आठवां भाग वाकी रहा वत्र श्रौदर कुलकर भए विनका कथन पूर्वकर आये हैं चौदहवें नाभिराजा तिनके आदि तीर्थंकर ऋषभ देव पुत्र भए विनके मोख गये पीछे पचास लाख कोटि सागर गये श्री अजितनाथ द्वितीय तीर्थंकर भये ताफे पीछे तीसलास कोटि सागर गये श्रीसंभवनाथ भये ताके पीछे दमलाख कोटिसागर गये श्री अभिनंदन भए ताके पीछे नवलाख कोटि सामर गए श्रीसुमतिनाथ भए ताके पीछे नब्बे हजार कोटि सामर गये श्री पद्मप्रभ भये ताके पीछे नवहजार कोटि सागर गये श्री सुपार्श्वनाथ भए ताके पीछे नौ सौ कोटि सागर गये श्री चंद्रम भए ताके पीछे नब्बे कोटि सागर गये श्रीपुष्पदंत भए ताके पीछे नत्र कोटि सागर गये श्री शीतलनाथ भए ताके पीछे सौसागर घाट कोटि सागर गये श्रेयांसनाथ भए ताके 'चव्वन सागर गए श्रीवासुपूज्य भए ताके पीछे तीस सागर मये श्रीविमलनाथ भए ताके पीछे नव सागर गये श्री अनंतनाथ भए ताके पीछे चार सागर गये श्री धर्मनाथ भए ताके पीछे पौन बन्य घाट तीन सागर गए श्रीशांतिनाथ भए ताके पीछे आधा पन्च गये भौकुंथुनाथ भए ताके पीछे हजार कोटी वर्ष घाट पाव पन्य गए श्रीमरनाथ भए ताके पीछे पैंसठलाख चौरासी हजार वर्ष घाट हजार कोटि वर्ष गए श्रीमल्लिनाथ भए ताके पीछे चौवनलाख वर्ष गए श्रीमुनि सुत्रतनाथ भए ताके पीछे वालाख वर्ष गए श्रीनमिनाथ भए ताके पीछे पांचलाख वर्ष गए श्रीनेमिनाथ भए ताके पीछे पौने चौरासी लाख वर्ष गए श्रीपाश्वनाथ भए ताके पीछे भढाई सौ वर्ष गए श्रीवर्द्धमान भए । जब वर्द्धमान स्वामी मोक्षको प्राप्त होवेंगे तब चौथे कालके तीन वर्ष सा आठ महीना बाकी रहेंगे भर इतने ही तीजे काल वाकी रहे थे तब श्री ऋषभ देव मुक्ति पवारे हुते ! हे श्रेणिक ! धर्मचक्र के अधिपति श्रीवर्द्धमान इन्द्रके मुकुटके रत्नोंकी जो ज्योति सोई भवा जल ताकर धोये हैं वर युगल जिनके सो तिनका भोद पधारे पीछे पांचवां काल लगेगा जामें देवोंका आगमन नाहीं अर अतिशयके धारक मुनि नाहीं, केवलज्ञानकी उत्पचि नाहीं, चक्रवर्ती बलभद्र र नारायणकी उत्पत्ति नाहीं, तुम सारिखे न्यायवान राजा नाहीं अनीतिकारी राजा होवेंये मर प्रजाके लोक दृष्ट महाडीठ परधन हरनेको उद्यमी होवेंगे, शीलरहित प्रवरहित महाक्लैश व्या विके भरे मिध्यादृष्टि घोरकर्मी होवेंगे घर अतिवृष्टि अनावृष्टि टिड्डी सूवा मूषक अपनी सेना भर पराई Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसणा पणे ५६५ सेना ये जो सप्त ईतियें तिनका भय सदा ही होगा। मोहरूप मदिराके माते रागद्वेषके भरे भौंह को टेडी करमाहारी करष्टि पापी महामानी कुटिल जीव होवेंगे कुवचनके बोलनेहारे करजीव धनके लोभी पृथ्वी पर ऐसे विचरेंगे जैसे रात्रिविणे घूधू विचरें अर जैस श्रागिया ( पट बीजना) समस्कार कर तैसे थोड़े ही दिन चमत्कार करेंगे । वे मूर्ख दुर्जन जिनधर्मसे परांगमुख कुधर्मविणे आप प्रवरतेंगे औरोंको प्रवरतावेंगे परोपकार सहित पराये कार्यों में निरुद्यमी आप इवेंगे औरों को डुबायेंगे। ते दुर्गतिगामी मापको महन्त मानेंगे ते क्रूर कर्म भदोन्मत्त अनर्थकर माना है वर्ष जिकोंने, मोहरूप अन्धकारसे अंधे कलिकालके प्रभावसे हिंसा रूप जे कुशास्त्र तेई भए कुठार तिनसे अज्ञानी जीवरूप पक्षोंको काटेंगे, पंचम कालके आदिमें मनुष्योंका सात हाथका शरीर ऊंचा होयगा भर एक सौ बीस वर्षकी उत्कृष्ट प्रायु होयगी फिर पंचम कालके अंत दोय हाथ का शरीर पर बीस वर्षकी आयु उत्कृष्ट रहेगी बहुरि छठेके अन्त एक हाथका शरीर उत्कृष्ट सोला वर्षकी आयु होगी । ते छठे कालके मनुष्य महाविरूप मांसाहारी महादुखों पापक्रिया रत महारोगी तियंच समान अज्ञानी होयेंगे न कोई सम्बन्ध न कोई व्यवहार न कोई ठाकुर न कोई चाकर न राजा न प्रजा न धन न घर न सुख, महादुखी होवेंगे। अन्याय कामके सेवनहारे धर्मके आचारसे शन्य महा पापके स्वरूप होवेंगे जैसे कृष्ण पक्षमें चंद्रमाकी कला घटे अर शुक्ल पचमें बढ़े तैसे अवसपंखी कालमें घटे उत्सर्पणीमें बड़े अर जैसे दक्षिणायनमें दिन घटे भर उत्तरायखविणे वढे तैसे अपसर्पली उत्सर्पली दोनों में हानि पृद्धि प्राननी । यह तीर्थकरनिका अंतराल कथा ॥ अथानन्तर हे श्रेलिक ! अब तू तीर्थकरोंके शरीरकी ऊंचाईका कथन सुन-प्रथम तीर्थकारका शरीर पांचसौ धनुष ५००, दूजेका साढे चार सौ धनुष ४५०, तीजेका चार सौ धनुर ४००, चौथेका साढ़े तीन सौ धनुष ३५०, पांचवेंका तीन सौ धनुष ३००, छठेका हाई सौ धनुष २५०, सातका दो सौ धनुष २००, पाठवेका डेढ सौ धनुष १५०, नौवेंका सौ धनुष १००, बसवेंका वब्बे पनुष १०, ग्यारहवेंका अस्सी धनुष ८०, बारहवेंका सत्तर धनुष ७०, तेरहवेंका साठ धनुष ६०, चौदहका पनास धनुष ५०, पंद्रहवेंका पैंतालीस धनुष ४५, सोलका चालीस मनुप ४०, सत्रका पैंतीस धनुष ३५, अठारहवेंका तीस धष ३०, उनीसवेंका पच्चीस थनुए २५. पीसवेंका घीस धनुष २०, इक्कीसवेंका पन्द्रह धनुष १५, बाईसवेंका दश अनुष १०, तेइसबैंका नौ हाथ 8, पोवीसवेंका सात हाथ ७ । अब आगे इन चावासों तीथे रोंका श्रायुका प्रमाण काहिए,-प्रथमका चौरासी लाख पूर्व, सो पूर्व कहा कहिए --चौरासी लाख वर्षका एक पूलांग चौरासी लाख पूर्वागका एक पूर्व होय है। अर दलेका बहना लाख पूर्व, गांजे का साठ लाख पूर्व, चौथेका पचास साल पूर्व, पांचवेंका चालीस लाख पूर्व, छठेका तार लाख ठग, जातका बीस लाख पूर्ण, आठवेंका दश लाख पूर्ण, नवमेंका दोय लाख पूर्ण, दशवेंका लाख पून, ग्यारहवेंका चौरासी लाख वर्ष, भारहवेंका यहत्तर लाख वर्ष, बेरहवें का साठ लाख वर्ष, चौदहवेंका तीस लाख वन, पका दश सात वर्ण, सोलवेका बाल वर्ग, सत्रहवेंका पानवे हजार वर्ग, अठारवेंन Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० पग-पुराण चौरामी हजार वर्ण, उन्न मवेंका पर्चा न ५५ हजार वर्ष, बोसवेंका तीस हजार वर्ष, इक्कीसवें का दश हज र वर्ष, बाईसवेंका हजार वर्ष, तेईसवेंका सौ वर्ण, चौबीसवें का बहरार वर्षका मायु प्रमाण जानना। ___अथानन्तर ऋषभदेवके पहिले जे चौदह कुलकर भए तिनके कायका वर्णन करिए हैप्रथमकुलकर की काय अठारहमो धनुप, दूसरेकी तेरासो धनुन, तीसरेकी पाठलो थनुर, चोथेकी सात सो पिचत्तर धनुष, पांचवेंको साढे सातसो धनुष, छठे की सवा सातमो धनुष, सातवेंकी सासो धनुष, आठवेंकी पौने सातसो धनुष, नवमें की माढ़े छैना धनुष. दम की सवा छैसो धनुष, ग्यारबेकी छैनों धनुष, बारवेंकी पौन छैपो धनुष, तरवका साढे पांचसा धनुष, चौदहवेंकी सवा पांचसो धनुष । अब इन कुलकरों की आयु का वर्णन करें हैं—पहिलेकी आयु पल्यका दसमा भाग, दूजेकी पल्पका सौयां भाग, तीजेकी पत्यका हजारवां भाग, चौथे की पल्यका दस हजारवां भाग पांचौकी पन्यका लाखयां भाग, छठे की पल्यका दसलाखो भाग, सातवेंकी पल्यका कोड़यां भाग, आठवेंकी पल्यका दस कोडयां भाग, नीमको पल्यका सोकोडवां भाग, दशवेंका पल्यका हजार कोडवां माग, ग्यारवेंको पन्यका दस हजार कोड: भाग, बारवेंकी पन्यका लाख कोडवां माग, तेरवेंकी पत्यका दस लाख कोड. भाग, चौदहव का कोट पूर्व की आयु भई । आग बारह चक्रवर्तक भवांतर कहै हैं-प्रथम चक्रवर्ती भरत श्रीऋषभदेवके यशोवती राणी ताको नंदाह कहै है साके पुत्र भया भरतक्षेत्रका प्रथिते, पूर्वभवविष डराकनी नगरोविष पीठ नाम राजकुमार थे। ते कुशसेन स्वामीके शिष्य हाय मुनत धर सर्वार्थसिद्धि गए तहान चयकर षट् खण्डका राज्य कर फिर मुनि होय अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान उपजाय निर्वाणको प्राप्त भए बहुरि पृथिवीपुर नामा नगरविषे राजा विजय ते यशोधरा नामा मुनिके निकट जिनदीक्षा धर विजयनाम विमान गए, तहति चयकर अयोध्याविर्ष राजा विजय राणी सुमंगला तिनके पुत्र सगर द्वितीय चक्रवर्ती मए, ते महाभोग भोगकर, इन्द्रसभान देव विद्याधरोस धारिये है श्राज्ञा जिनकी। वे पुत्रोंके शोकसे राज्यका त्यागकर अजितनाथके समोशरणमं मुनि दाय केवल उपजाय सिद्ध भए बहार पुंडरीकनी नामा नगरविष एक राजा शशिप्रभ ते विमल स्वामीका शिष्य होय अवेयक गये तहान चयकर श्रावस्ती नगरीमें राजा सुमित्र राणी भद्रपती तिनके पुत्र मघवा नाम तृतीय चक्री भए । तक्ष्मीरूप वेलके लिपटने का वृन । ते श्रीधर्मनाथ स्वामीक पाछे शांतिनाथके उपजनेसे पहिले भए समाधानरूप जिनमुद्रा धार सौधर्म स्वर्ग गए बहुरि चाथे चक्रवर्ती जे श्रीसनत्कुमार भए तिनकी आपकी गौतम स्वामीने बहुत बडाई करी तव राजा श्रांणक पूछते भए-हे प्रभा! कोन पुण्यकरि ऐसे रुपवान भए तब उनका चरित्र संघपताकर गणधर कहते भए । कैसा है सनत्कुमारका चरित्र ? जो सौ वर्षवि भी कोऊ कहनेको समर्थ नाहा यह जीव जब लग जैनधर्मको नहीं प्राप्त होय है तब मग तिथंच नारकी कुभानुष कुदेव गतिवि दुःख भोगे है जीवोंने अनन्त भव किए सोको लम कहिए परन्तु एक भव काहर हैं। एक गोवर्धन नामा ग्राम जहां भले मनुष्य बसें तहां एक बिनदर नाना पावक बडा गुरुस्था जैसे व जज स्थानसे. सागर शिराजगी है अरब मेरो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसेवा प ३०१ में सुमेरु र सर्वग्रहोंचिषै सूर्य, विषे इतु, बेलों विषै नागरवेल, वृक्षोंविषै हरिचन्दन प्रशंसा योग्य हैं तैसे कुलोंमें श्रावकका कुल सर्वोत्कृष्ट आचारकर पूजनीक है सुगतिका कारण है सो जिनदत्त नामी श्रावक गुण रूप आभूषणोंकर मंडित श्रावकके व्रत पाल उत्तम गतिको गया अर arat स्त्री विनयवती महापतिव्रता श्रावकके व्रत पालनहरी सो अपने घरकी जगहमें भगवानका चैत्यालय बनाया सकल द्रव्य तहाँ लगाय आर्या होय महातपकर स्वर्ग में प्राप्त भई अर ताही ग्राम में एक और हेमबाहु नामा गृहस्थ आस्तिक दुराचार से रहित सो विनयवतीका कराया जो जिनमन्दिर ताकी भक्तिकरि यवदेव भया सो चतुविधि संत्रकी सेवा में सावधान सम्यकदृष्टि जिनबन्दना में तःपर, सो चयकर मनुष्य भया बहुरि देव बहुरि मनुष्य । या भांति भत्र घर महापुरी नगरी में सुप्रभ नामा राजा ताके तिलकमुन्दरी रानी गुणरूप आभूषण की मंजूषा ताके धर्मरुचि नामा पुत्र भया, सो राज्य तज सुप्रभ नामा पिता जो मुनि ताका शिष्य होय मुनिव्रत अंगीकार करता भया । पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्तिका प्रतिपालक आत्मध्यानी गुरुसेवामें अत्यंत तत्पर, अपनी देहविषै अत्यन्त निस्पृह, जीव दयाका धारक, मन इन्द्रियोंका जीवनहारा, शीलका सुमेरु, शंका आदि जे दोष तिनसे अति दूर, साधुत्रों का वैवाव्रत करनहारा, सो समाधिमरणकर चौथे देवलोकविषै गया तहां सुख भोगता भया तहांसे चयकर नागपुर में राजा विजय राणी सहदेव । तिनके सनत्कुमार नामा पुत्र चौथा चक्रवर्ती भागा। छह खण्ड पृथ्वीमें जाकी आज्ञा प्रवरती सो मह रूपवान, एक दिवस सौधर्म इन्द्रने इनके रूपकी अति प्रशंसा करी सो रूप देखने को देव आये सो प्रछन्न आयकर चक्रवत्तका रूप देखा ता समय चक्रवर्तीने कुस्तीका अभ्यास किया था सो शरीर रजकर धूसरा होय रहा था श्रर सुगन्ध उबटना लगा था र स्नानकी एक धोती ही पहने नाना प्रकारके जे सुगन्ध जल तिनसे पूर्ण नानाप्रकार रत्नोंके कलश तिनके मध्य स्नानके आसनपर विराजे हुते सो देव रूपको देख श्राश्चर्यको प्राप्त भए परस्पर कहते भए जैसा इन्द्रने वर्णन किया तैसा ही है । यह मनुष्यका रूप देवोंके चित्तको मोहित करणहारा है । बहुरि चक्रवर्ती स्नानकर वस्त्राभरण पहर सिंहासन पर बाय विराजे रत्नाचलके शिखर समान है ज्योति जाकी अर वह देव प्रकट होकर द्वारे आय ठाढ़े रहे अर द्वारपाल से हाथ जोड़ चक्रवर्ती को कहलाया जो स्वर्ग लोकके देव तिहारा रूप देखने आए हैं तब चक्रवर्ती अद्भुत शृङ्गार किये विराजे हुते ही तब देवोंके आनेकर विशेष शोभा करी तिनको बुलाया ते आय चक्रवर्तीका रूप देख माथा धुनते भये र कहते भए - एक क्षण पहिले हमने स्नान के समय जैसा देखा था तैसा अब नहीं, मनुष्योंके शरीरकी शोभा क्षणभंगुर है, धिकार है इस असार जगतकी माया को । प्रथम दर्शनमें जो रूप यौवन की अद्भुतता थी सो क्षणमात्रमें ऐसे विलाय गई जैसे विजुली चमत्कार कर क्षणमात्र में विलाय जाय है । ये देवोंके वचन सनत्कुमार सुन रूप र लक्ष्मीको क्षणभंगुर जान वीतराग भावधर महामुनि होय महातप करते भए, महाऋद्धि उपजी पुनि कर्मनिर्जरा निमित्त महारोगकी परीपह सहते भये महा ध्यानारूढ होय २६. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण २०२ समाधिमरणकर सनत्कुमार स्वर्ग सिधारे। वे शान्तिनाथके पहिले अर मघवा तीजा चक्रवर्ती ताके पीछे भये अर पुण्डरीकनी नगरीमें राजा मेघरथ वह अपने पिता धनरथतीर्थकरके शिष्य मुनि होय सर्वार्थसिद्धिको पथारे तहांतें चयकर हस्तनागपुरमें राजा विश्वसेन राणी ऐरा तिनके शांतिनाथ नामा सोलवें तीर्थकर अर पंचम चक्रवर्ती भए । जगतको शांतिके करणहारे जिनका जन्म कल्याणक सुमेरु पर्वतपर इन्द्रने किया बहुरि पटखण्डके भोक्ता भए । तृण समान राज्यको जान तजा मुनित्रत धर मोक्ष गये । बहुरि कुंथुनाथ छठे चक्रवर्ती सत्रहवें तीर्थंकर अरनाथ सातवें चक्रवर्ती अठारवें तीर्थंकर ते मुनि होय निर्वाण पथारे सो तिनका वर्णन तीर्थंकरोंके कथनमें पहिले कहा ही है अर ध्यानपुर नगरमें राजा कनकप्रभ सो विचित्रगुप्त स्वामीके शिष्य मुनि होय स्वर्ग गए तहांतें चयकर अयोध्या नगरीमें राजा कीर्तिवीर्य राणी तारा तिनके सुभूम नामा अष्टन चक्रवर्ती भये जाकर यह भूमि शोभायमान भई तिनके पिताका मारणहारा जो परशुराम ताने क्षत्री मारे हुते अर तिनके सिर थंभनविष चिनाये थे सो सुभूम अतिथिका भेषकर परशुरामके भोजनकों आये। परशुरामने निमित्तज्ञानीके वचनसे क्षत्रियनिके दांत पात्रमें मेल सुभूमको दिखाए तब दांत क्षीरका रूप होय परणये पर भोजनका पात्र चक्र होय गया ताकरि परशुरामको मारा । परशुरामने क्षत्री मार पृथ्वी सातवार निक्षत्री करी हुती सो सुभूमिने परशुरामको मार इक्कीस वार पृथ्वी अव्राह्मग करी जैसे परशुरामके राज्यमें क्षत्रीकुल छिपाय रहे हुते तैसे याके राज्यमें विप्र अपने कुल छिपाये रहे सो स्वामी अरनाथ के मुक्ति गये पीछे पर मल्लिनाथके होयवे पहिले सुभूम भये, अतिभोगासक्त निर्दश्परिणामी अव्रती मरकर सारवें नरक गये अर वीतशोका नगरी में राजा चित् सी सुप्रभ स्वामीके शिष्य मुनि होय ब्रह्मस्वर्ग गये तहांतें चयकर हस्तिनागपुरवि राजा पत्ररथ राणी मयूरी तिनके मह पद्म नामा नौमे चक्रवर्ती भये । पटखण्ड पृथ्वी के भोक्ता जिनके आट पुत्री महारूपवन्ती सो रूपके अतिशयसे गर्वित तिनके विवाहकी इच्छा नहीं सो विद्याधर तिन को हर ले गये सो चक्रवर्तीने छुड़ाय मंगाई। ये आठों ही कन्या प्रापिकाके व्रतधर समाधिमरणकर देव लोकमें प्राप्त भई अर जे विद्याधर इनको ले गये हुते ते भी विरक्त हाय मुनिव्रत धर आत्मकल्याण करते भए । यह वृत्तांत देख महापन चक्रवर्ती पत्र नामा पुत्रको राज्य देय विष्णु नामा पुत्रसहित पैरागी भए महातपकर केवल उपजाया मोक्षको प्राप्त भए । यह अरनाथ स्वामीके मुक्ति गये पीछे अर मल्लिनाथके उपजनेसे पहिले सुभमके पीछे भए अर विजय नामा नगरविषे राजा महेन्द्रदत्त, ते अभिनन्दन स्वामी के शिष्य मुनि होय महेंद्र स्वर्गको गए तहांसे चयकर कंपिल नगरीमें राजा हरिकेतु ताकी राणी वा तिनके हरिषेण नामा दमवें चक्रवर्ती भए तिनने सर्व भरतक्षेत्रकी पृथ्वी चैत्यालयोंकर मंडित करी अर मुनिसुव्रतनाथ स्वामीफे तीर्थ में मुनि होय सिद्धिपदको प्राप्त भये पर राजपुर नामा नगरमें राजा जो असीकांत थे वह सुधर्ममित्र स्वामीके शिष्य मुनि होय ब्रह्मस्वर्ग गये तहांसे चयकर राजा विजय राणी यशोवती तिनके जयसेन नामा ग्यारवें चक्रवर्ती भए । ते राज्य तब दिगम्बरी दीक्षा घर रत्नत्रयका आराथनकर सिद्ध पदको प्राप्त भए । यह श्रीमुनिसुव्रतनाथ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां पर्व स्वामीके मुक्ति गए पीछे नमिनाथ स्वामी के अन्तराल भये अर काशीपुरोमें राजा सम्भूत, ते स्वतन्त्रलिङ्ग स्वामीके शिष्य मुनि होय पद्मयुगल नामा विमानयिौ देव भए तहांतें चयकर कंपिल नगरमें राजा ब्रह्मरथ राणी चूला तिनके ब्रह्मदत्त नामा बारवें चक्रवर्ती भए। ते के खंड पृथ्वीका राज्यकर मुनिव्रत विना रौद्रध्यानकर सातवें नरक गये । यह श्रीनेमिनाथ स्वामीको मुक्ति गये पीछे पार्श्वनाथ स्वामीके अन्तरालमें भए । ये बारह चक्रवर्ती बडे पुरुष हैं, छै खण्ड पृथिवीके नाथ जिनकी आज्ञा देव विद्याथर सब ही मान हैं। हे श्रेणिक ! तोहि पुण्य पापका फल प्रत्यक्ष कहा सो यह कथन सुनकर योग्य कार्य करना अयोग्य काम न करना जैसे घटसारी पाथेय विना कोई मार्गमें चले तो सुखसे स्थानक नहीं पहुंचे तैसे सुकृत विना परलोकमें सुख न पावै कैलाशके शिखर समान जे ऊचे महल तिनमें जो निवास कर है सो सर्व पुण्यरूप वृक्षका फल है पर जहां शीत उष्ण पवन पानीकी बाथा होय ऐसी कुटियों में बसे हैं दरिद्ररूप वीच पसे हैं सो सर्व अधर्मरूप वृक्षका फल है। विन्ध्याचल पर्वत के शिखर समान ऊचे जे गजराज उनपर चढ़कर सेनासहित चले हैं चंवर दुरे हैं सो सर्व पुण्यरूप वृक्षका फल है, जे महा तुरझोंपर चमर दुरते अर अनेक असवार पियादे जिनके चौगिर्द चले है सो सब पुण्यरूप राज का चरित्र है पर देवोंके विमान समान मनोज्ञ जे रथ तिनपर चढ़कर जे मनुष्य गमन करें हैं सो पुण्यरूप पर्वतके मीठे नीझरने हैं अर जो फटे पग अर फाटे मैले कपड़े अर पियादे फिरे हैं सो सब पापरूप वृक्षका फल है भर जो अमृत सारिखा अन्न स्वर्णक पात्रमें भोजन कर हैं सो सब धर्म रसायनका फल मुनियोंने कहा है । जो देवोंका अधिपति इन्द्र अर मनुष्य का अधिपति चक्रवर्ती तिनका पद भव्यजीव पावै हैं सो सब जीवदयारूप बेलका फल हैं। कैसे हैं भव्यजीव १ कर्मरूप कंजरको शार्दूल समान हैं अर राम कहिए बलभद्र केराव कहिए नारायण तिनके पद जो भव्यजीव पावै हैं सी सब धर्मका फल हैं। हे श्रेणिक ! आगे वासुदेवोंका वर्णन करिये है सो सुनि-या अवसर्पणीकालके भरतक्षेत्र के नव वासुदेव हैं प्रथम ही इनके पूर्व मवकी नगरियोंके नाम सुनो-हस्तिनागपुर १ अयोध्या २ श्रावस्ती ३ कौशांबी ४ पोदनापुर ५ शैलनगर ६ सिंहपुर ७ कौशांबी ८ हस्तनागपुर है। ये नव ही नगर कैसे है ? सर्व ही द्रव्यके भरे हैं अर ईतिभीतिरहित हैं। अब वासुदेवोंके पूर्वभवके नाम सुनी-विश्वानन्दी १ पर्वत २ धनमित्र ३ सागरदत्त ४ विकट ५ प्रिय मित्र ६ मानचेष्टित ७ पुनर्वसु ८ गंगदेव जिसे निर्णामिक भी कहे हैं । ये नव ही वासुदेवोंके जीव पूर्वभवविष विरूप दौर्भाग्ययुक्त राज्यभ्रष्ट होय हैं बहुरि मुनि होय महातप करे हैं बहुरि निदानके योगतें स्वर्गविष देव होय तहाँसे चयकर बलभद्रके लघुधाता बासुदेव होय हैं तातै तपसे निदान करना ज्ञानियोंको वर्जित है। निदान नाम भोगाभिलाषका है सो महाभयानक दुख देनेको प्रवीण है । भागे वासुदेवोंके पूर्वभवके गुरुवोंके नाम सुनो, जिनपै इन्होंने मुनिव्रत श्रादरे-संभूत १ सुभद्र २ वसुदर्शन ३ श्रेयांस ४ भूतिसंग ५ वसुभूति ६ घोपसेन ७ परांभोधि ८ द्रुमसेन है। अब जिस जिस स्वर्गसे पाय वासुदेव भये जिनके नाम सुनो-महाशुक्र १ प्राणत २ लांतव ३ सहस्रार Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण ४ ब्रह्म ५ महेंद्र ६ सौधर्म ७ सनत्कुमार ८ महाशुक्र ।। आगे वासुदेवोंकी जन्मपुरियोंके नाम सुनो-पोदनापुर १ द्वापुर २ हस्तनागपुर ३ वहुरि हस्तनागपुर ४ चक्रपुर ५ कुशाग्रपुर ६ मिथिलापुर ७ अयोध्या ८ मथुरा है। ये वासुदेवोंके उत्पत्तिके नगर हैं । कैसे नगर हैं ? समस्त धन धान्य कर पूर्ण महाउत्सवके भरे हैं। आगै वासुदेवोंके पिताके नाम सुनो-प्रजापति १ ब्रह्मभूत २ रौद्रनन्द ३ सौम ४ प्रख्यात ५ शिवाकर ६ अग्निनाद ७ दशरथ ८ वसुदेव ह बहुरि इन नव वासदेवोंकी माताओंके नाम सुनो-मृगावती १ माधवी २ पृथिवी ३ सीता ४ अंबिका ५ लक्ष्मी ६ केशिनी ७ सुमित्रा ८ देवकी है । ये नव ही वासुदेवोंकी नव माता कैसी है अतिरूपगुणोंकर मंडित महा सौभाग्यवती जिनमती हैं। आगे नव वासुदेबोके नाम सुनोत्रिपृष्ट १ द्विपृष्ट २ स्वयंभू ३ पुरुषोत्तम ४ पुरुषसिंह ५ पुंडरीक ६ दत्त ७ लक्ष्मण ८ कृष्ण है। प्रागै नव ही वासुदेवोंकी पटराणियोंके नाम सुनो-सुप्रभा १ रूपिणी २ प्रभवा ३ मनोहरा ४ सुनेत्रा : विमलसुंदरी ६ आनन्दवती ७ प्रभावती ८ रुक्मणी है ये वासुदेवोंकी मुख्य पटराणी कैनी हैं ? महागुण कलानिपुण धर्मवती बताती हैं। अथाननर नव बलभद्रोंका वर्णन सुनो-सो पहिले नव ही बलभद्रोंकी पूर्वजन्मकी पुरियोंके नाम कहै हैं-पुंडरीकनी १ पृथिवी २ आनन्दपुरी ३ नन्दपुरी ४ वीवशोका ५ विजयपुर ६ सुमीमा ७ क्षेमा ८ हस्तनागपुर । और बलभद्रोंके पूर्व जन्मके नाम सुनो-बाल१ मारुदेवर नंदि मित्र ३ महावल ४ पुरुषर्षभ ५ सुदर्शन ६ वसुधर ७ श्रीचंद्र ८ शंख है। अब इनके पूर्ण भवके गुरुवोंके नाम सुनो जिनपै इन्होंने जिनदीक्षा श्रादरी । अमृतासार १ महासुब्रत २ सुव्रत ३ वृषभ ४ प्रजापाल ५ दम्बर ६ सधर्म ७ प्रार्णव ८ विद्रम है। बहुरि नव वलदेव जिन २ देवलोकोंसे आये तिनके नाम सनो-तीन वलभद्र तो अनुत्तरविमानतें आए अर तीन सहस्रार स्वर्गसे आये दो ब्रह्मस्वर्गत आए एक महाशुक्रतै आया। अब इन नव बलभद्रोंकी मातानिके नाम सुनो-क्योंकि पिता तो इन बलभद्रोंक और नारायणोंके एक ही होय हैं । भद्रांभोजा १ सुभद्रा २ सुवेषा३ सुदर्शना४ सुप्रभा५ विजया६ वैजयंती७ अपराजिता जाहि कौशिल्या भी कहै हैं- रोहिणी है। नव वलभद्र नव नारायण तिनमें पांच बलभद्र पांच नारायण तो श्रेयांसनाथ स्वामीके समय आदि धर्मनाथ स्वामी समय पर्यंत भये और छठे और सातवें अरनाथ स्वामीको मुक्ति गए मल्लिनाथ स्वामीके पहिले भये और अष्टम बलभद्र वासुदेव मुनिसुव्रतनाथस्वामीको मुक्ति गये नमिनाथ स्वामीके समय पहिले भये । अर नबमे श्रीनेमिनाथके काकाके बेटे भाई महाजिनभक्त अद्भुत क्रियाके थारण हारे भए । अब इनके नाम सुनो-१ अचल २ विजय३ भद्र४ सुप्रभ५ सुदर्शन ६ नंदिमित्र (आनन्द)७ नन्दिषेण (नन्दन)८ रामचन्द्रह पद्म । आगे जिन महामुनियोपै बलभद्रोंने दीक्षा थरी तिनके नाम कहिये हैं-सुवर्णकुम्भ १ सत्यकीर्ति २ सुधर्म ३ मृगांक ४ श्रुतिकीर्ति ५ सुमित्र ६ भुवनश्रुत ७ सुब्रत ८ सिद्धार्थ है । यह बलभद्रोंके गुरुवोंके नाम कहे महातपके मारकर कर्मनिर्जराके करणहारे तीन लोकमें प्रकट है कीति जिनकी नव बलभद्रोंमें पाठ तो कर्मरूप वनको भस्म कर मोक्ष प्राप्त भये। कैसा हैं संसार वन ! माकुलताको प्राप्त भए हैं नाना प्रकारकी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्कीमनी पर्ग २०५ व्याधि कर पीड़ित प्राणी जहां बहुरि वह वन काल रूप जो व्याघ्र साकरि अति भयानक है भर कैसा है यह वन ? अनन्त जन्मरूप जे कंटक वृक्ष तिनका है समूह जहां बिजय बलभद्र आदि श्रीरामचन्द्र पयंत आठ तो सिद्ध भए और पद्मनामा जो नवमां बलभद्र वह ब्रह्म स्वर्गमें महाऋद्धिका धारी देव भया। अब नारायणोंके शत्रु जे प्रतिनारायण तिनके नाम सुनो-अश्वग्रीव १ तारक २ मेरक ३ मधुकैटभ ४ निशुम ५ बलि ६ प्रल्हाद ७ रावण ८ जरासिंध है। अब इन प्रतिनारायणोंकी राजथानियोंके नाम सुनो, अलका १ विजयपुर २ नन्दनपुर ३ पृथ्वीपुर ४ हरिपुर ५ सूर्यपुर ६ सिंहपुर ७ लंका ८ राजगृही है । ये नौ ही नगर कैसे हैं महारत्न जडा अनि देदीप्यमान स्वर्ग लोक समान हैं। हे श्रेणिक ! प्रथम ही श्री जिनेन्द्रदेवका चरित्र तुझे कहा बहुरि भरत आदि चक्रवर्तियों का कथन कहा और नारायण बलभद्र तिनका कथन कहा इनके पूर्व जन्म सकल वृत्तांत कहे पर नव ही प्रतिनारायण तिनके नाम कहे । ये वेसठ शलाकाके पुरुष हैं तिनमें कैयक पुरुष तो जिन भाषित तपसे ताही भवमें मोक्ष को प्राप्त होय हैं, कैयक स्वर्गको प्राप्त होग हैं पीछे मोक्ष पावै हैं भर कैयक जे वैराग्य नहीं धरे हैं चक्री तथा हरि प्रतिहरे ते कैाक भववर फिर तपकर मोक्षको प्राप्त होय हैं। ये संसारके प्राणी नाना प्रकारके जे पाप तिनकार मलीन मोहरूप सागरके भमरमें मग्न महा दुःखरूप चार गति तिनमें भ्रमण कर तप्तायमान सदा व्याकुल होय है ऐसा जानकर जे निकट संसारी भव्य जीव हैं ते संसारका भ्रमण नहीं चाह हैं, मोह तिमिरका अंतकर सूर्य समान केवलज्ञानका प्रकाश करे हैं। इति श्रीरविषेणाचा विरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविणे चौदह कुलकर, चोबोस तीर्थंकर; वारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण नव वलभद्र, ग्यारह रुद्र, इनके माता पिता पूर्ण भव नगरीनिक नाम पूर्ण गुरु कथन नाम वर्णन करनेवाला बीस पर्व पूर्ण भया ।। २०॥ अथानन्तर गौतम स्वामी कहै हैं-हे मगधाधिपति ! श्रागै अष्टम बलभद्र जो श्रीरामचन्द्र, तिनका सम्बन्ध कहिये हैं सो सुनहु-अर राजनिके वंश अर महा पुरुषनिकी उत्पत्ति, तिनका कथन कहिये हैं सो उरमें धारहु । भगवान दशम तीर्थकर जे श्रीशीतलनाथ स्वामी तिनको मोच गए पीछे कौशांबी नगरी में एक राजा सुमुख भया अर ताही नगर में एक श्रेष्ठी वीर ताकी स्त्री बनमाला सो अज्ञानके उदयतें राजा सुमुखने घरमें राखी फिर विवेकको प्राप्त होय मुनियोंको दान दिया सो मरकर विद्याधर भया ओर वह बनमाला विद्याधरी भई सोता विद्याधरने परणी एक दिवस ये दोनों क्राडा करनेको हरिक्षेत्र गये अर वह श्रेष्ठी वीर बनमालाका पति विरहरूप अग्नि कर दग्धायमान सो तपकर देवलोकको प्राप्त भया, एक दिवस अवधिकर वह देव अपने बैरी सुमुख के जीवको हरिक्षेत्रमें क्रीडा करता जान क्रोधकर तहांसे भार्यासहित उठाय लाया सो या क्षेत्रमें Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण हरि नामकरि प्रसिद्ध भया जाही कारणसे याका कुज हरिवंश कहलाया। ता हरिके महागिरि नाम पुत्र भया ताके हिमगिरि ताके वसुगिरि ताके इंद्रगिरि ताके रत्नमाल ताके संभूत ताके भूतदेव इत्यादि सैकडों राजा हरिवंशविणै भये । ताही हरिवंशमें कुशाग्रनामा नगरविणै एक राजा सुमित्र जगविणे प्रसिद्ध भया । कैमा है राजा सुमित्र ? भोगोंकर इंद्र ममान, कांतिकरि जीता है चंद्रमा जाने अर दीप्तिकर जीता है सूर्य अर प्रतापकर नवाए हैं शत्र जाने। ताके राणी पद्मावती कमल सारिखे हैं नेत्र जाके, शुभ लक्षणोंसे संपूर्ण अर पूर्ण भए हैं सकल मनोरथ जाके, सो रात्रीविष मनोहर महल में सुखरूप सेजपर सूती हुती सो पिछले पहर सोलह स्वप्न देखे-गजराज १, वृषभ २, सिंह ३, लक्ष्मी स्नान करती ४, दोय पुष्पमाला ५, चंद्रमा ६, सूर्य ७, दो मच्छ जलमें केलि करते ८, जलका भरा कलश कमल समूहसे मुंह ढका ६, सरोबर कमल पूर्ण १०, समुद्र ११, सिंहासन रत्नजटित १२, स्वर्गलोकके विमान आकाशते श्रावते देखे १३ अर नागकुमारके विमान पातालसे निकसते देखे १४, रत्नोंको राशि १५, निर्ध म अग्नि १६ । तब राखी पद्मावती सुवुद्धिवंती जागकर आश्चर्य भया है चित्त जाका, प्रभात क्रियाकर विनयरूप भरतारके निकट आई, पलिके सिंहासन पर विराजी, फूल रहा है मुख कमल जाका, महान्यायका वेत्ता, पतिव्रता हाथ जोड नमस्कार कर पतिसे स्वप्नोंका फल पूछती भई, तब राजा सुमित्र स्वप्नोंका फल यथार्थ कहते भए । तब ही रत्नोंकी वर्षा आकाशसे वरमती भई । साढे तीन कोटि रत्न एक संध्यामें वरसे सो त्रिकाल संध्या वर्षा होती भई । पन्द्रह महीनों लग राजाके घरमें रत्नपारा वर्षी अर जे पट कुमारिका ते समस्त परिवार सहित माताकी सेवा करती भई अर जन्म होते ही भगवानको क्षीरसागरके जलकरि इन्द्र लोकपालों सहित सुमेरु पर्वत पर स्नान करावंते भए अर इन्द्रने भक्तिसे पूजा भर स्तुति कर नमस्कार करी फिर सुमेरुसे ल्याय माताकी गोदमें पथराये। जबसे भगवान माताके गर्भमें पाए तब हीते लोक अणुव्रत अर महाब्रतमें विशेष प्रवरते अर माता व्रतरूप होती भई तातें पृथ्वीविणे मुनिसुव्रत कहाए । अंजनगिरि समान है वर्ण जिनका, परन्तु शरीरके तेजसे सूर्य को जीतते भए अर कांतिकर चंद्रमा को जीतते भए सर्व भोग सामग्रो इन्द्रलोकतै कुवेर लावे अर जैसा आपको मनुष्य भवमें सुख है तैसा अहमिद्रोंको नाहीं भर हाहा हूहू तुंवर नारद विश्वावसु इत्यादि गंवोंकी जाति हैं सो सदानिकट गान करा ही करें पर किसरी जातिकी देवांगना तथा स्वर्गकी अप्सरा नृत्य किया ही करें अर वीणा बांसुरी मृदंग आदि बादित्र नाना विधिक देव बजाया ही करें अर इन्द्र सदा सेवा करें अर आप महासुन्दर यौवन अवस्थाविणे विवाह भी करते भए सो जिनके राणी अद्भुत आवती मई, अनेक गुण कला चातुर्यताकर पूर्ण हाव भाव विलास विभ्रमकी धारणहारी, सो कैयक वर्ष आप राज्य किया, मनशंछित भोग भोगे। एक दिवस शरदके मेघ विलय होते देख आप प्रतिबोयको प्राप्त भये। तब लोकांतिक देवनने पाय स्तुति करी तब सुब्रत नाम पुत्रको राज्य देय वैरागी भये । कैसे हैं भगवान ? नहीं है काहू वस्तु की वांछा जिनके, आप वीतराग भाव थर दिव्य स्त्रीरूप जो कमलोंका वन तहांत निकसे। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां पर्व २०७ कैसा है वह सुन्दर स्त्रीरूप कमलनिका वन ? सुगन्धकरि व्याप्त किया है दशों दिशाका समूह जाने, बहुरि महादिव्य जे सुगन्धादिक तेई हैं मकरंद जामें और सुगन्धताकर भ्रम हैं भ्रमरोंका समूह जामैं अर हरित मणिकी जे प्रभा तिनके जो पुंज सोई हैं पत्रनिका समूह जाविषै पर दांतों की जो पंक्ति तिनकी जो उज्वल प्रभा सोई है कमल तंतु जाविषै श्रर नानाप्रकार आभूषणों के जे नाद तेई भए पक्षी उनके शब्दकरि पूरित है अर स्तनरूप जे चकवे तिनकर शोभित है अर उज्ज्वल कीर्तिरूप जे राजहंस तिनकरि मंडित हैं सो ऐसे अद्भुत विलास तजकर वैराग्यके अर्थ देवों पुनीत पालिकी में चडकर विपुल नाम उद्यानविषै गए । कैसे हैं भगवान मुनिसुव्रत ? राजनित्रे मुकुटमणि हैं सो वनमें पालकीतें उतरकर अनेक राजावोसहित जिनेश्वरी दीक्षा भरते भए । बेले पारणा करना यह प्रतिज्ञा आदरी । राजगृह नगर में वृषभदत्त महाभक्तिकर श्रेष्ठ कर पारणा करावता भया । आप भगवान महाशक्तिकरि पूर्ण कुछ क्ष बाकी वाघांसे पीडित नहीं परन्तु आचारांग सूत्रकी आज्ञा प्रमाण अन्तरायरहित भोजन करते भये । वृषभदत्त भगवानको आहार देय कृतार्थ भया । भगवान कैयक महीना तपकर चंपाके वृक्ष के तले शुक्लsaनके प्रताप घातिया कर्मो का नाश कर केवलज्ञानको प्राप्त भए तब इन्द्रसहित देव आयकर प्रणामकर स्तुतिकर धर्मश्रवण करते भये । आपने यति श्राकका धर्म विधिपूर्वक वर्णन किया । धर्म श्रवणकर कई मनुष्य मुनि भए, कई मनुष्य श्रावक भए कई तिर्यंच श्रावक के व्रत धरते भये अर देवोंको व्रत नाहीं सो कई देव सम्यक्त्वको प्राप्त होते भये । श्रीमुनिसुव्रतनाथ धर्म तीर्थका प्रवर्तन कर सुर असुर मनुष्योंसे स्तुति करने योग्य अनेक साधुओं सहित पृथ्वीपर विहार करते भये । सम्मेद शिखर पर्वत से लोकशिखर को प्राप्त भये । यह श्रीमुनिसुव्रतनाथका चरित्र जे प्राणी भावधर सुनें तिनके समस्त पाप नाशको प्राप्त होंय वर ज्ञानसहित तपसे परम स्थानको पावें, जहोतें फेर आगमन न होय ॥ अथानन्तर मुनिसुव्रतनाथक पुत्र राजा सुत्रत बहुत काल राज्यकर दक्ष पुत्रको राज्य देय जिनदीक्षा घर मोक्षको प्राप्त भए र दक्षके एलावर्धन पुत्र भया, ताके श्रीवृक्ष, ताके संजयंत, ताके कुगिम, ताके महारथ, ताके पुलोम इत्यादि अनेक राजा हरिवंश कुलमें भए तिनमें कैयक मुक्तिको गए, कई एक स्वर्गलोक गय। या भांति अनेक राजा भत्रे बहुरि याही कुल एक राजा वासवकेतु भया मिथिला नगरीका पति ताके त्रिपुला नामा पटराणी, सुंदर हैं नेत्र जाके, सो वह रानी परम लक्ष्मीका स्वरूप, ताके जनक नामा पुत्र होते भये । समस्त नयोमं प्रवीण वे राज्य पाय प्रजाकों ऐसे पालते भए जैसे पिता पुत्रको पालै । गौतमस्वामी कहे हैं - हे श्रेणिक ! यह जनककी उत्पत्ति तुझे कही, जनक हरिवंशी हैं। अब ऋषभदेवके कुलमें राजा दशरथ भए तिनका वर्णन सुन - ३वाकुवंश में श्री ऋषभदेव निर्माण पधारे बहुरि तिनके पुत्र भरत भी निर्माण पवारे सो ऋषभदेव के समय से लेकर मुनिसुव्रतनाथके समय पर्यंत बहुत काल बीता, तामें असंख्य राजा भए । कैयक महादुर्द्धर तपकर निर्वाको प्राप्त भए कई एक महद्रि भए, कैयक इंद्रादिक बढी ऋद्धिके धारी देव भए, कैथक पापके Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प-पुराण उदयकर नरकमें गए, हे श्रेणिक ! या संसारमें अज्ञानी जीव चक्रकी नाई भ्रमण कर हैं, कबहु स्वगर्गादिके भोग पावै हैं तिन मग्न होय क्रीडा करै हैं, कैयक पापी. जीव नरक निगोदमें क्लेश मोगें हैं। ये प्राणी पुण्य प.पके उदयतें अनादि कालके भ्रमण करै हैं । कबहूँ कष्ट, कबहूँ उत्सव । यदि विचार करके देखिये तो दुःख मेरु समान, सुख राई समान है । कैयक द्रव्यरहित क्लेश भोगवे हैं, कैयक बाल अवस्था में मरण करें हैं, कैयक शोक करे हैं, कैयक रुदन करै हैं, कैयक विवाद कर हैं, कैयक प? हैं, कैयक पराई रक्षा कर हैं, कैयक पापी बाधा कर हैं, कैयक गरजै हैं, कैयक गान करे हैं, कैयक पराई सेवा कर हैं, कैयक भार बहै हैं, कैयक शयन करै हैं, कैयक पराई निंदा करे हैं केयक केलि करे हैं, कैयक युद्करि शत्रुओंको जीते हैं, केयक शत्रको पकड छोड देय हैं, कैयक कायर युद्धको देख भागे हैं, कैयक शूरवीर पृथ्वीका राज्य करै हैं, विलास करै हैं, बहुरि राज्य तज वैराग्य धारै हैं, कैयक पापी हिंसा करे हैं, परद्रव्यकी बांछा कर हैं, परद्रव्यको हरे हैं.. दौडे हैं, कूट कपट करे है, ते नरकमें पड़े हैं, पर जे कैयक लज्जा धारे हैं, शील पाले हैं, करुणाभाव धरै हैं, परद्रव्य तजे हैं, क्षमाभाव धरैं हैं वीतरागताको भजे हैं, संतोष धारै हैं, प्राणियोंको साता उपजावै हैं ते स्वर्ग पाय परंपराय मोक्ष पावै हैं, जे दान करें हैं, तप कर हैं, अशुभ क्रियाका त्याग करहैं, जिनेन्द्रकी अर्धा करें हैं, जैन शास्त्रों की चर्चा करे हैं, सब जीवोंसे मित्रता करे हैं, विवकि योंका विनय कर हैं, ते उत्तम पद पाये हैं। कैयक क्रोध करें हैं, काम सेवै हैं, राग द्वेष महक वशीभूत हैं, परजीवोंको ठगे हैं, ते भवसागरमें डूबे हैं, नाना विधि नाचे है, जगतमें राचे हैं, खेद खिम हैं, दीर्घ शोक कर हैं, झगडा करे हैं, संताप कर हैं, असि मसि कृषि वाणिज्यादि व्यापार कर हैं, ज्योतिष वैद्यक यंत्र मंत्रादिक करै हैं, शृंगारादि शास्त्र रचे हैं ते वृथा पच पचकर मरे हैं इत्यादि शुभाशुभ कर्मसे आत्मधर्मको भूल रहे हैं। संसारी जीव चतुर्गतिमें भ्रमण करै हैं। या अवसर्पणी कालविष आयु काय घटनी जाय है, श्रीमल्लिनाथके मुक्ति गए पीछे मुनिसुव्रतनाथके अंतराल में या क्षेत्र में अयोध्या नगरीविष विजय नामा रजा भया, महा शूरवीर प्रतापकरि संयुक्त, प्रजा पालनमें प्रवीण, जीते हैं समस्त शत्रु जाने, ताके हेमचूलनी नामा पटराणी, ताके महा गुणवान सुरेन्द्रमन्यु नामा पत्र भया, ताके कीर्तिसमा नामा रणी, ताके दोय पुत्र भए एक बजबाहु द जा पुरंदर, चंद्र सूर्य समान है कांति जिनकी नहागुणवान अर्थसंयुक्त है नाम जिनके, ते दोनों भाई पथ्वीपर सुखसों रमते भए । ये तो कथन यहां रया ॥ अथानन्तर हस्तिनागारमें एक राजा इन्द्रवाहन ताके राणी चूडामणी; ताके पुत्री मनोदया अतिसुन्दरी सो वजूबाहुकुमारने परणी कन्याका भाई उदयसुन्दर बहिनको लेनेको आया सो बज्रबाहुकुमारका स्त्रीस अति प्रेम हुता, स्त्री अति सुंदरी कुमार स्वीके लार सासरे चले । मार्गमें वसंतका समय था पर वसंतगिरि पर्वतके समीप आय निकसे, ज्यों ज्यों वह पहाड निकट आवै त्यों त्यों ताकी परम शोभा देख कुमार अति हर्षको प्राप्त भए, पुष्पोंकी जो मकरन्दता उससे मिली सुगंध पयन सो कुनारके शरीर सपरसी, ताकरि ऐसा सुख भया जैसे बहुत दिनके बिछुरे मित्रसों मिले सुख होय । कोकिलानिके मिष्ट शब्दकरि हर्षित भया है. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवा पर्व २४ जैसे जीतका शब्द सुने हर्ष होय । पवनकरि हाले हैं वृक्षनिके अग्रभाग, सो मानों पर्वत बनबाहुका सन्मान ही कर है । भर भ्रमर गुंजार करें हैं सो मानों वीनका नाद ही होय है । वज्रबाहुका मन प्रसन्न भया। बज्रबाहु पहाडकी शोमा देखे है यह आम्रवृक्ष, यह कर्णिकार जातिका वृक्ष, यह रौद्र जातिका वृत, फूलनकरि मंडित यह प्रवालवृत, यह पलासका वृत अग्नि समान देदीप्यमान हैं पुष्प जाके । वृक्षनिकी शोभा देखते देखते राजकुमारकी दृष्टि मुनिराज पर परी । देखि कर विचारता भया । यह थंभ है अथवा पर्वतका शिखर है अथवा मुनिराज है। कायोत्सर्ग धरि खडे को मुनि तिनवजवाहुका ऐसा विचार भया । कैसे हैं मुनि ? जिनकूछ जानिकरि जिनके शरीर मृग खाज खुजावे हैं जब नृप निकट गया तब निश्चय भया जो ये महायोगीश्वर देव या अबस्थाको धरै हैं, कायोत्सर्ग ध्यान धरें स्थिररूप खडे हैं । सूर्यको किरणकरि सपरस्या है मुखकमल जिनका भर महासर्प के समान देदीप्यमान भुजा, तिनको लम्बाए ऊभे हैं। सुमेरुका तट समान सुंदर है वक्षस्थल जिनका, अर दिग्गजनिक बांधर्वके थंभ, तिन समान अचल है जंघा जिनकी, तपकार जीण शरीर हैं परन्तु कांतिकर पुष्ट दीखें हैं। नासिकाके अग्रभाग पर लगाये हैं निश्चल सौम्य नेत्र जिनने, मात्माको एकाग्र ध्यावे हैं ऐसा मुनिको देखकर राजकुमार चिंतवता भया-अहो ! धन्य है वे मुनि, महाशांतिभावके धारक जो समस्त परिग्रहको तनकर मोक्षाभिलाषी हो तप करें इनक निर्वाण निकट है। निज कल्याणविणै है बुद्धि जिनकी, परजीवनक पीडा देवतें निवृच भया है मात्मा जिनका, अर मुनिषदकी क्रेयाकरि मंडित हैं जिनके शत्रु मित्र समान अर रत्न तृण समान मान मत्सरते रहित है मन जिनका वश किये हैं पांच इंद्रिय जाने, निश्चल पर्वत समान, वीतराम भार धरै तिनक देखें जीवनिका कल्याण होइ, या मनुष्य देहका फल इन ही पाया । ये विषय कपायनिकरि न डिगाये। कैसे हैं विषय काय ? महाकर हैं अर मलिनताके कारण हैं। मैं पापी कर्मपाशकरि निरंतर वेढ्या, जैसे चंदनका वृक्ष सर्पनिकरि बेष्टित होय, तैसैं मैं पापी असावधानचित्त अचेतनसम होय रह्या हो । धिकार मोकों मैं भोगादिरूप जो महापर्यत, ताके शिखरपर निद्रा करूहूं सो नीचा परूंहूंगा । जो या निग्रंथ कैसी अवस्था धरूं तो मेरा जन्म कृतार्थ हो । ऐसा चितवन करते बज्रबाहुकी दृष्टि मुनिनाथविणे अत्यंत निश्चल भई । मानों थंभते बांधा । तप याका उदयसुंदर साला या निश्वल दृष्टि देख मुलकता संता सुहास्यके वचन कहता मयाहनिकी भोर अत्यंत निश्चल होय निरखो हो सो दिगम्बरी दीक्षा धरोगे ? तब बजवाहु गोले जो हमारा भाव था सो तुम प्रगट किया । अब तुम्हारे भावकी बात कहो । तब वह यारामी जान हास्यरूप बोला-तुम दीचा धरोगे तो मैं भी थरोंगा परंतु दीक्षात तुम अत्यंत उदास होउगे। तब बज्रबाहु बोले-यह तो अगी ही भई । यह कह करि विवाहके आभूषण उतारे भर हाथीते उतरे। तब मृगनैनी स्त्री रोवने लगी, स्थूल मोती समान अश्रुपात डारती भई तब उद. पसुंदर आंसू डारि कहता भया-रे देव ! यह हास्यमें कहा विपरीत करो हो । तब जवाहु अति. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० पच-पुराण मधुर वचनकरि ताकों शांतता उपजावते संते कहते भए -हे कल्याणरूप ! तुम समान उपकारी को है ? मैं कूपमें पड्या था सो तुम राख्या । तुम समान मेरे तीन लोकमें मित्र नाहीं। हे उदय. संदर ! जो जनम्या है सो अवश्य मरेगा श्रर मुवा है सो अवश्य जन्मेगा । ये जन्म पर मरस अरहटकी घडी समान हैं। तिनमें संसारी जीव निरंतर भ्रमें है। यह जीतव्य विजुलीके चमस्कार समान तथा जल की तरंग समान तथा दुष्ट सर्पकी जिह्वा समान चंचल है। ये जगतके जीव भव सागरमें डूब रहे हैं । ये संसारके भोग असार हैं । जलके बूंद समान यह काया है। सांझके रंग समान यह जगतका स्नेह है । अर यह यौवन फूल समान कुमलाय जाय है । यह तुम्हारा हंसना भी हम अमृत समान कल्याणरूप भया । कहा हास्यकरि जो प्रोपविक पावै तो रोगको न हरे, अवश्य हर है। तुम हमको मोक्षमार्गके उद्यमके सहायी भये तुम समान और हमारे हितू नाहीं । मैं संसारके आचारविणे आसक्त हो रहा था वीतरागभावको प्राप्त भया । अब मैं जिनदीक्षा धरहूं। तुम्हारी इच्छ होय सो करहु श्रेमा कहकरि सर्व परिवारसों दमा करत्य गुणसागर नामा मुनि, तपही है धन जिनके, तिनके निकट जाय, चरणारविंदको नमस्कार करि विनयवान होय कहता भया- हे स्वामी ! तिहारे प्रसादकरि मन मेरा पवित्र भया अब मैं संसाररूप कीचत निकस्या चाहूँ हूं। तब याके बचन सुनि गुरु आज्ञा दई-तुमको भवसागर पार करणहारी यह भगवत दीक्षा है । कैसे हैं गुरु ? सप्तम गुणस्थानत छठे गुणस्थान आए हैं। यह गुरुकी आज्ञा उरमें थारी । वख आभूषणका स्थागकरि पन्यंकासन धारि पल्लव समान अपने कर तिनकरि केशनिका लोंच करता भया या देहक विनशर जानि देहसूनेह तजि राजपुत्रीको भर राग अवस्थाको तजि मोक्षकी देनहारी जिनदीक्षा अंगीकार करता भया अर उदयसु. न्दरको आदि देय छव्वीस राजकुमार जिनदीक्षा धरते भए । कैसे हैं वे राजकुमार ? कामदेवका सा है रूप जिनका, तजे हैं राग, द्वेष, मद, मत्सर जिनने, उपजा है वैराग्यका अनुराग जिनके परम उत्साहके भरे, नग्नमुद्रा थरते भए । अर यह वृत्तांत देख वज्रबाहुकी स्त्री मनोदया पतिके अर भाई के स्नेहकारि मोहित हुती सो मोह तजि आर्यिकाके व्रत धरती भई । सर्व वख भूषण तजि एक सफेद साडी धरती भई । महा तप व्रत आदरे। यह बजबाहुकी कथा, याका दादा जो राजा विजय त ने सुनी, सभाके मध्य बैठा हुता, शोककरि पीडित होय विचारता भया मो सारिखा मूर्ख विषयका लोलुपी वृद्ध अवस्थाविणे भी भोगनिको न तजता भया । सो कुमारने कैसे तजे ? अथवा वह महाभाग जो भोगनि तृणवत् तजकर मोक्षके निमित्त शांत भाव विष तिष्ठा । मैं मंदभाग्य जराकर पीडित, इन पापी विषयनिने माहि चिरकाल ठग्या। कैसे हैं ये विषय ? देखते संदर अर फल इनके अति कडक । मेरे इंद्र नीनमणि समान श्याम के शनि का समूह हुता सो कफकी राशि समान श्वेत हो गए। ये यौवन अवस्थाविर्षे मेरे नेत्र श्यामता श्वेतता अरुणता लिए अति मनोहर हुते ते अब ठण्डे परि गए । अरा मेरा शरीर अतिदेदीप्यमान, शोभायमान, महाबलवान, स्वरूप था सो अब वृद्ध अवस्था वि वर्षाकरि हन्या जो चित्राम ता समान होय गया । धर्म अर्थ काम तरुण अवस्थावि भली भांति सधै है सो जराकरि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ इक्कीसवां पर्व पीडित जे प्राणी तिनकर सधनां विषम हैं। विक्कार ! मो पापी दुराचारी प्रमादी का जो मैं चेतनथका चेतना दासी आदरी यह झूठा घर झूठी माया, ये झूठे बांधव झूठा परिवार तिनके स्नेहकरि भवसागरके भंवर में भ्रम्या । ऐसा कह कर सर्व परिवारसों क्षमाकराय छोटा पोता जो पुरंदर, ताहि राज्य देव अपने पुत्र सुरेन्द्रमन्यु सहित राजा विजय वृद्ध अवस्थाविषै निर्वास्वबोध स्वामी के समीप जिनदीश यादरी । कैसा है राजा पुरंदर ? उदार है मन जाका । अथानन्तर राजा पुरंदर राज्य करें है । उसके पृथ्वीमती रानी, ताके कीर्तिधर नामा पुत्र सो गुणनिका सागर पृथ्वो विख्यात, अनुक्रमकरि बहुविनयवान यौवनको प्राप्त भया । सर्व कुटुम्बको श्रानंद बढावता संता, अपनी सुंदर चेष्टाकार सबनिको प्रिय भया । तब राजा पुरंदरने अपने पुत्रको राजा कौशल की पुत्री परणाई अर याको राज्य देय राजा पुरंदर गुण ही है श्राभूषण जाके, क्षेमंकर मुनिके समीप मुनित्रत धरे, कर्म निर्जरा के कारण महातप आरम्भ्या । I I --- अथानंतर राजा कीर्तिधर, कुल क्रमसे चला आया जो राज्य उसे पाय, जीते हैं सब शत्रु जिसने, देवनि समान उत्तम भोग भोगवता रमता भया । एक दिवस राजा कीर्तिधर प्रजाका बंधू, जे प्रजा के बाधक शत्रु तिनको भयंकर, सिंहासन विराजे हुते, जैस इंद्र विराजे तैसे । सो सूर्यग्रहण देखि चित्तमें चितवते भए - देखो ! यह सूर्य ज्योतिका मण्डल, राहुके विमानके योगकरि श्याम होय गया । सो यह सूर्य प्रतापका स्वामी, अंधकार को मेंट प्रकाश करे है । अर जाके प्रतापकरि चंद्रमाका विम्ब कांतिरहित भार्से है । र कमलनिके वनको प्रफुल्लित करें है । सो राहुके विमानकर मंदकांति भास है। उदय होता ही सूर्य ज्योतिरूपरहित होय गया। तातें संसारकी दशा अनित्य है, ये जगत के जीव विषयाभिलाषी, रंक समान मोहपाशर्तें बंधे अवश्य काल के मुख में परेंगे । ऐमा विचारकर यह महाभाग्य संसारकी अवस्थाकों क्षणभंगुर जान, मंत्री पुरोहित सामंत निसू कहता मया समृद्रपर्यंत पृथ्वीका राज्य तुम भली भांति रक्षा करियो । मैं मुनिके बत रू' हूँ, तब सब ही विनती करते भए हे प्रभो ! तुम विना पृथ्वी हमतें दबे नाहीं, तुम शत्रुनिके जीतनहारे हो । लोकनिके रक्षक हो । तुम्हारी वय भी नवयौवन है । तात इन्द्र तुल्य राज्य कैयक दिन करहु । या राज्य के अद्वितीय पति तुम ही हो । यह पृथ्वी तुम ही शोभायमान है । तब राजा बोले- यह संसार अटवी यति दीर्घ है, याहि देखि मोहि श्रति भय उपजा है। कैसी है यह भवरूप अटवी ? अनेक दुख तेई हैं फल जिनके ऐसे कर्मरूप वृक्ष, तिन करि भरी है । घर जन्म जरा मरण रोग शोक रति अर इष्टवियोग अनिष्ट संयोगरूप अग्निकर प्रज्वलित है । तब मंत्रीनि ने राजाके परिणाम विरक्त जान बुझे अंगारनिके समूह लाय धरे । श्रर तिनके मध्य एक वैडूर्य मणि ज्योतिका पुंज अति अमोलक ल्याय धरा सो मणि के प्रतापसे कोयला प्रकाशरूप होय गये । फिर वह मणि उठाय लई तत्र वे ही कोयला नीके न लागे तब मंत्रीनिने राजासों विनती करी— हे देव ! जैसे ये क ठके कोयला रत्ननि बिना न शोभैं तैसे तुमविना सब ही न शोलेँ । हे नाथ ! तुम बिना ये प्रजाके लोक, अनाथ मारे जायेंगे । भर लूटे जांडगे अर प्रजाके नष्ट होते धर्मका अभाव होगा । वातैं जैसे तिहारा पिता तुमको राज्य देय 1 1 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पद्म-पुराण मुनि भया तैसे तुमहू अपने पुत्रको राज्य देय जिनदीचा थरहु । या भांति प्रधान पुरुषनिने विनती करी | तब राजा यह नियम किया जो मैं पुत्रका जन्म सुनू ताही दिन मुनिम्रत वरू । यह प्रतिझाकर इंद्र समान भोग भोगता प्रजाको साता उपजावता राज्य किया । जाके राज्यमें काहू मोति 1 प्रजाको मन उपजा । कैसा है राजा ? समाधानरूप है चित्त जाका । एक समय राणी रुहदेवी राजा सहित शयन करती हुती, सो ताको गभ रह्या । कैसा है पुत्र जो गर्भमें वाया १ संपूर्ण गुणनिको पात्र अर पृथ्वीके प्रतिपालनेकू समर्थ सो पुत्रका जन्म मया । तत्र राणी पतिके वैराग्य होने के भवत पुत्रका जन्म प्रगट न किया । कैयक दिवस वार्ता गोप्य राखी । जैसे सूर्यके उदयकों कोऊ विपाय न सके तैसे राजाके पुत्रका जन्म कैसे छिपै । कोऊ मनुष्य दरिद्र ताने द्रव्यके लोभके अर्थ राजास प्रगट किया। तब राजाने ताको मुकुट आदि सर्व आभूषण अंग उतार दिए । अर घोषशाखा नाम नगर महारमणीक यति धनकी उत्पत्तिका स्थान सो सौगांवनिसहित दिया। और पुत्र पन्द्रह दिनका माताकी गोद में तिष्ठे था सो राजतिलककरि ताको राज पद दिया । जातें नगरी अयोध्या अति रमणीक होती भई । घर अयोध्याका नाम कोशला भी है तारों चाका सुकोशल नाम प्रसिद्ध भया । कैसा है सुकोशल १ सुंदर हैं चेष्टा जाकी । सुकोशलको राज्य देय राजा कीर्तिधर घररूप बंदीगृह निकसिकरि तपोवनको गए । मुनिवत आदरे । तपरि उपजा जो तेज ताकरि राजा कैसे शोभित भए, जैसे मेवमण्डलते रहित सूर्य शोभै । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै राजा कीर्तिधरका दीक्षाग्रहण अर सुकोशल पुत्रको राज्याभिषेक वर्णन करनेवाला इक्कीसवां पर्व पूर्ण भया ॥ २१ ॥ -- अधानंतर दूर भषा है मान मत्सर जिनका घर उदार है चिच जिनका, तपकरि सोप्या है सर्वर लोच ही है सर्व आभूषण जिनका प्रालंबित हैं महाबाहू जिनके अर जूडे प्रमाण धरती देख अथोदृष्टि गमन करें हैं, जैसे मत्त गजेंद्र मंद मंद चलें तैसे जीवदया के अर्थि धीरा धीरा गमन करें हैं सर्व विकाररहित, महासावधानी ज्ञानी महाविनयवान लोभरहित पंचाचार वाचनहारे जीवदयाकरि विमल हैं चिच जिनका, सनेहरूप कर्दमतें रहित, स्नानादि शरीर संस्कार रहित मुनिपद की शोभाकरि मंडित सो आहारके निमित्त बहुत दिननिके उपवासे, नगर में प्रवेश करते भये । तिनको देखकर पापिनो सहदेवी मनमें विचारती भई - मानो इनको देख मेरा पुत्र बैराम्य प्राप्त हो । तत्र महाक्रोधकरि लाल होय गया है सुख जाका, दुष्ट चित्त द्वारपालसों कहती मई - यह जन नगन महामलिन वरका खोऊ है । याहि नगर निकास देहु । बहुरि नगर में न श्रावने पावै । मेरा पुत्र सुकुमार है, भोरा हैं, कोमलचित है। सो याहि देखवे न पावै । या सिवा और हू यति हमारे द्वार आपने न पात्रें ! रे द्वारपाल ! या वातमें चुप करी तो मैं विहारा निग्रह करूगी यह दयारहित बालक पुत्रकू तजकरि गया । तब या भेषका मेरे आदर नाहीं । यह राज्यलचमी निंर्दे है। अर लोगनिको वैराग्य प्राप्त करें है । भोग छोडाय जोग सिखाने है । जैसे वचन कड़े तब क्रूर द्वारपाल, वेंतकी छड़ी है जिसके हाथमें, मुनिको मुख दुर्वचन कहि 1 1 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ 1 बाईस पर्व नगर निकासि दिये । अर आहारकू और इ साधु नगर में आये हुते तेहू निकासि दिये । मति कदाचित् मेरा पुत्र धर्म श्रवण करै । या भांति अविनय देखि राजा सुकोशलकी धाय महाशोककरि रुदन करती मई । तत्र राजा सुकोशल थायको रोत्रती देख कहते भए - 'हे मात ! तेरा अपमान करें ऐसा कौन ? माता तो मेरे गर्भवारणमात्र है । अर तरे दुग्धकरि मेरा शरीर वृद्धिको प्राप्त भया । मेरे तो माता हूतें अधिक है। मृत्युके मुखमें प्रवेश कीया चाहे सो सोहि दुःख देवे है । जो मेरी माताहूने तेरा अनादर कीया होय तो मैं वाहूका विनय करू, औरनिकी कहा वात १ तव वसंतमाला घाय कहती मई- हे राजन् ! तेरा पिता तोहि बाल्य अवस्था में राज्य देय संसाररूप कष्ट के पींजरे भयभीत होइ तपोवनकू' गये । आज या नगरमें आहारको श्राव हुते सो तिहारी माताने द्वारपालनिसों श्राज्ञा करि नगरौँ काढे । हे पुत्र ! वे हमारे सबनिके स्वामी उनका अविनय न देख सकी । तातैं मैं रुदन करू हूं। पर विहारी कृपतें मेरा अपमान कौन करें । अर साधुनिकों देख मति मेरा पुत्र ज्ञानकों प्राप्त दोष ऐसा जानि मुनिनिका प्रवेश नगर वैं निवारचा सो विहारे गोत्रविषे यह धर्म परंपरायसे चला आया है— जो पुत्रको राज्य देग पिता वैराग्य होय । श्रर तिहारे घर से आहार विना कभी भी साधु पाछे न गए। यह वृतांत सुन राजा सुकौशल मुनि दर्शनको महलमे उतरि नमर छत्र वाहन इत्यादि राजचिन्ह तज कर कमलहू यति कोमल जो चरण सो उत्राणे ही मुनिके दर्शनको दौडे पर लोकों को पूछते जावें तुमने मुनि देखे तुमने मुनि देखे या भांति परम अभिलाषासंयुक्त अपने पिता जो कीर्तिधर मुनि तिनके समीप गये जर इनके पीछे छत्र चमर वारे सत्र दौडे ही गए, महामुनि उद्यानविषै शिला पर विराजे हुवे सो राजा सुकौशल अश्रुपात कर पूर्ण हैं नेत्र जाके, शुभ हैं भावना जाकी, हाथ जोड नमस्कार कर बहुत विनयसे मुनिके आगे खडे द्वारपालनिने द्वारसे निकासे थे सो ताकर अतिलज्जावंत होय महामुनिसों विनती करते भए - हे नाथ ! जैसे कोई पुरुष अग्नि प्रज्वलित वरमें सूता होवै ताहि कोऊ मेघ के नाद समान ऊंचा शब्द कर जगावे तैसे संसाररूप गृह जन्म मृत्युरूप अग्निसे प्रज्वलित, ता बिषै मैं मोहनिद्राकरि युक्त शयन करू' था सो मोहि आपने जगाया । अत्र कृपा कर यह तिहारी दिगंबरी दीक्षा मोहि देहु यह कष्टका सागर संसार तासे मोहि उपारहु । जब ऐन वचन मुनिसे राजा सुकौशल ने कहे तब ही समस्त सामन्त लोक आए और राणी विचित्रमाला गर्भवती हुती सोहू अति कष्ट विषादसहित समस्त राजलोकसहित आई। इनको दीक्षा के लिए उद्यमी सुन सब ही अन्तःपुरके अर प्रजाके शोक उपजा तब राजा सुकौशल कहते भये-या राणी विचित्रमाला के गर्मविषे पुत्र: है ताहि मैं राज्य दिया ऐसा कहकर निस्पृह भये, आशारूप फांसीको छेद स्नेहरूप जो पींजरा ताहि तोड स्त्रीरूप बंधनसे छूट जीर्ण तृणवत् राज्यको जान तजा और वस्त्राभूषण सब ही तज बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग करके केशनिका लोंच किया पद्मासन धरि तिष्ठे । कीर्तिवर मुनीन्द्र इनके पिता तिनके निकट जिनदीक्षा घरी पंचमहाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति अंगीकार कर सुकौशल मुनिने गुरुके संग विहार किया । कमल समान Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ पा-पुराण अारक्त जो चरण तिनकरि पृथ्वीको शोभायमान करते संते विहार करते भये पर इनकी माता सहदेवी आर्तध्यान कर मरके तियन योनिमें न हो भई अर ए पिता पुत्र दोनों सुनि महाविरक्त जिनको एक स्थानक रहना शिवले पहर दिन निर्जन प्रासुक स्थान देख बैठे रहें और चतुर्मासिकमें साधुवोंको विहार न करना सो चतुर्मासिक जान एक स्थान बैठ रहे । दशों दिशाको श्याम करता संता चातुरमासिक पृथिवीविष प्रवर्ता, आकाश मेघमालाके समूहकरि ऐसा शोमै मानो काजलसे लिपा है अर कहूं एक वगुलावोंकी पंक्ति उडतीं ऐसी सोहै मानो कुमुद फूल रहे हैं पर ठौर ठौर कमल फूल रहे हैं जिन पर भ्रमर गुंजार कर हैं सो मानो वर्षा कालरूप राजाके यश ही गावे हैं, अंजनिगिरि समान महानील जो अंधकार ताकरि जगत् व्याप्त हो गया, मेधके पाजनेसे मानो चांद सूर्य डर कर छिप गये, अखण्ड जलकी धारासे पृथ्वी सजल हो गई और तृण ऊग उठे सो मानो पृथ्वी हर्षके अंकूर थरै है अर जलके प्रवाहकरि पृथ्वीमें नीचा ऊंचा स्थल नजर न आवै अर पृथ्वीविष जल के समूह गाजै हैं भर भाकाशविष मेष गाजै हैं सो मानो ज्येष्ठका समय जो वैरी ताहि जीतकर गाज रहे हैं अर वरती नीरभरनोंसे शोभित भई । भांति २ की वनस्पति पृथ्वीविष उगी सो ताकरि पृथ्वी ऐसी शोभ है मानो हरित मखिक विलोना कर राखे हैं, पृथीविर्षे सर्वत्र जल ही जल हो रहा है मानो मेष ही जलके भारसे टूट पडे है भर ठोर २ इन्द्रगोप अर्थात् वीरबहूटी दीखे हैं सो मानो बैराग्यरूप बज्रसे चूर्ण भए रागके सएड ही पृथ्वीविष फेल रहे हैं और बिजलीका तेज सर्व दिशावि विचर है सो मानो मेष नत्र कर जल पूरित तथा अपूरित स्थान को देख है और नानाप्रकारके रंगको परे जो इन्द्रधनुष ताकरि मंडित आकाश ऐसा शोमता भया मानो अति ऊंचे तोरणों कर युक्त है और दोनों पालि ढाहती महा भयानक भंवरको धरै अति वेग कर युक्त कलुषतासंयुक्त नदी बहै है सो मानो मर्यादारहित स्वच्छन्द स्त्रीके स्वरूपको आचरै हैं पर मेवके शब्द कर त्रासको प्राप्त भई जे मृगनयनी विरहिणी ते स्तम्भनर स्पर्श करे हैं अर महाविह्वल हैं पति के प्रावने की आशाविष लगाए हैं नेत्र जिनने । ऐसे वर्षाकालांवरे जीव दयाके पालन हारे महाशांत अनेक निग्रंथ मुनि प्रांसुक स्थानक विष चौमासा लेप तिष्ठे पा जे गृहस्थो श्रावक साधु सेवाविषै तत्पर ते भी चार महीना गमनका त्याग कर नानाप्रकारके नियम पर रिष्ठे । ऐसे मेष कर व्याप्त वर्षाकालनि वे पिता पुत्र यथार्थ आचारके आचरनहारे प्रतवन कहिए श्मशान ताविणे चार महीना उपवास धर वृक्ष वले विराजे । कभी पद्मासन कभी कायोत्सगं कभी बीरासन आदि अनेक आसन घर चातुर्मास पूर्ण किया। कैसा है वह प्रतवन ? वृदोंके अन्धकार कर महागहन है. पर सिंह व्याघ्र रोख स्याल सर्प इत्यादि अनेक दुष्ट जीवनिसे भरा है, भयंकर जीवोंको भी भयकारी महा विषम है गीध सियाल चील इत्यादि जीवों कर पूर्ण हो रहा है अर्धदग्ध मृतकोंका स्थानक महा भयानक विषम भूमि, मनुष्योंके सिरके कपालके समूह कर जहां पृथ्वी श्वेत. हो रही है और दुष्ट शब्द करते पिशाचोंके समूह विचरै हैं पर जहां तृणजाल कंटक बहुत हैं सो ये पिता पुत्र दोनों धीरवीर पवित्र मन चार महीना वहां पूर्ण करते भए । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसबा पत्र अथानन्तर वर्षा ऋतु गई शरद ऋतु भाई सो मानों रात्रि पूर्ण भई प्रभात भया, कैसा है प्रमात ? जगतके प्रकाश करने में प्रवीण है। शरदके समय आकाशमें वादल श्वेत प्रगट भए भर सूर्य मेषपटलरहित कांतिसे प्रकाशमान भया जैसे उत्सर्पणी कालका जो दुःखमा काल ताके अन्तमें दुखमा सुखमाके आदि ही श्रीजिनेन्द्रदेव प्रकट होंय अर चन्द्रमा रात्रिविष ताराओंके समूहके मध्य शोभित भया जैसे सरोवरके मध्य तरुणा राजहंस शोभ र रात्रिमें चंद्रमाकी चांदनी कर पृथ्वी उज्ज्वल भई सो मानों क्षीर सागर ही पृथ्वीमें विस्तर रहा है अर नदी निर्मल भई कुरिच सारम चकवा आदि पक्षी सुन्दर शब्द करने लगे अर सरोवरमें कमल फूले जिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं अर उडे हैं सो मानों भव्य जीवोंने मिथ्यात्व परिणाम तजे हैं सो उड़ते फिरे हैं (भावार्थ) मिथ्यात्वका स्वरूप श्याम अर भ्रमरका भी स्वरूप श्याम । अनेक प्रकार सुगन्धका है प्रचार जहां ऐसे जे ऊंचे महल तिनके निवासमें रात्रीके समय लोक निज प्रियावोंसहित क्रीडा करे हैं शरद ऋतुमें मनुष्योंके समूह महाउत्सव कर प्रवाते हैं, सन्मान किया हैं मित्र बान्धवोंका जहां पर जो स्त्री पीहर गई तिनका सासरे आगमन होय है, कार्तिक सुदी पूर्णमासीके व्यतीत भए पीछे तपोवन जे मुनि ते तीर्थों में विहार करते भए तब ये पिता पुत्र कीर्तिधर सुकोशल मुनि समाप्त भया है नियम जिनका, शास्त्रोक्त ईर्या समितिसहित पारणाके निमित्त नगरकी ओर विहार करते भए अर वह सहदेवी सुकौशलकी माता मरकर नाहरी भई हुती सी पापिनी महाक्रोधकी भरी लोहकर लाल है केशोंके समूह जाके, विकराल है बदन जाका. तीक्ष्ण है दांत जाके. कषाय रूप पीत हैं नेत्र जाके सिरपर धरी है पूछ जाने, नखों कर विदारे हैं अनेक जीव जाने भर किए हैं भयंकर शब्द जाने, मानों मरी ही शरीर धर आई है, लहलह ट करे है लाल जीभ का अग्रभाग जाका, मध्यान्हक सूर्य समान आतापकारी सो पापिनी सुकौशल स्वामीको देखकर महावेगसे उछल कर आई, ताहि आवती देख वे दोनों मुनि सुन्दर हैं चरित्र जिनके, सर्व बालमरहित कायोत्सर्ग धर विष्ठे सो पापिनी सिंहिनी सुकौशल स्वामीका शरीर नखों कर विदारती भई । मौतमस्वामी राजा श्रेणिकतें कहे हैं-हे राजन् ! देख संसारका चरित्र ? जहां मावा पुत्रके शरीरके भक्षणका उद्यम कर है या उपरान्त और कष्ट कहा ? जन्मान्तरके स्नेही बांधव कर्मके उदयसे बैरी होय परिणमें तब सुमेरुसे भी अधिक स्थिर सुकौशनमुनि शुक्ल ध्यानके धरणहारे विनको केवलज्ञान उपजा, अन्तकृत् केवली भए तब इन्द्रादिक देवोंने आय इनके देहकी कल्पस्वादिके पुष्पोंसे अर्चा करी, चतुरनिकायके सब ही देव पाए अर नाहरीको कीर्तिवरमुनि धर्मोपदेश वचनोंसे सम्बोधते भए-हे पापिनी! तू सुकौशलकी माता सहदेवी हुती अर पुत्रसे तेरा अधिक स्नेह हुता ताका शरीर तैंने नखोंसे विदारा, तब बह जाति-स्मरण होय श्रावकके अवघर सन्यास धारणकर शरीर तज स्वर्गलोकमें गई बहुरि कीर्तिधर मुनिको भी केवलज्ञान उपजा तब इनके केवलकी सुर अमुर पूजाकर अपने अपने स्थानको गये। यह सुफौशल मुनिका माहास्य जो कोई मनुष्य पढे सुने सो सर्व उपसर्ग रहित होय सुखसे चिरकाल जीवै॥ अथानन्तर सुकौशलकी राखी विचित्रमाला ताके सम्पूर्ख समय पर सुन्दर लवणकारि Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN २१६ पी-पुराण मण्डित पुत्र होता भया जब पुत्र गर्भमें आया तब ही माता स्वर्णकी कांतिको धरती भई ताते पुत्रका नाम हिरण्यगर्भ पृथ्वी पर प्रसिद्ध भया सो हिरण्यगर्भ ऐसा राजा भया मानो अपने गुणों कर बहुरि ऋषभदेवका समय प्रकट किया सो राजा हरिकी पुत्री अमृतवती महामनोहर ताहि साने परणी, राजा अपने मित्र बांधवनिकरि संयुक्त पूर्ण द्रव्यके स्वामी मानो स्वौके पर्वत ही हैं सर्व शास्त्रके पारगामी देवनि समान उत्कृष्ट भोग भोगते भये, एक समय राजा उदार है चिस जिनका दर्पण में मुख देखते हुने सो भ्रमर समान श्याम केशोंके मध्य एक सुफेद केश देखा, तब चित्तमें विचारते भए कि यह कालका दूत आया बलात्कार यह जरा शक्ति कांतिकी नाश करणहारी, ताकरि मेरे अंगोपांग शिथिल होवंगे यह चन्दनके वृक्ष समान मेरी काया अब जरा रूप अग्निसे जलकर अंगारतुल्य होयगी यह जरा छिद्र हेरे ही है सौ समय पाय पिशाचनीकी नाई मेरे शरीरमें प्रवेश कर. बाथा करेगी अर कालरूप सिंह चिरकालसे मेरे भक्षणका अभिलाषी हुता सो अब मेरे देहको बलात्कारसे भखेगा, धन्य है वह पुरुष जो कर्म भूमिको पायकर तरुण अवस्थामें ब्रा रूप जहाजविर्ष चढकर भव सागरको तिरें, ऐसा चितवन कर राणी अमृतवतीका पुत्र जो नघोष ताहि राजविष थापकर विमल मुनिके निकट दिगंबरी दीक्षा धरी। यह नघोष जबसे माताके गर्भमें आया तब हीसे कोई पापका वचन न कहै तातै नघोष कहिए पृथ्वी पर प्रसिद्ध हैं गुण जिनके, तिन गुणोंके पुंज, तिनके सिंहिका नाम राणी नाहि अयोध्या विष राख उत्तर दिशाक सामंतों की जी ने चढे, तब राजाको दूर गया जान दक्षिण दिशाके राजा बड़ी सेनाके स्वामी अयोध्या लेने को पाये, तब राणी सिंहिका महाप्रतापिनी बडी फौजसे चढ़ी। सो सर्व बैरियोंको रण में जीतकर अयोध्या दृढ़ थाना राख आप अपने सामन्तों को ले दक्षिण दिशा जीतनेको गई । कैसी है राणी ? शस्त्र विद्याका किया है अभ्यास जाने, प्रताप कर दक्षिण दिशाके सामन्तोंको जोतकर जय शब्द कर पूरित पाछे अयोध्या आई, अर राजा नवोष उत्तर दिशाको जीतकर आये सों स्त्रोका पराक्रम सुन कोषको प्राप्त भये, मन में विचारी जे कुलवंती स्त्री अखण्डित शीलकी पालनहारी हैं तिनमें एती ढीठता न चाहिए, ऐसा निश्चय कर राणी सिंहिकासे उदासचित्त भए, यह पतिव्रता महाशीलवंती पवित्र है चेष्टा जाकी पटराखीके पदसे दूर करी सो महा दरिद्रताको प्राप्त भई ॥ - अथानन्तर राजाके महादाहज्वरका विकार उपजा सो सर्व वैद्य यत्न करें पर तिनकी औषधि न लागे तब राणी सिंहिका राजाको रोग्रगस्त जानकर व्याकुलचिन भई अर अपनी शुद्धताके अर्थ यह पतिव्रता पुरोहित मन्त्री सामन्त सवनको बुलायकर पुरोहितके हाथ अपने हाथका जल दिया, अर कही कि यदि मैं मन वचन कायकर पतिव्रता हूँ तो या जलकर सींचा राजा दाहज्वरकररहित हो तब जल करि सींचते ही राजाका उबर मिट गया भर हिमविष मग्न जैसा शीतल होय गया, मुखसे ऐसे मनोहर शन्द कहता भया जैसे बीखाक शन्द होवें अर आकाशमें यह शब्द होते भए कि यह राणी सिंहिका पतिव्रता महाशीलवन्ती धन्य है धन्य है पर आकाशतें पुष्प वर्षा भई तब राजाने राणीको महाशीलवती जान बहुरि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाइसमा पन २७ पटराणीका पद दिया अर बहुत दिन निष्कण्टक राज किया बहुरि अपने बड़ोंके चरित्र चित्त विष धरि संसारकी मायातें निस्पृह होय सिंहिका राणीका पुत्र जो सौदास ताहि राज देय आप धीर वीर युनिप्रत घरे, जो कार्य परम्पराय इनके बड़े करते आए हैं सो किया । सौदास राज कर सो पापी मांस आहारी भया इनके वंशमें किसीने यह आहार न किया यह दुराचारी अष्टान्हिकाके दिचसमें भी अभक्ष्य पाहार न तजता भया। एक दिन रसोईदारसे कहता भया कि मेरे मांस भक्षणका अभिलाष उपजा है, तब तिसने कही--हे महाराज! ये अष्टानिहकाके दिन हैं सर्व लोक भगवानकी पूजा अर ब्रत नियमविषै तत्पर हैं पृथिवीपर धर्मका उद्योत होय रहा है इन दिनों में यह वस्तु अलभ्य है । तब राजाने कही या वस्तु विना मेरा मन रहै नाही, तातें जा उपाय कर यह वस्तु मिलै सो कर । तब रसोदार यह राजाकी दशा देख नगरके बाहिर गया एक मना हूवा वालक देखा नाही दिन वह मृा था सो ताहि वसमें लपेट वह पापी ले आया। स्वादु वस्तुओंसे उसे मिलाय पकाय राजाको भोजन दिया सो राजा महादुराचारी अभक्ष्यका भक्षण कर प्रसन्न भया पर रसोईदारतें एकान्तमें पूछता भया फि हे भद्र ! यह मांस तू कहांसे लाया अब तक ऐसा मांस मैंने भक्षा नहीं किया हुता तब रसोईदार अभयदान मांग यथावत् कहता भया तब राजा कहता भया ऐसा ही मांस सदा लाया कर । तब यह रसोईदार बालकोंको लाडू बांटता भया, तिन लाडुवोंके लालचक्श बालक निरन्तर आवें सो बालक लाड़ लेकर जाबें तब जो पीछे रह जाय ताहि यह रसोईदार मार राजाको भक्षण करावे निरन्तर बालक नगरविषे छीजने लगे तब यह वृत्तांत लोकोंने जोन रसोईदारसहित राजाको देशतें निकाल दिया अर याकी र णी कनकप्रभा ताका पुत्र सिंहरथ ताहि राज्य दिया तब यह पापी सर्वत्र निरादर हुआ महादुखी पृथिवीपर भ्रमण किया करै । जे मृतक बालक मसानविषे लोक डार भावे तिनको मर जैसे सिंह मनुष्यों का भक्षण करै ताते याका नाम सिंहसौदास पृथिवीविष प्रसिद्ध भया बहुरि यह दक्षिण दिशाको गया तहां मुनिका दर्शन कर धर्म श्रवणकर श्रावकके व्रत थरता भया बहुरि एक महापुर नाम नगर तहांका राजा मूवा ताके पुत्र नहीं था तब सबने यह विचार किया कि जिसे पाटबंध हस्ती जाय कांधे चढाय लावै सो राजा होवै तब याहि कांधे चढ़ाय हस्ती ले गया सव याको राज दिया यह न्यायसंयुक्त राज्य करे अर पुत्र के निकट दूत भेजा कि तू मेरी आज्ञा मान, तब याने लिखा तू महा निन्ध है मैं तोहि नमस्कार न करूं तब यह पुत्रपर घड़कर गया, इसे प्रावता सुन लोग भागने लगे कि यह मनुष्योंको खायगा पुत्र अर याके महायुद्ध भया सो पुत्र को युद्धमें जीत दोनों ठौरका राज्य पुत्रको देकर भाप महावैराग्यको प्राप्त होय तपके अर्थ बनमें गया। अथानन्तर याके पुत्र सिंहरथके ब्रह्मरथ पुत्र भया ताके चतुर्मुख, ताके हेमरथ, ताके सत्यरथ, ताके पृथूरथ, ताके पयोरथ, वाके दृढरथ, ताके सूर्यरथ, ताके मानधाता, ताके वीरसेन, साके पृथ्वीमन्यु, वाके कमलबन्धु दीसिसे मानों पूर्य ही है समस्त मर्यादामें प्रवीण, ताके रवि Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ मन्यु, ताके, बसन्ततिलक, ताके कुवेरदत्त, ताके कुंथुभक्त सो महाकीर्तिका धारी, ताके शतरथ, ताके द्विरदरथ, ताके पिंहदमन, ताके हिरण्यकशिपु, ताके पुंजस्थल,ताके ककूस्थल, ताके रघु, महापराक्रमी । यह इक्ष्वाकुवंश श्री ऋषभदेवतें प्रवरता सो वंशकी महिमा हे श्रेणिक तोहि कहीं। ऋषभदेवके वंशमें श्रीराम पयंत अनेक बड़े २ राजा भए ते मुनिव्रत धार मोक्ष गए। कैयक अहमिंद्र भए, कैयक स्वर्गमें प्राप्त भए या वंशविष पापी विरले भए ।। बहुरि अयोध्या नगरविष राजा रघुके अनरण्य पुत्र भया जाके प्रतापगरि उद्यानमें बस्ती होती भई, ताके पृथिवीमती राणी महागुणवन्ती महाकांतिकी धरणहारी महारूपवती महापतिव्रता ताके दो पुत्र होते भए महा शुभलक्षण एक अनन्तरथ दूसरा दशरथ, सो राजा सहस्ररश्मि माहिष्मती नगरीका पति ताकी अर राजा अनरण्यकी परम मित्रता हाती भई मानों ये दोनों सौधर्म अर ईशान इ-द्र ही हैं जब रावण ने युद्ध में सहस्ररश्मिको जीता अर ताने मुनिव्रत धरे सो सहसरश्मिके अर अनरण्यके यह वचन हुता कि जो तुम वैराग्य धारो तर मोहि जतावना पर मैं वैराग्य धारूंगा तो तुम्हें जताऊंगा सो वाने जब वैराग्य धारा तव अनरण्यको जताना दिया तब राजा अनरण्यने सहस्ररश्मिको मुनि हुआ जानकर दशरथ पुत्रको राज्य देय आप अनन्तरथ पुत्र सहित अभयसेन मुनिके समीप जिन दीक्षा धारी, महातपकरि कर्मोका नाशकर मोक्षको प्राप्त भए अर अनन्तरथ मुनि सर्व परिग्रहरहित पृथ्वीपर विहार करते भए । बाईस परीषहके सहनहारे किसी प्रकार उद्वेगको न प्राप्त भए तब इनका अनन्तवीर्य नाम पृथ्वीपर प्रसिद्ध भया अर राजा दशरथ राज्य करै सो महामुन्दर शरीर नवयौवनविणे अतिशोभायमान होता भया अनेक प्रकार पुष्पनिकरि शोभित मानों पर्वतका उत्तुङ्ग शिखर ही हैं। अथानन्तर दभस्थल नगरका राजा कौशल प्रशंसा योग्य गुणोंका धारणहारा ताके राणी अमृतप्रभाकी पुत्री कौशल्या, नाहि अपराजिता भी कहैं हैं, काहेसे कि-यह स्त्रीके गुणोंसे शोभायमान कामकी स्त्री रति समान महा सुन्दर किसी से न जीती जाय महारूपवंती सो राजा दशरथने परणी । वहुरि एक कमलसंकुल नामा" बडा नगर तहांका राजा सुबन्धुतिलक ताके राणी मित्रा ताके पुत्री सुमित्रा सर्व गुणों से मंडित महा रूपवती जाहि नेत्ररूप कमलोंसे देखे मन हर्षित होय पृथ्वीपर प्रसिद्ध सो भी दशरथने परणी बहुरि एक और महाराजा नाम राजा ताकी पुत्री सुप्रभा रूप लावण्यकी रूनि जाहि लखे लक्ष्मी लजावान् होय सोहू राजा दशरथने परणी भर राजा दशरथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त होते भए अर राज्यका परम उदय पाय सो सम्यकदर्शनको रत्नो समान जानते भए अर राज्यको तण समान मानते भए कि जो राज्य न जे तो यह जीव नरकमें प्राप्त होय, राज्य तजै तो स्वर्ग मुक्ति पावै अर सम्यक् दर्शनके योगते निसन्देह ऊर्ध्वगति ही है सो ऐसा जान राजाके सम्यग्दर्शनको दृढता होती भई अर जे भगवानके चैत्यालय प्रशंसा योग्य आगे भरत चक्रवादिकने कराए हुते तिनमें कैयक ठौर भंग भावको प्राप्त भए हुते सो राजा दशरथने तिनको मरम्मत कराय ऐसे किए मानों नवीन ही हैं भर इंद्र Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ तेइसवा पर्व से नमस्कार करने योग्य महारमणीक जे तीर्थंकरोंके कल्याणक स्थानक तिनकी रत्नोंके समूहसे यह राजा पूजा करता भया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहैं हैं - हे भव्यजीव ! दशरथ मारिखे जीव परभवमें महा धर्मको उपार्जनकर यति मनोज्ञ देवलोककी लक्ष्मी पायकर या लोकमें नरेन्द्र भए हैं, महाराज ऋद्धिके भोक्ता सूर्य समान दशों दिशाविषै है प्रकाश जिनका ॥ इति श्रीरविशेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वाचनिकानि राजा कौशलका महात्म्य र तिनके वंशविषै राजा दशरथकी उत्पत्तिका कथन कान करने वाला वाईसवां पर्व पूर्ण भया ।। २२ ।। ----*०*०* अथानन्तर एक दिन रजा दशरथ महा तेज प्रताप संयुक्त सभामें विराजते हुते । कैसे हैं राजा ९ जिनेन्द्रकी कथा में ग्रासक्त है मन जिनका और सुरेन्द्र कासा है विभव जिनका तासमय अपने शरीर के तेजकरि आकाशवि उद्योत करते नारद आए । तब दूरही से नारदको देखकर राजा उठ कर सन्मुख गए । बडे आदरसे नारदको ल्याय सिंहासन पर विराजमान किये, राजा ने नारदकी कुशल पूछी, नारदने कही जिनेन्द्रदेव के प्रसादकरि कुशल हैं । बहुरि नारदने राजाकी कुशल पूछी राज ने कही देव गुरु धर्म प्रसादकर कुशल है । बहुरि राजाने पूली- हे प्रभो ! आप कौन स्थानक से आए, इन दिनोंमें कहां कहां विहार किया, क्या देखा ? क्या सुना तुमसे अढाई द्वीपमें कोई स्थानक अगोचरं नहीं | तब नारद कहते भए, कैसे हैं नारद ? जिनेन्द्रचन्द्रके चरित्र देखकर उपजा है परम हर्ष जिनके, हे राजन् ! मैं महा विदेह क्षेत्रविषै गया हुता कैसा है वह क्षेत्र ? उत्तम जीवोंसे भरा है, जहां ठौर ठौर श्रीजिनराजके मंदिर पर ठौर ठौर महामुनि विराजे हैं जहां धर्मका बडा उद्योत है । श्रीतीर्थकर देव चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव प्रतिवासुदेवादि उपजे हैं तहां श्रीसीमंधर स्वामीका मैंने पुंडरीकनी नगरीमें तप कल्याणक देखा । कैसी है पुंडरीकनी नमरी ? नानाप्रकार के रत्नोंके जे महल तिनके तेजसे प्रकाशरूप है पर सीमंधर स्वामीके तप कल्याणकविषै नानाप्रकारके देवोंका आगमन भया तिनके भांति भांति के विमान ध्वजा र छत्रादिसे महाशोभित अर नाना प्रकार के जे बाहन तिनकरि नगरी पूर्ण देखी अर जैसा श्रीमुनिसुव्रतनाथका सुमेरुविषै जन्माभिषेकका उत्सब हम सुने हैं तैसा श्रीसीमंधर स्वामी के जन्माभिषेकका उत्सव मैंने सुना अर तप कल्याणक तो मैंने प्रत्यक्ष ही देखा अर नानाप्रकार के रत्नोंसे जडित जिनमंदिर देखे जहां महा मनोहर भगवान के बडे बडे बिम्ब विराजे हैं भर विधिपूर्वक निरंतर पूजा होय है घर विदेह मैं सुमेरु पर्वत आया सुमेरुकी प्रदक्षिणाकर सुमेरुके वन तह भगवानके जे अकृत्रिम चैत्यालय तिनका दर्शन किया— हे राजन् ! नन्दनवनके चेत्यालय नानाप्रकारके रत्नोंसे जडे अतिरमणीक मैंने देखे। जहां स्वर्णके पीत प्रति देदीप्यमान हैं सुन्दर हैं मोतियोंके हार पर तोरण जहां, जिनमंदिर देखते सूर्यका मंदिर कहा ? श्रर चैत्यालयांकी वैडूर्य मणिमई मति देखी तिनमें गज सिंहादिरूप अनेक चित्राम मढे हैं अर जहां देव देवी संगीत शास्त्ररूप नृत्य कर रहे हैं अर देवारण्यविषै चैत्यालय जहां मैंने जिन प्रतिमा का दर्शन किया और कुलाचलोके शिखिरविषै जिनेन्द्रके चैत्यालय मैंने बंदे देखे । या भांति Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पा-पुराण मारदने कही तब राजा दशरथ 'देवेभ्यो नमः' ऐसा शब्द कहकर हाथजोड सिर नवाय नमस्कार करता भया। बहुरि नारदने राजाको सैनकरी तब राजाने दरबारको कहकर सबको इटाए पर एकांत विराजे तब नारदने कही,-हे सुकौशल देशके अधिपति चिच लगाय सुन तेरे कन्याण की बात कहूं हूं मैं भगवानका भक्त जहां जिनमंदिर होय तहां बंदना करूहूं सो मैं लंकामें गया हुना तहां महा मनोहर श्रीशांतिनाथका चैत्यालय बंदा सो एक वार्ता विभीषणादिके मुखसे सुनी कि रावणने बुद्धिसार निमित्तज्ञानीको पूछा कि मेरी मृत्यु कौन निमित्तते है तब निमित्वज्ञानीने कही-दशरथका पुत्र अर जनककी पुत्री इनके निमित्तसे तेरी मृत्यु है, सुनकर रावण सचिंत भया तब विभीषणने कही-श्राप चिंता न करें दोनों को पुत्र पुत्री न होय वा पहिले दीऊनको मैं मारूगा सो तिहारे ठीक करनेको विभीषणने हलकारे पठाए थे सो वै तिहारा स्थान निरूपादि सब ठीक कर गये हैं और मेरा विश्वास जान मुझे विभीपसने पछी कि क्या तुम दशरथ और जनकका स्वरूप नीके जानो हो ? तब मैंने कही मोहि उनको देखे बहुत दिन हुए हैं अब उनको देख तुमको कहूँगा सो उनका अभिप्राय खोटा देखकर तुमपे आया सो जबतक वह विभीषण तिहारे मारनेका उपाय करे ता पहिले तुम आपा छुपाय कहीं बैठ रहो। जे सम्यकदृष्टि जिनधर्मी देव गुरु धर्मके भक्त हैं विन सबसे मेरी प्रीति है तुम सारिखोंसे विशेष है तुम योग्य होय सो करो तिहारा कल्याण होय । अब मैं राजा जनकसे यह वृत्तांत कहनेको जाक हूं तब राजाने उठ नारदका सत्कार किया, नारद आकाशके मार्ग होय मिथिलापुरीकी ओर गए जनकको समस्त वृत्तांत कह', नारद को भव्य जीव जिनधर्मी प्राणसे भी प्यारे हैं। नारद तो वृत्तांत कह देशान्तरको गए पर दोनों ही राजावोंको मरणकी शंका उपजी। राजा दशरथ ने अपने मंत्री समुद्रहृदयको बुलाया एकान्तमें नारदका कहा सकल वृत्तांत कहा । सब राजाके मुखतें मंत्री ये महाभयके समाचार सुन कर स्वामीकी भक्तिमें परायण अर मंत्रशक्तिमें महाश्रेष राजाको कहता भया-हे नाथ ! जीतन्यके अर्थ सकल करिये है जो त्रिलोकीका राज्य प्रादे अर जीव जाय तो कौन अर्थ ? तातें जब लग मैं तिहारे वैरियों का उपाय करू तब लग तम अपना रूप छिपाय कर पृथ्वी पर विहार करो ऐसा मंत्रीने कहा। तब राजाने देश भंडार नगर याको सौप कर नगरतें बाहिर निकसे । राजाके गये पीछे मंत्रीने राजा दशरथके रूपका पुतला वनाया एक चेतना नहीं और सब राजा होके चिन्ह बनाये, लाखादि रसके योग कर उसविष रुथिर निरमापा अर शरीरकी कोमलता जैसी प्राणधारीके होय तैसी ही बनाई सो महिलके सातवें खणमें सिंहासनविर्ष विराजमान किया सों समस्त लोकोंको नीचेसे मुजरा होय, ऊपर कोई जाने न पावे, राजाके शरीरमें रोग है पृथ्वी पर ऐमा प्रसिद्ध किया। एक मंत्री और दजा पूतला बनाने वाला यह भेद जाने, इन को भी देखकर ऐसा भ्रम उपनै जो राजा ही है पर यही वृत्तांत राजा जनकके भी भया । जो कोई पंडित हैं तिनके बुद्धि एक सी ही है । मंत्रियों की वृद्धि सबके ऊपर होय विचर है। यह दोनों राजा लोकस्थिविके वैचा पृथ्वीमें भागे फिरें. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां पर्व २२१ आपदांकासविष जे रीति बताई हैं ता भांति करें जैस वर्षाकालमें चांद सूर्य मेषके जोरसे छिपे रहैं बैंस जनक और दशरथ दोनों छिप रहे ॥ " यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणि कसे कहे हैं.-हे मगवदेशके अधिपति ! वे दोनों बडे राजा महा मंदर हैं राजमंदिर जिनके, महामनोहर देवांगना सारिखी स्त्री जिनके, महामनोहर भोगोंके मोक्ता, सोपायन पियादे दलिद्री लोकनकी नाई कोई नहीं संग जिनके अकेले भ्रमते भए, धिक्कार है संसार के स्वरूपको ऐसा निश्चयकर जो प्राणी स्थावर जंगम सर्व जीवोंको अभयदान दें सो आप भी भयसे कंपायमान न हों, इम अभयदान समान कोई दान नहीं जिसने अभयदान दिया ताने सब ही दिया। अभयदानका दाता सत्पुरुषों में मुख्य है ।। - अथानन्तर विभीषणने दशरथ अर जनक मारनेको सुभट विदा किए पर हलकारे जिनके संग में ते सुभट, शस्त्र हैं हाथों में जिनके महाकर छि छिरे रात दिन नगरीमें फिरें. राजाके महल अति ऊंचे सो प्रवेश न कर सकें इनको दिन बहुत लो तब विभीषणने स्वयमेव आय महिलमें गीत नाद सुन महल में प्रवेश किया। राजा दशरथ अन्तः पुरके मध्य शयन करता देखा। विभीषण तो दूर ठाढे रहे अर एके विद्युद्विलसित नामा विद्याधर, ताको पठाया कि याका मस्तक ले आओ सो अाय मस्तक काट विभीषण को दिया सो राजलोक रोय उठे विभीषणं इनका और जनकका सिर समुद्रविणे डार आप रावणके निकट गया। रावणको हर्षित किया । इन दोनों राजनकी राणी विलाप करें फिर यह जानकर कि कृत्रिम पूतला था तब यह संतोषकर बैठ रहीं पर विभीषण लंका जाय अशुभकर्मके शांतिके निमित्त दान पूजादि शुभ क्रिया करता भया अर विभीषण के चित्तमें ऐसा पश्चात्ताप उपजा जो देखो मेरे कौन कर्म उदय आया जो भाईके मोहसे वृथा भय मान वापुरे रंक भूमिगोचरी मृत्युको प्राप्त किए जो कदाचित् आशीविष (आशिविष सर्प कहिए जिसे देख विष चढे) जातिका सर्प होय तो भी क्या गरुडको प्रहार कर सके ? कहां वह अल्प ऐश्वर्यके स्वामी भूमिगोचरी अर कहां इंद्र समान शूर वीरताका धरणहारा रावण अर कहां मूसा कहां केसरी सिंह, जाके अवलोकतें माते गजराजोंका मद उतर जाय । कैसा है केसरी सिंह १ पवन समान है वेग जाका, अथवा जा प्राणीको जा स्थानकमें जाकारणकरि जेता दुःख र सुख होना है सो ताको ताकर ता-स्थानकवि कर्मनिके वशकरि अवश्य होय है पर यह निमित्वज्ञानी जो कोई यथार्थ जानै तो अपना कल्याण ही क्यों न करे जिससे मोक्षके अविनाशी सुख पाइए, निमित्तानी पराई मृत्युको निश्चय जाने तो अपनी मन्युके निश्चयसे मृत्युके पहिले.आत्मकल्याण क्यों न करे ? निमित्तज्ञानीके कहनेसे मैं मूर्ख भया, खोटे मनुष्योंकी शिक्षासे जे मन्दबुद्धि है ते अकायविष प्रवरते हैं । यह लंकापुरी पाताल है जल जिसका ऐसा जो समुद्र ताके मध्य विछ, जो देवनहूंको अगम्य तह विचारे भूमिगोचरियोंकी कहांसे गम्य होय ? मैं यह अत्यन्त अयोग्य किया बहुरि ऐसा काम कबहूं न करू ऐसी थारणाधार उत्तम दीप्तिसे युक्त जैसे सूर्य प्रकाशरूप विचर तेस मनुष्यलोकमें रमते भए । इति भीरविषेणाचार्यविरचितमहापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै राजा दशरथ अर जनकको विभीषणकृत मरण भय वर्णन करनेवाला तेईसवां पवं पूर्ण भया ।। २३॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पग-पुराम अथानन्तर गौतमस्वामी क है हैं-हे श्रेणिक ! अनरण्यके पुत्र दशरथने पृथिवीपर भ्रमण करते केकईको परणा सो कथा महापाश्वर्यका कारण तू सुन । उत्तर दिशाविर्ष एक कौतुकमगल नामा नगर, ताके पर्वत समान ऊंचा कोट, तहां राजा शुभमति राजकरै सो वह शुभमति नाममात्र नहीं यथार्थ शुभमति ही हैं, ताकी राणी पथुश्री गुण रूप आमरणोंसे मंडित ताके के ई पुत्री द्रोणमेघ पुत्र भए, जिनके गुण दशों दिशामें व्याप रहे केकई अतिसुन्दर सर्व अंग मनोहर अद्भुत लक्षणोंकी धरणहारी सर्व कलावों की पारगामिनी अति शोभती भई । सम्यग्दर्शनसे संयुक्त श्राविकाके व्रत पालनहारी जिनशासनकी बेत्ता महाश्रद्धावन्ती तथा सांख्य पतिजल वैशेषिक वेदात न्याय मीमांसा चादिक परशास्त्ररहस्यकी ज्ञाता तथा लौकिक शास्त्र भृगारादिक तिनकी रहस्य जाने, नृत्यकलामें अति निपुण, सर्व भेदोंसे मंडित जी संगीत सो भली भांति जाने, उर कंठ सिर इन तीन स्थानकसे स्वर निकसे हैं पर स्वरोंके सात भेद है पडत्र १ ऋषभ २ गांधार ३ मध्यम ४ पंचम ५ धैवत ६ निषाद ७ सो केकईको सर्वगम्य अर तीन प्रकारका लय शीघ्र १ मध्य २ विलंबित ३ अर चार प्रकारका ताल स्थायी १ संचारी २ आरोहका ३ अवरोहक ४ अर तीन प्रकारकी भाषा संस्कृत १ प्राकृत २ शौरसेनी ३ स्थायितालके भूषण चार प्रसन्नादि १ प्रसन्नान्त २ मध्यप्रसाद ३ प्रसन्नाद्यवसान ४ अर संचारीके छह भूषण निवृत्त १ प्रस्थिल २ बिंदु ३ प्रखोलित ४ तमोमन्द ५ प्रसन्न ६ आरोहणका एक प्रसन्नादि भूषण अर अवरोहणके दो भूषण प्रसन्नात १ कुहर २ ये तेरह अलङ्कार अर चार प्रकार वादित्र बे ताररूप सो तांत १ चामके मढ़े ते आनद्ध २ अर बांसुरी आदि फूकके बाजे वे सुपिर ३ अर कांसीके बाजे वे घन ४ ये चार प्रकारके वादित्र जैसे केकई बजाये तैसे और न वजावे, गीत नत्य वादिन ये तीन भेद हैं सो नृत्यमें तीनों आए अर रसके भेद नव शृंगार १ हास्य २ करुणा ३ वीर ४ अद्भूत ५ भयानक ६ रौद्र ७ बीभत्स ८ शांत तिनके भेद जैसे केकई जाने तैसे और कोऊ न जाने अक्षर मात्रा अर गणितशास्त्र में निपुण, गद्य पद्य सर्वमें प्रवीण, व्याकरण छन्द अलंकार नाममाला लक्षणशास्त्र तर्क इतिहास भर चित्रकलामें अतिप्रवीण तथा रत्नपरीक्षा, अश्वपरीक्षा, नरपरीक्षा, शस्त्र परीक्षा, गजपरीक्षा, वृक्षपरीक्षा, वस्त्रपरीचा, मुगन्धपरीक्षा सुगन्धादिक द्रव्योंका निपजावना इत्यादि सर्व वातोंमें प्रवीण, ज्योतिष विद्यामें निपुण बाल वृद्ध तरुण मनुष्य तथा घोड़े हाथी इत्यादि सर्वके इलाज जानै मन्ध औषधादि सर्वमें तत्पर वैद्यविद्यानिधान सर्व कलामें सावधान महाशीलान्ती महामनोहर, युद्ध कलामें अतिप्रवीण शृंगारादि कलामें अति निपुण, विनय ही है अाभूषण जाके कला अर गुण भर रूपमें ऐसी कन्या और नाहीं। गौतम स्वामी कहै हैं-हे श्रेलिक ! बहुत कहनेकर कहा? केकाईके गुणों का वर्णन कहां तक करिये तब ताके पिताने विचारा कि ऐसी कन्याके योग्य वर कौन ? स्वयंबर करिए तहां यह आप ही वरै। ताने हरिवाहन आदि अनेक राजा स्वयम्बरमण्डपमें बुलाये सो विधवकर संयुक्त आये तहा भ्रमते संते जनकसहित दशरथ भी पाए सो यद्यपि इनके निकट राज्यका विभव नहीं तथापि रूप अर गुणोंकर सर्व राजावोंत अधिक है, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ चौबीसको पव सर्व राजा सिंहासनपर बैठे अर केकईको द्वारपाली सबनके नाम ग्राम गुण कहै है सो वह विवेकिनी साधुरूपिणी मनुष्यों के लक्षण जाननेवाली प्रथम तो दशरथकी ओर नेत्ररूप नीलकमलकी माला डारी बहुरि वह सुन्दर बुद्धिकी थरनहारी जैसे राजहंसनी बुगलोंके मध्य बेठे जो राजहंस उसकी ओर जाय तैसे अनेक राजाबोंके मध्य वैठा जो दशरथ ताकी ओर गई सो भावमाला तो पहिले ही डारी हुती पर द्रव्य रूप जो रत्नमाला सो भी लोकाचारके अर्थदशरथके गलेमें डारी तब कैयक नृप जे न्यायवन्त बैठे हुते ते प्रसन्न भए अर कहते भए कि जैसी कन्या थी तैसा ही योग्य वर पाया अर कैयक विलषे होय अपने देश उठ गए अर कैय के जे अति धीठ थे ते क्रोधायमान होय युद्धको उद्यमी भए अर कहते भये जे बड़े २ वंशके उपजे अर महा ऋद्धिके मंडित ऐसे नृप तिनको तजकर यह कन्या नही जानिए कुलशील जिसका ऐसा यह विदेशी ताहि कैसे वरै, खोटा है अभिप्राय जाका ऐसी कन्या है ताते या विदेशी को यहांसे काटकर कन्याके केश पकड बलात्कार हर लो ऐसा कहकर वे दुष्ट कैयक युद्धको उद्यमी भए तब राजा शुभमति अति व्याकुल होय दशरथको कहता भया-हे भव्य ! मैं इन दुष्टोंको निवारू हूँ तुम इस कन्याको रथमें चदाय अन्यत्र जावो जैसा समय देखिए तैसा करिये सर्व राजनीतिमें यह वात मुख्य है या भांति जब ससुरने कही तब राजा दशरय अत्यंत धीर बुद्धि है जिनकी, हंसकर कहते भये-हे महाराज! आप निश्चित रहो। देखा ! इन सबनको दशों दिशाको भगाऊ ऐसा कहकर आप रथविर्षे चढ़े अर केकईको चढ़ाय लीनी । कैसा है रथ ? जाके महामनोहर अथ जुड़े हैं। कैसे हैं दशरथ ? नानों रथपर चढ़े शरद ऋतुके सूर्य ही हैं पर केकई घोडौंकी बाप समारती भई कैसी हैं कैकई ? महापुरुषार्थ के स्वरूपको धरे युद्धकी मूर्ति ही है, पसेि विनती करती भई-हे नाथ! आपकी प्राज्ञा होय अर जाकी मृत्यु उदय आई होय ताहीकी तरफ रथ चलाऊ । तब राजा कहते भए कि हे प्रिये, गरीबोंके मारनेकर कहा ? जो या सर्व सेना का अधिपति हेमप्रभ है जाके सिरपर चन्द्रमा सारिखा सुफेद छत्र फिरे है । ताही की तरफ रथ चला। हे रणपण्डिते, आज मैं इस अधिपति हीको मारूंगा। जब दशरथने ऐसा कहा तब वह पतिकी आज्ञा प्रमाण वाहीकी तरफ रथ चलावती भई । कैसा है रथ ? ऊंचा है सुफेद छत्र जाके बर मारक्त रूप है महाध्वजा जाकी, रथविषै ये दोनों दम्पती देवरूप विराजे हैं इनका रथ अग्नि समान है.जे या रथकी और आए वे हजारों पतङ्गकी नाई भस्म भए, दशरथके चलाये जे बाण तिनकर अनेक राजा बींधे गए सो क्षणमात्र में भागे तब हेमप्रभ जो सबोंका अधिपति हुता ताके प्रेरे पर लज्जावान होय दशरथसे लडनेको हाथी घोडा रथ पियादोंसे मडित पाए। किया ईशरपनेका महाशब्द जिन्होंने, तोमर जातिके हथियार बाण चक्र कनक इत्यादि अनेक जातिके शख अकेले दशरथपर डारते भए । सो वड़ा आश्चर्य है दशरथ राजा एक रथका स्वामी था सो युद्ध समय मानो असंख्यात रथ हो गये अपने बाणकर समस्त बैरिनिके बाण काट डाले पर आप जे बाण चलाये ते काहूकी दृष्टि न पाए पर शत्रुवोंके लगे सो राजा दशरथने हेमप्रभकोखमात्र में जीत लिया ताकी ध्वजा छेदी छत्र उड़ाया भर रथके अश्व पायल किये रथ तोर Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ प-पुरा डाला रथसे नीचे डार दिया तब वह राजा हेमप्रभ और रथपर चढ़ कर भयंकर कम्पायमान होय अपना यश कालाकर शीघ्र ही भागा। दशरथने आपको बचाया स्त्री बचाई अपने रथके प्रश्च बचाए वैरियोंके शस्त्र छेदे अर वैरियोंको भगाया, एक दशरथ अनंगरथ जैसे काम करता भया, एक दशरथ सिंह समान ताको देख सर्व योधा सर्व दिशाको हिरण समान हो भागे। अहो; धन्य शक्ति या पुरुषकी अर थन्य शक्ति या कन्याकी, ऐसा शब्द ससुर की सेनामें अर शत्रयों की सेनामें सर्वत्र भया अर बंदी जन मिरद बखानते भए। राजा दशरथने महाप्रतापको धरे नगरमें केकईसे पाणिग्रहण किया महामंगलाचार भया, राजा केकईको परणकर अयोध्या पाए पर जनक भी मिथिलापुर गये बहुर इनका जन्मोत्सव अर राज्याभिषेक विभूतिसे भया पर समस्त भयरहित इन्द्र समान रमत भए । तह सर्व रानीनिक मध्य राजा दशरथ केकई कइते भए-चन्द्रवदनी! तेरे मनमें जो वस्तुकी अभिलाषा होय सी मांग, जो तू मांगे सोई देऊ । हे प्राणप्यारी ! तोसों में अति प्रसन्न भया हूं। जो तू अति विज्ञानसे उस युद्ध में रथको न प्रेरती तो एक साथ एते वैरी आए थे तिनको मैं कैसे जोतता । जब रात्रीका अन्धकार जगत में व्यास रहा है जो अरुण सारिखा सारथी न होय तो ताहि सूर्य कैसे जीते । यः भांति केकईके गुणवर्णन राजाने किए तब वह पतिव्रता लज्जाके भारकर अधोमुख हो गई। राजाने रहुरि कही तब केकईने वीनती करी हे नाथ ! मेरा वर आपके धरोहर रहे जिस समय मेरी इच्छा होयी ता समय लूगी। तब राजा अति प्रसन्न होय कहते भये हे कमलवदनो! मृगनयनी ! श्वेत श्यामता आरक्तता ये तीन वर्ष को धरे अद्भुत हैं नेत्र जाके, अद्भुत बुद्धि तेरी हे महा नरपतिकी पुत्री अति नयकी वेसा सर्व कलाकी परगामिनी सर्व भागोपभोग निधि ते प्रार्थना मैं धराहर राखो । तू जब जो चाहेमी सो ही मैं दूंगा अर सब ही राज लोक ककईकी देख हर्षको प्राप्त भए अर चित्त में चिंतवते भए यह अद्भुत बुद्धिनिधान है सो कोई अपूर्व वस्तु मांगेगी अल्पवस्तु क्या मागे ? अथानन्तर गौतम स्वामी श्रेणि कसे कहे हैं हे श्रेणिकं ! लोकका चरित्र मैं तुझे सोपताकरिं कहा । जो पापी दुराचारी है ते नरक निगोदके परम दुःख पाये हैं अर जे धर्मात्मा साधु जन हैं ते स्वर्गशेक्ष में महा सुख पावै हैं। भगानकी आज्ञाके अनुसार बड़े बड़े सत्पुरुषोंके चरित्र तुझे कहे। अब श्रीरामचन्द्रजीकी उत्पत्ति सुन । कैसे हैं श्रीरामचन्द्रजी ? उदार प्रजाके दुःख हरणहारे महान्यायपंत महा धर्मवंत महाविवेकी महाशरवीर महाज्ञानी इक्ष्वाकु वंशका उद्योत करणहारे बड़े सत्पुरुष हैं। इति श्रीरविपेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविर्षे राणी केकईको राजा दशरथका बरदानवर्णन कथन करनेबाला चौबीसबां पर्ण पूर्ण भया ॥२४॥ अथानन्तर जाहि अपराजिता कहै हैं ऐसी कौशल्या सो रत्नजडित महिलविले महामुंदर सेज पर सूती हुती सो रात्रीके छिले पहिर अतिशयसे अद्भत स्वप्न देखती भई उज्ज्वल हस्ती Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवा पर्व इन्द्र के ऐरावत हस्ती समान १ और महा केसरी सिंह २ अर सूर्य ३ तथा सर्व कला पूर्ण चन्द्रमा ४ ये पुराणं पुरुषोंके गर्भ में आवनेके अद्भत स्वप्न देख आश्चर्यको प्राप्त भई बहुरि प्रभातके वादिष पर मंगल शब्द सुन कर सेजतें उठी। प्रभात क्रियातें हर्षको प्राप्त भया है मन जाका, महा विजयवंती सखी जनमण्डित भरतारके समीप जाय सिंहासन पर बैठी । कैसी है राणी ? सिंहासनको शोभित करणहारी हाथ जोड नम्रीभूत होय मनोहर स्वप्न जे देखे तिनका वृत्तान्त स्वामीसे कहती मई । तब समस्त विज्ञानके पारगामी राजा स्वप्नोंका फल. कहते भए-हे कांते ! परम भाश्वर्यका कारण तेरे मोक्षगामी पुत्र अंतर वाह्य शत्रुवोंका जीतनेहारा महा पराक्रमी होयगा । रागद्वेष मोहादिक अंतरंग शत्रु कहिए और प्रजाके बायक दुष्ट भूपति वहिरंग शत्रु कहिए या भांति राजाने कही तब राणी अति हर्पित होय अपने स्थानक गई मन्द मुलकन रूप जो केश उनसे संयुक्त है मुख कमल जाका अर राणी के कई पति सहित श्रीजिनेंद्रके जे चैत्यालय तिनमें मावसंयुक्त महा पूजा करावती भई सो भगवानकी पूजाके प्रभावतें राजाका सर्व उद्वेग मिटा चित्तौ महाशांति होती भई। अथानन्तरं राझी कौशल्या के श्रीराम का जन्म भपा, राजा दशरथने महा उत्सव किया पत्र चमर सिंहासन टार बहुत द्रव्य याचकोंको दिये, उगते सूर्य समान है वर्ण रामका, कमल समान है नेत्र और लक्ष्मीसे प्रालिंगित है वक्षस्थल जाका तातें माता पिता सर्व कुछम्बने इनका पचनाम धरा सुमित्रा प्रति संदर है रूप जाका सो महा शुभ स्वप्न अवलोकन कर आश्चर्यको प्राप्त होती भई वे स्वप्न कैसे सो सुनो-एक बडा केहरी हि देखा, लक्ष्मी अर कीर्ति बहुत आदरसे सुन्दर जलके भरे कलश कमलसे ढके तिनकर स्नान करावै है पर आप सुमित्रा बडे पहाडके मस्तक पर बैठी है और समुद्र पर्यंत पृथिवीको देखे है पर देदीप्यमान हैं किरमोंके समूह जाके ऐसा जो सूर्य सो देखा भर नानाप्रकारके रनासे मंडेत चक्र देखा । ये साप्न देख प्रभातके मंगलीक शब्द भए तब सेजते उठिकर प्रातक्रियाकर बहुत विनयसंयुक्त पतिके समीप जाय मिष्ट वाणीकर स्वप्नोंका वृत्तांत कहती भई तब वह कहता भया-हे वरानने ! कहिए सुन्दर है वदन जाका तेरे पृथ्वीपर प्रसिद्ध पुत्र होयगा, शत्रुलोंके समूहका नाश करनहारा महा तेजस्वी आश्चर्यकारी है चेष्टा जाकी ऐसा पतिने कहा तब वह पतिव्रता हर्षसे भरा है चित्त जाका अपने स्थानकको गई. सर्व लोकोंको अपने सेवक जानती भई बहुरि याके परमज्योतिका धारी पुत्र होता भया मानो रत्नोंकी खानविष रत्न ही उपजा जैसा श्रीरामके जन्मका उत्सव किया हुता तैसा ही उत्सव भया । बा दिन सुमित्राके पुत्रका जाम भया ताही दिन रावणके नगरविर्षे हजारों उत्पात होते भए, अर हितुवोंके नगरमें शुभ शकुन भए, इंदीवर क ल समान श्यामसुन्दर अर कांति रूप जल का प्रवाह भले लक्षणोंका धरणहारा तातें माता पिताने लक्ष्मण नाम थरा । राम लक्ष्मण ये दोऊबालक महामनोहर रूप मंगा समान हैं लाल होंठ जिनके अर लाल कमल समान हैं कर पर चरख जिनके माखनसे भी अति कोमल है शरीरका स्पशे जिनका, अर महासुगंध शरीर में Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप-पुराण दोनों भाई बाललीला करते कौनके चित्तको न हरें, चंदनकरि लिप्त है शरीर जिनका, केसरका तिलक किये अति सोहैं, मानों विजयागिरि अरि अजनगिरि ही स्वर्ण के रससे लिप्त हैं, अनेक जन्मका बढ़ा जो स्नेह तातै परम स्नेहरूप चन्द्र सूर्य समान ही हैं। महल मांही जावें तब तो सर्व स्त्रीजनको अतिप्रिय लगें अर बाहिर आवें तब सर्व जनोंको प्यारे लगें। जब ये बचन बोलें तर मानों जगतको अमतकर सीचें हैं, अर नेत्रोंकर अवलोकन करें तब सबको हर्पसे पूर्ण करें सबन के दारिद्र हरणहारे सबके हितु सबके अन्तःकरण पोषणहारे मानों ये दोनों हर्षकी अर शूरवीरता की मूर्ति ही हैं, अयोध्यापुरीविष सुख से रमते भए। कैसे हैं दोनों कुमार ? अनेक सुभट करें हैं सेवा जिनकी, जैसे पहले बलभद्र विजय अर वासुदेव त्रिपृष्ठ होते भए तिन समान है चेष्टा जिनकी । बहुरि केकईको दिव्यरूपका थारणहारा महाभाग्य पृथिवीपर प्रसिद्ध भरत नामा पुत्र भया बहुरि सुप्रभाके सर्व लोकमें सुन्दर शनुवोंका जीतनहारा शत्रुघ्न ऐसा नाम पुत्र भया, पर रामचन्द्रका नाम पन तथा बलदेव अर लक्ष्मण नाम हरि अर बासुदेव अर अद्धचक्री भी कहे हैं, एक दशरथकी जो चार राणी सो मानों चार दिशा ही है तिनके चार ही पुत्र समुद्र समान गंभीर पर्वत समान अचल जगतके प्यारे, इन चारों ही कुमारोंको पिता विया पढ़ानेके अर्थ योग्य पाठकको सौंपते भए॥ ___अथानन्तर कापिन्य नामा नगर अतिसुन्दर, तड़ो एक शिवी नामा ब्रामण ताकी इषुनाम स्त्री ताके अरि नामा पुत्र सो महा अविवेकी अविनई माता पिताने लड़या सो महा कुचेष्टाका धारणहारा हजारों उलहानोंका पात्र होता भया, यद्यपि द्रव्यका उपार्जन, धर्मका संग्रह, विद्य का ग्रहण, वा नगरमें ये सब ही बातें सुलभ हैं परन्तु याको विद्या सिद्ध न भई, तब माता पिताने विचारी विदेशमें याहि सिद्धि होय तो होय, यह विचार खेद खिन्न होय धरतें निकास दिया, सो महादुखी हो। केवल वस्त्र याके पास सो यह राजगृह नगरमें गया, तहां एक वैवस्वत नामा धनुर्वेदका पाठी महापण्डित, जाके हजारों शिष्य विद्याका अभ्यास करें, ताके निकट ये अरि यथार्थ धनुष विद्याका अभ्यास करता भया सो हजारों शिष्योंविष यह महाप्रवीण होता भया । ता नगरका राजा कृशान सो ताके पुत्र भी वैवस्वत के निकट वाण विद्या पढ़ें सो राजाने सुनी कि एक विदेशी ब्राह्मण का पुत्र आया है, जो राजपत्रनिहतै अधिक बाणविद्याका अभ्यासी भया सो राजा मनमें रोष किया । जब यह बात बैवस्वतने सुनी तब अरिको समझाया कि तू राजाके निकट मूर्ख हो जा, विद्या मत प्रकाशै, सो राजाने धनुष विद्याके गुरु को बलाया जो मैं तेरे सर्व शिष्योंकी विद्या देखूगा तब सब शिष्यों को लेकर यह गया। सब ही शिष्यों ने यथायोग्य अपनी अपनी बाणविद्या दिखाई, निशाने बींधे, ब्राह्मणका जो पुत्र अरि, ताने ऐसे बाण चलाए सो विद्यारहित जाना गया तब राजाने जानी, याकी प्रशंसा काहूने झूठी कही तब वैवस्वतको सर्व शिष्यों सहित सीख दीनी तब अपने घर आया वैवस्वतने अपनी पुत्री अरिको परणाय विदा किया सो रात्रि ही प्रयाणकर अयोध्या माया । राजा दशरथसों मिला अपनी वाणविद्या दिखाई तव राजा प्रसन्न हो अपने चारों पुत्र पाखविधा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goatnai पर्व PRO सीखनेको याके निकट राखे । ते बाणविद्याविषै प्रतिप्रवीण भए जैसे निर्मल सरोवर में चन्द्रमा की कांति विस्तारको प्राप्त होय तैसे इनमें वाणविद्या विस्तारको प्राप्त भई और भी अनेक विद्या गुरुसंयोगतें तिनको सिद्ध भई जैसे किसी ठौर रत्न मिले होवें अर ढकनेसे ढके होवें सो ढकना उघाड़े प्रकट होंय तैसे सर्व विद्या प्रकट भई । तब राजा अपने पुत्रोंकी सर्व शास्त्रविषे प्रति प्रवीणता देख अर पुत्रोंका दिनय उदार चेष्टा अवलोकन कर अतिप्रसन्न भया । इनके सर्वविद्यावों गुरुवोंकी बहुत सन्मानता करी । राजा दशरथ गुणों के समूह से युक्त, महाज्ञानीने जो उनकी हुत अधिक सम्पदा दीनी, दानविषै विख्यात है कीर्ति जाकी । केतेक जीव शास्त्रज्ञान को पाकर परम उत्कृष्टताको प्राप्त होय हैं और कैथक जैसे के तैसे ही रहे हैं अर कैयक fare कर्म योग मदकरि आधे होय हैं जैसे सूर्यको किरण स्फटिकगिरिके तटविष अति प्रकाशको थर है, और स्थानकविषै यथास्थित प्रकाशको घरे है अर उल्लुवों के समूहमें अतितिमिररूप होय परणवै ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत प्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै चारि भाईनिके जन्मका कथन वर्णन करनेवाला पच्चासनां पर्व पूर्ण भया ।। २५ ।। ० अथानन्तर गीतम स्वामी राजा श्रेणिकतै कहै हैं - हे श्रेणिक ! छात्र भामण्डल र Satara कथन सुनो। राजा जनककी स्त्री विदेहा ताहि गर्भ रहा सो एक देवके यह अभिलाषा हुई कि जो या बालक होय सो मैं ले जाऊं । तब श्रेणिकने पूछा- हे नाथ ! वा देवके ऐसी अभिलाषा का उपजी सो मैं सुना चाहूं हूं तब गौतम स्वामी कहते भए --हे राजन्, चक्रपुर नामा एक नगर है तहां चक्रज नामा राजा ताके राणी मनस्विनी तिनके पुत्री चित्तोरसवा सो कुबारी चटशाला में पढ़े और राजाका पुरोहित धूम्रकेश ताके स्वादा नामा स्त्री ताका पुत्र पिंगल सो भी चटशाला में गर्दै । सो विद्योत्सवाका और पिंगलका चित्त मिल गया सो इनको विद्याकी सिद्धि न भई, जिनका मन कामवाणोंसे बेषा जाय तिनको विद्या र धर्मकी प्राप्ति न होय है । प्रथम स्त्री पुरुषका संसर्ग होय बहुरि प्रीति उपजै, प्रीति से परस्पर अनुराग बढे, बहुरि विश्वास उपजै ताकरि विकार उपजै, जैसे हिंसादिक पंच पापोंसे अशुभ कर्म बन्थें वैसे स्त्री संगत काम उपजै है || अथानन्तर वह पापी पिंगल चित्तोत्सवाको हर ले गया जैसे कीर्तिको अपयश हर ले जाय, जब वह दूर देशनिविषै हर लेगया तब सर्व कुटुम्बके लोकोंने जानी, अपने प्रमादके दोषकर ताने वह हरी है जैसे अज्ञान सुगतिको हरे तैसे वह पिंगल कन्याको चुरा ले गया परन्तु धनरहित शोभै नाहीं जैसे लोभी धर्मवति तृष्णासे न सोहै सो यह विदग्ध नगर में गया वहां अन्य राजावोंकी गम्यता नहीं सो निर्धन नगर के बाहिर कुटी बनाय कर रहा ता कुटीके किवाड़ नाहीं अर यह ज्ञान विज्ञानरहित तृण काष्ठादिकका विक्रयकर उदर भरे दारिद्रके सागर में मग्न सो स्त्रीका और आपका उदर महा कठिनता से भरे । तहां राजा प्रकाशसिंह भर राबी Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच-पुराण प्रवरावलीका पुत्र जो राजा कुण्डलमण्डित सो या स्त्रीको देख शोषण संपन उच्चाटन वशीकरण मोहन ये कामके पंच बाण इनकरि वेध्या गया ताने रात्रिको दूती पठाई सो चित्तोत्सवा को राजमन्दिरमें ले गई जैसे राजा सुमुखके मन्दिरपि दूती वनमालाको लेगई हुती सो कुण्डल मण्डित सुखसे रमै॥ अथानन्तर वह पिंगल काष्ठका भार लेकर घर आया सो सुन्दरीको न देखकर प्रति कटके समुद्रमें डूबा, विरहकरि महा दुखित भया, काहू जगह मुखको न पावै चक्रविधी आरूढ समान याका चित्त ब्याकुल भया, हरी गई है भार्या जाकी ऐसा जो यह दीन ब्राह्मण सो राजा पै गया और कहता भया-हे राजा, मेरी स्त्री तेरे राज में चोरी गई, जे दरिद्री आर्तिवंत भयमीत स्त्री वा पुरुष उनको राजा ही शरण हैं, तब राजा धूर्त पर ताके मन्त्री त सो सजाने मन्त्रीको बुलाय झूठमूठ कहा याकी स्त्री चोरी गई है ताहि पैदा करा, ढील मत करो तम एक सेषाने नेत्रोंकी सैन मार कर झूठ कहा । हे देव, में या ब्राह्मण की स्त्री पोदनापुरके मार्गमें पथिकनिके साथ जाती देखी सो आर्यिका ओंकै मध्य तप करणेको उद्यमी है ताते हे वाक्षस, तू ताहि लाया चाहे तो शीघ्र ही जा, ढील काहेको करै ताका भवार दीक्षा धरनेका समय कहां, वरुण है शरीर जाका अर महाश्रेष्ठ स्त्रीके गुणोंसे. पूर्ण है ऐसा जब झूठ कहा तक ग्रामय माढी कमर वांध शीघ्र बाकी ओर दौड़ा, जैसे तेज घोड़ा शीघ्र दौड़े सो पोदनापुरमें चैत्यालय तथा उपवनादि वनमें सर्वत्र दंदी, काहूं ठौर न देखी तब पाछा विदग्थनगर में पाया सो राजा की आज्ञातें कर मनुष्योंने गलहटा देय लष्टमुष्टि हार कर दूर किया, ब्राह्मण स्थानभ्रष्ट भयर क्लेश भोगा, अपमान लहा, मार खाई । एते दुःख भोग कर दूर देशान्तर उठ गया, सो प्रिया बिना याको किसी टौर सुख नहीं जैसे अग्विमें पड़ा सर्प सूसै वैसे यह रात दिन सूसता माया, विस्तीर्म कमलोंका वन याहि दावानल समान दीखे अर सरोवर अवगाह करता विरहरूप परिव से वले या भांति यह महा दुखी पृथ्वीविर्ष भ्रमण करै । एक दिन नगरसे दूर वनमें मुनि देखे। मनिका नाम आर्यगुप्ति बड़े आचार्य तिनके निकट जाय हाथ जोड़ नमस्कार कर धर्म अवस कर याको वैराग्य उपजा महा शान्तचित्त होय जिनेन्द्रके.मार्गकी प्रशंसा करता भया। मनमें विचार है-अहो यह जिनराजका मार्ग परम उत्कृष्ट है । मैं अन्धकारमें पड़ा हुता सो यहा बिनधर्म का उपदेश मेरे घटमें सूर्य समान प्रकाश करता भया मैं अब पापों का नाश करनहारा जो जिनशासन ताका शरण लेऊ, मेरा मन और तन विरहरूप अग्निमें जरै है सो मैं शीतल करू, तब गुरुकी आज्ञातें वैराग्यको पाय परिग्रहका त्याग कर दिगम्बरी दीक्षा धरता भया, पृथ्वी पर बिहार करता सर्व संगका परित्यागी नदी पर्वत मसान वन उपवनोंमें निवास करता तपकर शरीरका शोषण करता भया । जाके मनको वर्षाकालमें अति वर्षा भई तो भी खेद न उपजा और शीतकालमें शीत वायुकरि जाका शरीर न कांपा और ग्रीष्म ऋतुमें सूर्य की किरण कर व्याकुल न भया । याका मन विरहरूप अग्निकर जला हुता सो जिनवचनरूप जलकी तरंगकरि शीवल मया । वपकर शरीर अर्थ दग्ध वृक्षके समान होय गया। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ andrei प २२८ अब जिदग्धपुरका राजा जो कुंडलमंडित ताकी कथा सुनो- राजा दशरथका पिता अनरण्य अयोध्या में राज्य करे सो यह कुंडलमंडित पापी गढ़के बलकर अनरण्यके देशको विराथै जैसे कुशील पुरुष मर्यादा लोप करे तैसे यह ताकी प्रजा को बाथा करै । राजा अनरण्य बड़ा राजा ताके बहुत देश सो याने कैयक देश उजाडे जैसे दुर्जन गुणों को उजाडै अरं राजा के बहुत सामंत विराधे जैसे कवाई जीवनि के परिणाम विराधै अर योगी कषायका निग्रह करें तैसे याने राजासे fits कर अपने नाशका उपाय किया सो यद्यपि यह राजा अनरण्यके आगे रंक है तथापि गढ़ के बलसे पकड़ा न जाय जैसे मूसा पहाड़ के नीचे जो बिल तामैं बैठ जाय तब नाहर क्या करें सो राजा अनरण्यकी या चिंतामें रात दिन चैन न पडै श्रहारादिक शरीरको क्रिया अनादरसे करे तब राजाका बालचन्द्र नामा सेनापति सो राजाको वितावान् देख पूछता भया - हे नाथ ! आपकी व्याकुलताका कारण कहा ? जब राजाने कुंडलमंडितका वृत्तांत कहा तत्र बालचन्द्र ने राजा से कही आप निश्चित होवो उस पापी कुंडलमंडितको बांधकर आपके निकट ले आऊ । तच राजाने प्रपन्न होय बालचन्द्रको विदा किया । चतुरंग सेना ले बालचन्द्र सेनापति चढ़ा सो कॅडलमंडित मूर्ख चित्तोत्सवामें आसक्त चिच सर्व राजचेष्टारहित मह प्रमाद में लीन था, नहीं जाना है लोकका वृत्तांत जानें वह कुण्डलमण्डित नष्ट भया है उद्यम जाका सो बालचन्द्रने जाय कर क्रीडा मात्र जैसे मृगको बांधे वैसे बांध लिया पर उसके सर्व राज्यमें राजा अनरण्यका अधिकार किया र कुण्डलमण्डितको राजा अनरस्य के समीप लाया । बालचन्द्र सेनापतिने राजा 'अनरण्यका सर्व देश बाधारहित किया राजा सेनापति से बहुत हर्षित भया अर बहुत बधारथा और पारितोषिक दिये भर कुण्डलमण्डित अन्याय मार्गत राज्यसे भ्रष्ट भया हाथी घोड़े रथ पयादे सब गये, शरीर मात्र रह गया, पयादे फिरे सो महादुखी पृथ्वी पर अन करता खेदविन्न भैया, मनमें बहुत पछतावै जो मुझ अन्याय मार्गीन बड़ोंसे विरोध कर बुरा किया। एक दिन यह मुनियोंके आश्रम जाय आचार्यको नमस्कार कर भावसहित धर्मका भेद पूछता भया । गौतम स्वामी राजा श्रेकिर्ते कहे हैं—हे राजन् ! दुखी दरिद्री कुटुम्बरहित व्याधिकारी पीडित विनमें काहूँ एक भव्य जीवके धर्म बुद्धि उपजे है । ताने आचार्य से पूछा – हे भगवन् ! जाकी नि होनेकी शक्ति न होय सो गृहस्थाश्रम में कैसे धर्म का सावन करें ? आहार भय मैथुन परिग्रह यह चार संज्ञा तिनमें तत्पर यह जीव कैसे पापकरि छूटै, सो मैं सुना चाहूँ हूँ, आप कृपा कर कहो । सब गुरु कहते भए-धर्म जीवदयामयी है । ये सर्व प्राणी अपनी निंदा कर घर गुरुनि के पास आलोचना कर पापनतें छूटे हैं। अपना कल्याण चाहे है अर शुद्ध धर्मकी अभिलाषा करें को दिसाका कारण महापौर कैसे अप लहू अर वीर्य से उपजा ऐसा जो मांस ताका भक्षण सर्वथा डर है तिनके मांस कर जे अपने शरीरको पोपे हैं ते पापी भक्षण करें हैं और नित्य स्नान करें हैं विनका स्नान वृथा भेष भी वृथा है अर तीर्थयात्रा पर अनेक प्रकारके दान तज । सर्व ही संसारी जीव मरण निसंदेह नरकमें पडेंगे । जे मांसका हैं पर मूड मुडाय भेष लिया सो Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपवासादिक यह मांसाहारीको नरकसे नाहीं बना सके हैं । या जगतमें ये सब ही जाति के जीव बाथव भए हैं तातें जो पापी मांसका भक्षण करें है ताने तो सर्व बांधव भषे जो दुष्ट निर्दयी मच्छ मग पक्षियोंको हने हैं अर मिथ्यामार्गमें प्रवरते हैं सो मधु मांस मवखत महाङ्कगतिमें जावे हैं। यह मांस वृक्षनितें नाहीं उपजे है, भूमितें नाहीं उपजै है, पर कमलकी न्याई जल से नाही निपजै है अथवा अनेक वस्तुओंके योगते जैसे औषथि बने है तैसे मांस की उत्पत्ति नाही होय है, दुष्ट जीव निर्दयी वा गरीब बडा वल्लभ है जीतव्य जिनको ऐसे पक्षी मृग मत्स्यादिक तिनको हनकर मांस उपजावै हैं सो उत्तम जीव दयावान नहीं भर्षे पर जिनके दुग्धकरि शरीर वृद्धिको प्राप्त होय ऐसी गाय भैंस छेली तिनके मृतक शरीरको भर्ख हैं अथवा मार मारकर भरे हैं तथा तिनके पुत्र पौत्रादिकको भी हैं ते अधर्मी महानीच नरक निगोदके अधिकारी हैं जो दुराचारी मांस भखे हैं ते माता पिता पुत्र मित्र सब ही भर्से । या पृथ्वीके तले भवनबासी पर व्यन्तर देवोंके निवास हैं अर मध्य लोकमें भी हैं ते दुष्ट कर्मके करनहारे . नीच देव हैं जो जीव कषाय सहित तापस होय हैं ते नीच देवों में निपजे हैं. पातालमें प्रथम ही रत्नप्रभा पृथ्वी ताके तीन भांग, तिनमें खर पर पंक भागमें तो भवनवासी अर व्यनार देवनिके निवास हैं पर वहल भागमें पहिला नरक ताके नीचे छह नरक और हैं ये सातों नरक छह राजूमें हैं पर सातवें नरकके नीचे एक राजूमें निगोदादि स्थावर ही हैं, स जीव नहीं हैं पर निगोदसे तीन लोक भरें हैं। अथानन्तर नरकका व्याख्यान सुनो-कैसे हैं नारकी जीव ? महाकर, महाडशन्द बोलनेहारे, अति कठोर है स्पर्श जाका, महादुगंध अन्धकाररूप नरकमें पड़े हैं। उपमारहित जे दुख तिनका भोगनहारा है शरीर जिनका, महाभयंकर नरक ताहि कुम्भो कहिए जहां वैतरणी नदी है अर तीक्ष्ण कंटक युक्त शान्मलीच जहां अमिपत्रवन तीक्ष्ण खडगकी धारा समान है पत्र जिनके अर तहां देदीप्यमान अग्निसे ततायमान तीखे लोहेके कीले निरंतर है उन नरकनिमें मधु मां लके भक्षणहारे अर जीवोंके मारणहारे निरंतर दुख भोगे हैं। जहां एक माध अंगुलभी चत्र सुखका कारण नहीं अर एक पल को भी नारकियों को विश्राम नाही जो चाहें कि कई भाजकर छिप रहें तो जहां जांय तहां ही नारकी मार अर असुरकुमार पापी देव बताय देय। महा प्रज्ज्वलित अंगारतुल्य जो नरककी भूमि तामें पडे ऐसे विलाप करें जैसे अग्निमें मत्स्य व्याकुल हुआ विलाप करें पर भयसे व्याप्त काहू प्रकार निकस कर अन्य ठौर गया था तो तिनको शीतलता निमित्त और नारकी वेतरणी नदीके जलसे छींटे देय सो बेतरखो महा दुर्गध चारजलकी भरी ताकरि अधिक दाहको प्राप्त होंय बहुरि विश्रामके अर्थ मसिपत्र बनमें जाय सो असिपत्र सिर पर पडे मानो चक्र खड्ग गदादिक हैं तिनकरि विदारे जावें, बिद गये हैं नासिका कर्ण कंधा जंधा आदि शरीरके अंग जिनके, नरकमें महाविकराल महादुखदाई पवन है अर रुधिरके कण वरस हैं जहां पानीमें पेलिए हैं पर क्रूर शम्द होय हैं तीष शलोंसे मेदिर हैं महाविलापके शब्द करै हैं अर शाल्मली वृक्षोंसे घसीटिए हैं भर महामनगरोंके घातसे कुटिए Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां पर्व २३१ हैं पर जब तिसाए होय हैं तब जलकी प्रार्थना करै हैं तब उन्हें तांबा गलाकर प्यावे हैं तातें देह महा दग्धमान होय हैं ताकर महादुखी होय हैं अर कहै हैं कि हमें तृष्णा नाहीं तो पुनि बलात्कार इनको पृथ्वी पर पछाड़ कर ऊपर पण देय संडासियोंसे मुख फाड़ ताता तांबा प्यावै हैं तात कंठ भी दग्य होय है अर हृदय भी दम्ब होय है, नारकियों को नारकियोंका अनेक प्रकार का परस्पर दुख तथा भवनवासी देव जे असुरकुमार तिनकार करवाया दुख सो कोन वर्णन कर सके । नरकमें मद्य मांसके भदणसे उपजा जो दुख ताहि जान कर मद्य मांसका भक्षण सर्वथा तजना । ऐसे शुनिके वचन सुन, नरकके दुखसे डरा है मन जाका ऐसा जो कुंडलमण्डित सो बोला। हे नाथ ! पापी जीव तो नरक हीके पात्र हैं अर जे विवेकी सम्यक दृष्टि श्रावकके व्रत पाले हैं तिनकी कहा गति है ? तर मुनि कहते भये-जे दृढ व्रत सम्यग्दृष्टि श्रावकके व्रत पाटे हैं ते स्वर्ग मोबके पात्र हैं और ह जे जीव मद्य मांस शहतका त्याग कर हैं ते भी कुगतिसे बचे हैं जे अभक्ष्यका त्याग करै हैं सो शुभ गति पावै हैं जो उपवासादिक रहित हैं पर दानादिक भी नहीं बने हैं परन्तु मय मांसके त्यागी हैं तो भले हैं पर जो कोई शीलवत मंडित है अर जिन शासनका सेवक है अर श्रावकके व्रत पाले है ताका कहा पूछना ? सो तो सौधर्मादि स्वर्गमें उपजै ही है। अहिंसाव्रत धर्मका मूल कहा है अहिंसा । सो मांसादिकके त्यागीके अत्यन्त निर्मल होय है । जे म्लेच्छ अर चाण्डाल हैं अर दयावान होते हैं वह मधु मांसादिका त्याग कर हैं सो भी पापसे छूट हैं पापनिकरि छूटा हुआ पुण्यको ग्रहै है अर पुष्पके बंधनसे देव अथवा मनुष्य होय है अर जो सम्पदृष्टि जीव हैं सो अणुव्रतको धारणकर देवोंका इन्द्र होय परम भोगोंको भोगे हैं बहुरि मनुष्य होय मुमिव्रत धर मोक्ष पद पावै हैं । ऐसे आचार्य के वचन सुनकर यद्यपि कुंडलमंडित अणुव्रतके पालने में शक्तिरहित है तो भी सीस नवाय गुरुवोंको सविनय नमस्कार कर मद्यमांसका त्याग करता भया, अर समीचीन जो सम्यग्दर्शन ताका शरण ग्रहा, भगवानकी प्रतिमाको नमस्कार अर गुरुवोंको नमस्कार कर देशांतरको गया । मनमें ऐसी चिंता भई कि मेरा मामा महापराक्रमी है सो निश्चम सेती मुझे खेदखिन्न जान मेरी सहायता करेगा। मैं बहुरि राजा होय शत्रु बोंको जीतूंगा ऐसी भाशा थर दक्षिण दिशा जायवेको उद्यमी भया सो प्रति खेदखिन दुखसे भरा धीरे २ जाता हुता सो मार्गमें अत्यन्त व्याधि वेदना कर सम्यक्त्व रहित होय मिथ्यात्व गुण ठाने मरणको प्राप्त भया। कैसा है मरण ? नाही है जगतमें उपाय जाका सो जिस समय कुंडलमण्डितके प्राण छूटे सो राजा जनककी स्त्री विदेहाके गर्भ में पाया ताही समय वेदवतीका जीव जो चित्तोत्सवा भई हुती सो भी तपके प्रभावकरि सीता भई सोहू विदेहाके गर्भ में आई, ये दोनों एक गर्भ में आए अर वह पिंगल ब्राह्मण जो मुनिव्रत धर भवनवासी देव भया हुता सो अवधिकर अपने तपका फल जान बहुरि विचारता भया कि वह चित्तोत्सवा कहां पर वह पापी कुडलमण्डित कहां ? जाकरि मैं पूर्व भवमें दुख अवस्थाको प्राप्त भया अब वे दोनों राजा जनककी स्त्रीके गर्भ में पाये हैं सो वह तो स्त्रीकी जाति पराधीन हुती । उस पापी Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धुरग कंडलमण्डितने अन्याय मार्ग किया सो यह मेरा परम शत्र है जो गर्भ में विराधना करू ती राणी मरणको प्राप्त होय सो यासे मेरा वैर नाही तातें जब यह गर्भ बाहिर आवै तब मैं याहिं दुखद् ऐसा चिंतवता हुआ पूर्व कर्मके बैरकरि क्रोधायमान जी देव सो कंडलमण्डितके जीयपर हाथ मसले । ऐसा जानकर सर्व जीवनिकू क्षमा करनी काहू को दुख न देना जो कोई काहू को दुख देय है सो आपकी ही दुख सागरमें डुबोवे है। अथानन्तर समय पाय रानी विदेहाके पुत्र अर पुत्रीका युगल जन्न भया तब वह देव पुत्र को हरता भया सो प्रथम तो क्रोधके योगकरि नाने ऐसी विचारी कि मैं याहि शिलापर पटक मारू यहुरि विचारी कि धिक्कार है भो मैं असा अनन्त संसारका कारण पाप चितया, बालहत्या समान और कोई पाप नाही, पूर्व भवमें मैं मुनिव्रत बरे हुते तृणमात्रका भी विराधन न किया सर्व आरंभ तजा, नाना प्रकार तप किए श्रीगुरुके प्रसादसे निर्मल धर्म पाय ऐसी विभूतिको प्राप्त भया अब मैं ऐसा पाप कैसे कर अल्पमात्र भी पापकर महादुखकी प्राप्ति हो है। पापकरि यह जीव संसार वनविप बहुत काल दुखरूप अग्निमें जलें है अर जो दयावान निर्दोष है भावना जाकी महासावधानरूप है सो धन्य है । सुगति नामा रत्न वाके हाथमें है । वह देन ऐसा विचारकर दयावान होयकर बालकको आभूषण पहराय काननविर्षे महा देदीप्यमान कुण्डल घाले। परणलब्धी नामा विद्याकर आकाशते पृथिवीविष सुखकी ठौर पंथराय आप अपने धाम गया सो रात्रिके समा चन्द्रगति नामा विद्य धरने या चालकको आभरणकी ज्योंतिकर प्रकाशमान आकाशसे पड़ता देखा तब विचारी कि यह नक्षत्रपात भया तथा विद्युत्पात मया यह विचारकर निकट आय देखे तो बालक है । तब हर्षकर चालकको उठाय लिया पर अपनी राणी पुष्पवती जो सेजमें सूती हुनी ताकी जांघोंके मध्य धर दिया और राजा कहता भया-हे राणी! उठो उठो तिहारे बालक भया है बालक महाशोभायमान हैं। तब रानी सुन्दर है मुख जाका, ऐसे बालकको देख प्रसन्न भई, जाकी ज्योतिके समूहकर निद्रा जांती रही, महाविस्मयको प्राप्त होय राजाको पूछती भई-हे नाथ ! यह अद्भुन बालक कौन' पुण्यवती स्त्रीने जाया। तब राजाने कडी-हे पारी! तैंने जना, तो समान और पुए गवती कौन है, धन्य है भाग्य तेरा, जाके ऐला पुत्र भया तब वह रानी कहती भई-हे देव ! मैं तो बांझ हूं मेरे पुत्र कहां ? एक तो मुझे पूर्वोपार्जित कर्मने ठगी बहुरि तुम कहा हास्य करो हो ? तब राजाने कही हे देनी, तुम शंका मत करो स्त्रियोंके प्रच्छन्न (गुप्त) भी गर्भ होय है तब रानी ने कही ऐसे ही हो हु परन्तु याके यह मनोहर कुण्डल कहाते आए ऐसे भूमण्डलमें नहीं तब राजाने कही-हे रानी! ऐसे विचारकर कहा ? यह बालक आकाशसे पड़ा और मैं झेला तुझे दिया यह बड़े कुलका पुत्र है याके लक्षशनिकर जानिये है यह मोटा पुरुष है अन्य स्त्री तो गर्म के मारकर खेदखिन्न भई हैं परन्तु हे प्रिये, तेने याहि सुखसे पाया पर अपनी कुधिमें उपजा भी बालक जो माता पिताका भक्त न होय अर विवेकी न होय शुभ काम न करे तो ताकर कहा ? कई एक पुत्र शत्रु समान होय परणवे हैं ता उदरके पुत्र का कहा विचार ? तेरे यह पुत्र सुपुत्र Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ seater २६ होयगा शोभनीक वस्तुमें सन्देह कहा ? अब तुम या पुत्रको लेवो पर प्रसूतिके घर में प्रवेश कर भर लोकनिको यही जनावना जो राखीके गुप्त गर्भ हुता सो पुत्र भया तब राणी पतिकी श्राज्ञा प्रमाण प्रसन्न होय प्रसूतिगृहविषै गई, प्रभातविषै राजाने पुत्रके जन्मका उत्सव किया । रथन्पुर में पुत्र के जन्मका ऐसा उत्सव भया जो सर्व कुटुम्ब श्रर नगरके लोग आश्चर्य को प्राप्त भए रनोंके कुण्डलकी किरणोंकर मंडित जी यह पुत्र सो माता पिताने याका नाम प्रभामण्डल धरा भर पोषन के निमित्त थायको सोंपा । सर्व अन्तःपुरकी राणी आदि सकल स्त्री तिनके हाथ रूप कमलोंका भ्रमर होता भया । भावार्थ - - यह बालक सव लोकोंको वल्लभ, बालक सुखसों तिष्ठे हैं, यह तो कथा यहाँ ही रही । श्रथानन्तर मिथिलापुरीमैं राजा जनककी रानी विदेहा, पुत्रको हरा जान विलाप करती भई, अति ऊंचे स्वरकर रुदन किया सर्व कुटुंक्के लोक शोकसागर में पड़े रानी ऐसे पुकारे मानो शस्त्रकर मारी है--हाय ! हाय पुत्र ! तुझे कौन लेगया, मोको महादुखका करणहारा वह निर्दई कठोर चित्तके हाथ तेरे लेने पर कैसे पड़े ? जैसे पश्चिम दिशा की तरफ सूर्य आय अस्त हो जाय तैसे तू मेरे मंदभागिनीके आयकर अस्त होय गय । मैं भी परभवमें किसीका बालक विदोहा था सो मैं फल पाया तातैं कभी भी अशुभ कर्म न करना । जो अशुभ कर्म है सो दुखका बीज है। जैसे वीज बिना वृक्ष नाही तैसे अशुभ कर्म बिना दुख नहीं । जा पापीने मेरा पुत्र हरा सो मोकू ही क्यों न मार गया, अधमुईकर दुःख के सागर में काहेको डुत्रो गया । या भांति राती अति विलाप किया, तब राजा जनक आय वीर्य वंथावता भया हे प्रिये, तू शोक को मत प्राप्त होवे तेरा पुत्र जीव हैं काहूने हरा हैं सो तू निश्चय सेती देखेगीं वृथा काहेको रुदन करें है पूर्व कर्मके प्रभावकर गई वस्तु कोई तो देखिए कोई न देखिए तू स्थिरता को प्राप्त हो । राजा दशरथ मेरा परम मित्र है सो वाको यह वार्ता लिखूं हूं वह अर मैं तेरे पुत्रको तलाशकर लावेंगे भले २ प्रवीण मनुष्य तेरे पुत्र के टूढिनेको पठायेंगे। या भांति कहकर राजा जनकने अपनी स्त्रीको संतोष उपजाय दशरथके पास लेख भेजा सो दशरथ लेख बांच महाशोकवंत भया, राजा दशरथ अर जनक दोनोंने पृथ्वीमें बालकको तलाश किया परन्तु कहीं भी देखा' नाहीं तब महाकष्टकर शोकको दाब बैठ रहे ऐसा कोई पुरुष अथवा स्त्री नहीं जो इस बालक के गए सुकर भरे नेत्र न भया होय, सब ही शोकके वश रुदन करते भए । 1 अथानन्तर प्रभामण्डलके गए का शोक भुलावनेको महामनोहर जानकी बाल लीलाकर सर्व धुलोको आनन्द उपजावती भई । महाहर्षको प्राप्त भई । जो स्त्रीजन तिनकी गोदमें तिष्ठती अपने शरीरकी कांतिकर दशों दिशाको प्रकाशरूप करती वृद्धिको प्राप्त भई । कैसी है जानकी १ कमल सारिखे हैं नेत्र जाके घर महासुकंठ प्रसन्न वदन मानो पद्मद्रहके कमलके निवाससे साचात् श्रादेवी ही आई है, याके शरीररूप क्षेत्र में गुणरूप धान्य निपजते भए ज्यों २ शारीर बढ़ा त्यों त्यों गुण बड़े समस्त लोकोंको सुखदाता अत्यन्त मनोज्ञ सुन्दर लचयोंकर संयुक ३० Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण है अंग जाका, सीता कहिए भूमि ता समान क्षमाकी धरणहारी तात जगामें सीता कहाई, बदन कर जाता है चन्द्रमा जाने, पल्लव समान है कोमल आरक्त हस्त जाके, महाश्याम महासुन्दर इन्द्रनील मणि समान है केशोंके समूह जाके, अर जीती है मदकी भरी हंसिनी की चाल जाने, अर सुन्दर है भोह जाकी पर मौलश्रीके पुष्प समान मुखकी सुगंध, गुंजार को हैं भ्रमर जापर, अति कोमल है पुष्पमाला समान भुजा जाकी अर के हरी समान हैं कटि जाकी अर महा श्रेष्ठ रसका भरा जो केलेका थंभ वा समान है जंघा जाकी, स्थल कमल समान महामनोहर हैं चरण जाके, अर अतिसुन्दर है कुचयुग्म जाका, अति शोभायमान है रूप जाका, महाश्रेष्ठ मन्दिरके आंगन में महारमणीक सातसै कन्याओंके समूहमें शास्त्रोक्त क्रीडा करे, जो कदाचित् इन्द्रकी पटराणी शची अथवा चक्रवर्तीकी पटराणी सुभद्रा याके अङ्गकी शोभाको किंचित मात्र भी धरे को वे अतिमनोशरूप भासें श्रेमी यह सीता सबनितें सुन्दर है, याको रूप गुणयुक्त देख राजा जनकने विचारा, जैसे रति कारदे ह को योग्य है तैसे यह कन्या सर्व विज्ञानयुक्त दशरथके बड़े पुत्र जो राम तिन हीके योग्य है, सूर्यको किरणके योगते कमलकी शोभा प्रकट होप है। इति श्रीविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत मन्थ, ताकी भाषा बचनिकाविषै सीता प्रभामंडल का जन्म कथा नाम बर्णन करनेबोलो छब्बीसवां पर्ब पूर्ण भयो ॥२६॥ अथानन्तर राजा श्रेणिक यह कथा सुनकर गौतमस्वामीको पूछता भया-हे प्रभो! जनकने रामका कहा माहात्म्य देखा जो अपनी पुत्री देनी विचारी तब गणधर चित्तको आनन्दकारी वचन कहते भए-हे राजन् ! महापुण्याधिकारी जो श्रीरामचन्द्र तिनका सुयश सुन, जो कारणते जनक महा बुद्धिमानने रामको अपनी कन्या देनी विचारी। बैताड्यपर्वतके दक्षिण भागमें अर कैलाश पर्वतके उत्तर भागमें अनेक अंतर देश से हैं तिनमें एक अर्धचर्वर देश. असंयमी जीवनिका है जहां महा मूढ जन निर्दई म्लेच्छ लोकों कर भरा ताविष एक मयूरमाल नामा नगर कालके नगर समान महा भयानक, तहां आंतरगतम नामा म्लेच्छ राज्य करे सो महा पापी दुष्टोंका नायक महानिर्दई बडी स्नासे नानाप्रकारके श्रायुधोंकर मण्डित सकल म्लेच्छ संग लेय आर्य देश उजाडनेको आया सो अनेक देश उजाडे । केमे हैं म्लेच्छ ? करुणाभाव रहित प्रचंड हैं चित्त जिनके अर अत्यंत है दौड जिनकी सो जनक राजाका देश उजाडने को उद्यमी भए जैस टिड्डीदल आवै तैसे म्लेच्छोंके दल अाए सबको उपद्रव करण लगे तब राजा जनकने अयोध्याको शीघ्र ही मनुष्य पठाए, म्लेच्छोंके आवनेके सब समाचार राजा दशरथको लिखे सो जनकके जन शीघ्र ही जाय सकल वृत्तांत दशरथसे कहते भए-हे देव ! जनक वीनती करी है परचक्र भीलोंका आया सो सब पृथिवी उजाडै है अनेक आर्य देश विध्वंस किए । ते पापी प्रजाको एक वर्ग किया चाहै हैं सो प्रजा नष्ट भई तब हमारे जीनेकर कहा, अब हमको कहा कतव्य है ? उनसे लडाई करना अथवा कोई गढ पकड तिहुँ लोगों Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ताईसों पर को पकड गढमें राखें । कालिंद्री भागा नदीकी तरफ विषम स्थल हैं तहां जावें अथवा विपुलाचलकी तरफ जावे अथवा सर्व सेनासहित कंजगिरिकी ओर जावें पर-सेना महा भयानक भाव है। साधु श्रावक सर्वलोक अति विह्वल हैं ते पापी गो आदि सब जीवोंके भक्षक हैं सो जो आप आज्ञा देहु यो करें यह राज्य भी तिहारा और पृथिवी भी तिहारी यहांकी प्रतिपालना सब तुमको कर्तव्य है, प्रजाकी रक्षा किये धर्मकी रक्षा होय है, श्रावक लोक भावसहित भगवानकी पूजा करै हैं न नाप्रकारके व्रत धरै हैं, दान करै हैं, शील पाले हैं, सामायिक करे हैं, पोशा परिक्रमण करे हैं, भगवानके बडे बडे चैत्यालयोंमें महा उत्सव होय है, विधिपूर्वक अनेक प्रकार महापूजा होय है. अभिषेक होय है, विवेकी लोक प्रभाव ना करे हैं अर साधु दश लक्षण धर्म कर युक्त प्रात्मध्यानमें आरूढ़, मोक्षका साधक तप करें हैं प्रजाके नष्ट भए साधु श्री श्रावकका धर्म लुपै है अर प्रजाके होते धर्म अर्थ काम मोक्ष सधे हैं । जो राजा परचक्रतें पृथिवीको प्रतिपालना करे सो प्रशंसाके योग्य है, राजाके प्रजाकी रक्षातें या लोक परलोकविष कन्याणकी सिद्धि होय है प्रजा बिना राजा नहीं अर राजा बिना प्रजा नहीं, जीवदयामय धर्मका जो पालन करे सो यह लोक परलोकमें सुखी होय । धर्म अर्थ काम मोक्षकी प्रवृत्ति लोगोंके राजाकी रक्षातें होय है अन्यथा कैसे होय ? राजाके भुजबलकी छाया पायकर प्रजा सुखसे रहै जाके देशमें धर्मात्मा धर्म सेवन करें हैं दान तप शील पूजादिक करें हैं सो प्रजाकी रक्षाके योगसे छठा अंश राजाको प्राप्त होय है। यह सर्व वृत्तांत राजा दशरथ सुन कर चलनेको उद्यमी भए अर श्रीराम को बुलाय राज्य देना विचारा । बादित्रोंके शब्द होते भए तब मंत्री आए अर सब सेवक आए हाथी घोडे रथ पयादे सब आय ठाडे भए जलके भरे स्वर्णमयी कलश स्नानके निमित्त सेक्क लोग भरलाए अर शस्त्र वांधकर बडे बड़े सामंत लोक आए अर नृत्यकारिणी नृन्य करती. भई अर राजलोककी स्त्री जन नानाप्रकारकै बस्त्र आभूषण पटल में ले ले पाई। यह राजाभिषेकका आडंबर देखकर राम दशरथसे पूछते भये कि हे प्रभो! यह कहा है ? तब दशरथने कही-हे पुत्र ! तुम या पृथिवीकी प्रतिपालना करो मैं प्रजाके हित निमिच शत्रुके समूडसे लडने जाऊं हूं वे शत्रु देवोंकर भी दुर्जय हैं तब कमलसारिखे नेत्र हैं जिनके ऐसे श्रीराम कहते भए-हे तात ! ऐसे रंकन पर एता परिश्रम कहा ? ते आपके जायबे लायक नहीं, वे पशुसमान दुरात्मा जिनमे संभापण करना भी उचित नाही तिनके सम्मुख युद्धकी अभिलाषाकर आप कहां पधारें। उन्दरू ( चूहा ) के उपद्रव कर हस्ती क्रोध न करे अर रुईके भस्म करने के अर्थ अग्नि कहा परिश्रम कर तिनपर जानकी हमको प्राज्ञा करो यही उचित है। ___ ये राम के वचन सुन दशरथ अति हर्षित भये तब राम को उर से लगाय कर कहते भये । हे पद्म ! कमलसमान हैं नेत्र जाके ऐसे तुम बालक सुकुमार अंग कैसे उन दुर्टीको जीतोगे यह वात मेरे मनमें न आवै। तब राम कहते भये-हे तात कहा तत्कालका उपजा अग्निका कसका मात्र भी विस्तीर्ण वनको भस्म न करे, करे ही करे, छोटी बडी अवस्थापर कहा प्रयोजन Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ पद्म-पुराण · भर जैसे अकेला उगता ही बाल सूर्य घोर अंधकार के समूह को हरे ही हरै तैसे हम बालक ही तिन दुष्टों को जीतें ही जीतें । ये वचन रामके सुनकर राजा दशरथ अति प्रसन्न भए, रोमांच होय चाए अर बालक पुत्रके भेजनेका कछु इक विषाद भी उपजा नेत्र सजल होय गए । राजा मनमें विचार है— जो महापराक्रमी त्यागादि व्रतके वारणहारे क्षत्री तिनकी यही रीति है जो प्रजाकी रक्षा के निमित्त अपने प्राण भी तजनेका उद्यम करें अथवा आयुके वय विना मरण नाही यद्यपि गहन रणमें जाय तौ भी न करै । ऐमा चितवन करता जो राजा दशर्थ ताके चरणकमलयुगल को नमस्काकर राम लक्ष्मण बाहिर निसरे । सर्व शास्त्र विद्या में प्रवीण सर्व लक्षणों कर पूर्ण सब को प्रिय है दर्शन जिनका, चतुरंग सेनाकर मण्डित, विभूतिकर पूर्ण अपने तेजकर देदीप्यमान, दोनों भाई, राम लक्ष्मण रथमें आरूढ़ होय जनककी मदत चले सो इनके जायवे पहिले जनक पर कनक दोनों भाई, पर- सेनाका दो योजन अंतर जान युद्ध करणको चढे हुवे सो जनक कनकके महारथी योधा शत्रुत्रोंके शब्द न सहते संते म्लेच्छों के समूहमें जैसे मेथकी पटायें सूर्यादि ग्रह प्रवेश करें तैसे यह थे सो म्लेच्छोंके पर सामंतोंके महायुद्ध भया जाके देखे पर सुने रोमांच होय आवें । कैसा संग्राम भया बडे शस्त्रनका है प्रहार जहां, दोनों सेनाके लोक व्याकुल भए, कनकको म्लेच्छका दवाव भया तत्र जनक भाईकी मदतके निमित्त अतिक्रोधाय - मान होय दुर्निवार हाथियोंकी घटा प्रेरता भया सो वे बरबर देशके म्लेच्छ महा भयानक जनकको भी दबाते भये ताही समय राम लक्ष्मण जाय पहुँचे, अति अपार महागहन म्लेच्छकी सेना रामचन्द्र ने देखी, सो श्रीरामचन्द्र का उज्ज्वल छत्र देख कर शत्रुवों की सेना कंपायमान भई, जैसे पूर्णमासीके चन्द्रमाका उदय देखकर अंधकारका समूह चलायमान होय, म्लेच्छों के वाणोंकर जनकका बषतर टूट गया हुता और जनक खेदखिन भया हुता सो रामने धीर्य बंधाया जैसे संसारी जीव कर्मोंके उदय कर दुःखी होय सो धर्मके प्रभाव कर दुखोंसे छूट सुखी होय । वैसे जनक रामके प्रभावकर सुखी भया, चंचल तुरंगनि कर युक्त जो रथ तामें आरूढ जो राघव महाउद्योत रूप है शरीर जिनका वषतर पहिरे हार पर कुंडल कर मंडित धनुष चढाय और बाब हाथमें सिंहके चिन्हकी हैं ध्वजा जिनके अर जिन पर चमर दुरे हैं और महामनोहर उज्ज्वल छत्र सिर पर फिरे हैं पृथिवीके रक्षक धीर वीर है मन जिनका से श्रीराम लोकके वल्लभ प्रजाके पालक शत्रुत्रोंकी विस्तीर्ण सेना में प्रवेश करते भए । सुभटानेके समूह कर संयुक्त जैसे सूर्य किरणोंके समूह कर सोधै तैसे शोभते भए जैसे माता हाथी कदलीवनमें बैठा केलोंके समूहका विध्वंस करे तैसे शत्रुत्रोंकी सेनाका भंग किया । जनक अर कनक दोनो भाई बचाये पर लक्ष्मब जैसे मेघ बरसें तैस वाणोंकी वर्षा करता भया, तीक्ष्ण सामान्य चक्र भर शक्ति कनक त्रिशूल कुठार करीत इत्यादि शस्त्रोंके समूह लक्ष्मणके भुजावों कर चले, तिनकर अनेक म्लेच्छ सुबे जैसे फरसीनकर वृक्ष करें, ते भील पारधी महाम्लेच्छ लक्ष्मणके वाणोंकर विदारे गये हैं उरस्थल जिनके, कटगई हैं भुजा र ग्रीवा जिनकी, हजारां पृथिवीमें पडे, तब वे पृथिवीके कंटक विनकी सेना लक्ष्मण आगे भागी, लक्ष्मण सिंहसमान दुर्निवार ताहि देखकर जे म्लेच्छों में Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ सत्ताईसवा पर्व शार्दल समान हुते ते हू अतिचोभको प्राप्त भए, महावादित्रोंके शब्द करते अर मुखसे भयानक शम्द बोलते अर धनुषवाण खड्ग चक्रादि अनेक शस्त्रोंको थरे पर रक्त वस्त्र पहिरे, खंजर जिनके हाथमें, नाना वर्णका अंग जिनका, कैयक काजल समान श्याम, कैयक कर्दम समान, कैयक ताम्रपर्स, वृनोंके बक्कल पहिरे पर नानाप्रकार के गेरुआदि रंग तिनकर लिए हैं अंग जिनके अर नानाप्रकारके वृनोंकी मंजरी तिनके हैं छोगा सिरपर जिन्के, अर कोडी सारिखे हैं दांत जिनके पर विस्तीर्ण हैं उदर जिनके ऐसे भासें मानों कुटक जातिके वृक्ष ही फूले हैं अर कैयक भील भयानक आयुधोंको धरे कठोर है जंघा जिनकी, भारी भुजावोंके वरणहारे असुरकुमार देवों सारिखे उन्मत्त, महानिर्दई पशुमासके भक्षक, महादृढ जीवहिंसाविर्ष उद्यमी, जन्मही से लेकर पापोंके करणहारे, तत्काल खोटे प्रारम्भनके करणहारे अर सूकर भैंस व्याघ्र न्याली इत्यादि जीवोंके चिह्न हैं जिनकी ध्वजावोंमें नाना प्रकारके जे वाहन तिन पर चढ़े, पत्रोंके है छत्र जिनके नानाप्रकारके युद्धके करणहारे अति दौड़के करणहारे महा प्रचंड तरंग समान चंचल वे भील मेघमाला समान लक्ष्मण रूप पर्वतपर अपने स्वामीरूप पवनके प्रेरे वाण वृष्टि करते भए, तब लक्ष्मण तिनके निपात करनेको उद्यमी तिनपर दोड़े, महाशीघ्र है वेग जिनका जैसे महा गजेन्द्र वृक्षके समूह पर दौडे सो लक्ष्मणके तेज प्रतापकर वे पापी भागे सो परस्पर पगों कर मसले गये तब तिनका अधिपति अन्तरगत अपनी सेनाको धीर्य बंधाय सकल सेना सहित भाप लक्ष्मणके सन्मुख आया महाभयंकर युद्ध किया, लक्षणको रथरहित किया, तब श्रीरामचन्द्रने अपना रथ चलाया, पवन समान है वेग जाका, लक्ष्मणके समीप आए, लक्ष्मणको दूजे रथ पर चढ़ाया भर आप जैसे अग्नि वनको भस्म करे तैस विनकी अपार सेनाको वाण रूप अग्नि कर भस्म करते भए, कैयक तो वाणनिकरि मारे अर कैयक कनकनामा शस्त्रसे विध्वंसे कैयक तोमरनामा आयुषसे हते, कैयक सामान्य चक्रनामा शस्त्रसे निपात किये, वह म्लेच्छोंकी सेना महाभयंकर प्रत्येक दिशाको जाती रही, छत्र चमर ध्वजा धनुष आदि शस्त्र डार डार भाजे महा पुण्याधिकारी जो राम ताने एक निमिषमें म्लेच्छोंका निराकरण किया जैसे महामुनि क्षणमात्र में सर्व कषायोंका निपात करें तैसे उसने किया । वह पापी अंत गत अपार सेनारूप समुद्रकर पाया हुता सो भय खाय दश घोडोंके असवारोंसे भागा तब श्रीरामने आज्ञा करी ये नपुंसक युद्धसे परामुख होय भागे अब इनके मारने कर कहा ? तब लक्ष्मण भाईसहित पाछे बाहुडे । ने 'म्लेच्छ भयसे व्याकुल होय सह्याचल विन्ध्याचलके वनोंमें छिप गये। श्रीरामचन्द्र के भयसे पशु हिंसादिक दृष्ट कर्मको तज वन फलोंका आहार करें जैसे गरुडते सर्प डरै तैसे श्रीरामसे डरते भए । लक्ष्मणसहित श्रीरामने शांत है स्वरूप जिनका, राजा जनकको बहुत प्रसन्न कर विदा किया पर पाप पिताके समीप अयोध्याको चले सर्व पृथिवीके लोक आश्चर्यको प्राप्त भये । यह 'सबको परम आनन्द उपजाया, परमहर्षवान रोमांच होय आये । रामके प्रभावसे सवप थ्वी विभूति से शोभायमान भई जैसे चतुर्थ कालके आदि ऋषभदेवके समय सम्पदासे शोभायमान भई हुती धर्म अर्थ कामकर युक्त जे पुरुष विनसे जगत ऐसा भासता मया जैसे बर्फ के अवरोधकर वर्जित Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ पग-पुराण जे नक्षत्र तिनसे श्राकाश शोभ । गौतमस्वामी कहे हैं-हे राजा श्रेणिक ! ऐसा रामका माहात्म्य देखकर जनकने अपनी पुत्री सीताको रामको देनी विचारी बहुत कहनेकरि कहा ? जीबोंके संयोग अथवा वियोगका कारण भाव एक कर्मका उदय ही है सो वह श्रीराम श्रेष्ठ पुरुष महासौभाग्यवंत अतिप्रतापी औरनमें न पाइये ऐसे गुणोंकर पृथिवीमें प्रसिद्ध होता भया जैसे किरणोंके समू कर सूर्य महिमाको प्राप्त होय ॥ इति श्रीरविषेणोचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै म्लेच्छनिकी हार, रामकी जीतका कथन वर्णन करनेवाला सताइसबां पर्व पर्ण भया ।। २७॥ अथानन्तर ऐसे पराक्रमकर पूर्ण जो राम तिनकी कथा विना नारद एकक्षण भी न रहे सदा राम कथा करवो ही करे । कैसा है नारद रामके यश सुनकर उपजा है परम पाश्चर्य जाको बहुरि नारदने सुनी जो जनकने रामको जानकी देनी विचारी । कैसी है जानकी ? सर्व पृथिवीवि प्रकट है महिमा जाकी । नारद मनमें चिंतवता भया । एकबार सीताको देख जो कैसी है.कैसे लक्षणोंकर शोभायमान है जो जनकने रामको देनी करी है सो नारद शीलसंयुक्त है हृदय जाका, सीताके देखनेको सीताके घर आया सो सीता दर्पण में मुख देखती हुती सो नारदकी जटा दर्पणमें भासी सो कन्या भयकर व्याकुल मई, मनमें चिनयती भई-हाय माता यह कौन है भयकर कम्पायमान होय महलके भीतर गई। नारद भी लारही महल में जाने लगे तब. दूरपालीने रोका सो नारदके अर द्वारपालीके कलह हुआ। कलहके शब्द सुन खड़गके अर धनुषले थारक सामन्त दौड़े ही गये । कहते भए, पकड लो पकड़ लो यह कौन है। ऐसे तिन शस्त्र धारियोंके शब्द सुनकर नारद डरा, आकाश वर्ष गमनकर कैलाश पर्वत गया, तहां तिष्ठकर चिंतवता भया। .. जो मैं महाकष्टको प्राप्त भया सो मुशकिलसे बचा नवा जन्म पाया जैसे पक्षी दावानल से बाहिर निकसे तैसे मैं वहांसे निकसा । सो धीरे २ नारदकी कांपनी मिटी अर ललाटके पसेव पूंछ केश विखर गए हुते ते समारकर बांधे, कापै हैं हाथ जिसके, ज्यों ज्यों वह वात याद आचे त्यों त्यों निश्वास नाषे मह क्रोधायमान होय मस्तक हलाएं ऐसे विचारता भया कि देखो कन्याकी दुष्टता, मैं अदुष्टचित्त सरल स्वभाव रामके अनुरागते ताके देखनेको गया हुता सो मृत्यु समान अवस्थाको प्राप्त भया यम समान दुष्ट मनुष्य मोहि पकड़नेको भाये सो भली भई जो बचा, पकड़ः न गया। अब वहु पापिनी मो आगे कहां बचे जहां जहां जाय वहां वहां ही उसे कष्टमें नाखू मैं विना बजाये वादित्र नाचू सो जब वादिन बाजे तब कैसे टरू ऐसा विचारकर शीघ्र ही वैताइयकी दक्षिण श्रेणीविष जो रथनूपुर नगर वर्हा गया महा सुन्दर जो सीताका रूप सो चित्रपटविष लिख लेगया, कैसा है सीताका रूप ! महासुन्दर है ऐसा लिखा मानों प्रत्यक्ष ही है सो उपवनविष भामंडल चन्द्रगतिका पुत्र अनेक कुमारोंसहित क्रीडा करने को आया हुता सो चित्रपट उसके सभीप डार आप छिप रहा सो भामण्डलने यह वो न जान्या Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठाईसवां पर्व २३४ कि यह मेरी बहिनका चित्रपट है चित्रपट देख मोहित चित्त भया लज्जा अर शास्त्रज्ञान अर विचार सब भूल गया लम्बे २ निश्वास नाखे होठ सूक गए गात शिथिल हो गया रात्रि अर दिवस निद्रा न आवे अनेक मनोहर उपचार कराए तो भी इसे सुख नाहीं सुगन्थ पुष्प अर सुन्दर पाहार याहि विष सगान लगें। शीतल. जलसे छोटिये तो भी संताप न जाय कबहूं मौन पकड़ रहे कबहूं हंसे कबहूं विकथा बके कबहूं उठ खडा रहे वृथा उठ चले बहुरि पाछा प्रावै ऐसी चेष्टा करे मानो याहि भूत लगा है तब बड़े बड़े बुद्धिमान याहि कामातुर जान परस्पर बात करते भए जो कन्याका रूप किसीने चित्रपटपिप लिख कर इसके लिंग आय डारा सो यह विक्षिप्त होय गया कदाचित् यह चेष्टा नारदने ही करी होय तब नारदने अपने उपाय कर कुमारको व्याकुल जान लोगनकी बात सुन कुमारके बंधूनिको दर्शन दिया तब तिनने बहुत आदर कर पूछा-हे देव ! कही यह कौनकी कन्याका रूप है । तुमने कहां देखी यह कोऊ स्वर्गविष देवांगनाका रूप है अथवा नागकुमारीका रूप है या पृथ्वीविष आई होवेगी सो तुमने देखी तब नारद माथा हलाय कर वोला कि एक मिथिला नामा नगरी है वहां महासुन्दर राजा इन्द्रकेतुका पुत्र जनक राज्य करे है ताके विदेहा राणी है सो राजाको अति प्रिय है तिनकी पुत्री सीताका यह रूप है ऐसा कहकर फिर नारद भामण्डलसे कहते भए-हे कुमार ! तू विषाद मत कर तू विद्याधर राजाका पुत्र है तोहि यह कन्या दुर्लभ नाहीं सुलभ ही है। अर तू रूप. मात्रहींसे क्या अनुरागी भया । यामें बहुत गुण हैं याके हाव भाव पिलासादिक कौन वर्णन कर सके पर यही देख तेरा मिस वशीभूत हुआ सो क्या आश्चर्य है ? जिसे देखे बड़े पुरुषों का भी चित्त मोहित हो जाय । मैं तो यह आकारमात्र पटमें लिखा है ताकी लावण्यता बाहीविष है लिखवमें कहां आवै । नवयोवन रूप जलकर भरा जो कांसिरूष समुद्र ताकी लहरों विषे वह स्तनरूप कुम्भोंकर तिरे हैं पर ऐसी स्त्री तोय टार और कौनको योग्य, तेरा अर दाका संगम योग्य है या भांति कहकर भामण्डलको अति स्नेह उपजाया अर आप नारद आकाशविष बिहार किया । भामण्डल कामके बाणकर वेध्या अपने चिचमें विचारता भया कि यदि यह स्त्री रत्न शीघ्र ही मुझे न मिले तो मेरा जीवना नाही । देखो यह आश्चर्य है वह सुन्दरी परमकांति की धारणहारी मेरे हृदयमें तिष्ठती हुई अग्निकी माला समान हृदयको आताप करे है । सूर्य है सो तो वाह्य शरीरको आताप करे है अर काम है सो अन्तर वाह्य दाह उपजावै है । सूर्यके माताप निवारवेको तो अनेक उपाय हैं परन्तु कामके दाह निवारवेका उपाय नाहीं । यह मुझे दो अवस्था आय बनी हैं कै तो बाका संयोग होय अथवा कामके बाणोंकर मेरा मरण होयगा निरन्तर ऐसा विचारकरि भामण्डल विह्वल हो गया सो भोजन तथा शयन सब भूल गया, न महलविष न उपवनविष याहि काहू ठौर साता नहीं, यह सब वृत्तान्त कुमारके व्याकुलताका कारण नारद कृत कुमारकी माता जानकर कुमारके पितासे करती भई- हे नाथ! अनर्थका मूल जो नारद साने एक अत्यन्त रूपवती स्त्रीका चित्रपट लायकर कुमारको दिखाया सो कुमार चित्रपटको देखकर अति विभ्रम चित हो गया सो धीर्य नहीं धरै है लज्जारहित होय गया है बारम्बार Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रपट निरखे है अर सीता ऐसे शब्द उच्चारण कर है अर नानाप्रकारकी अज्ञान चेष्टा करे है मानो याहि वाय लगी है तातें तुम शीघ्र ही साता उपजाबनेका उपाय विचारो वह भोजनादिकते पराङ्मुख होय गया है सो बाके प्राण न छूटे ता पहिले ही यत्न करो। तब यह वार्ता चंद्रगति सुनकर अति व्याकुन भया अपनी स्त्रीसहित आयकर पुत्रको ऐसे कहता भया-हे पुत्र ! तू स्थिरचित्त हो और भोजनादि सर्व क्रिया जैसे पूर्वे करे था तैसे कर । जो कन्या तेरे मनमें बसी है सो तुझे शीघ्र ही परणाऊंगा, इस भांति कहकर पुत्रको शांतता उपजाय राजा चन्द्रगति एकांतविष हर्प विषाद अर आश्चर्यको धरता संता अपनी स्त्रीसे कहता मयाहे प्रिये, विद्याथरोंकी कन्या अतिरूपवंती अनुपम उनको तजकर भूमिगोचरियोंका सम्बंध हमको कहा उचित, अर भूमिगोचरियोंके घर हम कैसे जावेंगे अर जो कदाचित् हम जांय प्रार्थना करें अर वह न दें तो हमारे मुखकी प्रभा कहां रहेगी, तातै कोई उपायकर कन्याके पिताको यहां शीघ्र ही ल्यावें । ऐसा उपाय करें, तब भामण्डलकी माता कहती भई-हे नाथ, युक्त अथवा अयुक्त तुम ही जानो तथापि ये तुम्हारे वचन मुझ प्रिय लागे तब एक चपलवेग नामा विद्याघर अपना सेवक आदर सहित बुलायकर राजा सकल वृक्षांत वाके कानमें कहा भर नीके समझाया सो चपलवेग राजा की आज्ञा पाय बहुत हर्षित होय शीघ्र ही मिथिला नगरी जाय पहुँचा आकाशतें उरकर अश्व का भेर धर गौ महिषादि पशुनिको त्रास उपजावता भया, राजाके मंडल में उद्रा किया तब लोगों की पुकार आई सो राजा सुनकर नगरके बाहिर निकसा प्रमोद उद्वेग पर कौतुकका भरा राजा अश्वको देखता भया । कैसा है अश्व ? नव. यौवन है अर उछलता संता अति तेज को धरे मन समान है वेग जाका, सुन्दर हैं लक्षण जाके, पर प्रदक्षिणारूप महा आवर्तको परे है मनोहर है मुख जाका, अर महाबलवान खुरोंके अग्रभाग कर मानों मृदंग ही बजावै है जापर कोई चढ़ न सके पर नासिकाको शब्द करता संता प्रति शोभायमान हे ऐसे अश्वको देखकर राजा दृर्षित होय बारम्बार लोगनिस कहता भया यह काहू का अश्व बंधन तुडाय आया है तब पंडितोंके समूह राजासे प्रिय वचन कहते भए-हे राजन्, या तुरंग के समान कोई तुरंग नाही, औरोंकी तो क्या बात ऐसा अश्व राजाके भी दुर्लभ, आपके भी देखने ऐसा अश्व न आया होयगा । सूर्यके रथके तुरंगनिकी अधिक उपमा सुनिये है सो या समान नो ते भी न होंयेंगे, कोई दैवके योग आपके निकट ऐसा अश्व आया है सो श्राप याहि अंगीकार करो। अाप महापुण्याधिकारी हो, तव राजाने अश्वको अंगीकार किया। प्रश्वशालामें ल्याय सुन्दर डोरीते बांश अर भांति भांतिकी योग सामग्रीकर याके यत्न किये एक मास याको यहां हुमा एक दिन सेवकने आय राजा नमस्कारकर विनती कीनी। हे नाथ एक बनका मतंग गज आया है सो उपद्रव करे है तब राजा बड़े गजएर सवार होय वा हाधीकी ओर गए वह सेवक जिसने हाथीका वृत्तान्त आय कहा था ताके कहे मार्ग कर राजाने महावन में प्रवेश किया सो सरोवरके तट हामी खड़ा देखा अर चाकरोंसे कहा जो एक तेज तुरंग न्यानो तब मायामई अश्वको तत्काल ले गए । सुन्दर है शरीर जाका राजा उसपर चढ़े सो वह आकाश Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठाईसा पर्व में राजाको ले उड़ा तब सब परिजन पुरजन हाहाकार कर शोकवंत भए आश्चर्यकर व्याप्त हुवा है मन जिनका तत्काल पाछे नगरमें गए । - अथानन्तर वह अश्वके रूपका धारक विद्याधर मन समान है वेग जाका अनेक नदी पहाड़ बन उपवन नगर ग्राम देश उलंघ कर राजाको रथनूपुर लेगया। जब नगर निकट रहा तव एक वृक्षके नीचे पाय निकसा सो राजा जनक बृक्षकी डाली पकड़ लव रहा। वह तुरंग मगरमें आया राजा वृक्षत उतर विश्रामकर आश्चर्य सहित आगे गया तहां एक स्वर्णमई ऊंचा कोट देखा अर दरवाजा रत्नमई तोरणों कर शोभायमान अर महासुन्दर उपवन देखा तावि नाना जातिके वृक्ष अर बेल फल फूलनिकर संपूर्ण देखे जिनपर नान प्रकारके पक्षी शब्द करे हैं अर जैसे सांझके बादले होवें तैसे नानारंगके अनेक महिल देखे मानों ये महिल जिनमंदिर की सेवा ही करे हैं तब राजा खड़गको दाहिने हाथमें मेल सिंह समान अति निशंक क्षत्री व्रत में प्रवीण दरवाजेमें गया । दरवाजेके भीतर नाना जातिके फूलनिकी वाड़ी अर रत्न स्वर्णके सिवाण जाके ऐसी वापिका स्फटिकमणि समान उज्ज्वल है जल जिसका अर महा सुगन्ध मनोग्य विस्तर्ण कुन्द जातिके फोके मंडप दखे। चलायमान हैं पल्लवोंके समूह जिनके अर संगीत कर हैं भ्रमरोंके समूह जिनपर अर माधवी लगानिके समूह फूले देखे महा सुन्दर अर आगे प्रसन्न नेत्रोंकर भगवानका मन्दिर देखा । कैला है मन्दिर १ मातीनिकी झालरिनिकर शोभित रस्ननिके झरोखनि कर संयुक्त स्वर्ण मई हजा महास्तम्भ तिनकर मनोहर अर जहां नानाप्रकारके चित्राम सुमेरुके शिखर समान ऊंचे शिखर अर बज्राणि जे हीरा तिनकर वेढ्या है पीठ (फरश) जाका ऐसे जिनमन्दिरको देख कर जनक विचारता भया कि यह इन्द्रका मंदिर अथवा अहिमिन्द्रका मन्दिर है ऊचलोकते आया है अथवा नागेंद्र का भवन पातालत पाया है अथवा काहू कारणते सूर्यको किरयानिका समूड पृथिवीवि एकत्र भया है अहो उस मित्र विद्याघर ने मेरा बड़ा उपकार किया जो मोहि यहां लेाया ऐसा स्थानक अबतक देखा नाहीं। मला मन्दिर देखा ऐसा चितवनकर महामनोहर जो जिनमन्दिर तामें बैठि फूल गया है मुखकमल जाका श्रीजिनराजका दर्शन किया। कैसे हैं श्रीजिनराज ? स्वर्ण समान है वणे जिनका अर पूर्णमासीके चन्द्रमा समान है सुन्दर मुख जिनका अर पद्मासन विराजमान अष्ट प्रातिहार्य संयुक्त कनकमई कमलोंकर पूजित अर नानाप्रकारके रत्ननिकर जड़ित जे छत्र ते हैं सिरपर जिनके भर ऊंचे सिंहासनपर तिष्ठे हैं तब जनक हाथ जोड़ सीस निवाय प्रणाम करता भया हर्पकर रोमांच होय आए भक्तिके अनुरागकर मूर्खाको प्राप्त भया क्षणएकमें सचेत होय भगवानकी स्तुति करने लगा । अति विश्रामको पाय परम आश्चर्यको धरता संता जनक चैत्यालयविष तिष्ठे हैं। वह चपलबेग विद्याधर जो अश्वका रूपकर इनको ले आया हुता सो अश्वका रूप दूर कर राजा चंद्रगतिके पास गया अर नमस्कार कर कहना भया । मैं जनकको ले आया मनोग्य वन में भगवान के चैत्यालयविष तिष्ठे है, तब राजा सुनकर बहुत हर्षको प्राप्त भया थोडेसे समीपी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण लोक लार लेय राजा चन्द्रगति उज्ज्वल है मन जाका पूनाकी सामिग्री लेय मनोरथ समान रथ पर आरूढ होय चैत्यालय, आया सो राजा जनक चन्द्रगतिकी सेनाको देख अर अनेक वादित्रों का नाद सुनकर कछू इक शंकायमान भया । कैयक विद्याधर मायामई मिहोंपर चढ़े हैं कैएक मायामई हाथियों पर चढ़े कैएक घोड़ावों पर चढ़े कैएक हों पर चढ़े तिनके बीच राजा चन्द्रगति है सो देख कर जनक विचारता भया जो विजयार्ध पर्वत पर विद्याधर वसे हैं एपी मैं सुनता सो ये विद्याधर हैं विद्याधरोंकी सेनाके मध्य यह विद्यधरोंका अधिपति कोई परम दीप्ति कर शोभै है ऐसा चितवन जनक करे है ताही समय वह चन्द्राति राजा दैत्यजातिके विद्याधरों का स्वामी चैत्यालयविणे आय प्राप्त भया । महाहर्षवन्त नम्रीभूत है शरीर जाका तब जनक ताको देख कर कछूइक भयवान होय भगवानके सिंहासनके नीचे बैठ रहा, अर वह राजा च द्रा भक्ति कर भगवानके चैत्यालयविर्ष जाय प्रणाम कर विधिपूर्वक मत्रा उत्तम पूजा की अर परमन्तुति करता भया बहुरि सुन्दर हैं स्वर जिसके असी बोण! ह थमें लेकर महाभावना सहित भगवानके गुण गावता भया सो कैसे गावै है सो सुनो, अहो भव्य जीव हो! जिनेंद्र को आराधहु, कैसे हैं जिनेन्द्रदेव तीनलोकके जीवों को वर दाता अर अविनाशी है सुख जिनके अर देवनिमें श्रेष्ठ जे इ द्रादिक तिनकर नमस्कार करने योग्य हैं। कैसे हैं वे इन्द्र दिक ? महा उत्कृष्ट जो पूजाका विथान ताप लगाया है चित्त जिन्होंने, अहो उत्तन जन हो श्री ऋषभदेवको मन वचन काय कर निरतर भजो। कैसे हैं ऋषभदेव महाउत्कृष्ट हैं अर शिवदायक हैं जिनके भजेते जन्म जन्मके किए पाप समस्त विलय होय हैं महो प्राणी हो जिनपरको नमस्कार करहु । कैसे हैं जिनवर महा अतिशय के धारक हैं कर्मनिके नाशक हैं अर परमगति को निर्माण ताको प्राप्त भए हैं अर सर्व सुरासुर नर विद्याधर उन कर पूजित हैं चरण कमल जिनके अर क्रोधरूप महावैतीका भंग करनहारे हैं। मैं भक्तिरूप भया. जिनेन्द्रको नमस्कार कर हूँ उत्तम लक्षगकर संयुक्त है देह जिनका अर विनय कर नमस्कार करे हैं सर्व मुनियोंके समूह जिनकी, ते भगवान नमस्कार मात्र ही से भक्तोंके भय हरे हैं । अहो भन्य जीव हो जिनवरको बारम्बार प्रणाम करहु वे जिनवर अनुपम गुणको धरे हैं अर अनुपम है काया जिनकी अर हते है संसारमई सकल कु में जिनने अर रागादिक रूप जे मल, तिनकर रहित महानिर्मल हैं अर ज्ञानावरणादिक रूप जो पर तिनके दूर करनहारे पारकरबेको अति प्रवीण हैं अत्यन्त पवित्र हैं । इस मां ते राजा चन्द्रागिने बीण बजाय भगवानकी स्तुति करी तब भगवान के हासनके नीचेते राजा जनक भय तजकर जिनराजकी स्तुति कर निकसा महाशोभायमान तव च द्रगति जनकको देख हर्षित भया है मन जिसका सो पूछता भया तुम कौन हो या निर्जन स्थानका भगानके चैत्यालयविषै कहां ते आए हो तुम नागोंके पति नागेन्द्र हो अथवा विद्याधरोंके अधिपति हो हे मित्र ! तुम्हारा क्या नाम है सो कहो । तब जनक कहता भया विद्याधरों के पति ! मैं मिथिला नगरीसे आया हूँ अर मेरा नाम जनक है। माया मई तरंग मोहि ले आया है जब ये समाचार जनकने कहे तब दोऊ अति प्रीतिकर मिले पर Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ अठाईसा पर्व स्पर कुशल पूछी एक श्रासन पर बैठे फिर क्षणएक तिष्ठ कर दोऊ आपसमें विश्वासको प्राप्त मए तब चन्द्रगति और कथाकर जनकको कहते भए-हे महाराज मैं बडा पुण्यवान जो मोहि मिथिला नगरीके पतिका दर्शन भया। तुम्हारी पुत्री महा शुभ लक्षणनिकर मण्डित है । मैं बहुत लोगनिके मुखसे सुनी है सो मेरे पुत्र भामंडलको देवो तुमसे सम्बंध पाय मैं अपना परस उदय मानूगा तब जनक कहते भये हे विद्याधराधिाति तुम जो कही सो सब योग्य है परंतु मैं मेरी पुत्री राजा दशरथके बडे पुत्र जो श्रीरामचन्द्र तिनको देनी करी है। तब चन्द्रगति बोले काहेते उनको देनी करी है तब जनकने कही जो तुमको सुनबे को कौतुक है तो सुनो । मेरी मिथिलापुरी रत्नादिक थनकर अर गौ आदि पशुअन कर पूर्ण सो अर्धधर्वर देश के म्लेच्छ महाभयंकर उन्होंने प्राय मेरे देशको पीडा करी, धनके समूह लूटने लगे अर देशमें श्रावक अर यतिका धर्म मिटने लगा सो मेरे अर म्लेच्छोंके महा युद्ध भया ता समय राम प्राय मेरी अर मेरे भाईकी सहायता करी वे म्लेच्छ जो देवोंसे भी दुर्जय सो जीते अर रामका छोटा भाई लक्ष्मण इन्द्र समान पराक्रमका धरणहारा है अर बडे भाईका सदा आज्ञाकारी है। महा विनयकर संयुक्त है। वे दोनों भाई आय कर जो म्लेच्छों की सेनाको न जीतते तो समस्त पृथिवी म्लेच्छमई हो जाती । वे म्लेच्छ महा अविवेकी शुभ क्रियारहित लोकको पीडाकारी महा भयंकर विष समान दारुण उत्पातका स्वरूप ही हैं । सो रामके प्रसाद कर सब भाज गये । पृथिवीका अमं. गल मिट गया वे दोनों राजा दशरथ के पुत्र महादयालु लोकनिके हितकारी तिनको पायकर राजा दशरथ सुखसे सुरपति समान राज्य करें है। ता दशरथके राजविणे महासपदावान लोक वसे हैं अर दशरथ महा शरवीर है । जाके राज्यमें पवनहू काहूका कछु नहीं हः सके तो और कौन हरे । राम लक्ष्मणने मेरा ऐसा उपकार किया तब माहि ऐसी चिंता उपजी जो इनका कहा उपकार करू । रात्री दिवस मोहि निद्रा न श्रावती भई । जाने मेरे प्राण राखे प्रजा राखी ता राम समान मेरे कौन, मोते कबहु कछु उनकी सेवा न बनी अर उनने वडा उपकार किया तब मैं विचारता भया । - जो अपना उपकार करे अर उसकी सेवा कछु न बने तो कहा जीनगर, कृतघ्नका जीतन्य तृण समान है तव मैंने मेरी पुत्री सीता नवयौवनपूर्ण राम योग्य जान रामको देनी विचारी। तब मेरा सोच कछु इक मिटा । मैं चितारूप समुद्रमें डूबा हुता सो पुत्री नावरूप भई तातें मैं सोच समुद्रते निकसा। राम महा तेजस्वी हैं। यह वचन जनकके सुन चंद्रगति के निकटवर्ती और विद्याधर मलिन मुख होय कहते भए-अहो तुम्हारी बुद्धि शोभायमान नहीं। तुम भूमिगोचरी अपंडित हो। कहां वे रंक म्लेच्छ अर कहां उनके जीतकी वडई यामें कहा रामका पराक्रम? जाकी एती प्रशंसा तुमने म्लेच्छोंके जीतवेकर करी। रामका जो ऐता स्तोत्र किया सो इसमें उलटी निंदा है । अहो तुम्हारी बात सुने हांसी आवै है, जैसे बालकको विषफल ही अमृत भास है अर दरिद्रीको बदरी (बेर) फल ही नीके लागें अर काक सूके वृक्षविणै प्रीति करे यह स्वभाव ही दुर्निवार है। अब तुम भूमिमोचरियोंका - खोटा संबंध तजकर यह विद्याधरों का इंद्र Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ पद्म-पुराण राजा चंद्रगति तासू संबंध करो। कहां देवों समान सम्पदाके धरणहारे विद्याथर थर कहां वे रंक भूमिगोचरी सर्वथा अति दुखी, तब जनक बोले क्षीर सागर अत्यन्त विस्तीर्ण है परन्तु तुषा हरता नाहीं पर वापिका थोडे ही मिष्ट जलसे भरी है सो जीवोंकी तृषा हरे हैं अर अंधकार अत्यंत विस्तीर्ण है ताकर कहा श्रर दीपक अन्य भी है परन्तु पृथिवीमें प्रकाश करे है । पदार्थनिको प्रकट करे है पर अनेक माते हाथी जो पराक्रम न कर सकें सो अकेला केसरी सिंहका बालक करे है ऐसे जब राजा जनकने कहा तब वे पर्व विद्यावर कोपवंत होय अति क्रूरशब्दकर भूमिगोचरियोंकी निंदा करते भए । हो जनक ! वे भूमिगोवरी विद्याक प्रभावते रहित सदा खेदखिन्न शूरवीरतारहित पदावान तुम कहा उनकी स्तुति करो हो । पशुनिमें श्रर उनमें भेद कहा ? तुममें विवेक नाहीं तातैं उनकी कीर्ति करो हो । तब जनक कहते भए हाय ! हाय ! बडा कष्ट है जो मैंने पाप कर्मके उदयकर बडे पुरुषोंकी निंदा खुनी । तीन भवन में विख्यात जे भगवान ऋषभदेव इंद्रादिक देवों में पूजनीक तिनका इक्ष्वाकुवंश लोक में पवित्र सो कहा तुम्हारे श्रवणमें न आया, तीन लोकके पूज्य श्रीतीर्थंकरदेव अर चक्रात बलभद्र नारायण सो भूमिगोचरियोंमें ही उपजे तिनको तुम कौन भांति निंदो हो । अहो विद्याधरो पंच कल्याणककी प्राप्ति भूमिगोचरियोंमें ही होय है विद्यारोंमें कदाचित् किसीके तुमने देखी । इदयाकुवंशमें उपजे बडेर राजा जो षट् खंड पृथिवीके जीतनहारे तिनके चक्रादि महा रत्न र बढी ऋद्धिके स्वामी चक्रके धारी इंद्रादिकर गाई कीर्ति जिनकी ऐसे गुणोंके सागर कृतकृत्य पुरुष ऋषभदेव के बडे २ पृथिवीपति या भूमिमें अनेक भए । ताही वंश में राजा अनरण्य बडे राजा भए तिनके राणी सुमंगला ताके दशरथ पुत्र भए जे चत्री धर्ममें तत्पर लोकनिकी रक्षानिमित्त अपना प्राण त्याग करते न शंके जिनकी आज्ञा समस्त सिर पर वरैं जिनकी चार पटराणी मानों चार दिशा ही हैं । सर्व शोभाको धरें, गुणनिकर उज्ज्वल पांच सौ और राणी, मुखकर जीता है चंद्रमा जिनने, जे नाना प्रकार के शुभ चरित्रोंकर पतिका मन हरै हैं अर राजा दशरथ के राम बडे पुत्र जिनको पद्म कहिए, लक्ष्मीकर मंडित है शरीर जिनका, दीप्तिकर जीता है सूर्य अर कीर्तिकर जीता है चंद्रमा, स्थिरताकर जीता है सुमेरु, शोभाकर जीता है इंद्र, शूरवीरताकर जीते हैं सर्व सुभट जिनने, सुन्दर है चरित्र जिनके, जिनका छोटा भाई लक्ष्मण जाके शरीर में लक्ष्मीका निवास, जाके धनुषको देख शत्रु भयकर भाज जावें अर विद्यवरोंकों उनसे भी अधिक बतावो हो सो काक भी तो श्राकाशमें गमन करे हैं विनमें कहा गुण हैं ? अर भूमिगोचरनिमें भगवान तीर्थकर उपजे हैं तिनको इंद्रादिक देव भूमिमें मस्तक लगाय नमस्कार करे हैं विद्याधरोंकी कहा बात ९ ऐसे वचन जब जनकने कहे सब ने विद्याधर एकांत में तिष्ठकर आपसमें मंत्र कर जनकको कहते भए, हे भूमिगोचरिनिके नाथ ! तुम राम लक्ष्मणका एता प्रभाव ही कहो हो अर वृथा गरज गरज वात करो हो सो हमारे उनके बल पराक्रमकी प्रतीति नाहीं तातें हम कहें हैं सो सुनो- एक वज्रावर्त दूजा सागरावर्त ये दो धनुष तिनकी देव सेवा करें हैं सो ये दोनों धनुष वे दोनों भाई चढावें तोहम उनकी शक्ति जाने । बहुत कह कर कहा ? जो वज्रावर्त धनुष राम चढावें तो तुम्हारी कन्या परणे नावर Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अठाईसा पर्व हम बलात्कार कन्याको यहां ले आयेंगे, तुम देखते ही रहोगे। तब जनक ने कही यह बात प्रमाण है तब उनने दोऊ धनुष दिखाए सो जनक उन धनुषनिको अति विषम देखकर कछु इक प्राकुलताको प्राप्त मया । बहुरि वे विद्याधर भाव थकी भगवानकी पूजा स्तुति कर गदा अर हलादि रत्नोंकर संयुक्त धनुषनिको ले और जनकको ले मिथिलापुरी आए पर चद्रगति उपवनसे रथनूपुर गया जब राजा जनक मिथिलापुरी आए तब नगरीकी महाशोभा भई मंगनाचार भए अर सब जन सम्मुख आए. पर वे विद्याधर नगरके बाहिर एक आयुधशाला बनाय तहां धनुष धरे अर महागर्वको धरते संते तिष्ठे। . जनक खेदसहित किंचित् भोजन खाय तिाकर व्याकुल उत्साहरहित सेजपर पडे तहां महा नम्रीभूत उनम स्त्री बहुत आदर सहित चंद्रमाको किरण समान उज्ज्वल चमर ढारती भई । राजा अति दीर्घ निश्वास महा उष्ण अग्नि समान नाषे। तब राणी विदेहाने कहा हे नाथ ! तुमने कोन स्वर्गलोककी देवांगना देखी जिसके अनुगकर ऐसी अवस्थाको प्राप्त भए हो सो हमारे जानने में वह कामिनी गुणरहित निर्दई है जो तुम्हारे आतापविष करुणा नाही करै हैं। हे नाथ वह स्थानक हमें बतावो जहांते वाहिले आवें । तुम्हारे दुखकर मुझे दुख पर सकल लोकनिको दुख होय है तुम ऐसे महासौभाग्यवंत ताहि कहा न रुचे । वह कोई पाषाण चित्त है उठो राजावोंको जे उचित कार्य होय सो करो। यह तिहारा शरीर है तो सब ही मनवांछित कार्य होंगे या भांति राणी विदेहा जो प्राणहुने प्रिया हुती सो कहती भई तब राजा बोले-हे प्रिये ! हे शोभने ! हे बल्लभे ! मुझे खेद और ही है तू वृथा ऐसी बात कही, काहेको अधिक खेद उपजावै है तोहि या वृत्तांतकी गम्य नाहीं वातैं ऐसे कहै है । मायामई तुरंग मोहि विजया गिरिमें लेगया। तहां रथनू पुरके राजा चन्द्रगतिसे मेरा मिलाप भया । सो वाने कही तुम्हारी पुत्री मेरे पुत्र को देवो । तब मैंने कही मेरी पुत्री दशरथके पुत्र श्रीरामचन्द्रो देनी करी है। सब वाने कही जी. रामचन्द्र वज्रावर्त धनुषको चढावें तो तिहारी पुत्री परणे नातर मेरा पुत्र परखेगा सो मैं तो पराए वश जाय पडा तब उनके भय थकी अर अशुभकर्मके उदय थकी यह बात प्रमाण करी सो वजावर्त अर सागरावत दोऊ धनुष ले विद्याधर यहां आए हैं । ते नगरके बाहिर तिष्ठे हैं, सो मैं ऐसे जानू हूँ ये धनुष इन्द्रहूते चढाए न ज वें जिनकी ज्वाला दशों दिशामें फैल रही है अर मायामई नाग फुकारै हैं सो नेत्रोंसे देखा न जावै । धनुष विना चहाए ही स्वतः स्वभाव महाभयानक शब्द करें हैं इनको चढायवेकी कहा जात, जो कदाचित् श्रीरामचन्द्र धनुषको न चढावें तो यह विद्याधर मेरी पुत्रीको जोरावरी ले जावेंगे जैसे स्यालके समं पर मांसकी डली खग कडिये पक्षी ले जाय सो धनुपके चढ़ायवेका बोस. दिनका करार है जो न बना तो वह कन्याको ले जावेंगे, फिर इसका देखना दुर्लभ है। हे श्रेणिक ! जब राजा जनकने इस भांति कही तव राणी विदेहाके नेत्र अश्रुपातसे भर आए अर पुत्रके हरनेका दुख भूल गई हुती सो याद आया एक तो प्राचीन दुख अर दूसरा आगामी दुःख सो महाशोककर पीडित भई महा घम्दकर पुकारने लगी ऐसा रुदन किया जो सकल परिवारके मनुष्य विहल हो गए राजासों Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ बड़ा-पुराण राणी कहे है - हे देव ! मैं ऐसा कौन पाप किया जो पहिले तो पुत्र हरा गया अर अब पुत्री हरी जाय है मेरे तो स्नेहका अवलंबन एक यह शुभचेष्टित पुत्री ही है। मेरे तिहारे सर्व कुटुंब लोगनिके यह पुत्री ही आनन्दका कारण है मो पापिनीके एक दुख नाहीं मिटै अर दूजा दुख आय प्राप्त होय है । याति शोकके सागर में पडी रुदन करती हुई राखीको राजा धीर्य बंधाय कहते भए- हे राणी ! रुदनकर कहा जो पूर्वं इस जीवने कर्म उपाजें हैं तिनके उदय अनुसार फले हैं, संसाररूप नाटकका आचार्य जो कर्म भो समस्त प्राणियोंको नचावै है तेरा पुत्र गया सो अपने अशुभके उदयसे गया, अब शुभ कर्मका उदय है तो सकल मंगल ही होवेंगे, ऐसे नाना प्रकार के सार वचनोंकर राजा जनकने राणी विदेहाको धीर्य बंधाया तब राखी शांतिको प्राप्त भई ॥ बहुरि राजा जनक नगरके बाहिर धनुवशाला के समीप जाय स्वयंवर मंडप रचा अर सकल राजपुत्रोंके बुलायबेको पत्र पठाए सो पत्र बांच बांच सर्व राजपुत्र आए अर अयोध्या नगरीको हू दूत भेजे को माता पिता संयुक्त रामादिक चारो भाई भाए राजा जनक बहुत श्रादर कर पूजे । सीता परम सुंदरी सात सौ कन्याओंके मध्य महिलके ऊपर तिष्ठे । बड़े २ सामंत याकी रवा करें अर एक महा पंडित खोजा जाने बहुत देखी बहुत सुनी है । स्वर्णरूप वेंतकी लडी बाके हाथमें, सो ऊंचे शब्दकर कहै है प्रत्येक राजकुमारको दिखावै है । हे राजपुत्री ! यह श्रीरामचन्द्र कमल लोचन राजा दशरथके पुत्र हैं तू नीके देख अर यह इनका छोटा भाई लक्ष्मीवान लक्ष्मण है, महा ज्योतिको धरै पर यह भाई महाबाहु भरत है अर यह यातैं छोटा शत्रुम है । यह चारों ही भाई गुणन के सागर हैं । इन पुत्रोंकर राजा दशरथ पृथिवीको भली भांति रथा करे है, जाके राज्यमें भयका अंकुर नाहीं पर यह हरिबाहन महाबुद्धिमान् काली घटा समान है प्रभा जाकी पर यह चित्ररथ महागुणवान, तेजस्वी, महासुंदर है और यह हर्मुख नामा कुमार यति मनोहर महा तेजस्त्री है । यह श्रीसंजय, यह जय, यह भानु, यह सुप्रभ, यह मंदिर यह बुध, यह विशाल, यह श्रीधर, यह वीर, यह बंधु, यह भद्रवल, यह मयूर कुमार इत्यादि अनेक राजकुमार महापराक्रमी महा सौभाग्यवान निर्मल वंशके उपजे चन्द्रमा समान निर्मल है। atra जिनकी महा गुणवान भूषणोंके धरण हारे परम उत्साहरूप महाविनयवंत महाज्ञानी महा चतुर आइ इकट्ठे भए हैं और यह संकाशपुरका नाथ याके हस्ती पर्वत समान अर तुरंग महाश्रेष्ठ र रथ महामनोज्ञ अर योधा अद्भुत पराक्र के धारी अर यह सुरपुरका राजा, यह रंधपुरका राजा, यह नन्दनीकपुरका राजा, यह कुंदपुरका अधिपति, यह मगध देशका राजेन्द्र यह कंपिल्य नगरका नरपति, इनमें कैयक इदवाकु वंश अर कैयक नागवंशी र कैयक सोमवंशी र कैयक उग्रवंशी अर कैथक हरिवंशी र कैयक कुरुवंशी इत्यादि महागुणवन्त जे राजा सुनिये हैं ते सर्व तेरे अर्थ आए हैं। इनके मध्य पुरुष जो वज्रावर्त धनुषको चढ़ावे ताहि तू वर जो पुरुषों में श्रेष्ठ होयगा उसीसे यह कार्य होयगा या भांति खोजा कही अर राजा जनक सबनिको अनुक्रमसे धनुषकी ओर पठाए सो गए। सुन्दर है रूप जिनका सो सर्व ही धनुषको देख कंपायमान होते भए । धनुषमें से सर्व ओर अग्नि की ज्वाला विजुली समान निकसे अर माया Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठाईसा पर्व मई भयानक सर्प फंकारें तब कैयक तो कानोंपर हाथ धर भागे अर कैयक धनुषको देखकर दूर ही कीलेसे ठाढ़े कांपे हैं समस्त अंग जिनके अर मुद गये हैं नेत्र जिनके, अर कैरक ज्वरकरि व्याकुल भए अर कई एक धरतीपर गिर पड़े अर कई एक ऐसे भए जो बोल न सके भर कई एक मूर्खाको प्राप्त भए अर कैयक धनुष के नागोंके स्वासकार जैसे वृतका सूखा पत्र पवनसे उडा उडा फिरे तैसे उडते फिरें और कैयक कहते भए जो अब जीवने घर जावें तो महादान करें। सकल जीवोंको अभयदान देवें अर कैक ऐसे करते भए यह रूपवती कन्या है तो कहा याके निमित्त प्राण तो न देने। अर कैयक कहते भए यह कोई मायामई विद्याधर आया है सो राजावोंके पुत्रोंको वाधा उपजाई है और कैयक महाभाग ऐसे कहते भए अब हमारे स्त्रीते प्रयोजन नाहीं, यह काम महा दुखदाई है । जैसे अनेक साधु अथवा उत्कृष्ट श्रावक शीलवत थारे हैं तैसे हम भी शील ब्रत थारेंगे। धर्म ध्यानकर काल व्यतीत करेंगे। या भांति सर्व परःङ मुख भए अर श्रीरामचन्द्र धनुष चढ़ावनेको उद्यमी उठकर महामाते हाथीकी नाई मनोहर गतिसे चलते जगतको मोहते धनुषके निकट गए सो धनुष रामके प्रभावते ज्वालारहित होय गया जैसा संदर देवोपनीत रत्न है तैसा सौम्य हो गया । जैसा गुरुके निकट शिष्य होय जाय, तब श्रीरामचन्द्र धनुषको हाथ में लेकरि चहायकर खेचते भए सो महाप्रचण्ड शब्द भया, पृथिवी कंपायमान भई । कैसा है धनुष ? विस्तीर्ण है प्रभा जाकी, जैसा मेघ गाजे तैसा धनुषका शन्द भया मयूरनिके समूह मेषका आगमन जान नाचने लगे। जिसके तेजके आगे सूर्य ऐसा भासने लगा जैसा अग्निका कण भासै अर स्वर्णमई रजसे भाकाशके प्रदेश व्याप्त होगए यह धनुष देवाधिष्ठित है सो आकाश में देव थन्य धन्य शब्द करते भए अर पुष्पों की वर्षा होती भई । देव नृत्य करते भए तब श्रीराम महा दयावंत धनुषके शब्दसे लोकनिको कंपायमान देख धनुषको उतारते भए लोक ऐसे डरै मानों समुद्रके भंवरमें आगए हैं तब सीता नेत्रनिकरि श्रीरामको निखरती भई, कैसे हैं नेत्र ? पवनकर चंचल जैसे कमलोंका दल होय तात अधिक है कांति जिनकी अर जैसा कामका वाण तीक्ष्ण होय तैसे तीक्ष्ण हैं। सीता रोमांचकर संयुक्त मनकी वृत्तिरूपमाला जो देखते ही इनकी ओर प्रेरी हुती बहुरि लोकाचार निमित्त हाथमें रत्नमाला लेकर श्रीरामके गलेमें डारी लज्जासे नम्रीभूत है मुख जाका, जैसे जिनधर्मके निकट जीवदया तिष्ठे, तैसे रामके निकट सीता माय तिष्ठी । श्रीराम अतिसुन्दर हुने सो याके समीपते अत्यन्त सुन्दर भासते भए, इन दोनों के रूपका दृष्टान्त देने में न आवै पर लक्ष्मण दूजा धनुष सागरात, क्षोभको प्राप्त भया जो समुद्र उस समान है शब्द जिसका, उसे चढाय बँचते भए सो पृथिवी कम्पायमान. भई । माकाशमें देव जयजयकार शन्द करते भए अर पुष्पवर्षा होती भई । लक्ष्मण धनुषको चढाय बँचकर जब बारापर दृष्टि धरो तब सब डरे लोकनिको भयरूप देख आप घनुषकी पिणच उतार महाविनय संयुक्त रामके निकट पाए जैसे ज्ञानके निकट वैराग्य पावै । लक्ष्मणका ऐसा पराक्रम देख चन्द्रगतिका पठाया जो चन्द्रवर्द्धन विद्याधर आया हुता सो अतिप्रसन्न होय अष्टादश कन्या विद्याधरोंकी पुत्री लक्ष्मण को दीनी । श्रीराम लक्ष्मण दोऊ धनुष लेय महाविनयवन्त Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ पद्म पुराण पिता के पास आए अर सीताहू आई, अर जेते विद्याधर आए हुते सो राम लक्ष्मणका प्रताप देख चन्द्रवर्द्धनकी लार रथनूपुर गए । जाय राजा चन्द्रगतिको सर्व वृत्तांत कहा सो सुनकर चिंतावान् होय तिष्ठा । र स्वयम्बर मंडपमें रामके भाई भरत हू आए हुते सो मनमें ऐसा विचारते भए कि मेरा अर राम लक्ष्मणका कुल एक अर पिता एक परन्तु इनकासा अद्भुत पराक्रम मेरा नाहीं, यह पुण्याधिकारी हैं इनकेसे पुण्य मैंने न उपाजे यह सीता साचात् लक्ष्मी कमलके भीतरे दल समान है वर्ण जिसका, राम सारिखे पुण्याधिकारी ही की स्त्री होय, तब के कई इनकी माता सर्व कलाविषै प्रवीण भरतके चित्तका अभिप्राय जान पतिके कानविष कहती भई - हे नाथ ! भरतका मन कछु इक विलषा दीखे है, वैसा करो जो यह विरक्त न होय, " इस जनक के भाई कनकके राखी सुप्रभा उसकी पुत्री लोकसुन्दरी है, सो स्वयंवर मंडप की विधि बहुरि करावो पर वह कन्या भरत के कंठमें वरमाला डारे तो यह प्रसन्न होय, त दशरथ याकी बात प्रमाणकर कनकके कान पहुंचाई तब कनने दशरथकी आज्ञा प्रमाणकर जे राजा गए हुने सो पीछे बुलाए । यथायोग्य स्थानपर तिष्ठे सब जे भूपति तेई भए नक्षत्रोंके समू उनमें तिष्ठता जो भरतरूप चन्द्रमा ताहि कनककी पुत्री लोकसुन्दरी रूप शुक्लपक्ष की रात्रि सो महानुरागसे वरती भई । मनकी अनुरागतः रूप माला तो पहिले अवलोकन करते ही डारी हुती बहुरि लोकाचारमात्र सुमन कहिये पुष्प तिनकी वरमाला भी कण्ठ में डारी । कैसी हैं कनककी पुत्री ? कनक समान हे प्रभा जाकी, जैसे सुभद्रा भरत चक्रवर्तीको वरा था तैसे दशरथ के पुत्र भरतको बरती भई । गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहै हैं हे श्रेणिक, कर्मों की विचित्रता देख, भरत जैसे विरक्तचित्त राजकन्यापर मोहित भए भर सम राजा विलखे होय. अपने २ स्थानक गए, जाने जैसा कर्म उपार्जा होय तैसा ही फल पावै है किसी के द्रव्यको दूसरा चाहनेवाला न पावै ॥ अथानन्तर मिथिलापुरीमें सीता श्रर लोकसुन्दरीके विवाहका परम उत्साह भया । कैसी है. मिथिलापुरी ध्वजा पर तोरणों के समूह ने मण्डित है अर महा सुगन्ध करि भरी है शंख आदि वादित्रोंके समूहसे पूरित है, श्रीराम और भरतका विवाह महा उत्सव सहित भया । द्रव्यकरि भिक्षुक लोक पूर्ण भए जे राजा विवाहका उत्सव देखने को रहे हुते ते दशरथ र जनक कनक दोनों भाई से अति सन्मान पाय अपने अपने स्थानक गये। राजा दशरथके चारों पुत्र रामकी स्त्री सीता भरतकी स्त्री लोकसुन्दरी महा उत्सवसों अयोध्याके निकट आये। कैसे हैं दशरथ के पुत्र सकल पृथिवीद्धि कीर्ति जिनकी अर पमस्वरूप परमगुण सोई भया समुद्र तादिषै मग्न हैं श्वर परम रत्नननिके आभूषण तिनकर शोभित हैं शरीर जिनके माता पिताको उपजाया है महाहर्ष जिनने, नानाप्रकारके बहन तिनकर पूर्ण जो सेना सोई भवा सागर जहां अनेक प्रकार के वादित्र बाजे हैं जैसे जल निषि गाजें । ऐसी सेनासहित राजमार्ग दो महिल पधारे 1 मार्ग में जनक पर कनककी पुत्रीको सव ही देखे हैं सो देख देख अति हर्षित होय है पर कहे हैं इनकी तुल्य और कोई नाहीं । यह उचम शरीरको भरे हैं इनके देखनेको नगरके नर नारी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ उनतीस पव 'मार्ग में आय इकट्ठे भये तिनकरि मार्ग अति संकीर्ण भया । नगर के दरवाजेसों ले राज महिल परियन्त मनुष्यों का पार नाहीं, किया है समस्त जनोंने आदर जिनका ऐसे दशरथके पुत्र, इनके श्रेष्ठ गुणनिकी ज्यों ज्यों लोक स्तुति करें त्यों त्यों ये नीचे नीचे हो रहें । महासुखके भोगनहारे ये चारों ही भाई सुबुद्धि अपने अपने महिलमें आनन्दसों विराजे । यह सब शुभ कर्मका फल विवेकी जन जानकर ऐसे सुकत करो जिनसे सूर्य से अधिक प्रभाव होय । जेते शोभायमान उत्कृष्ट फल हैं ते सर्व धर्मके प्रभावते हैं अर जे महानिंद्य कडक फल हैं वे सब पाप कर्मके उदयते हैं तात सुखके अर्थ पाप क्रियाको तजो अर शुभक्रिया करो | इति श्रीरविषेणाचार्य विरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै राम लक्ष्मण का धनुष चढावने आदि प्रताप वन अर रामका सीतासो तथा भरतका लोकसुन्दरीसौं बिवाह वर्णन करनेवाला अठाईसनां पर्व पूर्ण भया ॥ २८ ॥ ० अथानन्तर आषाढ शुक्ल अष्टमी अष्टाह्निकाका महा उत्सव भया । राजा दशरथ जिनेंद्र की महा उत्कृष्ट पूजा करनेको उद्यमी भया, राजा धर्मविषै अति सावधान है । राजाकी सर्व राणी पुत्र वांधव तथा सकल कुटुम्ब जिनराजके प्रतिबिम्बोंकी महा पूजा करनेको उद्यमी भए । कई बहुत आदरसे पंच वर्णके जे रत्न तिनके चूर्णका माडला मांडे हैं । अर कई नानाप्रकार के रत्ननिकी माला बनावे हैं। भक्तिविषै पाया है अधिकार जिनने पर कई एला (इलायची) कपूरादि सुगन्ध द्र निकरि जलको सुगन्धित करें हैं अर कोऊ सुगन्ध जलसे पृथ्वीको छांटे हैं भर कोऊ नानाप्रकारके परम सुगंध पीसे हैं और कई जिनमन्दिरोंके द्वारोंकी शोभा अति देदीप्यमान वस्त्रोंसे कर वे हैं पर कई नानाप्रकारकी धातुओंके रंगोंकर चैत्यालयोंकी भीतियों को मंडलायें हैं या भांति अयोध्यापुरी के सब ही लोक वीतराग देवकी परम भक्ति को धरते संते अत्यन्त हर्षकार पूर्ण, जिन पूजाके उत्साहसे उत्तम पुण्यको उपार्जते भए । राजा दशरथ भगवानका ति विभूतिकरि अभिषेक करावता भया । नानाप्रकारके वादित्र बाजते भए । तब राजा अष्ट दिनोंके उपवास किए और जिनेन्द्रकी अष्ट प्रकारके द्रव्यनिते महा पूजा करी भर नानाप्रकार के सहज पुष्प र कृत्रिम कहिए स्वर्ण रत्नादिके रचे पुष्प तिनकरि अर्चा करी जैसे नन्दीश्वर द्वीपविषै देवनिकरि संयुक्त इंद्र जिनेंद्र की पूजा करे तैस राजा दशरथने अयोध्यामें करी भर राजा चारों ही पटरानियों को गन्धोदक पठाया सो तीनके निकट तो तरुण स्त्री ले गई । सो शीघ्र ही पहुंचा। वे उठकर समस्त पापोंका दूर करनहारा जो गन्धोदक उसे मस्तक श्रर नेत्रनित लगावती मई अर राणी सुप्रभाके निकट वृद्ध खोजा ले गया हुता सो शीघ्र नहीं पहुंचा तात राणी सुप्रभा परम कोप श्रर शोकको प्राप्त भई मनमें चितवती भई जो राजा उन तीन राणिनि को गन्धोदक भेजा और मोहि न भेजा सो राजाका कहा दोष है मैं पूर्व जन्ममें पुण्य न उपजाया वे पुण्यवती महासौभाग्यवंती प्रशंसा योग्य हैं जिनको भगवानका गन्धोदक. 1 ३२ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण महा पवित्र राजाने पठाया अपमानकर दग्ध जो मन सो मेरे हृदयका ताप और भोति न मिटे. अब मुझे मरण ही शरण है । ऐसा विचार एक विशाखनामा भण्डारीको बुलाय कहनी भई । हे भाई, यह बात तू काहूसे मत कहियो मोहि विषते प्रयोजन है मो तू गीघ्र लेगा। तब प्रथमः तो वाने शंकाान हाय लाने में ढील करी बहु विचारी कि औषधि निमित्त मंगाया होगा सो लानेको गग अर राणी शिथिल गात्र मलिन चित्त वस्त्र प्रओढ सेजपर पड़ी। राजा दशरथ. ने अन्तःपुरमें आयकर तीन राणी देखीं सुप्रभा न दंखी । सुप्रभाते राजाका बहुत स्नेह सो इसके महिलमें राजा आय खड़े रहे ता समय जो विष लेने को पठाया हुता सो ले आया अर. कहता भया-हे देवी, रह विष लेहु यह शब्द राजाने सुना तब उनके हाथसे उठाय लिया सर आप राणीकी सेज ऊपर बैठ गए तब राणी सेजसे उतर बैठी : राजाने आग्रहकर सेज ऊपर बैठाई अर कहते भए हे बल्लभे, ऐसा क्रोध काहे किया जाकर प्राण तजा च हे हैं। सब वस्तुनिते जीतन्य प्रिय है अर सर्व दुःखांस भरणका बडा दुःख है ऐसा तोहि कहा दुःख है जो विष मंगाया। तू मेरे हृदयका सर्वस्व है जाने तुझे क्लेश उपजाया हो ताको मैं तत्काल तीब्र दंड दू। हे सुन्दरमुखी, तू जिनेन्द्रका सिद्धांत जाने है शुभ अशुभगति का कारण जान है जो विष तथा शस्त्र प्रादिसे अपघात कर मरे हैं वे दुर्गतिमें पड़े हैं ऐमी बुद्धि तोहि क्रोधसे उपजी सो क्रोधको धिक्कार, यह क्रोध महः अंधकार है अब तू प्रसन्न हो, जे पतिव्रता हैं तिनने नौलग प्रीतमके अनुरागके वचन न सुने तौलग ही क्रोधका आवेश है । तब सुप्रभा कहती भई-हे नाथ तुम पर कोप कहा परन्तु मुझे ऐसा दुःख भया जो मरण बिना शांत न होय : तब राजा कही हे राणी, तोहि ऐसा कहा दुःख भया तब राण ने कही भगवानका गंधोदक और राणि निको पठाया अर मोहि न पठाया यो मेरेमें कौन कार्यकर हीनता जानी ? अबलों तुम मेरा कभी भी अनादर न किया अब काहेतें अनादर किया यह बात राजासों रःणी कहे है ता समय वृद्ध खोजा गंधोदक ले माया अर कहता भया-हे देगी, यह भगवानका गंधोदक नरनाथ तुमको पठाया सो लेह भर ता समय तीनों राणी आई अर कहती भई हे मुग्धे पतिकी तोपर अति कृपा है तू कोपको काहे प्राप्त भई देख हमको तो गंधोदक दासी ले आई अर तेरे वृद्धखोजा ले आया पतिके तोसे प्रेममें न्यूनता नहीं जो पतिमें अपराध मी होय अर वह आप स्नेहकी बात करे तो उत्तम स्त्री प्रसन्न ही होय हैं । हे शोभने, पतिसूक्रोच करना सुखके विध्नका कारण है सो कोप उचित नाहीं सो तिनने जब या भांति संतोष उपजाया तब सुप्रभाने प्रसन्न होय गंधोदक सीसंपर चढ़ाया अर नेत्रोंको लगाया। राजा खोजासे कोपकर कहते भए -हे निकृष्ट ! ते ऐती ढल कहां लगाई तब वह भयकर कंपायमान होय हाथ जोड सीस निवाय कहता भया-हे भक्तवत्सल हे देव हे विज्ञानभूषण ! अत्यंत वृद्ध अवस्था कर हीनशक्ति जो मैं सो मेरा कहा अपराथ मोपर आप क्रोध करो सो मैं क्रोधका पात्र नाहीं । प्रथम अवस्थाविषै मेरे भुज हाथीके सूड समान हुते उरस्थल प्रवल था भर जांघ गज बंधन तुल्य हुती अर शरीर दृढ हुता अब कर्मनिके उदयकरि शरीर अत्यंत Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसा पर्व २५१ शिथिल होय गया है। पूर्व ऊंची नीची धरती राजहंसकी न्याई उलंघ जाता मन बांछित स्थान जाय पहुँचता अब अस्थान कसे उठाभी नहीं जाय है। तुम्हारे पिताके प्रसादकर मैं यह शरीर नानाप्रकार लहाया था सो अब कुमित्रकी न्याई दुखका कारण होय गया पूर्वे मुझे वैरीनिके विदारनेकी शक्ति हुती सो अब तो लाठीके अवलंबन कर महाकष्ट से फिर हूं। बलवान् पुरुषनिकरि बैंचा जो धनुष वा समान वक्र मेरी पीठ हो गई है अर मस्तिकके केश अस्थिसमान श्वेत होय गए हैं पर मेरे दांत हु गिर गए मानों शरीरका याताप देख न सके, हे राजन् ! मेरा समस्त उत्साह विलाय गया ऐसे शरीरकर कोई दिन जीवूहूं सो बडा आश्चर्य है । जरासे अत्यंत जर्जर मेरा शरीर सोझ सकारे विनश जायगा, मोहि मेरी का की सुध नाहीं तो और सुथ कहांसे होय ? पूर्वे मेरे नेत्रादिक इंद्रिय विचक्षणनाको धरै हुते अब नाममात्र रह गए हैं. पाय धरू किसी ठौर अर परे काहू ठौर, समस्त भीतल दृष्टि से श्याम भासे है ऐसी अवस्था होय गई तो बहुत दिनोंसे राजद्वार की सेवा है सो नाही तज सकूहूं पक्के फल समान जो मेरा तन ताहि काल शीघ्र भक्षण करेगा, मोहि मृत्युका ऐसा भय नाहीं पा चाकरी चूकनेका भय है पर मेरे आपकी आज्ञा हीका अवलंवन है और अवलंबन नाहीं, शरीरकी अशक्तिताकर विलंब होय तामै कहा करू । हे नाथ ! मेरा शरीर जराके आधीन जान कोप मा को कृपा ही करो, ऐसे वचन खोजेके राजा दशरथ सुनकर याना हाथ कपोलके लगाय चिंताबान होय विचारता भया, अहो यह जलकी बुद बंदा समान असार शरीर क्षणभंगुर है पर यह यौवन बहुत विभ्रनको धरे सन्ध्याके प्रकाश समान अनित्य है अर अज्ञानका कारण है विजलीके चमत्कार समान शरीर अर संपदा तिनके अर्थ अत्यंत दुखके साथन कर्म यह प्राणी करै है; उन्मत्त स्त्रीके कटाक्ष समान चंचल सर्पके फण समान विपके भरे, महातापके समूडके कारण ये भोग ही जीवन को ठौं हैं, तातै महाठग हैं, ये विषय विनाशीक इनसे प्राप्त हुआ जो दुख सो मूहोंको सुखम्प भासे है । ये मूह जीव विषयों की अभिलाषा करें हैं और इनको मनवांछित विषय दुष्प्राप्य हैं, विषयों के सुख देख मात्र मनोज्ञ हैं अर इनके फल अनि कटक हैं ये विषय इंद्रायणके फल सनान हैं, संगारी जीव इनको चाहै हैं सो बडा आश्चर्य है । जे उत्तम जन विषयोंको विषतुल्य जानकर तजे हैं अर तप करें हैं ते धन्य है, अनेक विवेकी जीव पुण्याधिकारी महा उत्साहके धरणहारे जिनशासनके प्रसादसे प्रबोथको प्राप्त भए हैं मैं कब इन विषयों का त्याग कर स्नेहरूप कीचसे निकस नितिका कारण जिनेन्द्रका तप आचरूगा। मैं पृथ्वीकी बहुत सुखसे प्रतिपालना करी अर भोग भी मनवांछित भोगे अर पुत्र भी मेरे महापराक्रमी उपजे । अब भी मैं वैराग्यमें बिलंब करू तो यह वी विपरीत है, हमारे वंशकी यही रीति है कि पुत्रको राज्यलक्ष्मी देकर वैगग्यको धारणकर महाधीर तप करने को वनमें प्रवेश करै ऐसा चिंतानकर राजा भोगनितें उदास चित्त कई एक दिन घरमें रहे । हे श्रेणिक ! जो वस्तु जा समग जा क्षेत्र में जाकी जाको जेसी पास होनी होय, तासमय ता चेत्रमें तासे ताको तेती निश्चय सेती हो ही होय ॥ गौतम स्वामी कहै हैं, हे मगध देशके भूपति ! कैयक दिनोंमें सब प्राणियोंके हितू सर्व Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAA २५२ पद्य-पुराण भूतहित नामा मुनि बड़े प्राचार्य मनःपर्यय ज्ञानके धारक पृथ्वीविष विहार करने संघसहित सरयू नदीके तीर आए। कैसे हैं मुनि ? पिता समान छह कायके जीवोंके पालक दयाविौं लगाई है मन, वचन, कायकी क्रिया जिनने, प्राचार्यों की आज्ञा पाय कैयक मुनि तो गहन वनमें विराजे, कैयक पर्वतों की गुफावोंमें, कैयक वनके चैत्यालयोंमें, कैयक वृक्षोंके कोटरोंमें इत्यादि ध्यानके योग्य स्थानों में साधु तिष्ठे अर आप प्राचार्य महेन्द्रोदय नामा वनमें एक शिलापर जहां विकलत्रय जीवोंका संचार नाहीं अर स्त्री नपुंसक बालक ग्राम्यजन पशुनिका संसर्ग नाही असा जो निर्दोष स्थानक वहां नागवृक्षके नीचे निवास किया । महागंभीर महाक्षमावान जिनका दर्शन दुर्लभ कर्म खिपावनेके उद्यमी मह उदार है मन जिनका, महामुनि तिनके स्वामी वर्षा काल पूर्ण करनेको समाधि योग थर तिष्ठे, कैला है वर्षाकाल ? विदेश गमन किया तिनको भयानक है। वर्षती जो मेघमाला अर चमकती जो विजुरी पर गरजती जो कारी घटा तिनकी भयंकर जो ज्वनि ताकरि मानों सूर्यको खिझावता संता पृथ्वीपर प्रकट भया है । सूर्य ग्रीष्म ऋतुमें लोकनिको मातापकारी हुता सो अब स्थूल मेवकी धाराके अन्धकारते भय थकी भाज मेघमालामें छिपा चाहै है अर पृथ्वीतल हरे नाजकी अंकूरोंरूप कंचुकिनकर मंडित है अर महानदियोंके प्रवाह वृद्धिको प्राप्त भए हैं, ढाहा पहाडते बहै हैं इस ऋतु में जे गमन करै हैं ते अतिकम्पायमान होय हैं भर तिनके चित्तमें अनेक प्रकार की भ्रांति उपजै है, ऐसी वर्षा ऋतुम जैनी जन खड़गकी धारा समान कठिन वा निरन्तर धारे हैं । चारण मुनि अर भूमिगोचरी मुनि चातुमाक्षिकमें नाना प्रकारके नियम धरते भए, हे श्रेणिक ! ते मुनि तेरी रक्षाकरें रागादिक परणतितें तुझे निवृत्त करें। अथानन्तर प्रभात समय राजा दशरथ वादित्रोंके नादसे जाग्रत भया जैसे सूर्य उदयको प्राप्त होय अर प्रात समा कूकडे बोलने लोलारिस चकया सरोवर तथा नदियोंके तटविणे शन्द करते भए । स्त्री पुरुष सेजने उठे भगवानके जे चैत्यालय तिनमें मेरी मृदंग वीणा वादित्रोंके नाद होते भए । लोक निद्रा को तज जिन पूजनादिकमें प्रारते । दीपक मंद ज्योति भए । चंद्रमाकी प्रभा मंद भई । कमल फूले कुनद मुद्रित भए, अर जै: जिन सिद्वान्तके ज्ञातानिके वचनोंसे मिथ्या. वादी विलय जांय तैसे सूर्य की किरणोंसे ग्रह तारा नक्षत्र छिप गए । या भांति प्रभात समय अत्यन्त निर्मल प्रकट भया तब राजा देह कृत्य क्रियाकर भगवानकी पूजाकर बारम्बार नमस्कार करता भया पर भद्र जातिकी हथिनी पर चढ देवों सारिखे जे राजा तिनके समूहोंसे सेव्यमान ठौर २ मुनियोंको अर जिनमंदिरोंको नमस्कार करता महेंद्रोदय वनमें पृथ्वीपति गया, जाकी विभूति पृथ्वीको आनन्दकी उपजाधनहारी वर्षा पर्यंत व्याख्यान करिए तो भी न कह सकिए। जो मनि गुणरूप रत्नोंका सागर जिस समय याकी नगरीके समीप आवे ताही समय याको खबर होय जो मुनि आए हैं, तब ही यह दर्शनको जाय सो सर्व भूतहित मुनिको आए मुन तिनके निकट कैते समीपी लोगोंसहित गया, हथिनीसे उतर अति हर्षका भरा नमस्कारकर महाभक्ति संयुक्त सिद्धांतसंबंधी कथा सुनता भया । चारों अनुयोगोंकी चर्चा धारी अर अतीत अनागत वर्तमान Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसग पर्ने २५३ कालके जे महापुरुष तिनके चरित्र सुने । लोकालोकका निरूपण अर छह द्रव्यनिका स्वरूप, वह कायके जीयों का वर्णन, छह लेश्याका व्याख्यान, घर छहों कालका कथन पर कुलकरों की उत्पत्ति र अनेक प्रकार क्षत्रियादिकोंके वंश र सप्त तच्च, नत्र पदार्थ पंचास्तिकायका वर्णन आचार्य मुख श्रवणकर सर्व मुनियोंको बारम्बार नमस्कारकर राजा धर्मके अनुराग करि पूर्ण नगर में आए। जिन धर्मके गुणों की कथा निकटवर्ती राजावों पर मंत्रियों से कर र सबको विदाकर महल में प्रवेश करता भया । विस्तीर्ण हैं विभव जाके र राणी लक्ष्मी तुल्य परमकांतिकर संपूर्ण चंद्रमा समान सम्पूर्ण सुंदर बदनकी धरणहारी, नेत्र अर मनकी हरणहरी, हाव भाव विलास विभ्रमकर मंडित, महा निपुण परम विनयकी करणहारी, प्यारी तेई भई कमलों की पंक्ति विनको राजा सूर्य समान प्रफुल्लित करता भया ।। इति श्रीरमिषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वाचनिका गि अष्टान्हिका का आगम अर राजा दशरथका धर्म श्रवण कथन बन करने वाला उनतीसनां पर्व पूर्ण भया ॥ २६ ॥ -**०*०* अथानन्तरमेघ आडम्बरकर युक्त जो वर्षाकाल सो गया अर आकाश संभारे खड्गकी प्रभा समान निर्मल भया । पद्म महोत्पल पुंडरीक इंदीवर दि अनेक जाति के कमल प्रफुल्लित भए । कैसे हैं कमलादि पुष्प, विषयी जीवनिको उन्माद के कारण हैं अर नदी सरोवरादिवि जल निर्मल भया जैसा मुनिका चिच निर्मल होय तैना पर इंद्रधनुष जाते रहे । पृथ्वी कर्दमरहित होय गई। शरदऋतु मानों कमुदोंके प्रफुल्लित होनेसे हंसती हुई प्रकट भई विजुरियोंके चमत्कारकी संभावना ही गई। सूर्य तुलाराशिपर आया । शरद के श्व ेत बादरे कहूं कहूं दृष्टि आवें सो क्षणमात्र में दिलाय जाय । निशारूप नवोढा स्त्री संध्या के प्रकाशरूप महा सुंदर लाल अथरोंको परे चांदनीरूप निर्मल बस्त्रनिको पहिरे चंद्रमारूप है चूड़ामणि जिसका सो अत्यंत शोभती भई र वापिका निर्मल जलकी भरी मनुष्यनिके मनको प्रमोद उपजावती भई । चवा चकवी युगल करें हैं. केलि जहां अर मदोन्मत्त जे सारिस वे करें हैं नाद जहां, कमलनिके वनमें भ्रमते जो राजहंस अत्यन्त शोभाको धरे हैं सो सीताकी हैं चिंता जाके ऐसा जो भामंडल ताहि यह ऋतु सुहावनी न लगी, अग्नि समान भासे है जगत जाको । एक दिन यह भामंडल लज्जाको तजकर पिताके आगे बसंतध्वज नामा जो परममित्र उसे कहना भया । कैसा है भामंडल रतिसे पीडित है अंग जका, मित्रसू कहे है- हे मित्र ! तु दीर्घशोची है भर परकार्यविष उद्यमी है एता दिन होगए तोहि मेरी चिंता नाहीं, व्याकुलतारूप भंवरको घरे जो आशारूप समुद्र तामें मैं डूबा हूं मोहि आलंबन कहा न देवो ऐसे आर्तध्यानकर युक्त भामंडलके वचन सुन राजसभा के सर्वलोक प्रभावरहित विषादसंयुक्त होगए तब तिनको महा शोककर तप्तायमान देख भामंडल लज्जा से अधोमुख हो गया तब एक वृहत्केतुनामा विद्याधर कहता भया अब कहा छिपाव राखो कुमारसों सर्व वृत्तांत यथार्थ कहो जाकरि भ्रांति न रहे त Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण वे सव वृत्तांत भामंडलसे कहते भए । हे कुमार ! हम कन्याके पिताको यहां ले पाए हुते कन्याकी वासे याचन करी सो वाने कही मैं कन्या रामको देनी करी है हमारे अर वाके वार्ता बहुत भई वह न माने तब वज्रावर्त धनुषका करार भया जो धनुष राम चढावें तो कन्याको परखे नातर हम यहां ले आवेंगे अर भामंडल विवाहेगा सो थनुष लेकर यहांसे विद्याधर मिथिलापुरी गए सो राम महापुण्याधिकारी धनुष चढाया ही, तब स्वयंवर मंडपमें अनककी पुत्री प्रति गुणवती महा विवेकवती पति के हृदयकी हरणहारी ब्रत नियमकी धारनहारी नव यौवन मंडित दोषोंसे अखंडेन सर्व कला पूर्ण शरद ऋतुकी पूर्णमासीके चंद्रमा समान मुखकी कातिको थरे लक्ष्मी सारखी शुभलक्षण लावण्यताकर युक्त सीता महासती श्रीरामके कंउमें वरमाला डाल बन्लभा होनी भई । हे कुमार ! वे धनुष वर्तमान कालके नाहीं गदा अर हल आदि देवोपुनीत रत्नोंसे युक्त अनेक देव जिनकी सेवा करें कोई जिनको देख न सके सो वज्रावर्त सागरावर्त दोऊ धनुष राम लक्ष्मण दोनों भाई चढावते भए । वह त्रिलोकसुन्दरी रामने परणी, अयोध्या ले गए सो अब वह बलात्कार देवोंसे भी न हरी जाय हमारी कहा बात अर कदाचित कहोगे रामको परणाये पहले ही क्यों न हरी सो जनकका मित्र रावणका जमाई मधु है सो हम कैसे हर सकें। ताते हे कुमार ! अब संतोष धरी निर्मलता भजो होनहार होय सो होय इन्द्रादिक भी और भांति न कर सके । तब धनुष चढावनेका वृत्तांत अर रामसे सीताका विवाह हो गया सुन भामंडल अति लज्जावान होय विषाद करि पूण भया मनमें विचार है जो मेरा यह विद्याधर का जन्म निरर्थक है । जो मैं हीन पुरुषकी न्याई ताहि न परण सका । ई अर क्रोधकर मंडित होय सभाके लोगनिको कहता भया--कहा तुम्हारा विद्याधरपना, तुम भूमिगोचारिनितेहू डी हो । मैं आप जायकर भूमिगोचरिनिको जीत ताको ले आऊंगा अर जे धनुष के अधिष्ठाता उनको धनुष दे आये हैं तिनका निग्रह करूगा ऐसा कहकर शस्त्र साज विमानविर्षे चढ आकाशके मार्ग गया । अनेक ग्राम नदी नगर वन उपवन सरोवर पर्वतादि पूर्ण पृथिवी मंडल देखा तब याकी दृष्टि जो अपने पूर्व भवका स्थानक विदग्धपुर पहाडनिके वीच हुता, वहां पडी। चित्त में चिंतई कि यह नगर मैंने देखा है जाति स्मरण होय मूळ आय गई। .. तर मंत्री व्याकुल होय पिताके निकट ले आए । चन्दनादि शीतलद्रव्योंसे छाटा तब प्रबोधको प्राप्त भया। राजलोककी स्त्री याहि कहती भई-हे कुमार तुमको यह उचित नाही जो माता पिताके निकट ऐसी लज्जारहित चेष्टा करो। तुम तो विचक्षण हो, विद्याधरोंकी कन्या देवांगनाहुते अतिसुन्दर हैं वे परणों लोकहास कहा करावो हो । तब भामंडलने लज्जा भर शोक करि मुख नीचा किया अर बहता भया धिकार है मोको मैं महामोहकरि विरुद्ध कार्य पिता जो चांडालादि अत्यंत नीचकुल हैं तिनके यह कर्म न होय । मैं अशुभ कर्मके उदय करि अत्यन्त मलिन परणाम किये। मैं अर सीता एक ही माताके उदरसे उपजे हैं। अब मेरे अशुभकर्म गया वो यथार्थ जानी, सो याके ऐसे वचन सुनकर अर शोककर पीड़ित देख. याका पिता राजा चन्द्र Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तासगाव गनि गोदमें लेय मुख चूम पूछना भया-हे पुत्र यह तू कौन भांति कही तर कुमार कहता भयाहे तात मेरा चरित्र सुनो पूर्वभवविगै मैं इस ही भरतक्षेत्र में विदग्धपुर नगर तहां कंडलमंडित राजा हुता परमंडलका लूटनेहारा सदा विग्रहका करणहारा पृथ्वीपर प्रसिद्ध निजप्रजाका पाल महावि. भवकर संयुक्त सो मैं पापी मायाचारकर एक विप्रकी स्त्री हरी। सो वह विप्र तो अतिदुखी होय कहीं चला गया अर मैं राजा अनरण्यके देशमें बाधा करी सो अनरण्यका सेनापति बालचन्द मोहि पकडकर लेगया पर मेरी सर्व सम्पदा हर लीनी। मैं शरीरमात्र रह ग1, कैएक दिन में बंदीगृ. इतें छूटा सो महादुःखित पृथ्वीपर भ्रमण करता मुनियोंके दर्शनको गया महावत अणुव्रतका व्याख्यान सुना तीन लोक पूज्य जो सर्वज्ञ वीतराग देव तिनका पवित्र जो मार्ग तादी श्रद्धा करी जगत के बांधव जे श्रीगुरु तिनकी आज्ञाकर मैंने मद्य मां का त्यागकर ब्रत आदरया, मेरी शक्तिहीन हुती सातें मैं विशेष व्रत न आदर सक्या, जिनशासनका अद्भुत माहात्म्य जो मैं महा पापी हुता सो एते ही व्रत से मैं दुर्गतिमें न गया, जिन धर्मके शरणकरि जनककी राणी विदेहाके गर्भ में उपजा अर सीता भी उपजी सो कन्या सहित मेरा जन्म भया पर वह पूर्वभवका विरोधी विन जाकी मैं स्त्री हरी हुती सो देव भया अर मोहि जन्मते ही जैसे गृद्ध पक्षी मांसकी डली को लेजाय तैसे नक्षत्रोंसे ऊपर आकाशमें ले गया सो पहिले तो उसने विचार किया कि याको मारू बहुरि करुणाकरि कुण्डल पहराय लघुपरण विद्याकर मोहि यस्नसों डारा सो रात्रिमें भाकाशवि पड़ता तुमने झेला अर दयावान होय अपनी राणी को सोंपा, सो मैं तिहारे प्रसादते वृद्धिको प्राप्त भया अनेक विद्याका धारक भया । तुमने बहुत लढाया अर माताने मेरी बहत प्रतिपालना करी। भामण्डल ऐसे कहके चुप हो रहा । राजा चन्द्रगति यह वृत्तांत सुनकर परम प्रबोधको प्राप्त भया पर इन्द्रियोंके विषयनिकी बासना तज महावैराग्य अंगीकार करनेको उद्यमी भया । ग्राम-धर्म कहिये स्त्रीसेवन सोई भया वृक्ष उसे सुफलोंसे रहित जान अर संसार का बंधन जानकर अपना राज्य भामण्डलको देश आप सर्व भूतहित स्वामीके समीप शीघ्र प्राया। वे सर्व भूतहित स्वामी पृथ्वी पर सूर्यसमान प्रसिद्ध गुणरूप किरणोंके समूहकर भव्य जीवनिको मानन्दके करनहारे, सो राजा चन्द्रगति विद्याधर महेंद्रोदय उद्यानमें आय मुनिकी अर्चना करी। फिर नमस्कार स्तुतिकर सीस नियाय हाथ जोड या भांति कहता भया-हे भगवन, तुम्हारे प्रसादकर मैं जिनदीमा लेय तप किया चाहूँ हूं मैं गृहवासते उदास भया तब मुनि कहते भए भवसागरसे पार करणहारी यह भगवती दीक्षा है सो लेप्रो। राजा तो वैराग्यकों उद्यमी भया पर भामण्डलके राज्यका उत्सव होता भया, ऊचे स्वर नगारे बाजे नारी गीत गावती भई, बांसुरी आदि अनेक वादित्रनिके समूह वाजते भए । ताल मंजीरा आदि कासरी के वादित्र वाजे 'शोभायमान जनक राजाका पुत्र जगवंत होवे' ऐमा बन्दीजननिका शब्द होता भया सो महेंद्रोदय उद्यानमें ऐसा मनोहर शब्द रात्रि में भया जाते अयोध्याके समस्त जन निद्रारहित होय गए। बहुरि प्रातः समय मुनिराजके मुख ने महाश्रेष्ठ शब्द सुनकर जैनी जन प्रति हर्षको प्राप्त भए। भर सीता 'जनक राजाका पुत्र जयवंत होऊ ऐसी ध्वनि सुनकर मानों Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पद्म पुराण अमृतसे सींची गई, रोमांचकर संयुक्त भया है सर्व अङ्ग जाका, अर फरके है बाई आंख जाकी, मनमें चितवती भई । जो यह बारम्बार ऊंचा शब्द सुनिए कि जनक राजाका पुत्र जयवन्त होऊ, सो मेराहू पिता जनक है कनकका बडा भाई, अर मेरा भाई जन्मता ही हरा गया था सो वही न होय भैसा विचार कर भाई के स्नेहरूप जलकर भीज गया है मन जाका, सो ऊंचे स्वरकर रुदन करती भई । तत्र राम अभिराम कहिये सुन्दर है अङ्ग जाका, महामधुर वचनकर कहते भए - हे प्रिये ! तू काहे को रुदन करें है, जो यह तेरा भाई है तो अब खबर आवै है अर जो और है तो हे पंडित ! तू कहा सोच करें हैं ? जे विचक्षण हैं ते मुएका हरेका गएका नष्ट हुएका शोक न करें । हे वल्लभे ! जे कायर हैं और मूर्ख हैं उनके विषाद होय है अर जे पंडित हैं पराक्रमी हैं तिनके विषाद नाहीं हो है, या भांति रामके अर सीताके वचनालाप होवै है ताही समय बधाईवारे मंगल शब्द करते आए । तब राजा दशरथने नहाहर्षसे बहुत मदरसे नानाप्रकारके दान करे श्रर पुत्र कलत्र दि सर्व कुम्बसहित वनमें गया सो नगरके बाहिर चारों तरफ विद्याधरों की सेना सैकड़ों मामन्तोंसे पूर्ण देख आश्चर्यको प्राप्त भया, विद्याधरनिन इन्द्रके नगर तुल्य सेनाका स्थानक क्षमात्र में बना रखा है, जाके ऊंचा कोट बडा दरवाजा जे पताका तोरण 1 ते शोभायमान रत्ननिकरि मंडिन ऐना निवास देख राजा दशरथ जहां वनमें साधु विराजे हुते वहां गया, नमस्कारकर स्तुतिकर राजा चंद्रगतिका वैराग्य देखा । विद्याधरनि सहित श्रीगुरु की पूजा करी । राजा दशरथ सर्व बांधव सहित एक तरफ बैठा अर भामण्डल सर्व विद्याधरनि सहित एक तरफ बैठा । विद्याधर र भूमिगोचरी मुनिके पास यति श्रर श्रावकका धर्म श्रवण करते भए । भामण्डल पिताके वैराग्य होयवेकर कछु इक शोकवान बैठा तब मुनि कहते भए, जो यतिका धर्म है सो शूरवीरोंका है । जिनके गृहवास नाहीं महा शान्त दशा है । श्रानन्दका कारण है, महादुर्लभ है, त्रैलोक्य में सार हैं, कायर जीवनिको भयानक भासे है। भव्यजीव मुनि पदको पायकर अविनाशी धामको पावै हैं । अथवा इन्द्र अहमिंद्र पद लहें हैं, लोकके शिखर जो सिद्धस्थानक है पद बिना नाहीं पाइए है। कैसे हैं मुनि ? सम्यग्दर्शनकर मंडित हैं, जिस मार्गले निर्वाणके सुखको प्राप्त होय अर चतुर्गतिके दुखते छूटे सो ही मार्ग श्रेष्ठ हैं सो सर्व भूतहित सुनिने मेघ की गर्जना समान है ध्वनि जिनकी सर्व जीवनिके चित्तको आनन्दकारी ऐसे वचन कहे, कैसे हैं मुने ? समस्त तच्चोंके ज्ञाता सो मुनिके वचनरूपजल संदेहरूप तापको हरता जीवनिने कर्णरूप अंजुलियोंसे पीए । कैयक मुनि भए, कैक श्रावक भए, महा धर्मानुराग कर युक्त है चित्त जिनका, धर्मका व्याख्यान हो चुका तब दशरथ पूछता भया हे नाथ ! चन्द्रगति विद्याधरको कौन कारण वैराग्य उपजा घर सीता अपने भाई भामण्डलका चरित्र सुनने की इच्छा करती भई । कैसी है सीता १ महाविनयवंती है । तब मुनि कहते भए - हे दशरथ, तुम सुनो इन जीवनिकी अपने २ उपाजें कर्मनिकरि विचित्र गति है । यह भांमण्डल पूर्वं संसारमें अनन्त भ्रमणकर अति दुखित भया, कर्मरूपी पवनका प्रेरा या भव में श्राकाशसे पडता राजा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीस पव चन्द्रगतिको प्राप्त भया, सो चन्द्रगति अपनी स्त्री पुष्पवतीको सौंपा, सो नवयौवन में सीताका चित्रपट देख मोहित भया, तब जनकको एक विद्याधर कृत्रिम अश्व होय लेगया, यह करार ठहरा "जो धनुष चढावे सो कन्या परणे, बहुरि जनकको मिथिलापुरी लेग आए घर धनुष लाए, सो धनुष श्रीरामने चढाया र सीता परणी । तब भामण्डल विद्याधरनिके मुखसे यह वार्ता सुन कोकर विमान में बैठ आवे था सो मार्ग में पूर्व भवका नगर देखा तब जातिस्मरण हुआ जो मैं कुण्डलमंडित नामा या विदग्धपुरका राजा अधर्मी हुता । विंगल ब्राह्मणकी स्त्री हरी बहुरि मोहि अनरण्यके सेनापतिने पकडा, देशते काढ दिया, सर्व लूट लिया । सो महापुरुषके आश्रय प्राय मधु मांसका त्याग किया, शुभ परिणामनिते मरणकर जनककी राणी विदेहा के गर्भते उपजा कर वह पिंगल ब्राह्मण जाकी स्त्री य ने हरी सो वनसे काष्ठ लाय स्त्रीरहित शून्यकुटी देख अति विलाप करता भया कि हे कमल नयनी ! तेरी राणी प्रभावती सारिषी माता अर चक्र सारिखे पिता तिनको अर बडी विभूति श्रर बडा परिवार ताहि तज मोसे प्रीतकर विदेश आई । रूखे श्राहार पर फाटे वस्त्र तैंने मेरे अर्थसे आचरे । सुन्दर हैं सर्व अंग जाके, तू मोहि त कहाँ गई ? या भांति वियोगरूप अग्निसे दरबायमान वह पिंगल व पृथ्वीत्रिषै महा दुख सहित भ्रमण कर मुनिराज के उपदेश मुनि होय तप अंगीकार करता भयो, तप के प्रभावते देव भया सो मनमें चितवता भया कि वह मेरी कांता सम्यक्त्वरहित हुती सो तिर्य गतिको गई अथवा मायाचाररहित सरल परिणाम हुती सो मनुष्यणी भई अथवा समाधि मरणकर जिनराजकों उरमें घर देवगतिको प्राप्त भई । पिंगल नामा विप्र देव या भांति विलाप करि खेदखि भया ढूढ़ता फिरे । कोऊ कारण न जानके अवधि जाड निश्चय किया कि ताको तो कुंडल मंडित हर लेगया हुता सो कुंडलमंडित को राजा अनरण्यका सेनापति बालचन्द्र बांधकर अनरण्यके पास लेगया र सर्वस्व लूट लिया बहुरि राजा अनरण्यने याको राज्यसे विमुख कर सर्व देश में अपना अमल कर याको छोड़ दिया सो भ्रमण करता महादुखी मुनिका दर्शन कर मधु मांसका त्याग करता भया सो प्राण त्यागकर राजा जनककी स्त्रीके गर्भ में आया भर वह मेरी स्त्री चित्तोत्सवा सो हू राणीके गर्भ में आई सो वह तो स्त्रीकी जाति पराधीन बाका तो कुछ अपराध नाहीं अर वह पापी कुंडलमंडितका जीव या राणी के गर्भ में है सो गर्भ में दुख दूं तो राणी दुख पावै, सो उससे तो मेरा बैर नाहीं, ऐसी वह देव विचारकर राणी विदेहा के गर्भ में कुंडल मंडितका जीव है उसपर हाथ मसलता निरन्तर गर्भ की चौकसी देवे सो जब बालकका जन्म भया तब बालकको हरा । श्रर मनमें विचारी कि याको शिलापर पटक मारू' अथवा मसल डारू। बहुरि विचारी कि धिक्कार है मोहि जो पाप चिंता, बालहत्या समान पाप नाहीं, तब देवने बालकको कुंडल पहराय लघुवरण नामा विद्या लगाय आकाश से द्वारा सो चन्द्रगति केन्या अर राखी पुष्पवतीको सौंपा सो भामंडल जातिस्मरण होय सर्व चन्द्रगतिको कहा जो सीता मेरी बहिन है पर राखी विदेहा मेरी माता है पर पुष्पवती 2 , ३३ २५७ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र-पुराण मेरी प्रतिपालक माता है । यह वार्ता सुन विद्याधरनिकी सर्व सभा आश्चर्यको प्राप्त भई । अर चन्द्रगति भामंडलको राज्य देय संसार शरीर अर भोगोंसे उदास होय वैराग्य अंगीकार करना विचारा अर भामंडलको कहता भया-हे पुत्र ! तेरे जन्मदाता माता पिता तेरे शोकसे महादुखी तिष्ठे हैं सो अपना दर्शन देय तिनके नेत्रोंको आनन्द उपनाय । सो स्वामी सर्वभूतहित मुनिराज राजा दशरथसे कहै हैं यह राजा चन्द्रगति संसारका स्वरूप असार जान हमारे निकट प्राय जिन दीक्षा धरता भया, जो जन्मा है सा निश्चयते ही मरेगा पर जो मूवा है सो अवश्य नया जन्म धरेगा यह संसारकी अवस्था जान च द्रगति भव भ्रमणते डरा। ये मुनिके वचन सुनकर भामंडल पूछता भया-हे प्रभो ! चन्द्रगतिका अर पुष्पवतीका मोपर अधिक स्नेह काहे भया, तब मुनि बोले, ये पूर्व भक्के तेरे माता पिता हैं सो सुन । एक दारूनामा ग्राम वहां ब्राह्मण विमुचि ताके अनुकोशा स्त्री अर अतिभूत पुत्र ताकी स्त्री सरसा, अर एक कयान नामा परदेशी ब्रामण सो अपनी माता ऊर्या सहित दारूग्राममें आया सो पापी अतिभूतकी स्त्री सरसाको अर इनके घरके सारभूत धन को ले भागा सो अतिभूत महादुखी होय ताके हृढ़वे को पृथ्वीपर भटका अर याका पिता कैक दिन पहिले दक्षिणाके अर्थ देशांतर गया हुता घर पुरुषनि विना सूना हो गया जो घरमें थोडा बहुत धन रहा था सो भी जाता रहा अर विभूतिकी माता मनुकोशा सो दारिद्रकरि मह दुखः यह सब वृत्तांत विमुचिने सुना कि घरका धन हू गया अर पुत्रकी बहू हू गई अर पुत्र दुहने को निकसा है सो न जानिये कि कोन तरफ गया । तब बिमुचि घर पाया पर अनुकोशाको अति विह्वल देख धीर्य बंधाया अर कयानकी माता ऊर्था मोह महादखिनी पुत्र अन्याय कार्य किया ताकरि अति लज्जावान सो कहके दिलासा करी जो तेरा अपराध नाहीं अर आप विमुचि पुत्रके ढूढने को गया सो एक सर्वारि नाम नगर ताके वनमें एक अवधिज्ञानी मुनि सो लोकनके मुखत उनकी प्रशंसा सुनी । जो अवधिज्ञानरूप किरणों कर जगतमें प्रकाश करें हैं । तब यह मुनिपै गया अर पुत्र बधूके जानेसे महा दुखी हुता ही सो मुनिराज की तपोऋद्धि देखकर अर संसारकी झूठी माया जान तीव्र वैराग्य पाय विमचि ब्राह्मण मुनि भया अर विमुचिकी स्त्री अनुकोशा अर कयानकी माता ऊर्या ये दोनों बामणो कमलकांता आर्यिकाके निकट प्रथिकाके व्रत धरती भई सो विमुचि मुनि श्रर वे दोनों आर्यिका तीनों जीव महानिस्पृह धर्म ध्यानके प्रसादते स्वर्गलोक गए कैसा है वह लोक सदा प्रकाशरूप है । विमुचिका पुत्र अतिभूत हिंसामार्गका प्रशंसक अर संयमी जीवोंका निंदक सो आर्त रौद्रध्यानके योगतें दुर्गति गया यह कयान भी दुर्गति गया अर वह सरसा अतिभूतकी स्त्री जो कयानकी लार निकसा हुती सो बलाहट पर्वतकी तलहटीमें मृगी भई, सो व्याघ्रके भयते मृगोंके यूथसे अकेली होय दावानलमें जलमुई, सो जन्मांतरमें चित्तोत्सवा भई, अर वह कयान भव भ्रमणकर ऊंट भया । धूम्रकेशका पुत्र पिंगल भया, अर वह अतिभूत सरसा का पति भव भ्रमण करता राक्षस सरोवरके तीर हंस भया, सो सिचानूने इसका सर्व अंग घायल किया, सो चैत्यालयके समीप पडा तहां गुरु शिष्यकों भगवानका स्तोत्र पढावता भया सोयाने Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसा पर्व २५६ सुना, हंसकी पर्याय छोड दस हजार वर्षकी आयुका धारी नगोतम नामा पर्वतविष किन्नर देव भया। सहांते चयकर विदग्धपुरका राजा कुंडल मंडित भया सो पिंगलके पाससे चित्तोत्सवा हरी सो ताका सकल वृत्तांत पूर्वे कहा ही है अर वह बिमुचि ब्राह्मण जो स्वर्ग लोकको गया हुता सो राजा चन्द्रगति भया, अनुकोशा ब्रह्मणी पुष्पवती भई अर वह कयान कई भव लेग पिगल होय मुनिव्रत थार देव भया सो वाने भामंडल में होते ही हरा, पर वह ऊर्या ब्राह्मण देवलोक से चमकर राणी विदेहा भई । यह सकल वृतांत राजा दशरथ सुनकर भामंडल से मिला भर नेत्र प्रश्रपातसे भरलिए अर संपूर्ण सभा यह कथा सुनकर सजलनेत्र होय गई पर रोमांच होय आए अर सीता अपने भाई भामंडलको देख स्नेह कर मिली पर रुदन करती भई, कि हे भाई! मैं तो तोहि प्रथम ही देखा अर श्रीराम लक्ष्मण उठकर भामंडलते मिले, मुनिको नमस्कार कर खेचर भूचर सब ही वनसे नगरको आए । भामंडलम् मंत्र कर राजा दशरथने जनक राजाके पास विद्याधर पठाया अर जनकको प्रावनेके अर्थ विमान भेजे । राजा दशरथने भामंडलका बहुत सन्मान किया अर भामंडलको अतिरमणीक महिल रहिबेको दिए जहाँ सुन्दर वापी सरोवर उपवन हैं सो वहां भामण्डल सुखमू तिष्ठा, अर राजा दशरथने भामण्डलके श्रावनेका बहुत उत्सव किया, याचकोंको वांछासे भी अधिक दान दिया, सो दारिद्रते रहित भए अर राजा जनक निकट पवनहूते अति शीघ्र विद्याधर गए, जायकर पुत्रके आगमनकी बधाई दी अर दशस्थका अर भामण्डलका पत्र दिया सो बांचकर जनक अतिप्रानन्द को प्राप्त भया, रोमांच होय आए, विद्याधर राजा पूछे है-हे भाई ! यह स्वप्न है या प्रत्यक्ष है तू आ हमसों मिल, ऐसा कहकर राजा मिले अर लोचन सजल होय श्राए जैसा हर्ष पुत्रके मिलनेका होय तैसा पत्र लानेवालेते मिलनेका हर्ष भया । सम्पूर्ण वस्त्र आभूषण ताहि दिए सब कुटुम्बके लोग भेले होय उत्सव किया, अर बारम्बार पुत्रका वृत्तांत ताहि पूछे हैं अर सुन सुन तृप्त न होय । विद्याधर सकल वृत्तांत विस्तार कहा ताही समय राजा जनक सर्व कुटुंबसहित विमानमें बैठ अयोध्या.चले सो एक निमिषमें जाय पहुँचे कैसी है अयोध्या जहां वादित्रोंके नाद होय रहे हैं, जनक शीघ्र ही विमानसे उतर पुत्रसे मिला, सुखकर नेत्र मिच गए, क्षणएक मूळ आय गई बहुरि सचेत होय अश्रुपातके भरे नेत्रनिसों पुत्रको देखा पर हाथसे स्पर्शा पर माता विदेहा हुपुत्रको देख मूर्छित होय गई बहुरि सचेत होय मिली अर रुदन करती भई, जाके रुदनको सुनकर तियचोंको भी दया उपजे । हाय पुत्र, तू जन्मते ही उन्कृष्ट वैरीते हरागया हुता तेरे देखनेको चिंतारूप अग्नि कर मेरा शरीर दग्ध भया हुता सो तेरे दर्शनरूप जलकरि सींचा शीतल भया पर धन्य है वह राणी पुष्पवती विद्याधरी जाने तेरी बाललीला देखी अर क्रीडा कर धूसरा तेरा अंग उरसे लगाया अर मुख चूमा और नवयौवन अवस्थामें चन्दन कर लिप्त सुगन्धोंसे युक्त तेरा शरीर देखा ऐसे शब्द विदेहाने कहे अर नेत्रोंसे अश्रुपात झरे, स्तनोंसे दग्ध झरा अर विदेहाको परम आनन्द उपजा जैसे जिनशासनकी सेवक देवी प्रानन्द सहित तिष्ठे तैसे पुत्रको देख सुखसागरमें तिष्ठी । एकमास पर्यत यह सर्व अयोध्यामें रहे फिर भाम Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - पा-पुराण मण्डल श्रीरामसे कहते भए-हे देव, या जानकीके तिहारो ही शरण है थन्य है भाग्य जाके नो तुम सारिखे पति पाए ऐसे कह बहिनको छातीसे लगाया अर माता विदेहा सीताको उर से लगायकर कहती भईहे पुत्री, तू सासू ससुरकी अधिक सेवा करियो अर ऐसा करियो जो सर्व कुटंबमें तेरी प्रशंसा होय सो भामण्डलने सबको बुलाया । जनकका छोटा भाई कनक उसे मिथिलापुरीका राज्य सौंपकर जनक अर विदेहाको अपने स्थानक लेगया। यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं कि--हे मगधदेशके अधिपति ! तू धर्मका माहात्म्य देख जो धर्मक प्रसादसे श्रीरामदेवके सीता सारिखी स्त्री भई गुणरूपकर पूर्ण जाका भामण्डल सा भाई विद्या. घरोंका इन्द्र अर देवाधिष्ठित वे धनुष सो रामने चढ़ाये अर जिनके लक्ष्मणसा भाई सेवक, यह श्रीरामका चरित्र भामण्डलके मिलापका वर्णन जो निर्मल चित्त होय सुनें उसे मनवांश्रित फलकी सिद्धि होय पर निरोग शरीर होय सूर्य समान प्रभाकू पावै । इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत मन्थ, ताकी भाषा बचनिकावि भोमण्डलका मिलाप कथन बर्णन करनेबोलो तीसा पर्व पूर्ण भयो ।। ३ ।। अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमम्वामीसों पूछते भए-हे प्रभो ! वे राजा दशरथ जगतके हितकारी राजा अनरण्यके पुत्र बहुरि कहा करते भए अर श्रीराम लदमणका सकल वृत्तांत मैं सुना चाहूंहूं सो कृपा करके कहो। तुम्हारा यश तीनलोकमें विस्तर रहा है । तब मुनियोंके स्वामी महातप तेजके धरनहारे गौतम गणधर कहते भए जैसा यथार्थ कथन श्री सर्वज्ञदेव वीतरागने भाष्या है तैसा हे भव्योत्तम! तू सुन--- जब राजा दशरथ बहुरि मुनियोंके दर्शनोंको गए तो सर्वभूतहित स्वामीको नमस्कार कर पूछते भए-हे स्वामी ! मैं संसारमें अनंत जन्म घरे सो कई भवकी वार्ता तिहारे प्रसादसे सुनकर संसारको सजा चाहूं हूं तब साधु दशरथको भव सुननेका अभिलाषी जानकर कहते भए है.राजन् ! सब संसारके जीव अनादि कालसे कर्मोके सम्बन्धसे अनन्त जन्म मरण करते दुःख ही भोगते आए हैं । इस जगतमें जीवनिके कर्मों की स्थिति उत्कृष्ट मध्यम जघन्य तीव प्रकारकी है अर मोक्ष सर्वमें उचम है जाहि पंचमगति कहे हैं सो अनंत जीवनिमें कोई एक होय है सबनिको नाहीं । यह पंचमगति कल्याणरूपिणी है जहांते बहुरि आवागमन नाही। वह अनंत सुखका स्थानक शुद्ध सिद्धपद इंद्रिय विषरूप रोगनिकरि पीडित मोहकर अन्य प्राणी ना पावें । जे तत्वार्थ श्रद्धानकर रहित वैराग्यसे वहिर्मुख हैं अर हिंसादिकमें है प्रति जिनकी तिनको निरन्तर चतुगेतिका भ्रमण ही है । अभव्योंको तो सर्वथा मुक्ति नाही निरन्तर भव भ्रमण ही है अर भन्यनिमें कोई एकको नित्ति है जहां तक जीव पुद्गल धर्म प्रधर्म काल है सो लोकाकाश है। अर जहां अकेला आकाश ही है सो अलोकाकाश है । लोकके शिखर सिद्ध विराजे हैं। या लोकाकाशमें चेतना लक्षण जीव अनंत हैं जिनका विनाश नाही, संसारी जीव निरन्तर पृथ्वी काय जलकाय अग्निकाय वायुकाय वनस्पतिकाय सकाय ये छै काय तिनमें Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = sairaat पर्व २६१ देह, थार भ्रमण करे हैं। यह त्रैलोक्य अनादि अनन्त है यामें स्थावर जंगम जीव अपने अपने कर्मों के समूह कर बंधे नाना योनियों में भ्रमण करें हैं कार जिनराजके धर्मकर अनन्त सिद्ध भए र अनंत सिद्ध होंगे श्रर होय हैं। जिनमार्ग टारकर और मार्ग मोक्ष नाहीं । श्रर अनन्त - काल : व्यतीत भया पर अनंत काल व्यतीत होयगा । काल का अन्त नाही जो जीव सन्देहरूप कलंककर कलंकी हैं अर पापकर पूर्ण हैं पर धर्मनिको नाहीं जाने हैं, तिनके जैनका श्रद्धान कहते हो अर जिनके श्रद्धान नाहीं सम्यक्त्वरहित हैं तिनके धर्म कहते होय पर धर्मरूप वृक्ष विना, मोचफल कैसे पावै, अज्ञान अनन्त दुखका कारण है जे मिथ्यादृष्टि अथ विषै अनुरागी हैं पर अति उग्रपाप कर्मरूप कंचुकी ( चोला ) कर मंडित हैं, रागादि विपके भरे हैं तिनका कल्याण कैसे होय, दुख ही भोगवे हैं। एक हस्तिनापुर विषै उपास्तनामा पुरुष, ताकी दीपनी नाम्रा स्त्री सो मिध्याभिमानकर पूर्ण नाके कछु नियम व्रत नाहीं श्रद्धानरहित महाक्रोधवंती व्यदेखसकी कषायरूप विषकी धारणहारी महादुर्भाव निरन्तर साधुनिकी निंदा करणहारी कृशब्द बोलनहारी महाकृपण कुटिल श्राप काहूको अन्न न देय अर जो कोई दान करे ताकों मने करे, धनकी विरानी पर धर्म न जाने इत्यादिक महादोष की भरी मिथ्यामार्ग की सेवक सो पापकर्म के प्रभावकर भवसागर विषै: अनंत काल भ्रमण करती भई अर उपास्ति दानके अनुरागकर चन्द्रपुर नगरविषै भद्रनामा- मनुष्य ताके धारिणी स्त्री ताके धारणामा पुत्र भया । भाग्यवान बहुत कुटुंबी ताके नयनसुन्दरी नामा स्त्री सो धारण शुद्ध भावते मुनिनिको आहारदान देय अन्त काल शरीर वजकर धातुकी खंड द्वीपविषै उत्तरकुरु भोगभूमि में तीन पल्य सुख भोग देव पर्याय पाय तहांते चयकर पृथुलावती नगरीविषै राजा नंदीघोष राणी बसुधा ताके नंदिवर्धन नामा पुत्र भया । एक दिन राजा नंदिघोष यशोधर नामा मुनिके निकट धर्म श्रवणकर नंदिवर्धनको राज्य देव आप मुनि भया । महातपकर स्वर्गलोक गया कर नंदिवर्धन श्रावकके व्रत धारे, पंच नमोकारके स्मरणविषै तत्पर कोटि पूर्व पर्यंत महाराजा पदके सुख भोगकर अन्त काल समाधि मरणकर पांचवे देवलोक गया । तहांते चयकर पश्चिम विदेहविषे विजयार्थ पर्वत यहां शशिपुर नाम नगर वहाँ राजा रत्नमाली ताके राणी विद्युतलता ताके सूर्यजव नामा पुत्र भया । एक दिन रत्नमाली महाबलवान सिंहपुरका राजा वज्रलोचन ताम्रं युद्ध करने को गया । अनेक दिव्य रथ हाथी घोडे पियादे महापराक्रमी सामंत लार नानाप्रकार शस्त्रनिके धारक, राजा होठ डसता धनुष चढाय वस्त्र पहिरे स्थविषै आरूढ भयानक आकृतिको परे आग्नेय विद्याथर शत्रुके स्थानकको दग्ध करवेकी है इच्छा जाके, ता समय एक देव तत्काल आयकर कहता भया— हे रत्नमाली ! तैं यह कहा आरम्भा । अत्र तु क्रोध तज, मैं तेरा पूर्व भत्रका वृतांत कहूं हूं सो सुन - भरत क्षेत्र विषै गांधारी नगरी वहां राजा भूति, ताके पुरोहित उपमन्यु सो राजा अर पुरोहित दोनों पापी मांसभचो, एक दिन राजा केवलगर्भ स्वामी के सुख व्याख्यान सुन यह व्रत लिया, जो मैं पापका आचरण न करू' । सो व्रत उपमन्यु पुरोहितने सुद्धाय दिया । एक समय राजापर परशत्रुओं की धाड आई । सो राजा पर पुरोहित Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों मारे गए । पुरोहितका जीव हाथी भया सो हाथी युद्ध में घायल होय अम्त काल नमोकार मंत्रका श्रवणकर तहां गांधारी नगरीमें राजा भूतिकी राखी योजनगन्या ताके परिसूदन नामा पुत्रमया सो ताने केवलग मुनिका दर्शनकर पूर्व जन्म स्मरण किया तब महा वैराग्य उपजा सो मुनिपद आदरा, समाधि मरणकर ग्यारवें स्वर्गमें देव मया। सो में उपमन्यु पुरोहिनका जीव अर तू राजा भूति मरकर मन्दारण्यमें मृग भया। दावानलमें अर मृवा, मरकर कलिंजनामा नीच पुरुष भया सी महापापकर दूजे नरक गया सो मैं स्नेहके योगकर नरकमें तुझे संबोधा । आयु पूर्ण कर नरकसे निकस रत्नमाली विद्याधर भया सो तू वे अब नरकके दुख भूल गया। यह वार्ता सुन रत्नमाली सूर्यजय पुत्रसहित परम वैराग्यको प्राप्त भया । दर्गतिक दखसे डरा, तिल सुन्दर स्वामीका शरण लेय पिता पुत्र दोनों मुनि भए । सूर्यजय तपकर दसमें देवलोक देव भया तहांतें चयकर राजा अनरण्यका पुत्र दशरथ भया । सो सर्व भूतहित मुनि कहे हैं अल्पमात्र भी सुकृतकर उपास्तिका जीव कैयक भव में बडके बीजकी नाई वृद्धिको मात भया । तू राजा दशरथ उपास्तिका जीव है और नंदिवर्धनके भवविर्ष तेरा पिता राजा नदिघोष मुनि होय ग्रेवयक गया सो तहांते चयकर मैं सर्वभूतहित मया अर जो राजा भूतिका जीव रत्नमाली भया हुता सो स्वर्गसे आय कर यह जनक भया। पर उपमन्य पुरोहितका जीव जाने रत्नमालीको संबोधा हुता सो जनकका भाई कनक भया । या संसारविष न कोई अपना है, न कोई पर है, शुभाशुभ कर्मो कर यह जीव जन्म मरण करे हैं यह पूर्व भवका वर्मन सुन राजा दशरथ निसंदेह होय संयमको सन्मुख भया । गुरुके चरणनिको नस्मकारकर नगरमें प्रवेश किया, निर्मल है अन्तःकरण जिनका, मनमें विचारता भया कि यह महा मंडलेश्वर पदका राज्य महा सुबुद्धि जे राम तिनको देकर मैं मुनिबत अंगीकार करू। राम धर्मात्मा है पर महा धीर हैं धीर्यको थरे हैं, यह समुद्रांत पृथ्वीका राज्य पालवे समर्थ हैं। भर माई भी इनके आज्ञाकारी हैं । ऐसा राजा दशरथने चितवन किया, कैसे हैं राजा ? मोहते परामुख पर मुक्तिके उद्यमी, ता समय शराद ऋतु पूर्ण मई अर हिमऋतुका आगमन भया, कैसी है शरदऋतु: कमल ही हैं नेत्र जाके, अर चंद्रमाकी चांदनी सोही हैं उज्ज्वल वस्त्र जाके, सो मानों हिमऋतुके भयकर भाग ग.।। - अथानन्तर हिमऋतु प्रकट भई, शीत पड़ने लगा, वृक्ष दहै पर ठंडी पवनकर लोक व्याकुल भए । जा ऋतुविणे धनरहित प्राणी जीर्ण कुटिमें दुखसे काल व्यतीत करे है, कैसे है दरिद्रो १ फट गए अधर अर चरण जिनके, अर बाज हैं दांत जिनके पर रूखे हैं केश जिनके भर निरन्तर अग्निका है सेवन जिनके अर कभी भी उदर भर भोजन न मिले, कठोर है चर्म जिनका भर घरमें कुभार्याके वचनरूप शस्त्रनिकर विदारा गया है चिच जिनका । पर काष्ठादिकके भार लायवे को कांधे कुठारादिको धरे वनर भटके हैं और शाक वोपलि आदि ऐसे माहारकर पेट भरे हैं अर जे पुण्यके उदय कर राजादिक धनाढ्य पुरुष भए हैं। ते बड़े महलोंमें तिष्ठे हैं पर शीतक निवारणहारे अगरके धूपकी सुगंधिताकरयुक्त सुंदर वस्त्र पहरे हैं अर रूपादिकके पात्रोंमें पट्रस Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकत्तीसवा पर्व संयुक्त सुगंधित स्निग्यभोजन कर हैं, केसर अर सुगंधादिकर लिप्त अंग जाके, अर जिनके निकट धूपदानमें धूप खेइए हैं। भर परिपूर्ण धनकर चितारहित हैं, झरोखोंमें बैठे लोकनको देखे हैं और जिनके समीप गीत नृत्यादिक विनोद होयत्रो करे हैं, रत्नोंके आभूषण अर सुगन्धमालादिककर मंडित सुन्दर कथामें उद्यमी हैं और जिनके विनयवान अनेक कलाकी जाननहारी महारूपवंती पतिव्रतास्त्री हैं। पुण्यके उदयकर ये संसारी जीव देवगति मनुष्यगतिके सुख भोग हैं अर पापके उदयकर नरक तिथंच तथाकुमानुष होय दुख दारिद्र भोगे हैं, ये सर्व लोक अपने अपने उपार्जित जे कर्म तिनके फल भोगे हैं ।ऐसे मनमें विचारकर राजा दशरथ संसार के वाससे अत्यन्त भयको वेकी है अभिलापा जाके, समस्त भोग वस्तुनिसे विरक्त भया, द्वारपालको कहता भया । कैसा है द्वारपाल भूमिमें थापा है मस्तक अर जोडे हैं हाथ जाने, नृपति ताको आज्ञा की। हे भद्र ! सामंत मंत्री पुरोहित सेनापति आदि सबको ल्यावो, तब वह द्वारपाल द्वारेपर प्राय दूजे मनुष्यको द्वारपर मेल तिनकी आज्ञा प्रमाग्म बुलावनेको गया, तब वे आयकर राजाको प्रणामकर यथायोग्य स्थानमें तिष्ठे, विनतीकर कहते भए-हे नाथ आज्ञा करो क्या कार्य है ? तब राजा कही-मैं संसारका त्यागकर निश्चयसेती संयम धरूंगा, तब मंत्री कहते भए-हे प्रभो! तुमको कौन कारण वैराग्य उपजा, तब नृपति कही जो प्रत्यक्ष यह समस्त जगत् सूके तृणकी भ्याई मृत्युरूप अग्निकर जरे है पर जो अभव्यनको अलभ्य र भव्यनको लेने योग्य ऐसा सम्यक्स्व सहित संयम सो भयतापका हा पहारा अर शिवसुखका देनहारा है सुर असुर नर विद्याधरों कर पूज्य प्रशंसा योग्य है, मैं आज पुनिके मुखसे जिनशासनका व्याख्यान सुना, कैसा है जिनशासन ? सकल पापोंका वर्जनहारा है, तीन लोकविणे प्रकट महा सूक्ष्म है चर्चा जाविणे प्रतिनिर्मस उपमारहित है । सर्व वस्तुनिमें सम्यक्त्व परम वस्तु है ता सम्यक्त्वका मूल जिनशासन है श्रीगुरुमोंके चरणारबिंदके प्रसादकर मैं निवृत्तिमार्गमें प्रवृत्ता, मेरी भव भ्रांति रूप नदीकी कथा भाज मैं मुनिके मुख से सुनी अर मोहि जातिस्मरण भया। सो अंग देखो त्रास कर कापे हैं कैसी है मेरी भवभ्रांति नदी ? नानाप्रकारके जे जन्म वेही हैं भंवर जामें अर मोहरूप कीच कर मलिन इतरूप माहनिकर पूर्णमहादुःख रूप लहर उठे हैं निरंतर जामें, मिथ्यारूप जलकर भरी, मृत्यु रूप मगरमच्छोंका है भय जामें रुदनके महाशब्दको धरे, अधर्म प्रवाह कर बहती प्रज्ञानरूप पर्वसते निकसी संसाररूप समुद्र में है प्रवेश जाका सो अब मैं इस भवनदीको उलंघकर शिवपुरी जोय. खेका उद्यमी भया हूं। तुम मोहके प्रेरे कछु वृथा मत कहो, संसार समुद्र तर निर्वाण द्वीप जाते अन्तराप मत करो जैसे सूर्यके उदय होते अंधकार न रहे तैसे सम्यकज्ञानके होते संशय तिमिर नहीं रहे साते मेरे पुत्रको राज्य देहु, अब ही पुत्रका अभिषेक करावहु मैं तपोवनमें प्रवेश करू ये वचन सुन मंत्री सामंत राजा को वैराग्यका निश्चय जान परम शोकको प्राप्त भए । नीचे होय गए हैं मस्तक जिनके पर अश्रुपात कर भर गए हैं नेत्र जिनके, अंगुरी कर भूमिको कुचरते ब्णमात्रमें प्रभारहित होय गए, मौनसे तिष्ठे पर सकल ही रणवास प्राणनाथका निग्रंथ ब्रतका निश्चय सुन शोकको प्राप्त भया, भनेक विनोद करते हुते सो तज कर आंसुओंसे लोचन मर Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प-पुराण लिए, अर महारुदन किया। भरत पिताका वैराग्य सुन आप भी प्रतिबोधको प्राप्त भए, चित्तमें चिंतवते भए-अहो यह स्नेहका बंधन छेदना कठिन है। हमारा पिता ज्ञानको प्राप्त भया । जिनदीक्षा लेनेको इच्छे हैं, अब इनके राज्यकी चिंता कहा, मोहि तो न किसीको कुछ पूछना न कुछ करना तपोवनमें प्रोश करूंगा। कैमा है संयम ? संसारके दुःखोंका क्षय करणहारा है अर मेरे इस देह करहू कहा ? कैसा है यह देह ब्याथिका घर है अर विनश्वर है सो यदि देहहीसे मेरा सम्बन्ध नाहीं तो बांधवनिलो कहा सम्बन्ध ? यह सब अपने अपने कर्म फलके भोगता है, यह प्राणी मोह कर अंधा है दुःख रूप वनमें अकेला ही भटके है दुःख रूप वन अनेक भव भय रूप चनिते भरा है॥ अथानन्तर केकई सफल कलाकी जाननहरी भरतकी यह चेष्टा जान अतिशोक धरती भई, मनमें चिनवे है-भरतार और पुत्र दोनों ही वैराग्य धारया चाहे हैं कौन उपाय कर इनका निवारण करू या भांति चिंता कर व्याकुल भया है मन जाका तब राजाने जो वर दीया हुता सो याद अाया अर शीघ्र ही पतिपै जाय आधे सिंहासनपर बैठी अर वीनती करती भई -हे नाथ ! सब ही स्त्रीनिके निकट तुम मोहि कृपाकर कही हुती जो तू मांगे सो मैं देऊ सो अब देवो। तुम पन्यवादी हो पर दानकरि निर्मलकीत तिहारी जगतविष विस्तर रही है। तब दशरथ कहने भये-हे प्रिये, जो तेरी बांछ होय सो ही लेहु। तब राणी केकई अासू डारती संती कहती भई-हे नाथ, हमपै ऐसी कहा चूक भई, जो तुम कठार चित्त किया ? हम सजा चाहो हमारा जीप तो तिारे आधीन है अर यह जिनदीक्षा अत्यन्त दुर्धर सो लेयवेको तुम्हारी बुद्धि काहे प्रवृत्ति है ? यह इन्द्र समान जे भाग तिनकर लड़ाया जो तिहारा शरीर सो कैसे मुनिपद धारोगे ? कैसा है मुनिपद अत्यन्त विषम है । या भांति जब राणी कैकई ने कहा तब आप कहते भए- हे का, समर्थनिकू कहा विषम ? मैं तो निसन्देह मुनियत धरूंगा, तेरी अभिलाषा होय सो मांग लेहु । राणी चिंतावान होय नीचा मुखकर कहती भई-हे नाथ, मेरे पुत्रको.राज्य देहु । तब दशरथ बोले यामें कहा संदेह १ ते धरोहरि मेली दुती सो अब लेहु, तें जो कहा सो हम प्रमाण किया, अब शोक तज, तैं मोहि ऋणरहित किया। तब राम लक्ष्मणको बुलाय दशरथ कहते भये--कैसे है दोऊ भाई महा विनयवान हैं, पिताके प्राज्ञाकारी हैं, राजा कहे हैं..हे वत्स, यह केकई अनेक कलाकी पारगामिनी, याने पूर्व महा घोर संग्रामविष मेरा सारथिपनाःकिया, यह अतिचतुर है, मेरी जीत भई । तब मैं तुष्टार्यमान होय याहि बरदिया जो तेरी बाबा होय सो मांग, तव याने वचन मेरे धरोहरि मेला, अब यह कहे है मेरे पुत्रको राज्य देवों सो याके पुत्रको राज्य न देउ तो याका पुत्र भरत संसारका त्याग करै अर यह पुत्रके शोककरि प्राण सजै अर मेरी वचन चूकनेकी अकीर्ति जातमें विस्तरै, अर यह काम मर्यादात विपरीत है जो बड़े पुत्रकू छोड़कर छोटे पुत्रकू राज्य देना अर भरतकू सकल पृथिवीका राज्य दीए तुम लक्ष्मणसहित कहां जावो, तुम दोऊ भाई परमक्षत्री, तेजके धरनहारे हो, तात हे वत्स, मैं कहाँ करू दीऊ ही कठिन बात आय बनी हैं। मैं अत्यन्त दुःखरूप चिंताके सागर पड़ा हूं। तब श्रीरामचन्द्र मेहा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकत्तीस पर्व 中華女 विनयको धरते संते कहते भए पिताके चरणारविंदकी ओर हैं नेत्र जिनके अर महा सज्जन भावकी परे हैं, हे तात, तुम अपना वचन पालो हमारी चिंता तत्रों जो तिहारे वचन चूकने की अपकीर्ति ही पर हमारे इन्द्रकी सम्पदा वै तो कौन अर्थ १ जो सुपुत्र हैं तो ऐसा ही कार्य करें जाकर माता पिताकू रंचमात्र भी शोक न उपजै । पुत्रका यही पुत्रपना पंडित कहे हैं--जो पिताक पवित्र करे श्रर कष्टतैं रक्षा करै । पवित्र करणा यह कहावै जो उनकू जिनधर्मके सन्मुख करें । दशरथके और राम लक्ष्मणके यह बात होय है ताही समय भरत महिलतें उतरा मनमें विचारों मैं कर्मनिकू' हन् मुनिव्रत धरू सो लोकनिके मुखतें हाहाकार शब्द भया तब पिताने विल fee हो भरत बन जायचेतैं राखा, गोद में ले बैठे छातीस लगाय लिया मुख चूमा अरे कहते भए हे पुत्र, तू प्रजाका पालन कर, मैं तप के अर्थ वनमें जाऊ हूँ । भरत बोले- मैं राज्य न कह जिनदीचा धरूंगा । तत्र राजा कहते भए - हे वत्स ! कई एक दिन राज्य करहु तिहारी नवीन वय है, वृद्ध अवस्थामें तप करियो । भरत कही है तान, जो मृत्यु है सो वाल वृद्ध तरुण नाहीं देखे हैं, सर्वभक्षी है, तुम मोहि वृथा काहेको मोह उपजात्रो हो ? तब राजा कही हे पुत्र गृहस्थोंश्रमविषै भी धर्मका संग्रह होय है। कुमानुष नितें नहीं बने हैं । तब भरत कही - हे नाथ, इन्द्रियनि के वशर्तें काम क्रोधादिक भरे गृहस्थनिकू मुक्ति कहां ? तव भूपतिने कही- हे भरत, मुनिनिहू में सब की तब मुक्ति नहीं होय है, कैईएककी होय है ता तू कई दिन गृहस्थ धर्म आराधि तद भरत वही हे देव आप जो कही सो सत्य है परन्तु जो गृहस्थनिका तो यह नियम ही है जो मुक्ति न हो घर सुनिनमें कोई की होय काई की न होय । गृहस्थ धर्मतें परम्पराय मुक्ति है साक्षात् नाहीं तातें हीन शक्तिवारेनिका काम है, मोहि यह बात न रुचै. मैं महाव्रत धरणेकाही अभिलाषी हूँ । गरुड कहा पतंगनिकी रीति आचरें ? कुमानुष कामरूप अग्नि की ज्वालाकरि परम दाह प्राप्त भए संते स्पर्शन इन्द्रिय पर जिह्वा इन्द्रिकारे अधर्मकार्यकू' करे हैं, तिनकू' निवृत्ति कहां ? पापी जीव धर्मते विमुख विषय भोगनिकू सेय करि निश्चय सेती महां दुःख दाता जो दुर्गति ताहि प्राप्त होय हैं, ये भोग दुर्गतिके उपजावनहारे अर राखे न रहें, क्षणभंगुर सा स्पाज्यदी हैं ज्यों ज्यों कामरूप अग्नि में भोगरूप ईवन डारिये त्यों त्यों अत्यन्त तापकी कराहारी कामाग्नि प्रज्वलित होय है तातें हे तात, तुम मोहि आज्ञा देवो जो वनमें जाये विधिपूर्वक तप करू, जिनभःपित तप परम निर्जराका कारण है, या संसारतें मैं अतिभयकू प्राप्त हूं अर हे प्रभो, जो घरही विषं कल्याण होय तो तुम काहेको घर तजि मुनि हुआ चाही हो? तुम मेरे तात हो सो तातका यही धर्म है संसार समुद्रतें तारै, तपकी अनुमोदना करें, यह बात विचक्षण पुरुष कहे हैं शरीर स्त्री धन माता पिता भाई सकलकू तजि यह जीव अकेली ही परलोकक जाय है, चिरकाल देवलोक के सुख भोगे है, तो हू यह तृप्त न भया सो कैसे मनुष्यों भोगनिकरि तृप्त होय ! पिता भरत के ये वचन सुनकर बहुत प्रसन्न भया, हर्ष थकी रोमांच होय आए, घर कहता भया हे पुत्र, तू धन्य है, भज्यनिविषै मुख्य है, जिनशासनका ३४ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पद्म पुराण रहस्य जानि प्रतिबोधको प्राप्त भवा है, तू जो कहे है सो प्रमाण है तथापि हे धीर, तैं अबतक aag मेरी आज्ञा भंग न करी, तू विनयवान् पुरुषोंमें प्रधान है, मेरी वार्ता सुनि-तेरी माता "केने युद्ध मेरा सारथीपना किया, वह युद्ध प्रति विषम हुता जामें जीवनेकी आशा नाहीं सोया सारथीपनेकरि युद्धमें विजय पाई, तब मैं तुष्टः यमान होय याको कहा जो तेरी बांधा होय सो मांग तब याने कही यह वचन भण्डार रहे, जादिन मोहि इच्छा होयगी नादिन मांग लूंगी सो आज याने यह मांगी कि मेरे पुत्रको राज्य देहु सो मैं प्रमाण किया । अब हे गुणनिधे, तू इन्द्रके राज्य समान यह राज्य निकंटक करि । मेरी प्रतिज्ञा भंगकी अकीर्ति जगतविषै न होय अर यह तेरी माता तेरे शोककरि तप्तायमान होय मरणको न पायें, कैसी है यह निरंतर सुखकर लढाया है शरीर जाने अपत्य कहिए पुत्र ताका यहीं पुत्रवना है कि माता पिताको शोक समुद्र न डारे यह बात बुद्धिमान कहे हैं या भांति राजा कही । - अथानन्तर श्रीराम भरत का हाथ पकड महामधुर वचनसे प्रेमकी भरी दृष्टिकर देखते संते कहते भए, हे भ्रात ! तातने जैसे वचन तोहि कहे ऐसे और कौन कहने समर्थ ? जो समुद्र से रत्नों की उत्पत्ति हो सो सराबरसे हां? अवर तरी वय तपके योग्य नाहीं, कैएक दिन राज्य कर जसे पिताकी कार्ति वचनके पालिवे की चन्द्रमा समान निर्मल अर तो सारिखे पुत्रके होते संवे माता शोककर ततायमान मरणको प्राप्त होय यह योग्य नाहीं अर मैं पर्वत अथवा वनविषै ऐसी जगह निवास करूंगा जो कोई न जाने निश्चित राज्यकरि । मैं सकल राजऋद्धि तज देशसे दूर रहूँगा र पृथिवीको पीडा काहू प्रकार न होयगी तातें तू दीर्घ सांस मत डारे, कैयक दिन पिताकी आज्ञा मान राज्यकरि, न्यायसहित पृथ्वीको रक्षाकरि, हे निर्मल स्वभाव ! यह इक्ष्वाकु वंशनिका कुल याहि तु अत्यंत शोभायमान करि जैसे- चन्द्रमा ग्रह नक्षत्रादिक को शोभायमान करे है । भाईका यही भाईपना पंडितनिने कहा है भाइनिकी रक्षा करे संताप हरे । श्रीरामचन्द्र ऐसे वचन कहकर पिताके चरणनिको भाव सहित प्रणामकर चल पडे, तब पिताको मूर्छा श्री गई, काष्ठके समान शीर होय गया, राम तर्कश बांध धनुष हाथमें लेय माताको नमस्कार कर कहते भए - हे माता हम अन्य देश जांग हैं तुम चिंता न करनी तब माताको भी मूर्छा आय गई, बहुरि सचेत होय आंसू डारती संती कहती भई, हाय पुत्र ! तुम मोहि शोकके समुद्रमें डार कहाँ जावो हो, तुम उत्तम चेष्टाके धरणहारे हो माताका पुत्र ही अवलंबन है जैसे 'शाखा के मूल आधार है । माता रुदनकरि विलाप करती भई, तब श्रीराम माताकी भक्ति में तत्पर ताहि प्रणामकरि कहते भए - हे माता ! तुम विषाद मत करहुं । मैं दक्षिण दिशा में कोई स्थानक कर तुमको निसंदेह बुलाऊंगा । हमारे पिताने माता केकईको वर दिया हुता सो भरतको राज्य दिया । अब मैं यहां न रहूँ, विन्ध्याचलके वन विनै श्रथवा मलयाचल के वनविषै तथा समुद्रके समीप स्थानक करूंगा। मैं सूर्य समान यहां रहूँ तो भरत चन्द्रमाकी आज्ञा ऐश्वर्यरूप कांति न विस्तरे । तब माता नम्रीभूत जो पुत्र ताहि उरसे लगाय रुदन करती संधी कहती मई- हे पुत्र ! मोकू तिहारे साथ चलना ही उचित है, तोकू देखे बिना मैं Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकत्तीसवां पर्व १६७ प्राणोंके राखिवे. समर्थ नाही, जे कुलवंती स्त्री हैं तिनके पिता अथवा पति पुत्र ये ही आश्रय है । सो पिता तो कालवश भया अर पति जिनदीक्षा लेयबेको उद्यमी भया है अब तो पुत्र हीका अवलंबन है, सो तुमहु छाड चाले तो मेरी कहा गति होगी। तब राम बोले-हे माता ! मार्गमें पाषाण अर कंटक बहुत हैं, तुम कैसे पावोंसे चलोगी ततै कोऊ सुखका स्थानकर असवारी भेज तुमको बुला लू गा । मोहि तिहारे चरणनि की सौगंध है तिहारे लेनेको मैं आऊंगा तुम चिंता मत करहु । ऐसे कह माताको शांतता उपजाय सीख करी । बहुरि पिताके पास गए। पिता मूर्छित होय गए हुते सो सचेत भए । पिताको प्रणाम कर दूसरी मातावोंपे गए सुमित्रा केकई सुप्रभा संवनिको प्रणामकर विदा हुए । कैसे हैं राम ? न्यायविणे प्रवीण निराकुल है चित जिनका, तथा भाई बंधु मंत्री अनेक राजा उमराव परिवारके लोक सबनिक शुभवचन कह विदा भए । सबनिको बहुत दिलासा कर छाती सों लगाय उनके आंसू पूछे । उनने धनी ही विनती करी जो यहां ही रहो सो न मानी । सामंत तथा हाथी घोडे रथ सबकी भोर कृपादृष्टि कर देखा बहुरि बडे बडे सामंत हाथी घोडे भेट लाए सो रामने न राखे । सीता अपने पतिको विदेश ममनको उद्यमी देख ससुर अर सासुनको प्रणाम करि नाथके संग चली जैसे शची इन्द्र के साथ चाले । लखमण स्नेहकरि पूर्ण रामको विदेश गमनको उद्यमी देख चित्तमें क्रोधकरि चिंतता भया--जो हमारे पिताने स्त्रीके कहेते यह कहा अन्याय कार्य विचारा जो रामको टार और को राज्य दिया। धिक्कार है स्त्रीनिक जो अनुचित काम करती शंका न करें, स्वार्थविणे पासक्त है चित्त जिनका, अर यह बड़ा भाई महानु पार पुरुषोत्तम है सो ऐसे परिणाम मुनिनि के होय हैं । अर मैं ऐसा समर्थ हूँ जो समस्त दुराचारिनिका पराभव कर भरतको राज्यलक्ष्पीते रहित करू' पर राज्यलक्ष्मी श्रीरामके वरणनिमें लाऊं यह बात उचित नाही, क्रोध महादुखदाई है जीवनिक अन्ध करे है । पिता जिनदीक्षाको उद्यमी भया पर मैं क्रोध उपजाऊ सो योग्य नाही पर मोहि ऐसे विचार कर कहा ? योग्य अर अयोग्य पिता जाने अथवा बड़ा भाई जाने जामें पिताकी कीर्ति उज्ज्वल होय झो कर्तव्य है । मोहि काहूको कछु न कहना मैं मौन पकड वडे भाईके संग जाऊंगा ? कैसा है यह भाई साधु समान है भाव जाके, ऐमा विचार कर कोप सज धनुष बाण लेय समस्त गुरुजनोंको प्रणामकर महाविनय संपन्न रामके संग चला, दोऊ माई जैसे देवालयतें देव निकसे तैसे मंदिरते निकसे अर माता पिता सकल परिवार अर भरत शत्रुम सहित इनके वियोगते अश्रुपात करि मानों वर्षाऋतु करते संते राखवेको चले सो राम लक्ष्मण अति पिताभक्त संबोधनेको महापंडित विदेश जायवे हीका हे निश्चय जिनके, सो माता पिता की बहुत स्तुनिकर बारम्बार नमस्कारकर बहुत थीर्य बधाय पीठ पीछे फिरे सो नगरमें हाहाकार भया । लोक वार्ता करे हैं । हे मात ! यह कहा भया यह कौनने मत उठाया । या नमरी ही का अभाग्य है अथवा सकल पृथ्वीका अभाग्य है। हे मात, हम तो अब यहां न रहेंगे, इनके लार चालेंगे। ये महा समर्थ हैं और देखो यह सीता नाथके संग चली है अर रामकी सेवा करणहारा लक्ष्मण भाई है, धन्य है जानकी विनयरूप रख पहिरे भरतारके संग जाय है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६. प्रद्म-पुराप्य नगर की नारी कहें हैं--हम सबको शिक्षा देनहारी यह सीता महापतिव्रता है, या समान और नारी नाहीं जो महा पतिव्रता होंय सो याकी उपमा पाषै, पवित्रताकों के बस्तार ही देव हैं पर देखो यह लक्ष्मण माताको रोवती छोड़ बड़े भाईके संस जाय है । धन्य यात्री भक्ति, धन्य याकी प्रीति, धन्य याकी क्षमा, धन्य याकी विनयकी अधि कता, या समान और नाहीं श्रर दशरथ भरतको यह कहा आज्ञा करी जो तू राज्य लेड अर राम लक्ष्मणको यह कहा बुद्धि उपजी जो अयोध्याको छांड चले जा कालमें जो होनी होय खो होय है, जः के जैसा कर्म उदय होय तैसी ही होय जो भगवानके ज्ञानमें भासा है सो होय, देवराति दुर्निवार हैं, यह बात बहुत अनुचित होय हैं यहां देवता कहाँ गए। ऐसे लोगनिके सुखते ध्वनि होती भई । सब लोक इनके लार चालवे को उद्यमी भए घरनितें निकसे, नगरी का उत्साह जाता रहा । शोककर पूर्ण जो लोक तिनके अश्रुपातोंकर पृथ्वी सजल हो गई जैसे समुद्र की लहर उठे हैं तैसे लोक उठे । रामके संग चाले, मने किएहू न रहें, रामको भक्तिकर लोक पूजें संभाषण करें सो राम पैंड पैंड में विघ्न मानें इनका भाव चलने का लोक ऐसा चाहें कि लार चलें, रामका विदेश गमन मानों सूर्य देख न सका, सो अस्त होने लगा । अस्त समय सूर्यके प्रकाश ने सर्व दिशा तजी जैसे भरत चक्रवतीने मुक्तिके निमित्त राज्य संपदा तजी हुती । सूर्य के अस्त होते परम रागको धरती मंती सन्ध्या सूर्यके पीछे हो चली, जैसे सीता रामके पीछे चली पर समस्त विज्ञानका विध्वंस करणहारा अंधकार जगतमें व्याप्त भया, मानों रामके गमनसे तिमिह विस्तरा, लोग लार लागे सो रहें नाहीं, तत्र रामने लोकनिके टारिनेको श्रीश्ररनाथ तीर्थ करके चैत्यालय में निवास करना विचारा, संसार के तारणहारे भगवान तिनका भवन सदा शोभायमान: महा सुगंध अष्ट मंगल द्रव्यनिकर मंडित, जाके तीन दरवाजे, ऊंचा तोरण सो राम लक्ष्मण सीता प्रदक्षिणा दे चैत्यालय मांहि पैठे समस्त विधिके वेत्ता दोय दरवाजे तक तो लोक चले गए। तीसरे दरवाजेपर द्वारपालने लोकनिकों रोका जैसे मोहिनीकर्म मिध्यादृष्टियोंको शिवपुर जानेसे रोके हैं, राम लक्ष्य धनुष बाण अर वखतर बाहिर मेल भीतर दर्शनको गए। कमल सान है नेत्र जिनके श्रीचरनाथका प्रतिबिंब रत्नोंके सिंहासनपर विराजमान महाशोभायमान महासौम्य कायोत्सर्ग, श्रीवत्सल क्षणकर देदीप्यमान है उरस्थल जिनका प्रकट हैं समस्त लचय जिनके, संपूर्ण चन्द्रमा समान वदन, फूले कमलसे नेत्र, कथनविषै र चितवनविषै ना ऐसा ६ रूप जिनका, तिनका दर्शनकर भावसहित नमस्कारकर ये दोऊ भाई परम हर्षको प्राप्त भए, कैसे हैं दोऊ ? बुद्धि पराक्रमरूप विनय भरे जिनेन्द्रकी भक्तिविषै तत्पर रात्रिको चैत्यालयके समीप रहे, तां इनको वसे जानकर माता कौशल्यादिक पुत्रनिविषै है वात्सल्य विका सायकर आसू डारतीं बारम्बार उरसों लगावती भई । पुत्रनके दर्शनविषै अतृप्त विकल्परूप हिंडोलवि भूले हैं चित्त जिनका, गौतम स्वामी कहें हैं 1 हे श्रेणिक ! सर्वशुद्धता में मनकी शुद्धता महा प्रशंसा योग्य है । स्त्री पुत्रको भी उरले गाने पर प्रतिको भी उरसे लगावे परन्तु परिणामों का अभिप्राय जुदा जुदा है । दशरथकी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीस पणे चाहों ही राखी गुणरूप लावण्यताकर पूर्ण महामिष्टवादिनी पुत्रोंसे मिल पतिपै गई जायकर कहती भई कैसा है पति ? सुमेरुसमान निश्चल है भाव जका, राणी कहें हैं-हे देव ! कुलरूप जहाज शोकरूप समुद्रमें डूबे है सो थांपो । राम लक्ष्मणको पंछे लावो तब राजा कहते भए यह जगत विकाररूप मेरे प्राधीन नाहीं । मेरी इच्छा तो यह ही है कि सर्व जीवनिको सुख होय कोऊको भी दुःख न होय, जन्म मरणरूप पारथियोंकर कोई जीव पीडा न जाय परन्तु ये जीव नानाप्रकारके कर्मों की स्थितिको धरे हैं तातें कौन विवेकी वृथा शोक करे। बांधवादिक इष्टपदार्थनिके दर्शनविणे प्राणिनिको तृप्ति नाहीं तथा धन पर जीतव्य इनकरि तृप्ति नाही। इन्द्रियोंके सुख पूर्ण न होय सके अर आयु पूर्ण होय तब जीव देहको तज और जन्म धरे जैसे पक्षी बृक्षको तज चला जाय है तुम पुत्रनिकी माता हो पुत्रनिको ले भावी पुत्रनिको राज्यका उदय देख विश्रामको भजो। मैंने तो राज्यका अधिकार तजा, पाप क्रिया से निवृत्त भया । भव भ्रमणसे भयको प्राप्त भया । अब मैं मुनिव्रत थरूंगा । हे श्रेणिक ! या भांति राजा राणियोंको कहकर निर्मोहताक निश्चयको प्राप्त भया सकल विषियाभिलाषरूप दोषोंसे रहित सूर्य समान है वेज जाका सो पृथ्वीमें तप संयमका उद्योत करता भया। इति श्रीरविषेणोचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषे दशरथका वैराग्य वर्णन करनेवाला इकत्तीसवां पर्व पूर्ण भया ।। ३ ।। . अथानन्तर राम लक्ष्मण क्षण एक निद्राकर अर्धरात्रिके समय जब मनुष्य सोय रहे लोकनिका शब्द मिट गगा अर अंधकार फैल गया ता समय भगवानको नमस्कारकर बखतर पहिर धनुषवाण लेय सीताको बीचमें लेकर चले, घर घर दीपकनिका उद्योत होय रहा है, कामीजन अनेक चेष्टा करे हैं । ये दोऊ भाई महाप्रवीण नगरके द्वारकी खिडकीकी ओरसे विकसे, दक्षिण दिशाका पंथ लिया, रात्रिके अंतमें दोडकर सामंत लोक आय मिले। राधक्के संग चलनेकी है अभिलाषा जिनके, दूरते राम लक्ष्मणको देख म्हा विनयके भरे असवारी छोड प्यादे पाए, चरणारविंदको नमस्कारकरि निकट आय वचनालाप करते भए । बहुत सेना आई भर जानकीकी बहुत प्रशंसा करते भए जो याकं प्रसादते हम राम लक्षमणको आय मिले यह महोती तो ये धीरे धीरे न चलते तो हम कैसे पहुंचते, ये दोऊ भाई पक्न समान शीघ्रगामी हैंपर यह सीता महासती हमारी माता है । या समान प्रशंसा योग्य पृथ्वीविष और नाहीं। के दोऊ भाई नरोत्तम सीताकी चाल प्रमाण मंद मंद दो कोस चले। खेतनिविष नानाप्रकारके मनहरे होय रहे हैं अर सरोवरनिमें कमल फूल रहे हैं अर वृक्ष महारमणीक दीखे हैं। अनेक प्राममारादिमें ठौर २ लोक पूजे हैं भोजनादि सामग्री करि, अर बडे बडे राजा बडी फौजसे माप मिले जैसे वर्षाकालमें गंगा जमनाके प्रवाहविष अनेक नदियनिके प्रवाह प्राय मिलें। कि सामंत मार्गके खेदकर इनका निश्चय जान आज्ञा पाय पीछे गए पर कैएक खजजाकर एक भापकर बैएक भक्तिकर लार प्यादे चले जाय हैं सो राम लक्षमण कीस करते परियात्रा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच-पुराण नामा अटवीविष पहुंचे । कैसी है अटवी नाहर अर हाथिनिके ममूहनिकर भरी, महा भयानक वृत्तनिकर रात्रिसमान अंधकारकी भरी, जाके मध्य नदी है ताके तट पाए जहां भीलनिका निवास है, नानाप्रकारके मिष्ट फल हैं। श्राप तहां तिष्ठकर कैएक राजनिको विदा किया था कैएक पोछे न फिरे रामने बहुत कहा तो भी संग ही चाले सो सकल नदीको महा भयानक देखते भए । कैसी है नदी पर्वतनिमों निकसती महानील है जल जाका प्रचंड है लहर जामें महाशब्द"यमान अनेक जे ग्रह मगर तिनकर भरी दोऊ दाहाँ विदारती कन्लोलनिके भयकर उडे हैं तीरके पक्षी जहां ऐसी नदीको देख कर सकल सामंत त्रासकर कंपायमान होय राम लक्षमणको कहते भए-हे नाथ ! कृपाकर हमें भी पार उतारहु, हम सेवक भक्तिवंत हमसे प्रसन्न होवो, हे माता जानकी ! लक्षमणसे कहो जो हमको पार उतारे, या भांति आंसू डारते अनेक नरपति नाना चेटाके करणहारे नदीविष पड़ने लगे, तब राम बोले अहो अब तुम पाके फिरो यह वन महा भयानक है। हमारा तुम्हारा यहांलग ही संग हुता पिताने भरतको सबका स्वामी किया है सो तुम भक्तिकर तिनकू सेवो । तब वे कहते भए--हे नाथ ! हमारे स्वामी तुमही हो, महादयावान हो, हमपर प्रसन्न हो, हमको मत छोडहु तुम विना यह प्रजा निराश्रय भई आकुलतारूप कहो कोनकी शरण जाय, तुम समान और कौन है ! व्याघ्र सिंह पर गजेन्द्र सादिकका भरा भयानक जो यह बन तामें तुम्हारे संग रहेंगे । तुमबिना हमें स्वर्गहु सुखकारी नाही । तुम कहो पीछे जावो सो चित्त फिरे नाहीं कैसे जाहिं ? यह चिच सब इंद्रियनिका अधिपति याहीते कहिए है जो अद्भुत वस्तुमें अनुराग करे । हमारे भोगनिकर घरकर तथा स्त्री कुटुम्बादिकर कहा ? तुम न रत्न हो, तुमको छांड कहां जाहिं ? हे प्रभो! तुमने बालक्रीडाविर्ष भी हमसे घृणान करी अब अत्यन्त निठुरताको धारो हो । हमारा अपराध कहा ? तिहारे चरण रजकर परमवृद्धिको प्राप्त भए, तुम तो भृत्यवत्सल हो । अहो माता जानकी! अहो लक्षमण धीर ! हम सीस निवाय हाथ जोड वीनती करे हैं, नाथको हमपर प्रसन्न करहु । के वचन सवन कहे तब सीता अर लक्षमण रामके चरणनिकी ओर निरख रहे । राम वोले-अब तुम पाछे जाहु । यही उत्तर है । सुखों रहियो ऐसा कहकर दोनों धीर नदीके विषे प्रवेश करते भए । श्रीराम सीताका कर गह सुखसे नदीमें लेगए जैसे कमलनीको दिग्गज ले जाय । वा असराल नदी राम लक्षमणके प्रभावकर नाभि प्रमाण बहने लगी। दोऊ भाई जल विहारविरे प्रवीण क्रीडा करते चले गए । सीता रामके हाथ गहे ऐसी शोमै मानों साक्षात् लक्ष्मी ही कमलमें तिष्ठ है । राम लक्षमण क्षणमात्रविषे नदीपार भए वृचनिके आश्रय आय भए । तप लोकनिकी दृष्टिते अगोचर भए, तब कई एक तो विलाप करते आंसू डारते घरनिको गए अर कई एक राम लक्षमणकी ओर धरी है दृष्टि जिनने सो काष्ठकेसे होय रहे पर कईएक मूर्छा खाय घरदीपर पडे अर कईएक ज्ञानको प्राप्त होय जिन दीक्षाको उद्यमी भए परस्पर कहते भए जो धिकार है असार संसारको अर धिकार है इन क्षणभंगुर भोगनिको ये काले नागके फण समान भयानक है। ऐसे शूरवीरनिकी यह अवस्था तो हमारी कहा बात या शरीरको विकार, को Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसवां पर्व ميخيعخقحطهریخ पानीके बुदबुदा समान निस्सार जरा मरण इष्टवियोग अनिष्टसंयोग इत्यादि कष्टका भाजन है, धन्य है वे महापुरुष भाग्यवंत उत्तम चेष्टाके थारक जे मरकट (वर) की भौंह समान लरमीको चंचल जान तजिकर दीधा थारते भये या भांति अनेक राजा विरक्त दीक्षाको सन्मुख भए, तिनने एक पहाडकी तलहटीमें सुन्दर वन देखा अनेक वृक्षनिकरमंडित महासघन नानाप्रकारके पुष्पनिकर शोभित जहां सुगंधके लोलुपी भ्रमर गुजार करे हैं तहां महापवित्र स्थानको तिष्ठने ध्यानाध्ययनविषे लीन महातपके थारक साधु देखे, तिनको नमस्कारकर वे राजा जिनमाथका जो चैत्यालय तहां गए । ता समय पहाडनिकी तलहटी तथा पहाडनिके शिखरविर्षे अथवा रमणीक वननिविष नदीनिके तटविष नगर प्रामादिकविर्ष जिनमंदिर हुते तहां नमस्कारकरि एक समुद्र समान गम्भीर मुनिनिके गुरु सत्यकेतु प्राचार्य तिनके निकट गये, नमस्कार कर महाशांतरसके भरे आचार्य से वीनती करते भये--हे नाथ ! हमको संसार समुद्रते पार उतारहु तब मुनि कही तुमको भव पार उतारनहारी भगवती दीक्षा है सो अंगीकार करहु । यह मुनिकी आज्ञा पाय ये परम हर्षको प्राप्त भये । राजा दिग्धविजय मेरुर संग्रामलोलुप श्रीनगदमन धीर शत्रुदमन घर विनोदकंटक सत्यकठोर प्रियवर्धन इत्यादि निग्रंथ होते भये तिनका गज तुरंग स्थादि सकल साज सेवक लोकनिने जायकरि उनके पुत्रादिको सौंपा तब वे बहुत चिंतावान भए। बहुरि समझकर नानाप्रकारके नियम धारते भए । कैयक सम्यकदर्शनको अंगीकारकर संतोषको प्राप्त भए, कैयक निर्मल जिनेश्व-देवका धर्म श्रवण कर पापते पगंगमुख भए। बहुत सामंत राम लक्षमणकी वार्ता सुन साधु भए, कैयक श्रावकके अणुव्रत धारते भए । बहुत राणी मार्षिका भई बहुत श्राविका भई कैयक सुभट रामका सर्व वृत्तांत भरत दशरथ पर नाकर कहते भए सो तुनकर दशरथ पर भरत कछुयक खेदको प्राप्त भए । भधानंतर राजा दशरथ भरतको राज्याभिषेक कर कछुयक जो रामके वियोग कर व्याकुल भया हुता हृदय सो समतामें लाय विलाप करता जो अंतःपुर ताहि प्रतियोधि नगरते वनको गए। सर्वभूतहित स्वामी को प्रणामकर बहुत नृपनिसहित जिनदीक्षा आदरी। एकाकी बिहारी जिनकल्पी भए । परम शुकध्यानकी है अभिलाषा जिनके तथापि पुत्रके शोककर कवहुक कछुक कलुषता उपज श्रावे सो एक दिन ये विचक्षण विचारते भए कि संसारके दुखका मूल यह जगतका स्नेह है इसे धिक्कार हो या करि कर्म बंधे हैं । मैं अनंत जन्म थरे तिनविनै गर्भ जन्म बहुत धर सो मेरे गर्भ जन्मके अनेक माता पिता भाई पुत्र कहां गए। अनेक बार मैं देव लोकके भोग भोगे अर अनेक बार नरकके दुख भोगे, तियंचगविविौ मेरा शरीर अनेक बार इन जीवनिने भखा, नानारूप जे योनिये तिनविणै मैं बहुत दुख भोगे भर रूदनके शब्द सुने पर बहुतबार वीणवांसुरी आदि वादित्रोंके नाद सुने, गीत सुने, नृत्य देखे देवलोकविणे मनोहर अप्पारानिके भोग भोगे, अनेक बार मेरा शरीर.नरकविणे कुम्हाडिन कर काटा गया, पर अनेकवार मनुष्पगतिविगै महा सुगंध महावीर्यका करणहारा पटास संयुक्त अमाहार किया पर भनेक बार नर कविणै गला सीसा भर तांबा नारकीयोंने Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पछी-पुराण मार मार मुझे प्याया अर अनेकवार सुर नर गतिविणै मनके हरनहारे सुन्दररूप देखे घर मुन्दररूप धारे अर अनेकवार नरकविणे महाकुरूप धारे अर नानाप्रकार त्रास देखे, कैयक वार राजपद देवपदविणे नानाप्रकारके सुगंध सूघे तिनपर भ्रमर गंजार करें अर कैयक बार नरककी महादुगंध सूची अर अनेक चार मनुष्य तथा देवगतिविणै महालीलाकी थरणहारी वस्त्राभरण मंडित मनकी चोरणहारी जे नारी तिनसों आलिंगन कीया पर बहुत बार नरकनिविपै इटशा. न्मलि वृक्ष जिनके तीक्ष्ण कंटक अर प्रज्वलिती लोहकी पुतलीनिसे स्पर्श किया, या संसारविगै कर्मनिके संयोगते मैं कहा कहा न देखा, कहा कहा न सूघा, कहा कहा न सुना, कहा कहान खाया अर पृथिवीकाय जलकाय अग्निकाय वायुकाय वनस्पतिकाय त्रसकायविगै असा देह नाही जो मैं न धारा, तीनलोकविणे असा जीव नाहीं जासू मेरे अनेक नाते न भए, ये पुत्र मेरे कईबार पिता भए माता भए, शत्रु भए, मित्र भए, औसा स्थानक नाहीं जहां मैं न उपजान मुआ, ये देह भोगादिक अनित्य या जगतविष कोई शरण नाहीं, यह चतुर्गति रूप संसार दुःखका निवास है, मैं सदा अकेला हूं, ये पटद्रव्य परस्पर सब ही भिन्न हैं, यह काय अशुचि, मैं पवित्र ये मिथ्यात्वादि अब्रतादिकर्म आश्रवके कारण हैं, सम्यकत्व ब्रत संयमादि संवरके कारण हैं । तपकर निर्जरा होय है । यह लोक न नारूप मेरे स्वरूपते भिन्न या जगतविणे आत्मज्ञान दुर्लभ है, अर वस्तुका जो स्वभाव सोई थर्ग तथा जीवदया धर्म सो मैं महाभाग्यतें पाया, धन्य ये मुनि जिनके उपदेशते मोक्षमार्ग पाया सो अब पुत्रनिकी वाहः चिंता, असा विचार कर दशरथ मुनि निर्मोह दशाको प्राप्त भए, मिन देशों में पश्लेि हाथी चमर दुरते छत्र फिरते हुते पर महारण संग्रामविष उद्धत बैरिनिको जीते तिन देशनिविर्ष निग्रंथ दशा धरे बाइस परीषह जीतते शांतिमाव संयुक्त विहार करते भए । अर कौशल्या तथा सुमित्रा पतिके वैरागी भए अर पुत्रनिके विदेश गये महाशोकवंती भई, निरंतर अश्रुपात डरें तिनके दुःखको देख, भरत राज्य विभूतिको विषसमान मानता भया भर केकई तिनको दुखी देख उपजी है करुणा जाके पुत्रको कहती भई-हे पुत्र ! तू राज्य पाया, बडे बडे राजा सेवा करे हैं परंतु राम लक्ष्मण विना यह राज्य शोभे नाही सो वे दोऊ भाई महाधिनयवान उन विना कहा राज्य अर कहा सुख पर कहा देशकी शोभा अर कहा तेरी धर्मज्ञता? वे दोऊ कुमार अर वह सीता राजपुत्री सदा सुखके भोगनहारे पाषाणादिककर परित जे मार्ग ताविषे वाहन विना कैसे जावेंगे पर तिन गुणसमुद्रनिकी ये दोनों माता निरंतर रुदन करे हैं सो मरणको प्राप्त होंयगी तातें तुम शीघ्रगामी तुरंगपर चढ शितावी जावो उनको ले श्रावो, तिनसहित महासुखमों चिरकाल राज करियो पर मैं भी तेरे पीछेडी उनके पास आऊ हूं, यह माताकी आत्रा सुन बहुत प्रसन्न होय ताकी प्रशंसा कर अति प्रातुर भरत हजार अश्व सहित रामके निकट चला अर जे रामके समीपते वापिस पाऐ हुने तिनको संग ले चला, आप तेज तुरंग पर चढा उतावली चाल बनविष आया । वह नदी असरल बहती हुनी सौ तामें वृत्तनिके लट्ठे गेर बेडे बांध क्षणमात्रमें सेना सहिन पार उतरे, भागवीकार मारिनिसों पक्षो जाय जो तुम राम लक्ष्मण कहीं देखे । वे कहे हैं यहांते निकट ही है सो परत Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैस पर्व २७३ एकग्रचिच चले गए । सघन वनमें एक सरोवर के तटपर दोऊ भाई सीता सहित बैठे देखें । समीप धरे हैं धनुवाण जिनके, सीताके साथ ते दोऊ भाई घने दिवसविषै आए र भरत छह दिन में आया, राम को दूरते देख भरत तुरंगते उत्तर पायपियादा जाय रामके पायन परा मूि होय गया तब राम सचेत किया । भरत हाथ जोड़ सिर निवाय रामसू बीनती करता भया । हे नाथ ! राज्यके देयवेकर मेरी चहा विडम्बना करी । तुम सर्व न्याय मार्ग जानन हारे महा प्रवीण मेरे या राज्यते कहा प्रयोजन ? तुम विना जीवनेकर कहा प्रयोजन १ तुम महाउत्तम चेष्टाके धरणहारे मेरे प्राणों के आधार हो । उठो अपने नगर चलें । हे प्रभो ! मोपर कृपा करहु, राज्य तुम करह, राज्य योग तुम ही हो, मोहि सुखी अवस्था देहु | मैं तिहारे सिर पर छत्र फेरता खड़ा रहूंगा और शत्रुघन चमर ढारेगा कर लक्ष्मण मन्त्री पद धारेगा, मेरी माता पश्चातापरूप श्रग्निकर जरे है र तिहारी माता और लक्ष्मणकी माता महाशोक करें हैं, यह बात भरत करे ही हैं और ताही समय शीघ्र रथपर चढी अनेक सामंत सहित महाशोककी भरी केकई आई अर राम लक्ष्मणकू उरसों लगाय बहुत रुदन करती भई । रामने वीर्य बंधाया, तब के कई कहती भई – हे पुत्र ! उठो अयोध्या चलो, राज्य करहु, तुम बिन मेरे सकल पुर वन समान है और तुम महाबुद्धिवान हो, भरतसों सेवा लेवो, हम स्त्रीजन निकृष्ट बुद्धि हैं मेरा अपराध क्षमा करहु तत्र राम कहते भए - हे मात ! तुम तो सब वातनिविषै प्रवीर्ष हो तुम कहा न जानो हो क्षत्रियनिका यही विरुद है जो वचन न चूकें, जो कार्य विचारा ताहि और मांति न करें। हमारे तातने जो वचन कहा सो हमको घर तुमको निवाहना, या वातविषै भरतकी अकीर्ति न होयगी । बहुरि भरतते कहा कि हे भाई ! तुम चिंता मत करहु तु अनाचार ते शंके है सो पिताको आज्ञा अर हमारी आज्ञा पालते अनाचार नाही, ऐसा कहकर वनविष सब राजानिके समीप भरतका श्रीरामने राज्याभिषेक किया और केकईकू प्रणामकर बहुत स्तुति कर बारम्बार संभाषण कर भरतको उरसे लगाय बहुत दिलासाकर मुशकिलते विदा किया । केकई श्रर भरत राम लक्ष्मण सीताके समीप से पाछे नगरको चले, भरत रामकी आज्ञा प्रमाण प्रजा का पिता समान हुआ राज्य करे । जाके राज्यविषै सर्व प्रजाको सुख, कोई अनाचार नाहीं, यद्यपि ऐसा निःकंटक राज्य है तौ भी भरतको क्षणमात्र रग नाहीं, तीनों काल श्रीअरनाथकी वंदना कर मुनिनि मुखते धर्म श्रवण करे, द्युति भट्टारक नामा जे मुनि अनेक मुनि करे हैं सेवा जिनकी, तिनके निकट भरतने यह नियम लिया कि रामके दर्शनमात्रते ही मुनित्रत थारु गा । 'अथानन्तर सुनि कहने भए कि हे भरत ! कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके, ऐसे राम जब लग न आवें तब लग तुम गृहस्थ के व्रत धारहु । जे महात्मा निग्रंथ हैं तिनका आचरण अति विषम है सो पहिले श्रावक्के व्रत पालने तासे यतिका धर्म सुखसों सधे है । जब वृद्ध अवस्था आवेगी तब तप करेंगे, यह वार्ता कहते भए अनेक जड़बुद्धि मरणको प्राप्त भए । महाश्रमोल क ३५ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच-पुराण रत्न समान यतिका धर्म जाकी महिमा कहनेविौ न आवे ताहि जे धारे हैं तिनकी उपमा कौन की देहि । यतिके थर्मते उतरता श्रावकका धर्म है सो जे प्रमादरहित करे हैं ते धन्य हैं । यह अणुव्रत हू प्रबोधका दाता है जैसे रत्नद्वीपविणे कोऊ मनुष्य गया अर वह जी रत्न लेय सोई देशान्तरविणै दुर्लभ है तैसे जिनधर्म नियमरूप रत्ननिका द्वीप है। ताविणे जो नियम लेय सोई महाफलका दाता है जो अहिंसारूप रत्नको अङ्गीकारकर जिनसरको भक्तिकर भरचे सो सुरनर के सुख भोग मोक्षको प्राप्त होय अर जो सत्यव्रतका धारक मिथ्यात्वका परिहारकर भावरूप पुष्पनिकी मालाकर जिनेश्वरको पूजे है ताकी की िपृथिवीविणे विस्तरै हैं अर प्राज्ञा कोई लोप न सके अर जो परधनका त्यागी जिनेन्द्रको उरविणे धारे, वारम्बार जिनेन्द्रको नमस्कार करे सो नव निधि चौदह रत्नका स्वामी होय अक्षयनिधि पावे पर जो जिनराजका मार्ग अंगी. कारकर पर नारीका त्याग करे सो सबके नेत्रनिको आनन्दकारी मोक्ष लक्ष्मीको वर होय भर जो परिग्रहका प्रमाण कर संतोष धर जिनपतिका ध्यान करे सो लोकपूजित अनन्त महिमाको पावे अर आहारदानके पुण्य कर महा सुखी होय ताकी सब सेवा कर अर अभयदानकर निर्भय पद पावे। सर्व उपद्रवते रहित होय अर ज्ञान दानकर केवलज्ञानी होय सर्वज्ञपद पावे अर औषधि दानके प्रभावकर रोगरहित निर्भयपद पावे अर जो रात्रीको आहारका त्याग करे सो एक वर्षविणे छह महीना उपवासका फल पावे यद्यपि गृहस्थ घरके प्रारम्भविष प्रवृत्त है तो हु शुभगतिके सुख पावे जो त्रिकाल जिनदेवकी बंदना करे ताके भाव निर्मल होंय, सर्व पापका नाश करे श्रर जो निर्मल भावरूप पहुपनिकर जिननाथको पूजै सो लोकवि पूजनीक होय पर जो भोगी पुरुष कमलादिक जलके पुप तथा केतकी मालती आदि पृथ्वीके सुगन्ध पुष्पनिकर भगवानको अरचे सो पुष्पकविमानको पाय यथेष्ट क्रीडा करे भर जो जिनराज पर अगर चंदनादि धूप खेवे सो सुगंध शरीरका धारक होय पर जो जिनभवनविष विवेकसहित दीपोद्योत करे सो देवलोकविर्ष प्रभावसंयुक्त शरीर पावे अर जो जिनभवनविष छत्र घमर झालरी पताका दर्पणादि मंगल द्रव्य चढावे अर जिनमन्दिरको शोभित करे सो आश्चर्यकारी विभूति पावे अर जो जल चंदनादिते जिन पूजा करे सो देवनिका स्वामी होय महा निर्मल सुगंध शरीर जे देवांगना तिनका वल्लभ होय अर जो नीरकर जिनेन्द्रका अभिषेक करे सो देवनिकर मनुष्यनिते सेवनीक चक्रवर्ती होय, जाका राज्याभिषेक देव विद्याधर करें और जो दुग्धकरि अरहन्तका अभिषेक करे सो क्षीरसागरके जलसमान उज्ज्वल विमानमें परम कांति थारक देव होय बहुरि मनुष्य होय भोक्ष पावै पर जो दधिकर सर्वज्ञ वीतरागका अभिषेक करें सो दधि समान उज्ज्वल यशको पायकर भवोद धको तरे अर जी घृतकर जिननाथ का अभिषेक करै सो स्वर्ग विमानमें महाबलवान देव होय परंपराय अनंत वीर्य थारै अर जो ईखरसकर जिननाथका अभिषेक करे सो अमृतका आहारी सुरेश्वर पद होय नरेश्वर प य मुनीश्वर होय अविनश्वर पद पावे, अभिष कके प्रभावकार अनेक भव्यजीव देव अर इन्द्रनिकरि अभिषेक पावते भए, तिनकी कथा पुराणनिमें प्रसिद्ध है जो भक्तिकर जिनमन्दिरमें मयूर पिच्छादिकर बुहारी देय सो पापरूप Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसवा पद रज से रहित होय परम विभूति आरोग्यता पावे अर जो गीत नृत्य वादित्रादिकर जिनमन्दिरविणे उत्सव करे सो स्वर्ग में परम उत्साहको पावे अर जिनेश्वरके चैत्यालय करावै सो ताके पुण्य की महिमा कौन कह सके, सुरमन्दिरके सुख भोग परम्पराय अविनाशी धाम पावे अर जी जिनेन्द्रकी प्रतिमा विधिपूर्वक करावे सो सुरनरके सुख भोग परम पद पावे । व्रत विधान तप दान इत्यादि शुभ चेष्टानिकरि प्राणी जे पुण्य उपारजे हैं सो समस्त कार्य जिन बिंव करावनेके तुल्य नाहीं, जो जिनविम्ब करावे सो परम्पराय सिद्धपद पावे अर जो भव्य जिनमन्दिरके शिखर चढावै सो इन्द्र धरणंद्र चक्रवादिक सुख भोग लोकके शिखर पहुंचे अर जो जीर्ण जिनमंदिरनिकी मरम्मत करावे सो कर्मरूप अजीर्णको हर निर्भय निरोग पदको पावे अर जो नवीन चैत्यालय कराय जिनविय पधराय प्रतिष्ठा कर सो तीन लोकविष प्रतिष्ठा पावै अर जो सिद्ध. दंत्रादि तीर्थों की यात्रा करे सो मनुष्य जन्म सफल करे अर जो जिनप्रतिमाके दर्शनका चितवन करे ताहि उपवासका फल होय अर दर्शनके उद्यमका अभिलाषी होय सो बेलाका फल पावै अर जो चैत्यालय जायवेका प्रारम्भ करे ताहि तेलाका फल होय अर गमन किए चौलाका फल होय अर कछुक एक आगे गए पंच उपवासका फल होय, आधी दूर गए पक्षोपवासका फल होय अर चैत्यालयके दर्शनते मासोपवासका फल होय अर भाव भक्तिकर महास्तुति किए अनन्त फल प्राप्ति होय, जिनेंद्रकी भक्ति समान और उत्तम नाहीं अर जो जिन सूत्र लिखवाय ताका प्या. ख्यान करें करावें पढ़ें पढ़ावें सने सुनावें शास्त्र निकी तथा पंडितानिकी भक्ति करें वे सांगके पाठी होय केवल पद पावें। जो चतुर्विध संघ की सेवा करे सो चतुर्गतिके दुःख हर पंचम गति पावें। मुनि कहै हैं हे भरत ! जिनेन्द्रकी भक्तिकर कर्म क्षय होय अर कर्म क्षय भए अक्षयपद पावे ये वचन मुनिके सुन राजा भरत प्रणामकर श्रावकका व्रत अंगीकार किया। भरत बहुत अतिधर्मज्ञ मह विनयवान श्रद्धावान चतुर्विध संघको भक्तिकर अर दुखित जीवोंको दयाभावकर दान देता मया, सम्यग्दर्शन रतनको उरमें थरता भया, अर महासुन्दर श्रावकके व्रतविष तत्पर न्यायसहित राज्य करता भया । भरत गुणनिका समुद्र ताका प्रताप अर अनुराग समस्त पृथिवीविष विस्तरता मया, ताके देवांगना समान ड्योढ सौ राणी तिनविष आसक्त न भया, जलमें कमलकी न्याई मलिले रहा, जाके चित्त में निरंतर यह चिंता वरते कि कब यतिके व्रत धरू तप करू निग्रंथ हुवा पृथिवी में विचरू । धन्य हैं वे पुरुष जे थीर सर्व परिग्रहका त्याग कर तपके बल कर समस्त कर्मको भस्म कर सारभूत नो निर्वाणका सुख सो पावे हैं, मैं पापी संसारमें मग्न प्रत्यक्ष देखू हूँ जो यह समस्त संसारका चरित्र क्षणभंगुर है। जो प्रभात देखिये सो मध्याहविर्ष नाहीं, मैं मृढ होय रहा हूंजे रंक विषयाभिलाषी संसारमें राचे हैं ते खोटी मृत्यु मरें हैं, सर्प व्याघ्र गज जल अग्नि शख विद्युत्पात शलारोपण असाध्य रोग इत्यादि कुरीति से शरीर तजेंगे यह प्राणी अनेक सहस्रों दुख का भोगनहारा संसार विष भ्रमण कर है बड़ा आश्चर्य है अल्प आयुमें प्रमादी होय रहा है जैसे कोई मदोन्मच चीर समुद्र के तद सूता तरंगों के समूह से न डरे वैसे मैं मोहकर उन्मच भव भ्रमण Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से नाहीं डरूहूं, हाय हाय हिंसा श्रारम्भादि अनेक जे पाप तिन कर लिप्त मैं राज्य कर कौन से घोर नरक में जाऊंग', कैमा है नरक, बाण पडा चक्रके आकार तीक्ष्ण पत्र हैं जिनके असे शाल्मलीवृक्ष जहां हैं अथवा अनेक प्रकार तियंचगति तारिणे जागा देखो जिन शास्त्र सारिखा महाज्ञानरूप शास्त्र ताहूको पाय करि मेरा मन पापयुक्त हो रहा है। निम्पह होयकर यतिका धर्म नाहीं धारे है सो न जानिए कौन गति जाना है असी कर्मनिकी नासनहारी जो धर्मरूप चिंता ताको निरन्तर प्राप्त हुआ जो राजा भरत मो जैन पुराणादि ग्रंथनिके श्रवणविणे भासक्त है सदैव साधुन की कथाविणै अनुरागी रात्रि दिन धर्ममें उद्यमी होता भया । इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भापा बचनिकाविषै दशरथका वैराग्य रामका बिदेश गमन भरतका राज्य बर्णन करनेवालो बच्चीसबा पर्ष पूर्ण भयो ॥ ३२ ॥ अथानन्तर श्रीरामचन्द्र लक्षमण सीता जहाँ एक तापसीका आश्रम है वहां गए। अनेक तापस जटिल नाना प्रकारके वृक्षनिके वकल पहिरे अनेक प्रकारका स्वादुफल तिनकर पूर्ण हैं मठ जिनके, वन विर्षे वृक्षसमान बहुत मठ देखे विस्तीर्ण पत्रों कर छाए हैं मठ जिनके अथवा घासके पूलनिकरि आछादित हैं निवास जिनके, विना वाहे सहजही उगे जे धान्य से उनके आंगनमें सूखे हैं अर मृग भयरहित आंगनमें बैठे जुगाले हैं अर तिनके निवास विषे सूबा मैंना पढे हैं पर तिनके मठनिके समीप अनेक गुलक्यारी लगाय राखी हैं सो तापसनिकी कन्या मिष्ट जलकर पूर्ण जे कलश ते थावल निमें डारें हैं। श्रीरामचन्द्रको आएं जान तापस नाना प्रकारके मिष्ट फल सुगन्ध पुष मिष्ट जल इत्यादिक सामिग्रीनिकर बहुत आदरते पाहुन गति करते भए । मिष्ट वचनका संभाषण कर रहनेको कुटी मृदुपल्लवनी शय्या इत्यादि उपचार करते भए । ते तास सहज ही सबनिका आदर करे हैं इनको महा रूपवान अमृत पुरुष जान बहुत आदर किया, रात्रिको वस कर ये प्रभात उठ चले । तब तापस इनकी लार चले इनके रूपको देखकर पाषाण सी पिघले तो मनुष्यकी कहा बात ? ते तापस सूके पत्रोंके श्राहारी इनके रूपको देख अनुरागी होते भए । जे वृद्धतापम हैं वे इनको कहते भए तुम यहां रहो तो यह सुखका स्थान है अर कदाचित न रहो तो या अटत्रीविगै सावधान रहियो यद्यपि यह वनी जल फल पुष्पादि कर भरी है तथापि विश्वास न करना, नदी बनी नारी ये विश्वास योग्य नाही. सो तुम तो सब बातों में सावधान ही हो फिर राम लक्षमण सीता यहांते आगे चले अनेक तापयिनी इनके देखनेकी अभिलाषाकरि बहुत विह्वल भई संती दूर लग पत्र पुष्प फल चनादिको मिसकर साथ चली आई, कई एक तापसिनी मधुर वचनकारि इनको कहती मई जो तुम हमारे आश्रमविषे क्यों न रहो, तिहारी सब सेवा करेंगी यहांतें तीन कोसपर ऐसी वनी है जहां महा सघन वृक्ष हैं मनुष्यनिका नाम नाही। अनेक सिंह व्याघ्र दृष्ट जीवनिकर भरी, महां इथन अर फल फूलके अथ तापस हू न आवें। डाभकी तीक्ष्ण अणीनिकर जहां संचार नाहीं वन महाभयानक है अर चित्रकूट पर्वत अति ऊंचा दुर्लध्य विस्तीर्ण पड़ा है तुम कहा नहीं Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAR तेतीसवा पर्व सुना है जो निःशंक चले जावो हो? तब राम कहते भए-अहो तापासिनी हो! हम अवश्य आगे जावेगे तुम अपने स्थानक जाबो । कठिनतातै तिनको पाछे फेरी, ते परस्पर इनके गुण रूपका वर्णन करतीं अपने स्थानक आई, ये महागह वनमें प्रवेश करते भए । कैसा है वह वन १ पर्वतके पाषाणनिक समूहकार महाकर्कश अर बडे बडे जे वृक्ष तिनपर श्रारूढ हैं बेलनिके समूह जहां, अर सुधाकर अति क्रोधायमान जे शार्दूल तिनके नखनिकर विदारे गये हैं वृक्ष जहां, पर सिंहनि कर हते गए जे गजराज तिनके रुधिर कर रक्त भए जो मोनी सो ठोर ठोर विखर रहै हैं मर माते जे गजराज तिन कर भग्न भए हैं तार जहां, अर सिंहनिकी ध्वनि सुनकर भाग रहे हैं कुरंग जहाँ अर सूते जे अजगर तिनके श्वासनिकी पवन करि गूंज रही है गुफा जहां, शूकरनिके समूह कर कर्दमरूप होय रहे हैं तुच्छ सरोवर जहां पर महा अरण्य भैंसे तिनके सींगनिकर भग्न भए हैं चवड्यानिके स्थान जहां फणको ऊचे किये फिरे है भयानक सर्प जहां अर कांटनिकर बींधा हैं पूछका अग्रभाग जिनका ऐसी जे मुरहगाय सो खेदखिन्न भई हैं अर फैल रहे हैं कटेरी आदि अनेक प्रकारके कंटक जहां पर पुष्पनिकी रजकी वासना कर घमें हैं अनेक प्राणी जहां पर गैंडानिके नखनिकर विदारे गए हैं वृक्षनिके पींड अर भ्रमते रोझनके समूह तिनकर भग्न भए हैं पल्लवनिके समूह जहां अर नाना प्रकारके जे पक्षिनिके समूह तिनके जो क्रूर शब्द उन कर नन गंज रहा है अर बंदरनिके समूह तिनके कृदनेकर कम्पायमान हैं वृक्षनिकी शाखा जहां अर तीत्र वेगको थरें पर्वतसे उतरती जे नदी तिनकर पृथ्वीमें पड़ गया है दहाना जहां पर वृक्षनिके पल्लवनिकर नाही दीखे है सूर्यको किरण जहां अर नानाप्रकारके फल फूल तिनकर "भरा अनेक प्रकारकी फैल रही सुगंध है जहो, नाना प्रकारकी जे औषधि तिनकर पूर्ण भर वनके जे धान्य तिनकर पूरित कहूं एक नील कहूं एक पीत कहूं एक रक्त कहूं एक हरित, नानाप्रकार वर्णको धरे जो वन तामैं दोऊ वीर प्रवेश करते भए । चित्रकूट पर्वतके महा मनोहर जे नीझरने तिनविष क्रीडा करते वनकी अनेक सुन्दर वस्तु देखते परस्पर दोऊ भाई बात करते वनके मिष्टफल आस्वादन करते किन्नर देवनिके हू मनको हरें ऐता मनोहर गान करते पुष्यनिके परस्पर प्राभूषण वनावते सुगंध द्रव्य अंगविर्षे लगावते, फूल रहे हैं सुन्दर नेत्र जिनके स्वच्छन्द अत्यंत शोभाके धरणहारे सुरनर नागनिके मनके हरम हारे नेत्रनिको प्यारे उपवनकी नाई भीम वनमें रमते भए । अनेक प्रकारके सुन्दर जे लतामंडप तिनमें विश्राम करते नानाप्रकारकी कथा करते विनोद करते रहस्यकी बातें करते जैसे नन्दनवनमें देव भ्रमण करें वैसे अतिरमणीक लीलासू वन विहार करते भए। :: : 'अथानन्तर साढे चार मासमें मालव देशविणे आए सो देश अत्यन्त सुन्दर नानाप्रकारके धान्योंकर शोभित जहां ग्राम पट्टन घने सो केतीक दर आयकर देखें तो वस्ती नाही तब एक बटकी छायामें दोऊ भाई परस्पर बदलावते भए जो काहेते यह देश ऊजडा दीखे है ? नानाप्रकारके क्षेत्र फल रहे हैं अर मनुष्य नाही, नानाप्रकारके वृक्ष फल फूलनकर शोभित हैं अर पौडे सांठेके बाड़ बहुत हैं. अर सरोवरनिमें कमल फूल रहे हैं। नानाप्रकारके पक्षी केलिं Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ पद्म-पुराण 1 करे हैं । यह देश अति विस्तीर्ण मनुष्यनिके संचार विना शोभे नाही जैसे जिनदीक्षाको भरे मुनि वीतराग भावरूप परम संयम विना शोभे नाहीं । ऐसी सुन्दर वार्ता राम लक्ष्मब करे हैं तहां अत्यंत कोमल स्थानक देख रत्न कम्वल बिछाय श्रीराम बैठे, निकट धरा है धनुष जिनके, र सीता प्रेमरूप जलकी सरोवरी श्रीरामकेविषै श्रासक्त है मन जाका, सो समीप बैठी श्रीरामने लक्ष्मणको याज्ञा करी तू बट ऊपर चढकर देख कही वस्ती हू है सो प्रज्ञा प्रमाण देखता भया र कहता भया कि हे देव ! विजयार्धं पर्वत समानऊचे जिनमंदिर दीखें हैं जिनके शरद के बादले समान शिखर शोभे हैं, ध्वजा फरहते हैं पर ग्राम हु बहुत दीखे हैं। कूप वापी सरोवरनिकरि मंडित अर विद्याधरनिके नगर समान दीखे हैं, खेत फल रहे हैं परन्तु मनुष्य कोई नाहीं दीखे हैं न जानिये लोक परिवारसहित कहीं भाज गए हैं अथवा क्रूरकर्मके करणहारे म्लेच्छ बांधकर लेगए हैं। एक दरिद्री मनुष्य श्रावता दीखे है । मृग समान शीघ्र आवै है, रूप हैं केश जाके, अर मलकर मंडित है शरीर जाका, लंबी दाढी कर आच्छादित है उरस्थल और फाटे वस्त्र पहिरे, फार्ट हैं चरण जाके, दरें है पसेव जाके मानो पूर्व जन्म के पापको प्रत्यक्ष दिखावे है । तब राम श्राज्ञा करी जो शीघ्र जाय याको ले भाव, तब लक्ष्मण घटसे उतर दालिद्रीके पास गए सो लक्ष्मणको देख आश्चर्यको प्राप्त भया जो यह इंद्र है तथा नरुा है तथा नागेन्द्र है तथा नर है किन्नर है चंद्रमा है अक सूर्य है अग्निकुमार है अक कुवेर है । यह कोऊ महातेजा धारक है, ऐसा विचारता संता डरकर मूर्छा खाय भूमिविषै गिर पड़ा तब लक्ष्मण कहते भए - हे भद्र ! भय मत करहु । उठ उठ, कहिकरि उठाया भर बहुत दिलासाकरि श्रीरामके निकट ले आया । सो दलिद्री पुरुष दुवा आदि अनेक दुखनिकर पीडित हुता सो रामको देख सब दुख भूल गया । राम महासुन्दर सौम्य है मुख जिनका कांतिके समूहते विराजमान नेत्रनिको उत्साहके करगहारे महाविनयवान, सीता समीप बैठी हैं, सो मनुष्य हाथ जोड सिर पृथ्वीते लगाय नमस्कार करता भया । तब आप दयाकर कहते मए तू छायावि आ बैठ भय न करि, तब वह आज्ञा पाय दूर बैठा, रघुपति अमृतरूप वचनकर पूछते भए, तेरा नाम कहा पर कहांते आया अर कौन है ? तब वह हाथ जोड विनती करता भया - हे नाथ, मैं कुटुंब हूं मेरा नाम सिरगुप्त हैं दूरते आऊ हूं, तब आप बोले- यह देश ऊजाड काहते हैं ? तब वह कहता भया- - हे देव ! उज्जयिनी नाम नगरी वाका पति राजा सिंहोदर प्रसिद्ध प्रतापकर नवाए हैं बड़े २ सामंत जाने, देवनि समान है विभत्र जाका, अर एक दशांगपुरका पति बज्रकर्ण सो सिंहोदरका सेवक अत्यंत प्यारा सुभट जाने स्वामीके बडे २ कार्य किए सो निग्रंथ मुनिको नमस्कारकर धर्म श्रवणकर ताने यह प्रतिशा करी जो मैं देव गुरु शास्त्र टार औरको नमस्कार न करू। साधुके प्रसादकर ताको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भई सो पृथ्वीमें प्रसिद्ध है । आपने कहा अब तक ताकी वार्ता न सुनी १ तब लक्ष्मण रामके अभिप्रायतें पूछते भए जो वज्र पर कौन भांति संतनकी कृपा भई । तब पंथी कहता मया - हे देवराज ! एक दिन वज्रणं दसारण्य वनमें मृगयाको गया हुता, जन्म होते पापी रक्कर्मका करणाहारारा, Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ dates पर्व इंद्रियनिका लोरी महामूढ शुभक्रियाते पर ङ मुख, महासूक्ष्म जिनधर्म की चर्चा सो न जाने कामी क्रोधी लोभी यह अन्ध भोग सेवनकर उपजा जो गर्व सोई भया पिशाच ताकर पीडित, सो वनमें भ्रमण करे सो ताने ग्रीष्म समयविषै एक शिलापर निष्ठता संता सत्पुरुषनिकर पूज्य ऐसा महामुनि देखा चार महीना सूर्यकी किरणका आताप सहनहारा महातपस्वी पक्षी समान निराश्रय सिंह समान निर्भय सो तप्तायमान जो शिला ता कर तप्त शरीर ऐसे दुर्जय तीव्रतापका सहनहारा सज्जन सो ऐसे तपोनिधि साधुको देख वज्रकर्ण तुरंगधर चढा बरछी हाथमें लिये, काल समान महाक्र ूर पूछता भया । कैसे हैं साधु ? गुण रूप रत्ननिके सागर, परमार्थ के वेत्ता, पापोंके घातक, सब जीवनिके दयालु, तपोविभूतिकर मंडित तिनको वज्रकर्ण कहता भया । हे स्वामी ! तुम इस निर्जन वनमें कहा करो हो ? ऋषि बोले- आत्म कल्याण करे हैं जो पूर्वे अनन्त मवविषै न श्राचरा, तब वज्रकर्ण हंसकर कहता भया-या अवस्थाकरि तुमको कहा सुख है । तुमने तप कर रूपलावण्यरहित शरीर किया । तिहारे अर्थ काम नाहीं, वस्त्राभरण नाहीं कोई सहाई नाहीं । स्नान वगंध लेपनादि रहित हो, पराए घरनिके आहार कर जीविका पूरी करो हो, तुम सारिखे मनुष्य कहा श्रात्महित करें, तब याको काम भोगकर अत्यंत धिवंत देख महादयावान संयमी बोले- कहा तूने महा घोर नरककी भूमि न सुनी है जो तू उद्यमी होय पापनिविषै प्रीति करे है । नरककी महाभयानक सात भूमि हैं ते महा दुर्गंधमई देखी न जांय स्पर्शो न जोय, सुनी न जाय, महातीक्षण लोहके कांटेनिकर भरी जहां नारकियोंको घानियोंमें पेले वेदना त्रास होय हैं छुरियों कर तिल तिल काटिए हैं अर ताते लौह समान ऊपरले नरक पृथिवीतल भर महाशीतल नीचले नरकनिका पृथिवी तल ताकर महा पीडा उपजै है, जहां महा अंधकार महाभयानक रौरवादि गर्त असिपत्र महादुर्गंध वैतरणी नदी जे पापी माते हाथिनिकी न्याई निरंकुश हैं ते नरकमें हजारों मांतिके दुख देखें हैं । हम तोहि पूछे हैं तो सारिखे पावारम्भी विषयातुर कहा श्रात्महित करे हैं । ये इंद्रायण के फल समान इंद्रियनिके सुख तू निरंतर सेय कर सुख माने है सो इनमें हित नाहीं, ये दुर्गति के कारण हैं, आत्माका हित वह करे है जो जीवनिकी दया पाले, मुनिके व्रत धारे अथवा श्रावक के व्रत आदरे, निर्मल है वित्त जोका, जे महाव्रत तथा अलुब्रत नाहीं आचरे हैं ते मिध्यात्व अव्रतके योगते समस्त दुखके भाजन होय हैं, तैंने पूर्व जन्म में कोई सुकृत किया हुता ताकर मनुष्य देह पाया अब पाप करेगा तो दुर्गति जायगा, ये विचारे निर्बल निरपराध मृमादि पशु अनाथ, भूमि ही है शय्या जिनके चंचल नेत्र सदा भयरूप वन के तृण पर जल कर जीवन हारे पूर्व पापकर अनेक दुखनिकर दुखी रात्रि भी निद्रा न करें, भयकर महाकायर सो भले मनुष्य से दीननिको कहा हनें, तातें जो तू अपना हित चाहे है तो मन बचन कार्य कर हिंसा तज, जीव दया अंगीकार करि, मुनिकं श्रेष्ठ वचन सुनकर बज्रकर्ण प्रतिबोधको प्राप्त भया जैसे फला वृक्ष नगजाय ते साधु चरणारविंदको नया, अश्वसे उतर निकट गया, हाथ जोड प्रणामकर अत्यंत विनयकी दृष्टि कर चित्तमें साधुकी प्रशंसा करता भया । धन्य हैं ये मुनि परिग्रहके त्यागी, जिनको मुक्तिकी प्राप्ति होय है अर इस वनके पक्षी र मृगादि पशु से Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पद्म-पुराण प्रशंसा योग्य हैं जे इस समाधिरूप साधुका दर्शन करे हैं और मैं प्रति धन्य हूँ जो मोहि आज साधुका दर्शन भया । ये तीन जगत कर बन्दनीक हैं, अब मैं पापकर्मते निवृत्त भया । ये प्रभू ज्ञानस्वरूप' नखनिकर बंधुस्नेहमई संसाररूप जो पिंजरा ताहि छेदकर सिंहकी न्याई निकसे ते साधु देखो मन रूपवैरीको वशकरि नग्न मुद्राधार शील पाले हैं। मैं तृप्त आत्मा पूर्या वैराग्यको प्राप्त नाहीं भया तार्तें श्रावक के अणुव्रत आदरू' ऐसा विचारकर साधुके समीप श्रावकके व्रत आदरे और अपमान शांत रस रूप जलसे धोया श्रर यह नियम लिया जो देशधिदेव परमेश्वर परमात्मा जिनेंद्रदेव के दास महा भाग्य निर्य मुनि श्रर जिनवाणी इन बिना औरको नमस्कार न करू प्रीतिवर्धन नामा वे मुनि तिनके निकट बज्रक अणुव्रत आदरे पर उपवास धारे, मुनिने याको विस्तारकर धर्मका व्याख्यान कहा जाकी श्रद्धाकर भव्यजीव संसार पाशते छूटे । एक श्रावकका धर्म एक यतिका धर्म इसमें श्रावकका धर्म गृहालंवन संयुक्त पर यतिका धर्म निरालम्व निरपेक्ष, दोऊ धर्मनिका मूल सम्यक्त्वकी निर्मजवा तप र ज्ञानकर युक्त अत्यन्त श्रेष्ठ सो प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुरोग रूपविषै जिनशासन प्रसिद्ध है । यतिका धर्म प्रतिकठिन जान अणुविषै बुद्धि ठहराई र महाब्रतकी महिमा हृदय में धारी जैसे दरिद्रके हाथ में निधि अवेअर वह हर्षको प्राप्त होय तैस धर्मध्यानको धरता संता आनन्दको प्राप्त भया यह अत्यन्त क्रूर कर्मका करणारा एक साथ ही शांत दशाको प्राप्त भया, या बातकर मुनि भी प्रसन्न भए । राजा ता दिन तो उपवास किया, दूसरे दिन पारणा कर दिगम्बर के चरणकमल की प्रणाम कर अपने स्थान गया गुरुके चरणारविंद हृदयमें धारता संता संदेहरहित भया । अणुव्रत आराधे | वित्तमें यह चिंता उपजी जो उज्जेनीका राजा जो सिंहोदर ताका मैं सेवक हूं ताकी विनय किए विना मैं राज्य कैसे करू तब विचार कर एक मुद्रिका बनाई श्रीमुनिसुव्रतनाथजी की प्रतिमा पधराय दक्षिणांगुष्ठमें पहिरी, जब सिंहोदरके निकट जाय तब मुद्रिका में प्रतिमा ताहि बारबार नमस्कार करे सो याका कोऊ वैरी हुता ताने यह छिद्र हेर सिंहोदरसे कहीं जो यह तुमको नमः स्कार नाहीं करे है। जिन प्रतिमाको करे है, तब सिंहोदर पापी कोपको प्राप्त भया घर कपटे कर वज्रकर्णको दशांग नगरते बुलावता भया, सम्पदाकर उन्मत्त मानी याकेँ मारवेको उद्यमी भया । सो बज्रकर्ण मरलचित्त सो तुरंगपर चढ उज्जयिनी जावे उद्यमो भया तो समय एक पुरुष ज्वान पुष्ट र उदार है शरीर जाका, दंड हाथमें सो आयकर कहता भया - हे राजा ! जो तू शरीरत और राज्यते रहित भषा चाहे तो उज्जयनी जाहु नातर मत जाहु, सिंहोदर प्रति क्रोधको प्राप्त भया है, तुम नमस्कार न करो हो तातें तोहि मारा च'हे है तू भले जाने यो कर, यह वार्ता सुनकर वज्रकर्ण विचारी कि कोऊ शत्रु मोविषै अर नृपविषै भेद किया चाहे है ताने मंत्र कर यह पठाया होय फिर विचारी जो याका रहस्य तो लेना सब एकांतविषै ताहि पूछता भया - तू कौन है अर तेरा नाम कहा पर कहांने आया है पर यह गोप्य मंत्र सून कैसे आना तब वह कहता या कुंदननगर में महा धनवंत एक समुद्रसंगम सेठ हैं जाके यमुना स्त्री वाकेँ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेती सणा पी २८१ वर्षाकाल में विजुरी चमत्कार समय मेरा जन्म भया, तातैं मेरा विद्युदंग नाम धरा सो मैं अनुक्रमसे नव यौवनको प्राप्त भया । व्यापारके अर्थ उज्जे गया तहां कामलता वेश्याको देख अनुरागकर व्याकुल भया । एक रात्रि तायूं संगम किया, सो वाने प्रीतिके बंधन कर बांध लिया जैसे पारधी मृग को पांसिसे बांधे, मेरे बापने बहुत वर्षोंमें जो धन उपार्जा हुता सो मैं ऐसा कुपूत वेश्याके संग कर पटमासमें सब खोया जैसे कमल में भ्रमर आयुक्त होग तैस तामें श्रासक्त भया, एक दिन वह नगरनायिका अपनी सखीके समीप अपने कुण्डलनिकी निंदा करती हुती सो मैं सुनी तब तासे पूछी, ताने कही धन्य है राणी श्रीवरा महामौभाग्यवती ताके कानन में ऐसे कुण्डल हैं जैसे काके नाहीं, तब मैंने मनमें चितई कि यदि मैं राणीके कुंडल हर कर याकी आशा पूर्ण न करू तो मेरे जीने कर कहा ? तब कुण्डल हानेको मैं अंधेरी रात्रि में राजमंदिर में गया जो राजा सिंहोदर कोप हो रहा था श्रर राणी श्रीधरा निकट बैठी हुनी सो राणीने पूछी हे देव ! आज निद्रा का ते न अवै हैं ? तब राजा कही हे राणी मैं बज्रकर्ण को छोटेसे मोटा किया, घर मोहि सिर न नवावै सो वाहि जब तक न मारू' तबतक आकुलता के योगसे निद्रा कहां आवै एते मनुष्यनि निद्रा दूर ही भागे 'अपमान से दग्ध अर कुटुंबी निर्धन, शत्रुने आय दवाया और जीतने समर्थ नाहीं और जाके चित्तमें शल्य तथा कायर घर संसारते विरक्त' इन्तैं निद्रा दूर रहे यह बार्ता राजा पर राणी करी में सुनकर ऐसा हो गया मानों काहूने मेरे हृदय में वज्रकी दीनी । सो कुंडल लेबेकी बुद्धि तज यह रहस्य लेय तेरे निकट आया अब तू वहां मत जाइयो कैसा है। तू जिनधर्म में उद्यमी है पर निरंतर साधु का सेवक है । अंजनगिरि पर्वतसे हाथी मद भरे तिन पर चढे योधा वक्तर पहिरे र महा तेजस्वी तुरंगनिके असवार चिलते पहिरे महाक्रूर सामन्त तेरे मारवेके अर्थ राजाकी आज्ञा ते मार्ग रोके खडे हैं तातैं तू कृपाकर अब वहां मत जाय । मैं तेरे पायन पर हूं। मेरा वचन मान, अर तेरे मन में प्रतीति नाहीं तो अब देख वह फौज आई घूरके पटल उठे हैं महा शब्द होते आये हैं यह विद्युदंगके वचन सुन वज्रक परचक्रको आवते देख याको परममित्र जान लार लेय अपने गढ़विषे तिष्ठा । सिंहदर के सुभट दरवाजे में आावने न दिये तत्र सिंहोदर सव सेना लार ले चढ याया सो गढ गाढा जान अपने कटकके लोक इनके मारवेके डरसे तत्काल गढ लेने की बुद्धि न करी, गढके समीप डेरे कर वज्र के समीप दूत भेजा सो अत्यन्त कठोर वचन कहता भया । तू जिनशासन के गर्वकरि मेरे ऐश्वर्यका कंटक भया, जे घरखोवा यति तिने तोहि बहकाया, तू न्यायरहित भया, देश मेरा दिया खाय, माथा अरहंतकी नवावे, तू मायाचारी है तातें शीघ्र ही मेरे समीप आयकर मोहि प्रणाम कर, नातर मारा जायगा यह वार्ता दूतने वर्ण से कही तब वज्रकर्ण जो जवाब दिया सो दूत जाय सिंहदरम् कहे है है नाथ ! वज्रककी यह वीनती है जो देश मोहि स्त्रीसहित धर्म द्वार देयं काढ देवो, मेरा कि जिनेंद्र मुनि र जिनवाणी इन बिना औरको नमस्कार न करू, नगर भण्डर हाथी घोडे तुमसे उजर नाहीं परंतु ३६ सब तिहारे हैं सो लेहु मैं यह प्रतिज्ञा करी है सो मेरा प्राण जाय तो Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुरणि भी प्रतिज्ञा भंग न करूं तुम मेरे द्रव्य स्वामी हो, आत्माके स्वामी नाहीं, यह वार्ता सुन सिंहोदर अति क्रोधको प्राप्त भया, नगरको चारों तरफ घेरा अर देश उजाड दिया, दलिद्री मनुष्य श्रीरामसे कहे. है-हे देव! देश उजाडनेका कारण मैं तुमसे कहा। अब में जाऊ हूँ जहांते नजदीक मेरा ग्राम है । ग्राम सिंहोरके सेवकोंने जलाया, लोगनिके विमानतुल्य घर हुते सो भस्म भए । मेरी तृण काष्ठकर रची कुटी सो भी भस्म भई, मेरे घरमें एक छज एक माटीका घट एक हांडी परिग्रह हुता सो लाऊ हूँ। मेरे खोटी स्त्री ताने क्रूर वचन कह मोहि भेजा है अर वह बारंबार ऐसे कहे है कि सूने गांवमें घरोंके उपकरण बहुत मिलेंगे सो जाकर ले आवहु सो मैं जाऊ हूँ मेरे बडे भाग्य जो आपका दर्शन भया, स्त्रीने मेरा उपकार किया जो मौहि पठाया । यह वचन सुन श्रीराम महादयावान पंथीको दुखी देख अमोलक रत्नोंका हर दिया सोपंथी प्रसन्न होय चरणारविदको नमस्कार कर हार ले अपने घर गया, द्रव्यकर राजानिके तुल्य भया । __अथानन्तर श्रीराम लक्ष्मण से कहते भए कि हे भाई ! यह जेष्ठका सूर्य अत्यंत दुस्सह जब अधिक न चढे ताते पहिले ही चलो या नगरीके समीप निवास करें। सीता तुषाकर पीडित है सो याहि जल पिलायें अर आहारकी विधि भी शीघ्र ही करें, ऐसा कहकर वहांते प्रागे गमन किया, सो दशांगन रके समीप जहां श्रीचन्द्रप्रभुका चैत्यालय मा उत्तम है तहां श्राए अर श्रीभगवानको प्रणाम के र सुखमा तिष्ठे अर आहारकी सामिग्री निमित्त लक्ष्मण गए सिंहोदरके कटक में प्रवेश करते भए । कटक्के रक्षक मनुष्य उनने मने किये तब लक्षमणने विचारी कि ये दरिद्री अर नीच कुल इनतें मैं कहा विवाद करू, यह विचार नगरकी ओर आए सो नगरके दरवाजे अनेक योधा बैठे हुते अर दरबाजेके ऊपर बज्रकर्ण तिष्ठा हुता महासावधान सो लक्षमणको देख लोग कहते भए, तुम कौन हो अर कहां कौन अर्थ आए हो ? सब लक्ष्मण कही दूग्ते आए हैं और आहार निमित्त नगर में आए हैं तब बज्रर्ण इनको अतिसुन्दर देख आश्चर्यको प्राप्त भया अर कहता भया-हे नरं त्ता! माहि प्रवेश करो, तब यह हर्षित होय गढमें गया, वज्रण बहुत आदरसू मिला अर कहता भया जो भोजन तय्यार है सो कपाकर यहां ही भोजन परो तव लसान कही बेरे गुरु जन पड़े भाई और भवज श्रीनन्द्रप्रभुके चैत्यालयमें बैठे हैं तिनको पहिले भोजन कराय मैं भोजन करूगा तब पञकर्णने कही बहुत भलीवात, तहाँ ले जाइये, उन योग्य सब सामिग्री है सो ले जानो, अाने सेवकनि हाथ ताने भांति भांतिकी सामिग्री पठाई सो लक्ष्मण लिवाय लाए। श्रीराम लक्ष्मण और सीता भोजन कर बहुत प्रसन्न भए । श्रीरान कहते भए-हे लक्षमण ! देखी बजकर्णकी बडाई जो ऐसा भो. जन कोई अपने जमाईकोहू न जिनावे सो विना परखे अपने ताई जिमाए, पीनेकी वस्तु महा मनोहर अर व्यंजन महामिष्ट यह अमृत तुल्य भोजन जाकर मार्गका खेद मिटा अर जेठके आतापकी तप्त मिटी, चांदन समान उज्वल दुग्ध महा सुगंत्र जपर भ्रमर गुंजार करें पर संदर घृत सुन्दर दधि मानों कामधेनु के स्तनानितै उपजाया दुग्ध तासे निरमाया है ऐसे भोजन ऐसे रस और ठौर दुर्लभ हैं। ता पीने पहिले अपने ताई' कहा हूता जो यह अणुव्रतका धारी श्रावक Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसर्वा पर्व २८३ है अर जिनेन्द्र मुनीन्द्र लिनसूत्र टार औरको नमस्कार नाहीं करे है सो ऐसा धर्मात्मा व्रत शील का थारक अपने आगे शत्रुरि पीडिन रहे तो अपने पुरुषार्थ कर कहा, अपना यही धर्म है जो दुखीका दुख निवारें, साधर्मीका तो अवश्य निवारें। यह अपरावरहित साधु-सेवामें सावथान महाजिनधर्मी जाके लोक जिनधर्मी ऐसे जवको पीडा काहे उपजे । यह निहोर ऐसा बलवान है जो याके उपद्ररते वज्रकर्णको भरत भी न बचाय सके ताते हे लक्षमण ! तुम इसकी शीघ्र सहायता करो, मिहोदर पै जाने पर बज्राचा उपद्रव मिटे सो करो, हम तुमको कहा सिखावें जो कहियो तुम मह बुद्धिमान, जेसे महामणि प्रभासहित प्रकट होय है वैसे तुन महाबुद्धि परा. क्रमको धर प्रस्ट भए हो। या भांति श्रीरामने भाईके गुण गाए तब भाई लजाकर नीचे मुख होय गए । नमस्कार कर कहते भए हे.भो ! जो आप आज्ञा करोगे सोई होगगा. महाविनयवान लक्षमण रामजी आज्ञा प्रमाण धनुष वाणलेय धरतीको कंपायमान करते संते शीघ्र ही सिंहोदर पै गए। कटकके रखवारे पूछने भए तुम कौन हो लक्षण कहीं मैं राजा भरतका दूत हूं, तव कटकमें पैठने दिया, अनेक डेरे उलंघ राजद्व रे गया । द्वारपाल राजासों मिलाया सो महा बलवान सिंहोदरको तृणसमान गिनता संता कहा भया–हे सिंहोदर ! अयोध्याका अधिपति भरत ताने यह आज्ञा करी है जो वृथा विरोधकर कहा ? वज्राणसे मित्रभाव करो, तब सिंहोदर कहता भया हे दुत ! तू राजा भालको या भांनि कहियो जो अपना सेक होय अर नियमार्गस रहित होय ताहि स्वामी समझाय सेगमें लावे, या में विरोध कहा? यह वज्रर्ण दुरात्मा मानी मायाचारी कृतघ्न मित्रनिका निंदक चाकरी चूक आलसी मूढ़ विनाचाररहित खोटी अभिलाषाका धारक मह बुद्र सजनतारहित है सो याके दोष तब मिटें जब यह मरणको प्राप्त होय अथवा राज्य रहित करू ताते तुम कछू मत कहो, मेरा सेवक है जो चाहूंगा सो करूंगा। तब लक्षमण बोले बहुत उत्तरों कर कहा-यह परमहितु है या सेक्कका अपराध क्षमा करो,ऐसा जब कहा तब सिंहोदर क्रोधकर अपने बहुत सामंतोंको देग्व गर्वको धरता संता उच्च स्वर कहता भया। जो यह बजकर्ण तो महामनी है ही परन्तु याके कार्यको आया जो तू मो भी महामानी है, तेरा तन अर मन मानों पाषाणते निरमाया है रंचमात्र हू नम्रता तोमैं नाही, तू भरतका मूढ सेवक है जानिये है जो भर के देश में तो सालिखे मनुष्य होवेंगे जैसे सीजती भरी हांडीमसे एक चावल काढकर नरम कठं.रकी परीक्षा करिए है तैसे एक तेरे देखवेकरि सबनकी बानिगी जानी जाय है, तब लक्ष्मण क्रोधकर कहते भए, मैं तेरी वाकी संधि करावेको पाया है तोहि नमस्कार करवेको न आया, बहुत कहने कहा ? थोडे हीमें समझ जावो । वजकर्ण संधि कर ले नातर मारा जायगा, ये वचन सुन सब ही सभाकं लोक क्रोधको प्राप्त भए । नाना. प्रकारके दुर्वचन कहते भए अर नानाप्रकार क्रोधकी चेशको प्राप्त भए । कैयक छूरी लेय कैयक कटार भाला तलवार गहकर थाके मारनको उद्यमी भए । हुंकार शब्द करते अनेक सामंत लक्ष्मणको बेढते भये, जैसे पर्वतको मच्छर रोके तैसे रोकते भए, सो यह धीर वीर युद्ध क्रिया विष पंडित शीघ्र क्रियाके बेचा चरण के घातकर तिनको दूर उड़ा दिए । कैयक गोडोंसे मारे कैयक Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद-पुराण कुहनियोंसे पछाडे कैयक मुष्टि प्रहारकरे चूर्ण कर डारे कयकों के केश पकड पृथ्वीपर पाडि. मारे कैयकोंको परस्पर सिर भिडाय मारे, या भांति अकेले महाबली लक्ष्मणने अनेक योथा विध्वंस किये तब और बहुत सामंत हाथी घोडोंपर चढे वखतर पहिरे लक्ष्मणकी चौगिरद फिर नानाप्रकारके शस्त्रनिके धारक, तब लक्ष्मण जैसे सिंह स्यालनिको भगावै तैसे तिनको भगावता भया । तब सिंहोदर कारी घटा रामान हाथीपर चढकर अनेक सुभटनिसहित लक्ष्मणते लडनेको उद्यमी मया, अनेक योधा मेघ समान लक्ष्मण रूप चंद्रमाको वेढने भए सो सब योधा ऐसे भगाए जैसे पवन पाकके डोडोके जे फफूदे तिनको उडावे ता समय महायोधानिकी कामिनी परस्पर वार्ता कर हैं, देखो यह एक महासुभट अनेक योधानिकर बेढा है परन्तु यह सबको जीते है कोई याको जीतिवे समर्थ नाही, धन्य याके माता पिता इत्यादि अनेक वार्ता सुभटनिकी स्त्री करे हैं भर लक्ष्मण सिंहोदरको कटकसहित चढा देख गजा थम उपाडा कर कटकके सम्मुख गए जेसे अग्नि वनको भस्म करें तैसे कट के बहुत सुभट विध्वंस वि.ए पर जो दशांगनगरके योधा नगरके दरवाजे ऊपर बजणके समीप बैठे हुते सो फूल गए हैं नत्र जिनके, स्वामीसे कहते भए-हे नाथ ! देखो यह एक पुरुष सिहोदरके कलकते लडे है, ध्वजा रथ छत्र भग्न कर डारे परम ज्योतिका धारी है, खड्ग समान है कांति जाकी, समस्त कटकको ब्याकुलतारूप भ्रमरमें डारा है, सब तरफ सेना भागी जाय हैं जैसे सिंहते मृगनिके समूह भागें अर भागते हए सुभट परस्पर बतलावें हैं कि वक्तर उतार धरो, हाथी छोडो, घोडे, गदा साडेमें डार देवो, ऊचे शब्द न करो, ऊचा शब्द सुनकर शस्त्रके धारक देख यह भयानक पुरुष आय मारेगा। अरे भाई ! यहांते हाथी लेजावो कहां थम राखा है, गैल देऊ । अरे दुष्ट सारथी ! काहे रथको थाम राखा है। अरे घोडे आगे करी यह आया यह आया या भांतिके वचनालाप करते महावष्टको प्राप्त भए सुभट संग्राम तज आगे भागे जाय रहे हैं। नपुंसक समान हो गए । यह युद्धमें क्रीडाका करणहारा कोई देव है तथा विद्याधर है काल है अक वायु है यह महाप्रचण्ड सब सेनाको जीतकर सिंहोदरको हार्थासे उतार गलेमें वस्त्र डार यांध लिए जाय है जैसे बलदको पांव थनी अपने घर ले जाय यह वचन बजकर्णके योधा बजकर्णसे व हते भए तब वह कहता भया-हे सुभट हो! बहुत चिंताकर कहा ? धमके प्रसादते सब शांत होयगा अर दशंग नगरकी स्त्री महलनिके ऊपर बैठी परस्पर वार्ता करे हैं -रे सखी ! देखो या सुभटकी अद्भ सचेष्टा, जो एक पुरुष अकेला नरेंद्रको बांधे लिये जाय है । अहो धन्य याका रूप ! धन्य याकी कांति, थन्य याकी शक्ति, यह कोई अतिशयका धारी रुषोत्तम है। धन्य हैं वे स्त्री, जिनका तह जगदीश्वर पति हुआ है तथा होयगा अर सिंहोदरकी पटराणी बाल तथा वृद्धनिसहिन रोवती संती लक्ष्मणके पांवनि पडी अर कहती भई-हे देव ! याहि छोड देवो हमें भरतारकी भीख देयो । अब तिहारी आज्ञा होयगा सो यह करेगा, तालमण कहते भरे यह आगे बडा वृक्ष है ता बांध याहि लटकाऊंगा तब वाकी राणी हाथ जोड बहुत विनती करती भई-हे प्रभो! आप रोस भए हो तो हमें मारो, याहि छांडो कृपा करो, प्रीतमका दुख हमें मत दिखावो, जे तुम सारिखे पुरुषोत्तम हैं वे स्त्री Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - andrewwwwwwwwww तेतीसर्वा पर्व २८५ अर बालक वृद्धनिपर करुणा ही करै हैं । तब आप दयाकर कहते भर.-तुम चिंता न करो, भागे भगवानका चैत्यालय है तहां याहि छोडेंगे। ऐसा कह आप चैन्यालयमें गए जायकर श्रीराम ते कहते भए-हे देव, यह सिंहोदर आया है, आप कहो सो करें। तब सिंहोदर हाथ जोड कांपता श्री रामके पायन पडा अर कहता भया-हे देव ! तुम महाक्रांतिके धारी परम तेजस्वी हो सुमेरु सारिखे अचल पुरुषोत्तम हो मैं आपका आज्ञाकारी; यह राज्य तिहारा, तुम चाहो जिसे देवो । मैं तिहारे चरणारविंदकी निरंतर सेवा करूगा अर रानी नमस्कारकर पतिकी भीख मांगती भई अर सीता सतीके पायन परी कहती भई-हे देवी! हे शोभने ! तुम स्त्रीनिकी शिरोमणि हो हमारी करुणा करो तब श्रीराम सिंहोदरकू कहते भए मानो मेघ नाजे। . अहो सिंहोदर ! तोहि जो बजकर्ण कहे सो कर या बातकरि तेरा जीतव्य है और बात कर नाही, या भांति सिंहोदरको रामकी आज्ञा मई। ताही समय जे बजकर्णके हितकारी हुते तिनको भेन वजूकर्ण को बुलाया सो परिवारसहित चैत्यालय आया, तीन प्रदक्षिणा देय, भगवानको नमस्कारकरि चन्द्रप्रभु स्वामीकी अत्यन्त स्तुतिकर रोमांच होय आए। बहुरि वह विनयवान दोनों भाइनिके पास माया स्तुति कर शरीरकी अारोग्यता पूछना भया अर सीताकी कुशल पूछी। तब श्रीराम अत्यन्त मधुर ध्वनि कर बजकर्ण कहते भए-हे भव्य ! तेरी कुशलकरि हमारे कुशल है। या भांति बजकर्ण की अर श्रीराम की वार्ता होय है सब ही सुन्दर भेष थरे बिधु दंग आया, श्रीराम लक्ष्मणकी स्तुतिकर बजकर्ण समीप बैठा। सर्वेसमावि विद्य दंग की प्रशंसा भई जो यह बजकर्णका परम मित्र है। बहुरि श्री मिचन्द्र प्रसन्न होय बजूर्णसू कहते भए तेरी श्रद्धा महा प्रशंसा योग्य है कुबुद्धिनिके उत्पातकरि तेरी बुद्धि रंच मात्र भी न डिगी जैसे पवनके समूहकरि सुमेरुकी चूलिका न डिगे । मोहूकू देख कर तेरा मस्तक न नया सो धन्य है तेरी सम्यक्त्वकी दृढ़ गो, जे शुद्ध तचके अनुभवी पुरुष हैं तिनकी यही रीति है जो जगतकर पूज्य जे जिनेंद्र तिनको प्रणाम करें बहुरि मातक कोनको नवावे ? मकरन्द रसका आस्वाद करणहारा जो भ्रमर सो गर्दभ (गधा) की पूंजपे कैसे गंजार करे ? तु वद्धिमान है धन्य है निकटभव्य है चन्द्रमा हूंते उज्ज्वल वलकी तेरी पृथिनी विस्तरी है या भांति बजकर्णके सांचे गुण श्रीरामचन्द्रने वर्णन कीए तब वह लज्जावान् होय नीचा मुख कर रहा, श्रीरघुनाथ कहता भया-हे नाथ ! मोपर यह आपदा तो बहुत पड़ी हुती परन्तु तुम सारिखे सज्जन जगतके हितु मेरे सहाई भए । मेरे भाग्य करि तुम पुरुषोत्तम पधारे या भांति बजकर ने कही तब लदभण बोले तेरी वांछा जो होय सो करें, तब बजकर्ण ने कही तुम सारिखे उपकारी पुरुष पायकर मोहि या जगत विष कछु दुर्लभ नहीं मेरी यही विनती है मैं जिनधर्मी हूं, मेरे तणमात्र को भी पांडा की अभिलाषा नाहीं अर यह सिंहोदर तो मेरा स्वामी है तातें याहि छोडो, ये वचन बजकर्ण ने कहे तब सबके मुखते थन्य धन्य यह ध्वनि होती भई जो देखो यह ऐसा उत्तम पुरुष हे द्वष प्राप्ति भए भी पराया भला ही चाहै है। जे सज्जन पुरुष हैं ते दुर्जन हू का उपकार करें अर जे आपका उपकार करें तिनका तो करें ही करें। लक्ष्मणने वज Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप-पुराण कर्णको कही जो तुम कहोगे सो ही होयगा । सिंहोदरको छोडा अर वजकर्णका मर सिंहोदर का परस्पर हाथ पकडाया परम मित्र किए वजकर्णको आधा राज्य दिलवाया अर जो माल लूटा हुता सो हू दिवाया अर देश धन सेना आधा आथा विभाग कर दिया वजकर्णके प्रसादकरि विद्य दंग सेनापति भया अर बजूकण राम लक्ष्मणकी बहुत स्तुति करि अपनी आठ पुत्रिनिकी लक्ष्मण से सगाई करी । कैसी है वे कन्या ? महाविनयवन्ती सुन्दर भेष सुन्दर आभूषणको वरें अर राजा सिंहोदरको आदि देय राजाओं की परम कन्या तीन सौ लक्ष्मणको दई । सिंहोदर पर बजकर्ण लक्ष्मणते कहने भए-ये कन्या अाप अंगीकार करें, तब लक्ष्मण बोले-विवाह तो तब करूंगा जब अपने भुज कर राज्य स्थान जमाऊगा पर श्रीराम तिनसू कहते भये-जो हमारे अपतक देश नाहीं हैं तातने राज भरतको दिया है तातै चन्दनगिरीके समीप तथा दचिलके समुद्रके समीप स्थानक करेंगे ता अपनी दोनों माताओं को लेने को मैं 'पाऊंगा अथवा लक्ष्मण आवेगा। ता समय तुम्हारी पृत्रिनिको हू परणकर ले आवेगा, अब तक हमारे स्थानक नाहीं। कैसे पाणिग्रहण करें जब या भांति कही, तब वे सव राजकन्या ऐसी होय गई जैमा जाडे का मारा कमलोंका वन होय जाय, मनमें विचारती मई-वह दिन कब होयगा जब हमको प्रीतमके संगम रूप रसायन की प्राप्ति होयगी अर जो कदाचित प्राणनाथ का विरह भया तो हम प्रास त्याग करेंगी इन सबका मन विरहरूप अग्निकर जलता भया। यह विचारती भई एक मोर महा औंडा गतं अर एक ओर महाभयंकर सिंह, कहा करें ? कहां जावें ? विरहरूप व्याघ्र को पतिके संगम की अाशाते बशीभूत कर प्राणनिको राखेंगी, यह चितवन करती संती अपने पिताकी लार अपने स्थानक गई। सिंहोदर बजकर्ण आदि सप ही नरपति, रघुपतिकी आज्ञा लेय पर मए, ते राजकन्या उत्तम चेष्टाकी धरणहारी माता पितादि कुटुंबसे अत्यन्त है सन्मान जिनका, पर पतिमें है चित्त जिनका, सो नाना विनोद करती पिताके घरमें निष्ठनी भई भर विद्य दंगने अपने माता पिताको कुटुंबसहित विभूतितें बुलाया तिनके मिलापका परम उत्सव किया अर बजकर के अर सिंहोदरके परस्पर अतिप्रीति बढ़ी पर श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण अर्धरात्रिको चैत्यालयते निकलकर चल दिये। सो धीरे २ अपनी इच्छा प्रमाण गमन करे हैं अर प्रभात समय जे लोक चैत्यालयमें आए सो श्रीरामको न देख शून्य हृदय होय अति पश्चाताप करते भए । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषे राम लदमण कुस बनकर्णका उपकार वर्णन करनेवाला तैतीसवां पर्व पूर्ण भया ॥ ३३॥ अथानंतर राम लक्ष्मण जानकीको धीरे२ चलाक्ते पर रमणीक वनमें विश्राम लेते भर महामिष्ट स्वादुफलों का रसपान करते क्रीडा करते रसभरी बातें करते सुन्दर चेप्टाके धरणहारे, चले २ नलकूवर नामा नगर आए। कैसा है नगर ? नानाप्रकारके रतननिके जे मन्दिर तिनके उतंग शिखरोंकर मनोहर अर सुन्दर उपवनोंकर मंडित जिनमन्दरनिकरि शोमित स्वर्ग समान निरंतर उत्सवका भरा लक्ष्मीका निवास है सो श्रीराम लक्ष्मण पर सीता नलकूवर नामा नगरके परम Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां पर्व सुन्दर वनमें आय तिष्ठे, कैसा है वह वन ? फल पुप्पनिकरि शोभित जहां भ्रमर गंजार कर हैं। पर कोयल बोले हैं। सो निकट सरोवरी तहां लक्ष्मण जलके निमित्त गए, सो ताही सरोवरी पर क्रीडाके निमित्त कल्याणमाला नाम राजपुत्री राजकुमारका भेष किए आई हुती, कैसा है राजकुमार ? महारूपवान नेत्रनिको हरणहारा सर्वे को प्रिय महाविनयवान कांतिरूप निझरनिका पर्वत श्रेष्ठ हाथीपर चदा सुन्दर प्यादे लार जो नगरका राज्य करे सो सरोवरीके तीर लक्ष्मण को देख मोहित भया । कैसा है लक्ष्मण ? नील कमल समान श्याम सुन्दर लक्षणनिका धरणहारा सो राजकुमारने एक मनुष्यको आज्ञा करी जो इनको ले आवो, सो वह मनुष्य जायकर हाथजोड नमस्कार कर कहता भया--हे धीर ! यह राजपुत्र आपत मिला चाहै है सो पधारिए, सब लक्ष्मण राजकुमार के समीप गए। सो हाथीते उतरकर कमल तुल्य जे अपने कर तिनकर लक्ष्मणका हाथ पकड़ वस्त्रनिके डेरेमें ले गगा, एक आसनपर दोऊ बैठे। राजकुमार पूछा भया आप कौन हो, कहांते आए हो ? तब लक्ष्मण कही मेरे बड़े भाई मेरे बिना एक क्षण न रहें सो उनके निमित्त अन्न पान सामग्री कर उनकी आज्ञा लेय तुमपर आऊंगा तब सब बात कहूंगा यह बात सुन राजकुमार कही जो रसोई यहां ही तैयार भई है सो यहां ही तुम अर वे भोजन करो। तब लक्ष्मणकी आज्ञा पाय सुन्दर मात दाल नानाविधि व्यंजन नवीन घृत कपूरादि सुगंध द्रव्यनिसहित दधि दुग्ध पर नानाप्रकार पीने की वस्तु मिश्रीके स्वाद जामें, असे लाड़ अर पूरी सांकली इत्यादि नानाप्रकार भोजन की सामग्री पर वस्त्र प्राभूषण माल' इत्यादि अनेक सुगंध नाना प्रकार तैयार किए पर अपने निकटवर्ती जो द्वारपाल नाहि भेजा मो जायकर सीता सहित रामको प्रणामकर कहता भया-हे देव ! या वस्त्र भवनकेविषै तिहारा भाई तिष्ठै अर या नगर के नाथने बहुत आदरते चीनती करी है। वहां छाया शीतल है अर स्थान मनोहर सो पाप कृपाकर पधारें तो मार्गका खेद निवृत्त होवे तब आप सीतासहिन पधारे जैसे चांदनीसहित चांद उद्योत करे, कैसे हैं आप ? माते हाथी समान है चाल जिनकी, लक्ष्मण सहित नगरका राजा दूर होते देख उठकर सामने आया। सीतासहित राम सिंहासनपर विराजे,. राजाने ओरती आरकर अर्घ दिये, अतिसन्मान किया, आप प्रसन्न होय स्नानकर भोजन किया सुगन्ध लगाई। बहुरि राजा सवको विदा किए । ए चारही रहे एक राजा तीन ए । राजा सबको कहा जो मेरे पिताके पासते इनके हाथ समाचार आए हैं सो एकांतकी वार्ता है कोई आवने न पावै जो प्रावेगा ताहि मैं मारूंगा। बडे २ सामंत द्वारे राख एकांतमें इनके आगे लज्जा तज कन्या जो राजाका भेष धरे हुती सो अपना स्त्रीपदका रूप प्रकट दिखाया। कैसी है कन्या ? लज्जाकर नम्री भूत है मुख जाका अर रूपकर मानों स्वर्गकी देवांगना है अथवा नागकुमारी है, ताकी कांतिकार समस्त मंदिर प्रकाश रूप होय गया, मानों चन्द्रमाका उदय भया,चन्द्रमा किरणोंते मंडित है याका मुख लज्जा पर मुलकनकर मंडित है मानोंयह राजकन्या साक्षात् लक्ष्मी ही है, कमलिनिके बनते माय तिष्ठी है अपनी लावण्यतारूप सागरविणे मानों मंदिरको गर्क किया, जाकी घुति आगे रन Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ पद्म-पुरेणि 1 अर कंचन दिरहित मासे हैं । जाके स्तन युगलमे कांतिरूप जलकी तरंगिनी समान त्रिचलो शोभै . है अर जैसे मेटलको भेद निशाकर निकसे तैसे वस्त्रको भेद अंगकी ज्योति फैल रही है अर श्र त्यंत चिकने सुगंध कारे वांके पतले लम्बे केश तिनकरि विराजित हैं प्रभारूप बदन जाका मानों कारीघटा में विजली के समान चमके है अर महासूदन स्निग्ध जो रोमोंकी पंक्ति ताकर विराजित मानों नीलम निकर मंडित सुवर्ण की मूर्ति ही है। तत्काल नररूप तज नारीका रूपकर मनोहर नेत्रनिकी धरनहारी सीताके पायन लाग समीप जाय बैठी जैसे लक्ष्मी रतिके निकट जाय बैठे सो याका रूप देख लक्ष्मण कामकर बींधा गया, और ही अवस्था होय गई, नेत्र चलायमान भए । तब श्रीरामचन्द्र कन्याते पूछने भए, तू कौनकी पुत्री है अर पुरुषका भेष कौन कारण किया। तब वह महाभिष्टवादिनी अपना अंग वस्त्रते ढांक करती भई हे देव ! मेरा वृत्तांत सुनहु या नगरका राजा बालखिल्य महाबुद्धि सदा आचारवान श्रावकके व्रतका धारक महादयालु जिनधर्मियोंपर वात्सल्य अंगका धारणाहारा, राजाके पृथ्वी रानी ताहि गर्भ रहा सो मैं गर्भविषै आई श्रर म्लेच्खनिका जो अधिपति तासे संत्रा भया । मेरा पिता पकड़ा गया सो मेरा पिता सिंहोदर का सेवक सो सिंहोदरने यह आज्ञा करी जो बालखिल्यके पुत्र होय सो राज्यका कर्ता होय, सो मैं पाविनी पुत्री भई । तब हमारे मंत्री सुबुद्धि ताने मनश्वाकर राज्य के अर्थ मुझे पुत्र ठहराया । सिंहोदर को वीनती लिखी कल्याणमाल मेरा नाम धरा अर बडा उत्सव किया सो माता अर मंत्री ये तो जाने हैं जो यह कन्या है और सब कुमार ही जाने हैं सो एते दिन व्यतीत किए अब पुण्यके प्रभावते आपका दर्शन गया | मेरा पिता बहुत दुःखसे तिष्ठे है म्लेच्छनिकी बंदमें है । सिंहोदर हू ताहि छुडायवे समर्थ नहीं अर जो द्रव्य देश में उपजे है सो सब म्लेच्छके जाय है । मेरी माता वियोगरूप अग्निकरि तप्तायमान जैसे दूजके चन्द्रमाकी मूर्ति क्षीण होप तैसी होय गई है ऐसा कहकर दुखके भारकर पीडित है समस्त गाव जका, सो मूर्छा खाय गई र रुदन करती भई । तब श्रीरामचन्द्रने अत्यंत मधुर वचन कहकर थीर्य बंधाया, सीता गोद में लेय बैठी। मुख धोया अर लक्ष्मण कहते भए - हे सुन्दरी ! सोच तज अर पुरुषका भेषकर राज्य कर, कैथक दिननिमें म्लेच्छनिकू पकडा अर अपने पिता को छूटा जान, अँसा कहकर परम हर्ष उपजाया सी इनके वचन सुनकर कन्या पिताको छूटा ही जानती मई । श्रीराम लक्ष्मण देवनिकी नाई तीन दिन यहां बहुत आदरते रहे बहुरि रात्रि मैं सोवासहित उपवनते निकसकर गोप चले गए । प्रभात समय कन्या जागी तिनको न देख व्याकुत भई अर कहती मई, वे महान पुरुष मेरा भन हर ले गए, मो पापिनिको नींद आ गई सो गोप चले गए । या भांति मिलाकर मनको थांभ हाथीपर चढ पुरुषके भेष नगर में गई र राम लक्ष्मण कल्याणमाला के विनयकर हरा गया है चित्त जिनका, अनुक्रमते मेकला नामा नदी पहुँचे। नंदी उतर क्रीडा करते अनेक देशनिकों उलंघ विन्ध्याटवरीको प्राप्त भए, पंथ जत्रे संते गुवालनिने मने किए कि यह अटवी भयानक है तिहारे जाने योग्य नाहीं, तब आप तिनकी बात न मानी चले ही गए। कैसी है बनी १ क एक लवाकर पंडित जे. शालवृक्षदिक तिनकरि शोभित है और नानाप्रकारके सुगंध वानिक₹ 1 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवा पव भरी महासुगंधरूप है अर कहीं एक दावानलकर जले वृक्ष तिनकर शोभा रहित है जैसे कुपुत्रकर कलंकित गोत्र न शोभै । अथानन्तर सीता कहती भई कंटकतके ऊपर बाईं ओर काग बैठा है सो यह तो कलहकी सूचना करे है अर दूसरा एक काग वीरवृनपर बैठा है सो जीत दिखावे है ताते एक मुहूर्त स्थिरता करहु या मुहूर्तविषै चले आगे कलहके अंत जीत है मेरें चित्तमें ऐसा भासे है तब चया एक दोऊ भाई थंभे बहुरि चले, आगे म्लेच्छनिको सेना दृष्टि पडी ते दोऊ भाई निर्भय धनुषवाण धारे म्लेच्छनिकी सेना पर पड़े सो सेना नाना दिशानिको भगगई तब अपनी सेनाका भंग जान अर बहुत म्लेच्छ तर पहिर आए सो वे भी लीलामात्रमें जीते तब वे सब म्लेच्छ धनुष वाण डार पुकार करते पतिपै जाम सारा वृत्तांत कहने भए । तब वे सब म्लेच्छ परम क्रोधकर धनुषवाण लीए महा निर्दई वडी नसू आए । शस्त्रनिके समूहकरि संयुक्त वे काकोदन जातिके म्लेच्छ पृथिवी पर प्रसिद्ध सर्व मांस भक्षी राज नहूकरि दुर्जय ते कारी घटा समान उमंडि आये तब लक्ष्मणने कोपकर धनुष चढाया तब वन कम्पायमान भया, नवे जीव कांपने लग गए तब लक्ष्मणने धनुषकेशर बांधा तब सब म्लेच्छ डरे वनमें दशों दिशांधेकी न्याई भटकते भए । तब महा भयंकर पूर्ण म्लेच्छनिका अधिपति रथसे उतर हाथ जोड प्रणामकर पायन पडा अपना सब वृतांत दोऊ भाइन कहता भया । हे प्रभो ! कौशांबी नगरी है तहां एक विश्वानल नामा वालेताके प्रतिसंध्यानामा स्त्री तिनके रोद्रभूतनामा पुत्र सो द्यूतकलामें प्रवीण बाल अवस्था र कर्मका करणहारा सो एक दिन चोरीतें पकड़ा गया श्रर सूली देनेको उद्यमी भए तब एक दयावान् पुरुषने छुडाया सो मैं कांपता देश तज यहां आया कर्मानुयोग कर काकोदन जाति के म्लेच्छों का पति भया महाभ्रष्ट पशु समान व्रतक्रिया रहित तिष्ठ हूं। अब तक महासेना के अधिपति बडे बडे रजा मेरे सन्मुख युद्ध करने को समर्थ न भए, मेरी दृष्टिगोचर न आए सो मैं आपके दर्शन मात्र ही से वशीभूत भया । धन्य भाग्य मेरे जो मैंने तुम पुरुषोत्तम देखे, अब मोहि जो आज्ञा देवो सो करू । आपका किंकर आपके चरणारविंदकी चाकरी सिर पर धरू र यह विन्ध्याचल पर्वत पर स्थानक निधिकर पूर्ण हैं, आप यहां राज्य करहु मैं तिहारा दास, ऐसा कहकर म्लेच्छ मूर्छा खायकर पायन पडा जैसे वृक्ष निर्मल होय गिर पडे ताहि विह्वल देख श्रीरामचन्द्र दयारूप वेलकर वेढे कल्पवृक्ष समान कहते भए, उठ उठ डरे मत वालखिल्यको छोड तत्काल यहां मंगा र ताका आज्ञाकारी मंत्री होय कर रह म्लेच्छनिकी क्रिया तज, पापकर्मते निवृत्त हो, देशकी रक्षा कर । या भांति कियेते तेरी कुशल है, तब याने कही हे प्रभो, ऐसा ही करूंगा यह बीनती कर आप गया और महारथका पुत्र जो वालखिल्य ताहि छोडा, विनयसंयुक्त ताके तैलादि मर्दनकर स्नान भोजन कराय श्राभूषण पहिराय रथपर चढ़ाय श्रीरामचन्द्रके समीप लेजानेको उद्यमी किया, तब बालखिल्य परम आश्चर्यको प्राप्त होय विचारता भया, कहां यह म्लेच्छ महाशत्रु कुकर्मी अत्यन्त निदयी और मेरा ऐता विनय करे है सो जानिये है जो भाज ३७ CE Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पद्म-पुराण मोहि काहकी भेंट देगा । अब मेरा जीवन नाहीं, यह विचार सो बालखिल्य मर्चित चला आगे राम लक्ष्मणको देख परम हर्षित भया । रथते उतर आय नमस्कार किया और कहता भया हे नाथ, मेरे पुण्यके योगते आप पधारे, मोहि बंधनते बुडागा । आप महासुन्दर इंद्र तुल्य पुरुष हो, तब रामने आज्ञा करी तू अपने स्थानक जहु, कुबते मिलहु तब बालखिल्य रामको प्रणाम कर रौद्रभूतसहित अपने नगर गया। श्रीराम बाल खिल्यको छुडाय रौद्रदास करि वहांते चाले सो बालखिल्यको आमा सुनकर कल्याणमाला महाविभूति सहित सन्मुख आई अर नगर में महा उत्साह भया, राजा राजकुमारको उरसे लगाया अपनी अलवारीमें चढाया नगरविर्षे प्रवेश किया, राणी पृथिवीके हर्षसे रोमांच होय आये, जैना आगे शरीर सुन्दर हुना तैना पतिके आए भया । सिंहोदरको आदि देय बालखिल्य के हितकारी सब ही प्रसन्न भए र कल्याणमाला पुत्रीने एते दिवस पुरुषका भेष कर राज थाम्भा हुन सों या बातका सबको आश्चर्य भया, यह कथा राजा श्रेणि गोतमस्वामी हैं हैं - हे नराधिप, वह रौद्रभूत परद्रव्यका हरणहाराअनेक देशनिका कंटक सो श्रीराम के प्रतापते बालखिल्यका आज्ञाकारी सेवक भया । जब रौद्रभूत वशीभूत भया अर म्लेच्छ की विषम भूमिमें वालखिल्य की आज्ञा प्रवर्ती तब सिंहोदर भी शंका मानता भया र स्नेहसहित सन्मान करता भया, बालखिल्य रघुपति के प्रसादते परम विभूति पाय जैसा शरद ऋतु सूर्य नकारा करे तैा पृथिवीविषै प्रकाश करता भया अपनी राणी सहित देवोंकी न्याई रमता भवा ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वाचनिकावि म्लेच्छनिके राजा रौद्रभूतिका ठान करनेवाला चौतीसवां पर्व पूर्ण भया ॥ ३४ ॥ ***** अथानन्तर राम लक्ष्मण देवनि सारिखे मनोहर नंदनवन ताविषै सुखसे विहार करते एक मनोग्य देशविषै आय निकसे जाके मध्य तापती नदी बहे, नाना प्रकार के पक्षिनिके शब्द करि सुन्दर, तहां एक निर्जन वनमें सीता तृषाकर अत्यंत खेदखिन्न भई तब पतिको कहती भई । हे नाथ ! तृषा से मेरा कंठ शोषै है जैसे अनन्त भवके भ्रमण कर खेदखिन्न हुआ भव्यजीव सम्यकदर्शनको बांधे तैसे मैं तृपासे व्याकुल शीतल जलको बांछू हूं ऐसा कहकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गई, तब रामने कही - हे देवी ! हे शुभे ! तू विषादको मत प्राप्त होय, नजीक ही यह आगे ग्राम है जहां सुन्दर मंदिर है, उठ आगे चल या ग्राममें तोहि शीतल जलकी प्राप्ति होयगी, एसा. जब कहा तब उठकर सीता चली मंद मंद गमन करती गजगामिनी ता सहित दोऊ भाई अरु नामा ग्राम में आए जहां महाधनवान किसान रहैं, जहां एक ब्राह्मण अग्निहोत्री कपिलनामा प्रसिद्ध ताके घर में आय उत्तरे ताकी अग्निहोत्री की शाला में क्षण एक बैठ खेद निवारा । कपिल की ब्राह्मणी जल लाई सो सीता पिया, सहां विराजे र वनते ब्राह्मण विश्व तथा छीला वा खेचडा इत्यादि काष्ठका भार बांधे आया, दावानल समान प्रज्वलित जाका मन महा क्रोधी कालकूट विष समान वचन बोलता भया । उल्लू समान है मुख जाका अर करमें कमण्डलु चोटी में Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. तीसा पर्ण गांठ दिये लांची डाढी यज्ञोपवीत पहिरे उंछवृत्ति कहिये अन्नको काटकर लेगये पीछे खेतनते अन्न कण बीन लावे, या भांति है आजीविका जाकी, सो इनको बैठा देख वक्र मुखकर बामणीको दुर्वचन कहता भया-हे पापिनी ! इनको घरमें काहे प्रवेश दिया, मैं आज तोहि गायनिके मठन में बांधूगा। देख इन निर्लज्ज ढीठ पुरुष धूरकर धूसरोंने मेरा अग्निहोत्रका स्थान मलिन किया यह वचन सुन सीता रामते कहती भई-हे प्रभो या क्रोधीके घरमें न रहना वनमें चलिये जहां नाना प्रकारके पुष्प फल तिनकर मंडित वृक्ष शोभे हैं । निर्मल जलके भरे सरोवर हैं तिनमें कमल फूल रहे हैं अर मृग अपनी इच्छासे क्रीडा करते हैं तहां ऐसे दुष्ट पुरुषनिके कठोर वचन न सुनिये है, यद्यपि यह देश थनसे पूर्ण है अर स्वर्ग सारिखा सुन्दर है परंतु लोग महा कठोर हैं और ग्रामीजन विशेष कठोर ही होय हैं सो विपके रूखे वचन सुन ग्रामके सकल लोक पाए, इन भाइनिका देवनि समान रूप देख मोहित भए । ब्राह्मणको एकान्तमें लेजाय लोक समझावते भए । ये यहां एक रात्रि रहे हैं तेरा कहा उजाड है ये गुणवान विनयवान रूपवान पुरुषोत्तम हैं तब द्विज सबसे लडा भर सबसे कहा, तुम मेरे घर काहे पाए, परे जाहु अर मूर्खा इसपर क्रोधकराया जैसे श्वान गनपर श्रावे, इनको कहता भया रे अपवित्र हो मेरे घरते निकसो इत्यादि कुवचन सुन लक्ष्मण कोप भए, सा दुर्जनके पांव ऊचे कर नाडि नीचेकर भ्रमाया भूमिपर पछाडने लगा तब श्रीराम परमदयालु ताहि मने किया-हे भाई यह कहा ? ऐसे दीनको मारनेकरि कहा ? याहि छोड देहु यांके मारवते बड़ा अपयश है । जिनशासनमें शूरवीरको एते न मारने-यति ब्राह्मण गाय पशु स्त्री बालक वृद्ध ये दोष संयुक्त होंय तो भी हनने योग्य नाहीं। या भांति भाईको समझाया, विन छुडाया अर आप लक्ष्मणको आगे कर सीतासहित कुटीते निकसे, आप जानकीसे कहे हैं-हे प्रिये विकार है नीचकी संगतिको जिवकर कर वचन मुनिये मनमें विकारका कारण महापुरुषनिकर त्याज्य कर वचन सुनिये महा विषम वनमें वृक्षनिके नीचे वास भला आहारादिक विना प्राण जावें तो भले परंतु दुर्जनके घर क्षण एक रहना योग्य नाहीं । नदिनिके तटविणे पर्वतनिकी कंदराविणे रहेंगे। बहुरि ऐसे दुष्ट के घर न आयेंगे । या भांति दुष्टके संगको निंदते ग्रामसे निकसे राम वनको गये, वहां वर्षा समय आय प्राप्त भया । समस्त आकाशको श्याम करता हुवा अर अपनी गर्जना कर शब्द रूप करी है पर्वतकी गुफा गाजे है, ग्रह नक्षत्र तारानिके समूहको ढांककर शब्दसहित बिजुलीके उद्योतकर मानों अंबर हंसे है, मेघ पटल ग्रीष्मके तापको निवारकर पंथिनि को बिजुरीरूप अंगुरिनिकरि डरावता संता गाजे है। श्याम मेघ आकाशमें अंधकार करता संता जलकी धाराकर मानों सीताको स्नान करावे है जैसे गज लक्ष्मीको म्न न करावे । ते दोऊ वीर वनमें एक वडा वटका वृक्ष ताके डाहला घरके समान तहां विराजे, एक दंभकर्ण नामा यक्ष उस बटमें रहता हुता सो इनको मह तेजस्वी जानकर अपने स्वामी को नमस्कार कर कहता भया हे नाथ, कोई स्वर्गते पाए हैं मेरे स्थानकविणे तिष्ठे हैं । जिनने अपने तेत्रकरि मोहि स्थानते दर किया है, वहां मैं जाय न सक हूं। तब यक्षके वचन सुनकर यक्षाथिपति अपने देवनिसहित बटका पच जहां राम लक्ष्मण हुने तहाँ आया, महाविभव संयुक्त वनक्रीडावि आसक्त नूतन है नाम जाका Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ पन पुराण सो दूर हीते दोऊ भाइनिको महारूपवान देख अवधि कर जानता भया-जो ये बलभद्र नारायण हैं तब बह इनके प्रभाव कर अत्यंत वास्सन्यरूप भया । क्षणमात्रमें महामनोग्य नगरी निरमापी तहां सुखसे सोते हुए प्रभात सुन्दर गीतोंके शब्दनिकर जागे। रत्न जडित सेजपर आपको देखा भर मंदिर महामनोहर बहुत खणका अति उज्ज्वल अर सम्पूर्ण साभिग्री कर पूर्ण भर सेवक सुन्दर बहुत आदरके करनहारे नगरमें रमणीक शब्द कोट दरबाजेनिकर शोभायमान ते पुरुपोत्तम महानुभाव तिनका चित्त ऐसे नगरको तत्काल देख आश्चर्यको न प्राप्त भया । यह शुद्र पुरुषनिकी चेष्टा है जो अपूर्व वस्तु देख आश्चर्य को प्राप्त होंय । समस्त वस्तु कर मंडित वह नगर वहां वे सुन्दर चेटाके धारक निवास करते भए, मानों ये देव ही हैं यक्षाधिपति रामके अर्थ नगरी रची। सातै पृथिवीपर रामपुरी कहाई । ता नगरीविष सुभट मंत्री द्वारपाल नगरके लोग अयोध्या समान होते भए। राजा श्रेणिक गौतमस्वामीको पूछे हैं-हे प्रभो ! ये तो देवकृत नगरीविष विराजै अर ब्रामणकी कहा पात सी कहो । तब गणधर बोले-वह ब्राह्मण अन्य दिन दांतला हाथमें लेय वनमें गया, लकडी ढढते अकस्मात् ऊंचे नेत्र किये। निकट ही सुन्दर नगर देखकर भावयंको प्राप्त भया । नानाप्रकारके रंगकी ध्वजा उन कर शोभित शरदके मेघ समान सुन्दर महिल देखे पर एक राजमहल महाउज्ज्वल मानों कैलाशका बालक है सो ऐसा देखकर मनमें विचारता मया । जो यह अटवी मृगनिते भरी जहां मैं लकडी लेने निरंतर आवता हुता सो यहां रत्नाचल समान सुंदर मंदिरनिते संयुक्त नगरी कहांसूबसी ? सरोवर जलके भरे कमलनिकरि शोभित दीखे हैं जो मैं अब तक कभी न देखी, उद्यान महामनोहर जहां चतुर जन क्रीडा करते दीखे हैं भर देवालय महाध्वजानिकर संयुक्त शोभे हैं अर हाथी घोडे गाय भैंस तिनके समूह दृष्टि भावे हैं। घंटादिकके शब्द होय रहे है। यह नगरी स्वर्गते आई है अथवा पातालते निसरी हे, कोऊ महाभाग्यके निमित्त, यह स्वप्न है अक प्रत्यक्ष है अक देवमाया है अक गन्धोंका नगर है। भक मैं पित्तकर व्याकुल भया हूं याके निकटवर्ती जो मैं सो मेरे मत्युका चिह्न दीखे है, ऐसा विचार विषादको प्राप्त भया। सो एक स्त्री नानाप्रकारके आभरण पहरे देखी ताके निकट जाय पूछता भया । हे भद्र ! यह कौनकी पुरी है तब वह कहती भई-यह रामकी पुरी है तूने कहा न सुनी १ जहां राम राजा जाके लक्ष्मण भाई, सीता स्त्री अर नगरके मध्य यह बडा मन्दिर है शरेदके मेव समान उज्ज्वल, जहां वह पुरुषोत्तम विराजे हैं। कैसा है पुरुषोत्तम लोकवि दुर्लभ है दर्शन जाका सो ताने मनवांछित द्रव्यके दानकरि सब दरिद्री लोक राजानिके समान किये, तब ब्राह्मण बोला हे सुन्दरी ! कौन उपाय कर याहि देखू सो तू कह । ऐसे काष्ठका मार डारकर हाथ जोड ताके पायन पडा । वह सुमाया नामा यक्षिनी कृपाकर कहती भई, हे विप्र! या नगरीके तीन द्वार हैं । जन देव भी प्रवेश न करसके, बडे बडे योथा रक्षक बैठे हैं। रात्रि में जागे हैं जिनके मुख सिंह गम व्याघ्र तुन्य हैं तिनकरि भयको मनुष्य प्राप्त होय हैं, यह पूर्व द्वार है जाके निकट बड़े भगवानके मंदिर हैं। मणि के तोरणकरि मनोग्य तिनमें इंद्र कर Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीस पथ ०६३ बंदी अरिहंत विंब विराजे हैं और जहां भव्यजीव सामायिक स्तवन आदि करे हैं और जो नमोकार मंत्र भाव सहित पढे हैं सो भीतर प्रवेश कर सके हैं। जो पुरुष अणुव्रतका धारी गुणशीलसे शोभित है ताको राम परम प्रीतिकर वांछे हैं। यह वचन यक्षिनी के अमृत समान सुनकर ब्राह्मण परम हर्षको प्राप्त भया । धन आगमका उपाय पाया, यक्षनीकी बहुत स्तुति करी, रोमांच कर मंडित भया है सर्व श्रंग जाका सो चारित्रशूर नामा मुनिके निकट जाय हाथ जोड नमस्कार कर श्रावककी क्रियाका भेद पूछता भया । तब मुनिने श्रावकका धर्म इसे सुनाया, चारों अनुयोगका रहस्य बताया सो ब्राह्मण धर्मका रहस्य जान मुनिकी स्तुति करता भया । हे नाथ ! तिहारे उपदेशते मेरे ज्ञान दृष्टि भई जैसे तृषावानको शीतल जल अर ग्रीष्मके तापकर तप्तायमान पंथीको छाया श्रर क्षुधावानको मिष्टान्न र रोगीको औषधि मिले, तैसे कुमार्ग में प्रतिपन्न जो मैं सो मोहि तिहारा उपदेश रसायन मिला जैसे समुद्र के मध्य डूबतेको जहाज मिले । मैं यह जैनका मार्ग सर्व दुःखनिका दूर करणहारा तिहारे प्रसादकरि पाया जो अविवेकिनिको दुर्लभ है, तीनलीक में मेरे तुम समान कोऊ हितू नाहीं जिनकर ऐसा जिनधर्म पाया । ऐसा कहकर मुनिके चरणारविंदको नमस्कार कर ब्राह्मण अपने घर गया । श्रति हर्षित, फूल रहे हैं नेत्र जाके स्त्री कहता भया, हे प्रिये, मैने आज गुरुके निकट अद्भुत जिनधर्म सुना हैं जो तेरे बापने अथवा मेरे बापने अथवा पिके पिताने भी न सुना अर हे ब्राह्मणी, मैंने एक अद्भुत वन देखा तामें एक महामनोग्य नगरी देखी जाहि देखे आश्चर्य उपजे परंतु मेरे गुरुके उपदेशते आश्चर्य नहीं उपजे है । तब ब्राह्मणी ने कही, हे विप्र, तँ कहा देखा और कहा सुना सो कहो तब ब्राह्मण कही, हे प्रिये, मैं हर्ष थकी कहने समर्थ नाहीं, तब बहुत आदर कर ब्राह्मणीने बारम्बार पूछा तब ब्राह्मण कही- हे प्रिये, मैं काष्ठके अर्थ वनविषै गया । सो वनमें एक महा रमणीक रामपुरी देखी ता नगरी के समीप उद्यानविषै एक नारी सुन्दरी देखी, सो वह कोई देवता होयगी महा मिष्टवादिनी, मैंने पूछा या नगरी कोनकी है तब वाने कही यह रामपुरी है, जहां राजा राम श्रावकनिको मनवांचित धन देते हैं । तब मैं मुनिप जाय जैन वचन सुने सो मेरा श्रात्मा बहुत तृप्त भया, मिथ्यादृष्टि कर मेरा श्रात्मा आतापयुक्त हुता सो श्राप गया । धर्म को पायकर मुनिराज मुक्ति के श्रभिलाषी सर्व परिग्रह तज महा तप करें सो वह अरिहंतका धर्म त्रैलोक्यविषै एक महानिधि मैं पाया। ये वहिर्मुख जीव वृथा क्लेश करे हैं मुनि थक्की जैसा जिनधर्मका स्वरूप सुना वैसा ब्राह्मणीको कहा, कैसा है जिनधर्मका स्वरूप ? उज्ज्वल है अर कैसा है ब्राह्मण निर्मल है चित्त जाका तब सुनकर कहती भई मैं भी तिहारे प्रसादकरि जिनधर्मकी रुचि पाई घर जैसे कोई विष फलका अर्थी महानिधि पावे, वैसे ही तुम काष्ठादिकके अर्थी धर्म इच्छाते रहित श्री अरिहंत का धर्म रसायन पाया अबतक तुमने धर्म न जाना । अपने आंगन विषै आए सन्पुरुष तिनका निरादर किया, उपत्रासादिकरि खेदखन दिगम्बर तिनको कबहु आहार न दिया, इन्द्रादिक कर बन्दनीक जे अरिहंत देव तिनको तजकर ज्योतषी व्यन्तरादिकको प्रणाम किया । जीव दयारूप जिनधर्म अमृत तज अज्ञान योगते पापरूप विषका सेवन किया । मनुष्य देहरूप रत्नदीप पाय साधुनि कर परखा Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAA A AJA4K २६४ पग-पुराण धर्मरूप रत्न तज विषयरूप कांचका खंड अंगीक र किया। जे सर्वभक्षी दिवस रात्रि माहारी, अबती, कुशील तिनकी सेवा करी । भोजनको अतिथि आवै अर जो निर्बुद्धि अपने विभव प्रमाण अन्नपानादिक न दे ताके धर्म नाहीं, अतिथि पदका अर्थ तिथि कहिए उत्सवके दिन तिनविष उत्सव तजै जाके तिथि कहिए विकार नाही अर सर्वथा निस्पृह घररहित साधु सो अतिथि कहिये। जिनके भाजन नाहीं, कर ही पात्र हैं वे निग्रंथ आप तिरें औरनिको तारें मापने शरीरमें हु निस्पृह काहू वस्तुविष जिनका लोभ नाहीं । ते निरपग्रही मुक्तिके कारण जे दस लक्षण धर्म तिनकर शोभित है या भांति ब्राह्मणने ब्राह्मणीकू थर्मका स्वरूप कहा अर सुशमी नामा ब्राह्मणी मिथ्यात्वरहित शोभित होती भई जैसे चंद्रमाके रोहिणी शोभे पर बुधके भरणी सोहै तैसे कपिलके मुशमी भई । ब्राह्मण ब्राह्मणीको बाही गुरुके निकट ले आया, जाके निकट आप प्रत लिये हुते सो स्त्रीको हू श्रावकके व्रत दिवाये। कपिलको जिनधर्मके विषय अनुरागी जान और हू अनेक ब्राह्मण समभाव थारते भए । मुनिसुव्रतनाथका मत पायकर अनेक सुबुद्धि श्रावक श्राविका मए पर जे कर्मनिके भारकर संयुक्त मानकर ऊंचा है मस्तक जिनका, वे प्रमादी जीव थोडे ही प्रायविणे पापकर घोर नरकविष जाय हैं। कैयक उत्तम ब्राह्मण सर्व संगका परित्यागकर मुनि भए, वैराग्य कर पूर्ण मनविर्ष ऐसा विचार किया यह जिनेन्द्रका मार्ग अब तक अन्य जन्ममें न पाया महा निर्मल अब पाया, ध्यानरूप अग्निविणे कर्मरूप सामिग्री भाव घृतमहित होम करेंगे सो जिनके परम वैराग्य उदय भया ते मुनि ही भए अर कपिल ब्राह्मण महा क्रियावान श्रावक भया, एक दिवस ब्राह्मणीको धर्मकी अभिलापिनी जान कहता भया–हे प्रिये ! श्रीरामको देखनेको रामपुरी काहे न चालें, कैसे हैं राम महापराक्रमी निर्मल है चेष्टा जिनकी, अर कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके, सर्व जीवनिके दयालु भव्य जीवनिपर है वात्सल्य जिनका, जे प्राणी आशामें तत्पर नित्य उपायविणे है मन जिनक', दारिद्ररूप समुद्र में मग्न, उदर पूर्णाविषं असमर्थ, तिनको दारिद्ररूप समुद्रते पार उतार परमसम्पदाको प्राप्त करे हैं या भांति कीति जिनकी पृथ्वीमें फैल रही है महामानन्दकी करणहारी तात हे प्रिये उठ भेंट लेकर चलें अर मैं सुकुमार बालकको कांधे लूंगा। ऐसा ब्राह्मणीको कह तैसे ही कर दोऊ हर्णके भरे उज्ज्वल भेषकर शोभित रामपुरीको चाले । सो उनको मार्गमें नाग मार दृष्टि आए, बहुरि वितर विकराल वदन अट्टहास करते दृष्टि आए। इत्यादि भयानक रूप देख ये दोऊ निकंप हृदय होयकर या भांति भगवानकी स्तुति करते भए, श्रीजिनेश्वरदेवके ताई निरंतर मन वचन कायकर नमस्कार होहु । कैसे हैं जिनवर १ त्रैलोक्यकर वंदनीक हैं। संसारकीचसे पार उतारे हैं, परम कल्याणके देनहारे हैं, यह स्तुति पढते ये दोऊ चले जावें हैं इनको जिनभक्त जान यक्ष शांत होगए, ये दोऊ जिनालयमें गए, नमस्कार होहु जिनमदिरको। ऐसा कह दोऊ हाथ जोड कर चैत्यालयकी प्रदक्षिणा दई अर अंदर जाय स्तोत्र पढते भए-हे नाथ ! महाकुगतिका दाता मिध्यामार्ग ताहि तजकर बहुत दिनोंमें विहारा शरण गहा। चौबीस तीर्थकर भतीत कालके, अर चौबीस वर्तमान कालके पर चौबीस अनागत कालके, तिनको मैं बंदू हमर Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेतीसर्वा पवं २६५ पंचभरत पंच ऐरावत पंच विदेह ये पन्द्रह कर्मभूमि तिनसे जे तीर्थकर भए अब होवेंगे तिन सबको हमारा नमस्कार होह, संसार समुद्रसूतिरें ऐसे श्रीमुनि सुव्रतनाथके ताई नमस्कार होहु, तीन लोकमें जिनका यश प्रकाश करे है, या भांति स्तुति कर अष्टांग दण्डवतकर ब्राह्मण स्त्री सहित श्रीरामके अवलोकनको गए। मार्गमें बडे २ मंदिर महाउद्योतरूप ब्राह्मणीको दिखाए अर कहना भया-ये कुन्दन के पुष्प समान उज्ज्वल सर्व कामना पूर्ण नगरीके मध्य रामके मन्दिर हैं, जिनकर यह नगरी स्वर्ग समान शोभे है । या भांति वार्ता करता ब्राह्मण राजमन्दिरमें गया । सो दूर होते लक्ष्मण को देख व्याकुलताको प्राप्त भया, चित्तमें चितारे है-वह श्याम सुन्दर नीलकमल समान प्रभा जाकी, मैं अज्ञानी दुष्ट वचननिकरि दुखाया सो मोहि त्रास दीनी । पापिनी जिह्वा महादुष्टिनी काननको कटुक वचन भाषे, अब कहा करू? कहां जाऊ? पृथ्वीके छिद्र में वै; अब मोहि शरण कौनका १ जो मैं यह जानता अक ये यहां ही नगगे बसाए रहे हैं तो मैं देश त्यागकर उत्तर दिशाको चला जाता, या भांति विकल्परूप होय ब्राह्मणी को तज ब्राह्मण भागा सो लक्ष्मण ने देखा तब हंसकर रामको कहा वह ब्राह्मण आया है अर मृगकी नाई व्याकुल होय मोहि देख भागे है तब राम बोले, याको विश्वास उपजाय शीघ्र लावो। तब सेवकजन दौड़े, दिलासा देय लाए डिगता पर कांपता आया, निकट आय भय तज दोऊ भाइनके आगे भेट मेल स्वस्ति ऐसा शब्द कहता भया अर अतिस्तवन पढता भया तब राम बोले-हे द्विज ! तैं हमको अपमानकर अपने घरते काढ़े हुते अब काहे पूजे है। तब विप्र बोला-हे देव, तुम प्रच्छन्न महेश्वर हो, मैं अज्ञानते न जाने तातै अनादर किया जैसे भस्मते दबी अग्नि जानी न जाय, हे जगन्नाथ, या लोक की यही रीति है, थनवानको पूजिए है। सूर्य शीतऋतु तापरहित होय है सो तासे कोई नाही शंके है, अब मैं जाना तुम पुरुषोत्तम हो । हे पद्मलोचन ! ये लोक द्रव्यको पूजे हैं, पुरुषको नाहीं पूजे हैं। जो अर्थकर युक्त होय ताहि लौकिकजन माने हैं पर परम सज्जन है अर धनरहित. है तो ताहि निप्रयोजन जन जान न माने हैं। तब राम वोले, हे विप्र ! जाके अर्थ ताके मित्र जाके अर्थ ताके भाई जाके अर्थ सोई पंडित, अर्थ बिना न मित्र न सहोदर जो अर्थकर संयुक्त है, ताके परजन हू निज होय जाय हैं अर धन वही जो थर्मकरयुक्त अर धर्म वही जो दयाकर युक्त भर दया वही जहां मांस का भोजन त्याग जब सब जीवनिका मांस तजा, तब अभक्ष्यका स्याग कहिए ताकै और त्याग सहज ही होय, मांसके त्याग बिना और त्याग शोभे नाहीं। ये पचन रामके सुन विप्र प्रसन्न भया पर कहता भया-हे देव ! जो तुम सारिखे पुरुषनिको महापुरुष पूजिए हैं तिनका भी मूढ लोक अनादर करे हैं । आगे सनत्कुमार चक्रवर्ती भए । बड़ी ऋद्धिके धारी महारूपवान जिनका रूप देव देखने आए, सो मुनि होयकर आह रको ग्रामादिकविषै गए । महाआचार प्रवीण सो निरंतराय भिक्षाको न प्राप्त होते भए, एक दिवस विजयपुर नाम नगरविषै एक निर्धन मनुष्यके आहार लिया, याके पंच आश्चर्य भए । हे प्रभो ! मैं मंद. भाग्य तुम सारिखे पुरुषनिका आदर न किया सो अव मेरा मन पश्चातापरूप अग्निकरि तपे है, Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६६ प-पुराण तुम महारूपवान तुमको देखे महाक्रोधीका क्रोध जाता रहे अर आश्चर्यको प्राप्त होय ऐसा कह कर सोचकर गृहस्थ कपिल रुदन करता भया । तब श्रीरामने शुभवचनते संतोषा अर सुशमी ब्राह्मणीको जानकी संतोषती भई बहुरि राघवकी आज्ञा पाय स्वर्णके कलशनिकरि सेवकनिने द्विजको स्त्रीसहित स्नान कराया अर आदरसों भोजन कराया । नानाप्रकारके वस्त्र अर रत्ननिके आभूषण दिए, बहुत धन दिया। सो लेकर कपिल अपने घर आया। मनुष्यनिको विस्मयका करणहारा धन याके भया। यद्यपि याके परविर्षे सब उपकार सामग्री अपूर्व है तथापि या प्रवीणका परिणाम विरक्त घर वर्ष श्रासक्त नाहीं, मनविष विचारता भया-आगे मैं काष्ठके भारका वहनहारा दरिद्री हुता, सो श्रीरामदेवने तृप्त किया। याही ग्रामविष मैं सोषित शरीर अभूषित हुता सो रामने कुवेर समन किया। चिंता दुखरहित किया । मेरा घर जीर्ण तृणका जाके अनेक छिद्रक दि अशुचि पक्षिनिकी बीटकर लिप्त अब रमके प्रसादकरि अनेक स्वर्णके महिल भए, बहुन गोधन बहुत धन काहू वस्तुकी कमी नाहीं। ह य २ मैं दुर्बुद्धि कहा किया ? वे दोऊ भाई चन्द्रमा समान बदन जिनके, कमल नेत्र मेरे घर आए हुने, ग्रीष्मक आतापकरि तप्तायमान सीता सहित, सो मैंने घरते निकासे । या बातकी मेरे हृदयविष महाशल्य है, जब लग घरविष बसू हूं तत्र लग खेद मिटे नाहीं, तातें गृहारम्भका परित्यागकर जिनदीक्षा आदरू। जब यह विचारी, तब याको वैराग्यरूप जान समस्त कुटुंबके लोक अर सुशमी ब्राह्मणी रुदन करते भए तब कपिल सबको शोकसागरविणे मग्न देख निर्ममत्व बुद्धिकरि कहता भया । कैसा है कपिल ? शिव सुखविणे है अभिलाषा जाकी, हो प्राणी हो, परिवार के स्नेहकरि अर नानाप्रकारके मनोरथनिकरि यह मूढ जीव भव तापकर जरे हैं, तुम कहा नहीं जानो हो ? ऐसा कह महा विरक्त होय दुखकर मूर्छित जो स्त्री ताहि तन पर सब कुटुंबको. तज, अठारह हजार गाय अर रत्ननिकर पूर्ण घर अर घरके बालक स्त्रीको सौंप आप सवारम्भ तज दिगम्बर भया। स्वामी अनंतमतिका शिष्य भया। कैसे हैं अनंतमति ? जगतविणे प्रसिद्ध तपोनिधि गुण शीलके सागर यह कपिल मुनि गुरुकी आज्ञा प्रमाण महातप करता भया । सुन्दर चरित्रका भार थर परमार्थ विर्ष लीन है मन जाका, वैराग्य विभूतिकर अर साधुपदकी शोभाकर मंडित है शरीर जाका। सो जो विवेकी यह कपिलकी कथा पढ़े सुने ताहि अनेक उपनासनिका फल होय सूर्य समान ताकी प्रभा होय ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै देवानिकर नगर बसावना अर कपिल ब्राह्मणका वैराग्य वर्णन करनेवाला पैंतीसना पर्न पूर्ण भया ॥ ३५ ॥ अथानन्तर वर्षा ऋतु पूर्ण भई । कैसी है वर्षा ऋतु, श्याम घटाकरि महा अंधकाररूप जहां मेष जल असराल वरसे अब विजु रनिके चमत्कार कर भयानक वर्षाऋतु व्यतीत भई, शरद ऋतु प्रकट भई दशों दिशा उज्वल भई तब वह यक्षाधिपति श्रीरामम् कहता मया-कैसे हैं श्रीराम ? चलवेका है मन जिनका, यक्ष कहे है-हे देव, हमारी सेवामें चूक होय सो क्षमा करो। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसगा परी २७ तुम सारिखे पुरुषनिकी सेवा करनेको कौन समर्थ है तब राम कहते भए--हे यक्षाधिपते, तुम सब बातोंके योग्य हो अर तुम पराधीन होय हमारी सेवा करी सो क्षमा करीयो । तब इनके उत्तम भाव विलोकि अति हर्षित भया नमस्कारकर स्वयंप्रभ नामा हार श्रीरामकी भेट किया । महा अद्भुत अर लक्ष्मणको मणिकुण्डल चांद सूर्य सारिखे भेट किये । अर सीताको कुशला नामा चूडामणि महा देदीप्यमान दिया पर महामनोहर मनयांछित नाद की करनहारी दैवोपुनीत वीणा दई ते अपनी इच्छाते चाले। तब यक्षराजने पुरी संकोच लई अर इनके जायबे का बहुत शोच किया अर रामचन्द्र यक्षकी सेवा करि अति प्रसन्न होय आगे चले, देवों की न्याई रमते नाना प्रकार की कथाविगै आसक्त, नानाप्रकार के फलन के रसके भोक्ता पृथिवी पर अपनी इच्छा सूमते, मृगराज तथा गजराजनि करि भरा जो महा भयानक वन ताहि उलंघ विजयपुर नामा नगर भाए, ता समय सूर्य अस्त भया । अन्धकार फेला आकाश विष नक्षत्रनिके समूह प्रकट भए, नगरते उत्तर दिशा की तरफ न अति निकट न अति दूर कायर लोगनि को भयानक जो उद्यान यहां विराजे॥ अथानन्तर नगर का राजा पृथिवीधर जाके इन्द्राणी नामा राणी स्त्रीके गुणनि करि मंडित वाके वनमाला नामा पुत्री महा सुन्दर सो बाल अवस्था ही ते लरमण के गुख सुन अति आसक्त भई। बहुरि सुनी दशरथ ने दीचा धरी अर केकईके वचनते भरत को राज्य दिया, राम लक्ष्मण परदेश निकसे है ऐसा विचार याके पिताने कन्याको इन्द्रनगरका राजा ताका पुत्र जो बालमित्र महा सुन्दर ताहि देनी विचारी सो यह वृत्तांत वनमाला सुना, हृदय विगै बिराजे हैं लक्ष्मण जाके, तब मन विष विचारी-कंठफांसी लेय मरणा भला परन्तु अन्य पुरुषका सम्बन्ध शुभ नाहीं, यह विचार सूर्यम् संभाषण करती भई-हे भानो! अब तुम अस्व होय जावो शीघ ही रात्रिको पठावहु अब दिनका एक क्षण मोहि वर्ष समान बीते है सो मानों याके चितवन कर सूर्य अस्त भया, कन्या का उपवास है, मन्ध्या समय माता पिता की आज्ञा लेय श्रेष्ठरय विष चढ़ बन यात्रा का बहाना कर रात्रि विष तहां आई जहां राम लक्ष्मण तिष्ठे हुने सो याने आन कर ताही वन विष जागरण किया। जब सकल लोक सो गए तब यह मन्द मन्द पैर थरती बनकी मृगी समान डेराते निकस वन विष चली सो यह महासती पधिनी ताके शरीरकी सुगन्ध ता कर वन सुगन्धित होय गया तब लक्ष्मण विचारता भया यह कोई राजकुमारी महा श्रेष्ठ मानों ज्योतिकी मूर्ति ही है सो महाशोकके भार कर पीडित है मन जाका यह अपघात कर मरण वांछ है सो मैं याकी चेष्टा छिपकर देखू ऐसा विचारकर किसकर बट के वृक्ष तले बेठा मानों कौतुक युक्त देव कल्पवृक्षके नीचे बैठे। ताही बट के तले हंसनी की सी चाल जाकी पर चन्द्रमा समान है बदन जाका, कोमल है अङ्ग जाका ऐसी वनमाला आई जल माला वस्त्रकर फांसी बनाई अर मनोहर बाणीकर कहती भई-हो या वृक्षके निवासी देवता कुपाकर मेरी बात सुनहु । कदाचित बनविष विचरता लक्ष्मण आवे तो तम ताहिये Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAAAAAdd २१८ पा-पुराण कहियो जो तुम्हारे विरह करि महा दुःखित बनमाला तुमविष चित्त लगाय वट के च विगै वस्त्रकी फांसी लगाय मरण को प्राप्त भई हमने देखी अर तुमको यह सन्देशा कहा है जो या भवविणै तो तुम्हारा संयोग मोहि न मिला अब पर भव विणे तुमही पति हजियो यह वचन कह वृक्ष की शाखासों फांसी लगाय आप फांसी लेने लगी, ताही समय लक्ष्मण कहता भयाहे मुग्धे ! मेरी भुजाकर आलिंगन योग्य तेरा कंठ फांसी काहेको डारे है ? हे सुन्दरबदनी, परमसुन्दरी ! मैं लक्ष्मण हूं जैसा तेरे श्रवणविणे आया है तैसा देख अर प्रतीति न आवै तो निश्चय कर लेहु । ऐसा कह ताके कर से फांसी हर लीनी जैसे कमलथकी झागोंके समूहको दूर करे, तब वह लज्जाकरयुक्त प्रेमकी दृष्टिकर लक्ष्मण को देख मोहित भई । कैसा है लक्ष्मण ! जगतके नेत्रनिका हरणहारा है रूप जाको, परम श्रोश्चर्यको प्राप्त भई । चित्तविणे चिंत है यह कोई मोपर देवनि उपकार किया, मेरी अवस्था देख दयाको प्राप्त भए जैसा मैं सुना हुता तैसा दैवयोगते यह नाथ पाया। जाने मेरे प्राण बचाए ऐमा चितवन करती वनमाला लक्ष्मणके मिलापते अत्यन्त अनुरागको प्राप्त भई ॥ अथानन्तर महासुगन्ध कोमल सांथरेपर श्रीरामचन्द्र पौड़े हुते सो जागकर लपण को न देख जानकीको पूछते भए-हे देवी! यहां लक्ष्मण नाहीं दीखे है, रात्रिके समय मेरे सोवनेको पुष्प पल्लवनि का कोमल सांथरा विछाय आप यहां ही तिष्ठता हुता सो अब नाहीं दीखे है। तब जानकीने कही-हे नाथ ! ऊचा स्वरकर बुलाय लेवो, सब आप शब्द किया । हे भाई! हे लक्ष्मण, हे बालक, कहां गया ? शीघ्र आवहु । तब भाई बोला-हे देव, आया, बनमाला सहित बड़े भाईके निकट आया। आधी रात्रि का समय चंद्रमाका उदय भया, कुमुद फूले. शीतल मंद सुगंध पचन बाजने लगी । ता समय बनमाला कोपल समान कोमल कर जोड वख कर बेढा है सर्व अंग जाने, लज्जाकर नम्रीभूत है मुख जाका, जाना है समस्त कर्तव्य जाने, महाविनयको थरती श्रीराम अर सीताके चरणारविदको बन्दती भई । सीता लक्ष्मण को कहती भई-हे कुमार, तैंने चंद्रमाकी तुल्यता करी । तब लक्षण लज्जाकर नीचा होय गया, श्रीराम जानकीते कहते भए-तुम कैसे जानी ? तब कही हे देव, जो समय चन्द्रका उद्योत भया ताही समय कन्यासहित लक्ष्मण आया तब श्रीराम सीताके वचन सुन प्रसन भए । अथानन्तर वनमाला महाशुभ शील इनको देख आश्चर्य की भरी प्रसन्न है मुख चन्द्रमा जाका, फल रहे हैं नेत्रकमल जाके, सीताके समीप बैठी अर दोऊ भाई देवनि समान महासुन्दर निदारहित सुखते कथा वार्ता करते तिष्ठे हैं अर बनमालाकी सखी जागकर देखे तो सेज सूनी, कन्या नाहीं। तब भयकर खेदित भई अर महाव्याकुल होय रुदन करती भई ताके शब्दकर योधा जागे, आयुध लगाय तुरंग चढ दशों दिशाको दौड़े अर पयादे दौड़े। बरछी भर धनुष हैं हाथमें जिनके, दशों दिशा दढी । राजाका भय अर प्रीतिकर संयुक्त है मन जाका, ऐसे दौड़े मानों पवनके बालक हैं तब कैयक या तरफ दौड़े आए बनमालाको वनयिष राम लक्ष्मणके समीप बैठी देख बहुत हर्षित होय जायकर राजा पृथ्वीधरको बधाई दई भर कहते भए-हे देव, Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसरा पर्व जिनके पावनेका बहन यत्न करिये तो भी न मिले वे सहज ही आए हैं, प्रभो, तेरे नगर में महानिधि आई, विना बादल आकाशते वृष्टि भई, क्षेत्रवि बिना बाहें धान ऊगा। तिहास जमाई लक्ष्मण नगरके निकट तिष्ठ है जाने बनमाला प्राण त्याग करती बचाई अर राम तिहारे परमहितु सीतासहित विराजे हैं जैसे शचीसहित इंद्र विराजे । ये बचन राजा सेवकनिके सुनकर महा हर्षित होय पण एक मूर्छित होय गया। बहुरि परम आनन्दको प्राप्त होय सेवकनिको बहुन थन दिया अर मनविणे विचारता भया मेरी पुत्री का मनोरथ सिद्ध भया। जीवनिके धनकी प्राप्ति पर इष्टका समागम और हू मुखके कारण पुण्यके योगकरि होय हैं। जो वस्तु सैकडों योजन दर पर श्रवणमें न आवे सो हू पुण्याथिकारीके क्षणमात्रविष प्राप्त होय है और जे प्राणी दुःखके भोक्ता पुण्यहीन हैं तिनके हाथसे इष्टवस्तु विलाय जाय है। पर्वतके मस्तक पर तथा वनविष सागरविष पंथविर्षे पुण्याधिकारिनके इष्टवस्तु का समागम होय है । ऐसा मनविष चितवनकर स्त्रीते समस्त वृत्तांत कहा, स्त्री बारम्बार पूछे है यह जाने मानों स्वप्न ही है, बहुरि रामके अधर समान आरक्त सूर्यका उदय भया । तर राजा प्रेमका भरा सर्व परिवारसहित हाथीपर चढकर परम कांतियुक्त रामसं मिलने चला अर वनमालाकी माता प्राप पुत्रिनिसहित पालकीपर चढकर चली सो राजा दूर हीते श्रीरामा स्थानक देखकर बज गए हैं नेत्र कमल जाके, हाथीते उतर समीप पाया। श्रीराम और लक्ष्मण मिला और बाकी रानी सीता के पायन लागी अर कुशल पूछती भई, बीणा बांगुरी मृदंगादिक के शब्द होते भए, बंदीजन विरद बखानते भए, बडा उत्सव भया, राजाने लोकनिको बहुत दान दिया। नृत्य होता भया, दशों दिशा नादकर शब्दायमान होती भई, श्रीराम लक्ष्मणको स्नान भोजन कराया। बहुरि घोड़े हाथी रथ तिनपर चढे अनेक सामन्त भर हिरण समान कूदते प्यादे तिन सहित राम लक्ष्मणने हाथीपर चढ़े संते पुरविष प्रवेश किया, राजाने नगर उछाला महाचतुर मागध विरद बखाने हैं, मंगल शब्द करै हैं, राम लक्ष्मणने अमोलिक वस्त्र पहरे हारकर विराजे है वक्षस्थल जिनका, मलियागिरिक चंदनते लिप्त है अङ्ग जिनका, नानाप्रकारके रत्ननिकी किरणनिकरि इन्द्रधनुष होय रहा है । दोऊ भाई चांद सूर्य सारिखे नाहीं वरणे जावें हैं गुण जिनके, सौधर्म ईशान सारिखे जान सहित लोकनिको आश्चर्य उपजावते राजमंदिर पधारे, श्रेष्ठमाला धरे सुगंधकर गुंजार करै हैं भ्रमर जापर, महाविनयवान चंद्रवदन इनको देख लोक मोहित भए। कुवेरकासा किया जो वह सुन्दर नगर वहाँ अपनी इच्छाकरि परम भोग भोगत भए । या मांति सुकृतमें है चित्त जिनका, महागहन वनविणे प्राप्त भए हू परम विलास को अनुभवे हैं । सूर्य समान है कांति जिनकी, वे पापरूप तिमिरको हरै ई निज पदार्थक लामते मानन्दरूप हैं । इति श्रीरविषेमाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा बचनिकाविप बनमाला का लाभ वर्णन करनेबाला बचीसवां पर्व पूर्ण भयो ।॥ २६ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० पा-पुराण अथानंतर एक दिन श्रीराम सुखसे विराजे हुते, अर पृथिवीधर भी समीप बैठा हुना, ता समय एक पुरुष दूरका चला महा खेदखिन्न आय कर नम्रीभूत होय पत्र देता भया। सो राजा पृथिवीधरने पत्र लेय कर लेखकको सौंपा लेखकने खोलकर राजाके निकट बांचा तामें या मांति लिखा हुता कि इंद्र समान है उत्कृष्ट प्रभाव जाका महालक्ष्मीवान् नमे हैं अनेक राजा जाको श्रीनन्द्यावर्त नगरका स्वामी महाप्रबल पराक्रमका धारी सुमेरुपर्वतसा अचल प्रसिद्ध शखशास्त्रविष प्रवीण सय राजनि का राजा महाराजाधिराज प्रताप कर बश किये हैं शत्रु पर मोहित करी है सकल पृथिवी जाने, सूर्य समान महाबलवान् समस्त कर्तव्यविष कुशल महानीतिवान् गुणनिकरि विराजमान श्रीमान् पृथिवीका नाथ महाराजेंद्र अतिवीर्य सो विजय नगरविर्ष पृथिवीधरको कुशल क्षेम प्रश्न पूर्वक आज्ञा करे है कि जे पृथिवीपर सामंत हैं के भण्डार सहित अर सर्व सेना सहित मेरे निकट प्रवरते हैं, आर्य खण्डके भर म्लेच्छ खंडके चतुरंग सेना सहित नानाप्रकारके शस्त्रनिके धारणहारे मेरी आज्ञाको शिरपर धारे हैं अंजनगिरि सारिखे पाउस हाथी अर पवनके पुत्रसम तीनहजार तुरंग अनेक रथ अनेक पयादे तिन सहित महापराक्रमका धारी महातेजस्वी मेरे गुणनिसे खींचा है मन जाका ऐसा राजा विजयशार्दूल आया है भर अंग देशके राजा मगध्वज रणोमि कलभ केशरी यह प्रत्येक पांच पांच हजार तुरंग अर बैसो हाथी अर रथ पयादे गिन सहित आये हैं, महाउत्साहके थारी महा न्यायविष प्रवीण है बुद्धि जिनकी अर पंचालदेशका राजा पौडू परम प्रतापको थरता न्याय शास्त्रविष प्रवीण अनेक प्रचंड बलको उत्साह रूप करता हजार हाथी अर सातहजार तुरंगनिते पर रथ पयादनिकारि युक्त हमारे पास आया है अर मगधदेशका राजा सुकेश बडी सेनाम् आया है अनेक राजानि सहित जैसे सैकडों नदिनिके प्रवाहनिको लिये रेवाका प्रवाह समुद्रविणे आवे, तैसे ताके संग काली घटा समान आठ हजार हाथी अनेक रथ पर तुरंगनिके समूह हैं, पर वजूका आयुध धारे है भर म्लेच्छोंके अधिपति सुभद्र मुनिभद्र साधुभद्र नंदन इत्यादि राजा मेरे समीप आये हैं, वजथर समान अर नाही निवारयाजाय पराक्रम जाका ऐसा राजा सिंहवीर्य आया है अर राजा बंग भर सिंहस्थ ये दोऊ हमारे मामा महाबलवान बडो सेनासू आए हैं अर वत्सदेशका स्वामी मारुदर अनेक पयादे अनेक रथ अनेक हाथी अनेक घोडनिकरि युक्त आया है अर राजा प्रौखल सौवीर सुमेरु सारिखे अचल प्रबल सेनाते आए हैं । ये राजा महापराक्रमी पृथिवीपर प्रसिद्ध देवनि सारिखे दस अक्षोहिणी दल सहित आए तिन राजानि सहित मैं बडे कटकते अयोध्याके राजा भरत पर चढ़ा हूं। सो तेरे प्रायवेकी बाट देख हूं तातें आज्ञा पत्र पहुंचते प्रमाण पयानकर शीघ्र आइयो किसी कार्यकर विलम्ब न करियो जैसे किसान वर्षाकू चाहे तैसे मैं तेरे आगमनको चाहूं हूं। या भांति पत्र के समाचार लेखकने बांचे तव पृथिवीधरने कछू कहनेका उद्यम किया तास् पहिले लक्ष्मण बोले--अरे दूत ! भरतके अर अतिवीर्यके विरोध कौन कारणते मया। तब वह वायुगत नामा दूत कहता भया । मैं सब बातोंका मरमी हूं सब चारित्र जानू हूं तब सरमण बोले हमारे सुननेकी इच्छा है वाने कहीं आपको सुननेकी इच्छा है तो सुनो एक श्रतिपद Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैंतीसा पर्व नामादत हमारे राजा अतिवं यने भरतपर भेजा सो जायकर कहता भया. इंद्र तुल्य राजा अतिवीय का मैं दूत हूं प्रणाम करे हैं समस्त नरेंद्र जाको न्यायके थाने वो महा बुद्धिवान सो पुरुष निवि सिंह समान जाके भयते अरि रूप मृग निद्रा नाहीं करे हैं। ताके यह पृथिवी बनिता समान है, पृथिवी चार तरफके समुद्र मोई है कटिमेखला जाके जैसे परणी स्त्री अाज्ञाविणे होय तैसे समस्त पृथीवी आज्ञाके वश है सो पृथिवीपति महा प्रबल मेर मुख होय तुमको आज्ञा करे है कि हे भरत, शीघ्र आयकर मेरी सेवा करो, अथवा अयोध्या तज, समुद्रके पार जावी । ये वचन सुन शत्रुघ्न महा क्रोघरूप दावानल समान प्रज्वलित होय कहता भया-अरे दूत ! तोहि ऐसे वचन कहने उचित नाहीं। वह भरतकी सेवा करे अक भरत ताकी सेवा करे अर भरत अयोध्याका भार मंत्रीनिको सौंप पृथिवीके वश करनेके निमित्त स्मुद्रके पार आय अक और भांति जाय अर तेरा स्वामी ऐसे गर्वके वचन कहे है सो गर्दभ, माते हाथीकी न्याई गाजे है अथवा ताकी मृत्यु निकट है तातें ऐसे वचन कहे है अथवा वायुके वश है । राजा दशरथको वैराग्यके योगते तपोवनको गए जान वह दुष्ट ऐसी बात कहे है । सो यद्यपि तातकी क्रोधरूप अग्नि मुक्तिकी अभिलाषाकर शांत भई, तथापि पिताकी अग्निसे हम स्फुलिंग समान निकसे हैं सो अतिवीर्यरूप काष्ठको भस्म करने समर्थ हैं। हाथीनिके रुधिररूप कीच कर लाल भए हैं केश जाके ऐसा जो सिंह सो शांत भया, तो ताका बालक हाथिनिके निपात करने समर्थ है। ये वचन कह शत्रघ्न बलता जो वासोंका वन ता समान तडाडाल कर महाक्रोधायमान भया । अर सेवकोंको आज्ञा करी जो या दूतको अपमान कर काढ देवो, तब आज्ञा प्रमाण सेवकोंने अपराधीको स्वानकी न्याई तिरस्कारकर काढ़ दिया, सो पुकारता नगरीके बाहिर गया। धूलिकरि धूपरा है अंग जाका दुरवचनकरि दग्ध अपने थनी पैजाय पुकारा, अर राजा भरत समुद्र समान गम्भीर परमार्थका जाननहारा अपूर्व दुर्वचन मुन कछू एक कोषको प्राप्त भयो । भरत शत्रुघ्न दोऊ भाई नगरते सेनासहित शत्रुपर निकसे अर मिथला नगरीका धनी राजा जनक अपने भाई कनक सहित बड़ी सेनासू आय भेला भया अर सिंहोदरको आदि दे अनेक राजा भरतसे आय मिले, भरत बडी सेना सहित नन्द्यावर्त पुरके धनी अतिवीर्यपर चढा, पिता समान प्रजाकी रक्षा करता संता, कैसा है भरत न्यायविष प्रवीण है अर राजा अतिवीर्य भी इतके पचन सुन परम क्रोधको प्राप्त भया, क्षोभको प्राप्त भया जो समुद्र ता समान भयानक सर्व सामंतनिकरि मंडित भरतके ऊार जागवे को उद्यमी भया है । यह समाचार सुन श्रीरामचन्द्र अपना ललाट दूजके चन्द्रमा समान वक्रकर पृथिवीयर कहते भए । जो अतिवीर्यको भरतते ऐसा करना उचित ही है क्योंकि जाने पिता समान बडे भाईका अनादर किया तब पृथिवीधरने रामसे कही-वह दुष्ट है हम प्रबल जान सेवा करे हैं । तब मंत्रकर अतिवीयको जुबाब लिखा, कि मैं कागदके पीछे ही आऊ हूं अर दूतको विदा किया। बहुरि श्रीराम कहता भया अतिवीर्य महाप्रचंड है नाते मैं जाऊहूँ। तब श्रीरामने कही तुम तो यहां ही रहो अर मैं तिहारे पुत्रको भर तिहारे जवाई लक्ष्मणको ले अतिवीर्यके समीप जावगा। ऐसा कहकर रथपर चढ बढी सेना Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष-पुराण सहित पृथिवीधरके पुत्र को लार लेय सीता अर लक्ष्मण सहित नन्द्यावर्त नगरीको चले, सो शीघ्र गमनकर नगरके निकट जाय पहुंचे। वहां पृथिवीधरके पुत्रसहित स्नान भोजनकर राम लक्ष्मण अर सीता ये तीनों मंत्र करते भए : जानकी श्रीराम कहती भई--हे नाथ ! यबपि मेरो कहिवैका अधिकार नाही, जैसे सूर्य के प्रकाश होते नक्षत्रका उद्योत नाही, तथापि हे देव ! हितकी वांछाकर मैं कछु इक कहूँ हूँ जैसे बांसनितें मोती लेना तैसे हम सारिखनिते हितकी बात लेनी काहू एक बांस के बीडेवि मोती उपजे हैं। हे नाथ ! यह अतिवीर्य महासेनाका स्वामी क्रूरकर्मी भरतकर कैसे जीता जाय । तात याके जीतनेका उपाय शीघ्र चिंतवना, तुमसे पर लक्ष्मयते कोई कार्य असाध्य नाहीं तब लक्ष्मण बोले हे देवी! यह कहा कहो आज अथवा प्रभात इस अणुवी. र्यको मेरे कर हता ही जानो। श्रीरामके चरणारविंदकी जा रज ताकर पवित्र है सिर मेरा मेरे आगे देव भी टिक नाहीं सके, मनुष्य बुद्रतीर्य की तो कहा बात, जबतक सूर्य अस्त न होय ताते पहिले ही या चुद्रवीर्यको मूवा ही देखियो, यह लक्ष्मणके वचन सुन पृथिवीथरका पुत्र गर्जन कर ऐसे ही कहता भया । तब श्रीराम भौंह फेर त हि मनेकर लक्ष्मणसे कहते भए । महाथीरवीर है मन जाका हे भाई ! जानकीने कही सो युक्त है यह अतिवीर्य बलकर उद्धत है रणसंग्रामवि भरतके वश करनेका पात्र नाही, भरत याके दशवें भाग भी नाहीं । यह दावानल समान याका वह मतंग गज कहा करे, यह हाथिनिकरि पूर्ण घोडनिकर पूर्ण रथ पयदानिकर पूर्ण याको जीतने समर्थ भरत नाहीं जैसे केसरीहि महाप्रबल है परंतु विंध्याचल पर्वतके ढाहिवे समर्थ नाहीं, तैसे भरत याको जीते नाही, सेनाका प्रलय होवेगा । जहां निःकारण संगाम होय वहां दोनो पक्षानिके मनुष्यनिका क्षय होय अर यदि इस दुरात्मा अतिवीर्यने भरतको वश किया, तब रघुवंशीनिके कष्टका कहा कहना अर इन विषै संधि भी सूझे नाही, शत्रुघ्न अभिमानी बालक सो उद्धत वैरीसे दोष किया यह न्यायविष उचित नहीं । अन्धेरी रात्रिविष रौद्रभूत सहित शत्रुघ्नने दूरके दौरा जाय अतिवीर्यके कटकवि धाडा दिया, अनेक योधा मारे बहुत हाथी घोडे काम आए अर पवन सारिखे तेजस्वी हजारों तुरंग अर सातसै अंजनगिरि समान हाथी लेगया। सो तूने कहा लोगनिके मुखते न सुनी, यह समाचार अतिवीयें सुन महाक्रोधको प्राप्त भया अर अब महा सावधान है रखका अभिलाषी है अर भरत महामानी है सो यासो युद्ध छोड संधि न करे ताते तू अतिवीर्यको वशकर तेरी शक्ति सूर्यको भी तिरस्कार करने समर्थ है अर यहांते भरत हुनिकट है सो हमको श्रापान प्रकाशना जे मित्रको न जनाबें अर उपकार करें ते अद्भुत पुरुष प्रशंसा करने योग्य हैं। जैसे रात्रीका मेघ, या भांति मंत्रकर रामको अतिवीर्यके पकडनेकी बुद्धि अजी, रात्री तो प्रमाद रहित होय समीचीन लोगनिते कथाकर पूर्ण करी, सुखसों निशा व्यतीत भई, प्रात समय दोऊवीर उठकर प्रात क्रिया कर एक जिनमंदिर देखा, ताविर्ष प्रवेशकर जिनेंद्रका दर्शन किया, वहां आर्यिकानिका समूह विराजवा हुता तिनकी बंदना करी, अर आर्यिकानिकी जो गुरानी वरवर्भा महा शास्त्रकी वेत्ता सीताको याके समीप राखी, आप भगवान की पूजाकर लक्ष्मण सहित नृत्यकारणी स्त्रीका भेष कर लीलासहित राजमंदिरकी तरफ चाले, इंद्रकी अप्सरा तुल्य नृत्यकारणीको देख नगरके Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैतीसवा पर्व ३०३ लोक पाश्चर्यको प्राप्त भए । लार लागे । ये महा आभूषण पहिरे सर्व लोकके मन अर नेत्र हरते राजद्वार गए, चोवीस तीर्थकरनिके गुण गाए, पुराणोंके रहस्य बताए, प्रफुल्लित हैं नेत्र जिनके, इनकी ध्वनि राजा सुन इनके गुणनिका बैंचा समीप आया, जैसे रस्सीका बँचा जलकेविषै काष्ठका भार आवे, नृत्यकारणीने नुपके समीप नृत्य किया रेचक कहिये भ्रमण अंग मोडना, मुलकना, अवलोकना, भौंहोंका फेरना, मन्द मन्द हंसना, जंघा बहुरि करपल्लर तिनका इलावना, पृथिवीको स्पर्शि शीघ्र ही पगनिका उठावना, रागका दृढ करना, केशरूप फांसका प्रवतना, इत्यादि चेष्टारूप काम वाणनिकरि सकल लोकनिको पींधा । स्व निके ग्राम यथा स्थान जोडनेकरि भर वीणके बजाकर सबनिको मोहित किए, जहां नृत्यकी खडी रहे वहां सकल सभाके नेत्र चले जांय, रूपकर सबनिके नेत्र, स्घरकर सबनिके श्रवण , गुणकर सबनिके मन, बांध लिए ।। गौतमस्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! जहां श्रीराम लक्ष्मण नृत्य करें अर गावें बजावें तहां देवनिके मन हरे जाय तो मनुष्यनिकी कहा बात, श्री ऋषभादि चतुर्विशतितीर्थकरनिके यश गाय सकल समा वश करी, राजाको संगीतकर मोहित देख अंगार रसम बीर रसमें आए, आंख फेर भौंहें फेर महा प्रवल तेज रूप होय कहने भए हे अतिवीर्य ! तें यह कहा दुष्टता प्रारंभी तोहि यह मंत्र कोनने दिया, तें अपने नाशके निमित्त भरतसों रोिष उपजाया, जया चाहे तो महाविनयवानहोकर तिनको प्रसन्नकर, दास होय तिनके निकट जावो, तेरी रामी वड़े वंशकी उपजी कामक्रीडाकी भूमि विधवा न होय तोहि मृत्युको प्राप्त भए सब ग्राभूषण डार शोभारहित होयगी जैते चन्द्रमा विना रात्रि शोमा रहित होय, तेरा वित्त अशुभरि आया है सो चिचको फेर भरतको नमस्कार कर, हे नीच! या भांति न करेगा, तो बार ही मारा जायगा, राजा अनरण्यके पोता अर दशरथके पुत्र तिनके जीवते तू कैसे अयोध्याका गज्य चाहे है जैसे सूर्यके प्रकाश होते चन्द्रमाका प्रकाश कैसे होय ? जैसे पंतग दीपविष पड मूवा चाहे है तैसे तू मरण चाहे है। राजा भरत गरुड समान महाबली तिनते तू सर्पपमान निर्बल बगवरी करे है। यह पचन भरतकी प्रशंसाके पर अपनी निंदाके नृत्यकारिणीके मुखसे सुन सकल-सभा सहित प्रतिवीर्य क्रोधको प्राप्त भया, लाल नेत्र किए जैसे समुद्र की लहर उठे है तैसे सामंत उठे अर राजाने खड्ग हाथमें लिया, ता समय नृत्यकारिणीने उछल हाथसों खड्ग खोंस लिया अर सिरके केश पकड बांध लिया अर नृत्यकारिणी अतिवीर्यके पक्षी राजा तिनसों कहती भई, जीवनेकी बांछा राखो तो अतिवीर्यका पक्ष छोड भरतपै जाहु भरतकी ही सेवा करहु, तब लोकनिके मुखते ऐसी ध्वनि निकसी महा शोभायमान गुणवान भरत भूप जयवंत होऊ । सूर्य समान है तेज जाका न्यायरूप किरणनिके मंडलकर शोभित दशरथके वंशरूप आकाशविर चन्द्रमासमान लोकको आनन्दकारी जाका उदय थकी लसीरूप कुमुदनी विकासको प्राप्त होय, शत्रुनिके मातापते रहित परम आश्चर्यको करता संता, अहो यह बड़ा आश्चर्य जाकी नृत्यकारिणीकी यह चेष्टा जो ऐसे नृपतिको पकड लेय तो भरतकी शक्तिका कहा कहना १ इन्द्रह को जीते, हम इस प्रतिवीर्यसों भाय मिले, सो भरत महाराज कोप भए होंयगे न जानिये कहा करें। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ पी-पुराण अथवा वे दयावंत पुरुष हैं जाय मिलें पायन परें, कृपा ही करेंगे, ऐसा विचार अतिवीर्यके मित्र राजा कहते भए र श्रीराम अतिवीर्यको पकड हाथीपर चढ़ि जिनमंदिर गए । हाथी सूं उतर जिनमंदिरविषै जाय भगवान की पूजा करी, अर बरथर्मा आर्थिकाकी बंदना करी, बहुत स्तुति करी, रामने अतिवीर्य लच्णको सोंपा सो लक्ष्मणने केरा गह दृढ बांबा तब सीता कही- I यह ढोला करो पीडा मत देवो शांतता भजहु । कर्मके उदयते मनुष्य मति हीन हो जाय है. पदा मनुष्य में ही होय बडे पुरुष नि को सर्वथा परकी रक्षा ही करना, सत्पुरुषनिको सामान्य पुरुपका हू अनादर न करना, यह तो सहस्रराजानिका शिरोमणि है त याहि छोड देवो तुम. यह रश किया अब कृपा ही करना योग्य है । राजानिका यही धर्म है जो प्रबल शत्रु निको पकड छोड दें यह अनादि काल की मर्यादा है । जब या भांति सीता कही तब लक्ष्मण हाथ जोड प्रणाम कर कहता भया - हे देवी ! तिहारी आज्ञासे छोडवेकी कहा बात १ ऐसा करू जो देव याकी सेवा लक्ष्मणका क्रोध शांत भया तव अतिवीर्य प्रतिबोधको पाय श्रीराम कहता भया - हे देव ! तुम बहुत भला किया ऐसी निर्मल बुद्धि मेरी अबतक कबहू न भई हुती अथ तिहारे प्रतापते भई है । तत्र श्रीराम ताहि हार मुकटादिरहित देख विश्राम के वचन कहते भए कैसे हैं श्रीरघुबीर सौम्य है आकार जिनका, हे मित्र ! दीनता तज, जैसा प्राचीन अवस्था में धैर्य हुता, तैसा ही थर, बड़े पुरुपनि केही संपा पर आपदा दोऊ होय है । यत्र तोहि कुछ आपदा नहीं नंद्यावर्तपुरका राज्य भरतका आज्ञाकारी होकर कर, तब अतिवार्य कही मेरे अब राज्यकी वांछा नाहीं, मैं राज्यका फल पाया अब मैं और ही अवस्था धरूंगा । समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका वश करण हारा महामानका धारी जो मैं सो कैसा पराया से क हो राज्य करू या विषै पुरुषार्थ कहा और यह राज्य कहा पदार्थ ९ जिन पुरुषनि षट् खंडका राज्य किया वे भी तृप्त न भए । सा मैं पांचग्रामका स्वामी कहा अल्प विभूति कर तृप्त होऊंगा ? जन्मांतर किया जो कर्म ताका प्रभाव देखो, जो मोहिं कांतिरहित किया जैसे राहु चन्द्रमाको कांतिरहित को, यह मनुष्य देह सारभूत देवन हुते अधिक मैं खोई । नवां जन्म थरनेको कायर सो तुमने प्रतिबोध्या, श्रव मैं ऐसी चेष्टा करू जाकर मुक्ति प्राप्त होय या भांति कह कर श्रीरान लक्ष्मण को क्षमा कराय वह राजा अतिवीर्य केमरी सिंह जैसा है पराक्रन जाका, श्रुतधरनामा मुनीश्वरके समीप हाथ जोड नमस्कार कर कहता मयाहे नाथ ! मैं दिगम्बरी दीक्षा वांछू हूं। तब श्राचार्य कही यही बात योग्य हैं। या दीचाकर अनन्त सिद्ध भए अर होवेंगे तब प्रतिदीर्य वस्त्र तत्र केश निको लुंचकर महाव्रतका धारी भया । आत्माके अर्थविषै मग्न, रागादि परिग्रहका त्यागी विधिपूर्वक तप करता पृथिवीपर विहार करता भया । जहां मनुष्यनिका संचार नाहीं वहां रहे । सिंहादि क्रूर जीवनिकर युक्त जो महागहन वन अथवा गिरिशिखर गुफ दि निविषै निवास करे ऐसे अतिवीर्य स्वामीको नमस्कार होवे तजी है समस्त परिग्रहकी आशा जिनने पर अंगीकार किया है चारित्रका भार जिनने, महा शीलके धारक नानाप्रकार तपकर शरीर शोषणहारे प्रशंसा योग्य महामुनि सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र रूप सुन्दर हैं आभूषण भर दशों दिया ही वस्त्र जिनके, साधुनि के जे मूलगुण उत्तरगुण वे ही संपदा, कर्म करें, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतीसवा पर्व हरिवको उद्यमी संजमी मुक्ति के घर योगीन्द्रे तिनको नमस्कार होवे यह अतिवीर्य मुनिका चरित्र जो सुबुद्धि पहें सुने सो गुणोकी वृद्धिको प्राप्त होंय भानु समान तेजस्वी होंय और संसारके कष्ट से निवृत्त होय ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविष अतिगीर्य का नैराग्य गर्णन करनेबाला सैतीसग पर्ष पूर्ण भया ।। ३७ ।। अथाननर श्रीरामचन्द्र महा न्यायके वेत्ताने अतिवीर्यका पुत्र जो विजयरथ ताहि अमिषेक कराय पिताके पदपर थापा, त ने अपना समस्त वित्त दिखाया सो ताका ताको दिया अरं ताने अपनी बहिन रत्नमाला लक्ष्मण को देनी करी सो तिनने प्रमाण करी ताके रूपको देख लक्ष्मण हर्षित भए मानों साक्षात् लक्ष्मी ही है । बहुरि श्रीर म लक्ष्मण जिनेन्द्रकी पूजाकर पृथ्वी थरके विजयपुर नगरविष वापिस गए अर भरतने सुनी जो अतिवीर्यको नृत्यकारिणीने पकडा सो विरक्त होय दीक्षा धरो, तब शत्रुन्न हास्य करने लगा। तब ताहि मनेकर भरत कहते भएअहो भाई ! राजा अतिवीर्य महा धन्य हैं जे महादुखरूप विषयोंको तस शांति भावको प्राप्त भए वे महा स्तुति योग्य हैं तिनको हांसी कहा ? तपका प्रभाव देखो जो रिपु ह प्रणाम योग्य होय हैं, यह तप देवनि को दुर्लभ है या भांति भराने अतिवीर्य की स्तुति करी । ताही समय अतिवीर्यका पुत्र विजयरथ आया अनेक सामंत पहित सो भरतको नमस्कार कर तिष्ठा, क्षणिक और कथाकर जो रत्नमाला लक्ष्मण को दई ताकी बडी वहिन बिज सुन्दरी नाना प्रकार आभूषण की थरणहारी भरनको परणाई अर बहुत द्रव्य दिया सो भरत ताकी वहिन परण बहुत प्रसन्न भए । वि. जयस्थत बहुत स्नेह किया, यही बडेनिसी रीति है अर भरत महा हर्ष थकी पूर्ण है मन जाका तेज तुरंगपर चढकर अतिवीर्य मुनिके दर्शनको चला सो जा गिरिपर मुनि विराजे हुते वहां पहिले मनुष्य देख गए हुते सो लार हैं तिनको पूछते जाय हैं, कहाँ महामुनि ? कहां महामुनि ? वे कहै हैं आगे विराजे हैं । सो जा गिरिपर मुनि वहां जाय पहुंचे, कैसा है गिरि ? विषम पाषाणनिके समूहकरि महा अगम्य अर नाना प्रकारके वृक्ष निकारि पूर्ण पुष्पनिकी सुगन्ध कर महा सुगन्धित अर सिंहारिक क्रूर जीवनिकरि भरा, सो राजा भरत अश्वते उनर महाविनयवान मुनिके निकट गए। कैन हैं मुनि ? रागद्वप रहित हैं। शांत भई हैं इंद्रियां जिनकी, शिलापर विराजमान निभय अकेले जिनकल्पी अतिवीर्य मुनींद्र महा तपस्वी ध्यानी मु नपदकी शोभाकरि संयुक्त तिनको देख भरत आश्चर्यको प्राप्त भया । फूल गए हैं नेत्र कमल जाके, रोमांच होय आए । हाथ जोड नमस्कार कर साधुके चरणारविंदकी पूजाकर महा नम्रीभूत होय मुनि भक्तिविषे है प्रेम जाका, सो स्तुति करता भया-हे नाथ ! परमतचके वेत्ता तुम ही या जगतविषे शरवीर हो, जिनने यह जैनेंद्री दीक्षा महादुर धारी । जे महन्त पुरुष विशुद्ध कुल में उत्पन्न भए हैं तिनकी यही चेष्टा है । मनुष्य लोकको पाय जो फल बडे पुरुष बांछे हैं सो आपने पाया भर Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ पग-पुराण हम या जगतकी मायाकरि अत्यंत दुखी हैं । हे प्रभो! हमारा अपराध क्षमा करहु, तुम कृनार्थ हो पूज्य पदको प्राप्त भए । तुमको बारंबार नमस्कार होहु ऐसा कहकर तीन प्रदिक्षणा देय हाथ जोड नमस्कारकर मुनि संबंधो कथा करता संता गिरिते उतर तुरंगपर चढ हजारों सुभटनिकर संयुक्त भयोध्या पाया । समस्त राजानिके निकट सभामें कहा कि वे नृत्यकारिणी समस्त लोकनिके मनको मोहित करती अपने जीवितविष हू निर्लोभ प्रबल नृपनिको जीतनहारी कहां गई ? देखो पाश्चर्यकी बात, अतिवीर्यके निकट मेरी स्तुति करें पर ताहि पकडे, स्त्रीवर्गविष ऐमी शक्ति कहांते होय १ जानिए है जिनशासनकी देविनिने यह चेष्टा करी । ऐसा चितवन करता संता प्रसमा चित्त भया अर शत्रुघ्न नाना प्रकारके थान्यकर मंडित जो धरा ताके देखनेको गया, जग. तविष व्याप्त है कीर्ति जाकी, बहुरि अयोध्या पाया, परम प्रतापको धरे अर राजा भरत अतिवीर्यकी पुत्री विजयसुन्दरी सहित सुख भगता सुखसों तिष्ठे जैसे सुलोचना सहित मेघेसर तिष्ठा पह तो कथा यहां ही रही आगे श्रीराम लक्ष्मणका वर्णन करे हैं। अथानन्तर राम लक्ष्मण सर्व लोकको आनन्द के कारण कैपक दिन पृथ्वीथरके पुरविणे रहे । जानकीसहित मंत्रकर आगे चलको उद्यमी भए, तब सुन्दर लक्षणकी थरणहारी वनमाला लरमणते कहती भई, नेत्र सजल होय आए । हे नाथ ! मैं मंदभागनी मोहि आप तज जावी हो तो पहिले मरणते कहा बचाई, तब लक्ष्मण बोले--हे प्रिये, तु विषाद मत करें, थोडे दिनमें तेरे लेनेको आवै है, हे सुन्दरबदनी, जा तेरे लेयवैको शीघ्र न आवे तो हमको वह गति हो जो सम्यग्दर्शनरहित मिथ्या दृष्टिकी होर है । हे वल्लभे, जो शीघ्र ही तेरे निकट न भावें तो हमकों वह पाप होय जो महामानकर दग्ध साधुनिक निंदकनिके हो । हे गजगामिनी, हम पिताके वचन पालिवे निमित्त दक्षिणके समुद्रके तीर निसंदेह जाय हैं । मलयाचलके निकट कोई परम स्थानककर तोहि लेने आयेंगे । हे शुभमते, तू धीर्य रख, या भांति कहकर अनेक सौगंथकर अति दिलासा देय आप सुमित्राके नन्दन लक्ष्मण श्रीरामके संगचलनेको उद्यमी भए। लोकानको मते जान रात्रिको सीतासहित गोप्य निकसे । प्रभातविणै इनको न देखकर नगरके लोक परम शोकको प्राप्त भए । राजाको अति शोक उपजा, वनमाला लक्ष्मण विना घर सुना जानती भई, अपना चित्त जिनशासनविणै लगाय धर्मानुरागरूप लिही। राम लक्ष्मण पृथ्वी विष विहार करते नर नारिनिको मो.ते पराक्रमी पृथिवीको आश्चर्यके कारण धीरे २ लीला ते विचरें हैं। जगतके मन पर नेत्रनिको अनुराग उपजावते रमै हैं । इनको देख लोक विचारै है जो यह पुरुषांचम कौन पवित्र गोत्रविषे उपजे हैं। थन्य है वह माता जाकी कुतिविष ये उपजे अर धन्य हैं वे नारी जिनको ये परणे, ऐसा रूप देवनिको दुर्लभ, यह सुन्दर कहांते भाए मर कहां जाय हैं ? इनके कहा बछा है । परस्पर स्त्रीजन औनी वार्ता करै हैं । हे सखी, देखो दोऊ कमल नेत्र चन्द्रमा सारिखे अद्भुत बदन जिनके अर एक नारी नागकुमारी समान अद्भुत देखी । न जानिये वे सुर हुते वा नर हुते । हे मुग्धे, महा पुण्य बिना उनका दर्शन नाहीं। अब तो वे दूर गए पाछे फिरो, वे नत्र अर मनके चोर जगतका मन हरते फिरै हैं इत्यादि नर Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ reatest प ३०७ पर नारिनिके आलाप सुनते सबको मोहित करते वे स्वेच्छा विहारी शुद्ध है चिच जिनके, नाना देशनिविषै विहार करते क्षेमांजलि नामा नगरविषै आए ताके निकट कारी घटा समान सघन वनविषै सुखसे तिष्ठे जैसे सौमनस वनमें देव तिष्ठै, तहां लक्ष्मण महासुन्दर अन्न भर अनेक व्यंजन तैयार किये अर दाखोंका रस सो श्रीराम सीताने लक्ष्मणनहित भोजन किया ॥ अथानन्तर लक्ष्मण श्रीराम की आज्ञा लेय क्ष मांजलि नाम पुरके देखने को चले, महासुंदर माला पहिरे पर पीताम्बर धारे मुन्दर है रूप जिनका, नानाप्रकार की बेल वृक्ष तिनकरि युक्त वन र निर्मल जलकी भरी नदी पर नानाप्रकारके क्रीडागिरि अनेक धातुके भरे अर ऊंचे ऊंचे जिनमंदिर पर मनोहर जलके निवान अर नानाप्रकारके लोक तिनको देख नगरवि प्रवेश किया | कैसा है नगर, नानाप्रकार के व्यापारकर पूर्ण सो नगरके लोक इनका अद्भुत रूप देख परस्पर बार्ता करते भए, तिनके शब्द इतने सुने जो या नगरके राजाके जितपद्मानामा पुत्री है ताहि वह पर जो राजाके हाथकी शक्तिकी चोट को खाय जीवतः बचे, सो कन्याकी कहा बात स्वर्गका राज्य देय तौ भी यह बात कोई न करे । शक्ति की चोटते प्राण ही जांय तर कन्या कौन अर्थ ? जगतत्विषै जीतव्य सर्व वस्तुते प्रिय है तातें कन्या के अर्थ प्राण कौन देय, यह वचन सुनकर महाकौतुकी लक्ष्मण काहूको पूछते भए - हे भद्र ! यह जितपद्मा कौन है ? तत्र वह कहता भया - यह कालकन्या पंडितमाननीय सर्व लोक प्रसिद्ध तुमने कहा न सुनी । या नगरका राजा शत्रुदमन जाके राणी कनकप्रभा ताके जितपद्मा पुत्री रूपवती गुणवंती जाके बदन की कांतिकरि कमल जीता है अर गातकी शोभाकर कमलनी जीती सो त जितपमा aria है। नवयौवन मंडित सर्व कला पूर्ण अद्भुत आभूषणकी थरणहारी ताहि पुरुषका नाम रुचै नाहीं, देवनिका दर्शन हू अप्रिय मनुष्यनिकी तो कहा बात? जाके निकट कोई पुल्लिंग शब्दका उच्चारण हू न कर सके, यह कैलाशके शिखर समान जो उज्ज्वल मंदिर ताविषै कन्या है । सैकड़ों सहेली जाकी सेवा करें हैं जो कोई कन्याके पिताके हाथकी शक्तिकी चोटते बचे ताहि कन्या बरे । लक्ष्मण यह वार्ता सुन आश्चर्यको प्राप्त भया अर कोप हू उपजा, मन विचारी महाविंत दुष्ट चेष्टासंयुक्त यह कन्या ताहि देखूं, यह चितवन कर राजमार्ग होय विमान समान सुन्दर घर देखता अर मदोन्मत्त हाथी कारी घटा समान पर तुरंग चंचल अवलोकता अर नृत्यशाला निरखता राजमंदिरविषै गया । कैसा है राजमंदिर ? अनेक प्रकार के झरोखानिकर शोभित नानाप्रकार ध्वजानिकर मंडित शरद के बादर समान उज्ज्वल महामनोहर रचनाकर संयुक्त ऊंचे कोटकर चेष्टित, सो लक्ष्मण जाय द्वारपर ठाढा भया, इन्द्रके धनुष समान अनेक वर्णका है तोरण जहां, जहां सुपटनिके समूह अनेक देशनिके नानाप्रकार भेट लेकर आए हैं, कोई निकसे हैं कोई जाय हैं, सामन्तनिकी भीड होय रही है । लक्ष्मण को द्वारमें प्रवेश करता देख द्वारपाल सौम्य बाणीसू कहता भया - तुम कौन हो अर कौन की श्रज्ञाते आए हो ? कौन प्रयोजन राजमंदिर में प्रवेश करो हो ? तब कुमारने कही राजा को देखा चाहे हैं तू जाय राजासों पूछ, तब वह द्वारपाल अपनी ठौर दुजेको राख आप राजासे जाय विनती करता मया । 1 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप-पुराण M हे महाराज! आपके दर्शनको एक महारूपवान पुरुष आया है, द्वारे तिष्ठे है नील कमल समान है वर्ण जाका, अर कमल लोचन महाशोभायमान सौम्य शुभ मूर्ति है। तब राजाने प्रधानको अोर निरख आज्ञा करी--आवै, तब द्वारपाल लक्ष्मणको राजाके समीप ले गया, सो समस्त सभा याको अति सुन्दर देख हर्षकी वृद्धिको प्राप्त भई, जैसे चन्द्रमाको देख समुद्रकी शोभा वृद्धिको प्राप्त होय, राजा याको प्रणामरहित देदीप्यमान विकट स्वरूप देख कछु इक विकार को प्राप्त हो पूछता भया । तुम कौन हो, कोन अर्थ कहांते यहां आए हो ? तव लक्ष्मण वर्षाकालके मेघसमान शब्द करते भए । मैं राजा भरतका सेवक हूं पृथिवीके देखने की प्रमिलाषा करि विचरूहूँ। तेरी पुत्रीका वृत्तांत सुन यहां आया हूं। यह तेरी पुत्री महादुष्ट मारणेवाली गाय है। नहीं भग्न भए हैं मानरूपी सींग जाके । यह सर्व लोकनिको दुःखदायिनी वतॆ है तब राजा शत्रुदमनने कही मेरी शक्तिको जो सहार सके, सो जितपद्माको बरे, तब लरमण कहता भया । तेरी एक शक्तिकरि मेरे कहा होय । तू अपनी समस्त शक्तिकरि मेरे पंच शक्ति लगाय, या भांति राजाके अर लक्ष्मणके विवाद भया । ता समय झरोखाते जितपमा लक्ष्मणको देख मोहित भई अर हाथ जोड इशारा कर मने करती भई, जो शक्तिकी चोट मत खायो । तब श्राप सैन करते भए तू डरे मत या भांति समस्याविणे ही धीर्य बंधाया अर राजा कही-काहे कायर होय रहा है, शक्ति चलाय, अपनी शक्ति हमको दिखा, तब राजा कही मूवा चाहे है, तो झेल । महाकोपकर प्रज्वलित अग्नि समान एक शक्ति चलाई, सो लक्ष्मणने दाहिने करमें ग्रही जैसे गरुड सर्पको ग्रहे और दूसरी शक्ति दूसरे हाथते गही अर तीजी चोथी दोनो काखविगै गही सो चारों शक्तिनिको गहे लक्ष्मण ऐसा शोभे है मानो चोदना हस्ती है तब राजाने पांचवीं शक्ति चलाई सो दांतनिते गही जैसे मृगराज मृगीको गहे । तब देवनिके समूह गर्षित होय पुष्पवृष्टि करते भए अर दुन्दुभी बाजे बजाते भए । लक्ष्मण राजासू कहते भए और है तो और भी चला । तब सकल लोक भयकर कंपायमान भए। राजा लक्ष्मणका अखंडवल देख आश्चर्यको प्राप्त भया । लज्जाकर नीचा होय गया अर जिसपना लक्ष्मण के रूप अर चरित्र कर बैंची थकी आय ठाढी भई । वह कन्या सुन्दरवदनी मृगनयनी लदमणके समीप ऐसी शोमती भई, जैसे इन्द्रके समीप शची होय । जितपनाको देख लचमणका हृदय प्रसन्न भया । लदमण तत्काल विनयकर नम्रीभूत होय राजाको कहा भया--हे माम! हम तुम्हारे बालक हैं। हमारा अपराध क्षमा करहु जे तुम सारिखे गम्भीर नर हैं ते बालकनिकी अज्ञान चेष्टा कर अर कुवचन कर विकारको नाहीं प्राप्त होय हैं । तत्र शत्रुदमन अति हर्षित होय हाथीकी मंड समान अपनी मुजानिकर कुमारसे मिला अर कहता भया--हे धीर! मैं मह युद्धविणे माते हाथिनिको क्षणमात्रविणै जीतनहारा सो तुमने जीता अर वन के हस्ती पर्वत समान तिनको मदरहित करनहारा जो मैं सो तुम मोहि गर्वरहित किया । धन्य तिहारा पराक्रम, धन्य तिहारा रूप, धन्य तिहारे गुण, थन्य तिहारी निगर्वना, महा विनयवान अद्भुत चरित्रके धरणहारे तुमसे तुमही हो। या भौति राजाने लक्ष्मणके गुण सभाविणे वर्णन किये । तब लक्ष्मण लज्जाकर नीचा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ अडतीसat पर्ण हो गया । और राजाकी आज्ञाकर मेघकी ध्वनि समान वादित्रनिके शब्द सेवक करते भए अर याचकनिको श्रतिदान देय उनकी इच्छा पूर्ण करते भए । नगरकेविष आनन्द वर्ता । राजाने लक्ष्मण कही- हे पुरुषोत्तम ! मेरी पुत्रीका तुम पाणिग्रहण किया चाहो हो तो करो, लक्ष्मण कही मेरे बड़े भाई अर भावज नगर के निकट तिष्ठ हैं तिनको पूछो । तिनकी आज्ञा होय सो तुम को हमको करनी उचित है । वे सर्व नीके जाने हैं तब राजा पुत्रीको अर लक्ष्मणको रथमें चढ़ाय सर्व कुम्बति रघुवीर पै चला, सो क्षोभको प्राप्त हुआ जो समुद्र ताकी गर्जना समान याकी सेनाका शब्द सुनकर अर धूलके पटल उठते देखकर सीता भयभीत हो कहती भई -- हे नाथ ! लक्ष्मण ने कुछ उद्धत चेश करी या दिशाविषै उपद्रव दृष्टिश्रा है तातें सावधान हो, जो कुछ करना होय सो करो । तब आप जानकी को उरसे लगाय कहते भए -देवी, भय मत करहु । ऐसा कहकर उठे धनुष ऊपर दृष्टि घरी, तब ही मनुष्य समूहके आगे स्त्रीजन सुंदर गान करती देखीं बहुरि निकट ही आई, सुन्दर हैं ग जिनके, स्थिनिको गावती र नृत्य करती देख श्रीरामको विश्वास उपजा, सीतासहित सुख से विराजे । स्त्रीजन सर्व आभूषण मंडित अति मनोहर मंगल द्रव्य हाथ में लिये हर्ष के भरे है नेत्र जिनके, रथ उतर कर आई, अर राजा शत्रुदमन भी बहुत कुटुंबसहित श्रीरामके चरणारविंदको नमस्कार कर बहुत विनयसू बैठा । लक्ष्मण 1 जितपद्मा एक साथ रथविष बैठे आए हुने, सो उतरकर लक्ष्मण श्रीरामचन्द्रकु र जानकी को शीश नवाय प्रणाम कर महा विनयवान दूर बैठा, सो श्री राम राजा शत्रु मनसे कुशल प्रश्न वार्ता करि सुख बिराजे। रामके श्रागमन करि राजाने हर्षित होय नृत्य किया, महा भक्तिकरि नगर में चलनेकी विनती करी, श्रीराम अर सीता श्रर लक्ष्मण एक स्थविष विराजे । परम उत्साहसू राजा के महल पधारे | मानों वह राजमन्दिर सरोवर ही है स्त्री रूप कमलिनिते भरा लावण्यरूप जल है जाविष शब्द करते जे आभूषण तेई हैं सुन्दर पक्षी जहां, यह दोऊ वीर नवयौवन महाशोभासे पूर्ण कैयक दिन सुखसे विराजे, राजा शत्रुदमन करे है सेवा जिनकी । अथानन्तर सर्वलोक के चित्तको आनन्दके करणहारे राम लक्ष्मण महावीर वीर सीता सहित अर्धरात्रिको उठ चले, लक्ष्मणने प्रियवचनकर जैसे बनमालाको वीर्य बंधाया हुता तैसे जितपद्माको धीर्य बंधाया, बहुत दिलासाकर आप श्रीरामके लार भए । नगरके सर्व लोक अर नृपको इनके चले जानेते अति चिंता भई, धीर्य न रहा । यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसू कहे हैं - हे मगधाधिपति, ते दोऊ भाई जन्मांतर के उपार्जे जे पुण्य तिनकरि सर्व जीवनि के वल्लभ जहां जहां गमन करें वहां तहां राजा प्रजा सर्वलोक सेवा करें अर यह चाहें कि यह न जायें तो भला । सर्व इन्द्रियन के सुख और महा मिष्ट अन्नपानादि बिना ही यत्न इनको सर्वत्र सुलभ, जे पृथिवी वर्ष दुर्लभ वस्तु हैं ते सब इनको प्राप्त होंय, महाभाग्य भव्य जीव सदा भोगनिते उदास हैं । ज्ञानके अर विषयानिके बैर है । ज्ञानी ऐसा चितवन करें हैं इन भोगनिकर प्रयोजन नाहीं । ये दुष्ट नाशको प्राप्त होंय या भांति यद्यपि भोगनिकी सदा निन्दा ही करे हैं भोगनिते विरक्त ही हैं। दीप्तिकरि जीता है सूर्य जिनने तथापि पूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावते पछाड के · Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरविर्ष निवास करे हैं तहां ह नानाप्रकार सामग्रीका संयोग होय है जबलगमुनिपदका उदय नाहीं तबलग देनों समान मुख भोगवे है। इति श्रीरविषेणोचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै जितपमा का व्याख्यान वर्णन करनेवाला अडतीसवां पर्व पूर्ण भया ।। ३८॥ अथानन्तर ये दोऊ वीर महाधीर सीता सहित वनविषे आए। कैसा है वन ? नानाप्रकारके वृक्षनि कर शोभिन अनेक भांतिके पुष्पनिकी सुगंधि ताकर महासुगंध लतानिके मंडपनिकर युक्त तहां राम लक्षमण रमते रमते आए । कैसे हैं दोनों ? समस्त देवोपुनीत सामग्रीकर शरीरका है आधार जिनके कहूं इक मूगों के रंग समान महा सुन्दर वृक्षनिकी कूपल लेय श्रीराम जानकीके कर्णाभरण करे हैं कहूं यक छोटा वृक्षविष लग रही जो बेल ताकर हिंडोला बनाय दो भाई भाटा देय देय जानकीको झूलावे हैं अर आनन्दकी कथा कर सीताको विनोद उपजावे हैं। कभी सीता राममो कहे है-हे देव ! यह वेलि यह वृक्ष महामनोग्य दीखे हैं अर सीताके शरीरकी सुगंध ताकर भ्रमर आय लागे हैं, सो दोनो उडावे हैं या भांति नानाप्रकारके वनानिविष धीरे धीरे विहार करते दोऊ वीर मनोग्य हैं चारित्र जिनके जैसे स्वर्गके वनविष देवरमें तैसे रमते भए, अनेक देशनिको देखते अनुक्रमकर वंशस्थल नगर आए । ते दोनों पुण्याधिकारी तिनको सीताके कारण थोडी दूर ही आवनविष बहुत दिन लगे सो दीर्घकाल दुःख क्लेश का देनहारा न भया सदा सुखरूप ही रहे । नगरके निकट एक बंशथर नामा पर्वत देखा, मानो पृथिवी को भेद कर निकसा है जहां बांसनिके अति समूह तिनकरि मार्ग विषम है ऊचे शिखरनिकी छायाकरि मानों सदा संध्याको धारे है अर विझरनोंकर मानों हंसे है सो नगरते राजा प्रजाको निकसते देख श्रीरामचन्द्र पूछते भए-अहो कहा भयकर नगर तजो हो ? तब कोई यह कहता भया आज तीसरा दिन है। रात्रिके समय या पहाडके शिखरविष ऐसी ध्वनि होय है जो अबतक कबहु नाहीं सुनी, पृथिवी कंपायमान होय है अर दशों दिशा शब्दायमान होय हैं। पदनिकी जड उपड जाय हैं। सरोवरनिका जल चलायमान होय है। ता भयानक शब्दकर सर्व लोकनिके कान पीडित होय हैं मानों लोहेके मुदगलं कर मारे । कोई एक दुष्ट देव जगत्का कंटक हमारे मारनेके अर्थ उद्यमी होय है या गिरिपर क्रीडा करे है ताके भयकर संध्या समय लोक भागे हैं प्रभातविष बहुरि आवे हैं, पांव कोन परे जाय रहें हैं जहां वाकी ध्वनि न सुनिये, यह वार्ता सुन सीता राम लक्ष्मणसों कहती भई, जहां यह सब लोक जाय हैं वहां अपनहु चालें, जे नीतिशास्त्रके वेत्ता हैं वे देश कालको जानकर पुरुषार्थ करे हैं वे कदाचित् आपदाको नाहीं प्राप्त होय हैं। तब दोऊ धीर हंसकर कहते भए । तू भयकर बहुत कायर है सो यह लोक जहां जाय हैं वहां तू भी जाहु, प्रभात सब आवें तब तू पाइयो । हम तो आज या गिरिपर रहेंगे। यह अत्यन्त भयानक कौनकी ध्वनि होय है सो देखेंगे, यही निश्चय है यह लोक रंक हैं भयकर पशु बाबकनिको नेय भागे हैं। हमको काहुका भय नाहीं, तब सीता कहती मई, तिहारे हठको कौन Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतालीसवा पव ३११ हरिवे समर्थ, तिहारा आग्रह दुर्निवार है । ऐसा कहकर वह पतित्रता पतिके पीछे चली खिन्न भए हैं- चरण जाके पहाडके शिखर पर ऐसी शोभे मानों निर्मल चन्द्रकांति ही है श्रीरामके पीछे र लक्ष्मणके आगे सीता कैमी सोहै मानों चन्द्रकातिर इंद्रनीलमणिके मध्य पुष्पराग मणि ही है, ता पर्वतका आभूषण होती भई । राम लक्ष्मणको यह डर है जो कहीं यह गिरिसे गिर न पडे तातें याका हाथ पकड लिए जाय हैं, वे निर्भय पुरुषोत्तम विषम हैं पाषाण जाके ऐसे पर्वतको उलंघकर सीतासहित शिखरपर जाग पहुंचे । तहां देशभूषण पर कुलभूषण नामा दीय मुनि महाध्यानारूढ दोऊभुज लुबाए कायोत्सर्ग आसन थरे खडे, परम तेजकर युक्त समुद्र सारिखे गंभीर गिरिसारिखे स्थिर शरीर अर आत्माको भिन्न भिन्न जाननहारे, मोहरहित नग्न स्वरूप यथा जातरूपकं धरनहारे, कांतिके सागर नवयौवन परम सुन्दर महा संगमी श्रेष्ठ हैं आकार जिनके जिनभाषित धर्मके आराधनहारे तिनको श्रीराम लक्ष्मण देखकर हाथ जोड नमस्कार करते भए । अर बहुत आश्चर्यको प्राप्त भए, चित्तविषै चिभवते भए जो संसारके सर्व कार्य असार हैं 1 दुःखके कारण हैं । मित्र द्रव्य स्त्री सर्व कुटुम्ब र इन्द्रियजनित सुख यह सब दुःख ही हैं एक धर्म ही सुखका कारण है । महा भक्तिके भरे दोऊ भाई परम हर्षको धरते विनयकार नीभूत हैं शरीर जिनके, मुनिनिके समीप बैठे । ताही समय असुरके श्रागमते महा भयानक शब्द भया । मायामई सर्प र बिच्छू ति नकर दोनों मुनिनिका शरीर बेष्टित होय गया । सर्प अति भयानक महा शब्द के करणहारे काजलसे कारे चलायमान हैं जिहा जिनकी अर अनेक वर्णके अतिस्थून विच्छु तिनकरि मुनिनि के अंग बेढे देख, राम लक्ष्मण असुरपर कोपको प्राप्त भए । सीता भयकी भरी भरतार के अंग लिपट गई, तब आप कहते भए, तू भय मत करे याको वीर्य बंधाय दोऊ सुभट निकट जाय सांप विच्छु मुनिनिके अंगते दूर किये, चरणारविंदकी पूजा करी अर योगीश्वर निकी भक्ति वंदना करते भए । श्रीराम वीणा लेय बजावते भए अर मधुर स्वरसे गावते भए र लक्ष्मण गान करता भया, गानविषै ये शब्द गाये - महा योगीश्वर धीर वीर मन वचन कायकर बंदनीक हैं मनोग्य है चेष्टा जिनकी, देवनिहूविर्षे पूज्य महाभाग्यवंत जिनने अरिहन्तका धर्म पाया, जो उपमारहित अखंड महा उत्तम तीन भवनविषै प्रसिद्ध जे महामुनि जिनधर्मके धुरंधर ध्यानरूप, वज्र दण्डकरि महामोहरूप शिलाको चूर्ण कर डारें अर जे धर्मरहित प्राणिनिको अधिक जान दयाकर विवेकके मार्ग लावें । परम दयालु आप तिरें औरनिको तारें । या भाति स्तुति कर दोऊ भाई ऐसे गावें, जो वनके तियंचनिके हू मन मोहित भए अर भक्ति की प्रेरी सीता ऐसा नृत्य करती भई, जैसा सुमेरुकेविषै शची नृत्य करे । जाना है समस्त संगीत शास्त्र जाने, सुन्दर लचणको धरे, अमोलक हार मालादि पहिरे परम लील कर युक्त दिखाई है प्रगटपणे अद्भुत नृत्य की कला जाने, सुन्दर है बहुलता जाको, हाव भावादिविषै बण मंद मंद चरगनि को धरती महा लयको लिये मावती गीत अनुसार भाव को बतावती अद्भुत नृत्य करी महाशोभायमान भासती भई भर असुरकृत उपद्रवको मानो सूर्य देख न सका, सो अस्त भया पर संध्याहू प्रकट होय जाती Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण रही, आकाशविर्ष नक्षत्रनिका प्रकाश भया । दशों दिशाविष अंधकार फैल गया । ता समय असुरकी मायाकरि महा रौद्र भूतनिके गण हड हड हंसते भये, महा भयंकर हैं मुख जिनके अर राक्षस खोटे शब्द करते भए अर मायामई स्यालनी मुखते भयानक अग्निकी ज्वाला काढनी शब्द बोलती भई अर सैकडों कलेवर भयकारी नृत्य करते भये, मस्तक भुजा जंघादि अंगनिकी वृष्टि होती भई । अर दुर्गध सहित स्थूल द ल हूकी बरसती भई अर डाकिनी नग्न स्वरूप लावें हाडोंके आभरण पहिरे, क्रूर हैं शरीर जिनके, हाले हैं स्तन जिनके खड्ग है हाथमें जिनके वे दृष्टिविणे श्रावती भई, अर सिंह व्याघ्रादिककेसे मुख तप्त लोह समान लोचन हस्तविणे त्रिशूल धारे, होठ डसते कुटिल हैं भौंह जिनकी, कठोर हैं शब्द जिनके, ऐसे अनेक पिशाच नृत्य करते भए । र्वत की शिला कम्पायमान भई अर भूकम्प भगा इत्यादि चेष्टा असुरने करी, सो मुनि शुक्लध्यानपि मग्न किछु न ज नते भए । ये चेष्टा देख जानकी भयको प्राप्त भई, पति के अंगसे लग गई, तब श्रीराम कहते भए-हे देवी ! भय मत करहु. सर्व विनके हरणहारे जे मुनिके चरण तिनके शरण ग हु, ऐसा कहकर सीताको मुनिके पांयन मेल आप लक्ष्मण सहित धनुष हाथ वषे लिये महावली मेघपमान गजे, धनुषके चढायबेका ऐसा शब्द भया जैसा वज्रपातका ब्द होय, तब वह अग्निप्रभ न मा असुर इन दोऊ वीरनिको बलभद्र नारायण जान भाग गग, वाकी सर्व चष्टा दिलाय गई । श्रीराम लक्ष्म ने मुनिका उपसर्ग दर किया, तत्काल देशभूपण कुलभूषण मुनिनिको केवल ज्ञान उपजा, चतुरनिकायक दे दर्शनको आए, विधिपूर्वक नमस्कार कर यथायोग्य बैडे । के लबानके प्रतापते कवलीके निकट रात दिनका भेद न रहे। भूमेनोचरी अर विद्य पर केवली की पूजा कर यथ योग्य बठे, सुर नर विद्याधर सब ही धर्मोपदेश श्रवण करते भए राम लक्षण हरित चित्त, सीता सहित केलीकी पूजाकर हाथ जोड नमस्कारकर पूछो भये ।। हे भगवन् ! असुरने आपकू कौन कारण उपसर्ग किया अर तुम दोऊनिमें परस्पर अति स्नेह काहेते भया । तब केवलीकी दिव्य नि होति भई-पद्मनी नामा नगरीविणै राजा विजथपर्वत गुणरूप धान्यके उपजिवेका उत्तमक्षेत्र जाके धारणीनामा स्त्री अर अमृतसुर नामा दूत, सर्व शास्त्रनिविष प्रवीण राज काजविषे निपुण लोकरीतिको जाने पर जाको गुण ही प्रिय जाके उपभोगनामा स्त्री ताकी कुक्षि विर्ष उपजे उादेत मुदित नामा दोय पुत्र व्याहारमें प्रवीण सो अमृतसुर नामा दूतको राजाने कार्य निमित्त बाहिर भेजा सो वह स्वामीभक्त वसुभूति मित्र सहित चला। वसुभूति पापी याकी स्त्री आसक्त दुष्टचित्त सो रात्रिमें अमृतसुर को खड़ग से मार नगरी में बापिस आया लोगनिने कही-मांहि वापिस भेज दिया है अर ताकी स्त्री उपभोगा तासे यथार्थ वृत्तांत कहा तब वह कहती भई-मेरे दोऊ पुत्रनिको भी मारि जो हम दोऊ निश्चिन्त तिष्ठे सो यह वार्ता उदितकी बहूने सुनी अर सर्व वृत्तान्त उदितसे कहा । यह बहू सास के चरित्रको पहिले भी जानती हुती याको वसुभूति की बहूने समाचार कहे हुते जो परदाराके सेवनते पतिसे विरक्त हुती सो उदित ने सब बातोंते सावधान होय मुदितको भी सावधान किया भर Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतालीसमा पर्व २१३ वसुभूतिका षडग देख पिताके भरणका निश्चयकर उदिनने बमुसूति को मार सो पापी मरकर म्लेच्छकी योनि को प्राप्त भया। ब्राह्मण हुना सो कुशीलके पर हिंसाके दोषते चांडालका जन्म पाया। एक समय मतिवर्धननामा प्राचार्य मुनिनिविष महातेजस्वी पद्मनी नगरी आए सो घसंततिलकनामा उद्यान में संघमहित विराजे पर आधिकानिकी गुगनी अनुधरा धर्म ध्यान विष तत्पर सोहू मार्यिकानिके संघसहित आई सो नगरके समीप पवनविष तिष्ठी अर जा वनमें मुनि बिराजे हुते ता वनके अधिकारी प्राय राजा हाथ जोड बिनती करते भए-हे देव ! आगेको या पीछे को कहो संघ कौन सरफ जावे तब राजा कही जो कहा बात है ? ते कहते भए उद्यानविर्ष मुनि आए हैं जो मने करें तो डरें जो नाहीं मने करें तो तुम कोप करो यह हमको बडा संकट है स्वर्गके उद्यान समान यह वन है अब तक काहूको याविर्ष आने न दिया परंतु मुनिनिका कहा करें ते दिगम्बर देवनिकर न निवारे जावें हम सारखे कैसे निवारें, तब राजा कही तुम मत मने करो जहां साधु विराने सो स्थानक पवित्र होय है सो राजा बडी बिभूति मनिनिके दर्शनको गया ते महाभाग्य उद्यानमें विराजे हुते वनकी रजकरि धूसरे हैं अंग जिनके, मुक्ति योग्य जो क्रिया ताकरि युक्त, प्रशांत हैं हृदय जिनके, कैयक कायोत्सर्ग थरे दोनों भुजा लुगांय खडे हैं कैयक पद्मासन धर बिराजे हैं बेला तेला चोला पंच उपवास दस उपवास पतमासादि अनेक उपवासनि करि शोषा है अंग जिनने, पठन पाठनविर्ष सावधान भ्रमर समान मधुर हैं शब्द जिनके शुद्ध स्वरूप में लगाया है चित्त जिनने सो राजा ऐसे मुनिनिको दासे देख गर्वरहित होय गजते उतर सावधान होय सर्व मुनिनिको नमस्कार कर प्राचार्यके निकट जाय तीन प्रदक्षिणा देय प्रणामकर पूछता भया-हे नाथ जैसी तिहारे शरीर में दीप्ति है तैसे भोग नाहीं । तब आचार्य कहते भए-यह कहा बुद्धि तेरी ? तू शूरवीर याको स्थिर जाने है, यह बुद्धि संसारकी बढावनहारी है। जैसे हाथी के कान चपल तैसा जीतव्य चपल है यह देह कदलीके थंभसमान असार है अर ऐश्वर्य स्वप्न तुल्य है घर कुटम्ब पुत्र कलत्र बांधव सब असार हैं ऐसा जानकर या संसारकी माया विष कहा प्रीति ? यह संसार दुःखदायक है। यह प्राणी अनेक बार गर्भवासके संकट भोगवे हैं। गर्भवास नरक तुल्य महा भयानक दर्गन्ध कृमिजाल कर पूर्ण रक्त श्लेषमादिक का सरोवर महा अशुचि कर्दमका भरा है यह प्राणी मोहरूप अंधकार करि अन्ध भया गर्भवाससूनाहीं डरे है । धिक्कार है या अत्यन्त अपवित्र देह को, सर्व अशुभका स्थानक क्षणभंगुर, जाका कोई रक्षक नाही । जीव देहको पोष वह याहि दुःख देय सो पहाकृतघ्न नसा जालकर बेढा चर्मकरि ढका अनेक रोगनिका पंज जाके भागमनकरि ग्लानिरूप ऐसे देह में जे प्राणी स्नेह करै हैं, ते ज्ञानरहित अविवेकी हैं । तिनके कल्याण कहांते होय है अर या शरीरविष इंद्रिय चौर बसे हैं । ते बलात्कार थर्मरूप धनको हरे हैं। यह जीवरूप राजा कुबुद्धिरूप स्त्री रमे हैं । अर मृत्यु याको अचानक असा चाहै है । मनरूप माता हाथी विषयरूप वनमें क्रीडा करे है । ज्ञानरूप अंकुशते याहि बशकर वैराग्यरूप थंभसू Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पराण विवेकी वांधे हैं । यह इंद्रिरूप तुरंग मोहरूप पताकाको धरे, पर स्त्रीरूप हरित तृणनिमें महा लोभको धरते शरीररूप रथको कुमार्गमें पाडे हैं । चित्तके प्रेरे चंचलता धरे हैं तातै चित्तको वश करना योग्य है । तुम संसार शरीर भोगनिते विरक्त होय भक्तिकर जिनराजको नमस्कार करहु । निरंतर सुमरहु । जाकरि निश्चयते संसार समुद्रको तिरहु । तप संयमरूप वाणनिकरि मोहरूप शत्रुको हण लोक के शिखर अनिाशीपुर का खंड राज्य करहु निर्भय निजपुर में निवास करहु । यह मुनिके मुक्ते वचन सुन कर राजा विजयपर्वत सुबुद्धि राज्य तज मुनि भया अर वे इतके पुत्र दोऊ भाई उदित मुदित जिनवाणी सुन मुनि होय मही में विहार करते भए । सम्मेद शिखरकी यात्राको जाते हुते मी काहू प्रकार मार्ग भूल धना जाय पडे । वह बसु. भूति विप्रका जीव महारौद्र भील भया हुना ताने देखे । अति क्रोधायमान होय कुठार समान कुवचन बोल इनको खडे र खे अर मारनको उद्यमी भया तब बडा भाई उदित मुदितसे कहता भया हे भ्रात ! भय मत करहु । क्षमा ढालको अंगीकार करहु । यह मारवेको उद्यमी भया है सो हमने बहु। दिन तपसूक्षमाका अभ्यास किया है सो अब दृढता राखनी। यह वचन सुन मुदित बोला, हम जिनमर्गके सरवानी हमको कहा भय, देह तो विनश्वर ही है अर यह वसुभूतिका जीव है जो पिताकं वैरते मारा हुता। परस्पर दोऊ मुनि ए वार्ता कर शीरका ममत्व तज कायोत्सर्ग धार मिष्ठे । वह मारवेको आया सो म्लेच्छ कहिए भील ताके पतिने मने किया दोऊ मनि बचाए । यह कथा सुन रामने केवली प्रश्न किया-हे देव ! वाने बचाए सो वासू प्रीतिका कारण कहा ? तब केवीकी दिव्य ध्वनिविष आज्ञा भई। एक यक्षस्थान नाम ग्राम तहां सरप अर कर्षक दोऊ भाई हुने । एक पक्षीको पारधी जीवता पकड ग्राममें लाया सो इन दोऊ भाईनने द्रव्य देय छुडाया सो पक्षी मरकर म्लेक्षपति भया अर वे सुरप कर्णक दोऊ वीर उदित मुदित भए । ता परोपकारकर वाने इनको बचाए जो कोई जासे नेकी कर है सो वह भी तासे नेकी करे है अर जो काहूसूरी करे है वाहूसे बह हू बुरी करे है यह संसारी जीवनिकी रीति है तातें सवनिका उपकार ही करहु । काहू प्राणीसू बर न करना । एक जीवदया ही मोक्षका मार्ग है, दया बिना ग्रंथनिके पढ़नेसू कहा ? एक सुकृत ही सुखका कारण सो करना, वे उदित मुदित मुनि उपसर्गते छूट सम्मेदशिखरकी यात्राको गए अर अन्य हू अनेक तीर्थनिकी यात्रा करी । रत्नत्रयका आराधनकरि समाधिते प्राण तज स्वर्गलोक गए अर वह वसुभूतिका जीव जो म्लेच्छ भया हुना सो अनेक कुयोनिविष भ्रमण कर मनुष्य देह पाय तापलब्रत थर अज्ञान तपकर मर ज्योतिषी देवनिकेविर्ष अग्निकेतु नामा क्रूर देव भया अर भरतक्षेत्रके विषम अरिष्टपुर नगर जहां राजा प्रियव्रत महा भोगी ताके दो राणी महागुणवती एक कनकप्रभा दजी पदमावती सो वे उदित मुदितके जीव स्वर्गसूचयकर पद्मावती राणीके रत्नरथ विचित्ररथ नामा पुत्र भए अर कनकप्रभाके वह ज्योतिषीदेव चयकर अनुधर नामा पुत्र भया । राजा प्रियव्रत पुत्रको राज्य देय भगवान के चैत्यालयविष छह दिनका अनशन धार देह त्याग स्वर्ग लोक गया। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतालीसा पर्व अथानन्तर एक राजाकी पुत्री श्रीप्रभा लक्ष्मी समान सो रत्नरथने परणी ताकी अभिलाषा अनुधरके हुती सो रत्नरथते अनुथरका पूर्व जन्म तो वैर ही हुता बहुरि नया वैर उपजा सो अनुधर रत्नरथ की पृथ्वी उजाडने लगा । तब रत्नरथ अर विचित्ररथ दोऊ भाइनि अनुथर को युद्ध में जीत देशते निकास दिया । सो देशते निकासनेते पर पूर्व वैरते महाक्रोधको प्राप्त होय जटा अर बक्कलका धारी तापसी भया, विषवृक्ष समान कपाय विषका भरा, अर रत्नरथ विचित्ररथ महातेजस्वी चिरकाल राज्यकर मुनि होय तपकर स्वर्गविष देव भए । महासुख भोग तहांते चयकर सिद्धार्थ नगरके विषै राजा क्षेमं र गणी विमला तिनके महसुन्दर देशभूषण कुलभूषण नामा पुत्र होते भए । सो विद्या पढने के अर्थ घरमें उचित क्रीडा करते तिष्ठ, ता समय एक सागरघोष नामा पंडित अनेक देशनिमें भ्रमण करता आया सो राजा पंडितको बहुत आदर सुराखा अर ये दोऊ पुत्र पहनेको सौंपे, सो महाविनयकर संयुक्त सर्व कला सीखी, केवल एक विद्या-गुरुको जाने या विद्याको जाने और कुटुंबमें काहूको न जाने । तिनके एक विद्याभ्यास हीका कार्य, विद्यागुरुते अनेक विद्या पढ़ीं । सर्व कलाके पारगामी होय पितापै आए सो पिता इनको महाविद्वान सर्व कला निपुरा देखकर प्रसन्न भया। पंडितको मनवांछित दान दिया। यह कथा केवली रामसू कहै हैं, वे देशभूषण कुलभूषण हम हैं सो कुमार अवस्थामें हमने सुनी जो पिताने हमारे विवाह के अर्थ राजकन्या मंगाई हैं। यह वार्ता सुनकर परमविभूति घरे विनकी शोभा देखनेको नगर बाहिर जायवेके उद्यमी भए लो हमारी बहिन कमलोत्सवा कन्या झरोखेमें बैठी नगरी की शोभा देखती हुती सो हम तो विद्याके अभ्यासी कबहूं काहूको न देखा न जाना, हम न जाने यह हमारी बहिन है। अपनी मांग जान विकाररूप चित किया दोऊ माइनिके चित्त चले, दोऊ परस्पर मनविणे विवारते भए याहि मैं परण दजा भाई परणा चाहै तो ताहि मारू सो दोऊके चित्तविणे विकार भाव अर निर्दई भाव भया। ताही समय बन्दी जनके मुख ऐसा शब्द निकसा कि राजा क्षमंकर विमला राणीसहित जयवन्त होवे जाके दोनों पुत्र देवन समान अर यह झरोके विष बठी कमलोत्सबा इनकी बहिन सरस्वती समान दोऊ वीर महागुणवान अर बहिन महागुणवंती ऐसी सन्तान पुण्याधिकारिनिके ही होय है। जब यह वार्ता हमने सुनी तब मनविष हमने विचारी अहो मोह कर्मकी दुष्टता, जो हमारे बहिन की अभिलाषा उपजी यह संसार असार महा दुःखका भरा, हाय जहां ऐसा भाव उपजे पापके योग करि प्राणी नरक जांय वहां महा दुख भोगे, यह विच रकर हमारे ज्ञान उपजा सो वैराग्यको उद्यमी भए । तब माता पिता स्नेह व्याकुल भए । हान सबसे ममत्व तन दिगम्बरी दीक्षा पादरी, आकाशगामिनी ऋद्धि सिद्ध भई । नाना प्रक रके तीर्थादिमें बिहार किया तपही है धन जिनके अर माता पिता राजा क्षेमंकर अगले भी भवका पिता सो हमारे शोकरूप अग्निकर तप्तायमान हुवा मर्व आहार तज मरणको प्राप्त भया सो गरुडेन्द्र भया । भवनवासी देवनिविणे गरुड कुमार जातिके देव तिनका अधिपति महा सुन्दर महा पराक्रमी महालांचन नाम सो आयकर पहा देवनिकी समावि पेठा है पर वह अनुथर वापसी विहार करता कौमुदी नगरी गया अपने Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ numan-ramma पद्म पुराण शिष्यनिके समूह करि बेढा तहां राजा सुमुख ताके राणी रतिवती परम सुन्दरी सैंकडा राखिनिविष प्रधान अर ताके एक मदना नृत्यकारिणी मानो मदनकी पताका ही है, अति सुन्दररूप अद्भुत चेष्टाकी धरणहारी, ताने माधुदत्त मुनिके समीप सम्यक् दर्शन ग्रह्या, तबते कुगुरु कुदेव कुथर्मको तृणवत् जाने । ताके निकट एक दिन राजा कही यह अनुथर तापसी महातपका निवास है । तब मदनाने कही-हे नाथ ! अज्ञानीका कहा तप, लोकमें पाखण्ड रूप है। यह सुन कर राजाने क्रोध किया । तू तपस्वीकी निंदा करे है, तब वाने कही आप कोप मत करहु, थोडे दिनमें याकी चेष्टा दृष्टि पडेगी ऐसा कहकर घर जाय अपनी नागदत्ता नामा पुत्रीको सिखाया तापसीके आश्रम पठ ई सो वह देवांगना समान परम चेष्टाकी धरणहारी महा विभ्रमरूप तापसी को अपना शरीर दिखावती भई, सो याके अंग उपांग महा सुन्दर निरखकर अज्ञानी तापसी का मन मोति भया अर लोचन चलायमान भए जा अंगार नेत्र गये वहां ही मन बन्ध गया, काम बांणनिकर तापसी पीडित भया । व्याकुल होय देवांगना समन जो यह कन्या ताके समीप आय पूछता भया, तू कौन है और यहां कहा आई है, संध्याकालमें सब ही लघु युद्ध अपने स्था. नको तिष्ठे हैं तू महासुकुमार अकेली वनमें क्यों विचरे है, तब वह कन्या मधुर शब्दकरि याका मन हरती संती दीनताको लिये बोली, चंचल नील कमल समान हैं लोचन जाके, हे नाथ ! दया. वान् शरणागतप्रतिपाल आज मेरी माताने मोहि घरते निकास दई, सो अब मैं तिहारे भेषकर तिहारे स्थानक रहना चाहूं हूं, तुम मो सों कृपा करहु, रात दिन तिहारी सेवाकर मेरा यह लोक परलोक सुधरेगा । धर्म अर्थ काम इनमें कौनसा पदार्थ है जो तुममें न पाइये । परम निधान हो। मैं पुण्यके योगते तुम पागे, या भांति कन्याने कही तब याका मन अनुरागी जान विकल वासी कामकर प्रज्वलित बोला-हे भद्रे ! मैं कहा कृपा करू, तू कृपाकर प्रपन्न होहु, मैं जन्म पर्यत तेरी सेवा करूंगा। ऐसा कहकर हाथ चल यवेका उग्रम किया, तर कन्या अपने हाथ मने कर आदर सहित कहती भई-हे नाथ ! मैं कुमारी कन्या तुमको ऐसा करना उचित नहीं मेरी माताके घर जाय पूछो घर भी निकट ही है जैसी मोपर तिहारी करुणा भई है, तैसे मेरी माको प्रसन्न करहु वह तुमको देवेगी, तब जो इच्छा होय सो करियो, यह कन्याके वचन सुन मृढ तापसी व्याकुल होय तत्काल कन्याकी लार रात्रिको ताकी माताके पास आया, कामकर व्याकुल हैं सर्व इंद्रियां जाकी जैसे माता हाथी जलके सरोवरमें पैठे तैसे नृत्यकारिणीके घरमें प्रवेश किया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं - .. हे राजन् ! कामकर ग्रसाहुवा प्राणी न स्पर्श न स्वादे न सूघे न देखे न सुने न जाने न डरे अर न लज्जा करे। महा मोहसे निरन्तर कष्टको प्राप्त होय है जैसे अन्धा प्राणी सर्पनिके मरे कूपमें पड़े तैसे कामान्ध जीव स्त्रीके विषयरूप विषमपमें पड़े सो वह तापसी नृत्यकारिणी के चरणमें लोट अति अधीन हो कन्याको याचता भया । ताने तापसीको बांध राखा राजाको समस्या हुती सो राजाने आय कर रात्रिको तापसी बंधा देखा । प्रभात तिरस्कारकरि निकास दिया सो अपमान कर लज्जायमान महा दुःखको धरता संता पृथिवीविष भ्रमणकर मूत्रा, Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतालीस पर्व AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAN अनेक कुयोनि विषे जन्म मरण किए बहुरि बर्मानुयोगकर दरिद्रीके घर उपजा जब यह गर्भ में आयाः तव ही याकी माताने या के पिताको क्र र बचन कह कर कलह किया सो उदास होयः विदेश गया अर याका जन्म भया । बालक अवस्था हुती तब भीलनि देशके मनुष्य बन्द किये सो याकी माता भी बन्दीमें गई सर्व कुछम्बरहित यह परम दुखी भया कई एक दिन पीछे तापसी होय अज्ञान तप कर ज्योतिषी देवनि विर्ष अग्निप्रभ नामा देव भया अर एक समय अनन्तवीर्य केवलीको धर्म में निपुण जो शिष्य तिनने पूछा । कैसे हैं केवली ? चतुरनिकाय के देव पर विद्याधर तथा भूमिगोचरी तिनकरि सेवित, हे नाथ! मुनिसुव्रत नाथके मुक्ति गये पीछे तुम केवली भए अब तुम समान संसारका तारक कौन होयगा ? तब तिनने कही देशभूषण कुलभूषण होयेंगे। केवल ज्ञान अर केवल दर्शनके धरणहारे जगत्में सार जिनका उपदेश पायकर लोक संसार समुद्रको निरेंगे। ये वचन अग्निप्रेभने सुने सो सुकर अपने स्थानक गया । इन दिननिमें कुअवधि कर हमको इस पर्वतमें तिष्ठे जान 'अनन्तवीर्य केवलीका वचन मिथ्या करू' ऐसा गर्वधर पूर्व वैरकर उपद्रव करनेको आया सो तुमको बलभद्र नारायण जान भयकर भाज गया । हे राम! तुम चरमशरीरी तद्भव मोक्षगामी बलभद्र हो अर लक्ष्मण नारायण है उस सहित तुमने सेवा करी अर हमारे घातिया कर्मके क्षयसे केवलज्ञान उपजा, या प्रकार प्राणीनिके वैरका कारण सर्व बैगनुबन्ध है ऐसा जानकर जीवनिके पूर्वभव श्रवणकर हे प्राणी, रागद्वष वज निश्चल होवो ऐसे महापवित्र केवल के वचन सुन सुर नर असुर बारम्बार नमस्कार करते भये अर भव दुःखतें डरे अर गरुडेन्द्र परम हर्षित होय केवलीके चरणारविन्दको नमस्कार कर महा स्नेहकी दृष्टि विस्तारता लहलहाट करे हैं मणि कुण्डल जाके, रघुवंशमें उद्योत करणहारे जे राम तिनसों कहता भया-हे भव्योत्तम : तुम मुनिनिकी भक्ति करी सो मैं अति प्रसन्न भया । ये मेरे पूर्व भवर्क पुत्र हैं जो तुम मांगो सो मैं देहुं तब श्री घुथ क्षण एक विचार कर बोले तुम देवनिके स्वामी हो कभी हम आपदा पर तो हमें चितारियो साधुनिकी सेवाके प्रसादसे यह फल भया जो तुम सारिखोंसे मिलाप भया तब गरुडेन्द्रने कही तुम्हारा वचन मैं प्रमाण किया जब तुमको कार्य पड़ेगा तब मैं तिहारे निकट ही हूं ऐसा कहा तब अनेक देव मेघसी ध्वनि समान वादित्रनिके नाद करते भये । माधुनिके पूर्वभव सुन कई एक उत्तम मनुष्य मुनि भये, कईएक श्रावकके व्रत धारते भए । वे देशभूषण कुलभूषण केवली जगत् पूज्य सर्व संसारके दुःखसे रहित नगर ग्राम पर्वतादि सत्र स्थानविष विहारकर धर्मका उपदेश देते भये । यह दोऊ केवलिनिके पूर्व भवका चरित्र जे निर्मल स्वभावके धारक भव्यजीव श्रवण करें, वे सूर्य समान तेजस्वी पापरूप तिमिरको शीघ्र ही हरें। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविष देशभूषग कुलभूषण केवलीका व्याख्यान वर्णन करनेगाला उनतालीसनां पर्न पूर्ण भया ।। ३६ ।। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र-पुराण __ अथानन्तर केवलीके मुखते रामचन्द्रको चरमशरीरी कहिये तद्भव मोक्षगामी सुनकर सकल राजा जय जय शब्द कहकर प्रणाम करते भये पर वंशस्थलपुरका राजा सुरप्रभ महा निर्मलचित्त राम लक्ष्मण सीताकी भक्ति करता भया। महिलनिके शिखरकी कांतिसे उज्ज्वल भया है आकाश जहां, ऐसा जो नगर वहां चलनेकी राजाने प्रार्थना करी परन्तु रामने न मानी वंशगिरिक शिखर हिमाचल के शिखर समान सुन्दर जहां नलिनी धनमें महारमखीक विस्तीर्ण शिला वहां श्राप हंस समान विराजे । कैसा है वन ? नानाप्रकारके वृक्ष अर लतानि करि पूर्ण अर नानाप्रकारके पक्षी करे हैं नाद जहां, सुगन्ध पवन चले है। भांति भांतिके फल पुष्प तिनकरि शोभित अर सरोवरनिमें कमल छल रहे हैं, स्थानक अति सुन्दर सर्व ऋतुकी शोभा जहां बन रही है, शुद्ध आरसीके तल समान मनोग्य भूमि पांच वर्णके रत्ननि करि शोभित जहां कुन्द मौलसिरी मालती स्थलकमल जहाँ अशोक वृक्ष नाग वृक्ष इत्यादि अनेक प्रकारके सुगन्ध वृक्ष फूल रहे हैं । तिनके मनोहर पल्लव लहलाट कर हैं। तहां राजाकी आज्ञा कर महा भक्तिवंत जे पुरुष तिनने श्रीरामको विराजनेके निमित्त वस्त्रनिके महा मनोहर मण्डप बनाये सेवक जन महा चतुर सदा सावधान अति आदर करणहारे मंगल रूप वाणीके बोलनहारे स्वामीकी भक्ति विष तत्पर तिनने बहुत तरहके चौड़े ऊचे वस्त्रनिके मण्डप बनाये, नाना प्रकारके चित्राम है जिनमें अर जिन पर ध्वजा फर रहे हैं मोतिनिकी माला जिनके लटके हैं, वुद्र घंटिकानिके समूह कर युक्त अर जहां मणिनिकी झालर लूच रही हैं महा देदीप्यमान सूर्यकी सी किरण थरें और पृथिवी पर पूर्ण कल रा थापे हैं अर छत्र चमर सिंहासनादि राजचिह्न तथा सर्व सामग्री धरें हैं अनेक मगल द्रव्य हैं ऐसे सुन्दर स्थल विष सुखसों तिष्ठे हैं, जहां जहां रघुनाथ पांव धरें वहाँ वहां पृथिवी पर राजा अनेक सेवा करें। शय्या प्रासन मणि सुवर्णके नानाप्रकारके उपकरण अर इलायची लवंग ताम्बूल मेवा मिष्टान्न तथा श्रेष्ठ वस्त्र अद्भुत आभूषण पर महा सुगन्ध नानाप्रकारके भोजन दधि दुग्ध घृत भांति २ के अन इत्यादि अनुपम बस्तु लावें या मांति सर्व ठौर सब जन श्रीरामको पूजें । वंशगिरि पर श्रीराम लक्ष्मण सीताके रहिवेको मण्डप रचे तिनमें किसी ठौर गीत कहीं नृत्य कहीं वादित्र वाजे हैं। कही सुकृतकी कथा होय है पर नृत्यकारिणी ऐसा नृत्य करें मानों देवांगना ही हैं। कही दान बटे हैं ऐसे मन्दिर बनाए जिनका कोन वर्षन कर सके जहां सब सामग्री पूर्ण, जो याचक आवे सो निमुख न जाय दोनों भाई सर्व भाभरणनि करि युक्त, सुन्दर वस्त्र थरें मनवांछित दानके करणहारे महा यशसे मण्डित पर सीता परम सौभा. ग्यकी धरणहारी प.पके प्रसंग रहित शास्त्रोक्त रीतिकर रहे, ताकी महिमा कहांतक कहिए। अर वंशगिरि पर श्रीर-मचन्द्रने जिनेश्वर देवके हजारों अद्भुत चैत्यालय बनवाए महाहक हैं स्तम्भ जिनके । योग्य है लम्बाई चौड़ाई ऊचाई जिनकी अर सुन्दर झरोखनि करि शोभित तोरण सहित हैं द्वार जिनके, कोट भर खाई कर मण्डित सुन्दर ध्वजानिकरि शोभित, बन्दना के करण हारे भव्यजीव तिनके मनोहर शब्द संयुक्त मृदंग वीणा वांसुरी झालरी झांझ मंजीरा शंख भेरी इत्यादि वादित्रनिके शब्दकर शोभायमान निरंतर आरम्भए है महा उत्सव जहां ऐसे Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवां पर्व ३१६ रामके रचे रमणीक जिन मन्दिर तिनकी पंक्ति शोभती भई । तह पंच वर्णके प्रतिबिंब जिनेन्द्रके सर्व लक्षपनि कर संयुक्त सर्व लोकनि करि पूज्य विराजते भये । एक दिन श्रीराम कमललोचन लक्ष्मण कहते भये - हे भाई ! यहां अपने ताई दिन बहुत बीते श्रर सुखम् या गिरि पर रहे श्रीजिनेश्वरक्के चैत्यालय बनवाये पर पृथ्वीमें निर्मल कीर्ति भई अर या वंशस्थलपुर के राजा ने अपनी बहुत सेवा करी, अपने मन बहुत प्रसन्न किए अब यहांही रहें तो कार्यकी सिद्धि नाहीं और इन भोगनि कर मेरा मन प्रसन्न नाहीं, ये भोग रोगके समान हैं ऐसा ही जानता हूँ तथापि ये भोगनिके समूह मोहि क्षणमात्र नाहीं छोड़े हैं सो अब तक संयमका उदय नाहीं तबतक ये विना न प्राप्त होय हैं। या भवमें जो कर्म यह प्राणी करे है ताका फल पर भवमें भोगवे है र पूर्व उपार्जे जे कर्म तिनका फल वर्तमान कालविषै भोगे है या स्थल में निवास करते अपने सुख संपदा है परन्तु जे दिन जाय हैं वे फेर न आवें । नदोका वेग श्रर आयुके दिन श्रर यौवन गए वे फेर न आवें । तातें करनरवा नाम नदीके समीप दंडक वन सुनिये है वहां भूमिगोचरनिकी गम्यता नाहीं और वहां भरतकी आज्ञासाहू प्रवेश नाहीं वहां समुद्रके तट एक स्थान बनाय निवास करेंगे यह रामकी आज्ञा सुन लक्ष्मणने विनती करी— हे नाथ आप जो आज्ञा करोगे सोई होगा ऐसा विचार दोऊ वीर महाधीर इन्द्रसारिखे भोग भगि बंशगिरिते सीता सहित चाले । राजा सुरप्रभ वंशस्थलपुरका पति लार चाला सो दूरतक गया। आप विदा किया सो मुश्किल से पीछे बाहुडा महा शोकवन्त अपने नगर में माया । श्रीरामका विरह कौन कोनको शोकवन्त न करें । गौतमस्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं - हे राजन् ! वह वंशगिरि बडा पर्वत जहां अनेक धातु सो रामचन्द्रने जिनि मंदिरनिकी पंक्ति कर महा शोभायमान किया कैसे हैं जिन मन्दिर, दिशानिके समूहको अपनी कांति करि प्रकाशरूप करे हैं ता गिरिपर श्रीरामने परम सुन्दर जिनमंदिर बनाए, सो वंशगिरि रामगिरि कहाया । या भांति पृथिवीपर प्रसिद्ध भया, रवि समान है प्रभा जाकी । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत मन्थ, ताकी भाषा बचनिकाबिषै रामगिरिका बरणन करनेवाला चालीसवां पर्व पूर्ण भयो ॥ ४० ॥ 11:01 अथानन्तर राजा अनरण्यके पोता दशरथके पुत्र राम लक्ष्मण सीतासहित दक्षिण दिशा के समुद्रको चाले, कैसे हैं दोऊ भाई ? महा सुख भोक्ता नगर ग्राम तिनकर भरे जे अनेक देश तिनको उलंघकर महा वनमें प्रवेश करते भए । जहां अनेक मृगनिके समूह हैं अर मार्ग सूझे नाहीं और उत्तम पुरुषनिकी वस्ती नाहीं । जहां विषम स्थानक सो भील भी न विचर सकें, नानाप्रकारके वृक्ष अर बेल तिनकरि भरा महा विषम प्रति अंधकार रूप जहां पर्वतनिकी गुफा गम्भीर निर्भर भरें हैं। ता वनविषै जानकी प्रसौंगते धीरे धीरे एक एक कोस रोज चाले दोऊ भाई निर्भय अनेक क्रीडा के करणहारे नरमदा नदी पहुंचे । जाके तट महा रमणीक प्रचुर तृणमिके समूह पर सघनता घरे महाछायाकारी अनेक वृक्ष फल पुष्पादिकरि शोभित भर याके Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० पन-पुराज समीप पर्वत, ऐस स्थानको देख दोऊ भाई वार्ता करते भए । यह वन अति सुन्दर अर नदी सुन्दर ऐसा कहकर रमणीक वृक्षकी छायामें सीता सहित तिष्ठे, क्षण एक तिष्ठकर तहाँकरम णीक स्थानक निरखकर जल क्रीडा करते भए । बहुरि महामिष्ट आरोग्य पक्क फल फूलनिके आहार बनाए, सुखकी है कथा जिनके, तहां रसोईके उपकरण अर वासण माटीके अर बांसनिके नाना प्रकार तत्काल बनाये, महा स्वादिप सुन्दर सुगंध आहार वनके धान सीताने तय्यार किये, भोजनके समय दोऊ वीर मुनिके प्रायवेके अभिलाषी द्वारपेक्षण को खडे, ता समय दो चारण मुनि आये। सुगुप्ति अर गुप्त हैं नाम तिनके ज्योति पटल कर संयुक्त है शरीर जिनका अर सुन्दर है दर्शन जिनका, भात श्रुत अवधि तीन ज्ञान विराजमान महब के धारक परन तपस्वी सकल वस्तुकी अभिलापारहित निर्मल है पित्त जिनके, मासोपवामी मह धीर वीर शुभ चेष्टाके धरणहारे, नत्रोके आनन्दके करता, शास्त्रोक्त प्राचार कर संयुक्त है शरीर जिनका, सो आहारको आय । सो दूरने सनान देखे, तर मा होसे भरे हैं नेत्र जाके अर रोमांचकर संयुक्त है शरीर जाका, पतिसां कहती भई, हे नाथ हे नरश्रेष्ठ ! देखो ! देखो ! सपकर दुर्बल शरीर दिगम्बर कल्याणरूप चारण युगल आये। तब राम कही-हे प्रिये ! पंडित, सुन्दरमूर्ते! वे साधु कहां हैं हे रूप आभरण को धरणहारी ! धन्य है भाग्य तेरे तू। निग्रंथ युगल देखे, जिनके दशनसे जन्म जन्मके पाप जा हैं बक्तिवंत प्राणी के परम कल्याण होग, जव या भांति रामने कही तब सीता कहती भई । ये आये ये आये तब ही दोनों मुनि रामके दृष्टि परे, जाव दयाके पालक ईर्या समिति सहित समाधान रूप हैं मन जिनके तब, श्र रामने सीता सहित सन्मुख जाय नमस्कारकर मह भक्ति युक्त श्रद्धासहित मुनिनिको आहार दिया, आरणी मैं पोंका अर वनकी गायोंका दग्ध जर छुआरे गिरी दाख नाना प्रकार के वनके थान्य सुन्दर घी मिष्टान इत्यादि मनोहर वस्तु विधिपूर्वक तिते मुनिनिको पारणा करावते भये । वे मुनि भोजनके स्वादके लोलुपतासू रहित निरंतराय आहार करते भए । जब र मने अपनी स्त्री सहित भक्तिकर आहार दिया, तब पंचाश्चर्य भए रत्ननिकी वर्षा पुष्पवृष्टि शीतल मंद सुगंध पवन अर दुदुम्भी बाजे, जय जयकार शब्द सो जा समय वनमें रामके मुनिनिका आहार भया ता समय एक गृद्ध पक्षी पानी इच्छा कर पक्षपर तिष्ठे था सो अतिशयर संयुक्त मुनिनिको देख अपने पूर्वभव जानता भया कि कोई एक भव पहिले मैं मनुष्य हुता प्रमादी अविवेक कर जन्म निष्फल खोया, तप संयम न किया, धिक्कार मो मूहबुद्धि को अब मैं पापके उदयकरि खोटी योनिमें आय पडा, कहा उपाय करू, मोहि मनुष्य भवमें पापी जीवनि भरमाया, वे कहिवेके मित्र अर महा शत्रु सो उनके संग मैं धर्मरत्न तजा अर गुरुनिके वचन उलंव महापाप आचरा । मैं मोहकर अंध अज्ञान तिमिरकर धर्म न पहिचाना । अब अपने कर्म चितार उर में जलू हूँ। बहुत चितवनकर कहा दुखके निवारनेके अर्थ इन साधुनिका शरण गहूं ये सर्व सुखके दाता इन मेरे परम अर्थ की प्राप्ति निश्चयसेती होयगी । या भांति पूर्णभवके चितारनेते प्रथम तो परम शोकको प्राप्त भया हुता । बहुरि साधुनिके दर्शनते तत्काल परम हर्षित होय अपनी दोऊ पांख हलाय आमनि कर भरे हैं नेत्र जाके महा विनय कर मण्डित पची बचके Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवा पर्व अग्रभागसे भूमिमें पडा सो महा मोटा पनी त के पडनेके शब्दकरि हाथी अर सिंहादि वनके जीव भयकर भाग गये अर सीता भी आकुलचित्त भई, देखो यह ढीठ पक्षी मुनिनिके चरण में कहां प्राय पडा, कठोर शब्दकर धन ही निवारा परंतु वह पक्षी मुनिनिके चरणनि के धोवनिमें प्राय पडा, चरणोदकके प्रभाव कर क्षणमात्रमें ताका शरीर रत्नोंकी राशिसमान नाना प्रकारके तेजकर मण्डित होय गया, पांख तो स्वर्णकी प्रभाको धरते भए, दोउ पांव वैडयंसमान होय गये पर देह नाना प्रकारके रत्ननिकी छविको धरता भया भर चूच मृगा समान आरक्त भई तव यह पक्षी आपको अर रूपको देख परम हर्षको प्राप्त भया मधुर नादकर नृत्य करनेको उद्यमी भया । देवनिके दुदुम्भी समान है नाद जाका नेत्रनिते आनन्दके अश्रुपात डारता शोभता भया जैसा मोर मेहके आगममें नृत्य करे तैसा मुनिके आगे नृत्य करता भया, महामुनि विधिपूर्वक पारलाकर वैडूर्यमणि समान शिलापर विराजे । पद्मराग मणि समान है नेत्र जाके ऐसा पदी पांख संकोच मुनिनिके पात्रों को प्रणाम कर आगे तिष्ठा तब श्रीराम फूले कमल समान हैं नेत्र जिनके, पक्षीको प्रकाश रूप देख आप परम आश्चर्यको प्राप्त भए ,साधुनिके चरणारबिंदको नमस्कार कर पूछते भए, कैसे हैं साधु अठाईस मूल गुण चौरासी लाख उत्तर गुण, वे ही हैं आभूषण जिनके, बारंबार पक्षीकी ओर निरख राम मुनिसों कहते भएहे भगवान ! यह पक्षी प्रथम अवस्थामें महाविरूप अंग हुता सो क्षणमात्रमें सुवर्ण अर रत्ननिके समूहकी छवि थरता भया यह अशुचि सर्व मांस का अाहारी दुष्ट गृद्धपक्षी आपके चरणनिके निकट तिष्ठ कर महा शांत भया सो कौन कारण ? तब सुगुप्तिनामा मुनि कहते भए-हे राजन् ! पूर्व इस स्थलमें दंडक नामा देश हुता जहां अनेक ग्राम नगर पट्टण संवाहण मटंब घोष खेट करबट द्रोणमुख हुते। वाडि कर युक्त सो ग्राम, कोट खाई दरबाजेनिकर मंडित सो नगर अर जहां रत्ननिकी खान सो पट्टण पर्वतके ऊपर सो संवाहन पर जाहि पांचसो ग्राम लागे सो मटंब अर गायनिके निवास गुवालनिक प्रावास सो घोष अर जाके आगे नदी सो खेट अर जाके पीछे पर्वत सो कर्वट पर समुद्रके समीप सो द्रोणमुख इत्यादि अनेक रचनाकर शोभित यहां कर्णकुंडल नामा नगर महामनोहर ताविषे या पक्षीका जीव दंडक नामा राजा हुता महाप्रतापी उदय थरे प्रचंड पराक्रम संयुक्त भग्न किये हैं शत्रुरूप कंटक जाने, महामानी बडी सेनाका स्वामी सो या मूढने अधर्मकी श्रद्धाकर पाप रूप मिथ्या शास्त्र सेया जैसे कोई घृाका अर्थी जलको मथे, याकी स्त्री दंडिनिकी सेवक हुती तिनसे अतिअनुरागिणी सो याके संगकर यह भी ताके मार्गको धरता भया । स्त्रिनिके वश हुवा पुरुष कहा २ न करे । एक दिवस यह नगरके बाहिर निकसा सो वन में कायोत्सर्ग धरे ध्यानारूढ मुनि देखे । तब या निर्दइने मुनिके कंठविणे मूवा सर्प डारा, कैसा हुता यह पापाण समान कठोर हुता विच जाका सो मुनि ध्यान धरे मानसों तिष्ठे अर यह प्रतिज्ञा करी, जो लग मेरे कंठते कोई सर्प दूर न करे तोलग मैं हलन चलन नाहीं करू, योगरूप ही रहं। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ पध-पुराण . .... सों काहूने सर्प दूर न किया मुनि खडे ही रहे । बहुरि कैयक दिननि में राजा ताही मार्ग गया ताही समय काहू भले मनुष्यने सांप काढा अर मुनिके पास वह बैठा हुता सो राजा वो मनुष्य पूछा जो मुनिके कंठते सांप कौनन काढा अर कब काढा, तब वाने कही-हे नरेंद्र ! काहू नरक. मामीने ध्यानारूढ मुनिके कंठ में मूवा सर्प डारा हुता, सो सर्प के संयोगते साधु का शरीर अतिखेदखिन्न भया । इनके तो कोई उपाय नाही, आज सर्प मैंने काढा है। तब राजा. मुनिको शांत स्वरूप कषायरहित जान प्रणामकर अपने स्थानक गया। ता दिनते मुनिनिकी भक्ति में अनुरागी भया पर काहूको उपद्रव न करे, तब यह वृत्तांत राणीने दंडिनके मुखसे सुना; जो राजा जिनधर्मका अनुरागी भया। तब पापिनीने क्रोधकर मुनिनिके मारवेका उपाय किया । जे दुष्ट जीव हैं ते अपने जीनेकाहू यत्न तज पराया अहित करें । सो पापिनीने गुरुसों कही तुम मुनिका रूपकर मेरे महलविणे आवहु अर विकार चेष्टा करहु तब वाने या भांति करी । सो राजा यह वृत्तांत जानकर मुनिनिस्कोप भया अर मंत्री आदि दुष्ट मिथ्यादृष्टि सदा मुनिनिकी निंदा करते, अर अन्य हू जे क्रूरकर्मी मुनिनिके अहितु हुते तिनने राजाको भरमाया सो पापी राजा मुनिनिको घानिविष पेलिवेकी आज्ञा करता भया । प्राचार्य सहित सर्व मुनि घानिविष पेले, एक साधु बहिभूमि गया, पीछे श्रावता हुता सो काहू दयावानने कही-अनेक मुनि पापी राजाने यंत्रविणे पेले हैं तुम भाग जावहु तुम्हारा शरीर धर्मका साधन है सो अपने शरीरकी रक्षा करहु । तब ह समाचार सुन संघके मरणके शोककर चुभी. है दुःखरूप शिला जाके, क्षण एक वज्रके स्तंभ समान निश्चल होय रहा, फिर न सहा जाय ऐसा क्लेशरूप भया सो मुनिरूप जो पर्वत ताकी समभावरूप गुफामक्रोधरूप केसरीसिंह निकसा जैसा आरक अशोक वृक्ष होय तैने मुनिके आरक्त नेत्र भए, तेजकर आकाश संध्याके रंगसमान होय गया। कोपकर तप्तायमान जो मुनि ताके सर्ग शरीरविणे पसेवकी बूंद प्रकट भई, फिर कालाग्नि समान प्रज्वलित अग्निपूतला निकसा सो धरती आकाश अग्निरूप होय गया, लोक हाहाकार करते मरणको प्राप्त भए । जैसे बांसनिका बन बले, तैसे देश भस्म होय गया, न राजा न अंतःपुर न ग्राम न पर्वत न नदी न वन न कोई प्राणी कछु हू देशविर्ष न बचा। महाज्ञान वैराग्यके योगकर बहुत दिननिवि मुनिने समभावरूप जो धन उपार्जा हुना सो तत्काल क्रोथरूप रिपुने हरा, दंडक देशका दंडक राजा पापके प्रभावकर प्रलय भया पर देश प्रलय मया सो अब यह दंडक वन कहावे है । कैरक दिन तो यहां तृग भी न उपजा फिर घनेकालविष मुनिनिका विहार भया तिनके प्रभावकर वृक्षादिक भए यह वन देशनिको हू भयंकर है, विद्याथरनिकी कहा बात ? सिंह व्याघ्र अद्यापदादि अनेक जीवनिस् भरा अर नानाप्रकारके पतिनिका शब्दरूप है अर अने प्रकारके धान्यसे पूर्ण है। वह राजा दंडक महाप्रबल शक्तिका धारक हुता सो अपराधकर नरक तिर्य गतिविगै बहुत काल भ्रमणकर यह गृद्ध पक्षी भया । अब याके पापकर्मकी नित्ति भई, ह को देख पूर्वभव स्मरण भया ऐसा जान जिन आज्ञा मान शरीर भोगविरक्त होय धर्मविष सावधान होना, परजीवनिका जो दृष्टांत है सो अपनी Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसपी पव ३२३ शांतभावकी उत्पत्तिका कारण है । या पक्षीको अपनी विपरीत चेष्टा पूर्वभवकी याद आई है सो कंपायमान हैं, पक्षीपर दयालु होय मुनि कहते भए - 1 हे भव्य ! अब तू भय मत करहु जा समयविषे जैसी होनी होय सो होय, रुदन काहे को करे है, होनहारके मेटवे समर्थ कोऊ नाहीं । अब तू विश्रामको पाय सुखी होय पश्चाताप तज, देख कहां यह वन अर कहां सीतासहित श्रीरामका आवना यर कहां हमारा वनचर्याका अवग्रह जो वनविषै श्रावकके आहार मिलेगा तो लेवेंगे अर कहां तेरा हमको देख प्रतिबोध होना, कर्मfast afa विचित्र है । कर्मनिकी विचित्रताते जगतकी विचित्रता है । हमने जो अनुभवा अर सुना देखा सो कहे हैं । पक्षीके प्रतिबोथवे के अर्थ रामका अभिप्राय जान सुगुप्तिमुनि अपना कर दूजा गुप्तिमुनि दोनोंक। वैराग्यका कारण कहते भए । वाराणसी नगरी तहां अचलनामा राजा विख्यात ताके राणी गिरदेवी गुणरूप रत्ननि कर शोभित ताके एक दिन त्रिगुप्तिनामा मुनि शुभ चेष्टाके धरनहारे आहार के अर्थ आए । सो राणीने परम श्रद्धाकर तिनको विधिपूर्वक आहार दिया। जब निरंतराय . आहार हो चुका तब राणीने मुनिको पूछा- हे नाथ ! यह मेरा गृहवास सफल होयगा या नाहीं । भावार्थ -- मेरे पुत्र होयगा या नाही, तत्र मुनि वचनगुप्तिभेद याके संदेह निवारणके अर्थ आज्ञा करी तेरे दोय पुत्र विवेकी होयगें सो हम दोय पुत्र त्रिगुप्ति मुनिकी आज्ञा भए पीछे भए ता सुगुप्ति र गुप्ति हमारे नाम माता पिताने राखे सो हम दोनों राजकुमार लक्ष्मीकर मंडित सर्व कलाके पारगामी लोकनिके प्यारे नानाप्रकारकी क्रीडा कर रमते घरविषै तिष्ठे । अथानन्तर एक और वृत्तांत भया गन्धवती नामा नगरी वहाके राजाका पुरोहित सोम ताके दो पुत्र एक सुकेतु दूजा अनिकेतु तिनविषं अति प्रीति सो सुकेतुका विवाह भया विवाकर यह चिन्ता भई कि कबहूं या स्त्रीके यागकर हम दोनों भाईनिमें जुदायगी न होष बहुरि शुभकर्मके योगसे सुकेतु प्रति बोध होय श्रनन्तवीर्य स्वामीके समीप मुनि भया अर लहुरा भाई अग्निकेतु भाईके बियोगकर अत्यंत दुखी होय बाराणसीविषै उग्र तापस भया तब बडा भाई सुकेतु जो मुनि भया हुता सो छोटे भाई को तापस भया जान सम्बोधिवेके अर्थ भायबेका उनी भया गुरूपै आज्ञा मांगी तब गुरूने कहा तू नाईको संबोधा चाहे हैं तो यह वृत्तान्त सुन तत्र याने कही हे नाथ ! वृत्तान्त कहो, तब गुरु कही वह तुमसा मत पक्षका बाद करेगा अर तुम्हारे वादके समय एक कन्या गंगाके तीर तीन स्त्रिनि सहित आवेगी । गौर है व जाका नानाप्रकारके वस्त्र पहिरे दिन के पिछले पहिर आवेगी तो इन चिन्होंकर जान, तू भाई ते कहियो या कन्याके कहा शुभ अशुभ होनगर है सो कहो । तब वह बिलपाहोय तोसे कहेगा मैं तो न जान तुम जानते हो तो कहो तब तू कहियो या पुर विषै एक प्रवर नामा श्रेष्ठी धनवन्त ताकी यह रुचिरा नामा पुत्री है सो आजसे तीसरे दिन मरणकर कम्बर ग्राम में बिलास नामा कन्याके पिता का मामा ताके बेरी होय मी तःहि न्याली मारेगा सो मरकर गाडर होयगी बहुरि भैंस, भैंस से ताही विलासके विधुरा नामा पुत्री होयगी यह वार्ता गुरू ने कही तव सुकेतु सुनकर गुरूको प्रणामकर तापसिनिके आश्रम आया जा भांति गुरू कही हुती वादी भांति तापससों कही भर ताही भांति Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ पा-पुराण मई वह विधुरा नामा विलस को पुत्रीको प्रवरनामा श्रेष्ठी परणे लगा तब अग्निकेतु कही यह तेरी रुचिरा नामा पुत्री सो मर कर अजा गाडर भैंस हार तेरे मामाके पुत्री भई अब तू याहि परने सो उचित नाहीं पर विलासको भी सर्व वृत्तान्त कहा कन्याके पूर्व भव कहे सो सुनकर कन्याको जाति स्मरण भया कुम्मसे मोह तज सर्व सभा को कहती भई यह प्रवर मेरा पूर्वभवका पिता है सो ऐसा कह प्राधिका भई अर अग्निकेतु तापस मुनि भया यह वृत्तान्त सुनकर हम दोनों भाईनिने महावैराग्यरूप होय अनन्तवीर्य स्वामी के निकट जैनेन्द्रव्रत अंगीकार किये मोहके उदयकर प्राणिनिके भववनके भटकावने हारे अनेक अनाचार होय हैं सद्गुरूके प्रभावकर अनाचार का परिहार है। संसार असार है,माता पिता बांधव मित्र स्त्री संतानादिक तथा सुख दुःखही विनश्वर हैं। ऐसा सुनकर पक्षी भव दुख से भयभीत भपा धर्मग्रहणकी बांद्राकर यारम्बार शब्द करता भया तब गुरु कही, हे भद्र, भय मत करहु श्रावकके व्रत लेवो जाकर बहुरि दुखकी परम्परा न पावे, अब तू शांतिभाव थर किसी प्राणीको पीडा मत कर । अहिंसा प्रत धर, मृषा वाणी तज, सत्य व्रत श्रादर, पर वस्तु का ग्रहण तज परदारा तज तथा सर्वथा ब्रह्मचर्य भज तृष्णा तज सन्तोष भज रात्री भोजनका परिहार कर अभव आहारका परित्याग कर उत्तमचेष्टाका धारक हो अर त्रिकाल संध्याविषं जिनेन्द्रका ध्यान थर हे सुबुद्धि,उपवासादि तपकर नाना प्रकारके नियम अंगीकार कर प्रमादरहित होय इंद्रियां जीत,साधुनिकी भक्ति कर देव अरहंत गुरु निग्रंथ दया थमविणे निश्चय कर। या भांति मुनिने आज्ञा करी तब पक्षी वारम्बार, नमस्कारकर मुनिके निकट श्रावकके व्रत थारता भया सीताने जानी यह उत्तम श्रावक भया तब हर्षिा होय अपने हाथ से बहुत लढाया । ताहि विश्वास उपजाय दोऊ मुनि कहते भये---यह पक्षी तपस्त्री शांत चित्त भया कहां जायगा ? गहन वनविणे अनेक क्रूर जीव हैं या सम्यग्दृष्टी पक्षीकी तुम सदा रक्षाकरना। यह गुरुके वचन सुन सीता पक्षीके पालिवेरूप है चित्त जाका अनुग्रह कर राखा । राजा जनक की पुत्री करकमलकर विश्वासती संती कैसी सोभती भई जैसे गरुडकी माता गरुडको पालती शोभे अर श्रीराम लक्ष्मण पक्षीको जिन थी जान अतिधमानुराग करते भये अर मुनिनकी स्तुतिकर नमस्कार करते भये। दोनों चारण मुनि आकाशके मार्ग गये सों जाते कैसे शोभते भये मानो धर्मरूप समुद्रकी कल्लोल ही हैं। ___ अथानन्तर एक बनका हाथी मदोन्मत्त वनमें उपद्रव करता भया । ताको लक्ष्मण वश कर तापर चढ रामपै आए सो गजराज गिरिराज सारिखा ताहि देख राम प्रसन्म भए अर वह ज्ञानी पक्षी मुनिकी आज्ञा प्रमाण यथाविधि अणुव्रत पालता भया महाभाग्यके योगते राम लक्ष्मण सीताका ताने समीप पाया । इनके लार पृथिवीमें विहार करे, यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिकर कहे हैं-हे राजन् ! धर्मका माहात्म्य देखो याही जन्मविषै वह विरूप पक्षी अद्भुत रूप होय गया । प्रथम अवस्थाविषे अनेक मांसका आहारी दुर्गध निंद्य पक्षी सुगन्धके भरे कंचन कलस समान महासुगन्ध सुन्दर शरीर होय गया, कई इक अग्निकी शिखासमान प्रकाशमान अर कहूँ इक बैडूर्यमणि समान कहूँ इक स्वर्ण समान कहूं इक हरितमणिकी प्रभाको थरे शोभता भया । राम लक्ष्मण के समीप वह सुन्दर पक्षी श्रावकके व्रत धार महास्वाद संयुक्त भोजन Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बयालीसा प - ३२५ करता भया । महाभाग्य पक्षीके जो श्री रामकी संगति पाई। रामके अनुग्रहते अनेक चर्चा धार erant महाश्रद्धानी भया । श्रीराम ताहि प्रति लढ़ावें चन्दनकर चर्चित है अंग जाका स्वर्णकी किंकणी कर मण्डित रत्नकी किरणनिकरि शोभित है शरीर जाका, ताके शरीर में रत्न हेमकर उपजी किरणनिकी जटा ताते याका नाम श्रीगमने जटायू धरा । राम लक्ष्मण सीताको यह प्रतिप्रिय, जीती है इसकी चाल जाने महा सुन्दर मनोहर चेष्टाको घरे रामका मन मोहता भया । तावन और जे पक्षी वे देखकर आश्चर्य को प्राप्त भए। यह व्रती तीनों संध्याविषै सीता के साथ भक्तिर नम्रीभूत हुआ अरहन्त सिद्ध साधुनिकी बन्दना करे । महा दयावान् जानकी जटायू पक्षी पर अतिकृपाकर सावधान भई सदा याकी रक्षा करे। कैसी है जानकी १ जिनधर्मते है अनु राग जाका । वह पक्षी महा शुद्ध अमृत समान फल अर महा पवित्र सोधा अन्न निर्मल छाना जल इत्यादि शुभ वस्तु का आहार करता भया । पक्षी अविधि छोड विधिरूप भया, श्री भगवानकी Heat अति लीन जनककी पुत्री सीता जब ताल बजावे अर राम लक्ष्मण दोऊ भाई तालके अनुसार तान लावें तब यह जटायू पक्षी रविसमान है कांति जाकी परम हर्षित भया ताल अर तानके अनुसार नृत्य करे ॥ इति श्रीरमिणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वाचनिकागि जटायू का व्याख्यान गर्णन करनेवाला इकतालीसवां पर्व पूर्ण भया ॥ ४९ ॥ -**** --- अथानन्तर पात्र दान के प्रभावकर राम लक्ष्मण सीता या लोकमें रत्न हेमादिसम्पदा कर युक्त भए । एक सुवर्णमई रत्नजडित अनेक रचना कर सुन्दर ताके मनोहर स्तम्भ रमणीक वाड बीच विराजवेका सुन्दर स्थानक अर जाके मोतिनिकी माला लूम्बे सुन्दर झालरी सुगंध चंदन कपूरादि कर मंडित जामें सेज आपन वादित्र वस्त्र सर्व सुगंध कर पूरित ऐसा एक विमान समान अद्भुत रथ बनाया जाके चार हाथी जुड़ें ताविषै बैठे राम लक्ष्मण सीता जटायू सहित रमणीक वनविष विचरें, जिनको काहूका भय नाहीं, काहूकी घात नाहीं, काहू ठौर एक दिन का ठौर पंद्रह दिन काहूं ठौर एक मास मनवांछित क्रीडा करें। यहां निवास करें अक यहाँ निवास करें, भैसी है अभिलाषा जिनके, नवीन शिष्यकी इच्छा की न्याईं इनकी इच्छा अनेक ठौर विचरती भई । महानिर्मल जे नीकरने तिनको निरखते ऊंची नीची जायगा टार समभूमि निरखते ऊचे वृक्ष निको उलंघकर धीरे धीरे आगे गए, अपनी स्वेच्छा कर भ्रमण करते ये वीर वीर सिंह समान निर्भय दंडकवन के मध्य जाय प्राप्त भए । कैसा है वह स्थानक कायरनि क्रू भयकर जहां पर्वत विचित्र शिखिरके धारक जहां रमणाक नीझरने झरें । जहांते नदी निकसें - मोतिनके हार समान उज्ज्वल जल जहां अनेक वृक्ष बंड पीपल, बहेडा पीलू सरसी बड़े बड़े सरल वृक्ष धवल वृक्ष कदंव तिलक जातिके वृक्ष लोंद वक्ष अशोक जम्बूवृक्ष पाटल आम्र आंवला अमिली चम्पा कण्डीरशालि वृक्ष ताड वृक्ष प्रियंगू सप्तच्छद, तमाल न गक्ष नन्दीवृक्ष अर्जुन जाविकं वृच पलाश वृक्ष मलियागिरि चन्दन केसरि भोजवृक्ष हिंगोट वृक्ष काला अगर र सुफेद Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण अगर कुन्द पद्माक वृक्ष कुरंज बृक्ष पारिजात वृक्ष मिजन्यां केतकी केवडा महुवा कदली खैर मद. नवृक्ष नींबू खजूर छुहारे चारोली नारंगी विजौरा दाडिम नारयल हरडे केथ किरमाला विदारीकं. द अगथिया करंज कटालीकूट अजमोद कौंच कंकोल मिर्च लवंग इलायची जायफल जावित्री चव्य चित्रक सुपारी तांबूलों की बेलि रक्तचन्दन वेत श्यामलता मीठासींगी हरिद्रा भरलू सहिजडा कुडा वृक्ष पद्माख पिस्ता मौलश्री बीलवृक्ष द्राक्षा विदाम शाल्मलि इत्यादि अनेक जातिके वृक्ष तिनकर शोभित है अर स्वयमेव उपजे नाना प्रकारके थान्य अर महारसके भरे फल अर पौडे सांठे इत्यादि अनेक वस्तुनिकर वह वन पूर्ण नाना प्रकारकेवृक्ष नानाप्रकार की घेल नाना प्रकारके फल फूल तिनकर वन अति सुन्दर मानो दूजा नन्दन वन ही है सो शीतल मन्द सुगन्ध पवन कर कोमल कोंपल हालें , सो ऐसा सो है मानों वह वन रामके प्राइवे कर हर्ष कर नृत्य कर है पर सुगन्ध पवन कर उठी जो पुष्पकी रज सो इनके अंगसे आय लगे सो मानों अटवी मालिंगन ही करे है अर भ्रमर गुंजार करे हैं सो मानो श्रीरामके पधारने कर प्रसन्न भयावन गान ही करे है, अर महा मनोज्ञ गिनिके नीझरनिके छोटेनिके उछरिवेके शब्द कर मानों हंसे ही है अर भैरुम जातिके पक्षी तथा हम सारिस कोयल मयूर लिचांड कुरुचि सूवा मैना कपोत भारद्वाज इत्यादि अनेक पक्षिनिके ऊचे शब्द होय रहे हैं सो मानों श्रीराम लक्ष्मण सीताके प्राइवेका प्रादर ही करे हैं अर मानों वे पक्षी कोमल बाणीकर ऐसा वचन कहे हैं कि महाराज! भले ही यहां भावो भर सरोवरनिमें सफेद श्याम अरुण कमल फूल रहे हैं सो मानों श्रीरामके देखवेको कौतूहलते कमलरूप नेत्रनिकर देखने को प्रवर्ते हैं अर फलनिके भारकर नम्रीभूत जो वृक्ष सो मानों रामको नमे हैं अर सुगन्ध पवन चाले है सो मानों वह वन रामके प्रायवेसे श्रीनन्दके स्वांस लेय है, सो श्रीराम सुमेरुके सौमनस वन समान वनको देखकर जानकी कहते भए-कैसी है जानकी? फूले कमल समान हैं नेत्र जाके । पति कहे है-हे प्रिये ! देखो यह वृक्ष बेलनिम् लिपटे पुष्पनिके गुच्छनिकर मण्डित मानो गृहस्थ समान ही भासे हैं अर प्रियंगुकी बेल मौलसरीके वृक्ष लगी कैसी शोभे है जैसी जीव दया जिनधर्मसू एकताको थरे सोहै, अर यह माधवीलता पवनकर चलायमान जे पल्लव तिन कर समीपके वृक्षनिकों स्पर्श हैं जैसे विद्या विनयवानको स्पर्श है अर हे पतिब्र. ते ! यह वनका हाथी मदकर आल परूप हैं नेत्र जाके सो हथिनीके अनुरागका प्रेरा कमलनिके वनमें प्रवेश करे है जैसे अविद्या कहिये मिथ्यापरणति ताका प्रेरा अज्ञानी जीव विषयवासनाविषै प्रवेश कर, कैपा है कम ननिका वन, विकसि रहे जे कमलदल तिनपर भ्रमर गंजार करे हैं और हे दृढव्रते, इंद्रनीलमणि समान श्यामवर्ण सर्प बिलते निकसकर मयूरको देख भाग कर पीछे विलमें घुप है जैसे बिवेकसे काम भाग भवन में छिपे अर देखो सिंह केसरी महा सिंह साहसरूप चरित्र इस पर्वतकी गुफामें तिष्ठा हुता सी अपने रथ का नाद सुन निद्रा तज गुफाके द्वार प्राय निर्भय तिष्ठे है पर यह बघेरा क्रूर है मुख जाका गर्वका भरा मांजरे नेत्रनिका धारक मस्तक पर धरी है पूछ जाने नखनिकर वृक्ष की जडको कुचरे है पर मृगानिक समूह दुवके अंकुर तिनके चरिबे को चतुर अपने बालकनिको बीचकर मृगीनि सहित गमन करे हैं सो नेवनिकर दरहीसे Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गियालीसा पर्व अवलोकन करते अपने ताई दयावन्त जान निर्भय भए बिचरे हैं । यह मृग माण सू कायर सो पापी जीवनके भयते अति सावधान हैं, तुमको देख अति प्रीति को प्राप्त भए विस्तीर्ण नेत्र कर पारम्बार देखे हैं। तुम्हारेसे नेत्र इनके नाहीं ताते आश्चर्य को प्राप्त भए हैं अर यह वनका शूकर अपनी दांतली कर भूमिको विदारता गर्वका भरा चला जाय है लग रहा है कर्दम जाके अर हे मजगामिनी, या वन विष अनेक जातिके गजनिकी घटा विचर हैं सों तुम्हारीसी च ल तिनकी नाही तातै तिहारी चाल देख अनुरागी भए हैं अर ये चीते विचित्र अंग अनेक वर्ण कर शोभे हैं जैसे इन्द्र धनुष अनेक वर्ण कर सोहे है। हे कलानिधे ! यह वन अनेक अष्टापदादि क्रूर जीवनि कर भरा है अर अति सघन पूवनि कर भरा है अर नाना प्रकारके तृणनि कर पूर्ण है की एक महा सुन्दर है जहां भय रहित मृगनिके समूह विचरे हैं। कहूं यक महा भयंकर अति गहन है जैसे महाराजनिका राज्य अति सुन्दर है तथापि दृष्टनिको भयंकर है अर कहीं एक महामदोन्मत्त गजराज वृचनिको उनाडे है जैसे मानी पुरुष धर्मरूप वृक्षको उखाडे है । कहूँ इक नवीन वृक्षनिके महा सुगौंथ समूह पर भ्रमर गुंजार करे हैं जैसे दातानिके निकट याचक अावें कोहू ठोर वन लाल होय रहा है काह ठोर श्वेत काहू ठौर पीत काहू ठौर हरित काहू ठोर श्याम काहू ठौर चंचल काह ठौर निश्चल काहू ठौर शब्द सहित काहू ठौर शब्द रहित काहू ठौर गहन काहू ठौर विरले वृक्ष, काह ठीर सुभग काहू ठोर दुभंग काहू ठौर विरस काहू ठौर सरस काहू ठौर सम काहू ठोर विषम कार ठोर तरुण काहू ठौर वृक्षवृद्धि या भांति नाना विध भासे है यह दण्डक नामा वन विचित्र गति लिए है जैसे कर्मनिका प्रपंच विचित्र गति लिये है, हे जनकसुता ! जो जिन धर्म को प्राप्त भए हैं तेही या कर्म प्रपंचते निवृत्त होय निर्वाणको प्राप्त होय हैं । जीवदया समान कोऊ धर्म नाहीं जो श्राप समान पर जीवनिको जान सर्व जीवनिकी दया करें तेई भव सागर म तिरें। यह दण्डक नामा पर्वत जाके शिखर आकाशमों लग रहे हैं ताका नाम यह दण्डक वन कहिए है या गिरिके ऊंचे शिखिर हैं पर अनेक धातुकर भरा है जहां अनेक रंगन करि आकाश नाना रंग होय रहा है । पर्वतमें नाना प्रकारकी औषधी हैं कैयक ऐसी जडीजे दीपक समान प्रकाशरूप अंधकारको हरें तिनको पवनका भय नाहीं पवनमें प्रज्वलित रहैं और या गिरिते नीझरने झरे हैं जिनका सुन्दर शब्द होय रहा हैं जिनके छांटोंकी बन्द मोतिनको प्रभाको घरे हैं या गिरिके स्थानक कैयक उज्ज्वल कैयक नील कैयक आरक्त दीखे हैं अर अत्यंत सुन्दर सोहै हैं सूर्यको किरण गिरिके शिखिरके वृक्ष निके अग्रभाग विपे आय पडे हैं अर पत्र पवनकरि संचल है सो अत्यंत सोहे हैं। हे सुबुद्धिरूपिणि ! या ननमें कहूँ इक वृक्ष फलनिके भार कर नम्रीभत होय रहे हैं पर कहूं इक नाना रंगके जे पुष्प तेई भए पट तिनकर शोभित हैं अर कहं इक मधर शब्द बोलनहारे पक्षी तिनकरि शोभित हैं । हे प्रिये ! या पर्वतते यह क्रौंचवा नदी जगत प्रसिद्ध निकसी है जैसे जिनराजके मुखते जिनवाणी निकसे. या नदीका जल ऐसा मिष्ट है जैसी तेरी चेष्टा मिष्ट है, हे मुकेशी ! या नदीमें पवन कर उठे हैं लहर अर किनारेके वनिके Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ पद्म-पुराण पुष्प जल में पडे हैं सो अति शोभित हैं। कैसी है नदी १ हंसनके समूह र कागनिके पटलन कर अति उज्ज्वल है अर ऊंचे शब्दकर युक्त है जल जाका, कहूं इक महा विकट पाषाणन के समूह तिनकर विषम है अर हजारा ग्राह मगर तिनकर अति भयंकर है अर कहूं इक अति वेग कर चला आवे है जलका जो प्रवाह ताकर दुर्निवार है जैसे महा मुनिके तपकी चेष्टा दुर्निवार है कहूं इक शीतल जल बहे है कहूं इक वेगरूप वहे हैं, कहूं इक काली शिला, कहूं इक श्वेत शिला तिनकी कांतिकर जल नील श्वेत होय रहा है मानों हलधर हरिका स्वरूप ही है, कहूं इक रक्त शिलानिके किरणकी समूह कर नदी आरक्त होय रही है जैसे सूर्यके उदयकर पूर्व दिशा आरक्त होय पर कहूं इक हरित पाषाणके समूह कर जलमें हरितता भासे है, सो सिवालकी शंका कर पक्षी पीछे जा रहे हैं । हे कांते ! यहां कमलनिके समूहमें मकरंदके लोभी भ्रमर निरंतर भ्रमण करे हैं, अर मकरंद की सुगंधा पाकर जल सुगंधमय हो रहा है, पर मकरंदके रंगनि कर जल सुरंग होय रहा है, परन्तु तिहारे शरीर की सुगन्धता समान मकरंदकी सुगन्ध नाहीं, अर तिहारे रंग समान मकरंदका रंग नाहीं, मानों तुम कमलवदनी कहावो हो सो तिहारे मुखकी सुगन्धताहीसे कमल सुगन्धित है और ये भ्रमर कमलनिकों तज तिहारे मुखकमल पर गुंजार कर रहे हैं अर या नदीका जल काहू ठौर पाताल समान गम्भीर है मानों तिहारे मनकासी गम्भीरताको घरे है अर कहूं इक नील कमलनि कर तिहारे नेत्रनकी छायाको घरे है अर यहां अनेक प्रकार के पक्षिनिके समूह नाना प्रकार क्रीडा करे हैं, जैसे राजपुत्र अनेक प्रकारकी क्रीडा करें । हे प्राणप्रिये ! या नदीके पुलनिको बालू रेत अति सुन्दर शोभित है as स्त्री सहित खग कहिए विद्याधर अथवा खग कहिए पक्षी आनन्द कर विवरे हैं । हे श्रखंडव्रते ! यह नदी अनेक विलासन को धरे समुद्रकी ओर चली जाय है जैसे उत्तम शीलकी धरण हारी राजनकी कन्या भरतारके परणवेको जांय, कैसे हैं भरतार ! महामनोहर गुण के प्रसिद्ध समूहको थरे शुभ चेष्टा कर युक्त जगतमें विख्यात हैं । हे दयारूपिनी ! इस नदी के किनारे के वृक्ष फल फूलन कर युक्त नाना प्रकार पक्षिन कर मंडित जलकी भरी काली घटा समान सघन शोभाको घरे हैं या भांति श्रीरामचन्द्रजी अति स्नेहके भरे वचनज नकसुतासू कहते भए, परम विचित्र अर्थको धरे तब वह पतित्रता अति हर्ष के समूह कर भरी पति प्रसन्न भई, परम 1 दर कहती भई । हे करुणानिधे ! यह नदी निर्मल है जल जाका रमणीक हैं तरंग जाविष हंसादिक पक्षिनिके समूह कर सुन्दर है परन्तु जैना तिहारा चित्त निर्मल है तैया नदीका जल निर्मल नाहीं अर जैसे तुम सघन र सुगंध हो तैसा वन नाहीं अर जैसे तुम उच्च अर स्थिर हो तैसा गिरि नाहीं श्रर जिनका मन तुममें अनुरागी भया है तिनका मन और ठौर जाय नाहीं, या भांति राजसुता के अनेक शुभ वचन श्रीराम भाई सहित सुनकर अतिप्रसन्न होय याकी प्रशंसा करते भए । कैसे हैं रम १ रघुवंश रूप आकाशविषै चंद्रमा समान उद्योतकारी हैं नदीके तटपर मनोहर स्थल देख हा थिनिके रथसे उतरे । लचत्रण प्रथम ही नानास्वादको धरे सुन्दर मिष्टफल Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बियालीसा पर्व ३२६ लाया पर सुगंध पुष्प लाया बहुरि राम सहित जल क्रीडाका अनुगगी भया, कैमा है लक्ष्मण गुणनिकी खान है मन जाका, जैसी जलक्रीडा इंद्र नागेंद्र चक्रवनी करें, तैसी राम लक्ष्मणने करी, मानों वह नदी श्रीरामरूप कामदेवको देख रतिसमान मनोहररूप धारती भई । कैसी है नदी लहलहाट करती जे लहर तिनकी माला कहिए पंक्ति ताकरि मलित किये हैं श्वेत श्याम कमलनिके पत्र जाने अर उठे हैं झाग जामें भ्रमररूप हैं चूडा जाके पक्षिनिके जे शन्द तिनकर मानों मिष्ट शब्द करे है वचनालाप करे है । राम जलक्रीडाकर कमलनिके वन विगै छिप रहे बहुरि शीघ्र ही आए । जनकसुतासे जलकेलि करते भए । इनकी चेष्टा देख वनके तिर्यच हू और तरफसे मन रोक एकाग्र चित्त होय इनकी ओर निरखते भए । कैसे हैं दोऊ वीर ? कठोरतासे रहित है मन जिनका अर मनोहर है चेष्टा जिनकी, सीता गान करती भई । सो गानके अनुसार रामचन्द्र ताल देते भए। मृदंगनिकरि अति सुंदर राम जलक्रीडाविणे आसक्त अर लक्ष्मण चौगिरदा फिरे, कैसा है लक्ष्मण भाईके गुणनिविणे आसक्त है बुद्धि जाकी, राम अपनी इच्छा प्रमाण जलक्रीडाकर समीपके मृगनिको ग्रानंद उपजाय जलक्रड ते निवृत्त भए । महा प्रसन्न जे वनके मिष्ट फल सिनकर क्षुधा निवारण कर लतामंडपविणे तिष्ठे। जहां सूर्यका आताप नाहीं, ये देवनि सारिखे सन्दर नानाप्रकारकी सुन्दर कथा करते भए । सीता सहित अति आनन्दसे तिष्ठे । कैसी है सीता ? जटायके मस्तकपर हाथ है जाका तहो राम; लक्षणसू कहे हैं—हे भ्रात ! यह नानाप्रकारके वृक्ष स्वादु फलकर संयुक्त अर नदी निर्मल जल की भरी अर जहां लतानिके मण्डप अर यह दंड कनामा गिरि अनेक रत्ननिसे पूर्ण यहां अनेक स्थानक क्रीडा करनेके हैं तात या गिरिके निकट एक सुन्दर नगर बसावें अर यह वन अत्यन्त मनोहर और निते अगोचर, यहां निवास हर्षका कारण है । यहां स्थानककर हे भाई ! तू दोऊ मातानिके लायवेको जाहु वे अत्यन्त शोकवंती हैं सो शीघ्र ही लावहु अथवा तू यहां रह पर सीता तथा जटायु भी यहां रहें. मैं मातानिके ल्यायवेको जाऊंगा । तब लदमण हाथ जोड नमस्कार कर कहता भया-जो आपकी आज्ञा होयगी सो होयगा, तब राम कहते भए । अब तो वर्षा ऋतु आई अर ग्रीषम मत गई. यह वर्षाऋतु अति भयंकर है जाविषे समुद्र समानःगाजते मेघ घटानिके समूह विचरे हैं चालते अंजनगिरि समान, दशों दिशाविणे श्यामता होय रही है। बिजुरी चमके है, बगुमानिकी पक्ति विचर है अर निरंतर वादलनिके जल वरसे हैं जैसे भगवानके जन्म कल्याणकवि देव रत्नपारा वरसावें अर देख, हे भ्राता ! यह श्याम घटा तेरे रंग समान सुन्दर जलकी बंड वरसावे हैं जैसे तू दान की धारा बरसावै । ये वादर आकाशविणे विचरते बिजुरीके चमत्कार कर यक्त बडे बडे गिरिनिको अपनी थाराकर आछादते संते ध्वनि करते संते कैसे सोहे हैं जैसे तम पाँतवस्त्र पहिरे अनेक राजानिकी आज्ञा करते पृथिवीको कृपादृष्टिरूप अमृतकी वृष्टिकरि सींचते सोहो । हे वीर ! ये कैयक वादर पवनके वेगसे आकाशविण भ्रमें है जैसे यौवन अवस्थाविणे असं पमियोंका मन विषय-बासनाविर्ष भ्रमे, अर यह मघ नाजके खेत छोड वृथा पर्वतके. ४२ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० पद्म-पुराण विष बरसे है जैसे कोई द्रव्यवान पात्रदान र करुणादान तज वेश्यादिक कुमार्गविष धन खोवे, हे लक्ष्मण, या वर्षाऋतुविष अतिवेगम् नदी बहे है पर धरती कीचसू भर रही है अर प्रचंड पवन बाजे है भूमिविष हरितकाय फैल रही हैं अर जीत्र विशेषतासे हैं या समयविष विवेकिनिका विहार नाहीं । ऐसे वचन श्रीरामचन्द्र के सुनकर सुमित्राका नन्दन लक्ष्मण बोला हे नाथ, जो आप आज्ञा करोगे सो ही मैं करूंगा। ऐसी सुन्दर कथा करते दोऊ वीर महावीर सुन्दर स्थानकवि सुख से वर्षाकाल पूर्ण करते भए । कैसा है वर्षाकाल ? जासमय सूर्य नाही दीखे है । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै कानविषै निवास वर्णन करनेवाला बियालीसनां पर्ग पूर्ण भया ॥ ४२ ॥ ――000— अथानन्तर वर्षाऋतु व्यतीत भई शरदऋतुका आगमन भयो मानों यह शरदऋतु चन्द्रमाकी किरण रूप बांणनिकरि वर्षारूप बैरीको जीत पृथिवीविषै अपना प्रताप विस्तारती भई • दिशारूप जे स्त्री सो फूल रहे हैं फूल जिनके ऐसे वृक्षनिकी सुगन्धवाकर सुगन्धित भई है अर वर्षा समयवि कारी घटानिकर जो आकाश श्याम हुता सो अब चंद्रकांतिकर उज्ज्वल शोभता भया मानों क्षीरसागर के जल करि धोया है अर बिजलीरूप स्वर्ण सांकल युक्त वर्षाकालरूपी गज पृथिवीरूप लक्ष्मीको स्नान कराय कहां जाता रहा र शरद के योगते कवल फूले तिनपर अमर गुंजार करते भए, हंस क्रीडा करते भए अर नदिनिके जल निर्मत होय गए दोऊ किनारे महा सुन्दर भासते भए मानों शरदकाल रूप नायकको पाय सरितारूप कामिनी कांतिको प्राप्त भई हैं अरबन वर्षा र पवनकर छूटे कैसे शोभते भए मानो निद्राकरि रहित जाग्रत दशाको प्राप्त भए हैं। सरोवर निविषै सरोजनिपर भ्रमर गुंजार करे हैं अर बनविषै वृक्षनिविषै पक्षी नाद करें हैं सो मानो परम्पर वार्ता ही करें हैं और रजनीरूप नायिका नानाप्रकार के पुष्पनिकी सुगंध ताकर सुगन्धित निर्मल आकाशरूप वस्त्र पहरे चंद्रमारूप तिलक थरें मानों शरदकालरूप नायक पै जाय है । र कोमीजननिको काम उपाजवती केतकीके पुष्पनिकी रजकर सुगन्ध पवन चले हैं या भांति शरदऋतु प्रवरती सो लक्ष्मण बडे भाईकी श्राज्ञा मांग सिंहममान महा पराक्रमी वन देखने को अकेला निकला सो आगे गए एक सुगन्धपवन आई तब लक्ष्मण विचारते भए यह सुगन्ध काकी है ऐसी अद्भुत मुगन्ध वृक्षनिकी न होय अथवा मेरे शरीर की हू ऐसी सुगंध नाहीं यह सीताजीके अंगकी सुगंध होय तथा रामजीके अंगकी सुगंध होय तथा कोऊ देव आया होय ऐसा सन्देह लद को उपजा सो यह कथा राजा श्रेणिक सुन गौतम स्वामी से पूछता भया - हे प्रभो ! जो सुगन्धकर वासुदेवको आश्चर्य उपजा सो वह सुगंध काहे की ? तब गौतम गणधर कहते भए - केंद्र हैं गौतम १ संदेहरूप तिमिर दूर करनेको सूर्य हैं। सर्वलोककी चेष्टा को जाने है पापरूप रजक उडावनेको पवन हैं । गौतम कहे हैं - हे श्रेणिक ! द्वितीय तीर्थकर श्री अजितनाथ तिनके समोशरण में मेघवाहन विद्याधर रावण का बडा, शरले आया ताहि राच T -- Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतालीसा पर्व सनिके इन्द्र महाभीमने त्रिकूटाचल पर्वतके समीप राक्षमीप तहा लंका नामा नगरी सो कृपाकर दई भर यह रहस्यकी बात कही-हे विद्याधर सुनहु, भरत क्षेत्रके दक्षिण दिशाकी तरफ लवण समुद्रके उत्तर की ओर पृथिवीके उदर विष एक अलंकारोदय नामा नगर है सो अमृत स्थानक है और नानाप्रकार रत्ननिकी किरणनिकरि मंडित है । देवनिको भी आश्चर्य उपजाचे तो ममुष्यनिकी कहा बात, भूमिगोचरिनिको तो अगम्य ही है अर विद्याधरको भी अतिविषम है चितवनमें न आवे सर्व गुणनिकरि पूर्ण है। जहां मणिनिके मंदिर हैं. परचक्रते अगोचर है सो कदाचित तुमको अथवा तेरे सन्तानके राजानिको लंकामें परचक्रका भय उपजे तो अलंकारोदयपुरमें निर्भय भए तिष्ठियो याहि पाताललंका कहे हैं ऐसा कहकर महाभीम बुद्धिमान राक्षसनिके इन्द्रने अनुग्रहकर रावणके बड़ेनिको लंका अर पाताललंका दई अर राक्षस द्वीप दिया सो यहां इनके वंशमें अनेक राजा भए। बड़े २ विवेकी व्रतधारी भए सो रावणके बड़े विद्याधर कुलमें उपजे हैं देव नाहीं, विद्याधर पर देवनमें भेद है जैसे तिलक अर पर्वत, कर्दम भर चन्दन, पाषाण अर रत्ननिमें वडा भेद, देवनिकी शक्ति बडी, कांति बडी पर विद्याधर तो मनुष्य हैं क्षत्री वैश्य शद्र यह तीन कुल हैं । गर्भवासके खेद भुगते हैं विद्या साधनकर आकाश में विघरे हैं सो अढाई द्वीप पर्यंत गमन करे हैं अर देव गर्भवाससे उपजे नाही, महासुन्दर सरूप पवित्र धातु उपधातुकर रहित खनिकी पलक लगे नहीं, सदा जाग्रत जरारोग रहित नवयौ. वन तेजस्वी उदार सौभाग्यवंत महासुखी स्वभावहीते विद्यावंत अवधिनेत्र, चाहें जैसा रूप करें, स्वेच्छाचारी देव विद्याधरनिका कह सम्बन्ध ? हे श्रेणिक ! ये लंकाके विद्याधर राक्षस द्वीपविणे बसें, तातै राक्षस कहाए । ये मनुष्य क्षत्रीवंश विद्याधर हैं देव हू नाही, राक्षस हूँ नाहीं, इनके वंशविष लंकाविणे अजितनाथके समयते लेकर मुनिसुव्रतनाथके समय पर्यंत अनेक सहस्र राजा प्रशंसा करने योग्य भए। कई सिद्ध भए, कई सर्वाथसिद्धि गए, कई स्वर्गविणै देव भए, कई एक पापी नरक गए, अब ता बंशमें तीन खंडका अतिपति जी रावण सो राज्य करै है ताकी बहिन चन्द्रनखा रूपकरि अनूपम सो महा पराक्रमवंत खरदूषणने परणी, वह चौदह इजार राजानिका शिरोमणि रावणकी सेनामें मुख्य सो दिग्पाल समान अलंकारपुर जो पाताललंका वहां थाने रहे है. ताके संयूक अर सुन्द ये दो पुत्र रावणके भानजे पृथिवीमें अतिमान्य भए । सो गौतमस्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! माता पिताने संबूकको बहुन मने किया तथापि कालका प्रेरा सूर्यहास खडगके साधिवेके अर्थ महाभयानक वनमें प्रवेश करता भया, शास्त्रोक्त प्राचारको आचरता संता सूर्यहास खड़गके साधिवेको उद्यमी भया । एक ही अन्नका श्राहरी, ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय विद्या साधिवेको बांसके बीडे में यह कहकर बैठा, कि जब मेरा पूर्ण साधन होयगा, तब ही मैं बाहिर पाऊंगा, ता पहिली कोई बीड़ेमें आवेगा पर मेरी दृष्टि पड़ेगा तो ताहि मैं मारमा। ऐसा कह कर एकांत बैठा, सो कहाँ बैठा-दंडक वनमें क्रोचरवा नदीके उत्तर तीर बांसके ब्रीडेमें बैठा, वारहवर्ष साधन किया, खड्ग प्रकट भया । सो सातदिनमें यह न लेय तो खड़ग परके हाथ जाय अर यह मारा जाय, सो चन्द्रनखा निरन्तर पुत्रके निकट भोजन लेय प्रावती सो Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण खडग देख प्रसन्न भई अर पतिमू जाय कही कि संयुकको सूर्यहास खङ्ग सिद्ध भया अब मेरा पुत्र मेरुकी तीन प्रदक्षिणाकर आवेगा, सो यह तो ऐसे मनोरथ करे ता वनमें भ्रमता लक्ष्मण पाया। हारों देवनिकरि रक्षायोग्य खड्ग स्वभाव सुगन्ध अद्भुत रत्न सो गौतम कहे हैं-हे श्रेणिक ! वह देवोपुनीत खड्ग महासुगंध दिव्य गंधादिककर लिप्त कल्पवृक्षनिके पुष्पनिकी माला तिनकरि युक्त सो सूर्यहास खडगकी सुगंध लक्ष्मण को श्राई, लक्ष्मण आश्चर्यको प्राप्त भया और कार्य तज सीधा शीघ्र ही बांसकी ओर आया, सिंह समान निर्भय देखता भया। वृक्षनिकरि आच्छादित महाविषम स्थल जहां बेलनिके समूह अनेक जाल ऊचे पाषाण तहां मध्यमें समभूमि सुन्दर क्षेत्र श्रीविचित्ररथमुनिका निर्वाण क्षेत्र सुवर्णके कमलनिकरि पूरित ताके मध्य एक बांसनिका बीडा ताके ऊपर खड्ग आय रहा है सो ताकी किरणके समूहकरि बांसनिका बीडा प्रकाशरूप होय रहा है । सो लक्ष्मणने आश्चर्यको पाय निशंक होय खड़ग लिया अर ताकी तीक्ष्णता जाननेके अर्थ बांसके बीडापर वाहिया (चलाया) सो संबूक सहित चांसका बीडा कट गया पर खड़गके रक्षक सहस्रों देव लक्ष्मणके हाथमें खड्ग लाया जान कहते भए--तुम हमारे स्वामी हो ऐसा कह नमस्कार कर पूजते भए । ___अथानन्तर लक्ष्मणको बहुन बेर लगी जान रामचन्द्र सीता कहते भए, लक्ष्मण कहां गया? हे भद ! जटायू तू उडकर देख लक्ष्मण आवे है। तव सीता बोली हे नाथ, लक्ष्मण आया केसरकर. चरचा है अंग जाका नाना प्रकारकी माला पर सुन्दर वस्त्र पहिरे पर एक खड्ग अद्भुत लिये आवे है सो खड़ग सू ऐसा सोहे है जैसा केसरी सिंह पर्वत शोभे तब रामने आश्चर्यको प्राप्त भया है मन जिनका अति हर्षित होय लक्ष्मणको उठकर उर से लगाय लिया, सकल वृत्तांत पूछा । तब लक्ष्मण सर्व बात कही, आप भाई सहित सखसे बिराजे नाना प्रकारकी कथा करें अर संबूककी माता चन्द्रनखा.प्रतिदिन एकही अन्नका भोजन लावती हुती सो आगे आय कर देखे तो बांसका बीडा कटा पडा है, तब विचारती भई जो मेरे पुत्रने भला न किया. जहां इतने दिन रहा अर विद्यासिद्धि भई ताही बीडे को काटा सो योग्य नाहीं अब अटवी छोड कहां गया इत उत देखे तो अस्त होता जो सूर्य ताके मंडल समान कुण्डलसहित शिर पडा है, देखकर ताहि मूळ आय गई मो मूर्खा याका परम उपकार किया नातर पुत्रके मरण करि यह कहां जीवे, बहुरि केतकी बेरमें याहि चेत भया तव हाहाकार कर उठी। पुत्रका कटा मस्तक देख शोक कर अति विलाप किया, नेत्र आंसुनि सू भर गए, अकेली वनमें कुरचीकी न्याई पुकारती भई-हा पुत्र ! बारह वर्ष अर चार दिन यहां व्यतीत भए तैसे तीन दिन और ह क्यो न निकस गए । तोहि मरण कहां ते आया ? हाय पापी काल तेरा मैं कहा बिगाडा जो नेत्रनिकी निधि पुत्र मेरा तत्काल विनाशा, मैं पापिनी परभवमें काहुका बालक हना सो मेरा हतागया, हे पुत्र ! आर्तिका मेटनहारा एक वचन तो मुखम् कह, हे वत्म ! श्रा अपना मनोहर रूप मोहि दिखा, ऐसी मायारूप अमंगल क्रीडा करना तोहि उचित नाहीं। अब तक ते माताकी आज्ञा कबह न लोपी अब निःकारण यह विनयलोप कार्य करना तोहि योग्य नाही इत्यादिक Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतालीस पण ६३३ विकल्पकर विचारती भई निःसंदेह मेरा पुत्र परलोकको प्राप्त भया, विचारा कुछ और ही हुता अर भया कुछ और ही, यह बात विचार में न हुती सो भई । हे पुत्र ! जो तू जीवता र सूर्यास खड्ग सिद्ध होता तो जैसे चन्द्रहासके धारक रावण के सन्मुख कोऊ न श्राय सके है तैसे तेरे सन्मुख कोऊन आय सकता मानों चंद्रहास मेरे भाई के हाथमें स्थानक किया सो अपना विरोधी सूर्यहास ताहि तेरे हाथमेंन देख सका, भयानक वनमें अकेला निर्दोष नियमका धारी ताहि मारने को जाके हाथ चले, सो ऐसा पापी खोटा बैरी कौन है ? जा दुष्टने तोहि हत्या अब वह कहां जीवता जागता जायगा, या भांति विलाप करती पुत्रका मस्तक गोद में लेय चूमती मई. मूंगासमान आरक्त हैं नेत्र जाके बहुरि शोक तज क्रोधरूप होय शत्रुके मारने को दोडी, सो चली चली तहां आई जहा दोऊ भाई त्रिराजे हुने, दोऊ महारूपवान मननोहिबे के कारण तिनको देख याका प्रबल क्रोध जाता रहा, तत्काल राग उपजा । मनविषै चितवती भई, इन दोऊनि में जो मोहि इच्छे ताहि मैं सेवू, यह विचार तत्काल कामातुर भई, जैसे कम्लनिके वनमें हंसिनी मोहित होय र महा हृदमें भैंस अनुरागिनी हो अर हरे धान के खेतविषै हरिणी अभिलाषिणी होय तैसे इनमें यह आसक्त भई, सो एक पुन्नागवृक्षके नीचे बैठी रुदन करे श्रतिदीन शब्द उचारे वनकी रजकर धूसरा होय रहा है अंग जाका, ताहि देखकर रामकी रमणी सीता अति दयालु चित्त उठकर ताके समीप आय कहती भई - तू शोक मतकर हाथ पकड ताहि शुभ बच्चन कह धीर्य बधाय रामके निकट लाई, तब राम ताहि कहते भए - तू कौन है ? यह दुष्ट जीवनिका भरा वन ताविषै अकेली क्यों विचरे है ? तब वह कमल सरीखे हैं नेत्र जाके पर अमर की गुंजार समान हैं वचन जाके सो कहती भई — हे पुरुषोत्तम, मेरी माता तो मरणको प्राप्त भई, सो मोको गभ्य नाहीं मैं बालक हुती, बहुरि ताके शोककर पिता भी परलोक गया । सो मैं पूर्वले पावते कुटुम्ब रहित दंडक वनमें आई, मेरे मरणकी अभिलाषा सो या भयानक वनमें काहू दृष्ट जीवने न भखी, बहुत दिनबीते या वनविषै भटक रही हूं, आज मेरे कोई पापकर्मका नाश भया सो आपका दर्शन भया । अब मेरे प्राण न छूटें, ता पहिले मोहि कृपाकर इच्छहु, जो कन्या कुलवंती शीलवंती होंय ताहि कौन न इच्छे, सब ही इच्छें, यह याके लज्जारहित वचन सुनकर दोऊ भाई नरोतम परस्पर अवलोकन कर मौनसे तिष्ठे । कैसे हैं दोऊ भाई, सर्व शास्त्रनिके अर्थका जो ज्ञान सोई भया जल ताकरि धोया है मन जिनका कृत्य कृत्यके विवेकविषै प्रवीण, तब वह इनका चित निष्काम जान निश्वास नाख कहती भई, : मैं जावू ? तब राम लक्ष्मण बोले जो तेरी इच्छा होय सो कर, तब वह चली गई । ताके गए पीछे राम लक्ष्मण सीता आश्चर्यको प्राप्त भए अर यह क्रोधायमान होय शीघ्र पति के समीप गई अर लक्ष्मण मनमें विचारता भया जो यह कौन की पुत्री कौन देशमें उपजी समूहसे बिछुरी मृगी समान यहां कहां आई । हे श्रेणिक, यह कार्य कर्तव्य यह न कर्तव्य याका परिपाक शुभ वा अशुभ ऐसा विचार अविवेकीन जानें। अज्ञानरूप तिमिरकरि आच्छादित है बुद्धि जिनकी अर प्रवीण बुद्धि महाविवेकी अविवेकते. 1 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ पद्म पुराण रहित हैं सो या लाकमें ज्ञानरूप सूर्यके प्रकाशकर योग्य अयोग्यको जान अयोग्यके त्यागी होय योग्य क्रिया में प्रवृत्ते हैं ।।। - इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविष शंयूकका बध वर्णन करनेवाला तेतालीसवां पर्व पूर्ण भया ।। ४३ ॥ अथानन्तर जैसे हृदका तट फूट जाय अर जलका प्रवाह विस्तारको प्राप्त होय तैसे खरदूषणकी स्त्रीका राम लक्ष्मणसे राग उपजा हुता सो उनकी अवांछाते विध्वंस भया । तप शोकका प्रवाह प्रकट भया, अतिव्याकुल होय नानाप्रकार विलाप करती भई, अरतिरूप अग्निकर तप्तायमान है अंग जाका, जैसे बछडे विना गाय विलाप करे, तैसे शोक करती भई झरे हैं नेत्रनिके आंसू जाके सो विलाप करती पति देखी, नष्ट भया है धीयं जाका भर धूरकर धमरा है अंग जाका, विखर रहे हैं केशनिके समूह जाके पर शिथिल होय रही है कटिमेखला जाकी अर नखनिकरि विदारे गये हैं वक्षस्थल कुच अर जंघा जाकी सो रुधिरसे भारत हैं पर आवरण हित लावण्यता रहित अर फट गई है चोली जाकी जेसे माते हाथीने कमलनीको दलमली होय तैती याहि देख पति धीर्य बन्धाय पूछता भया-हे कांते ! कौन दुष्टने तोहि ऐसी अवस्थाको प्राप्त करी सो कहो वह कौन है जाहि आज आठवा चंद्रमा है अथवा मरण ताके निकट आया है। वह मूढ पहाडके शिखरपर चढ सोवे है, सूर्यसे क्रीडाकर अंधकूपमें पडे है। दैव तास रूमा है, मेरी क्रोधरूप अग्निमें पतंगकी नाई पडेगा । धिक्कार ता पापी अविवेकीको वह पशुपमान अपवित्र अनीतियुक्त यह लोक परलोक भ्रट, जाने तोहि दुखाई, तू वडवानलकी शिखा समान है । रुदन मत कर और स्त्रिनि सारखी तू नाहीं । बडे बंशकी पुत्री बडे घर परणी आई है । अबही ता दुराचारीको हस्त तलते हण परलोकको प्राप्त करूंगा जैसे सिंह उन्मत्तहाथीको हणे या भांति जब पतिने कही तव चंद्रनखा महा कष्ट थकी रुदन तज गद गद वासी सकहती भई, अलकनिकर आच्छादित हैं कपोल जाके, हे नाथ ! मैं पुत्रके देखनेको वनविष नित्य जाती हुती सो आज पुत्र का मस्तक कटा भूमिमें पडा देखा पर रुधिरकी धाराकर बांसोंका बीडा प्रारक्त देखा काहू पापीने मेरे पुत्रको मार खडग रत्न लिया । कैसा है खडग देवनिकर सेवने योग्य, सो मैं अनेक दुखनिका भाजन भाग्यरहित पुत्रका मस्तक गोद में लेय विलाप करती भई सो जा पापीने संबूकको मारा हुता ताने मोसे अनीति विचारी, भुजानिकरि पकडी, कही मोहि छड सो पापी नीचकुली छाडे नाही नखनिकरि दांतनिकरविदारी निर्जन वनविषै मैं अकेली वह बलवान पुरुष ; मैं अबला तथापि पूर्व पुण्यसे शील वचाय महाकष्टते मैं यहां आई सर्व विद्याधरनिका स्वामी तीनखण्डका अधिपति तीनलोकविर्ष प्रसिद्ध रावण काहसे न जीता जाय सो मेरा भाई अर तुम खरदूषण नामा महाराजा दैत्यजातिके जे विद्याधर तिनके अधिपति मेरे भरत र तथापि मैं दैवयोगले या अवस्थाको प्राप्त भई । ऐसे चन्द्रनखाके वचन सुन महा क्रोधकर तत्काल जहां पुत्रका शरीर मृतक पडा हुता तहां गया सो भूवा देखकर अति Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवालीसगां पर्ण खेद खिन्न भया पूर्व अवस्थाविषे पुत्र पूर्णमासी के चन्द्रमा समान हुता सो महा भयानक भासता भया । खरपणने अपने घर आय अपने कुटम्बसे मन्त्र किया तब कैएक मंत्री कर्कशचित्त हुते वे कहते भये-हे देव ! जाने खडग रत्न लिया अर पुत्र हता ताहि जो ढीला छोडोगे तो न जानिये कहा करै, सो ताका शीघ्र यत्न करहु पर कैएक विवेकी कहते भए-हे नाथ ! यह लघु. कार्य नाही सर्व सामन्त एकत्र करहु अर रावण ह पत्र पठावहु जिनके हाथ सूर्यहास खडग आया ते सामान्य पुरुष नाही ताते सर्व सामंत एकत्रकर जो विचार करना होय सो करहु, शीघ्रता न करो, तब रावसके निकट तो तत्काल दूत पठाया, शीघ्रगामी अर तरुण सो तत्काल रावण गया रावणका उत्तर पीछा आवे ताके पहिले खरदूषण अपने पुत्रके मरणकर महा द्वेषका भरा सामन्तनिस्कहता भया, वे रंक विद्याबल रहित भूमिगोचरी हमारी विद्याधरनिकी सेनारूप समुद्रके तिरनेको समथं नाहीं। धिक्कार हमारे सूरपनेको जो और का सहारा चाहें हैं हमारी भुजा हैं वही सहाई हैं अर दूजा कौन ? ऐसा कहकर महा अभिमानको थरे शीघ्र ही मन्दिर मू निकसा आकाश मार्ग गमन किया तेजरूप है मुख जाका सो ताहि सर्वथा यद्धको सन्मुख जान चोदइ हजार राजा संग चाले, सो दण्डक वनमें आए तिनकी सेनाके बादित्रांनके शब्द समुद्रके शब्द समान सीता सनकर भयको प्राप्त भई । हे नाथ ! कहा है, कहा है, ऐसे शब्द कह पतिके भंग सू लगी जैसे वेल कल्पवृक्ष संलगे तब आप कहते भए-हे प्रिये ! भय मतकर, याहि धीर्य बंधाय विचारते भए-यह दुर्धर शब्द सिंहका है अक समुद्र का है अक दुष्ट पक्षिनिका है अक आकाश पूरगया है ? तब सीतास् कहते भये हे प्रिये, दुष्टपक्षी हैं जे मनुष्य अर पशुनिको लेजाय हैं धनुष टंकारते इनै भगाऊ हूं इतनेहीमें शत्रकी सेना निकट आई नाना प्रकारके श्रायुपनिकर युक्त सुभट दृष्टि परे, जैसे पवन के प्रेरे मेषघटानिके समूह विचरें तेसे विद्याधर विचरते भए । तब श्रीराम विचारी ये नन्दीश्वर द्वीपको भगवान की पूजाके अथ देव जाय हैं । अथवा पासनिके बीडेमें काहू मनुष्यको हतकर लक्ष्मण खडगल लाया अर वह कन्या बन आई हुती सो कुशील स्त्री हुती ताने ये अपने कुटुबके सामंत प्रेरे हैं। तातें अब परसेना समीप आए निश्चित रहना उचित नाही, धनुषकी ओर दृष्टि धरी पर वक्तर पहिरनेकी तैयारी करी तब लक्षण हाथ जोड सिर नवाय विनती करता भया-हे देर, मोहि तिष्ठते आपको एता परिश्रम करना उचित नाहीं। आप राजपुत्रीकी रक्षा करहु मैं शत्रुनिके सन्मुख जाऊ हूं। सो जो कदाचित् भीड पडेगी तो मैं सिंहनाद करूंगा, तब आप मेरी सहाय करियो । ऐसा कहि कर बक्तर पहर शस्त्रथार लक्ष्मण शत्रुनिके संमुख युद्धको चला सो वे विद्य पर लदाणको उत्तम प्राकारका थारनहारा बीराथिवीर श्रेष्ठ पुरुष देख जैसे मेव पर्वतको वेढे तैसे बढते भए । शक्ति मुरगर सामान्य चक्र बरछी वाण इत्यादि शस्त्रनिकी वर्षा करते भए सो अकेला लक्ष्मण सर्व विद्याधरनिके चलाए वाण अपने शस्त्रनिकरि निवारता भया अर आप विद्याधरनिकी ओर आकाशमें वज्रदंड वाण चलायता भया । यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणि मूकहे हैं-हे राजन. अकेला लक्ष्मण विद्याथरनिकी सेनाको बाणनिकरि ऐसा रोकता भया जैसे संघमी साधु आत्मज्ञानकर Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र पुराण विषयवासनाको रोकें, लचाणक शस्त्र निकरि विद्याधरनिके सिर रत्न नेके आभरणकर मंडित कुंडलनिकरि शोभित आकाशसे धरतीपर परें, मानों अम्बररूप सरोवर के कमल ही हैं, योधानि सहित पर्वत समान हाथी पडे र अव सहित सामंत पडे भयानक शब्द करते होंठ डसते ऊर्ध्वगामी बाणनिकर वासुदेव वाहन सहित योधानिको पीडता भया । अथानन्तर ताहीसमय पुंष्पकामानविषे बैठा रावण याया सम्बूकके मारणहारे पुरुषनि पर उपजा है महाक्रोध जाको सो मार्गमें रामके समीप सीता महा सतीको तिष्ठती देखकर महामोहको प्राप्त भया । कैसी है सीता जहि लखि रतिका रूप भी या समान न भासे मानो साक्षात् लक्ष्मी ही है, चन्द्रमा समान सुन्दर वदन, निकन्यांके फूल समान अधर, केसरीकी कटि समान कटि, लहलहात करते चंचल कमलपत्र समान लोचन और महा गजराज के कुम्भस्थलके शिखर समान कुच नवयौवन सर्व गुणनि कर पूर्ण कांति के समूह से संयुक्त है शरीर जाका मानो कामके धनुषकी पिणच ही है अर नेत्र जाके कामके वाणही हैं मानो नामकर्मरूप चतेरेने अपनी चपलता निवारने के निमित्त स्थिरता कर सुख सू जैसी चाहिये तैसी बनाई है । जाहि लखे रावण की बुद्धि हरगई । महारूपके अतिशयको धरे जो सीता तार्क अवलोकनसे संम्बूक मारवे वारेपर जो क्रोध हुना सो जाता रहा पर सीता पर राग भाव उपजा । चित्तकी विचित्रगति हैं- मन में चितवता भया या बिना मेरा जीतव्य कहा अर जो विभूति मेरे घर में है ताकरि कहा ? यह अद्भुत अनु म महासुन्दर नवयौवन, मोहि खरदूषण की सेना में आया कोई 1 1 जाने त पहिले या हरकर घर ले जाऊं, मेरी कीर्ति चन्द्रमा समान निर्मल सकल लोकमें विस्तर रही है सो छिप कर लेजाने में मलिनन होय । हे श्रेणिक अर्थी दोषको न गिने ताते गोप्य लेजाइका यत्न किया । या लोकमें लोभ समान और अनर्थ नाहीं अर लोभ में परस्त्रीके लोभ समान महा अर्थ नाहीं । रावणने अवलोकनी विद्यासे वृत्तान्त पूछा सो वाके कहेसे इनका नाम कुल सब जाने, लक्ष्मण अनेक निसू लडनहारा एक युद्ध में गया और यह राम है । यह या स्त्री सीता है अर जब लक्ष्मण गया तब रामसू ऐसा कह गया— जो मोपै भीड पडेगी तब मैं सिंहनाद करूंगा तब तुम मेरी सहाय करियो सो वह सिंहनाद मैं करू तब यह राम धनुषवाण लेय भाई पै जावेगे अर मैं सीता ले जाऊंगा जैसे पक्षी मांसकी डलीको लेजाय अर खरदूषणका पुत्र तो इनन माराही हुना अर ताकी स्त्रीका अपमान किया सो वह शक्ति आदि शस्त्रनिकर दोऊ भाइनिको मारहीना जैसे महा प्रबल नदीका प्रवाह दोऊ ढाहे गडे, नदीके प्रवाहकी शक्ति छिपी नाहीं है तैसे खरदूषण की शक्ति काहुते छिपी नाहीं, सब कोऊ जाने है ऐसा विचार कर मूढमति कामकर पीडित रावण मरणके अर्थ सीताके ह.णका उपाय करता भया । जैसे दुर्बुद्धि बालक विषके लेनेका उपाय करें ॥ I ३३६ अथानन्तर लक्ष्मण अर कट कमहित खरदूषण दोऊमें महायुद्ध होग रहा है शस्त्रनिका प्रहार होय रहा है, अर इधर रावणने कपटकर सिंहनाद किया, तामें बारंबार राम राम यह शब्द किया, तब रामने जाना कि यह सिंहनाद लक्ष्मण किया सुनकर व्याकुल चित्त भए । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवालीसची पव जानी भाई पै भीड पडी, तब रामने जानकी को कहा-हे प्रिये ! भय मत करे क्षणएक तिष्ठ, ऐसे कह निर्मल पुष्पनिविष छिपाई अर जटायूको कहा-हे मित्र, स्त्री अबलाजाति है याकी रक्षा करियो , तुम हमारे मित्र हो, सहधर्मी हो, ऐसा कहकर आप धनुषबाण लेय चाले, सो अपशकुन भए । सो न गिने महा सतीको अकेली वनविष छोड शीघ्र ही भाई पै गए । महारणमें भाईके आगे जाय ठाढे रहे, ता समय रावण सीताके उठायवेशो आया । जैसा माता हाथी कमलिनीको लेने प्रावे, कामरूप दाहकर प्रज्वलित है मन जाका, भूल गई है समस्त धर्मकी बुद्धि आकी सीताको उठाय पुष्पक विमानमें थरने लगा, तब जटायु पक्षी स्वाभीकी स्त्रीको हरती देख क्रोधरूप अग्निकर प्रज्वलित भया । उठकर अतिवेगते राबणपर पडा, तीक्षण नखनिकी अणी अर चूचसे रावणका उरस्थल रुधिर संयुक्त किया अर अपनी कठोर पाखनिकरि रावणके वस्त्र फाडे, रावणका सर्व शरीर खेदखिन्न किया, तब रावणने जानी यह सीताको छुडावेगा । झझट करेगा इसनेमें याका धनी आन पहूँचेगा, सो याहि मनोहर वस्तुका अवरोधक जान महाकोषकर हाथकी चपैट से मारा सो अति कठोर हाथकी पातसे पक्षी विह्वल होय पुकारता संता पृथिवी में पडा मूर्खाको प्राप्त भया तब रावण जनकसुताको पुष्पक विमान में थर अपने स्थान ले चला। श्रेणिक! यद्यपि रावण जाने है यह कार्य योग्य नाहीं । तथापि कामके वशीभूत हुआ सर्व विचार भूल गया। सीता महासनी आपको परपुरुष कर हरी जान रामके अनुराग से भीज रहा है चित्त जाका महा शोकवन्ती होय अरति रूप विलाप करती भई, तब रारण याहि निज भरतार विर्षे अनुरक्त जान रुदन करती देख कछू एक उदास हो विचारता भया जो यह निरन्तर रोवे है अर विरहकर व्याकुल है। पाने भरतारके गुण गावे है, अन्य पुरुषके संयोग का अभिलाष नाही. सो स्त्री अवध्य है ताते मैं मार न सकूअर कोऊ मेरी आज्ञा उलंघे तो ताहि मारूअर मैं सांधुनिके निकट ब्रत लिया हुता जो परस्त्री मोहि न इच्छे ताहि मैं न सेऊ सो मोहि व्रत दृढ राखना, याहि कोऊ उपायकर प्रसन्न करू उपाय किये प्रसन्न होयगी.जैसे क्रोधवन्त राजा शीघ्रही प्रसन्नन किया जाय तैसे हटवन्ती स्त्री भी वश न करी जाय, जो कछु वस्तु है सो यत्नसे सिद्ध होय है मनवांछित विद्या, परलोककी क्रिया अर मनभावनी स्त्री ये यत्नसे सिद्ध होंय, यह विचारकर सीताके प्रसन्न होनको रावण समय हेरै, कैसा है रावण मरण आया है निकट जाके । अथानन्तर श्रीरामने बाण रूप जलकी थारा कर पूर्ण जो रणमंडल तामैं प्रवेश किया सो लक्ष्मण देख कर कहता भया-हाय ! हाय, एते दूर आप क्यों आये-हे देव, जानकीको अकेली वनमें मेल आए । यह वन अनेक विग्रहका भरा है तब रामने कही मैं तेरा सिंहनाद सुन शीघ्र आया। तब लक्ष्मण कही आप भली न करी, अब शीघ्र जहां जानकी है वहां जावो, तब रामने जानी-वीर तो महाथीर है याहि शत्रुका भय नाहीं, तब याको कही तू परम उत्साह रूप है बलवान वैरीको जीत, ऐसा कहकर आप सीताकी उपजी है शंका जिनको सो चंचल चित्त होय जानकीकी तरफ चाले, क्षणमात्रमें आय देखें तो Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३३५ पा पुगण जानकी नाही, तब प्रथम तो विचारी कदाचित् सुरति भंग भया हूं बहुरि निर्धारण देखें तो सीता नाही, तब आप हाय सीता ! एमा कह मूर्छा खाय थरती पर पड़े । सो धरती रामके विलापसे कैसी सोहती भई, जैसे भरतारके मिलापसे भार्या सोहै । बहुरि सचेत होय वृक्षनिकी ओर दृष्टि धर प्रेमके भरे अत्यंत आकुल होय कहते भए-हे देवी तू कहां गई, क्यों न बोलो हो, बहुत हास्य कर कहा वृक्षनिके आश्रय बैठी होय तो शीघ्र ही श्रावो, कोपकर कहा ? मैं तो शीघ्र ही तिहारे निकट अया। हे प्राणवल्लभे, यह तिहारा कोप हमें दुखका कारण है या भांति विलाप करते फिरे हैं। सो एक नीची भूमिमें जटायुको कंठगतप्राण देखा तब आप पक्षीको देख अत्यंत खेदखिन्न होय याके समीप बैठे, नमोकार मंत्र दिया अर दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये चार आराथना सुनाई, अरिहन्त सिद्ध केलीप्रणीत थर्मका शरण लिवाया पक्षी श्रावकके व्रतका धरणहारा श्रीरामके अनुग्रहकर समाधि मरण कर स्वर्गमें देव भया, परंपराय मोक्ष जायगा, पक्षीके मरणके पीछे आप यद्यपि ज्ञानरूप हैं, तथापि चारित्र मोहके वश होय महाशोकवन्त अकेले वनमें प्रियाके वियोगके दाहकर मूळ खाय पड़े बहुरि सचेत होय महा व्याकुल महासती सीताको ढूंढते फिरें, निर श भए दीन वचन कहैं जैसे भूतके आवेश कर युक्त पुरुष वृथा आलाप करे। छिद्र पाय महाभीम वनमें काहू पारीने जानकी हरी, सो बहुत विपरीत करी, माहि मारा, अब जो कोई मोहि प्रिया मिलावे अर मेरा शोक हरे ता समान मेरा परम बांधर नाहीं। हो वनके वृक्ष हो, तुम जनकसुता देखी? चंपाके पुष्प समान रंग कमलदल लोचन सुकुमार चरण निर्मल स्वभाव उत्तम चाल, चित्तकी उत्सव करणहारी कमल के मकरंद समान सुगन्ध मुखका स्वांस स्त्रिनिके मध्य श्रेष्ठ तुमने पूर्व देखी होय तो कहो, या भांति वनके वृक्षनिसू पूछे हैं सो वे एके द्री वृत कहा उत्तर देवें । तब राम सीताके गुणनिकर हरा है मन जिनका, बहुरि मूळ खाय धरतोपर पडे बहुरे सचेत होय महाक्रोधायमान वज्रावर्त धनुप हाथमें लिया, फिगच चहाई टंकोर किया, सा दशों दिशा शब्दायमान भई, सिंहनिको भयका उपजावनहारा नरसिंहने धनुषका नाद किया । सो सिंह भाग गये अर गजनिक मद उतर गये । तर धनुष उतार अत्यंत विवादको प्राप्त होय बैठकर अपनी भूल का सोच करते भए, हाय, हाय, मैं मिया सिंहनादके श्राणका विश्वास मान वृथा जाय प्रिया खोई, जैसे मृह जीव कुश्रुतका श्रवण सुन विश्वास मान अविवेकी हाय शुभ गतिको खोवे, सो मृहके खोयबेका आश्चर्य नाही परंतु मैं धर्मबुद्वि वीतरागके मामका श्रद्वानी असमझ होय असुरकी मायामें मोहित हुआ, यह आश्चर्य की बात है जैसे या भव वनमें अत्यंत दुर्लभ मनुष्यकी देह महापुण्य कर्मवर पाई, ताहि वृथा खोये ती बहुरि कब पावे पर त्रैलोक्यमें दुर्लभ महारत्न ताहि समुद्रमें डारे, बहुरि कहां पावे ? तै बनतारूप अमृत मेरे हाथम गया। बहुरि कौन उपायकर पाइये या निर्जन वनमें कौनको दोष दू। मैं ताहि तनकर भाइ पै गया। सो कदाचित कोपकर आर्या भई होप। या अरण्य बना मनु य नाहीं कौनको जाय पूछे, जो हमको स्त्रीकी वार्ता कहे। ऐसा कोई या लोकमें दयावान श्रेष्ठ पुरुष है जो मोहि सीता दिखावे, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ पैंतालीस प वह महासती शीलवंती सर्व पापरहित मेरे हृदय को बल्लभ मेरा मन रूप मंदिर ताके विरहरूप अग्निसे जड़े है सो ताकी वार्तारूप जलके दानकर कौन बुझावे ? ऐसा कहकर परम उदास, धरती की श्रोर है दृष्टि जिनकी बारंबार कछु एक विचारकर निश्चल होय तिष्ठे । एक चकवीका शब्द निकट ही सुना सो सुनकर ताकी ओर निरखा बहुरि विचारी या गिरिका तट महा सुगन्ध हो रहा है सो याही ओर गई होय अथवा यह कमलनिका वन है यहां कौतूहलके अर्थ गई हो आगे याने यह वन देखा हुता सो स्थानक मनोहर है नाना प्रकार पुष्पनिकर पूर्ण है कदाचित् क्षणमात्र गई होय सो यह विचार आप वहां गये । बहां हूं सीताको न देखा arat देखी तब बारी - वह पवित्रता मेरे बिना अकेली कहां जाय ? बहुरि व्याकुलताको प्राप्त होय जायकर पर्व पूछो भए हे गिरिराज, तू अनेक धातुनिसे भरा है मैं राजा दशरथका पुत्र रामचन्द्र तोहि पूछू' हुँ, कमल सारिखे हैं नेत्र जाके सो सीता मेरे मनकी प्यारी हंसगामिनी सुंदर स्तनके भारम नम्रीभूत है अंग जाका हिंदूी समान अधर सुंदर नितंब सो तुम कहूं देखी, वह कहां हैं ? तब पहाड़ कहा जबाब देय इनके शब्द से गूंजा । तब आप जानी कड याने शब्द कहा, जनिये है याने न देखी, वह महासती काल प्राप्त भई, यह नदी प्रचण्ड तरंगनिकी धरणहारी अत्यंत वेगको घरे बहै है अविवेकवंती ताने मेरी कांताहरी, जैसे पापकी इच्छा विद्याको हरे अथवा कोई क्रूर सिंह क्षुधातुर भख गया होय, वह धर्मात्मा साधुवर्गनिकी सेवक्र सिंहादिकके देखते ही नखादिके स्पर्श विना ही प्राण देय । मेरा भाई भयानक रणमें संग्राम में है सो जीवनेका संशय है यह संसार असार है अर सर्व जीवराशि संशय रूप ही है, अहो यह बडा आश्चर्य है जो मैं संसारका रूप जानू हूं अर दुखते शून्य होय रहा हूं एक दुख पूरा नहीं पर है दूजा और है तातें जानिए हैं यह संसार दुखका सागर ही हैं, जैसे खोड़े पगको खंडित करना पर दाहे मारेको भस्म करना अर डिगेको गर्त में डरना, रामचन्द्रजीने वनमें भ्रमणकर मृग सिंहादिक अनेक जन्तु देखे परंतु सीता न देखी तब अपने आश्रम आय अत्यंत दीन वदन धनुष उतार पृथिवी में तिष्ठे । बारंबार अनेक विकल्प करते क्षण एक निश्चल होय मुखसे पुकारते भए । हे श्रेणिक, ऐसे महा पुरुषनको भो पूर्वोपार्जित अशुभके उदय दुख होय है ऐसा जान कर श्रहो भव्यजीव हो, सदा जिनवर के धर्म में बुद्धि लगावो, संसार ते ममता तजी । जे पुरुष संसार के विकार' पराङ्मुख होंय अर जिनवचनको नहीं अथें वे संसार में शरखरहित पाप रूप वृक्ष कटुक फल भोगवे हैं कर्मरूप शत्रुके आतापसे खे खिन्न हैं । 1 1 इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै सीताका हरण जर रामका त्रिलाप वर्णन करनेवाला चालीसवां पर्व पर्णं भया ॥ ४४ ॥ अथानन्तर लक्ष्मणके समीप युद्धों खरदूषणका शत्रु विराधित नामा विद्याधर अपने मंत्री पर शूरवीरनि सहित शस्त्रनि कर पूर्ण आया सो लक्ष्मणको अकेला युद्ध करते देख महा नरोचम जान अपने स्वार्थ की सिद्धि इनसे जान प्रसन्न भया, महा तेज कर देदीप्यमान शोभता Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण भया बाहनते उतर गोडे धरती लगाय हाथ जोड शीश नवाय अति नम्रीभूत होय परम विनय मू कहता भया-हे नाथ ! मैं आपका भक्त हूं कछु एक मेरी नती सुनो-तुम सारिखेनिका संसर्ग हम सारिखनिके दुखका क्षय वरनहारा है, वाने आधी कही आप सारी समझ गये ताके मस्तकपर हाथ धर कहते भए तू डरे मत, हमारे पीछे खडा रह, तब वह नमस्कार कर अति आश्चर्यको प्राप्त होय कहता भवा-हे प्रभों ! यह खरदूषण शत्रु महाशक्तिको धरे है याहि आप निवारो अर सेनाके योधानिकर मैं लगा ऐसा कह खरदूषणके योद्धानि विराधित लडने लगा। दौड कर तिनके कटक पर पड', अपनी सेना सहित झलझलाट करहैं आयुधनिके समूह ताके, विराधित तिनकू प्रगट कहता भया- मैं राजा चन्द्रोदयका पुत्र विराधित घने दिननि में पिताका वैर लेने आया हूं । युद्धका अभिलाषी अब तुम कहां जावो हो, जो युद्ध में प्रवीण हो तो खडे रहो, मैं ऐसा भयंकर फल दंगा जैसा यम देय ऐसा कहा तब तिन योद्धानिके पर इनके महा संग्राम भया अनेक सुमट दोऊ सेनानिके मारे गये। पियारे प्यादेनिस घोडनके असवार घोडनकं असवारन हाथीनिक असवार हाथीनिके असवारन रथी रथीन परस्पर हर्षित होय युद्ध करते भए । वह वाहि वुलावे वह वाहि बुलावे या भांति परस्पर युद्ध कर दशों दिशानको वाणनकर आछादित करते भए। अथानन्तर लक्ष्मण अर खरदूषणका महा युद्ध भया जैसा इन्द्र और असुरेन्द्र के युद्ध होय, ता समय खरक्षण क्रोधकर लक्ष्मणसे लाल नेत्र कर कहता भया मेरा पुत्र निर्धर सो तूने हणा अर हे चपल, तूने मेरी कांताके कुचपर्दन किये सो मेरो दृष्टिसे कहां जायगा ? आज तीक्ष्ण वाणनिकर तेरे प्राण हरूगा जैसे कर्म किये तिनका फल भोगवेगा, हे क्षुद्र निर्लज्ज परस्त्रीसंगलोलुपी, मेरे सन्मुख आयकर परलोक जा। तब ताके कठोर बचनकर प्रज्वलित भया है मन जाका सो लक्ष्मण वचन कर सकल आकाशको पूरता संता कहता भया--अरे बुद्र, वृथा काहे गाजे है जहां तेरा पुत्र गया वहां तोहि पठाऊंगा, ऐसा कहकर आकाशकेविगै तिष्ठता जो खरदूषण ताहि लक्ष्मणने स्थरहित किया । अर ताका धनुष तोडा अर ध्वजा उडाय दई अर प्रभा रहित किया तब वह क्रोध कर भरा पृथितीकविष पडा जैसे क्षीणपुण्य भएं देव स्वर्गते पडे बहुरि महा स्भट वडग लेय लक्ष्मणपर आया तब लक्ष्मण सूर्यहास खड्ग लेप ताके सन्मुख भया इन दोउनि में नानाप्रकार महायुद्ध भया देवं पुष्पवृष्टि करते भये अर धन्य थन्य शब्द करते भए बहुरि महा युद्धके विष सूर्यहास खडगकर लक्ष्मण ने खरदूषण का सिर काटा सो निर्जीव होय खरदूषण पृथिवीपर पडा मानों स्वर्गसे देव गिरा, सूर्यमान है तेज जाका, मानों रत्न पर्वतका शिखर दिग्गजने दाहा। अथानन्तर खरदूषण का सेनापति दूषण विराधित को रथ रहित करने को आरम्भता भया तब लक्ष्मणने वाणकरि मर्मस्थल को घायल किया सो घूमता भूमि में पडा अर लक्ष्मण ने खरदक्षणका समुदाय अर कटक अर पाताल लंकापुरी विराधित को दीनी अर लक्ष्मण प्रतिस्नेहका भरा जहां राम तिष्ठे हैं वहां आया आयकर देखे तो आप भूमिमें पडे हैं अर Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीसवा पर्व ३४१ स्थानकमें सीता नाहीं तब लक्ष्मणने कहा-हे नाथ ! उठो कहां सोवो हा, जानकी कहां गई, तब राम उठकर लक्ष्मण को पावरहित देख कछ इक हर्ष को प्राप्त भये । लक्ष्मणको उर से लगाय पर कहते भए-हे भाई, मैं न जानू जान की कहां गई , कोई हर लेयगया अथवा सिंह भख गया बहुत हेरी सो न पाई अति सुकुमार शरीर उदवेगकर विलय गई तब लक्ष्मण विषादरूप होय क्रोधकर कहता भया--हे देव ! सोच के प्रबन्धकर कहा यह निश्चय करो कोई दुष्ट देत्य हर लेगया है जहां तिष्ठे है से लावगे आप संदेह न करो, नानाप्रकारके प्रिय वचननिकर रामको धीर्य बंधाया अर निर्मल जल करि सुबुद्धि ने राम का मुख धुलाया, ताही समा विशेष शब्द सुन रामने पूछा यह शब्द काहे का है तब लक्ष्मणने कहा-हे नाथ ! यह चन्द्रोदय विद्या पर का पुत्र पिराधित याने रण में मेरा बहुत उपकार किया सो आपके निकट आया है याको सेना का शब्द है या भांति दोऊ वर वार्ता करे हैं । अर वह बडी सेनामाहेत हाथ जोडकर नमस्कार कर जर जप शब्द का अपने मंत्रीनि सहित विनती करता मया-आप हमारे स्वामी हैं । हम सेवक हैं जो काय होय ताक प्राज्ञा देउ तब लक्ष्मण कहता भया-हे मित्र काहु दुराचारी ने मेरे प्रभुमी त्री हरी है या विना रामचन्द्र जो शोक के वशी होय कदाचन् प्रागको तजें तो मैं भी अग्नि में प्रवेश करूगा, इनके प्राणनि के आधार मेरे प्राण हैं, यह तू निश्च । जान ताते यह कार्य कता है भले जानै सो कर, तब यह बात सुन वह अति दुःखित होय नींचा मुख कर रहा अर मनमें विचारता भया एते दिन मोहि स्थानक भ्रष्ट हुए भए नानाप्रकार वन बिहार किया अर इन मेरा शत्रु हना स्थानक दिया तिनकी यह दशा है जो २ विकल्प करू हूं सो योंही वृथा जाय हैं यह समस्त जगत काधीन है तथापि मैं कछू उद्यम कर इनका कार्य सिद्ध करू ऐसा विचार अपने मंत्रिनि कहा पुरुषोत्तमकी स्त्री रत्न पृथ्वी विषे जहां होय तहां जल स्थल माकाश पुर वन गिर ग्रामादिक में यत्नकर हेरो यह क य भए मनवांछित फल पावोगे ऐसी राजा विराथित की माज्ञा सुन यशके अर्थी सर्व दिशाको विद्यधर दौडे। ... अथानन्तर एक रत्नजटी विद्याधर अर्कटीका पुत्र सो आकाश मार्ग में आता हुता ताने सीता के रुदन की हाय राम हाय लक्ष्मण , यह ध्वनि समुद्रके ऊपर आकाशमें सुनी तब रत्नजटी वहां आय देखे तो रावणके विमान में सीता बैठी विलाप करे है तब सीता को विलाप करती देख रत्नजटी क्रोध का भरा रावण सों कहता भया-हे पापी दुष्ट विद्याधर ! ऐसा अपराध कर कहा जायगा , यह भामण्डल की बहन है रामदेव की राणी है। मैं भामण्डल का सेवक हू, हे दुर्वद्धि, जिया चाहे तो याहि छोड, तब रावण अति क्रोध कर युद्धको उद्यमी भया बहुरि विचारी कदाचित् युद्धके होते अति बिहन जो सीता सो मरजावे तो भला नाहीं तातें यद्यपि यह विद्याधर रंक है तथापि उपाय करि मारना ऐसा विचार रावण महाबली ने रत्नजटीकी विद्या हरलीनी सो रत्नजटी आकाशते पृथिवीमें पडा । मन्त्रके प्रभावकरि धीरा धीरा स्फुलिंगेकी न्याई समद्रके मध्य कम्पूद्वीपमें आय पडा आयुकर्मके योगते जीवता बचा जैसे बणिकका जहाज Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ पद्म-पुराण फटजाय र जीवता बचे सो रत्ननटी विद्या खोय जीवता बचा सो विद्या तो जाती रही, जाकरि विमान में बैठ घर पहुंचे सो अत्यंत स्वास लेता कम्पूपर्वत पर चढ दिशाका अवलोकन करता भया, समुद्रकी शीतल पवनकर खेद मिटा, सो वनफल खाय कम्पूपर्वतपर रहे पर जे विराधितके से विद्याधर व दिशा नाना भेषकर दौडे हुते ते सीताको न देख पाछे आये । सो उनका मलिन मुख देख रामने जांनी सीता इनकी दृष्टि न आई, तब राम दीर्घ स्वांस नांख कहते भए - हे भले विद्याधर हो, तुमने हमारे कार्य के अर्थ अपनी शक्ति प्रमाण अति यत्र किया परन्तु हमारे अशुभका उदय, ताते अब तुम सुख अपने स्थानक जावो, हाथते बडवानल में गया र बहुरि कहाँ दीखे, कर्म का फल है सो अवश्य भोगना । हमारा तिहारा निवारा न निवरे, हम कुते छूटे, वनमें पैठे, तो हू कर्मशत्रुको दया न उपजी ताते हम जानी हमारे असाताका उदय है, सीता हू गई या समान और दुख कहा होयग', या भांति कहकर राम रोचने लगे, धीरनरनिके अधिपति तत्र विरावित वीर्य त्रायत्रे विषै पंडित नमस्कारकर हाथ जोड कहता भया — हे देव, आप एता विषाद काहे करो १ थोडे ही दिनमें आप जनकसुता को देखोगे, कैसी है जनकसुता ? निःप प है देह जाकी, हे प्रभो, यह शोक महाशत्रु है शरीर का नाशकरे और बस्तु कहा बा, तैं आप धीर्य अंगीकार करहु यह धीर्य ही महापुरुषनिका सर्वस्व है आप सारिखे पुरुष 'ववेकके निवास हैं धीर्यवन्त प्राणी अनेक कल्याण देखे अर श्रातुर अत्यन्त कष्ट करें तो हू इष्ट वस्तुको न देखे अर यह समय विषादका नाहीं, आप मन लगाय सुनहु विद्याधरनि का महाराजा खरदूषण मारा सो अब यात्रा परिपाक महाविषम है, सुग्रीव किहकंधापुरका धनी अर इंद्रजीत कुम्भकर्ण त्रिशिर अक्षोन भीम क्रूरकर्मा महोदर इनको श्रादि ले अनेक विद्याधर महा योधा बलवन्त या परममित्र हैं मो याके मरणके दुःखते क्रोधको प्राप्त भए होंगे ये समस्त नाना प्रकार युद्धमें प्रवीण हैं, हजारां ठौर रणविषै कीर्ति पाय चुके हैं अर वेताड पर्वतके अनेक विद्याभर खरदूषणके मित्र हैं पर पवनञ्जयका पुत्र हनूमान जाहि लखे सुभट दूरही टरें ताके संमुख देव हून सो खरदूषण का जमाई है ता वह हू याके मरणका रोप करेगा तातैं यहां वनविन रहना, अंलकारोदय नगर जो पाताललंका ताविषै विराजिये अर भामंडल को सीताके समाचार पठाइये वह नगर महादुर्गम है तहां निश्चल होय कार्यका उपाय सर्वथा करेंगे, या भांति विधित निती करी तब दोऊ भाई चार घोडनिका रथ वापर चढकर पाताललंकाको चाले सो. दोऊ पुरुषोत्तम सीता विना न शोभते भए जैसे सम्यक् दृष्टिः बिना ज्ञान चारित्र न सोहें, चतुरंग सेनारूप सागर करि मंडित दण्डक बनते चाले, विराधित अगाऊ गया तहां चन्द्रनखाका पुत्र सुन्दर सो लडनेको नगरके बाहर निकसा ताने युद्ध किया सो ताको जीत नगर में प्रवेश किया देवनिके नगर समान वह नगर रत्नमई, तहां खरदूषण के मंदिर में विराजे सो महा मनोहर सुरमंदिर समान वह मंदिर तहां सीता बिना रंचमात्र हूं विश्रामको न पावते भए, सीतामें हैं मन रामका सो रामको प्रिया के समीपकर वन हू मनोग्य भासता हुता व कांताके वियोगकर दग्ध जो राम तिनको नगर मंदिर विन्ध्याचलके वन समान भासें । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MALAAAAAAA छयालीसवां पा ३४३ अथानन्तर खरक्षणके मन्दिरमें जिनमन्दिर देखकर रघुनाथने प्रवेश किया वहां अरिहंतकी प्रतिमा देख रत्नमई पुष्पनिकर अर्चा करी, एक क्षण मीताका संताप भूल गये, जहां २ भगवान्के चैत्यालय हुते वहां वहां दर्शन किया प्रशान्त भई है दुःखकी लहर जिनके रामचन्द्र खरदूषणके महल विष तिष्ठे हैं अर सुन्दर, अपनी माता चन्द्रनखा सहित पिता अर भाईके शोक कर महाशोक सहित लंका गया। यह परिग्रह विनाशीक है अर महादुःखका कारण है, विघ्नकर युक्त है, ताते हे भव्यजीव हो, तिनविषे इच्छा निवारो यद्यपि जीवनिके पूर्व कर्म के सम्बन्थम् परिग्रहकी अभिलाषा होय है तथापि साधुवर्गके उपदेशकरि यह तृष्णा निवृत्त होय है जैसे सूर्यके उदयते रात्रि निवृत्त होय है ॥ इति श्रीरगिषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा नचनिकागिणे रामको सीताका बियोग अर पाताल लंकाविषै निवास कर्णन करनेवाला पैंतालीसवां पर्व पूर्ण भया॥४५॥ - --*०*०*- -- अथानन्तर रावण सीताको लेय ऊंचे शिखरपर तिष्ठा धीरे धीरे चालता भया जैसे आकाशविष सूर्य चाले, शोककर तप्तायमान जो सीता ताका मुख कमल कुमलाय गया देख रतिके राग कर मूह भया है मन जाका ऐसा जो रावण सो सीताके चौगिर्द फिरे पर दीन वचन कहे-हे देवी! कामके वाण कर मैं हता जाऊ हूं, सो तोहि मनुष्यकी हत्या होयगी, हे सुन्दरी ! यह तेरा मुखरूप कमल सर्वथा कोपसंयुक्त है ती ह मनोग्य भासे है। प्रसन्न हो एक वेर मेरी ओर दृष्टि धर देख, तेरे नेत्रनिकी कांतिरूप जलकर मोहि स्नान कराय अर जो कृपा दृष्टि कर नाहीं निहारे, तो अपने चरण कमल रि मेरा मस्तक तोड, हाय हाय तेरी क्रीडाके बनमें मैं अशोक पक्ष ही क्यों न भया जो तेरे चरण कमल की पाथलीकी वात अत्यन्न प्रशंसा योग्य सो मोहि सलभ होती। भावार्थ अशोक वृक्ष स्त्रीके पगथली के घातसे फूले । हे कृशो री ! विमान के शिखर पर तिष्ठी सर्व दिशा देख, मैं सूर्य के ऊपर आकाशवि आया हूं | मेरु कुलाचल पर समुद्र सहित पृथिवी देख मानों काहू सिलावटने रची है ऐसे वचन रावणने कहे । तब वह महासती शीलका सुमेरु पटके अन्तर अरुचिके अक्षर कहती भई-हे अधम ! दूर रह, मेरे अंगका स्पर्श मत करे अर ऐसे निंद्य वचन कभी मत कहे, रे पापी ! अल्प आयु ! कुगतिगामी ! पयशी! तेरे यह दुराचार तोहीको भयकारी हैं, परदाराकी अभिलाषा करत तू महादुःख पावेगा। जैसे कोई भस्मकर दवी अग्निपर पांव धरे तो जरे, तैय तू इन कर्मनि रि बहुत पछावेगा। तू महामोहरूप कीचकरि मलिन चित्त है तोहि धर्मका उपदेश देना यथा है। जैसे अन्धके निकट नृत्य करे। हे क्षुद्र ! जे परस्त्रीकी अभिलाषा करे हैं वे इच्छः मात्र ही पापको बांधकर नरकमें महाकष्टको भोगे हैं। इत्यादि रूक्ष वचन सीता रावणसू कहे । तथापि कामकर हता है चित्त जाका सो अविवेक पाछा न भया अर खरदूषण की जे मदद गये हुते परम हितु शुक्र हस्त प्रहस्तादिक बे खरदूषणके मुवे पीछे उदास होय लंका पाए । सो रावण काहकी ओर देखे नाही, जानकीको नानाप्रकारके वचनझर प्रसन्न करे, सो कहां प्रसन्न होय Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पी-पुराण जैसे अग्निकी ज्वालाको कोई पीय न सके अर नागके माथेकी मणिको न लेय सके, तैसे सीता को कोई मोह न उपजाय सके ! बहुरि रावण हाथ जोड सीस निवाय नमस्कार कर नानाप्रकारके दीनताके वचन कहे, सो सीता याके वचन कछू न सुने अर मंत्री आदि सन्मुख आए सर्व दिशानिते सामन्त आए, राक्षमनिके पति जो रापण सो अनेक लोकनिकर मंडित होता भया लोक जय जयकार शब्द करते भए, मनोहर गीत नृत्य बादित्र होते भये । रावण इन्द्रकी न्याई लंकामें प्रवेश किया, सीता चित्तमें चिंतवती भई, ऐसा राजा अमर्यााकी रीति करे, तब पृथिवी कौनके शरण रहे, जबलग रामचन्द्रकी कुशल नेमकी वार्ता मैं न सुनू तब लग खानपानका मेरे त्याग हैं। रावण देवारण्य नामा उपवन स्वर्ग समान परम सुन्दर जहां कल्पवृक्ष वहां सीताको मेलकर अपने मन्दिर गया ताही समय खादूषणके मरणके समाचार आए सो महा शोककर रावणकी अठारा हजार राणी ऊचे स्वरकर विलाप करनी भई अर चन्द्रनखा रावणकी गोदविषे लोटकर अति रुदन करती भई-हाय मैं अभागिनी हती गई, मेरा धनी मारा गया मेहके झरने समान रुदन किया अश्रुगत का प्रवाह बहा, पति अर पुत्र दोऊके मरणके शोकरूप अग्नि कर दग्थायमान है हृदय जाका, सो याहि विलाप करती देख याका भाई रावण कहता भयाहे वत्से ! रोपवेकर कहा या जगत्के प्रसिद्ध चरित्रको कहा न जाने है। बिना काल कोऊ वज्र से भी हता न मरे पर जब मृन्युफल आवे तब सहजही मरजाय । कहां वे भूमिगोचरी रंक अर कहां तेरा भतार विद्याधर दैत्यत्रिका अधिपति खरदूषण ताहि गे मारें, यह कालहीका कारण है जाने तेरा पति मारा ताको मैं मारूगा या भांति बहिन को धीर्य बंवाय कहता भया--प्रब तू भगवानका अर्चन कर, श्राविकाके व्रत धार, चन्द्रनखाको ऐसा कहकर राबण महलविणे गया सर्पकी न्याई निश्वास नाखता सेजार पडा वहां पटराणी मन्दोदरी आयकर भरतारको व्याकुल देख कहती भई-हे नाथ, खरदूषणके मरणकर अनि व्याकुल भए हो सो तिहारे सुबट कुलमें यह बात उचित नाहीं । जे शूरवीर हैं तिनके मोटी आपदामें हूँ विषाद नाहीं तुम बीराधिवीर क्षत्री हो तिहारे कुलमें तिहारे पुरुष अर तिहारे मित्र रण संग्रामपि अनेक क्षण भय सो कौन कौनका शोक करोग, तुम कवहूं काहूका शोक न किया, अब खरदूष का एना सोच क्यों करो हो ? पूर्ये इन्द्र के संग्राम में तिहारा काका श्रीम ली मरणको प्राप्त भया, अर अनेक बायव रणमें हते गए तुम काहूका कभी शोक न किया आज ऐसा सोच दृष्टि क्यों पडा है जैसा पूर्वे कबहूँ हमारी दृष्टि न पडा, तब रवण निश्वास नाख बोला-हे सुन्दरी, सुन मेरे अन्तःकरणका रहस्य तोडि कहूं हूँ, तू मेरे प्राणनिकी स्वामिनी है अर सदा मेरी बांछा पूर्ण करे है। जो तू मेरा जीतव्य चाहे है तो कोप मतकर मैं कहूँ सो कर, सो वस्तुका मूल प्राण हैं, तब मन्दोदरी कही जो श्राप कहो सो मैं करू तब रावण याकी सलाह लेय लिखा होय कहता भया-हे प्रिये, एक सीता नामा स्त्री स्त्रिनिकी सृष्टि में ऐभी और नाहीं सो वह मोहि न इच्छे तो मेरा जीवना नाही मेरा लावण्यतारूप यौवन माधुर्यमा सुन्दरता ता सुन्दरी को पायकर सफल होय । तब मंदोदरी याकी दशा कष्टरूप जान हंसकर दांवनिकी कांति स चांदनीको प्रकाशती संती कहती भई Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियालीसा पर्व ३४५ हे नाथ, यह बडा आश्चय है तुम सारिखे प्रार्थना करें अर वह तुमको न इच्छे सो मंदभागिनी है या संसारमें ऐसी कौन परम सुन्दरी है जाका मन तिहारे देखे खण्डित न होय अर मन मोहित न होय अथवा वह सीता कोई परम उदयरूप अद्भुत त्रैलोक्य सुन्दरी है जाको तुम इच्छो हो अर वह तुमको नाही इच्छे है. ये तिहारे कर हस्तीकी सुण्ड समान रत्नजडित वाजूनिकरि युक्त तिनकरि उरसे लगाय बलात्कार क्यों न सेवहु तब रावण कही या सर्वाङ्ग सुन्दरीको मैं बलात्कार नाहीं गहूं ताका कारण सुन--अनन्तवीर्य केवलीके निकट में एक व्रत लिया है, वे भगवान देव इन्द्रादिक कर बन्दनीक ऐसा व्याख्यान करते भए । या संसारमें भ्रमण करते जीव परम दुखी तिनके पापनिकी निवृत्ति निर्वाणका कारण है एक भी नियम महा फलको देय है अर जिनके एक भी व्रत नाहीं वे नर जर्जरे व लश समान निर्गुण, हैं जिनके मोक्षका कारण कोई नियम नाही तिन मनुष्यनिमें और पशुनिमें कछू अन्तर नाहीं तातें अपनी शक्ति प्रमाण पापनिको तजहु सुकृतरूप धनको अंगीकार करहु, तातें जन्मके अांधेकी न्याई संसार रूप अन्धकूपमें न परो । या भांति भगवान्के मुखरूप कमलते निकसे वचनरूप अमृत सो पीय कर कैएक मनुष्य तो मुनि भए, कैएक अल्प शक्ति अणुव्रतको धारणकर श्रावक भए, कर्मके सम्बन्धते सबकी एक तुल्य शक्ति नाहीं, वहां भगवान केवलीके समीप एक साधु मोसे कृपा कर कहता भया-हे दशानन ! कछू नियम तुम हू लेह, तू दयाधर्मरूप रत्न नदीमें आया है। सो गुणरूप रत्ननिके संग्रह विना खाली मति जाहु, ऐसा कही तब मैं प्रणामकर देव असुर विद्याधर मुनि सर्वकी साक्षी ब्रत लिया कि जो परनारी मोहि न इच्छे ताहि मैं बलात्कार न सेऊ । हे प्राणप्रिये ! मैं विचारी जो मोस रूपवान नरको देख ऐसी कौन नारी है जो मान करे, तात मैं वलात्कार न सेऊ । राजानिकी यही रीति है जो वचन कहें सो निवाहें, अन्यथा महादोष लागे । तातें मैं प्राण तजू, ता पहिले सीताको प्रसन्न कर, घरके भस्म भए पीछे कुधां खोदना वृथा है । तब मन्दोदरी रावणको विह्वल जान कहती भई-हे नाथ ! तिहारी आज्ञा प्रमाण ही होयगा ऐसा कह देवारण्य नामा उद्यानमें गई, अर ताकी आज्ञा पाय रावण की अठारह हजार राणी गई, मन्दोदरी जायकर सीताको या भांति कहती भई-हे सुन्दरी, हर्षके स्थानकमें कहा विषाद कर रही है, जा स्त्रीके रायण पति सो जगत में धन्य है सर्व विद्याधरनिका अधिपति सुरपंतिका जीतनहारा तीन लोकमें सुन्दर ताहि क्यों न इच्छे, निर्जन वनके निवासी निर्थन शक्तिहीन भूमिगोचरी तिनके अर्थ कहा दुःख करे है, सर्व लोकमें श्रेष्ठ ताहि अंगीकार कर क्यों न सुख करै । अपने सुखका साधन कर, याविणे दोष कहा जो कछु करिये है सो अपने सुखके निमित्त करिये है अर मेरा कहा जो न करोगी तो जो कुछ तेरा होनहार है सो होगा, रावण महा बलवान है कदाचित् प्रार्थना भंगते कोप करे तो तेरा या बातमें अकारज ही है अर राम लक्ष्मण तेरे सहाई हैं सो रावण के क्रोध किये उनका भी जीवना नाहीं तातें शीघ्र ही विद्याघरनिका जो ईश्वर ताहि अंगीकार कर, जाके प्रसादते परम ऐश्वर्यको पायकर देवनके से Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maram Avina पद्म पुराण सुख भोगवे । जब ऐसा कहा तव जानकी अश्रुपात कर पूर्ण हैं नेत्र जाके गदगद वाणी कर कहती भई। हे नारी ! यह बचन तूने सब ही विरुद्ध कहे । तू पतिव्रता कह वे । पतिब्रतानिके रखते ऐसे वचन कैसे निकसे । यह शीर मेरा छिदजावे भिदजावे हतजावे परंतु अन्य पुरुषको मैं न इच्छू, रूपकर सनत्कुमार समान हावे अथवा इंद्र समान होवे तो मेरे कौन अर्थ, मैं सर्वथा अन्य पुरुषको न इच्छू। तुम सब अठारह हजार राणी भेली होयकर आई हो सो तिहारा कहा मैं न करू, तिहारी इच्छा होय सो करो, ताही समय रावण आया मदनके आताप कर पीडित जैसे तृषातुर माता हाथी गंगाके तीर आवे तैसे सीताके समीप प्राय मधुर वाणी कर आदर कहता भया-हे देवी, तू भय मत करे । मैं तेरा भक्त हूँ। हे सुन्दरी, चित्त लगाय एक विनती सुन- मैं तीन लोकमें कौन वस्तु कर हीन जो तू मोहि न इच्छे, ऐसा कहकर स्पर्शकी इच्छा करता भया तब सीता क्रोध कर कहती भई-पापी ! परे जा, मेरा अंग मत स्परों, तब रावण कहता भया कोप अर अभिमान तज प्रसन्न हो, शची इन्द्राणी समान दिव्य भोगनिकी स्वामिनी होहु । तब सीता बोली--कुशील पुरुषका विभव मलसमान है अर सीलवंत हैं तिनके दारिद्र ही प्राभूषण है, जे उत्तम वंशमें उपजे हैं तिनके शीलकी हानिकर दोऊ लोक बिगरे तातें मेरे तो मरण ही शरण है। तू परस्त्रीकी अभिलाषा राखे है सो तेरा जीतव्य वृथा है । जो शील पालता जीवै है ताहीका जीतव्य सफल है या भांति जब सीता तिरस्कार किया तब रावण क्रोधकर मायाकी प्रवृत्ति करता भया । राणी अठारह हजार सब जाती रहीं पर रावणकी माया के भयते सूर्य अस्त होय गया। मद भरती मायाई हाथिनकी घटो आई, यद्यपि मीता भयभीत भई तथापि रावण के शरण न गई बहुरि अग्निके स्फुलिंगे वरसते भए अर लहलहाट करें हैं जीम जिनकी ऐसे सर्प पाए तथा प सीता रावणके शरण न गई बहुरि महा कर वानर फार हैं मुख जिन्होंने उछल उछल आए अति भयानक शब्द करते भर तथापि सीता रावण के शरण नगई पर अग्निके ज्वाला समान चपल है जिह्वा जिनकी ऐसे मायामई अजगर तिनने भय उपजाया तथापि सीता रावणके शरण न गई बहुरि अंधकार समान श्याम ऊचे व्यंतर हुंकार शब्द करते आए भय उपजावते भये तथापि सीता रावणके शरण न गई, या भांति नाना प्रकारकी चेष्टाकर रावणने उपसर्ग किये तथापि सीता न डरी, रात्रि पूर्ण भई, जिनमंदिरमें वादिअनिके शब्द होते भए द्वारनके कपाट उघरे, मानों लोकनिके लोचन ही उघरे, प्रात संध्या कर पूर्व दिशा आरक्त भई, मानों कुंकुमके रंगकरि रंगी ही है । निशाका अंधकार सर्व दा कर चन्द्रमाको प्रभारहित कर सूर्य उदय भया। कमल फूले, पक्षी विचरने लगे, प्रभात भया तब प्रति क्रिया कर विभीषण रावणके भाई खत्दूषणके शोक कर रावण पै आए । सो नीचा पुल किये आंसू डारते भूमिमें तिष्ठे ता समय पटके अंतर-शोककी भरी जो सीता ताके रुदनके शब्द विभीषणने सुने अर सुनकर कहता भया यह कौन स्त्री रुदन करे है ? अपने स्वामीते विडरी है याका शोक संयुक्त शब्द दुखको प्रकट दिखावे हैं। ये विभीषण के शब्द सुन सीवा अधिक रोवने Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियालीसा पर्व लगी, सज्जनको देख शोक बढे ही है। विभोषण पूछा भया-हे बहिन ! तू कौन है ? तब सीता कहती भई, मैं राजा जनककी पुत्री भामण्डलकी वहिन रामकी राणी दशरथ मेरा सुसरा लक्ष्मण मेरा देवर सो खरदूषणते लडने गया ताके पीछे मेरा स्वामी भाईकी मदद गया, मैं वनमें अकेली रही सो छिद्र देख या दुष्टवित्तने हरी सो मेरा भरतार मो विना प्राण तजेगा ताते हे भाई! मोहि मेरे भरतार पै शीघ्र ही पठाओं, ये वचन सीताके सुन विभीषण रावणसे विनय कर कहता भया-हे देव ! यह परनारी अग्निकी ज्वाला है, आशीविष सर्पके फण समान भयंकर है, आप काहेको लाये अब शीघ्र पठाय देहु । हे स्वामी ! मैं बालवुद्धि हूं परंतु मेरी विनती सुनो मोहि आपने आज्ञा करी जो तू उचित वार्ता हमसों कहियो करि ताते आपकी अोझाते कहूं हूँ तिहारी कीर्ति रूप बेलके समूह कर सर्व दिशा व्याप्त होय रही है ऐसा न होय जो अपयशरूप अग्नि कर यह कीसिलता भस्म होय । यह परदाराको अभिलाष अयुक्त अति भयंकर महानिंद्य दोऊ लोकका नाश करन्हारा जाकर जात्में लज्जा उपजे उत्तम जननिकर धिक्कार शन्द पाइये है । जे उत्तम जन हैं तिनके हृदयको अप्रिय ऐसा अनीतिकार्य कदाचित् न कर्तव्य, प्राप सकल वार्ता जानी हो, सब मर्यादा आप ही ते रहें, आप विद्याधरनिके महेसर, यह वलता अंगारा काहे को हृदयमें लगावो, जो पापबुद्धि परनारी सेवे हैं सो नरकमें प्रवेश करे हैं जैसे लोहेका ताता गोला जल में प्रवेश करे तैसे पापी नरकमें पडे है । ये वचन विभीषणके सुनकर रावण बोला-हे भाई ! पृथिवी पर जो सुन्दर वस्तु हैं ताका मैं स्वामी हूं सब मेरी ही वस्तु हैं पर वस्तु कहांसे आई, ऐसा कहकर और बात करने लगा बहुरि महानीतिका थारी मारीच मंत्री क्षण एक पीछे कहता भया--देखी यह मोहकर्म की चेष्टा, रावण सारिखे विवेकी सर्व नीति को जान ऐसे कर्म करे । सर्वथा जे सवुद्धि पुरुष हैं तिनको प्रभात ही उठकर अपनी कुशल अकुशल चितवनी, विवेकसे न चूकना, या भांति निरपेक्ष भया महा बुद्धिमान मारीच कहता भया तब रावणने कछू पाला जबाब न दिया, उठकर खडा होगया, त्रैलोक्यमण्डन हाथीपर चढ सब सामन्तनिसहित उपवनते नगरको चला, वरछी, खड्ग, तोमर, चमर; छत्र, घजा आदि अनेक वस्तु हैं हाथनमें जिनके ऐसे पुरुष आगे चले जाय हैं अनेक प्रकारके शब्द होय हैं चंचल है ग्रीवा जिनकी ऐसे हजागं तुरंगनिपर चढ सुभट चले जाय हैं अर कारी घटा समान मद भरते गाजते गजराज चले जांय हैं अर नाना प्रकारकी चेष्टा करते उछलते पयादे चले जाय है, हजारा वादित्र बाजे, या भांति रावणने लंकामें प्रवेश किया। रावण के चक्रवर्तीकी सम्पदा तथापि सीता तृणसे हू जघन्य जाने, सीताका मन निष्कलंक यह लुभायवेको समर्थ न भया । जैसे जल में कमल अलिप्त रहे, तैसे सीता अलिप्त रहे । सर्व ऋतुके पुष्पनिकर शोभित नाना प्रकारके वृक्ष पर लतानिकर पूर्ण ऐस प्रमद नामा वन तहां सीता राखी । वह वन नंदनवन समान सुन्दर जाहि लखे नेत्र प्रसन्न होंय, फुल्लगिरिके ऊपर यह वन सो देखे पीछे और ठौर दृष्टि न लगे, जाहि लखे देवनिका मन उन्मादको प्राप्त होय मनुष्यनिकी कहा बात १ वह फुल्लगिरि सप्तवनकर वेष्टित सोहै जैसे भद्रशालादि वन कर सुमेरु सोहे है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म पुराण हे श्रणिक, सात ही वन अद्भुत हैं उनके नाम सुन-प्रकीर्णक, जनानन्द, सुखसेव्य, समुच्चय, चारण प्रिय, निबोध, प्रमद । तिनमें प्रकीर्णक पृथिवी वि ताके ऊपर जनानन्द जहां चतुर जन क्रीडा करें अर तीजा सुखसेव्य अतिमनोग्य सुन्दर वृक्ष अर वेल कारी घटा समान सघन सरोवर सरिता वापिका अतिमनोहर अर समुच्चय सूर्यका आताप नाही वृक्ष ऊचे कहूं ठौर स्त्री क्रीडा करें कहूं ठौर पुरुष अर चारणप्रिय बनमे चारण मुनि ध्यान करें पर निबोध ज्ञानका निवास सवनिके ऊपर अति सुन्दर प्रमद नामा बन ताके ऊपर जहां तांबूलकी बेल केतकीनिके बीडे जहां स्नानक्रीडा करनेको उचित रमणीक वापिका कमलनिकर शोमित हैं पर अनेक खा के महल अर जहां नारंगी विजोरा नारियल छुहारे ताड वृक्ष इत्यादि अनेक जातिके वृक्ष, सर्व ही वृक्ष पुष्पनिके गुच्छनि अर शोभे हैं जिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं अर जहां वेलिनके पल्लव मन्द पवन कर हाले हैं । जा वनविर्षे सघन वृक्ष समस्त ऋतुनिके फल फूलनिकर युक्त कारी घटा समान सघन हैं मोरनके युगलकर शोभित है ता वनकी विभूति मनोहर वापी सहस्रदल कमल है मुख जिनके सो नील कमल नेत्रनिकर निरखे हैं अर सरोवर विष मन्द मन्द कल्लोल उठे हैं सो मानो सरोवरी नृत्य ही करे हैं अर कोयल बोले हैं सो मानों वचनालाप ही करे हैं अर राजहंसनीनिके समूहकर मानो सरोवर हही है बहुन कहिवे कर कहा यह प्रमदनामा उद्यान सर्व उत्सवका मूल भोगोनिका निवास नन्दनवनहूत अधिक ता वनमें एक अशोकमालिनी नामा वापी कमलादि कर शोभित जाके मणि स्वर्ण के सिवाण, विचित्र प्राकारको धारे हैं द्वार जाके जहां मनोहर महल जाके सुन्दर झरोखे तिनकर शोभित जहां नीमरने झरें हैं वहां अशोक वृत्वके तले सीता राखी। कैती है सीता श्रीरामजीके वियोग कर महाशोक को धरे है जैसे इन्द्रते विछुरी इंद्राणी, रावणकी आज्ञाते अनेक स्त्री विद्याधरी खडी ही रहें नाना प्रकारके वस्त्र सुगन्ध आभूषण जिनके हाथ में भांति भांतिकी चेष्टा कर सीताको प्रसन्न किया चाहें । दिव्यगीत दिव्यनृत्य दिव्धवादित्र अमृत सारिखे दिव्यवचन तिन कर सीताको हर्षित किया चाहें परन्तु यह कहां हर्षित होय जैसे मोक्ष संपदाको अभव्य जीव सिद्ध न कर सके तैसे रावणकी दूती सीताको प्रसन्न न कर सकीं। ऊपर ऊपर रावण दूती भेजै, कामरूप दावानलकी प्रज्वलित ज्वाला ताकर व्याकुल महाउन्मत्त भांति भांतिके अनुरागके वचन सीताको कह पठावे यह कछू जवाब नाहीं देय । दूती जाय रावणसों कहैं-हे देव ! वह तो आहार पानी तज बैठी है तुमको कैसे इच्छे वह काहूसों बात न करे निश्चल अंगकर तिष्ठे है हमारी ओर दृष्टिही नाहीं धरे, अमृत हूते अति स्वादु दुग्धादि कर मिश्रित बहुत भांति नाना प्रकारके व्यंजन ताके मुख आगे धरे हैं सो स्पर्श नाहीं। यह दतिनिकी बात सुन रावण खेदखिन्न होय मदनाग्निकी ज्वाला कर व्याप्त है अंग जाका महा आरतरूप चिन्ताक सागरमें डुबा, कबहुं निश्वास नाखे, कबहूं सोच करे, सूक गया है मुख जाका कबहूं कछु इक गावे कामरूप अग्नि कर दग्ध भया है हृदय जाका कछू इक विचार २ निश्चल होय है, अपना अंग भूमिमे डार देय फिर उठे सूनासा होय रहे, विना समझे Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियालीसगां पर्ण ३४९ उठ चले बहुरि पीछा श्रावे जैसे हस्ती सूड पटके तैसे भूमिमें हाथ पटके सीताको वरावर चितारता आंखनिते आंसू डारे कबहुं शब्द कर बु नावे .बहूं हूंकार शब्द करे कबहुं चुप होय रहे कपई वृथा बकवाद करे कबहूं सीता २ वार २ रके । कबहुं नीचा मुख कर नखनिकरि धरती कुचरे,कबहुं हाथ अपने हिय लगावे कबहुं बहू ऊंचा करे कबहु मेजपर पडे कबहूं उठ बैठे कबहूं काहूं कमल हिये लगवे, कबहुं दूर डार देय कबहु शृंगार का काव्य पढे कबहूं आकाशकी ओर देखे कबहूं हाथ से हाथ मसले कबहूं पगसे पृथिवी हणे निवास रूप अग्निकर अधर श्याम होय गए कबहूं कह २ शब्द करे कबहूं अपने केश बखेरे कबहूं बांधे कबहूं जंभाई लेय, कबहूं मुखपर अंचल डारे, कबहूं बस्त्र सब पहिरलेय, सीताक चित्राम वनावे, काहूं अश्रुपातकर आईकरें, दीन भया हाहाकार शब्द करे, मदन ग्रहकर पीडित अनेक चेष्टा करे, आशारूप इंधनकर प्रज्वलित जो कामरूप अग्नि ताकर ताका हृदय जरे अर शरीर जले, कबहुं मनविणे चिंतवे कि मैं कौन अवस्थाको प्राप्त भया जाकर अपना शरीर ह नाहीं धार सकू हूं, मैं अनेक गढ अर सागरके मध्य ष्ठेि बडे बडे विद्याधर युद्धविष हजारां जाते अर लोकवि प्रसिद्ध जो इंद्र नामा विद्याधर सो बन्दी गृहविष डारा, अनेक युद्धविष जीते राजनिक समूा, अब मोह कर उन्मत्त मया मैं प्रमादके बश प्रबाहूं । गौतम स्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं-राजन् ! रावण तो कामके वश भया पर विभीषण मह बुद्धिम न मंत्रविषै निपुण सब मंत्रिनिको इनहाकर मंत्र विचारा, कैसा है विभीषण ? रावणके राज्य का भार ज के सिरपर पडः है, समस्त शा त्रनिके ज्ञानरूप जलकर धोया है मनरूप मैल जाने, रावणके ता समान और हितू नाहीं । विभीषणको सर्वथा रावणके हितहीका चितवन है सो मंत्रिनिकहना भया-अहो वृद्ध हो ! राजाकी तो यह दशा अब अपने ताई कहा कर्तव्य सो कहो ? तब विभीषणकं वचन सुन संभिन्नमति मंत्री कहता भया हम कहा कहें, सर्वकार्य विगडा । रावणकी दाहिनी भुजा खरदूषण हुता सो मूत्रा पर विराथित कहा पदार्थ सो स्यालते सिंह भया, लक्ष्मणके युद्धविर्ष महाई भया अर बानरवंशी जोरसे बस हो रहे हैं इनका आकार तो कछू और ही, और इनके चित्तमें कछु और ही है जैसे सर्प ऊपर तो नरम माही विष, अर पवनका पुत्र जो हनुमान् सो खरदूषण की पुत्री अनंगकुनमाका पती सो सुग्रीवकी पुत्री परणा है, सुग्रीवको पक्ष विशेष है । यह वचन संभिन्नमति के सुन पंचमुख मंत्री मुसकाय बोला-तुम खरदूषण के मरण कर सोच किया सौ शूरवीरनिकी यही रीति है जो संग्राम विष शरीर तजें अर एक खरदूषणके मरणकर रावणका कहा घट गया जैसे पवनके योगते समुद्रते एक जल की कणिका गई तो समुद्र का कहा न्यून भया अर तुम औरनिकी प्रशंसा करो हो सो मेरे चित्त में लज्जा उपजे है, कहां रावण जगत्का स्वामी पर कहां वे वनवासी भूमिगोचरी, लक्ष्मण के हाथ सूर्यहास खड्ग आया तो कहा अर विराधित आय मिला तो कहा जैसे पहाड विषम है अर सिंहकर संयुक्त है तो हू कहा दावानल न दहे ? सर्वथा दहे। तब सहस्रमति मंत्री माथा हलाय कहता भया कहा ये अर्थहीन बातें कहो हो, जामें स्वामीका हित होय सो करना, दूसरा स्वन्प है अर Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्न-पुराय हम बड़े हैं यह विचार बुद्रिमानका नाही, समय पाय एक अग्निका किणका सकल मंडल को दहे अर अश्वग्रीव के महा सेना हुी अर सर्व पृथिवी में प्रसिद्ध हुता सो छोटेसे त्रिपृष्टिने रणमें मार लिया ताते और यन तज लंका की रक्षाका यत्न करहु । नगरी परम दुर्गम करहु, कोई प्रवेश न कर सके, महा भयानक मायामई यंत्र सर्व दिशामें विस्तारहु अर नगरमें परचक्रका मनुष्य न आपने पावे अर लोकको धीर्य बंधाबहु अर सब उपाय कर रक्षा करहु, जाकर रावण सुखको प्राप्त होय अर मधुर वचनकर नाना वस्तुनिकी भेंटकर सीताको प्रसन्न करहु, जैसे दुग्ध पायवेसे नागनी प्रसन्न करिये अर वानरवंशी योधानिको नगरके वाहिर चौकी राखहु ऐसे किए कोऊ परचक्र का धनी न आय सके पर यहांको बस्तु परचक्र में न जाय । या भांति गढका यत्न किये तब कौन जाने सीता कौनने हरी अर कहां है ? सीता विना राम निश्चय सेती प्राख तजेगा जाकी स्त्री जाय सो कैप जीवे, अर राम मूबा तब अकेला लक्ष्मण कहा करेगा अथवा रामके शोककर लक्ष्मण अवश्य मरे, न जीवे, जैसे दीपकक गए प्रकाश न रहे अर यह दोऊ भाई मूवे तब अपराधरूप समुद्र विष डूबा जो विसथित सो कहा करेगा अर सुग्रीवका रूप कर विद्याधर ताके घरमें आया हे सो रावण टार सुग्रीवका दुःख कौन हरे ? मायामई यंत्रकी रखवारी सुग्रीव को सौंपो, जासे वह प्र.न होय रावण याके शत्रुका नाश करे, लंकाकी रक्षाका उपाय मायामइ यंत्रकर करना। यह मंत्रकर हर्षित होय सब अपने अपने घर गए, विभीषणने मायामई यंत्रकर लंकाका यत्न किया अर अथः ऊर्च तिर्यकसे कोऊन प्राय सके नानाप्रकारकी विद्याधर लंका अगम्य करी । गौतम गणधर कहे हैं-हे श्रेणिक, संसारी जीव सर्व ही लौकिक कार्य में प्रवः हैं, व्याकुल चित हैं । जे व्याकुलता रहित निर्मलचित्त हैं तिनको जिनवचनका अभ्यास टाल और कर्तव्य नाहीं अर जो जिनेश्वरने भाखा है सो पुरुषार्थ विना सिद्ध नाही भर मले भवितव्य के विना पुरुषार्थ की सिद्धि नाहीं, तात जे भव्यजीव हैं ते सर्वथा संसारसे विरक्त होय मोचका यत्न करहु । नर नारक देव तियंच ये चारों ही गति दुःखरूप हैं, अनादि कालते ये प्राणी कर्म के उदयकर युक्त रागादिमें प्रवृत्ते हैं तात इनके चित्तमें कल्यानरूप वचन न भावें। अशुभका उदय मेट शुभकी प्रवृत्ति करें, तब शोफरूप अग्निकर तप्त यमान न होंय । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविष लंकाकी मायामयी कोटका वर्णन करनेबाला छियालीसनां पर्व पर्ण भया ।। ४६ ।। अथानन्तर किहकंधापुरका स्वामी जो सुग्रीव साताका रूप बनाय एक विद्याधर याके पुर में आया अर सुग्रीव कांताके विरहकर दुखी भ्राता संता वहां आया जहां खरदूषण की सेनाके सामंत मूए पडे हुते, विखरे रथ मृए हाथी मृए घोड़े छिन्न भिन्न होय रहे हैं शरीर जिनके, कैयक राजानिका दाह होय है कैयक ससके हैं कईएकनिकी भुजा कटगई हैं कई निकी जंघा कटगई हैं। कईनिकी आंत गिरपडी हैं कईनिके मस्तक पड़े हैं कई निको स्थाल भखे हैं कई निको पक्षी चूथे हैं कैयकनिक परवार रोवे हैं कईयकनिको टागि राखे हैं। यह रणखेतका वृत्तांत Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैंतालीसा पर्व ३५१ देख सुग्रीव काहूसों पूछता भया तब वाने यह कही खरदूषण मारा गया, तब सुग्रोवने खरदू. षणका मरण सुन अति दुःख किया मनमें चिंतवे है-बड़ा अनर्थ भया वह महाबलवान् हुता तात मेरा सर्व दुःख निवृत्त होता सो कालरूप दिग्गजने मेरा आशारूप वृक्ष तोडा. मैं हीनपुण्य अब मेरा दुःख कैसे शांत होय यद्यपि विना उद्यम जीवको सुख नाहीं ताते दुःख दूर करका उद्यम अंगीकार करू, तब हनूमानपै गया, हनूमान दोऊनिका समानरूप देख पाछा गया तब सुग्रीव विचारी कौन उपाय करूं जाते चित्तकी प्रसन्नता होय जैसे नवां चांद निरखें हर्ष होय, जो रावणके शरणे जाऊ तो रावण मेरा अर शत्रु का एकरूप जान शायद मोहि मारे अथवा दोऊनि को मारे स्त्री हर लेय वह कामांध है कामांधका विश्वास नाहीं। मंत्र दोष अपमान दान पुण्य वित्त शूरवीरता कुशील मनका दाह यह सब कुमित्र को न कहिए जो कहें तो खता पावे ताते जाने संग्राममें खादूषणको मारा ताहिके शरणे जाऊं, वह मेरा दुख हरे अर जापै दुख पडा होय सो दुखीके दुखको जाने जिनकी तुल्य अवस्था होय तिनही में स्नेह होय । सीताके वियोग करि सीतोपति हीको दुख उपजा है ऐसा विचारकर विराधितके निकट अतिप्रीतिका दूत पठाया सो दूत जाय सुग्रीवके आगमनका वृत्तांत विराधिनसे कहता भया सो विराधित सुन कर मनमें हर्षित भया विचारी-बडा आश्चर्य है, सुग्रीव जैसे महाराज मुझते प्रीति करनेकी इच्छा करें सो वडेनिके आश्रयते कहा न होय ? मैं श्रीरामलक्ष्मण का आश्रय किया तातें सुग्रीवसे पुरुष मोंसे स्नेह किया चाहे हैं, सुग्रीव आया मेघकी गाज समान वादित्रनिके शब्द होते आऐ को पानाल लंकाके लोग सुनकर व्याकुल भए । तब लक्ष्मणने विराधितको पूछा-वादित्रनिका शब्द कौनका सुनिये है ? तब अनुराधाका पुत्र विराधित कहता भया--हे नाथ ! यह वानरवंशिनिका अधिपति प्रेमका भरा तिहारे निकट पाया है। किहकंधापुरके राजा सूर्याजके पुत्र पृथिवी पर प्रसिद्ध बड़ा वाली छोटा सुग्रीव सो बालीने तो रावणको सिर न नवाया सुग्रीवको राज्य देय वैरागी भया सर्व परिग्रह तजी, सुग्रीव निहकंट . राज्य करे । ताके सुतारा स्त्री जैसे शची संयुक्त इन्द्र रमें तैसे सुग्रीव सुतारासहित रमें । जाके अंगद नाम पुत्र गुण स्ननिकरि शोभायमान जाकी पृथिवीमें कीर्ति फैल रही है यह वात विराधित कहे हैं अर सुग्रीव आया ही, राम अर सुग्रीव मिले रामको देख फूल गया है मुख कमल जाका सुवर्णके आंगनमें बैठे, अमृतसमान बाणी कर योग्य संभाषण करते भए । सुग्रीवके संग जे वृद्ध विद्याधर हैं, वे राम कहते भए-हे देव ! यह राजा सुग्रीव किहकंधापुरका पति महाबली गुणवान सत्पुरुषनिको प्रिय सो कोई एक दुष्ट विद्याधर माया कर इनका रूप बनाया इनकी स्त्री सुतारा अर राज्य लेयवेका उद्यमी भया है। ये वचन सुन राम मनमें चिंतवते भए यह कोई मोसे भी अधिक दुखिया है याके बैठे ही दूजा पुरुष याके घरमें प्राय घुसा है, याके राज्य विभव है परंतु कोऊ शत्रुको निवारवे समर्थ नाहीं। लक्ष्मणने समस्त कारण सुग्रीवके मंत्री जामवंतको पूछा जामवंत सुग्रीवके मन तुल्य है तब वह मंत्री महाविनय संयुक्त कहता भया-हे नाथ ! कामकी फांसी कर वेढा वह पापी सुताराके रूपपर मोहित भया मायामई सुप्रीवका रूप पनाय राजमंदिर आया । सो सुताराके महिलमें गया, सुतारा महासती Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ पभ-पुराण अपने सेवकनिते कहती भई, यह कोई दुष्ट विद्याधर विद्या करि मेरे पतिका रूप बनाय आये है पापकर पूर्ण सो याका आदर सत्क र कोऊ मत करो। यह पापी शंकारहित जायकर सुग्रीवके सिंहासनपर बैठा अर वाही समय सुग्रीव हू आया पर अपने लोकनिको चिंतावान देखे तब विचारी मेरे घर में काहेको विषाद है, लोक मलिनवदन ठौर ठौर भेले होय रहे हैं। कदाचित् अंगद मेरुके चैत्यालयनिकी बंदनाके अर्थ सुमेरु गया न आया होय, अथवा राणीने काहूपर रोस किया होय अथवा जन्म जरा मरणकर भयभीत विभीषण वैराग्यको प्राप्त भया होय ताका सोच होय ऐसा विचारकर द्वारे पागा, रत्ननई द्वार गीत गानरहित देख, लोक मचित देखे, मनमें विचारी यह मनुष्य और ही होय गये । मंदिरके भीतर स्त्री जननिके मध्य अपनासा रूप किए दुष्ट विद्याधर बैठा देखा दिव्य हार पहिरे सुन्दर वस्त्र मुकटिकी कांति करि प्रकाश रूप तब सुग्रीव क्रोधकर गाजा जैसे वर्षाकालका मेव गाजे अर नेत्रनिके आरक्तकरि दशोंदिशा आरक्त होय गई जैसी सांझ फले तब वह पापी कृत्रिम सुग्रीव भी गाजा जैसे माता हाथी मदकर विह्वल होय तैसे कामकर विह्वल सुग्रीवों लडनेका उठा दोऊ होठ डसते श्रु कटी चढाय युद्धको उद्यमी भए तब श्री चन्द्रदि मंत्रिनिने मने किए अर सुतारा पटराणी प्रकट कहती भई यह कोऊ दुष्ट विद्याधर मेरे पतिका रूप बनाय आया है । देह पर बल अर वचननिकी कांति करि तुल्य भया है परन्तु मेरे भातारमें महा पुरुषनिके लक्षण हैं मो यामें नाहीं जैसे तुरंग और खरकी तुन्यता नाही तस मेर पातकी अर याको तुल्यता नाहीं। या भांति राणी सुताराके वचन सुनकर भी कैएक मंत्रिनिने न मानी जैसे निर्धनका बचन थनपान न माने, सादृश्यरूप देखकर हरा गया है चिच जिनका सो सब मन्त्रिनि भेले होय मन्त्र किया पंडितनिको इतने नक वचननिका विश्वास न करना-बालक, अतिवृद्ध, स्त्री, मद्यपायी, वेश्यामक्त इनके वचन प्रमाण नाही अर स्त्रीनिके शीलकी शुद्धि रखना, शीलकी शुद्धि विना गोत्रकी शुद्धि नाहीं, स्त्रीनिको शील ही प्रयोजन है ताते राजलोकमें दोऊ ही न जाने वें, बाहिर रहें तब इनका पुत्र अंगद तो माताके वचनते इनकी पक्ष आया अर जांबूनद कहे है-हम भी इन्हीके संग रहें अर इनका पुत्र अंगज सो कृत्रिम सुग्रीवका पक्ष है अर सात अक्षोहणी दल इनमें है अर सात बामें हैं। नगरके दक्षिणके ओर. यह राखा अर बालीका पुत्र चंद्ररश्मि ताने या प्रज्ञा करी जो सुनसके महिल आवेगा दाही खडग कर मारूगा तब यह सांचा सुग्रीव स्त्रीके विरह कर व्याकुल शोकके निवारवे निमित्त खन्दूषण पै गयो सो खरदूषण तो लक्ष्मणके खडग कर हता गया बहुरि यह हनुमान पे गया, जाय प्रार्थना करी, मैं दुःख कर पंडि र हूं मेरा सहाय करो मेरारूप कर कोई पापी मेरे धरमें पैठा है, सो मोहि महाबाधा है जायर ताहि मारो, तब सुग्रीवके वचन सुन हनुमानजी बडवानल समान क्रोधकर प्रज्वलित होय अपने मंत्रिनि सहित अप्रतीपत नामा विमानमें बैठ किहकधापुर आया सो हनूमानको आया सुन वह मायामई मुग्रीव हाथी चढा लडिवेको आश सो हनूमान दोऊनिका सादृश्य रूप देख आश्चर्यको शास भया, मनमें चिंतवता भया ये दोऊ समानरूप सुग्रीव ही हैं। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैतालीसवां पा इनमेसे कौनको मारू कछु विशेष जाना न पडे, विना जाने सुग्रीवही को मारू तो बडा अनर्थ होय । एक मुहूर्त अपने मंत्रिनिते विचारकर उदासीन होय हनुमान पाछा निजपुर गया सो हनूमानको गया सुन पुग्रीव बहुत व्याकुल भया । मसमे विवारता भया हजारों विद्या श्रमायानि करि मण्डित महावली महाप्रताप रूप वायुपुत्र सो भी सन्देहको प्राप्त भया सो बडा कष्ट, अब कोन सहाय करे अति व्याकुन होय दुःख निवारजे अर्थ स्त्री के वियोगरूप दावानल कर तप्तायमान आपके शरण पाया है आप शरणागतप्रतिपालक हैं, यह सुग्रीव अनेक गुण निकर शोभित है, हे रघुनाथ प्रसन्न होहु, याहि अपना करहु, तुम सारिखे पुरुषनिका शरीर परदुखका नाशक है ऐसे जावूनंदके वचन सुन राम लदमण अर विराथित कहते भए, धिक्कार होवे परदारारत पापी जीवनको राम विचारी मेरा अर याका दुःख समान है पो यह मेरा मित्र होयगा मैं याका उपकार करू अर यह पीछे मेरा उपकार करेगा, नहीं तो मैं निग्रंथी मुनि होय मोक्षका साथन करूंगा ऐसा विचार राम सुग्रीवसों कहते भए-हे सुग्रीव ! मैं सर्वथा तोहि मित्र किया जो तेरा स्वरूप बनाय आया है उसे जीत तेरा राज्य तोहि निह कंटक कराय दूंगा अर तेरी स्त्री ताहि मिलाय दंगा अर तेरा कार्य होचुके पाछे तू सीताकी सुध आन देना जो कहां है, तब सुग्रीव कहता भया-हे प्रभो ! मेरा कार्य भए पाछे जो सात दिनमें सीताकी सुध न लाऊं तो अग्निमें प्रवेश करूं यह बात सुन राम प्रसन्न भए जैसे चन्द्रमाकी किरण कर कुमुद प्रफुल्लित होय । रामका मुखरूप कमल फूल गया, सुग्रीवके अमृतरूा वचन सुनकर रोमांच खडे होय आए, जिनराज के चैत्यालयमें दोनों धर्ममित्र भए यह वचन किया---परसर काई द्रोह न करै बहुरि राम लक्ष्मण रथपर चढ़ अनेक सामन्तन सहित सुग्रीवके साथ किहकंगापुर आए । नगरके समीप डेराकर सुग्रीवने मायामई सुग्रीव पै दूत भेजा सो दूनको ताने फेर दिया और मायामई सुग्रीव रथमें बैठ बडी सेना सहित युद्धके निमित्त निकसा, सो दोऊ सुग्रीव परस्पर लडे । मायामई सुग्रीव अर सांचे सुग्रीवके नाना प्रकारका युद्ध भया, अंधकार होय गया दोऊ ही खेदको प्राप्त भये, धनी देर में मायामई सुग्रीवने सांचे सुग्रीवके गदाकी दीनी सो गिर पडा, तब मायामई याकों मृया जान हर्षित होय नगरमें गया अर मांक सुग्रीव मूर्छित होप पा सो परिवार के लोक डेरामें .लाए तब सचेत होय रामसों कहता भया-हे प्रभो ! मेरा चोर हाथमें आया हुता सो नगरमें जाने दिया, जो रामचन्द्रको पाय मेरा दुख न मिटे तो या समान दुख कहा ? तब रामने कही तेरा अर वाका रूप देखकर हम भेद न जाना तात तेरा शत्रु को न हता कदाचित विना जाने तेरा ही नाश होय तो योग्य नाही, तू हमारा परम भित्र है तेरे पर हमारे जिनमंदिरमें वचन हुआ है। अथानन्तर रामने मायामई सुग्रीवको बहुरि युद्धके निमित्त बुलाया सो वह बलवान क्रोधरूप अग्नि कर जलता आया, राम स-मुख भए वह समुद्रतुल्य अनेक शस्त्रनिके धारक सुभट वेई भए ग्राह तिनकरि पूर्ण, ता समय लक्ष्मणने सांचा सुग्रीव पकड राखा जो स्त्रीके बैरसे शत्रुके सन्मुख न आए अर श्रीरामको देखकर मायामई सुग्रीवके शरीरमें जो बैताली विद्या हती सो तातें पूछकर ताके शरीरते निकसी तब सुग्रीवका आकार मिट वह साहसगति विद्या Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंग-पुराण थर इन्द्रनीलके पर्वतममान भासता भया जैसे सांपकी कांचली दर होय तैसे सुग्रीवका रूप दर होगया तब जो आधी सेना बानरवंशिनिकी याके साथ हुती सो याते जुदी याके सन्मुख होय युद्धको उद्यमी भई सब बानरबंशी एक होय नानाप्रकारके आयुषनिकरि साहसगतिसों युद्ध करते भए सो साहसगति महा तेजस्वी प्रयल शक्तिका स्वामी सब बानरवंशिनिको दशोंदिशा को भगाता भया जैसे पवन धूलको उडावे बहुरि साहसगति धनुष बाण लेय राम पै आया सो मेघमंडल समान वाणनिकी वर्षा करता भया, उद्धत है पराक्रम जाका, साहसगतिके अर श्रीराम के महायुद्ध भया प्रवल है पराक्रम जिनका ऐसे राम रणक्रीडामें प्रवीण क्षुद्वाणनिकारि साहसगतिका - तर तोडने भए अर तीक्ष्ण वाणनिकरि साहसगतिका शरीर चालिनी समान कर डारा सो प्राणरहित होय भूमिमें पडा सबनि निरख निश्चय किया जो यह प्राणरहित है तब सुग्रीव राम लक्षण की महास्तुति कर इनको नगरमें लाया, नगरकी शोभा करी, सुग्रीको सुताराका संयोग भया सो भोगसागर में मग्न होय गया, रात दिनकी सुध नाही, सुतारा बहुत दिननिमें देखी सो मोहित होगया अर नन्दनवनकी शोभाको उलंघे है ऐसा आनन्द नामा वन वहां श्रीरामको राखे । ता वनकी रमणीकताका वर्णन कौन कर सके जहां महामनोग्य श्रीच. न्द्रप्रभुका चैत्यालय वहां र म लक्ष्मण ने पूजा करी पर विराधितको आदि दे सर्व कटकका डेरा वनमें भया खेदरहित तिष्ठे. सुग्रीवकी तेरह पुत्री रामचन्द्र के गुण श्रवणकर अति अनुगग भरी वरिवेकी बुद्धि करती भई, चन्द्रमा समान है मुख जिनका तिनके नाम सुनों चन्द्राभा, हृदयावली हृदयथर्मा, अनुधरी, श्रीकांता, सुन्दरी, सुरवती, देवांगना समान है विभ्रम जाका, मनोवाहिनी मनमें बसनहारी, चारुश्री, मदनोत्सवा, गुणवती अनेक गुणनिकर शोभित, अर पमावती फूले कमल समान है मुख जाका, तथा जिनमती सदा जिनपूजा में तत्पर । ए त्रयोदश कन्या लेकर सुग्रीव राम पै पाया, नमस्कारकर कहता भया-हे नाथ ! ये इच्छाकर आपको घरें हैं, हे लोकेश ! इन कन्यानिके पति होवो इनका चित्त जन्मगीते यह भया जो हम विद्याधरनिको न वरें, आपके गुण श्रवणकर अनुरागरूप भई हैं यह कहकर रामको परणाई ये कन्या अति लज्जाकी भरी नम्रीभूत हैं मुख जिनका रामका श्राश्रय करती भई, महासुन्दर नवयौवन जिनके गुण वर्णन में न आवें बिजुरी समान सुर्णपमान कमलके गर्भ समान शरीरकी कांति जिनकी ताकर आकाशमें उद्योत भया । वे विनय रूप लावणता कर मंडित रामके समीप तिष्ठीं सुन्दर है चेष्टा जिनकी । यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं-हे मगधाधिपति पुरुषनिम सूर्य समान श्रीराम सारिखे पुरुष निका चित्त विषय वासनाते विरक्त है परन्तु पूर्व जन्मके सम्बन्धसूकई एक दिन विरक्त रूप गृह में रह वहुरि त्याग करेंगे। इति श्रीरावर्षणाचार्यविरचितमहापद्मपुगणतस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावनिकावि सुग्रीवका आख्यान वर्णन करनबाला सैतालीसवां पर्व पूर्ण भया ॥४७॥ अथानन्तर ते सुग्रीव की कन्या रामके मनमोहिवे के अर्थ अनेक प्रकारकी चेष्टा करती भई मानो देवलोक हात उतरी हैं वीणादिक वजावना मनोहर गीत गावना इत्यादि अनेक सुन्दर लीला करता भई तथापि रामचन्द्र का मन न मोहा , सब प्रकारके विस्तीर्ण विभव प्राप्त भए Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोनालीसा भी परन्तु राम ने भोगनि में मन न किया । सीताविषे अत्यन्त दत्तचिस समस्त चेष्टारहित महामादरकरि सीता को ध्यावते तिष्ठं जैसे मुनिराज मुक्तिको ध्यावें । वे विद्याधरकी पुत्री गान करें, सो उनकी चनि न सुनें अर देवांगनापमान तिनका रूप मो न देखें रामको सर्व दिशा जानकी मई भासे पर कछू भासे नाही और कथा न करें । ए सुग्रीव की पुत्री परणी , सो पास बैठी तिनको हे जानकसुते ! ऐसा कह बतलावे , काकरे. प्रीति कर पूछे अरे काक! तू देश २ भ्रमण कर है तैने जानकी हू देखी अर सरोवर में कमल फूल रहे हैं तिनकी मकरन्द कर जल सुगन्ध होय रहा है तहां चकवा चरुवीके युगल कलोल करते देख चितारें सीता बिन रामको सर्व शोभा फोकी लागे सीता के शरीर के संयोगकी शंकाकरि पवनसे पालिंगन करें कदाचित पवन सीता जीके निकटते आई होय जा भूमिमें सीता जी तिष्ठे है ता भूमिको धन्य गिने श्रर सीता बिना चन्द्रमाकी चांदनीको अग्नि समान जाने मनमें चिन्तवें कदाचित् सीता मेरे वियोग रूप अग्नि करि भस्म भई होय अर मन्द मन्द पवन कर लगानि को हालती देख जाने हैं यह जानकी ही है अर वेल पत्र हालते देख जानें जानकी के वस्त्र फरहरे हैं अर भ्रमर संयुक्तफूल देख जानें ये जानकी के लोचन ही हैं। अर कोपल देख जानें ये जानकी के कर पल्लव ही हैं, पर श्वेत श्णम आरक्त तीनों जाति के कमल देख जानें सीता के नेत्र तीन रंग को धरै हैं अर पुष्पनि के गुच्छे देख जानें ये जानकी के शोभायमान स्तन ही हैं । अर कदली के स्तंभ में जंघानि की. शोभा जानें, अर लाल कमलनि विर्षे चरणनि की शोभा जानैं , संपूर्ण शोभा जानकी रूप ही जाने । अथानन्तर सुग्रीव सुताराके महल में ही रहा, रामपै आए बहुत दिन भये तब रामने विचारी ताने सीता न देखी मेरे वियोग कर तप्तायमान भई वह शीलवंती मर गई तातें सुग्रीव मेरे पास नाहीं आवे अथवा वह अपना राज्य पाय निश्चित भया हमारा दुख भूल गया यह चितवनकर राम की प्रांखनिते आंसू पड़े तब लक्ष्मण रामको सचिंत देख कोपकर लाल भए हैं नेत्र जाके भाकुलित है मन जाका, नंगी तलवार हाथमें लेय सुग्रीव ऊपर चाला सो नगर कम्पायमान भया। सम्पूर्ण राज्यके अधिकारी तिनको उलंघ सुग्रीवके महलमें जाय ताको कहा-रे पापी, अपने परमेश्वर राम ती स्त्रीके दुख कर दुखी अर तू दुर्बुद्धि स्त्रीसहित सुखनों राज्य करे, रे पापी, विद्याधरवायस विषयलुब्ध दुष्ट, जहां रघुनाथने तेरा शत्रु पठाया है तहां मैं तोहि पठाऊगा या भांति क्रोधके उगा वचन लक्ष्मण जब कहे तब वह हाथ जोड नमस्कार कर लक्ष्मणका क्रोध शांत करता भया । सुग्रीव कहे है-हे देव, मेरी भूल माफ करो, मैं करार भूलगया, हम सारिखे खुद्र मनुष्यनिके खोटी चेष्टा होय है अर सुग्रीवकी सम्पूर्ण स्त्री कांपती हुई लदमयको प्रर्षदेय आरती करती भई । हाथ जोड नमस्कार कर पतिकी भिक्षा मांगती भई । तब आप उत्तम पुरुष तिनको दीन जान कुश करते भए । यह महन्त पुरुष प्रणाम मात्र ही कर प्रसन्न होंय अर दुर्जन महा दान लेकर हू प्रसन्न न होय, लक्ष्मणने सुग्रीवको प्रतिज्ञा चिताय उपकार किया जैसे यक्षदत्तको माताका स्मरण कराय मुनि उपकार करते भए । यह वार्ता सुन राजा Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ पद्मराण श्रेणिक गौतमस्वामी म्पूछे है-हे नाथ, यक्ष दत्तका वृत्तांत मैं नीका जानना चाहूं हूँ तब गौतमस्वामी कहते भए-हे श्रेणिक, एक कौंचपुर नगर तहां राजा यक्ष राणी राजिलता ताके पुत्र यक्षदत्त सो एक दिन एक स्त्रीको नगरके वाहिर कुटीमें तिष्ठती देख कामवाण कर पीडित भया ताकी ओर चाला रत्रिमें, तब अयन नामा मुनि याको मना करते भए यह यक्षदत्त खड्ग है जाके हाथमें सो विजुलीके उद्योत कर मुनिको देखकर तिनके निकट जाय विनयसंयुक्त पूछता भया-हे भगवान, काहेको मोहि मना किया ? तब मुनि कही-जा को देख तू कामवश भया है सो स्त्री तेरी माता है तातें । यद्यपि सूत्रमें रात्रिमें बोलना उचित नाहीं तथापि करुणाकर अशुभ कार्यते मने किया। तब यक्षदत्तने पूछ। हे स्वामी, यह मेरी माता कैसे है ? तब मुनि कही सुन- एक मृत्यकावती नगरी तहां कणिक नामा वणिक, ताके धू नामा स्त्री ताके बन्धुदत्त नामा पुत्र ताकी स्त्री मित्रवती लतादत्तकी पुत्री सो स्त्रीको छाने गर्भ राखि बंधुदत्त जहाज वेठ देशान्तर गया ताको गए पीछे याकी स्त्रीके गर्भ जान सासू ससुरने दुराचारणी जान घरसे निकाल दई सो उत्पलका दासी को साथ लेय बडे सारथीकी लार पिताके घर चाली सा उत्पलका सर्पने डसी वनमें मुई अर यह मित्रवती शीलमात्र ही है सहाय जाके सो कौंचपुरमें भाई अर महाशोक की भरी उपवन में पुत्रका जन्म भया तब यह तो सरोवर में वस्त्र धोयबे गई अर पुत्ररत्न कंवलमें वेढा सो कंबलसंयुक्त पुत्रको स्वान ले गया सो काहूने छुडाया, राजा यक्षको दिया, ताके राणी राजिलता अपुत्रवती सो राजाने पुत्र राणीको सोंपा, ताका यक्षदत्त नाम परा सो तू है अर यह तेरी माता वस्त्र धोय आई सो तोहि न देखि विलाप करती भई, एक देवपुजारीने ताहि दयाकर धैर्य बन्धाया-तू मेरी बहिन है ऐसा कह राखी सो यह मित्रवती सहायरहित लज्जाकर अकीर्तिके भय थकी वापके घर न गई । अत्यंत शीलकी भरी जिनधर्मविगै तत्पर दरिद्रीकी कुटीविणै रहे, सो रौं भ्रमण करता देख कुभाव किया अर याका पति बधुदत्त रस्न कंवल दे गया हुता, ताविष ताहि लपेट सो सरीवर गई हुती, सो रत्न कंवल राजाके घर में है और वह बालक तू है या भांति मुनि कही तब यह मुनिको नमस्कार कर खड़ग हाथमें लेय राजा यक्षपै गया और कहता भया-या खड्ग कर तेरा सिर काटूंगा नातर मेरे जन्म का वृत्तांत कहो, तब राजा यक्षने यथावत् वृत्तांत कहा अर वह रत्न कंवल दिखाया, सो लेयकर यचदत्त अपनी माता कुटीमें तिष्ठे यी तासू मिला अपना पिता बंधुदत्त ताको बुलाया, महा उत्सव पर महा विभव कर मंडित माता पिता मिला, यह यज्ञदत्तकी कथा गौतमस्वामी राजा श्रेयिकसूकही -जैसे यक्षदत्तको मुनिने माताका वृत्तांत जनाया तैसे लदाणने सुग्रीवको प्रतिज्ञा विस्मरण होय गयी हुनी सो जनाया, सुग्रीव लक्ष्मण के संग शीघ्र ही रामचन्द्र पै आया नमस्कार किया अर अपने सब विद्याधर सेवक महाकुलके उपजे बुलाए । वे या वृत्तांतको जानते हुने पर स्वामी कायमें तत्पर तिनको समझाय कर कहा सो सर्व ही सुनी रामने मेरा बडा उपकार किया। अब सीताकी खबर लाय दो तातें तुम दिशानिको जाश्रो अर सीता कहां है यह खबर लावो. समस्त पृथिवी पर जल स्थल आकाशमें हेरो, जम्बूद्वीप लवण समुद्र धातकी खण्ड कुलाचल वन सुमेरु नाना प्रकार के विद्याधरनिके नगर समस्त श्रस्थानक सर्व दिशा हो। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतालीसा पर्ण अथानन्तर ये सब विद्याधर सुग्रीवकी आज्ञा सिरपर धरकर हर्षित भए सर्वही दिशानिको शीघ्र ही दौड़े, सबही विचारें हम पहिली सुध लावे तासो राजा अति प्रसन्न हो अर भामण्डल को हू खबर पठाई जो सीता हरी गई ताकी सुध लेबो, तब भामण्डल बहिनके दुःख कर अतिही दुखी भया, हेरनेका उद्यम किया अर सुग्नीव आप भी ढूढनेको निकमा सो जोतिष चक्रके ऊपर होय विमानमें बैठा देखता भया, दुष्ट विद्याधरनिके नगर सर्व देखे सो समुद्रके मध्य जम्बूद्वीप देखा वहां महेंद्र पर्वतपर आकाशसे सुग्रीव उतरा तहां रत्न गटी तिष्ठे था सो डरा जैसे गरुडते सर्प डरे बहुरि विमान नजीक आया तब रत्न जटीने जाना कि यह सुग्रीव है, लंकापतिने क्रोधकर मोपर भेजा सो मोहि मारेगा. हाय ! मैं समुद्रमें क्यों न डब मूवा ? या अन्तर द्वीप में मारा जाऊंगा, विद्या तो रावण मेरी हर लेय गया अब प्राण हरने याहि पठाया, मेरी यह वांछा हुती जैसे तैसे भामण्डल पर पहुँचूं तो सर्व कार्य होय सो न पहुंच सका यह चितवन करे है इतनेमें ही सुग्रीव आया मानो दूसरा सूर्य ही है, द्वीपको उद्योत करता पाया सो या वनकी रजकर धूसरा देख दया कर पूछता भया-हे रत्नमटी ! पहिले तू विद्या कर संयुक्त हुता अब हे भाई! तेरी कहा अवस्था भई ? या भांति सुग्रीव दयाकर पूछा सो रत्नजटी अत्यन्त कंपायमान कछु कह न सके । तब सुग्रीव कहीं-भय मत कर । अपना वृत्तांत कह । बारम्बार धैर्य बंधाया, तब रत्नजटी नमस्कार कर कहता भया-रावण दुष्ट सीताको हरण कर लेजाता हुता सो साके पर मेरे परस्पर विरोध भया, मेरी विद्या छेद डारी, अब मैं विद्यारहित जीवितमें संदेह चिन्तावान् तिष्ठे था सो हे कपिवंशके तिलक ! मेरे भागते तुम्न आए। ये वचन रत्नजटी के सुन सुग्रीव हर्पित होय ताहि संग लेय अपने नगरमें श्रीराम पै लाया सो रत्नजटी राम लक्ष्मणसों सबके समीप हाथ जोड नमस्कार कर कहता भया-हे देव ! सीता महासती है ताको दुष्ट निर्दई लंकापति रावण हर लेय गया सो रुदन करती विलाप करती विमानमें बैठी मृगी समान न्याकुल मैं देखी, वह बलवान् बलात्कार लिए जाता हुता सो मैंने क्रोधकर कहा--यह महासती मेरे स्वामी मामण्डलकी बहिन है तू छोड दे, सो वाने कोपकर मेरी विद्या छेदी, वह महाप्रबल जाने युद्ध में इन्द्रको जीता पकड लिया अर कैलाश उठाया, तीन खण्डका स्वामी सागांत पृथिवी जाकी दासी जो देवनिहूकरि जीता न जाय सो ताहि मैं कैसे जीतू ताने मोहि विद्यारहित किया। यह सकल वृत्तांत राम देवने सुनकर ताको उरसे लगाया अर बारम्बार ताहि पूछते भए। बहुरि राम पूछते भए-हे विद्याथरो ! कहो लंका कितनी दूर है ? तब वे विद्याधर निश्चल होय रहे, नीचा मुख किया, मुख की छाया और होय गई, कछु जुनाब न दिया, तब रामने उनका अभिप्राय जाना जो यह हृदयमें रावणते भय रूप हैं मन्द दृष्टि कर तिनकी ओर निहारे तब वे आनते भए हमको आप कायर जानो हो ! तब लज्जावान होय हाथ जोड सिर नवाय कहते भए. हे देव ! जाके नाम सुने हमको भय उपजे है. ताकी बात हम कहा कैसे कहें, कहां हम अल्प शक्तिके थनी और कहां वह लंकाका ईशर तातें तुम यह हठ छोडो अब वस्तु गई जानो अथवा तुम सुनो हो तो हम सब वृत्तांत कहें सो नीके उरमें थारो, लवणसमुद्र में राक्षस दीप प्रसिद्ध है Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पध-पुराण अद्भुत सम्पदाका भरा सो सातसौ योजन चौडा है अर प्रदक्षिणाकर किंचित् अधिक इक्कीससी योजन बाकी परिधि है। ताके मध्य सुमेरु तुल्य त्रिकूटाचल पर्वत है सो नव योजन ऊंचा पचास योजनके विस्ताररूप, नानाप्रकारके मणि अर सुवर्ण कर मण्डित आगे मेघवाहनको राक्षसनिके इंद्रने दिया हुता । ता त्रिकूटाचलके शिखर पर लंका नाम नगरी, शोभायमान रत्नमयी जहां विमान समान घर अनेक क्रीडा करनेके निवास तीस योजनके विस्तार लंकापुरी महा कोट खाईकर मण्डित मनों दुजी वसुंधरा ही है घर लंकाके चोगिरद बड़े बड़े रमणीक स्थानक हैं अति मनोहर मणि सुवर्ण मई जहां राक्षसनिके स्थानक हैं तिनमें रावणके बन्धुजन बसे हैं। सन्ध्याकार सुवेल कांचन ल्हादन योधन हंस हर सागर घोष अर्धम्वर्ग इत्यादि मनोहर स्थानक वन उपवन आदिकर शोभित देवलोक समान हैं । जिनमें भ्राता, पुत्र, मित्र, स्त्री यांधव सेवक जन सहित लंकापति रमें हैं सो विद्याधरनि सहित क्रीडा करता देख लोकनिको ऐसी शंका उपजे है मानों देवनिसहित इन्द्रही रमें हैं। जाका महा बली विभीषणसा भाई औरनिकरि युद्धमें न जीता जाय ता समान बुद्धि देवनिमें नाहीं अर ता समान मनुष्य नाहीं ताहिकरि रावण का राज्य पूर्ण है पर रावणका भाई कुम्भकर्ण त्रिशूलका धारक जाकी युद्धमें टेढी भौहें देव भी देख सकें नाहीं तो मनुष्यनिकी कहा बात ? अर रावणका पुत्र इन्द्रजीत पृथिवीमें प्रसिद्ध है पर जाके बड़े २ सामन्त सेवक हैं नानाप्रकार विद्याके धारक शत्रुनिके जीतनहारे पर जाका छत्र पूर्ण चन्द्रमा समान आदि देख बी गर्व को तजै हैं ताने सदा रण संग्राममें जीत ही जीत सभटपने का विरद प्रकट किया है सो रावणके छत्रको देख तिनका सन गर्व जाता रहे पर रावणका चित्रपट देखे अथवा नाम सुने शत्रु भयको प्राप्त होय, जो ऐसा रावण तासो युद्ध कौन कर सके तातें यह कथा ही न करना और बात करो। यह बान विद्याधरनिके मुखते सुनकर लक्ष्मण बोला मानों मेघ गाजा तुम एती प्रशंसा करो हो-सब मिथ्या है जो वह बलवान हता तो अपना नाम छिपाय स्त्रीको चुराकर काहे लेगया ? वह पाखंडी अतिकायर अज्ञानी पापी नीच राक्षस ताके रंचमात्र भी शूरवीरता नाहीं अर राम कहते भए बहुत कहने करि कहा, सीताकी सुध ही कठिन हुनी अब सुथ श्राई सब सीता आय चुकी अर तुम कही और बात करो और चितजन करो सो हमारे और कछु बात नाहीं और कछु चितवन नाहीं। सीताको लावना यही उपाय है । रामके वचन सुनकर बृद्ध विद्यावर पण एक विचारकर बोले- देव ! शोक तजो हमारे स्वामी होको अर अनेक विद्याधरनिकी पुत्री गुणनिकर देवांगना समान तिनके भरतार होवो अर समस्त दुःखी बुद्धि छोडो तब राम कहते भए हमारे और स्त्रीनिका प्रयोजन नाहीं जो शचीममान स्त्री होय तो भी हमारे अभिलाष नाहीं जो तिहारी हममें प्रीति है तो सीता हमें शीघ्र ही दिखाबो तब जांबूनद कहता भया-हे प्रभो ! या हठको तजहु एक बुद्र पुरुषने कृत्रिम मयूरका हठ किया ताकी न्याई स्त्रीका हठकर दुखी मत होवो यह कथा सुनहु Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतालीसवा पर्ण ३५ एक बेणातटग्राम तहां सर्वरुचि नामा गृहस्थी त के विनयदत्त नामा पत्र ताकी माता गुणपूर्णा अर विनयदत्तका मित्र विशालभूत सो पापी विनयदत्त की स्त्रीसों आसक्त भया, स्त्री के वचनकरि विनयदत्तको कपटकरि वनमें लेगया, सो एक वृक्ष के ऊपर बांध वह दुष्ट घर चला आया, कोई विनयदत्तके समाचार पूछे तो ताहि कछु मिथ्या उत्तर देय सांचा होय रहे पर जहां विनवदत्त बांधा हुता तहां एक बुद्र नामा पुरुष आया, वृक्षके तले बैठा, वृक्ष महा सघन विनयदत्त कुरलावता हुना सो चुद्र देखे तो दृहबंधनकर मनुन्ध वृक्ष की शाखाके अग्रभाग बंधा है, तब क्षुद्र दयाकर ऊपर चढा विनयदत्तको बंधनते निवृत्त किया । विनयदत्त द्रन्यवान सो खुद्रको उपकारी जान अपने घर ले गया। भाईते हू अधिक हित राखे, विनयदत्तके घर उत्साह भया पर वह विशालभूत कुमित्र दूर भाग गया, क्षुद्र विनयदत्त का परम मित्र भया सो तुद्रका एक रमनेका पत्रमयी मयूर सो पवनकर उडा राजपुत्रके घर जाय पडा सो ताने उठाकर रख लिया, ताके निमित्त वुद महा शोककर मित्र को कहता भया-मोहि जीवता इच्छे है तो मेरा वही मयूर लाव, विनयदच कहा मैं तोहि रत्नई मयूर कराय दूं और सांचे मोर मंगाय दूं वह पत्रमई मयूर पयनते उडगया सो राजपुत्रने राखा मैं कैसे लाऊ, तब क्षुद्र कही-मैं वही लेऊ रत्ननिके न लू, न मांचे लू, विनयदत्त कहे जो चाहो सो लेहु यह मेरे हाथ नाहीं । क्षुद्र बारम्बार वही मांगे सो बह ती मृढ हुता तुम पुरुषोत्तम होय ऐसे क्यों भूलो हो । कह रत्रनिका मयू राजपुत्रके हाथ गया विनयदत्त कैसे लाये १ तातें अनेक विद्याधरनिकी पुत्री सुवर्ण समान वर्ण जिनका श्वेत श्याम अ रक्त तीन वर्ण को धरे हैं नेत्र कमल जिनके, सुन्दर पीवर हैं स्तन जिनके, कदली समान जंघा जिनकी अर मुखकी कांतिकर शरदकी पूर्णमासीके चन्द्रमाको जीते मनोहर गुणनिकी धरणहारी तिनके पति होऊ । हे रघुनाथ ! महाभाग्य, हमपर कृपा करहु यह दुःखका बढावनहारा शोक संताप छोडहु, तब लक्ष्मण बोले हे जाम्बूनद ! तँ यह दृष्टांत यथार्थ न दिया हम कहे हैं सो सुन, एक कुसुमपुर नामा नगर तहां एक प्रभव नामा गृहस्थ जाके यमुना नामा स्त्री ताके धनपाल बन्धुपाल गृहपाल पशुपाल क्षत्रपाल ये पांच पुत्र सो यह पांचों ही पुत्र यथार्थ गुणनिके धारक, थनके कमाऊ कुटुंबके पालिवेमें उद्यमी सदा लौकिक धन्धे करें । क्षणमात्र आलस नाहीं पर इन सबनिते छोटा आत्मश्रेय नामा कुमार सो पुण्यके योगते देवनिकैसे भोग भोगवे सो या को माता पिता अर बड़े भाई कटुक बचन कहें । एक दिन यह मानी नगर बाहिर भ्रमे था सो कोमल शरीर खेदको प्राप्त भया उद्यम करने को असमर्थ सो आपका मरण बांछता हुना ता समय याके पूर्व पुण्य कर्मके उदय करि एक राजपुत्र याहि कहता भया-हे मनुष्य ! मैं पृथुस्थान नगरके राजाका पुत्र भानुकुमार हूं सो देशान्तर भ्रमणको गया हुता, सो अनेक देश देखे, पृथिवीपर भ्रमण करता दैवयोगते कर्मपुर गया, सो एक निमित्तज्ञानी पुरुषकी संगतविष रहा, ताने मोहि दुखी जान करुणाकर यह मंत्रमई लोह का कडा दिया और कही यह सर्व रोग का नाशक है। बुद्धिवर्द्धक है । ग्रह सर्प पिशाचादिकका वश करणहारा है इत्यादि अनेक गुण हैं। सो तू राख, ऐसा कह मोहि दिया और अब मेरे राज्यका उदय आया। मैं राज्य करनेको Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण अपने नगर जावू हूं, यह कडा मैं तोहि दूं हूं। तू मरे मत, जो वस्तु आपपै आई अपना कार्य कर काहको दे डारो यह महाफल है मो लोकमें ऐसे पुरुषनिको मनुष्य पूजे हैं, आत्मश्रेयको ऐसा कह राजकुमार अपना कडा देय अपने नगर गया अर यह कडा ले अपने घर आया, ताही दिन ता नगरके राजाकी राणीको सपने डनी हुनी सो चेष्टारहित होयगई, ताहि मृतक जान जरायवे को लाए हुते सी आत्मश्रेयने मंत्रमई लोहे . कड़े के प्रसादकरि विपरहित करी, तब राजा अति दान देय बहुत सत्कार किया, आत्मश्रेयके कडे के प्रसादकरि महाभोग सामगी भई । सब भाइनिमें यह मुख्य ठहरा । पुण्यकर्मके प्रभावकरि पृथिवीविपै प्रसिद्ध भया । एक दिन कड़े वस्त्रविणे बांध सरोवर गया, सो गोह आय कडेको लेय महावृक्षके तले उंडा विल है तामें पैठ गई, विल शिलानिकरि आच्छादित सो गोह विलमें बैठी भयानक शब्द करें। आन्मश्रेयने जाना कडेको गोह बिलविय लेगई गर्जना करे है तब आत्मश्रेय वृक्ष जडते उखाड शिला दूर कर गोहका बिल चूर कर डाला, बहुत धन लिया सो राम तो आत्मश्रेय हैं अर सीता कडे समान है लंका बिल समान है रावण गोह समान है ताते हे विद्याधरो ! तुम निर्भय होवो, ये लक्ष्मणके वचन जाम्बूनदके वचननि को खण्डन करनहारे सुनकर विद्याधर आश्चर्य को प्राप्त भए । । अथानन्तर जांबूनद आदि सब राम कहते भए-हे देव ! अनन्तवीर्य योगीन्द्रको रावण ने नमस्कार कर अपने मृत्युका कारण पूछा तब अनन्तवीर्यकी आज्ञा भई जो को टशिला को उठावेगा ताकरि तेरी मृत्यु हैं तब ये सर्वज्ञके वचन सुन रावण ने विचारी ऐसा कोन पुरुष है जो कोटिशिलाको उठावे । यह वचन विद्यानिके सुन लक्ष्मण बोले-मैं अबही यात्राको वहां चालूगा, तब सबनी प्रमाद तज इनके लार भए । जाम्बूनद महाबुद्धि, सुगीव, विराधित अर्कमाली, नल, नील इत्यादि नामी रुष विमानमें राम लक्ष्ण को चढाय कोटिशिला की ओर चाले । अंधेरी रात्रि में शीघ्र ही जाय पहुंचे, शिलाके समीप उतरे, शिला महा मनोहर सुर नर असुरनिकरि नमस्कार करने योग्य, ये सर्व दिशानिमें सामन्तनि को रखवारे राख शिला की यात्राको गए, हाथ जोड सीस निवाग नमस्कार किया, सुमन्थ कमलनि करि तथा अन्य अन्य पुष्पनिकरि शिलाकी अर्चा करी । चन्दनकर चरची, सो शिला कैसी शोभती भई मानों साक्षात् शची ही है । ताविषे जे सिद्ध भए तिनको नम कर कर हाथ जोड भक्तिकर शिलाकी तीन प्रदक्षिणा दई । सब विधिमें प्रवीण लक्ष्मण कमर बांध महा विनयको धरता संता नमोकार मंत्र में तत्पर महा भक्ति करि स्तुति करवेको उद्यमी भया पर सुग्रीवादि बानरवंशी सब ही जयजयकार शब्द कर महा स्तोत्र पढते भए एकागचित्तकर सिद्धनिको स्तुति करे हैं जो भगान सिद्ध त्रैलोक्यके शिखर पर विराजे हैं वह लोक शिखर महादेदीप्यमान है अर वे सिद्धस्वरूप मात्र सत्ताकर अग्निश्वर हैं तिनका बहुरि जन्म नाहीं अनन्तवीर्यकर संयुक्त अपने स्वभावमें लीन महासमीचीनता युक्त समस्त कमरहित संसार समुद्रके पारगामी कल्याणमूर्ति आनन्दपिंड केवलज्ञान केवल र्शन के आधार पुरुषाकार परम सूक्ष्म अमूर्ति अगुरुलघु असंख्यात प्रदेशी अनंतगुणरूप सर्वको एक समयमें जाने सब सिद्धसमान कृतकृत्य जिनके कोई कार्य करना रहा नाही, Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देते भए । घडतालीसा पर्व सर्वथा शुद्धमाव सर्वद्रव्य सवक्षेत्र सर्वकाल सर्वभावके ज्ञाता, निरंजन आत्मज्ञानरूप शुक्लध्यान अग्निकर अष्टकर्म वनके भस्म करणहारे अर महाप्रकाशरूप प्रतापके पुंज, जिनको इन्द्र धरणेंद्र चक्रवर्णादि पृथिवीके नाथ सब ही सेवें, महास्तुति करें, ते भगवान संसारके प्रपंचते रहित अपने आनन्दस्वभाव तिनमई अनन्त सिद्ध भए अर अनंत होंहिगे। अढाईद्वीपकविणे मोक्षका मार्ग प्रवृत्त है, एकसौ साठ महाविदेह अर पांच भरल पांच ऐरावत एकसौ सत्तर क्षेत्र तिनके आर्यखंडमें जे सिद्ध भए घर होंहिगे तिन सबनिको हमारा नमस्कार होहु, या भरत क्षेत्रमें यह कोटि शिला, यहांते सिद्ध शिलाको प्राप्त भए ते हमको कल्याणके कर्ता होह जीवनिको महामंगल रूप, या भांति चिरकाल स्तुतिकर चित्तमें सिद्धनिका ध्यानकर सब ही लक्ष्मणको आशोर्वाद या कोटिशिलाते जे सिद्ध भए वे सर्व तिहारा विघ्न हरें अरहंत सिद्ध साधु जिनशासन ये सर्व तुमको मंगल के करता होहु या भांति शब्द करते भए अर लक्ष्मण सिद्धनिका ध्यान कर शिला को गोडे प्रमाण उठावता भया अनेक आभूषण पहिरे भुम बंधन कर शोभायमान हैं भुजा जाकी सो भुजानिकरि कोटिशिला उठाई तब आकाशमें देव जय जय शब्द करते भए । सुगीवादिक आश्चर्य को प्राप्त भए । कोटिशिला की यात्राकर बहुरि सम्मेद शिखर गए अर कैलाशकी यात्राकर, भरतक्षेत्रके सर्व तीर्थ बंदे प्रदक्षिणा करी सांझ समय विमानमें बैठ जय जयकार करते संते रामलक्ष्मणके लार किहकंधापुर आए । आप अपने अपने स्थानक सुख ते शयन किया बहुरि प्रभात भया सब एकत्र होय परस्पर वार्ता करते भए -देखो अब थोडेही दिनमें इन दोऊ भाइनिका निष्कंटक राज्य होयगा। ये परम शक्तिको धरे हैं। वह निर्वाण शिला इनने उठाई सो यह सामान्य मनुष्य नाही, यह लक्ष्मण रावणको निसंदेह मारेगा, तब कैयक कहते भए रावणने कैलाश उठाया सो वाहका पराक्रम घाट नाहीं, तब और कहते भए ताने कैलास विद्याके बलते उठाया सो आश्चर्य नाहीं, तब कैयक कहते भए काहेको विवाद करो जगतके कल्याण अर्थ इनका उनका हित कराय देवो या समान और नाहीं, रावणते प्रार्थना कर सीता लाय रामको सौंपो, युद्धते कहा प्रयोजन है ? आगे तारकमेरु महा बलवान भए सो संगाममें मारे गये । बे तीनखंडके अधिपति महा भाग्य महापराक्रमी हुते अर औरह अनेक राजा रणमें हते गये तातै साम कहिये परस्पर मित्रता श्रेष्ठ है तब ये विद्याकी विधिमें प्रवीण परस्पर मंत्रकर श्रीरामपै आए अतिभक्तिते रामके समीप नमस्कार कर बैठे, कैसे शोभते भए जैसे इन्द्र के समीप देव सोहैं, कैसे हैं राम ! नेत्रनिको आनन्दके कारण सो कहते भए अब तुम काहे ढील करो हो, मोविना ज नकी लंकामें महादुःख करि तिष्ठे है तातें दीर्घ सोच छांडि अवारही लकाकी तरफ गमनका उद्यम करहु । तब जे सुग्रीवके जांबूनंदादि मंत्री राजनीति में प्रवीन हैं तेराम विनती करते भए--हे देव ! हमारे ढील नाही परन्तु यह निश्चय कहो सीताके न्यायवे हीका प्रयोजन है अक राक्षसनिते युद्ध करना है, यह सामान्य युद्ध नाही, विजय पावना अति कठिन है। वह भरत क्षेत्रके तीन खंडका निष्कटक रोज करे है। द्वीप समुद्रनिके विषे रावण प्रसिद्ध है Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल-पराण जासू थातुकीखण्ड द्वरपके शंका माने । जंबुद्वीपमें जाकी अधिक महिमा अद्भुत कार्य करणहारा सबके उरका शम्य है सो युद्ध योग्य नाहीं तातें रणकी बुद्धि छांडि हम जो कहे हैं सो करहु । हे देव ! ताहि युद्ध सन्मुख करियेमें जगतको महाक्लेश उपजे है। प्राणिनिके समूहका विध्वंस होय है। समस्त उत्तम क्रिया जगतते जाय हैं तातै विभीषण रावणका भाई सो पापकर्मरहित श्रावकबतका थारक है, रावण ताके वचनको उलंघे नाही तिन दोऊ भाइनिमें अन्तरायरहित परम प्रीति है सो विभीषण चातुर्यताते समझावेगा अर रावणहू अपशयते शंकेगा। लज्जाकर सीताको पठाय देगा तातै विचारकर रावणपै ऐसा पुरुष भेजना जो बात करने में प्रवीण होय भर राजनीतिमें कुशल होय अनेक नय जाने पर रावणका कृपापात्र हो ऐसा हेरहु सब महोदधि नामा विद्याधर कहता भया तुम कबू सुनी है लंकाकी चौगिरद मायामई यंत्र रचा है सो आकाशके मार्गते कीऊ जाय सके नाही, पृथवीके मागते जाय सके । लंका अगम्य है महा भयानक देखा न जाय ऐसा मायामई यंत्र बनाया है सो इतने बैठे हैं तिनमें तो ऐसा कोऊ नाहीं जो लंकामें प्रवेश करे तातै पवनंजयका पुत्र श्रीशेल जाहि हामान कहे हैं सो महाविद्याबलवान पराक्रमी प्रतापरूप है ताहि जांचो. वह रावण का परममित्र है अर पुरुषोत्तम है सो रावणको समझाय विघ्न टारेगा तब यह बात सबने प्रमाण करी । हनूमान निकट श्रीभूतनामा दत शीघ्र पठाया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकते कहे हैं-हे राजन् ! महाबुद्धिमान होय अर महाशक्ति को धरें होय अर उपाय करे तो भी होनहार होय सोही हाय जैसे उदयकालमें सूर्यका उदय होय ही तैसे जो होनहार सो होय ही । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविष कोटिशिलाका उठाबनेका व्याख्यान वर्णन करनेबाला अडतालीसवां पर्ण पूण भया ॥४॥ अथानन्तर श्रीभूतनामा दूत पवनके वेगते शीघ्र ही आकाशके मार्गसों लभीका निवाम जो श्रीपुरनगर अनेक जिन भवन तिनकरि शोभित तहां गया जहां मंदिर सुवर्ण रत्नमई सो तिनकी माला करि मण्डित कुन्दके पुष्प समान उज्जवल सुन्दर झरोखनिकरि शोभित मनोहर उपवनकर रमणीक सो दूत नमर की शोभा अर नगरके अपूर्व लोग देख आश्चर्य को प्राप्त भया बहरि इन्द्र के महल समान राजमंदिर तहां की अदभुत रचना देख थकित होय रहा। हनूमान खरदषणकी बेटी अनंगकुसमा रावण की भानजी ताके खरदूषण का शोक , कर्मके उदयकरि शुभ अशुभ फल पावे ताहि कोई निवारिसे शक्त नाही , मनुष्यनिकी कहा शक्ति देवनिहकरि अन्यथा न होय । दूतने द्वारे आय अपने प्रागमनका वृत्तान्त कहा सो अनंगकुसमाकी मर्यादा नामा द्वारपाली दतको भीतर लेयगई। अनंगकुममा ने सकल वृत्तांत पूछा सो श्रीभूतने नमस्कारकर विस्तारसे कहा , दण्डकान में श्रीराम लक्ष्मणका भावना , सम्बूक का बध , खग्दूषणते युद्ध बहुरि भले भले सुभटनिसहित खरदूषण का मरण , यह वाती सुन अनंगकुस्मा मूर्खाको प्राप्त भई वष चन्दन के जलकरि सींच सचेत करी, अनंगकुसमा अश्रुपात डारती विलाप करती भई Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनचासणा पण हाय पिता, हाय भाई ! तुम कहां गए एक बार मोहि दर्शन देवो वचनालाप कर महा भयानक वनमें भूमिगोचरिनि तुमको कैसे हते ? या भांति पिता और भाईके दुःखकरि चन्द्रनखाकी पुत्री दुखीभई सो महा कष्टकरि सखिनिने शांतिताको प्राप्त करी अर जे प्रवीण उत्सम जन हुते तिन बहुत संबोधी तब यह जिन मार्ग में प्रवीण समस्त संसार के स्वरूप को जान लोकाचारकी रीति प्रमाण पिता के मरण की क्रिया करती भई बहुरि दूत को हनुमान महाशोक के भरे साल वृतांत पूछते भए । तब इनको सकल वृत्तांत कहा सो हनूमान खरदूषण के मरणकरि प्रति क्रोधको प्राप्त भया । भौंह टेढी होय गई , मुख अर नेत्र रक्त भए , तब इतने कोप निवारिवेके निमित्त मधुर स्वरनिकरि वीनती करी-हे देव ! किहकंधापुर के स्वामी सुग्रीव तिनके दुख उपजा, सो तो अाप जानो ही हो । साहसगति विद्याधर सुग्रीव का रूप बनाय माया ताते पीडित भया सुग्रीव श्रीराम के शरण गया , मो राम सुग्रीव का दुख दूर करवे निमित्त किहकथापुर आए प्रथम तो सुग्रीव अर बोके युद्ध भया सो सुग्रीव करि वह जीता न गया। बहुरि श्रीरामके अर वाके युद्ध भया सो राम को देख बैताली विद्या भाग गई तब वह साहसगति सुग्रीव के रूपरहित जैसा हुता तैसा होय गया । महायुद्ध विर्षे रामने ताहि मारा सुग्रीवका दुःख दूर किया यह बात सुन हनुमानका क्रोथ दूर भया । मुखकमल फूला, हर्षित होय कहते भए अहो श्रीरामने हमारा यहा उपकार किया। सुग्रीवका कुल अकीर्तिरूप सागरमें इबै था सो शीघ्रही उद्धारा, सुवर्णक कलस समान सुग्रीवका गोत्र सो अपयश रूप ऊहे कूपमें डूबता हुता श्रीराम सन्मतिके धारकने गुणरूप हस्तकरि काढा । या भांति हनूमान बहुत प्रशंसा करी भर सुख के सागरमें मग्न भए अर हनूमानकी दूजी स्त्री सुग्रीवकी पुत्री पद्मरागा पिताके शोकका अभाष सुन हर्षित भई ताके बडा उत्साह भया । दान पूजा आदि अनेक शुभ कार्य किये । हनूमानके घरमें अनंगकुममाके घर खरक्षण का शोक भया अर पद्मरागाके सुग्रीवका हर्ष भया । या भाति विषमताको प्राप्त भये घरके लोग तिनको समाधान कर हनूमान किहकंधापुरको सन्मुख भये । महा शुद्धिकर युक्त बडी सेना हनूसान चाला, आकाशमें अधिक शोभा भई महा रस्नमई हनूमान का विमान ताको किरणनिकर सूर्यकी प्रभा मंद होय गई। हनूमानको चालता सुन अनेक राजा लार भए जैसे इन्द्रकी लार बडे बडे देव गमन करें आगे पीछे दाहिनी वाई और अनेक राजा चाले जाय हैं विवाधानिके शब्द कर आकाश शब्द मई होय गया। आकाशमामी अश्व अर गज तिनके समूह कर आकाश चित्राम होय गया । महा तुरंगनिकर संयुक्त ध्वजानि कर शोभित सुंदर रथ तिनकर आकाश शोभायमान भासता भया अर उज्ज्वल छत्रनिके समूह कर शोभित आकाश ऐसा भासे मानों कुमुदनिका वन ही है अर गम्भीर दुन्दुभीके शन्दनि कर दशों दिशा ध्वनि रूप होय गई, मानों मेघ गाजे है अर अनेक वर्णके आभूषस तिनकी ज्योतिके समूह कर श्राकाश नाना रंग होय गया मानो काहू चतुर रंगरेजाका रंगा वस्त्र है हनुमानके वादित्रनिका नाद सुन कपिवंशी हर्षित भए जैसे मेघकी ध्वनि सुन मोर हर्षित Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बापुराण ३६४ " होंय । सुग्रीवने सब नगरकी शोभा कराई हाट बाजार उजाले। मंदिरनि पर ध्वजा चढाई रत्ननि के तोरणनिकर द्वार शोभित किये हनुमान के सब सन्मुख गए, सबका पूज्य देवनिके न्याई नगर में प्रवेश किया / सुर्य व के मंदिर आये सुग्रीवने बहुत आदर किया पर श्रीरामका समस्त वृत्तांत कहा तब ही सुग्रीवादिक हनूमान सहित परम हर्षको धरते श्रीरामके निकट श्राये सो हनूमान रामको देखता भया, महासुंदर सूक्ष्म स्निग्ध श्याम सुगन्ध चक्र लंबे महामनोहर हैं केश जिनके सो लक्ष्मीरूप बेल तिनकरि मंडित महा सुकुमार है अंग जिनका सूर्य समान प्रतापी, चंद्र समान कांतिधारी अपनी कांतिकर प्रकाशके करणहारे नेत्रनिको आनन्दके कारण महा मनोहर अति प्रवीण आश्चर्यकारी कार्यके करण हारे म नो स्वर्ग लोकते देव ही आए हैं दैदीप्यमान निर्मल स्वर्ण कमलके गर्भ समान है प्रभा जिनकी सुन्दर नेत्र सुन्दर श्रवण सुन्दर नासिका सर्वांग अंग सुन्दर मानों साक्षात् कामदेव ही हैं, कमल नयन, नव यौबन चढ़े धनुष समान भौंह जिनकी, पूर्णमासीके चंद्रमा समान बदन, महा मनोहर मूंगा समान लाल होंठ कुन्दके समान उज्ज्वल दंत, शंख समान कंठ, मृगेन्द्र समान साहस सुंदर कटि सुंदर वक्षस्थल महाबाहु श्रीवत्सलक्षण दक्षिणावर्त गम्भीरनाभि आरक्त कमल समान कर चरण महाकमल गोल पुष्ट दोऊ जंघा र कछुवेकी पीठ समान चरण के अग्रभाग महाकांतिको घरे अरुण नख अतुल वल महायोवा महागंभीर महाउदार समचतुरस्र संस्थान वज्रवृषभ नाराच' संहनन मानों सर्व जगत्रयकी सुंदरता एकत्र कर बनाये हैं महाप्रभाव संयुक्त परन्तु सीता के वियोग कर व्याकुल चित, मानों शर्च रहित इन्द्र विराजे हैं अथवा रोहिणीराहेत चंद्रमा विष्ठे है । रूप सौभाग्य कर मंडित सर्व शास्त्रनिके वेसा महाशूरवीर जिनकी सर्वत्र कीर्ति फैल रही है महा बुद्धिमान गुणवान ऐसे श्रीराम तिनको देखकर हनुमान आश्चर्यको प्राप्त मया । तिनके शरीर की कांति हनुमान पर जा पडी, प्रभाव देखकर वशीभूत भया, पत्रनका पुत्र मनमें विचारता भया—ये श्रीराम दशरथ के पुत्र भाई लक्ष्मण लोक श्रेष्ठ याका आज्ञाकारी, संग्राममें जाके चंद्रमा समान उज्ज्वल चत्र देख साहसगतिकी विद्या वैताली ताके शरीरतें निकस गई अर इन्द्र हू मेने देखा है परंतु इनको देखकर परम आनन्द संयुक्त हृदय मेरा नम्रीभूत भया या भांति आश्चर्यको प्राप्त भया अंजनीका पुत्र, श्रीराम कमल लोचन ताके दर्शनको आगे आया अर लक्ष्मणने पहिले ही रामते कह राखी हुती सो हनूमानको दूरहीतें देख उठे, उरसे लगाय मिले, परस्पर अति स्नेह भया, हनूमान अविनय कर बैठा श्रीराम सिंहासन पर विराजे, भुजवधनकर शोभित हैं जिनकी, महा निर्मल नीलाम्बर मण्डित राजनके चूडामणि महा सुंदर द्वार पहिरे ऐसे सोहैं मानों नक्षत्रनि सहित चन्द्रमा ही है अर दिव्य पीतां वर धारे हार कुण्डल कर्पूरादिक संयुक्त सुमित्रा के पुत्र श्रीलक्ष्मण कैसे सोहे हैं मानो विजुरी सहित मेघ ही है अर बानर वंशिनिका मुकट देवनि समान पराक्रम जाका, राजा सुग्रीव कैसा सोहै मानो लोकपाल ही है अर लक्ष्मण के पीछे बैठा विरावित विद्यावर कैसा सोहै मानो लक्ष्मण नरसिंहका चक्ररत्न ही है, रामके समीप हनूमान कैसा शोभता मया जैसे पूर्ण चन्द्र Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनघामगा पर के समीप बुध सोहै अर सग्रीवके दो पुत्र एक अंज दूजा अंगद सो सगंधमाला अर वस्त्र आभूषणादि कर मण्डित ऐसे सोहें मानो यह कुघर ही हैं अर नल नील अर मैकडों राजा श्रीरामकी सभामें ऐसे मोहें जैसे इन्द्र की सभामें देव से हैं, अनेक प्रकारकी सुगंध अर आभूपणनिका उद्योन ताकरि सभा ऐसे सोहे मानो इन्द्रकी सभा है तब हनूमान आश्चर्यको पाय अतिप्रीतिको प्राप्त भया, श्रीरामको कहता भया ...' हे देव ! शास्त्रमें ऐसा कहा है-प्रशंसा परोक्ष करिये प्रत्यक्ष न करिये परंतु आपके गुण. निकरि यह मन वशीभूत भग प्रत्यक्ष स्तुति करे है अर यह रीति है कि आप जिनके आश्रय होय, तिनके गुण वर्णन करे सो जैसी महिमा आपकी हमने सुनी हुती तैनो प्रत्यक्ष देखी आप जीवनिके दयलु महा-पराक्रमी परम हितू गुणनिके समूह जिनके निर्मल यशकर जगत् शोभायमान है । हे नाथ सीताके स्वयम्बर विधान विष हजारां देव जाकी रक्षा करें ऐसा वज्रावर्त धनुष आपने चढाया सो. वह इम सब पराक्रम मुने जिनका पिता दशरथ माला कौशल्या भाई लक्ष्मण भरत शत्रुन स्त्रीका भाई भामंडल सो राम जगत्पति तुम धन्य हो तिहारी शक्ति तिहारा रूप धन्य सागरावर्त धनुषका धारक लक्ष्मण सो सदा आज्ञाकारी, धन्य यह धीर्य, धन्य यह त्याग, जो पिताके वचन पालिवे अर्थ राज्यका त्यागकर महा भयानक दण्डक वन में प्रवेश किया अर आप हमारा जैपा उपकार किया तैसा इन्द्र न करे, मुग्रीव का रूपकर साहसगति आया हुता सो पाप कपिवंशका कलंक दूर किया । आपके दर्शनकर बैताली विद्या साहसगतिक शरीरतें निकस गई । आप युद्धविष ताहि हता सो आपने तो हमारा बड़ा उपकार किया अब हम कहा संवा करें ? शास्त्रकी यह आज्ञा है जो आपसों उपकार करे और ताकी सेवा न करे ताके भावशुद्धना नहीं अर जो कृतघ्न उपकार भूले सो न्यायधर्मते बहिर्मुख है, पापिनिविष महा. पापी है पर अपराधीनते निर्दई है सो बातें सन्पुरुष संभाषण न करें ताते हम अपना शरीर भी तज कर तिहारे कामको उद्यमी हैं । मैं जाय लंकापतिको समझाय तिहारी स्त्री तिहारे लाऊंगा। हे राघव ! महावाहू सीताका मुखरूपकमल पूर्णमासीके चन्द्रमा समान कांति का पुत्र, आप निस्संदेह शीघ्र ही देखोगे। तब जांबूनन्द मंत्री हनुमानको परम हितके वचन कहता भया ।। वत्स वायुपुत्र ! हमारे सवन के एक तू ही आश्रय है सावधान लंका को जाना अर काहसों कदाचित् विरोध न करना तब हनुमान कही आपकी आज्ञा प्रमाण ही होयगा ॥ अथानन्तर हनूमान लंकाको चलिबेको उद्यमी भया तब राम अति प्रीतिको प्राप्त भए एकांत में कहते भए-हे वायुपुत्र, सीताको ऐसे कहियो, कि हे महासती, तिहारे वियोगकरि रामका मन एक क्षण भी सातारूप नाही अर रामने यों कही ज्यों लग तुम पराये वश हो त्यों लग हम अपना पुरुषार्थ नाहीं जाने हैं अर तुम महानिर्मल शीलकरि पूर्ण हो अर हमारे वियोगकरि प्राण तजो चाहो हो सो प्राण तो पति, अपना चित्त समाधान रूप राखो, विवेकी जीवनिको श्रा रौद्रत प्राण न तजने । मनुष्यदेह अति दुलभ है ताविषे जिनेन्द्रका धर्म दर्लभ है ताविष समाधि मरण दुर्लभ है जो समाथि मरण न होय तो यह मनुष्य देह तुषवत् असार है अर यह मेरे Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ - romania पद्म पुराण हाथकी मुद्रिका जाकर ताहि विश्वास उपजै सो ले जावो पर उसका चूडामणि महा प्रभारूप हम पै ले भाइयो तब हनूमान कही जो आप आज्ञा करोगे सो ही होयगा, ऐसा कहकर हाथ जोड नमस्कारकर बहुरि लक्ष्मण नम्रीभूत होय बाहिर निकसा । विभूति कर परिपूर्ण अपने तेजकरि सर्व दिशाको उद्योत करता मग्रीवके मन्दिर आया अर सुग्रीवसों कही-जो लग मेरा श्रापना न होय तो लग बहुत सावधान यहां ही रहियो या भांति कहकर सुन्दर है शिखर जाके ऐसा जो विमान तापर चढा ऐसा शोभताभया जैसा सुमेरुके ऊपर जिनमन्दिर शोमै परमज्योति करि मंडित उज्ज्वल छत्र कर शोभित हंस समान उज्ज्वल चार जापर दुर है अर पवन समान अश्व चालते पर्वत समान गज अर देवनिकी सेना समान सेना ताकरि संयुक्त, या भांति महा विभूतिकरि युक्ताकाशविष गमन करता रामादिक सर्वने देखा । गीतमस्वामी राजा श्रेणिकतें कहे हैं-हे राजन्, यह जगत् नानो प्रकारक जीवनिकरि भरा है तिनमें जो कोई परमार्थक निमिच उद्यम करे सो प्रशंमा योग्य है अर स्वार्थतै जगत् ही भरा है। जे पराया उपकार करें ते कृतज्ञ हैं प्रशंसा योग्य हैं अर जे निःकारण उपकार करें हैं उनके तुल्य इन्द्र चन्द्र कुवेर भी नाहीं । श्रर जे पापी कृतमी पराया उपकार लोपै हैं वे नरक निगोद के पात्र हैं अर लोकनिंद्य हैं। इति श्री रविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा पचनिकाविष हनुमानकर लंका को दिशा गमन वर्णन करने वाला उनचासवां पर्ण पूर्ण भया ।। ४ ।। -:०४००अथानंतर अंजनीका पुत्र प्रकाश विष गमन करता परम उदयधरै कैसा शोभता भया मानों पहिन समान जानकी ताहि लायवेकू भाई भामंडल जाय है। कैसे हैं हनूमान ? श्रीरामकी आज्ञाविष प्रवर्ते हैं महा विनयरूप ज्ञानवंत शुद्धभाव रामके कामका चिचमें उत्साह सो दिशा मंडल अवलोकते लंकाके मार्गविषै राजा महेंद्रका नगर देखते भये मानो इंद्रका नगर है । पर्वतके शिखरपर नगर बसे हैं जहां चंद्रमा समान उज्ज्व ल मंदिर है सो नगर दरहोते नजर आया तब हनूमाने देखकरि मनमें चिंतया यह दुर्बुद्धि महेंद्रका नगर है वह यहां तिष्ठं है, मेरा काहेका नाना मेरी माताको जाने संताप उपजाया था, पिता होयकर पुत्रीका ऐसा अपमान करे जो जाने नगरमें न राखी तब माता बनमें गई जहां अनंतगति मुनि तिष्ठं हुते तिनने अमृतरूप बघन कहकर समाधान करी सो मेरा उद्यानविष जन्म भया जहां कोई बंधु नाहीं मेरी माता शरो आवे अर यह न राखे यह क्षत्रीका धर्म नाहीं तात याका गर्व हरू तब क्रोधकर रणके नगारे बजाए पर ढोल बाजते भए शंखनिकी ध्वनि भई योवानिके मायुध झलकने लगे, राज महेंद्र परचक्र आया सुनकर सर्व सेना सहित बाहर निकस्या दोऊ सेना विष महायुद्ध भया महेंद्र रथमें चढा माथे छत्र फिरता धनुष चढाय हनुमानपर आया सो हनूमानने तीन वाणनिकारि ताका धनुष छेद्या जैसे योगीश्वर तीन गुप्ति कर मान छेड़े बहुरि महेंद्रने दुजा धनुष लवेका ऊबम किया ताके पहिलेही बाणनिकरि ताके घोडे छुटाय दिए सो रथके समीप भ्रमै जैसे मनके प्रेरे इन्द्रिय विषयनिमें भ्रमै बहुरि महेंद्रका पुत्र विमानमें बैठ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचासवां पर्व हनूमानपर आया सो हनूमानके अर बाके वाण चक्र कनक इत्य दि अनेक आयुधनिकरि परस्पर महा युद्ध भया हनूमानने अपनी विद्याकरि वाके शस्त्र निवारे जैसे योगीश्वर आत्मचिन्तवनकर परीषहके समूहकूनिवारै ताने अनेक शस्त्र चलाये सो हनूमानके एकहू न लग्या जैसे मुनिको कामका एक भी बाण न लागै जैसे तृणनिके समूह अग्निमें भस्म होय तैसे महेंद्र के पुत्रके सर्व शस्त्र हनूमानपर विफल गए अर हनूमानने ताहि पकडा जैसे सर्पको गरुड पकडे तब राजा महेंद्र महारथी पुत्रकू पकड़ा देख महा क्रोधायमान भया हनूमानपर आया जैसे सहसगति रामपर आयाहुता, हनूमानहू महा धनुषधारी सूर्यके रथ समान रथपर चढा, मनोहर है उरविष हार जाके शूरवीरनिमें महाशूरवीर नानाके सन्मुख भया सो दोउनिमें करोत कुठार खडग बाम आदि अनेक शस्त्रनिकरि पवन ा मेषकी न्याई महा युद्ध भया, दोऊ सिंह समान महा उद्धृत महाकोपर्क भरे बलवंत अग्निके कणसमान रक्तनेत्र दोऊ अजगर समान भयानक शब्द करते परस्पर शस्त्र चलावते, गर्वहास संयुक्त प्रकट हैं शब्द जिनके, परस्पर ऐसे शब्द करे हैं धिकार तेरे शूरपनेको, तू कहा युद्ध कर जाने इत्यादि वचन परम्पर कहते भए दोऊ विद्याबलकरि युक्त परम युद्ध करते बारम्बार अपने लोगनिकरि हाकार जय जयकारादिक शब्द करावते भए । राजा महेंद्र महा विक्रियाशक्तिका धारक क्रोधकर प्रज्वलित है शरीर जाका सो हनूमानपर श्रायुधनिके समूह डारता भया, भुपुंडी फरसा बाण शतध्नी मुदगर गदा पर्वतनिके शिखर शालवृक्ष चटवृक्ष इत्यादि अनेक आयुथ हनुमानपर महेंद्र चलाए सो हनूमान ध्याकुलता प्राप्त न भया जैसे गिरिराज महा मेषके समूहकरि कंपायमान न होय । जेते महेंद्र ने बाण चलाए सो हनूमानने उनको विद्याके प्रभावकरि सब चूर डारे बहुरि अपने रथतें उछल महेंद्रके रथमें जाय पडे दिग्गजकी सूड समान अपने जे हाथ तिनकरि महेंद्रकू पकड लिया पर अपने रथमें भाए, शूरवीरनिकरि पाया है जीतका शब्द जाने सर्वही लोक प्रशंसा करते भए । राजा महेंद्र हनुमान महाबलवान परम उदयरूप देख महा सौम्य वाणीकर प्रशंसा करता भया-हे पुत्र ! तेरी महिमा जो हमने सुनी हुनी सो प्रत्यक्ष देखी । मेरा पुत्र प्रसन्नकाति जो अब तक काहूने न जीता रथनपुरका म्वामी राजा इन्द्र ताकरि न जीता गया, विजियागिरिक निवासी विद्याधर तिनमें महाप्रभावसंयुक्त सदा महिमाकू धरै मेरा पुत्र सो तैने जोता और पकडा, धन्य पराक्रम तेरा, महाथीर्यको धरे तेरे समान और पुरुष नाही अर अनुपमरूप तेरा अर संगाम विष अद्भुत पराक्रम, हे पुत्र हनूमान ! तूने हमारे सब कुल उद्योत किये तू चरमशरीरी अवश्य योगीश्वर होयगा विनय आदि गुणनिकरि युक्त परम तेजली राशि कल्याणमूर्ति कम्पवृक्ष प्रकट भया है तू जगत्विष गुरु कुलका श्रिय अर दुःखरूप सूर्यकर जे ततायमान हैं तिनकू मेषसमान । या भांति नाना महेंद्रने अति प्रशंसा करी अर आँख भर आई अर रोमांच होय पाए मस्तक चूमा छातीसे लगाया तव हनुमान नमस्कार कर हाथ जोङ अति विनयकर क्षमा करावते भए एकक्षणमें और ही होय गए हनूमान कहे हैं-हे नाथ ! मैं वाल बद्धिकरि जो तिहारा अविनय किया सो क्षमा करहु अर श्रीरामका किहकंधापुर श्रावनेका सकल चांत Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-खुराण कहा आप लंकाकी ओर जानेका वृत्तांत कहा पर कही मैं लंका होय कायंकर आऊ हूं तुम किहकन्धापुर जावो रामकी सेवा को ऐसा कहिकर हनूमान आकाशके मार्ग लंकाकू चाले जैसे स्वर्गलोकको देव जाय अर राजा महेंद्र राणीसहित तथा अपने प्रसन्नीति पुत्र सहित अंजनीपुत्रीके गया, अंजनीको माता पिता अर भाईका मिलाप भया सो अति हर्षित भई बहुरि महेंद्र किहकंधापुर आए सो राजा सुग्रीव विराधित आदि सन्मुख गए श्रीरामके निकट लाए राम बहुत आदरसे मिले, जे राम सारिखे महंत पुरुष महातेज प्रतापरूप निर्मलचित्त है अर जिनने पूर्वजन्म विर्षे दान व्रत तप आदि पुण्य उपार्जे हैं तिनकी देव विद्याधर भूमिगोचरी सही सेवा करें। जे महा गर्वबंत बलवंत पुरुष हैं ते सब तिनके वश होवें तात सर्व प्रकार अपने मनको जीत सार्म में यत्नकर हे भव्यजीव हो ! ता सत्कर्मके फलकर सूर्य समान दीप्तिक प्राप्त होहु ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापटपुगण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषा वचनिकाविणे महेन्द्र का अर अंजना का बहुरि हनूमान का श्रीरामके निकट आवनेका वर्णन करने वाला पचासवां पर्व पूर्ण भया ॥५०॥ . अथानन्तर हनूमान आकाशविर्ष विमानमैं बैठे जाय हैं अर मार्गमें दधिमुख नामा द्वीप आया तामें दधिमुख नामा नगर जहां दधि समान उज्ज ल मन्दिर सुन्दर सुवरणके तोरण काली घटाममान सघन उद्यान पुरुषनिकरि युक्त फटिक मणि समान उज्ज्वल जलकी भरी वापिका सोपाननिकर शोभित कमलादिक कर भरी । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसू कहे हैं-हे राजन्, या नगरसे दूर वन तहां तृण बेल वृक्ष कांटनिके समूह सूके वृक्ष दुष्ट सिंहादिक जीवनिक नाद महा भयानक प्रचण्ड पवन जाकरि वृक्ष गिः पडे, सूक गये हैं सरोवर जहां अर गृद्ध उल्लूक आदि दष्ट पक्षी विधरैं ता वनविष दोय चारणमुनि अष्टदिनका कायोत्सर्ग धरे खडे थे अर तहांते चारकोस तीन कन्या महामनोग्य नेत्र जिनके, जटा धरें सफे वस्त्र पहरे विधिपूर्वक महा तपकर निर्मल चित्त जिनका मानों कन्गा नीन लोककी आभूषण ही हैं। अथानंतर बनमें अग्नि लागी सो दोऊ मुनि धीर वीर वृत्तकी न्याई खडे समस्त वन दावानल करि जरे, ते दोऊ निग्रंथ योगयुक्त मोक्षाभिलाषी र गादिकके त्यागी प्रशातवदन शान्तचित्त नि पाप अवांछक नासादृष्टि, लंबा हैं भुना जिनकी, कायोत्सर्ग धरे जिनके जीवना मरना तुल्य, शत्रु मित्र समान, कांचन पाषाण समान सो दोऊ मुनिको जरते देख हनुमान कम्पायमान भया, वात्सल्य गुणकरि मंडित महा भक्ति संयुक्त वैया वृत करिवेको उद्यनी भया, समुद्रका जल लेयकर मूसलाधार मेह बरसाया सो क्षणमत्रवि पृथिवी जलरूप होय गई । अग्नि ताजलकरि हनूमानने ऐसे बुझाई जैसे मुनि क्षमाभावरूप जल करि क्रोधरूप-ग्निको बुझावें । मुनिनिका उपसर्ग दूर कर तिनकी पूजा करता भया अर वे तीन कन्या विद्या साधती हु सो दावानल व्याकुलताका कारण भया हुआ मो हनूम नके मेहकर वन का उपद्रव मिटा सो विद्या सिद्ध भई. समेरुकी तीन प्रदक्षिणा करि मुनिनिके निकट आयकर नमस्कार करती अर हनुमानकी स्तुति करती Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकावनवा पर्ग भई-हे तात धन्य तिहारी जिनेश्वरविणे भक्ति तुम काहु तरफ जाने हुते सो साधुनिकी रक्षा करी हमारे कारण करि वन में उपद्रा भ पा पो पुनि ध्य न बह ध्यान न डिगे तब इन नने पूछी तुम कौन पर निर्जन स्थानक कौन कारण रहो हो तब सबनिमें बडी बहिन कहती भई-यह दधिमुख नामानगर जहां राजा गन्धर्व ताकी हम तीन पुत्री बडी चन्द्ररेखा दूनी विद्युत्प्रभा तीजी तरंगमाला सर्वगोत्रको वल्लभ सो जेते विजयाधके विद्याधर राजकुमार हैं वे सब हमारे विवाहके अर्थ हमारेपितामयाचना करते भए अर एक दुष्ट अंगारक सो अति अभिलाषी निरंतर कामके दाहकर आतापरूप तिष्ठे, एक दिन हमारे पिताने अष्टांग निमित्तके वेत्ता जे मुनि तिनको पूछा हे भगवान ! मेरी पुत्रीनिका वर कौन होयगा, तब मुनि कही जो रणसंग्रामविणे साहसगतिको मारेगा, सो तेरी पुत्रिनिका वर होयगा, तब मुनिके अमोघ वचन सुनकर हमारे पिताने विचारी, विजियार्धकी उत्तर श्रेणीविष श्रेष्ठ जो साहसगति ताहि कौन मार सके जो साहि मारे सो मनुष्य या लोकविष इंद्र समान हे अर मुनिके वचन अन्यथा होय नाहीं सो हमारे माता पिता अर सकल कुटुम्ब मुनिके वचन पर दृढ भए अर अंगारक निरंतर हमारे पितासू याचना करे सो पिता हमको न देय, तब यह अति चिंतावान दुःखरूप वैरको प्राप्त भया अर हमारे यही मनोरथ उपजा जो वह दिन कब होय हम साहसगतिके हनिवेवरेको देखें, सो मनोनुगामिनी नाम विद्या साधिवेको या भयानक वनविषे आई, सो अनुगामिनी नामा विद्या साधते हमको बारवां दिन है अर मुनिनिको आठमा दिन है । आज अंगारकने हमको देख क्रोथकर वन. विषे अग्नि लगाई, जो छह वर्ष कछुइक अधिक दिननिविष विद्या सिद्ध होय हमको उपसर्गते भय न करवे कर बारह ही दिनविय विद्या सिद्ध भई । या आपदावि हे महाभाग ! जो तुम सहाय न करते तो हमारा अग्निकर नाश होता अर मुनि भस्म होते, तातै तुम धन्य हो, तब हनुमान कहते भये तिहारा उद्यम सफल भया । जिनके निश्चय होय तिनको सिद्धि होय ही, थन्य निर्मल बुद्धि तिहारी बड़े स्थान हविष मनोरथ, धन्य तिहारा भाग्य ऐसा कहकर श्रीराम के किहकंधापुर श्रावनेका सकल वृत्तांत कहा अर अपने रामकी आज्ञा प्रमाण लंका जायवेका वृत्तांत कहा ताही समय वनके दाह शांति होयवेका अर मुनि उपसर्ग दूर होनेका वृत्तांत राजा गंधर्व सुन हनूमानपै आया । विद्याधरनिके योगकरि वह वन नंदनवन जैसा सोभता भया अर राजा गंधर्व हनूमानके मुख करि श्रीरामका किहकंधापुर विराजनेका वृत्तांत सुन अपनी पुत्रिनिसहित श्रीरामकै निकट आया। पुत्री महाविभूतिकर रामको परणाई, राम महाविवेकी ये विद्याधरनिकी पुत्री अर महाराज विभूति कर युक्त हैं तोहू सीता विना दशोदिशा शून्य देखते भए, समस्त पृथिवी गुणवान जीवनितें शोभित होय है अर गुणवंतनि विना नगर गहन वन तुल्य भास है कैसे हैं गुणवान जीव ? महामोहर है चेया जिनकी अर अति सुन्दर हैं भाव जिनके, ये प्राणी पूर्योति कर्मके फलकरि सुख दुःख भोगवे हैं तातें जो सुखके अर्थी हैं वे जिनरूप सूर्यकरि प्रकाशित जो पवित्र जिनमार्ग ताविर्षे प्रवृत्ते हैं। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै रामको राजा गंधर्गकी कन्यानिक। लाभ गर्णन करनेबाला इकावनमा पर्न पर्ण भया ॥५१॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण अथानन्तरमहा प्रतापकर पूर्ण महाबली हनुमान जैसे सुमेरुको सौम जाय तैसे त्रिकूटालको चला सो आकाशमें जाती जो हनुमान की सेना ताका महा धनुष के आकार मायामई यंत्रक निरोध भया तब हनूमान अपने समीपी लोकनितें पूछी जो मेरी सेना कोन कारण आगे चल न सके ? यहां गर्व का पर्वत असुरनिका नाथ चमरेन्द्र है अथवा इन्द्र है तथा या पर्वत के शिखरमें जिन मन्दिर हैं अथवा चरमशरोरी मुनि हैं तब हनुमानके ये वचन सुनकर पृथुमति मंत्री कहता भया - हे देव ! यह क्रूरतासंयुक्त मायामई यंत्र है तत्र आप दृष्टि घर देखा, कोटमें प्रवेश कठिन जाना मानों यह कोट विरक्त स्त्रीके मन समान दुःप्रवेश है, अनेक आकारको घरे वक्रताकरि पूर्ण, महाभयानक सर्वभक्षी पूतली जहां देव भी प्रवेश न कर सकें जाज्वल्यमान तीच्ण हैं अग्र भाग जिनके ऐसे करोतनिके समूहकर मण्डित जिह्वा के अग्रभाग करि रुधिरको उगलते ऐसे हजारों सर्प तिनकरि भयानक फण, ते विकराल शब्द करे हैं अर विषरूप अग्निके करण बरसे हैं रूप घूमकर अन्धकार होय रहा है । जो कोई मूर्ख सामन्तपणाके मानकरि उद्धत 'भया प्रवेश करे ताहि मायामई सर्प ऐसे निगलें जैसे सर्प मेंड को निगलें, लंका के कोटका मंडल जोतिष चक्रते हूं ऊंचा सर्व दिशांनमें दुर्लघ घर देखा न जाय प्रलयकाल के मेघ समान भयानक शब्द कर संयुक्त अर हिंसारूप ग्रन्थनि की न्याई अत्यन्त पापकर्गनिकरि निरमापा ताहि देखकर हनूमान विचारता भया यह मायामई कोट राक्षमनिके नाथने रचा है सो अपनी विद्याकी चातुयता दिखाई है और अब मैं द्यबल करि याहि उपाडता संता राक्षमनिका मद हरू जैसे आत्मयानी मुनि मोह मदको हरे तब हनूमान युद्ध में मनकर समुद्र समान जो अपनी सेना सो आकाश में राखी पर आप विद्यामई वक्तर पहिर हाथ में गदा लेकर मायामई पूतली के मुख में प्रवेश किया जैसे राहुके मुख में चन्द्रमा प्रवेश करे थर वा मामई पूतलीकी कुक्षि सांई भई पर्वत की गुफा अन्धकारकर भरी सो आप नरसिंहरूप तीक्ष्ण नखनिकर विदारी कर गदाके घातसे कोट चूरण किया जैसे शुक्लध्यानी मुनि निर्मल भावनिकरि घातिया कर्मकी स्थिति चूरण करे । ३७० अथानन्तर यह विद्या महाभयंकर भंगको प्राप्त भई तब मेवकी ध्वनि समान ध्वनि भई विद्या भाग गई को विघट गया जैसे जिनेन्द्रकं स्तोत्रकरि पापकर्म विघट जाय तब प्रलयकाल के मेघ समान भयंकर शब्द भया मायामई कोट बिखरा देख कोटका अधिकारी वज्रमुख महा क्रोधायमान हो शीघ्र ही स्थपर चढ हनूमान पर विना विचारे मारने को दौड़ा जैसे सिंह अग्निकी ओर दौडे जब वाहि आया देख पवनका पुत्र महायोधा युद्ध करियेको उद्यमी भया तत्र दोऊ सेनाके योधा प्रचण्ड नाना प्रकार के बाहसनियर चढे अनेक प्रकारके आयुध घरे परस्पर लडने लगे बहुत कहनेकरि कहा ? स्वामी के कार्य ऐसा युद्ध भया जैसा मानके अर मार्दव के युद्ध होय अपने २ स्वामीकी दृष्टिमें योवा गाज २ युद्ध करते भए जीवनमें नाहीं है स्नेह जिनके, फिर हनूमान के सुभटनिकर बज्रमुखकं योवा क्षणमात्र में दशदिशा भाजे पर हलूम ने सूर्य अधिक है ज्योति जाकी ऐसे चक्र शस्त्रकरि बज्रमुखका सिर पृथिवीपर डारा । यह सामान्य चक्र है चक्री अर्धचक्रिनिके सुदर्शनचक्र होय है । युद्धमें पिताका मरण देख लंकासुन्दरी बज्रमुखकी पुत्री Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আনন৷ গ पिताका जो शोक उपजा हुता ताहि कष्ट से निवार क्रोधरूप विषकी भरी तेज तुरंग जुते हैं जाके ऐसे रथपर चढी कुडलनिके उद्योतकरि प्रकाशरूप है मुख जाका, बक्र हैं भौंह जाकी, उन्कापातका स्वरूप सूर्यमंडल समान तेजधारी क्रोधके वश कर लोल हैं नेत्र जाके करताकर डसे हैं किंदूरीसमान होंठ जाने मानो क्रोधायमान शची ही है सो हनूमानपर दौडी अर कहती मई-रे दुष्ट ! मैं तोहि देखा जो तोमें शक्ति है तो मातें युद्ध कर, जो क्रोधायमान भया रावण न करे सो मैं करूंगी, हे पापी ! तोहि यममंदिर पठाऊगी, तू दिशा को भूल अनिष्ट स्थानको प्राप्त भया ऐसे शब्द कहती वह शीघ्र ही आई सो आवतीका हनूमानने छत्र उडाय दिया, तब वाने वाणनिकरि इनका धनुष तोड डारा अर शक्ति लेय चलावे ता पहिले हनूमान बीच ही शक्तिको तोड डारी तब वह विद्यावलकर गंभीर वज्रदंड यमान बाण अर फरसी बरछी चक्र शतघ्नी मूसल शिला इत्यादि वायुपुत्रके रथपर वरसाती भई जैसे मेघमाला पर्वतपर जलकी धारा वरसावे नाना प्रकारके आयुधनिक समूहकरि वाने हनूमानको वेढा जैसे मेघस्टल सूर्यको पाच्छादे तब हनूमान विद्याकी सर्व विधिमें प्रवीण महापराक्रमी ताने शस्त्रनिके समूह अपने शस्त्रनिकरि आप तक न प्रोवने दिए, तोमरादिक बाणनिकरि तोमरादिक वाण निवारे अर शक्तितें शक्ति निवारी । या भांति परस्पर अतियुद्ध भया याके वाण वाने निवारे वाके बाण याने निवारे बहुत बेरतक युद्ध भया कोई नहीं हारे सो गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसू कहे हैं हे राजन् ! हनुमानको लंकासुन्दरी बाण शक्ति इत्यादि अनेक आयुथनिकरि जीतती भई पर कामके बाणनिकर पीडित भई । कैसे हैं कामके वाण ? मर्मक बिदारनहारे । कैसी है लंकासुन्दरी साक्षात् लक्ष्नी समान रूपवन्ती, कमल लोचन सौभाग्य गुणनिकरि गर्वित सो हनूमानके हृदयमें प्रवेश करती भई जाके कर्णपर्यंत बाणरूप तीक्ष्ण कटाक्ष नेत्ररूप धनुषतें चढ़े ज्ञान थीर्यके हरणहारे महा सुन्दर दुद्धर मनके भेदनहारे प्रवीण अपनी लावण्यताकार हरी है सुन्दरताई जिनने तर हनूमान मोहित होय मनमें विंतवता भया जो यह मनोहर आकार महाललित बाहिर तो विद्यावाण अर सामान्य बाण तिन कर मोहि भेर्दै है और आभ्यन्तर मेरे मनको काम के बाणकरि बींधे है यह मोहि वाह्याभ्यंतर हणे है तन मनको पीडे है या युद्ध में याके घाणनिकरि मृत्यु होय तो भली परन्तु याके विना स्वर्गमें जीवना मला नाही, या मांति पवनपुत्र मोहित भया अर वह लंकासुन्दरी याके रूपको देख मोहित भई, क्रूरतारहित करुणा में आया है चित जाका, तब जो हनूमानके मारिवेको शक्ति हाथमें लीनी हुती सो शीघ्रही हाथ तें भूमिमें डारदई, हनूमान पर म चलाई । कैसे हैं हनूमान ! प्रफुल्लित हैं तन अर मन जिनका अर कमल दल समान हैं नेत्र जिनके अर पूर्णमासीके चन्द्रमा समान है मुख जिनका नव यौवन मुकटमें बानर का चिह्न साक्षात् कामदेव है। लंकासुन्दरी मनमें चिंतवती भई-याने मेरा पिता मारा सो बडा अपराध किया यद्यपि द्वेषी है तथापि अनुपम रूपकर मेरे मनको हरे है जो या सहित काम भोग न सेऊ तो मेरा जन्म निष्फल है तब विहल होय एकपत्र तामें अपना नाम सो वाणको लगाय चलायो तामें ये समाचार हुते-हे नाथ ! देवनिके समूहकर न जीती Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण जाऊ ऐसी मैं सो तुमने कामके वाणनिकरि जीती यह पत्र वांच हनुमान प्रसन्न होय रथसे उतर आयकर तासे मिले जैसे काम रतिसे मिले वह प्रशानवैर भई संती श्रमू डारती तातके मरणकर शोकरत, तब हनूमान कहते भये-हे चंद्रवदनी! रुदन मत करे तेरे शोककी निवृत्ति होहु तेरे पिता परम क्षत्री महशूरवीर तिनकी यही रीति जो स्वामी कार्यके अर्थ युद्ध में प्राण तजें अर शास्त्रविणे प्रवीण हो सो सब नीके जानो हो या राज्यविणे यह प्राणी कर्मनिके उदयकर पिता पुत्र बांधवादिक सबको हणे है तातै तुम बात ध्यान तजो । ये सकल प्राणी अपना उपार्जा कर्म भोगवे हैं निश्चय मरण का कारण आयुका अंत है अर पर जीव निमित्त मात्र हैं, इन वचननिकरि लंकासुन्दरी शोकरहित भई। या भांति या सहित केसी सोहती भई जैसे पूर्णचंद्रसे निशा सोहै प्रमके समूहकर पूर्ण दोऊ मिलकर संग्रामका खेद विस्मरण होय गए दोऊनिका चित्त परस्पर प्रीतिरूप होय गया तब आकाशविङ्ग स्तम्भनी विद्याकर कटक भा अर सुन्दर मायामई नगर बसाया। जैसी सांझ की आरक्तता होय ता समान लाल देवनके नगर समान मनोहर जामें राजमहल अत्यन्त सुन्दर सो हाथी घोडे विमान रथो पर चढे बडे बडे राजा नगरमें प्रवेश करते भए । नगर ध्वजानिकी पंक्ति कर शोभित सो यथायोग्य नगरमें तिष्ठे महा उस्साहसे संयुक्त रात्रिमें शूरवीरनिके युद्धका वर्णन जैसा भया तैसा सामन्न करते भए हनूमान लंकासुन्दरीके संग रमता भया । ... अथानन्तर प्रभात ही हनूमान चलनेको उद्यमी भए तब लंकासुन्दरी महा प्रेमकी भरी एसे कहती भई-हे कंत ! तुम्हारे पराक्रम न सहे जांय ऐसे अनेक पुरुषोंके मुख रावणने सुने होवेंगे सो सुनकर अतिखेद खिन्न भया होयगा तातें तुम लंका काहेको जावी, तब हनूमानने उसे सकल वृत्तांत कहा जो रामने वानरवंशियोंका उपकार किया सो सबोंका प्रेरा रामके प्रति उपकार निमित्त जाऊहूं। हे त्रिये ! रामका सीताका मिलाप कराऊ, राक्षसोंका इन्द्र सीताको अन्याय मार्गसे हर लेगया है, सो सर्वथा मैं लाऊंगा । तव ताने कहा तुम्हारा और रावणका वह स्नेह नाही, स्नेह नष्ट भया सो जैसे स्नेह कहिए तेल ताके नष्ट होयवे कर दीपककी शिखा नहीं रहे है तैसे स्नेहके नष्ट होयवे कर सम्बन्धका व्यहार नहीं रहे है । अब तक तुम्हारे यह व्यवहार था तुम जब लंका आवते तब नगर उछावते गली गलीमें हर्ष होता, मंदिर ध्वजावोंकी पक्तिसे शोभित होते जैसे स्वर्गमें देव प्रवेश करें तैसे तुम प्रवेश करते, अब रावण प्रचण्ड दशानन तुम में द्वषरूप है सो निःस देह तुमको पकडेगा तातें जब तिहारे उनके संधि होय तब मिलना योग्य है तब हनूमान बोले-हे विचक्षणे ! जायकर ताका अभिप्राय जाना चाहूं हूं और वह सीता सती जगत् में प्रसिद्ध है और रूर कर अद्वितीय है जाहि देखकर रावणका सुमेरु समान अचल मन चला है वह महा पतिव्रता हमारे नाथकी स्त्री हमारी माता समान ताका दर्शन किया चाहूं हूं। या भांति हनूमानने कही और सब सेना लंकासुन्दरीके समप राखी और आप तो विवेकिनीसे विदा होयकर लंकाको सन्मुख भए। यह कथा गौतमम्वामी राजा श्रेणिकत कहै है-हे राजन् ! या लोकमें यह बड़ा आश्चर्य है जो यह प्राणी क्षण मात्रमें एक रसको बोड Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरेपनबा पर्ण करें दूज रसम आजाय कमी वरसको छोडकर रसमें श्राजाय कहूं रसको छोडकर गिरसमें श्रा जाय । या जगत्गें इन कर्मनिकी अद्भुत चेष्टा है, संसारी सर्व जीव कर्मोके आधीन हैं। जैसे सूर्य दक्षणायनसे उत्तरायण आवे तैसे प्राणी एक अपस्थासे दूजी अवस्थामें आवे । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै हनूमानके लंकासन्दरीका लाभ वर्णन करनेवाला वावनवां पर्व पूर्ण भया ।। ५२ ॥ अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकतै कहै हैं हे श्रेणिक ! वह पवनका पुत्र महा प्रभावके उदय कर संयुक्त थोडे ही सेवकों महित निःशंक लंकामें प्रवेश करता भया । बहुरि प्रथम ही विभीषणके मन्दिरमें गया। विभीषणने बहुत सन्मान किया फिर क्षणएक तिष्ठ कर परस्पर वार्ता कर हनूमान कहता भया जो रावण आधे भरतक्षेत्रका पति सर्व का स्वामी ताहि यह कहा उचित जो दरिद्री मनुष्यकी न्याई चोरीकर परस्त्री लावै जे राजा हैं सो मर्यादाके मूल हैं जैसे नदीका मूल पर्वत, राजाही अनाचारी होय तो मर्व लोकमें अन्यायकी प्रवृत्ति होय ऐसे चरित्र किये राजाकी सर्व गोकमें निंदा होय तातै जगत्के कल्याण निमित्त रावणको शीघ्र ही कहो न्यायको न उलंघे । यह कहो-हे नाथ ! जगत् में अपयशका कारण यह कर्म है जिससे लोक नष्ट होय सो न करना तुम्हारे कुलका निर्मल चरित्र केवल पृथिवी पर ही प्रशंसा योग्य नहीं, स्वर्गमें भी देव हाथ जोड नमस्कार कर तुम्हारे बडों की प्रशंसा करे हैं। तुम्हारा यश सर्वत्र प्रसिद्ध है तब विभीषण कहता भय-मैं बहुत बार भाईको समझाया परंतु माने नहीं अर जिस दिनसे सीता ले आया उस दिनसे बातभी न करे तथापि तुम्हारे वचनसे मैं फिर दवाय कर कहूंगा परंतु यह हठ उससे छूटना कठिन है अर आज ग्यारवां दिन है, सीता निराहार है जल भी नाहीं लेय है तो भी रावण को दया नहीं उपजी, इस कानसे विरक्त नहीं होय है। यह बात सुनकर हनूमानको अति दया उपजी । प्रमदनामा उद्यान जहां सीता विराज है तहां हनूमान गया उस वनकी सुन्दरता देखता भया नवीन जे बेलोंके समू तिनसे पूर्ण और तिनके लाल पल्लव सोहें मानों सुन्दर स्त्रीके कर पल्लव ही हैं और पुष्पाक गुच्छा पर भ्रमर गुजार करें हैं और फलोंसे शाखा नम्रीभूत होरही हैं अर पवन से हाल हैं. कमला कर जहां सरोवर शोभित है और देदीप्यमान बेलोंस वृक्ष वेष्टित हैं मानों वह वन देववन समान है अथवा भोगभूमि समान है, पुष्पोंकी मकरन्दसे माण्डत मानों साक्षात् नन्दन वन है। अनेक अद्भुतताकर पूण हनूमान कमल लोचन वनकी लीला देखता संता सांताके दर्शन निमित्त आगे गया चारो तरफ वनमें अवलोकन किया सो दूर ही से सीताको देखा। सम्यकदर्शनसहित महासती उसे देखकर हनुमान मनमें चिंतवता भया-यह रामदेवकी परम सुन्दरी महासती निधूम अग्नि समान असुवनसे भर रहे हैं नेत्र जाके, सोच सहित बैठी मुखसे हाथ लगाय सिन्के केश विखर रहै है कृश है शरीर जिसका, सो देख कर हनूमान विचारता भया । धन्य रूप इस माताका लोकमें जीते हैं सर्वलोक जिपने मानों यह कमलसे निकसी लक्ष्मी ही विराजे है, दुखके समुद्रमें डूब रही Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन राण है तो भी इस समान कोई नारी नाहीं । मैं जैसे होय तैसे श्रीरामसे मिलाऊ इसके और रामके काज अपना तन दूं याका और रामका विरह न देखू यह चितवन कर अपना रूप फेर मंद मंद पांव थरता हनूमान आगे जाय श्रीरामकी मुद्रिका सीताके पास डारी सो शीघ्र उसे देख रोमांच होय आये और कछू इक मुख हर्षित भया सो समीप बैठी थी जो नारी वे इसकी प्रसन्नता के समाचार जाय कर रावणको कहती भई सो वह तुष्टायमान होय इनको वस्त्र रत्नादिक देता भया और सीताको प्रसन्न वदन जान कायकी सिद्धि चिंतता भया सो मन्दोदरीको सर्व अंत:पुर सहित सीतापै पठाई सो आने नाथके वचनसे सर्व अंतःपुर सहित सीता पै आई सो सीता को मन्दोदरी कहती भई हे बाले! आज तू पसन्न भई सुनी सो तैने हमार बडी कृपा करी अब लोकका स्वामी रारण उसे अंगीकार कर जैसे देव लोककी लक्ष्मी इन्द्रको भजे । ये वचन सुन सीता कोपकर मन्दोदरीसे कहती भई-हे खेवरी, आज मेरे पति की वार्ता आई है मेरे पति प्रानन्दसे हैं इसलिये मोहि हर्ष उपजा है तब मन्दोदरी ने जानी इसे विना अन्न जल किये ग्यारह दिन हो गये सो वायसे वकै है तब सीता मुद्रिका ल्यावनहारेसे कहती भई-हे भाई ! मैं इस समुद्र के अंतर्वीप में भयानक वनमें पड़ी हूं सा कोऊ उत्तम जीव मेरा भाई समान अति वात्सल्य थारखहारा मेरे पतिकी मुद्रिका लेय आया है सो प्रगट दर्शन देवे तब हनूमान हा भव्य जीव सीताका अभिप्राय जान मनमें विचारता भया जो पहिले पराया उपकार विचारे बहुरि अति कायर होय छिप रहे सो अधम पुरुष है अर जे पर जीवको आपदामें खेद खिन्न देख पराई सहाय करे तिन दयावन्तोंका जन्म सफल है तब समस्त रावणकी स्त्री मन्दोदरी आदि देखे हैं अर दर हीसे सीताको देख हाथ जोड सीस निवाय नमस्कार करता भया, कैसा है हनूमान ? महा निशंक कांति कर चंद्रमा समान, दीप्तिकर सूर्य समान वस्त्र प्राभरण कर मण्डित रूप कर अतुल्य मुकुटमें वानर का चिह्न बन्दन कर चर्चित सर्व अंग जाका, महा बलवान बनवृषमनारासंहनन सुन्दर केश रक्त होठ कुंडलके उद्योतसे महाप्रकाशरूप मनोहर मुख गुणवान महा प्रतापसं. युक्त सीताके निकट अायता कैला शोभता भय! मानों भामण्डल लेयवेको माया है प्रथम ही अपना कुल गोत्र माता का नाम सुनाय कर बहुरि अपना नाम कहा बहुरि श्रीरामने जो कहा हुता मो सर्व कहा अर हाथ जोड विनती करी-हे साध्वी ! स्वर्ग विमान समान श्रीराम महलोंमें विराजे हैं परंतु तुम्हारे वि हरूप समुद्रमें मग्न काहू ठौर रतिको नाही पावै हैं समस्त भोगोपभोग तजे मौन धरे तिहरा ध्यान कर हैं जैसे मुनि शुद्धताको ध्यावें, एकाग्रचित तिष्ठे हैं। वे वीणाका नाद अर सुन्दर स्त्रियोंके गीत कदापि नाहीं सुने हैं अर सदा तिहारी ही कथा करे हैं तिहारे देखवेके अर्थ केवल प्राणोको धरें हैं। यह वचन हनूमानके सुन सीता आनन्दको प्राप्त भई बहुरि सजल नेत्र होय कहती भई ( सीताके निकट हनूमान महा विनयवान हाथ जोडे खडा है) जानकी बोली Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरेपनवां पर्ण हे भाई, मैं दुःखके सागरविष पडी हूं अशुभके उदयकरि, पतिके समाचार सुन तुष्टायमान भई तोहि कहा हूँ ? तब हनूमान प्रणामकर कहता भया--हे जगत्पूज्ये, तिहारे दर्शन ही से मोहि महा लाभ भया तब सीता मोती समान आंसुनिकी बूंद नाखती हनूमानसे पूछती भई-हे भाई, यह मगर ग्राह आदि अनेक चलचरोंकर भरा महा भयानक समुद्र ताहि उलंवकर तू कैसे आया अर सांच कहो मेरा प्राणनाथ तेंने कहां देखा पर लक्ष्मण युद्धविष गया हुता सो कुशल क्षेमसे है अर मेरा नाथ कदाचित् तोहि यह संदेशा कहकर परलोक प्राप्त हुवा होय अथवा जिनमार्गविष महा प्रवीण सकल परिग्रहका त्यागकर तर कन्ता होय अथवा मेरे वियोंगसे शरीर शिथिल होय गया होय अा अंगुरीतें मुद्रका गिर पडी होय यह मेरे विकल्प हैं, अब तक मेरे प्रभुका तोसों परिचय न हुता सा कौन भांति मित्रता भई सो सब मोसू विशपताकर कहो । तब हनूमान हाथ जोड सिर निवाय कहता भया-हे देवी, सूर्यहास खड़ग लक्ष्मण को सिद्ध भया और चन्द्रनखाने धनीपै जाय धनीको क्रोध उपजाया सो खरदूषण दण्डकवनविष युद्ध करने को आया अर लक्ष्मण उमसे युद्ध करनेको गऐ सो तो सव वृत्तांत तुम जानो हो बहुरि रावण आया पर आप श्रीरामके पास विराजती हुतीं सो रावण यद्यपि सर्व शास्त्रका वेत्ता हुता अर धर्म अधर्मका स्वरूप जाने हुना परंतु आपको देखकर अविवेकी होय गमा समस्त नीति भूल गया, बुद्धि जाती रही तिहारे हरनेके कारण कपट र सिंहनाद किया सो सुनकर राम लक्ष्मणपै गए अर यह पापी तुमको हर ले आया बहुरि लक्षाण रामसू कही-तुम क्यों आए, शीघ्र जानकीपै जावो तब आप स्थानक आए तुमको न देखकर म्ह खेदखिन्न भए । तिहारे इंढनेके कारण वनविष बहुन भ्रमे बहुरि जटायुको मरते देखा तब त हि नमोकार मंत्र दिया अर चार आराधना सुनाय सन्यास देय पक्षीका परलोक सुधारा बहुरि तिहारे विहिवर महादुखी सोचसे परे अर लक्ष्मण ख दूषगका हन राम आया, धर्य बंधाया अर च द्रोदयका पुत्र विराधित लक्ष्मणसे युद्ध ही विष आय मिला हुला ६हुरि सुग्रीव राम मैं आया अर साहसमति विद्याधर जो सुग्रीवका रूपकर सुग्रीवकी स्त्रीका अर्थी भया हुता सो रामको देख साहसगतिकी विद्या जाती रही सुग्रीवका रूप मिटगया अर साहसनति रामसे लडा सो साहसगति को रामने मारा सुग्रीवका उपकार किया तब सबने मोहि बुलाय रामसू मिला। अब मैं श्रीरामका पठाया तिहारे छुड इचे अर्थ यहां आया हूं, परस्पर द्ध करना निःप्रयोजन है कार्यकी सिद्धि सर्वथा नयकर करना अर लंकापुरीका नाथ दयावान है विनयवान् है धर्म अर्थ कामका वेत्ता है कोमल हृदय है सौम्य है वक्रतारहित है सत्यवादी महाधीरवीर है सो मेरा वरन मानेगा तोहि रामपै पठावेगा। याकी कीर्ति महा निर्मल पृथिवीमि प्रसिद्ध है और यह लोकापवादतें डर है तब सीता हर्षित होय हनूमानसे कहती भई-हे कपिध्वज, तो सरीखे पराक्रमी धीरवीर विनयवान मेरे पतिके निकट केतक हैं ? तब मन्दोदरी कहती मई-हे जानकी, तें यह कहा समझकर कही। तू याहि न जाने है तातें ऐसा पूछे है या सरीखा भरतक्षेत्रमें कौन है या में यह एक ही है। यह महासुभट Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण युद्ध में कईबार रावणका सहाई भया है यह परनका पुत्र अंजनीका सुत रावणका भानजा जमाई है । चन्द्रनखाकी पुत्री अनंगकुसुमा परणी है या एकने अनेक जाते हैं सदा लोक याके दशनको बांछे हैं चन्द्रमा की किरणवत् याकी शीति जगत फैल रही है । लंहाका धनी याहि भाईनित भी अधिक गिने है यह हनुमान पृथिवी पर प्रसिद्ध गुणनिकर पूर्ण है परन्तु यह बडा आश्चर्य है कि भूमिगोचरियोंका दूत होगायों है । तब हनुमानने कही-तुम राजा मयकी पुत्री अर रावण की पटराणी दूती होय कर आई हो। जा पतिके प्रसादतें देवोंकेसे सुख भोगे ताहि अकार्यविष प्रवर्तते मने नाहीं करो हो और ऐसे कार्य की अनुमोदना करो हो। अपना वल्लभ विषका भरा भोजन करे ताहि नाही निवारो हो। जो अपना भला बुरा न जाने ताका जीतव्य पशु समान है और तिहारा सौभाग्य रूप सबतें अधिक और पति परस्त्रीरंत भया ताका दूतीपन करो हो । तुम सब बातनिश्षि प्रवीण परम बुद्धिमती हुती सो प्राकृत जीवनि समान अविथि कार्य करी हो । तुम अर्ध चक्रीकी महिषी कहिये पटराणी हो सो अब मैं तुमको महिपी कहिये भैंस समान जानू हूं। यह वचन हनुमानके मुखतें सुन मन्दोदरी क्रोधरूप होय बोली-अहो तू दोषरूप है, तेरा बाचालपना रिर्थक है जो कदाचित् रावण यह बान जाने कि यहां राबका दूत होय सीताप आया है तो जो काहसे न करे ऐसी तोसें करै अर जिसने रावणका बहने चन्द्र खिाका पति मारा ताके सुग्रीवादिक सेवक भए, रावणकी सेवा छ डी सो वे मन्दबुद्धि हैं, रंक कहा करेंगे ? इनकी मृत्यु निकट आई है तातें भूमिगोचरीके सेवक भये हैं । ते अति मूढ निर्लज्ज तुच्छवृत्ति कृतघ्नी वृथा गर्वरूप होय मृन्युके समीप मिष्ठे हैं। ये वचन मन्दोदरीकं सुनकर सीता क्रोध रूप होय कहती भई-हे मदोदरी ! तू मंदबुद्धि है जो वृथा ऐसे कहे है, से मेरा पति अद्भुत पराक्रमका धनी कहा नहीं सुना है, शूरवीर अर पण्डितोंकी गोष्ठीविष मेरा पति मुख्य गाइए है, जाके वज्रावर्त धनुषका शब्द रण संग्राम में सुनकर महा रणधीर योधा भीर्य न धारे हैं। भय से कम्पायमान होयकर दूर भागे हैं अर जाका लक्ष्मण छोटा भाई लभीका निवाल शत्रुपक्षके क्षय करनेको समर्थ जाके देखते ही शत्रु दूर भाग जावें । बहुत कहिवे कर कहा ? मेरा पति राम लक्ष्मण सहित समुद्र तरकर शीघ्र ही आवै हैं सो युद्ध में थोड़े ही दिननिविष तू अपने पतिको मूवा देखेगी। मेरा पाते प्रबल पराकमका धारी है, तू पापी भरतार की आज्ञा रूप दूती होय आई। सो शिताव ही विधवा होयगी पर बहुत रुदन करेगी । ये वचन सीताके मुखतें सुनकर मन्दोदरी राजा मयकी पुत्री अति क्रोधको प्राप्त भई । अठारा हजार राणी हाथोंकर मारवेको उद्यमी मई और अति कर वचन कहती सीता पर आई तब इभान बीच प्रानकर तिनको थांभी जैसे पहाड नदीके प्रहको थाने । ते सब सीताको दुखका कारण वेदना रूप होय हनिवेको उद्यमी भई थीं सो हमानने वैद्यरूप हो । निवारी तब ये सन मन्दोदरी आदि रावण की रणी मान भंग हो रावण पैग कर है चित्त जिनके, तिनको गए हीछे हनूमान सीतासे नमस्कार कर आहारके निमित्त विनती करता भया-हे देवि ! यह सागरांत पृथिवी श्रीरामचन्द्रकी है ताते यहांका अन्न उनही Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरेपनवा पर्व का है, वैरियोंका न जानो। या भांति हनूमानने सम्बोधी और प्रतिज्ञा भी यही हुनी कि जो पतिके समाचार सुन तब भोजन करू सो समाचार आए ही तब सीता सब आचारमें विचषण महा साध्वी शीलबंनी दयावंती देशकाल की जाननेसारी आहार लेना अंगीकार करती मई। तब हनुमानने एक ईरा नामली स्त्री कुल रालिकाको आज्ञा करी जो शीघ्र ही श्रेष्ठ अन्न लायो अर हनूमान विभाषणके पास गया ताहीके भोजन किया और तासे कही सीताको भोजनकी तैयारी कराय आया हूँ और ईरा जहां डेरे हुते वहां गई सो चार मुहूर्त में सर्व सामिग्री लेकर आई दर्पण समान पृथिवीको चन्दनसे लीपा और महा सुगन्ध विस्तीर्ण निर्मल सामिग्री और सुवर्णादिकके भाजनमें भोजन थराय लाई । कैयक पात्र घृतके भरे हैं, कैयक चावलोंसे भरे हैं चावल कदके पुष्प समान उज्ज्वल और कैयक पात्र दालसे भरे हैं और अनेक रस नाना प्रकारके व्यंजन दूध दही महा स्वादरूप भांति भांतिका आहार सो सीता बहुत किया। संयुक्त रसोई कर ईरा आदि समीपवर्तियोंको यहां ही न्योते। हनुमानसे भाईका भाव कर प्रति वात्सल्य किया । महाश्रद्धासंयुक्त है अंकरण जाका ऐसी सीता महा पतिव्रता भगवानको नमस्कार कर अपना नियम समाप्त कर त्रिविध पात्रोंके भोजन करावनेका अभिलाषकर महा सुन्दर श्रीराम ति को हृदय में थार, पवित्र है अंग जाका, दिनमें शुद्ध आहार करती भई । सूर्य का उद्योत होय तब ही पवित्र मनोहर पुण्यका वढावनहारा आहार करना योग्य है रात्रिको नाही, सीता भोजन कर चुकी और कछु एक विश्राम को प्राप्त भई तब हनुमानने नमस्कार कर विनती करी-हे पतिव्रते ! हे पवित्र, हे गुणभूषणे, मेरे कांधे चढो और समुद्र उलंघ क्षण मात्रमें रामके निकट ले जाऊ । तिहारे ध्यानमें तत्पर महा विभव संयुक्त जे राम तिनको शीघ्र ही देखो तिहारे मिलाप कर सबहीको आनन्द होय तब सीता रुदन करती कहती भई-हे भाई, पतिकी आशा विना मेरा गमन योग्य नहीं, जो पूछी कि तू विना बुलाये क्यों आई तो मैं कहा उसर दंगी तातें रावणने उपद्रव तो सुना होयगा सो अब तुम जावो तोहि यहां विल । उचित नाहीं। मेरे प्राणनाथ के समीप जाय मेरी तरफसे हाथ जोड नमस्कार कर मेरे मुखके वचन या भांति कहियो-हे देव एक दिन मोपहित आपने चारण मुनिकी वंदना करी, तहा स्तुति करी पर निर्मल जलकी भरी सरोवरी कमलों कर शोभित जहां जलक्रीडा करी ता समय महा भयंकर वनका हाथी अाया सो वह महा प्रवल आपने क्षणमात्रमें वश कर सुन्दर क्रीडा करी । हाथी गवरहित निश्चल किया अर एक दिन नन्दन वन समान वनमें मैं वृक्षकी शाखाको नवाती क्रीडा करती हती सो भ्रमर मेरे शरीरको आय लगे सो आपने भति शीघ्रता कर मुझे भुजासे उठाय लई अर आकुलता रहित करी और एक दिन सूर्य उद्योत समयमें आपके समीप सरोवरके तट तिष्ठती थी तब आप शिक्षा-देयवेके काज कछू एक मिसकर कोमल कमल नालकी मेरे मधुरसी दीमी अर एक दिन पर्वतपर अनेक जातिके वृक्ष देख मैं आपको पूछी-हे प्रभो, यह कौन जातिक वृक्ष हैं महा मनोहर । तब आप प्रसन्न मुखकर कही-हे देवि, ये नंदनी वृक्ष हैं अर एक दिन कर. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन-वाण णकुण्डल नामा नदीके तीर आप विराजे हुने पर मैं हु हुनी ता मध्याह्न समय चारण मुनि आए सो तुम उठकर महा भक्तिकर मुनिको आहार दिया तहां पंचाश्चर्य भए-रत्नवर्षा, कल्प वृक्षोंके पुष्पोंकी वर्षा, सुगन्ध जलकी वर्षा, शीतल मंद सुगन्ध पवन दुन्दुभी वाजे अर आकाशमें देवोंने यह ध्वनि करी थन्य ये पात्र, धन्य दान, ये सब रहस्यकी बात कही अर चूडामणि सिरसे उतार दिया जो याके दिखानेसे उनको विश्वास आवेगा पर यह कहियो-मैं जान हूं आपकी कृपा मापै अत्यंत है तथापि तुम अपने प्राण यन्नसे राखि यो तिहारसे मेरा वियोग भया अब तिहारे यत्नसे मिलाप होयगा ऐसा कह सीता रुदन करती भई तब हनूमानने थीर्य बंधाया अर कही हे माता, जो तुम आज्ञा करोगी सो ही होयगा और शीघ्र ही मिलाप होयगा यह कह हनुमान सीतासे विदा भया अर सीताने पतिकी मुद्रिका अंगुरीमें पहिर ऐसा सुख माना मानों पतिका समागम भया। ... अथानन्तर वनकी नरी हनुमानको देखकर आश्चर्य को प्राप्त भई अर परस्पर ऐसी बात करती भई--यह कोई साक्षात् कामदेव है अथवा देव है सो वनकी शोभा देख्वेको आया है तिनमें कोई एक काम कर व्याकुल होय वीन वजावती भी, किन्नरी देवियोंकैसे हैं स्वर जिनके, कोई यक चन्द्रवदनी वामे हस्तविणे दपंण राख कर याका प्रतिविम्ब णमें दखती भई, देख कर मासक्त मन भई । या मांति समस्त स्त्रियोंको संभ्रम उपजाय हार माला सुन्दर वस्त्र धरे देदीप्यमान अग्निकुमार देववत् सोहता भया। . इ.के वनविणे आवनेली वार्ता रावण ने सुनी तब क्रोधरूप होय रावण ने महानिर्दयी किंकर युद्धविणे जे प्रवीण हुते ते पठाए अर तिनको यह श्राज्ञा करी कि मेरी क्रीडाका जो पुष्पोद्यान तहां मेरा कोई एक द्रोही आया है सो अवश्य मार डारियो । तब ये जायकर वनके रक्षकोंको कहते भए-हे वनके रक्षक हो ! तुम कहा प्रमादरूप होय रहे हो, कोई उद्यानविणै दुष्ट विद्याथर आया है सो शीघ्र ही मरना अथवा पकडना । वह महा अविनयी है, वह कौन है, कहां है ? ऐसे किंकरोंके मुखसे ध्वनि निकसी सो हनूमानने सुनी अर धनुषके धरणहारे शक्तिके धरण हारे गदाके धारणहारे खड्ग बरछीके घरगाहारे अनेक लोग आयते हनूमानने देखे तब पवनका पूत सिंहते भी अधिक है पराक्रम जाका मुकुटविणै रत्न जडित बानरका चिह्न ताकर प्रकाश किण है श्रा. काश जाने आप उनको अपनारूप दिखाग गते सूर्य समान धरूप होंठ डमता लाल नेत्र । तब थाके भयसे सब किंकर भागे तब और क्रूर सुभट आए शक्ति तोमर खड्ग चक्र गदा धनुष इत्यादि प्रायुथ करमें धरै अर अनेक शस्त्र चलावते आए रब अंजनीका पुत्र शम्बरहित हुता सो वनके जे वृक्ष ऊंचे २ थे उनके गमूड उपाड़े अर पर्वतोंकी शिला उपाडी सो रावणके सभटों पर अपनी भुजानिकर वृक्ष अर शिला चलाई मानों काल ही है सो बहुत सामंत मारे । कैसी हैं हनुमानकी भुजा महाभयंकर जो सर्प ताके फण समान है आकार जिनका, शाल वृक्ष पीपल बड चम्पा नीव अशोक कदम्ब कुन्द नाग अर्जुन धव आम्र लोथ कटहल बडे २ वृक्ष उपाड २ भनेक योधा मारे कैयक शिलावोंसे मारे कैयक मुक्कों अर लातोंसे पीस डारे, समुद्र समान Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरेपनगां पर्व ३७८ रावण के सुमटोंकी सेना क्षणमात्र में वखेर डारी कैयक मारे कैयक भागे । हे श्रेणिक ! मृगनिके जीतवेको मृगराजका कौन सहाई होय श्रर शरीर बलहीन होय तो घनकी सहायकर कहा १ ता वनके सबही भवन पर वापिका र विमान सारिखे उत्तम मंदिर सब चूर डारे केवल भूमि रहि गई । बनके मन्दिर र वृक्ष विध्वंस किये सो मार्ग होय गया जैसे समुद्र सूक जाय अर मार्ग होय जाय । फोरि डारी हैं होठों की पंक्ति र मारे हैं श्रनेक किंकर सो बाजार ऐसा होय गया मानों संग्रामकी भूमि है, उतंग जे तोरण सो पडे हैं अर ध्वजावों की पंक्ति पडी सो आकाशसे मानों इन्द्रधनुष पडा है पर अपनी जंघा ते अनेक वर्ण रत्नोंके महिलढाहे सो अनेक वर्ण के रहनों की रजकर मानों आकाशमें हजारों इन्द्र धनुष चढे हैं अर पायनकी लातनसे पर्वत समान ऊंचे घर फोर डारे तिनका भयानक शब्द होता भया र कैक तो हाथोंसे मारे पर कईएक पगोंसे मारे घर छाती से वर कांधे से, या भांति रावणके हजारों सुभट मारे सो नगरविषै हाहाकार भया र रत्नोंके महिल गिर पडे, तिनका शब्द भया घर हाथिनिके थंभ उपार डारे र घोडे पवन मंडल पानोंकी न्याई उडे उडे फिरे हैं घर वापी फोर डारी सो कीचड रह गया समस्त लंका व्याकुल भई, मानों चाक चढाई है। लंका रूप सरोवर राक्षसरूप मीनोंसे भरा सो हनूमनरूप हाथीने गाह डारा, तब मेघवाहन वक्तर पहिर बडी फौज लेय आया थर ताके पीछे ही इंद्रजीत आया सो हनुमान उनसे युद्ध करने लगा । लंकाकी बाह्यभूमिविषै महायुद्ध भया जैसा खरदूषणके अर लक्ष्मणके युद्ध भया हुता अर हनूमान चार घोडोंके रथपर चढ धनुषवाण लेय राक्षसों की सेना पर दौडे । इन्द्र बहुत युद्धकर हनूमान को नागफांससे परडा अर नगर में ले या सोया श्रायवेसे पहिलेही रावण के निकट हनुमानकी पुकार हो रही थी, अनेक लोग नानाप्रकार कर पुकार कर रहे हुते कि सुग्रीवका बुलाया यह अपने नगरतें किहकंधापुर आया रामसों मिला और तहांते या ओर आया सो महेन्द्रको जीता र साधुत्रों के उपसर्ग निवारे, दधिमुखकी कन्या रामपै पठाई र बज्रमई कोट विध्वंसा, बज्रमुखको मारा घर तकी पुत्री कासुन्दरी अभिलाषवन्ती भई सो परनी अर ता संग रमा पर पुष्पनामा वन विध्वंसा अर बनपालक दिल करे घर बहुत सुभट मारे घर घटरूप जे स्तन तिनकर सीध सींच मालियों की स्त्रियोंने पुत्रों की नाई जे वृक्ष बढ़ाये हु ते उपार डारे र वृक्षोंसे बेल दूर करीं सो विधवा स्त्रियों की नाई भूमि विधै पडी तिनके पल्लव सूक गए अर फल फूल से नम्रीभूत नानाप्रकार के वृक्ष मसानकेसे वृक्ष कर डारे सो यह अपराध सुन रावणको अतिकोप भया हुता इतनेमें इन्द्रजीत हनुमानको लेकर श्राया सो रावणने याको लोहकी सांकलनि कर बंधाया घर कहता मया यह पापी निर्लज्ज दुराचारी है अब याके देखवेकर कहा ? यह नाना अपराध का करणहारा ऐसे दुष्टको क्यो न मारिये तब सभा के लोक सत्र ही माथा घुनकर कहते भए - हे हनुमान ! जाके प्रसादतें पृथिवीमें तू प्रभुताको प्राप्त भया ऐसे स्वामीके प्रतिकूल होय भूमिगोचरीका दूत भया रावणकी ऐवी कृपा पीठ पीछे डार दई ऐसे स्वामीको तज जे भिखारी निर्धन पृथिवीमें भ्रमते Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० पद्म पुराण फिरें ते दोनों वीर तिनका तू सेवक भया अर रावणने कहा कि तू पवनका पुत्र नाहीं काहू और कर उपजा है | तेरी चेष्टा अकुलीनकी प्रत्यक्ष दीखे है जे जारजात हैं तिनके चिह्न अंग में नाही दीखे जब अनाचारको ' चरै तब जानिए यह जारजात है, कहा केशरी सिंहका बालक स्यालका श्राश्रय करे, नीचका आश्रयकर कुलवन्त पुरुष न जीवें अब तू राजद्वारका द्रोही है, निग्रह करवे योग्य है तब हनूमान यह वचन सुन हंसा अर कहता भयान जानिए कौनका निग्रह होय । या दुर्बुद्धिकर तेरी मृत्यु नजीक आई है कैवक दिनमें दृष्टि परेगी । लक्ष्मण सहित श्रीराम बडी सेना से आवे हैं सो किसीसे रोके न जांय जैसे पर्वत से मेघ न रुकै श्रर जैसे कोऊ नानाप्रकारके अमृत समान आहार कर तृप्त न भया श्रर विषकी एक बूंद भखें नाशको प्राप्त होय तैसे हजारों स्त्रीन कर सू तृप्तायमान न होय अर परस्त्री की तृष्णाकर नाशको प्राप्त होयगा । जो शुभ र अशुभकर मेरी, बुद्धि होनहार माफिक होय सो इन्द्रादि कर भी अन्यथा न होय, दुर्बुद्विविधै सैकडों प्रिय न कर उपदेश दीजिए तोहू न लगें, जैसा भवितव्य होय सोही होय । विनाशकाल आवे तत्र बुद्धिका नाश होय, जैसे कोऊ प्रमादी विषका भरा सुगंध मधुर जल पीवै तो मरणकोपाचे तैसेहे रावण ! तू परस्त्रीका लोलुपी नाशको प्राप्त होयगा । तू गुरु परिजन वृद्ध मित्र प्रिय बांधव मंत्री सबनिके वचन उलंघकर पापकर्म प्रवृत्ता है सो दुराचाररूप समुद्रविषै कामरूप भ्रमर के मध्य आय नरक के दुःख भोगेगा । हे रावण ! तू रत्नश्रवा राजाके कुलक्षय कारण नीच पुत्र भया, तोकर राक्षस वंशिनिका क्षय होयगा आगे तेरे वंशमें बडे २ मर्यादाके पालनहारे पृथिवीविषै पूज्य स्वर्ग मुक्ति के गमन करणहारे भए अर तू उनके कुलविषै पुल्लाक कहिए न्यून पुरुष भया दुर्बुद्विमित्र को कहना निरर्थक है, जब हनूमानने यह वचन कहे तब रावण क्रोधकर आरक्त होम दुर्ख वन कहता भया - यह पापी मृत्युसे नाहीं डरै है, वाचाल है तातें शीघ्र ही याके हाथ पांव ग्रीवा सांकलोंसे बांध कर पर कुवचन कहते ग्राममें फेरो, क्रूर किंकर लार पर घर घर यह वचन कहो –— भूमिगोचरियोंका दूत आया है याहि देखहु अर स्वान बालक लार सो नगरकी लुगाई धिक्कार देवें और बालक धूल उडावें और स्वान भौंके, सव नगरीविषै या भांति इसे फेरो दुःख देवो । --- तब वे रावणकी आज्ञा प्रमाण कुवचन बोलते ले निकसे सो यह बन्धन तुडाय ऊंचा चल्या जैसे यति मोहफांस तोड मोचपुरीको जाय, आकाशतें उछल अपने पगोंकी लातोंकर लंका का बडा द्वार ढाया तथा और एक छोटे दरवाजे ढाहे इन्द्रके महिल तुल्य रावणके महिल इनूमानके चरणोंके घातसे विखर गए जिनके वडे बडे स्तम्भ हुते पर महल के आस पास रत्न सुवर्णका कोट हुता सो चूर डारा जैसे वज्रपातके मारे पर्वत चूर्ण होजांय तैसे रावणके घर हनूमानरूप वञ्चके मारे चूर्ण होय गए । यह हनूमानके पराक्रम सुन सीताने प्रमोद किया अरे हनूमानको बंधा सुन विषाद किया हुता तब वज्रोदरी पास बैठी हुती ताने कहा – हे देवि ! वृथा काहेको रुदन करे यह सांकल तुडाय आकाश में चला जाय है सो देख | तब सीता अति प्रसन्न भई अर चिचमें चितवती भई यह हनूमान मेरे समाचार पतिपै जाय कहेगा सो आसीस Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चौवनमा पर्ण देती भई पर पुष्पांजलि नाखती भई कि तू कल्याणसे पहुंचियो समस्त ग्रह तुझे सुखदाई हों तेरे विघ्न सकल नाशको प्राप्त होंय तू चिरंजीव हो या भांति परोक्ष असीस देती भई । जे पुण्याधिकारी हनुमान सारिखे पुरुष हैं वे अद्भुत आश्चर्यको उपजाये हैं। कैसे हैं वे पुरुष ? जिन्होंने पूर्व जन्ममें उत्कृष्ट तप व्रत आचरे हैं अर सकल भुवनमें विस्तारे है ऐसी कीर्तिके धारक हैं अर जो काम किसीसे न बने सो करवे समर्थ हैं अर चितवनमें न आवे ऐसा जो आश्चर्य उसे उपजावे हैं इसलिये सर्व तजकर जे पंडित जन हैं वे धर्मको भजो अर जे नीचकर्म हैं वे खोटे फलके दाता हैं इसलिये अशुभकर्म तजो और परम सुखका श्रास्वाद तामें श्रासक्त जे प्राणी सुन्दर लीलाके थारक बे सूर्याके तेजको जीतें ऐसे होय हैं। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचितमहापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविर्षे हनुमानका लंकासों पाछा आवनेका वर्णन करनेबाला तिरेपनवां पर्व पूर्ण भया ।। ५३ ।। अथानन्तर हनुमान अपने कटकमें श्राय किहकन्यापुरको श्राया लंकापुरीमें विघ्नकर आया ध्वजा छत्रादि नगरीकी मनोग्यता हर आया किहकन्धापुरके लोग हनूमानको आया जान बाहिर निकसे नगरमें उत्साह भया यह धीर उदार है पाक्रम जाका नगरमें प्रवेश करता भया सो नगरके नर नारियों को याके देखवेका अतिसंभ्रम भया, अपना जहां निवास तहां जाय सेनाके यथा योग्य डेरे कराए, राजा सुग्रीवने सब वृत्तां। पूछा, सो ताहि कहा बहरि रामके समीप गए । राम यह नितवन कर रहे हैं कि हनुमान आया है सो यह कहेगा कि तिहरी प्रिया सुखसे जीवे है. हनुमानने ताही समय आय रामको देखा, महाक्षीण वियोगरूप अग्निसे सप्लायमान जैसे हाथी दावानल कर व्याकुल होय महाशोकरूप गर्तमे पडे तिनको नमस्कारकर हाथ जोड हर्षित बदन होय सीताकी वार्ता कहता भया, जेते रहस्यके समाचार कहे हुते ते सब वरणन किये और सिरका चूडामणि सौंप निश्चित भया । चिन्ता कर वदनकी और ही छाया हो रही है, आसू पडे हैं, सो राम याहि देखकर रुदन करने लग गए अर उठकर मिले श्रीराम यौं पूछे है-हे हनुमान ! सत्य कहो, मेरी स्त्री जीव है ? तब हनुमान नमस्कार कर कहता भया हे नाथ ! जीवे है भापका ध्यान करे है । हे पृथिवीपते ! श्राप सुखी होवो, आपके विरहकर वह सत्यवती निरंतर रुदन करे है, नेत्रनिके जलकर चतुरमास कर राखा है, गुणके समूहकी नदी सीता ताके केश विखर रहे हैं, अत्यन्त दुखी है और बारम्बार निश्याम नाखती चिंताके सागरमें डूब रही है । स्वभावहीसे दुर्बल शरीर है पर अब विशेष दुर्बल होय गई है। रावणकी स्त्री आराधै हैं परंतु उनसे संभाषण करे नाहीं । निरंतर तिहारा ही ध्यान कर है। शरीरका संस्कार सब तज बैठी है। हे देव! तिहारी राणी बहुत दुःखसे जीवे है । अब तुमको जो करना होय सो करो। ये हनुमानके वचन सुन श्रीर!म चिंतावान भए मुखकमल कुमलाय गया । दीर्घ निश्वास नाखते भए अर अपने जीतव्यको अनेक प्रकार निदते भए । तब लक्ष्मणने धीर्य बंधाया हे महाबुद्धि ! कहा सोच करो हो ? कर्तव्यविष मन धरो अर लक्ष्मण सुग्रीवसे कहता भया-हे Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण किहधाधिपते ! तू दीर्घसूत्री हैं। अब सीताके भाई भामंडलको शीघ्र ही बुलावहु रावण की नगरी हमको अवश्य ही जाना है, कै तो जहाजनि कर समुद्र तिरें अथवा भुजानितें । ये बात सुन सिंहनाद नामा विद्याथर बोला- आप चतुर महाप्रवीण होयकर ऐसी बात मत कहो पर हम तो आपके संग हैं परंतु ऐसा करना जाविषै सबका हित होय । हनूमानने जाय लंका के वन विध्वंसेर लंकाविषै उपद्रव किया सो रावणको क्रोध भया है सो हमारी तो मृत्यु श्रई है। तब जामवंत बोला तू नाहर होयकर मृगकी न्याई कहा कायर होय है अब रावण हू भयरूप है और ३८२ अन्यायमार्गी है की मृत्यु निकट आई है अर अपनी सेनामें भी बडे बडे पोथा विद्याथर महारथी हैं, विद्या विभवकर पूर्ण हैं हजारों आश्चर्यके कार्य जिन्होने किये हैं तिनके नाम धनगति, एकभूत, गजस्वन, क्रूरकेलि, किलभीम, कुंड, गोरवि, अंगद, नल, नील, तडिद्वक मंदर, अर्शनी, अय, चन्द्रज्योति मृगेंद्र, बज्रदृष्टि दिवाकर और उल्काविद्या लांगूलविद्या दिव्यशस्त्र विषै प्रवीण जिनके पुरुषार्थ में विघ्न नाहीं ऐसे हनूमान महाविद्यावान घर भामण्डल विद्याधरोका ईश्वर महेंद्रकेतु अति उग्र है पराक्रम जाका प्रसन्नकीर्ति उपवति अर ताके पुत्र महा बलवान तथा राजा सुग्रीव के अनेक समन्त महा बलवान हैं परम तेजके धारक बरते हैं, अनेक कार्य के करणहारे, श्राज्ञाके पालनहारे ये वचन सुनकर विद्याधर लक्ष्मसकी ओर देखते भए र श्रीरामको देखा सो सोम्यतारहित महा विकरालरूप देखा और भृकुटि चढा महा भयंकर मानो कालके धनुष ही हैं, श्रीराम लक्ष्मण लंकाकी दिशा क्रोधके भरे लाल नेत्रकर चौंके मानों राक्षसों के क्षर करनेके कारण ही हैं बहुरि वही दृष्टी अनुपकी और परी, अर दोनो भाइयोंका मुख मा क्रोधरूप हो गया, कोपकर मंडित भए शिरके केश ढीले होय गए मानों कमलके स्वरूप ही हैं जगत को ताममरूप समकर व्याप्त किया चाहे हैं ऐसा दोऊनिका मुख ज्योतिके मंडल मध्य देख सब विद्याधर गमनको उद्यमी भए संभ्रमरूप है चित जिनका । राघant अभिप्राय जानकर सुग्रीव हनुमानादि सर्व नाना प्रकार के आयुध अर संपदा कर मंडित चलनेको उद्यमी भए । राम लक्ष्मण दोनों भाइयोंके प्रयाण होनेके वादित्रनिके समूहके नादकर पूरित हैं दशदिशा, सो मार्गसिरवदी पंचमीके दिन सूर्यके उदय समय महा उत्साह सहित भले २ शकुन भए सा समय प्रयाण करते भए । कहा कहा शकुन भए कहिए हैं— निघू म अग्निकी ज्याला दक्षिणावर्त देखी अर मनोहर शब्द करते मोर पर वस्त्राभूषण कर संयुक्त सौभाग्यवती नारी सुगन्ध पवन निग्रंथ मुनि छत्र तुरंगों का गम्भीर हींसना घंटाका शब्द दहीका भरा कलश काग पांख फैलाये मधुर शब्द करता, भेरी और शंखका शब्द र विहारी जय होवे सिद्धि होवे नन्दो बधो ऐसे वचन इत्यादि शुभ शकुन भए । राजा सुग्रीव श्री रामके साथ चलनेको उद्यमी भए । सुग्रीवके ठौर २ सुविद्याधरोंके समूह आए । कैसा है सुग्रीव १ शुक्लपचके चन्द्रमा समान है प्रकाश जाका, नाना प्रकारके विमान नाना प्रकारकी 5 जा नाना प्रकारके बाइन नाना प्रकार के आयुध उन सहित बडे बडे विद्याधर आकाशविषै जाते शोभते भए । राजा सुग्रीव हनूमान शन्य दुर्मर्षण नल नील काल सुपेण कुमुद इत्यादि अनेक राजा श्रीरामके लार भए Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ starai पर्व तिनके ध्वजावर देदीप्यमान रत्नमई बानरोंके चिह्न मानों आकाशके ग्रमवेको प्रवरते हैं और विराधितकी ध्वजापर नाहरका चिह्न नीझरने समान देदीप्यमान अर जांबुडी ध्वजापर वृक्ष और सिंहranी ध्वजा मेंव्याघ्र और मेवकांतकी अजामें हाथीका चिह्न इत्यादि राजावोंकी ध्वजामें नाना प्रकार के चिह्न । इनमें भूतनाद महा तेजस्वी लोकपाल समान सो फौजका अग्रसर भया अर लोकपाल समान हनुमान भूतनादके पीछे सामन्तोंके चक्र सहित परम तेजको धरे लंका पर चढ़े सो अति हर्षके भरे शोभते भए जैसे पूर्व रावण के बडे सुकेशीके पुत्र माली लंकापर चढ़े हुते भर अमल किया हुता तैसे श्रीरामके सन्मुख विरायित बैठा और पीछे जामवंत बैठा वाई भुजा सुषेण बैठा दाहिनी भुजा सुग्रीव बैठा सो एक निमिषमें बेलंधरपुर पहुंचे । तहाँका समुद्र नामा राजा सो उसके अर नलके परम युद्ध भया सो समुद्र के बहुत लोक मारे गये पर नलने समुद्र को बांधा बहुरि श्रीगमसे मिलाया थर तहां ही डेरा भए । श्रीरामने समुद्र पर कृपा करी - ताका राज्य वाको दिया सो राजाने अति हर्षित होय अपनी कन्या सत्यश्री कमला गुणमाला रत्नचूडा स्त्रियोंके गुणकर मण्डित दे रंगना समान सो लक्ष्मणसे परणःई तहां एक रात्री रहे बहुरि यहां प्रयास कर सुवेल पर्वत पर सुवेल नगर गये वहां राजा सुबेल नाम विद्याथर ताको संग्राममें जीत रामके अनुचर विद्याधर क्रीडा करते भए जैसे नन्दनवनमें देव क्रीडा करें तहां अक्षय नाम वनमें आनन्द से रात्रि पूरा करो बहुरि प्रयाण कर लंका जायवे को उद्य ॥ भये । कैसी है लंका १ ऊंचे कोटसे युक्त सुवर्णके मंदिरोकर पूर्ण कैलाशके शिखर समान हैं आकार जिनके अर नाना प्रकार के रत्नोंके उद्योत कर प्रकाश रूप अर कमलोंके जे वन तिनसे युक्त वापी कूप सरोवरादिक कर शोभित नाना प्रकार रत्नोके ऊंचे जे चैत्यालय तिनकर मण्डित हा पवित्र इन्द्रकी नगरी समान । ऐसी लंकाको दूरसे देखकर समस्त विद्यावर रमके अनुचर आश्चर्य को प्राप्त भए अर हंसद्वीपमें डेरे किये तहां हंसपुर नगरका राजा इंनरथ ताहि युद्ध में जीत हंसपुरमें क्रीडा करते भए । तहाँ मानण्डल पर बहुरि दूत भेजा और मामण्डल के आववेकी बांछा कर तहां निवास किया जा जा देशमें पुण्याधिकारो गमन बरें तहां तहां शत्रुनिको जीत महा भोग उपभोगके भजैं । इन पुण्याधिकारी उद्यमन्तोंसे कोई परे नाहीं है, सब आज्ञाकारी हैं जो जो उनके मनमें अभिलाषा होय सो इनकी मूठी में है तातें सर्व उपाय कर लो - क्यमें सार ऐसा जो जिनराजका धर्म सो प्रशंसा योग्य है। जो कोई जगजीत भया चाहे वह जिनधर्म को आराधहु ये भोग क्षण भंगुर हैं इनकी कहा बात ? यह वीतरागका धर्म निर्वाण देने हारा हूँ और कोई जन्म लेय तो इंद्र चक्रवर्त्यादिक पदका देनहारा है ता धर्मके प्रभावतैं ये भव्य जीव सूर्यसे अधिक प्रकाशको धरे हैं ॥ I इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा वचनिकावि राम लक्ष्मणका लंका गमन करनेवाला चौवनशां पर्व पूर्ण भया ॥ ५४ ॥ 19001 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ पद्म पुराण अथानन्तर रामका कटक समीप याया जान प्रलयकाल के तरंग समान लंका क्षोभको प्राप्त भई अर रावण कोररूप भगा पर सामन्त लोक रण कथा करते भये जैसे समुद्रका शब्द होय तैसे वादित्रों के नाद भए अर सर्व दिशा शब्दायमान भई अर रणभेराके नादसे सुभट महा हर्षको प्राप्त भए सब साजबाज सज स्वामीके हित स्वामी के निकट पाए तिनके नाम मारीच, अमल चन्द्र, भास्कर, सिंहप्रभ, हस्त. प्रहस्त इत्यादि. अनेक योधा आयुधोंसे पूर्ण स्वामीके निकट पाए । .' अथानन्तर लापति महा योधा संग्रामके निमित्त उद्यमी भया तब विभीषण रावण आए प्रणाम कर शात्र मार्गके अनुसार अति प्रशंसा योग्य सबको सखदाई आगामी कालमें कल्याण रूप वर्तम न कल्याणरूप ऐसे व वन विभीषण राणसे कहता भया ? कैसा है विभीपण ? शास्त्र में प्रवीण महा चतुर नय प्रमाणका वेत्ता भाई को शान्त वचन कहता भया- -हे प्रभो ! तिहारी कीर्ति कुन्दके पुष्प समान उज्वल महाविस्तीर्ण महा श्रेष्ठ इन्द्र समान पृथिवीपर विस्तर रही है सा परस्त्रीके निमित्त यह कीर्ति क्षण मात्रमें क्षय होयगी जैसे सांझके बादल की रेखा । तात हे स्वामी, हे परमसर, इम पर प्रसन्न होवो शीघ्र ही सीताको रामके पास पठायो, यामें दोष नाही, केवल गुण ही है । सुखरूप समुद्र में आप निश्चय तिष्ठो । हे विचक्षण ! जे न्याय रूप महा भोग हैं वे सब तिहारे स्वाधीन है अर श्रीराम यहां आए हैं सो बडे पुरुष हैं, तिहारा तुल्य हैं सो ज नकी तिन को पठाय देवो । सर्व प्रकार अपनी वस्तु ही प्रशंसा योग्य है परवस्तु प्रशंसा योग्य नाहीं । यह वचन विषणके सुन इन्द्रजीत रावणका पुत्र पिताके वित्त की वृत्ति बान विभीषण को कहा भया अत्यंत मानका भरा अर जिनशासनसे विमुख है। साधो ! तुमको कौनने पूछा अर कौनने अधिकार दिया जाकर या भांति उन्मचकी न्याई वचन कहो हो तुम अत्यंत कायर हो अर दीन लोकनकी नाई युद्धसे डरो हो तो अपने घरके विवरमें बैठो, कह ऐसी बातन कर, ऐसा दुर्लभ स्त्रीरत्न पायकर मूढोंकी नाई कौन तजे ? तुम काहेको वृथा वचन कहो, जा स्त्री अर्थ सुभट पुरुष संग्राममें तीक्ष्ण खड्गको थारा कर महा शत्रुनिको जीत कर वीर लक्ष्मी भुजानि कर उपार्जे हैं तिनके कायरता कहा ? कैसा है संग्राम मानो हाथिनके समूहसे जहां अंधकार होय रहा है अर नाना प्रकारके शस्त्रनिके समूह चले हैं जहां अति भयानक है । यह वचन इन्द्रजीतके सुनकर इंद्रजीतको तिरस्कार करता संता विभीषण बोला-रे पापी ! अन्यायमार्गी वहा तू पुत्र नामा शत्रु है ? तोकू शीत वायु उपजी है, अपना हित नहीं जाने है, शीत वायुकी पीडा अर उपाय छांड शीतल जलमें प्रवेश करतो अपने प्राण खोवे अर घरमें आग लागे अर ता अग्निमें सूके इंधन डारे तो कुशल कहांसे होय ? अहो मोहरूप ग्रहकर तू पीडित है, तेरी चेष्टा विपरीत है, यह स्वर्णमई लंका जहां देव विमान समान घर, लक्ष्मणके तीक्ष्ण वाणोंसे चूर्ण न होय जांय, ता पहिले जनकसुता पतिवनाको रामपै पठाय देह. मर्व लोकके कल्याण के अर्थ शीघ्र ही सीताको पठाना योग्य है तेरे वाप कुबुद्धिने यह सीता नाहीं बानी है रावसरूप सोका विल यह जो लंका तामैं विषनाशक जडी आनी है सुमित्राका Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचपनवा पर्न ३८५ पुत्र लक्ष्मण सोई भया क्रोधायमान सिंह, ताहि तुम गज समान निवारवे ममर्थ नाही, जाक हाथ सागरावर्त धनुप अर आदित्यमुख अमोषवाण अर जिनके भामण्डलमा सहाई सो लोकों से कैसे जीता जाय अर बडे बडे विद्याधरनिके अधिपति जिनसे जाय मिले, महेंद्र मलय हनूमान सुग्रीव त्रिपुर इत्यादि अनेक राजा और रत्नद्वीपका अधिपति बेलंथरका पति सन्ध्या हरद्वीप हैहयद्वीप आकाशतिलक केलीकिल दधिवक्त्र अर महा वलवान विद्याके विभवसे पूर्ण अनेक विद्याधर आय मिले । या भांतिके कठोर वचन कहता जो विभीषण ता पर महा क्रोधायमान होय खड़ग काढ रावण मारवेको उद्यमी भया । तव विभीषणने भी महाक्रोधके वश होय रावणसे युद्ध करनेको वज्रमई स्तम्भ उपाडा । ये दोनो भाई उग्रतेनके धारक युद्धको उद्यमी भए सो मंत्रियोंने समझाय मने किए। विभीषण अपने घर गया, रावण महल गया। बहुरि रावणने कुम्भकर्ण इन्द्रजीतको कठोरचित्त होय कहा जो यह विभीषण मेरे अहि. तमें तत्पर है अर दुरात्मा है वाहि मेरी नगरीसे निकासो या अनर्थीके रहिवेसे क्या ? मेरा अंग ही मोसे प्रतिकल होय तो मोहि न रुचे जो यह लंकाविषै रहै पर मैं याहि न मारूतो मेरा जीवना नाही, ऐसी वार्ता विभीषण सुनकर कही-मैं हूं कहा रत्नश्रवाका पुत्र नाही । ऐसा कह लंकातें निकसा । महा सामन्तनि सहित तीस अक्षौहिणीदल लेयकर रामपै चाल्या ( तीस अक्षीहमी केतक भए ताका वर्णन ) छहलाख छप्पनहजार एकसी हाथी अर एते ही रथ पर उगणीसलाख अडपठहजार तीन सौ तुरंग अर बत्तीसलाख अस्पीहजार पां सौ पयादा । विपत्पन इन्द्रवज्र इन्द्रप्रचण्ड चाल उद्धत एकप्रशनि संघातकाल महाकाल ये विभीषण सम्बन्धी परम सामन अपने कुटुंब अर सब समुदाय सहिन नानाप्रकार शस्त्रनिकरि मंडित रामकी सेनाकी तरफ चले नाना प्रकारके वाहनोंकर युक्त आकाशको पाच्छादितकर सर्व परिवारसहित विभीषण हंसोप आया सो उम द्वीपके समीप मनोग्यस्थल देख जलके तीर सेनासहित तिष्ठा जैसे नन्दीश्वरद्वाप केविगै देव तिष्ठं । विभीषणको आया सुन वानरवंशियों की सेना कम्पायमान भई जैसे शीतकालविणे दरिद्रो कांपे, लक्ष्मणने सागरावर्त धनुष अर सूर्यहास खड़गकी तरफ दृष्टि धरी अर रामने वज्रावर्त धनुष हाथ लिया अर सब मंत्री भेले होय मंत्र करते भए जैसे सिंहसे गज डरै तैसे विभीषणसे वानरवंशी डरे, ताही समय विभीषणने श्रीरामके निकट विचवण द्वारपाल भेजा सो रामपै प्राय नमस्कार कर मधुर वचन कहता भया-हे देव ! इन दोनों माइ. योविणै जबते रावण सीता लाया तबही से विरोध पडा अर आज सर्वथा विगड गई तातें आपके पायन आया है आपके चरणारविन्दको नमस्कार पूर्वक विनती करें है । कैसा है विभीषण ? धर्म कार्यमें उद्यमी है, यह प्रार्थना करी है कि आप शरणागत प्रतिपाल हो, मैं तिहारा भक्त शरणे आया हूं जो आज्ञा होय सो ही करू आप कृषा करने योग्य हैं। यह द्वारपालके वचन सुन रामने मन्त्रि गोंसे मंत्र किया तब रामसे सुमतिकांत मंत्री कहता भया-कदाचित् रावणने कपटकर भेजा होय तो याका विश्वास कहा ? राजानिकी अनेक चेष्टा है पर Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAN ३६६ पद्म-पुराण कदाचित् कोई बातकर आपसमें कलुप होय बहुरि मिलि जांय, कुल अर जल इनके भिलनेका अचरज नाहीं तब महाबुद्धिवान मतिसमुद्र बोला इनमें विरोध तो भया यह सबसे सुनिए है पर विभीषण महाधर्मात्मा नीतिवान है शास्त्ररूप जलकर धोया है चित्त जाका महादयावान है, दीन लोकनिपर अनुग्रह करे है अर मित्रनिमें दृढ है अर भाईपने की बात कहो सो भाई पनेका कारण नाही, कर्मका उदय जीवनिके जुदा जुदा होय है। इन कर्मनिके प्रभावकर या जगतमें जीवनिकी विचित्रता है। या प्रस्तावविगै एक कथा है सो सुनहु-एक गिरि एक गोभून ये दोऊ भाई ब्राह्मण हुने सो एक राजा सूर्यमेघ हुना ताके राणी मतिक्रिया ताने दोनोंको पुण्यकी वांछाकर भातमें छिपाय सुवर्ण दिया सो गिरि कपट ने भातविणे स्वर्ण जान गोभूतको छलकर मारा । दोनोंका स्वर्ण हर लिया सो लोभसे प्रीतिभंग होय है और भी कथा सुनो-कौशांबो नंगरी विगै एक वृहद्धन नामा गृहस्थी ताके पुरविदा नामा स्त्री ताके पुत्र अहिदेव महीदेव सो इनका पिता मुवा तब ये दोऊ भाई धनके उपारजने निमित्त समुद्र में जहाज में बैठ गए सो सन द्रव्य देश एक रत्न मोल लिया सो वह रत्नको जो भाई हाथमें लेय ताके ये भाव हों कि मैं दूजे भाईको मारू सो परस्पर दोऊ भाईनिके खोटे भाव भए तब घर आय वह रत्न माताको सौंपा सो माताके ये भाव भए कि दोऊ पुत्रनिको विष देय मारूं तब माता अर दोनों भाइयोंने वा रत्नसे विरक्त होय कालिंदी नदीमें डारा सो रत्नको मछली निगल गई सो मछ नीको धीवरने पकरी पर अहिदेव महादेवहीके बेचो सो अहिदेव महादेवकी बहिन मछलीको विदारती हुनी सो रत्न निकसा । याहके ये भाव भए कि माताको और दोऊ भाइयोको मारूतब याने सकल वृत्तात कहा कि या रत्नके योगसे मेरे ऐसे भाव होय हैं जो तुमको मारूतब रत्नको चूर डारा । माता बहिन अर दोऊ भाई संसारके भाव से विरक्त होय जिनदीक्षा धरते भए नाते द्रव्यके लोभकर भाईनिमें भी वैर होय है अर ज्ञानके उदयकर वैर मिट है अर गिरिने तो लोभके उदयसे गोभूत को मारा भर अहिदेवकं वैर मिट गया सो महाबुद्धि विभीषणका दरपाल आया है ताको मधुर वचनकर विभीषणको बुलाओ तब द्वारपालसो स्नेह जताया अर विभीषणको अति आदरसे चलाया। विभीषण रानके समीप आया सी राम विभीषणका अति आदर कर मिले । विभीषण विनती करता भया-हे देव ! हे प्रभो! निश्चयकर मेरे इस जन्मविणे तुम ही प्रभु हो श्रीजिननाथ तो इस जन्म परभवके स्वामी श्रर रघुनाथ या लोकके स्वामी। या भांति प्रतिज्ञा करी तब श्रीराम कहते भए-तुझे निःसंदेह लंकाका धनी करूगा, सेनामें विभीषणके श्रावनेका उत्साह भया। अर ताही समय भामण्डल भी आया। कैसा है भामण्डल ! अनेक विद्या सिद्ध भई हैं जाको । सर्व विजियाका अधिपति जब भामण्डल आया तब राम लक्ष्मण आदि सकल हर्षित भए । भामण्डलका अति सन्मान किया आठ दिन हंसवीपमें रहे बहुरे लंकाको सन्मुख भए। नानाप्रकारके अनेक रथ और पवनसे भी अधिक तेजको धरे बहुत तुरंग और मेवमालासे गरंदों के समूह और अनेक सुभटों सहित श्रीरामने लंकाको पयान किया। समस्त विद्याधर सामन्त Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप्पनवा पर्ष आकाशको आच्छादते हुए रामके संग चाले सबमें अग्रेसर वानरवंशी भए । जहां रणक्षेत्र थापा है तहां गए, संग्रामभूमि बीस योजन चौडी है अर लंबाईका विस्तार विशेष है । वह युद्धभूमि मानों मृत्युकी भूमि है या सेनाके हाथी ग जे अर अश्व हींसे । अर विद्याधरनिके बाहन सिंह हैं तिनके शब्द हुए अर वादित्र बाजे तब सुनकर रावण अति हर्षको प्राप्त भया। मनमें विचारी बहुत दिनों में मेरे रणका उत्साह भया, समस्त सामन्तोंको आज्ञा दई जो युद्धके उद्यमी होवो सो समस्त ही सामंत आज्ञा प्रमाण आनन्दकर युद्धको उद्यमी भए । कैसा है रावण १ युद्धविणे है हर्षे जाको, जाने कबहु सामन्तुनिको अप्रसन्न न किया। सदा प्रसन्न ही राखे सो अब युद्धके समय सबही एक चित्त भए। भास्कर नामा पुर तथा पयोदपुर, कांचनपुर, व्योमपुर, वल्लमपुर, गंधर्वगीतपुर, शिवमंदिर, कंपनपुर, सूर्योदयपुर, अमृतपुर, शोभासिंहपुर, सत्यगीतपुर, लक्ष्मीगसिपुर, किन्भरपुर, बहुनागपुर, महाशैलपुर, चक्रपुर, स्वर्णपुर, सीमंतपुर, मलयानंदपुर, श्रीगृहपुर, श्री मनोहरपुर, रिपुंजयपुर शशिस्थानपुर, मातंडप्रभपुर, विशालपुर, ज्योतिदंडपुर, परिष्योधपुर, अश्वपुर, रत्नपुर इत्यादि अनेक नगरोंके स्वामी बड़े २ विद्याधर मंत्रिनि सहित महा प्रीतिके भरे रावणपै आए मो रावण राजावोंका सम्मान करता भया । जैसे इन्द्र देवोंका कर है। शस्त्रवाहन वक्तर आदि युदकी सामग्री सव राजावों को देता भया । चारहजार अक्षौहणी रावणके होती भई अर दो हजार अचौह गी रामके होती भई सो कौन भोति १ हजार अक्षौहणीदल तो भामण्डलका अर हजार सुग्रवादिका । या भांति सुग्रीव अर भामंडल ये दोऊ मुख्य अपने मंत्रियों सहित तिनलों मंत्र कर राम लक्ष्मण युद्धको उद्यमी भए । नेक वंशके उपजे अनेक आचरणके धरणहारे नाना जातियोंसे युक्त नानाप्रकार गुण क्रियासे प्रसिद्ध नानाप्रकार भाषाके बोलनहारे विद्याथर श्रीराम रावण भेले भए । गोतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं-हे राजन् ! पुण्यके प्रभावकरि मोटे पुरुषोंके बरी भी अपने मित्र होय हैं अर पुण्यहीनोंके चिरकालके सेवक भर अतिविश्वासके भाजन ते भी विनाश कालमें शत्रुरूप होय परणवे हैं। या असार संसारविणे जीवनिकी विचित्रगति जानकर यह चितवन करना कि- मेरे भाई सदा सुखदाई नहीं तथा मित्र बांधव सबही सुखदाई नाहीं कबहु मित्र शत्रु होजाय कबहु शत्रु मित्र होजाय ऐसे विवेकरूप सूर्यके उदयसे उरमें प्रकाशकर बुद्धिवंतों को सदा थर्मही चितवना। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै बिभीषणका रामसू मिलाप अर भामंडलका आगमन वर्णन करनेवाला पचपनवां पर्ण पूर्ण भया ।। ५५॥ अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमस्वामीको पूछता भया-हे प्रभो ! अक्षौहिणीका परिमाण कहो तव गौतमका दूजा नाम इन्द्रभूत है सो इन्द्रभूत कहते भए-हे मगधाधिपति ! अक्षौहिणीका प्रमाण तुझे संक्षेपसे कहे हैं सो सुन--आगममें आठ भेद कहे है ते सुन, प्रथम भेद पत्ति दूजा भेद सेना तीजा भेद सेनामुख चौथा गुन्म पांचमा वाहिनी छठा पृतना सातवां चमू पाठवा मनीकिनी । सो अब इनके यथार्थ भेद सुन । एक रथ एक गज पांच पयादे तीन तुरंग इसका Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण नाम पचि है पर तीन रथ तीन गज पन्द्रह पयादे नव तुरंग याको सेना कहिये अर नव रथ नव गज पेंतालीस पयादा सत्ताईस तुरंग याहि सेनामुख कहिये पर सत्ताईस रथ सत्ताईस गज एकसौ पैंतीस पयादा इक्कामी अस्व इसे गुल्म कहिये अर इक्यासी रथ इक्यासी गज चारसौ पांच पयादे दोलौ तैंतालीस अश्व इसे वाहिनी कहिये अर दोयसै तियालीस रथ दोयसौ तियालीस गज बारामौ पन्द्रह पयादे सातसो उनतीस घोडे याहि पृतिना कहिये अर सावसौ गुणतीस रथ सातसै गुणतीस गज छत्तीसौ पैंतालीस पयादे इक्कीससौ सतासी तुरंग इसे चमू कहिये अर इक्कीससै सतासी रथ इक्कीसस मतासी गज दसहजार नौसै पैंतीस पयादे अर पैंसठसौ इकसठ तुरंग इसे अनीकिनी कहिये । सो पत्तिसे लेय अनीकिनी तक आठ भेद भए । सो यहांलों तो तिगुने बढे अर दश अनीकिनीकी एक अक्षौहिणी होय है ताका वर्णनरथ इक्कीस हजार आठसै सत्तर, अर गज इक्कीस हजार आठसै सचर पियादे एकलाख नौहजार वीनसै पचास अर घोडे पैसठ हजार छसी दस। यह एक अक्षौहिणीका प्रमाण भया । ऐसी चारहजार अक्षौहिणी करि युक्त जो रावण ताहि अति बलवान जानकर भी किहकंधापुरके स्वामी सुग्रीवकी सेना श्रीरामके प्रसादसे निर्भय रावणके सन्मुख होती भई । श्रीरामकी सेना को प्रति निकट आये हुते-सुन नाना पक्षको थरें जो लोक सो परस्पर या भांति वार्ता करते भये देखो-रावणरूप चन्द्रमा विमानरूप जे नक्षत्र तिनके समूहका स्वामी अर शास्त्र में प्रवीण सो पर स्त्रीकी इच्छारूप जे बादल तिनसे आच्छादित भया है जाके महा कांतिकी थरणहारी अठारह हजार राणी तिनसे तो कृप्त न भया अर देखो एक सीताके अर्थसे शोकसे व्याप्त भया है। अब देखिये, राक्षसवंशी अर वानरवंशी इनमें कौनका क्षय होय ? रामकी सेना में पवनका पुत्र हनूमान महा भयंकर देदीप्यमान जो शुभता सोई भई उष्ण किरण उनसे सूर्य तुल्य है। या भांति कैयक तो रामके पक्षके योधाओंका यश वर्णन करते भये अर कैयक समुद्रतै अति गंभीर जो राषणकी सेना ताका वर्णन करते भए अर कैयक जो दंडक वनमें खरदूषणका अर लक्ष्मणका युद्ध भया हुता ताका वर्णन करते भये अर कहते भये चन्द्रोदयका पुत्र विराधित सो है शरीरतुन्य जिनके ऐसे लक्ष्मण तिन्होंने खरदूषणको हता। अति बलके स्वामी लक्ष्मण तिनका बल कहा तुमने न जाना, कैयक ऐसे कहते भये अर कैयक कहते भये कि राम लक्षण की कहा बात ? वे तो बड़े पुरुष हैं एक हनूमानने केते काम किये । मन्दोदरीका तिरस्कारकर सीताको थीर्य बंधाया अर रावणकी सेना जीत लंकामें विघ्न किया, कोट दरवाजे ढाहे । या भांति नानाप्रकारके वचन कहते भये तब एक सुवक्रनामा विद्याधर हंसकर कहता भया कि कहां समुद्र समान रावणकी सेना और कहां गायके खोज समान वानरवंशियों का बल, जो रावण इन्द्रको पकड लाया अर सबों का जीतनहारा सो वानरवंशिनिकर कैसे जीता जाय, सर्व तेजस्वियोंके सिरपर तिष्ठ है मनुष्यनिमें चक्रवतिके नामको सुन कोन थीर्य थरे अर जाके भाई कुम्भकरण महाबलवान त्रिशूलका धारक युद्ध में प्रलय कालकी अग्निसमान भास है सो जगतमें प्रवल पराक्रमका धारक कौन कर जीता जाय, चन्द्रमा समान जाके छत्रको देखकर शत्रुनिकी सेनारूप Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावना पर्ण ३८६ अंथकार नाशको प्राप्त होय है सो उदार तेजका धनी ताके आगे कौन ठहर सके जो जीतव्यकी बांछा तजे सोही वाके सन्मुख होय, या भांति अनेक प्रकार, रग द्वेषरूप वचन सेनाके लोग परस्पर कहते भये । दोनों सेनानिमें नाना प्रकारकी वार्ता लोकनिके मुख होती भई, जीनों के भाव नानाप्रकारके हैं, राग द्वपके प्रभावसे जीव निजकर्म उपार्जे हैं सा जैमा उदय होय है तैसे ही कार्यमें प्रवृते हैं जैसे सूर्य उदय उद्यमी जीवों को नाना कार्यमें प्रवर्ताव है तैसे कर्म का उदय जीवोंके नानाप्रकारके भाव उपजावे है। इति श्रीरविषेणोचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै दोऊ कटकनिकी संख्याका प्रमाण वर्णन करनेवाला छप्पनवां पर्व पूर्ण भया ।। ५६ ।। अथानन्तर पर सेनाके समीपको न सह सके ऐसे मनुष्य वे शूरपनेके प्रगट होनेसे अति प्रसन्न होय लडनेको उद्यमी भए । योधा अपने घरोंसे विदा होय सिंह सारिखे लंकासे निकसे। कोईयक सुभटकी नारी रणसंग्रामका वृत्तांत जान अपने भरतारके उरसे लग ऐसे कहती भई हे नाथ ! तिहारे कुल की यही रीति है जो रणसंग्रामसे पीछे न होंय अर जो कदाचित तुम युद्धसे पीछे होवोगे तो मैं सुनतेही प्राणत्याग करूगी । योधाओंके किंकरोंको स्त्रियों को कायरोंकी स्त्रिये धिक्कार शब्द कहें या समान और कष्ट कहा ? जो तुम छाती घाव खाय भले दिखाए पीछे आवोगे तो घाव ही श्राभूषण है पर टूट गया है वक्तर अर करे है अनेक योथा स्तति या भान्ति तुमको मैं देखूगी तो अपना जन्म धन्य गिगी अर सुई के कमलोंसे जिनेश्वरकी पूजा कराऊंगी । जे महायोथा रणमें सन्मुख होय भरणको प्राप्त होंय तिनका ही मरण अन्य है अर जे युद्धसे पर ङ मुख होय धिक्कार शब्दसे मलिन भए जीवे हैं तिनके जीवन से कहा ? अर कोईयक सुभटानी पतिसे लिपट या भान्ति कहती भई जो तुम भले दिखायर आवोगे तो हमारे पति हो पर भागकर आवोगे तो हमारे लिहारे सम्बन्ध नाहीं पर कोईयक स्त्री अपने पतिसे कहती मई-हे प्रभो ! तिहारे पुराने घाव अब विघट गए तात नवे घाव लगे शरीर अति शोभे वह दिन होय जो तुम वीरलक्ष्मीको वर प्रफुल्लितवदन हमारे आयो अर हम तुमको हर्षसंयुक्त देखें तिहारी हार हम क्रीडामें भी न देख सकें तो युद्ध में हार कैसे देख सकें और कोई एक कहती भई कि हे देव, जैसे हम प्रेमकर तिहारा वदन कमल स्पर्श करे हैं तैसे वक्षस्थल में लगे घाव हम देखें तप अति हर्ष पावें अर के एक रौताणी अति नवाढा हैं परन्तु संग्राममें पतिको उद्यनी देख प्रौढाके भाव को प्राप्त भई और कोई एक मानवती घने दिनोंसे मान कर रही हुती सो पतिको रणमें उद्यमी जान मान तज पतिके गले लगी अर अति स्नेह जनाया, अर रणयोग्य शिक्षा देसी भई अर कोई एक कमलनयनी भरत रके वदनको ऊंचाकर स्नेहकी दृष्टिकर देखती भई अर युद्ध में दृढ करती भई अर कोईयक सामंतनी पतिके वक्षस्थल में अपने नखका चिन्हकर होनहार शस्त्रोंके घावनको मानों स्थानक करतो भई । या भांति उपजी है चेष्टा जिनके ऐसी रागी रौताणी अपने प्रीतमोंको नानाप्रकारके स्नेहकर वीर रसमें इंढ करती भई। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण तब महा संग्राम के करणहारे योधा तिनसे कहते भए - हे प्राणवल्लभे, नर वेई हैं जे रण में प्रशंसा पावें तथा युद्ध के सन्मुख जीव तजें तिनकी शत्रु कीर्ति करें हाथिनिके दांत निविष पग देय शत्रुत्रोंके घाव करें तिनकी शत्रु कीर्ति करें, पुण्यके उदय विना ऐसा सुभटपना नाहीं । हाथियोंके कुंभस्थल विदारणहारे नरसिंह तिनको जो हर्ष होय है सो कहिवेको कौन समर्थ है हे प्राणप्रिये ! क्षत्रीका यही धर्म है जो कायरोंको न मारें, शरणागतको न मारें, न मारिखे देंय । जो पीठ देंय तापर चोट न करें, जपै आयुध न होय तासों युद्ध न करें सो बालः वृद्ध दीमको तजकर हम महा योधावों के मस्तक पर पडेंगे, तुम हर्षित रहियो । हम युद्धविषै विजयवर तुम मिलेंगे | या भांति अनेक वचननिकर अपनी अपनी रौताणियोंको धीर्य बंधाय योधा संग्रामके उद्यमी घरसे रणभूमिको निकसे । कोई एक सुभटानी चलते पतिके कण्ठ विषै दोनों भुजासे लिपट गई अर हीडती भई जैसे गजेन्द्रके कंठविष कमलनी लटकै अर कोई एक रौताणी स्त्री वक्तर पहि पतिके अंगसे लग अंगका स्पर्श न पाया सो खेदखिन्न होती मई पर कोई एक अर्द्ध बाहुलिको कहिए पेटी सो बल्लभके अंगसे लगी देख ईर्षा रससे स्पर्श करती भई कि हम टार इनके दूजी इनके उरसे कौन लगे यह जान लोचन संकोचे तब पति प्रियाको प्रसन्न जान कहते भए - ६ प्रिये, यह आधा वक्तर है स्त्रीवाची शब्द नाहीं, तब पुरुषका शब्द सुन हर्षको प्राप्त भई, कोई एक अपने पतिको ताम्बूल चबावती भई भर आप तांबूल चावति भई कोई एक पति रुखसत करी तौभी कैसीक दूर पत्रिके पीछे पीछे जाती भई, पतिके रखकी अभिलापा सो इनकी ओर निहारै नाहीं घर रणकी भेरी बाजी सो योधानिका चिच रणभूमिविषै गमन पर स्त्रीनि विदा होना सो दोनों कारण पाय योधावोंका चित्त मानों डिंडोले हीडवा भया । रौतानियोंको तज रावत चले तिन शैतानियोंने आंसू न डारे, आंसू अमंगल हैं भर कैएक योधा युद्धविषै जायबेकी शीघ्रताकर वक्तर भी न पहिर सके, जो हथियार हाथ आया सोही लेकर गर्व भरे निकसे, रणभेरी सुन उपजा है हर्ष जिनको शरीर पुष्ट होय गया सी वक्तर अंगविधै न आवै अर कईएक योधावोंके रणभेरीका शब्द सुन हर्ष उपजा सो पुराने घाव फट गए तिनमेंसे रुधिर निकसता भया पर काढूने नवा वस्कर बनाय पहिरा सो हर्षक होनेसे टूट गया सो मानों नया वक्तर पुराने वक्तरके भावको प्राप्त भया भर काहूके सिरका टोप ढीला होय गया सो प्राणवल्लभा दृढकर देती भई र कोईएक सुभट संग्रामका लालची ताके स्त्री सुगन्ध लगायवेकी अभिलाषा करती भई सो सुगन्धमें चित्त न दिया, युद्धको निकसा र ते स्त्रियां व्याकुलतारूप अपनी अपनी सेजपर पड रहीं । ૨૦ अथानन्तर प्रथमही लंकासे हस्त प्रहस्त राजा युद्धको निकसे । कैसे हैं दोनों १ सर्वमें मुख्य जो कीर्ति सोई भवा अमृत ताके आस्वादनमें लालची श्रर हाथीयोंके रथ पर चढे, नाहीं सह सके हैं बेरियों का शब्द अर महा प्रतापके धारक शूरवीर, सो रावणको बिना पूछे ही निकसे यद्यपि स्वामीकी आज्ञा विना कार्य करना दोष है तथापि धनीके कार्य को विना आज्ञा जाये. तो दोष नहीं, गुणके भावको भजे है। मारीच सिंह जघन्य स्वयम्भू शंभू प्रथम विस्तीर्या बल से Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावनवां पर्ण मंडित शुक अर सारण चांद सूर्य सारिखे गज अर घीभत्स तथा वज्रान बज्रभूति गम्भीरनाद नक्र मकर वज्रयोष उग्रनाद मुन्दर निकुम्भ कुंभ संध्याक्ष विभ्रम क्रूर माल्यवान खर निश्वस जम्बू माली शिखि वीर उद्वर्तक महायल यह सामंत नाहरोंके रथचढे निकसे अर वज्रोदर शक्रप्रभ कृतान्त विकटोदर महारवि अशनिघोष चन्द्र चन्द्रनख मृत्युभीषण वज्रोदर धूम्राक्ष मुदित विद्यज्जिह महा मारीच कनक क्रोधन थोमण द्वन्द्व उद्दम डिंडि डिडिम डिभव प्रचंड डमर चंड कुंड हलाहल इत्यादि अनेक राजा व्याघ्रोंके रथ चढे निकसे । वह कहै मैं आगे रहूँ वह कहे मैं आगे रहूं। शत्रुके विध्वंस करनेको है प्रवृत्त बुद्धि जिनकी, विद्याकौशिक विद्याविख्यात सर्पवा हू महाधुति शंखप्रशंख राजभिन्न अंजनप्रम पुष्पचूड महारक्त घटाश्रु पुष्पखेचर अनंगकुम्म कामाव स्मरायण कामाग्नि कामराशि कनकप्रभ शशिमुख सौम्यबक्त्र महाकाम हेमगौर यह पवन सारिखे तेज तुरंगों के रथ पर चढे निकसे घर कदंब विटप भीम भीमनाद भयानक शार्दूल सिंह बलांग विद्यदंग न्हादन चपल चोल चंचल इन्यादि हाथियोंके रथ चढे निकसे । गौतम स्वामी राजा श्रोणक कहे हैं-हे मग गाधिपति ! कहां लग सामगों के नाम कहें सबनिमें अग्रेसर अढाईकोडि निर्मलपंशके उपजे राक्षसोंके कुमार देवकुमार तुल्य पराक्रमी प्रसिद्ध हैं यश जिनके सकलगुणों के मंडल युद्धको निकसे, अर महा बलवान मेधवाहन कुमार इन्द्र समान रावणका पुत्र अतिप्रिय इ. न्द्रजीत सो भी निकसा । जयंतसमान धीरबुद्धि कुम्भकरण सूर्यके विमान तुन्य ज्योति प्रभव नामा विमान ता विष प्रारूढ त्रिशूलका आयुथ थरं निकसा अर रावण भी सुमेरुके शिखर तुल्य पुष्पक नामा अपनेविमान पर चढ इन्द्र तुल्य पराक्रम मियका सेना कर आकाश भूमिको आच्छादित करता संता दैदीप्यमान आयुधोंको धरै सूर्य समान है ज्योति जाकी सोहू अनंक सामंतनिसहित लंकासे वाहिर निकसा । ते सामन्त शीघ्रगामी बहुरूपके धरणहारे वाहनों पर चढे, कैयकोंके गंथ कैयकों के तुरंग कैयकोंके हाथी कैयकोंके सिंह तथा शूरसांभर बलय भैसा उठ मीढा मृग अष्टापद इत्यादि स्थल के जीव अर मगर मच्छ आदि अनेक जलके जीव अर नाना प्रकारके पक्ष। तिनका रूप धरे देवरूपी बाहन तिनपर चढे अनेक योधा रावणके साथ निकसे । भामंडल अर सुग्रीव पर रावणका अतिक्रोष जो राक्षसवंशीनसों युद्धको उद्यमी भए । रावणको पयान करते अनेक अपशकुन भए । तिनका वर्णन सुनो-दाहिने तरफ शन्यकी कहिए सेही मंडलको बांधे भयानक शब्द करती प्रयाणको निवारण करे है अर गृद्ध पक्षी भयंकर अपशब्द करते आकाशविषै भ्रमते मानों रावणका क्षय ही कहे हैं । अन्यहूं अनेक अपशकुन भए स्थलके जीव आकाशके जीव व्याकुल भए क्रूर शब्द करते भए रुदन करते भये, यद्यपि राक्षसोंके समूह सव ही पंडित हैं, शास्त्रका विचार जानें हैं तथापि शरवीरताके गर्वकर मृढ भए महासेनासहित संग्रामके अर्थी निकसे । काँके उदय जीवनिका जब काल आवे हैं तब अवश्य ऐसा ही कारण होय है। कालको इन्द्र भी निवारिवे शक्त नहीं औरनकी कहा. बात ? वे राक्षसवंशी योधा बडे २ वलवान युद्धविष दिया है चित्त जिनने, अनेक बाहनोंपर चढे नाना प्रकारके आयुध धरे अनेक अपशकुन भए तो भी न गिने, निर्भय भए रामकी सेनाके सन्मुख पाए । इति श्रीरविषेणाचार्यविरवित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषा वचनिकाविणै रावणकी सेना लंकासे निकास युद्धके अर्थ आबनेका व्याख्यान करनेवाला सत्तावनवा पर्व पूर्ण भया ।।५७॥ . Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ पंध्र-पुराण अथानन्तर समुद्र समान रावणकी सेनाको देख नल नील हनूमान जामवंत आदि अनेक विद्याधर रामके हित रामके कार्य को तत्पर महा उदार शूरवीर अनेक प्रकार हाथियोंके रथ चढ़े कटकतें निकसे । जयमित्र, चंद्रप्रभ, रतिवर्द्धन, महेंद्र, भानुमंडल, अनुधर, दृढरथ, प्रीतिकंठ, महावल, समुन्नतबल, सर्वज्योति, सवप्रिय, बलसर्वसार, सर्वद शरमभर, अभ्रष्टि, निविष्ट संत्रास, विघ्नसूदन, नाद, बरबर, कलट, पालन, मंडल, संग्राम, चपल इत्यादि विद्याधर नाहरोंके रथ चढ निकपे । विस्तीर्ण है तेन जिनका नाना प्रकारके आयुथ धरे अर महासामंतपनेका स्वरूप लिए, प्रस्तार हिमवान गंग पिय लव इत्यादि सुपट हाथियोंके रथ चढ़ नि से । दुष्ट पूर्णचन्द्र विधिसागर घोष प्रियविग्रह स्कंध चंदन पादप चंद्रकिरण अर प्रतिघात महाभैरव कीर्तन दुष्टसिह कटष्ट समाधि बहुल हल इन्द्रायु। गतत्रास संकटमहार ये नाहरनिके रथ चढे निकसे । विद्युतकर्ण बलशील सुपक्ष धन धन संमेद विचल साल काल क्षत्रवर अंगज विकाल लाल कंकाली भंग भंगोमिः उरचित उत्तरंग तिलक कील सुषेण तरल करतवली भीमरव धर्म मनोहरमुख सुबप्रपत मर्दक मनसार रत्नजडी सिवभूषण दूषण कौल निघट बिराधित मनूरण खनिक्षेम बेला आक्षेपी महाधीर नक्षत्र लुब्ध संग्राम विजय जय नक्षत्रमाल क्षोद अतिविनय इत्यादि घोडोंके रथ चड़े निकसे। कैले हैं रथ ? मनोरथ समान शीघ्र वेगको धरे अर विद्युत वाहन मरुद्वाह स्थाणु मेघवाहन रबियाण प्रचंडालि इत्यादि नाना प्रकारके वाहनोंपर चढ़े युद्ध की श्रद्धाका धरे हन्मानके संग किसे अर विभाषण. रावणका भाई रत्नप्रभ नामा विमानपर चढ़ा, श्रीरामका पदी अति शोभता भया अर युधावर्त बसंत कांत कौमुदि नंदन भूरिकोलाहल हेड भावित साधुवत्सल अर्थचंद्र जिन प्रेमसागर सागर उरग मनोग्य जिन जिनपति इत्यादि योवा नाना वर्णाक विमानों पर चढे महाप्रवल सन्नाह कहिए बखतर पहिर युद्धको निकसे । राम चन्द्र लक्ष्मण सुग्रीव हनूमान ये हंस विमान चढे, जिनके आकाशविर्षे शोभते भए । रामके सुभट महा मेघमाला सारिखे नाना प्रकारके वाहन चढे लंकाके सुभटोंसे लडनेको उद्यमी भए, प्रलय कालके मेष समान भयंकर शब्द शंख आदि वादित्रनिके शब्द होते भए, जंझा भेरी मृदंग कंपाल धुधुमंदय आमलताके हुंकार दूकान ऊ'दर हे गुज काहल वीणा इत्यादि अनेक बाजे बाजते भए अर सिंहोंके तथा हाथियोंक घाडोंके भैंसोंके रथाके ऊंटों मृगों पक्षियोंके शब्द होते भए । तिनसे दशों दिशा व्याप्त भई । जब राम रावणकी सेना का संघट्ट भया तब समस्त लोक जीवन के संदेहको प्राप्त भए । पृथिवी कंपायमान भई, पहाड कांपे, योधा गर्वके भरे निग से निकसे । दोनों कट अति प्रवल लखिवेमें न अावें । इन दोनों सेनामें युद्ध होने लगा. सामान्य चक्र करोंत कुठार सेल खड्ग गदा शक्ति वाण भिडिपाल इत्यादि अनेक आयुधोंसे परस्पर युद्ध होता भया । योधा हेलाकर योवानोंको बुलावते भए, कैसे हैं योद्धा ? शस्त्रोसे शोभित हैं भुजा जिनकी अर युद्ध का है सर्व साज जिनके ऐसे योधावों पर पडते भए । अति वेगसे दौड, पर सेनामें प्रवेश करते भए, परस्पर अति युद्ध भया । लंकाके योधाओंने वानरवंशीयोंके प्रवल योधा दवाये जैसे सिंह गनोंको दबावे । बहुरि वानरवशियोंके प्रवल योधा अपने Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ उनसठ पर्व योधयोंका भंग देखकर राक्षसोंके योधाओं को हणते भए अर अपने योधाओं को धीर्य बंधाया । वानरवंशियोंके आगे लंकाके लोकों को चिगते देख बडे २ स्वामी भक्त रावणके अनुरागी महा बज्ञसे मण्डित हाथियोंके चिन्हकी हैं ध्वजा जिनके, हाथियोंके रथ चढ़े, महा योधा हस्त प्रहस्त वानरवंशियोंपर दोड़े अर अपने लोगों को धीर्य बंधाया- हो सामंतो ! भय मत करो । हस्त प्रहस्त दोनों महा तेजस्वी वानरवंशियोंके योधाओं को भगावते भए तब बानरवंशियोंके नायक महाप्रतापी हाथियोके रथ चढ़े महा शूरवीर परम तेजके धारक सुग्रीवके काकाके पुत्र नल नील महा भयंकर क्रोधायमान होय नाना प्रकारके शस्त्रनि कर युद्ध करनेको उद्यमी भए । अनेक प्रकार शस्त्रोंसे घनीवेर युद्ध भया दोनों तरफसे अनेक योधा मुवे, नलने उछलकर हस्तको हता र नीलने प्रहस्तको हता । जब यह दोनों पड़े तब राक्षमों की सेना पराङ मुख भई, गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं - हे मगधाविपते ! सेनाके लोक सेनापति जब लग देखें तत्र लग ही ठहरें अर सेनापति के नाश भये सेना बिखर जाय जैसे मालके टूटे अरहटकी घडी बिखर जाय पर सिर विना शरीर भी न रहे । यद्यपि पुरानाधिकारी वड़े राजा सब बातमें पूर्ण हैं तथापि विना प्रधान कार्यकी सिद्धि नाहीं, प्रधान पुरुषों का संबंधकर मनवांछित कार्यकी सिद्धि होय है और प्रधान पुरुषोंके विना मन्दताको भजे हैं जैसे राहु के योगसे सूर्यको आच्छादित भये किरगोका समूह मन्द होय है । इति श्रीरविशेणाचायविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनवाविषै हस्त प्रहस्तका मरण गर्णन करनेवाला अठावननां पर्व पूर्ण भया ॥ ५८ ॥ अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतम स्वामीसे पूछता भया - हे प्रभो ! हस्त प्रहस्त जैसे सामंत महाविद्यामें प्रवीण हुते बडा आश्चर्य है नल नीलने कैसे मारे ? इनके पूर्वभवका विरोध है क याही भवका ? तब गणधर देव कहते भए - हे राजन् कर्मनिकर बंधे जीव तिनकी नाना गति हैं, पूर्व कर्म के प्रभावकर जीवोंकी यही रीति है जाने जाको मारा सो वह हू ताको मारनहोरा है अर जाने जाको छुडाया सो ताका छुडावनहारा है । या लोकमें यही मर्यादा है । एक कुशस्थल नामा नगर वहां दोय भाई निर्धन, एक माताके पुत्र ईंधक अर पल्लव ब्राह्मण खेतीका कर्म करें, पुत्र स्त्री आदि जिनके कुटुम्ब बहुत स्वभावहीसे दयावान साधुनिकी निंदातें पराङमुख सो एक जैनी मित्रके प्रसंगत दानादि धर्मके धारक भए अर एक दूजा निर्धन युगल सो महा निर्दई मिथ्यामार्गी हुते राजाके दान बटा सो विप्रो में परस्पर कलह भया सो इंधक पल्लवको इन दुष्टोंने मारा सो दानके प्रसादतैं मध्यभोग भूमिमें उपजे दोय पल्यकी श्रायुपाय ए सो देव भए अर वे क्रूर इनके मारणहारे अधर्म परणामनिकर मूत्रे सो कालिंजर नामा वनमें स्या भए मिध्यादृष्टि साधुनिके निंदक पापी कपटी तिनकी यही गति है बहुरि तिर्यंचगति में चिरकाल भ्रमण कर मनुष्य भए सो तापसी भए, वढी हैं जटा जिनके, फल पत्रादिकके आहारी ५० --- Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ पद्म पुराण तीत्र तप कर शरीर कृश किया कुज्ञानके अधिकारी दोनो मूए सो विजिया की दक्षिण श्रेणिमें अरिंजयपुर, तहां का राजा अग्निकुमार राणी अश्विनी ताके ये दोय पुत्र जगत् प्रसिद्ध रावणके सेनापति भए अर ते दोनों भाई इंधक अर पल्लव देवलोकतें चयकर मनुष्य ए बहुरि श्रावकके व्रत पाल स्वर्गमें उत्तर दे भए पर स्वर्गत चयकर किसकंधापुर विौं नल नील दोनों भाई भए। पहिले हस्त प्रहस्तके जीवने नल नीलके जीव मारे हुने सो नल नीलने हस्त प्रहम्त मारे जो काहुको मारे है सो ताकर मारा जाय है पर जो काहूको पाले है सो ताकर पालिए है अर जो जास उदासीन रहे है मो भी तासू उदासीन रहे । जाहि देख नि:कारण क्रोथ उपजे सो जानिए परभवका शत्रु है अर जाहि देख चित्त हर्षित होय सो नि[संह पर भवका मित्र है, जो जलविङ्ग जहाज फट जाय है अर मगर मच्छादि बाधा करे हैं अर थलविणे म्लेछ बाधा करे हैं सो सब पापका फल है। पहाडसमान माते हाथी पर नानाप्रकारके आयुध धर अनक योधा अर महा तेजको धरें अनेक तुरंग अर वक्तर पहिरे बडे बडे सामंत इत्यादि जो अपार सेनासे युक्त जो राजा अर निःप्रमाद तो भी पुण्यके उदयविना युद्ध में शरीरकी रक्षा न होय गके घर जहां तहां तिष्ठता अर जाके कोऊ सहाई नाहीं ताकी उप अर दान रक्षा करें, न देव सहाई न बांधव सहाई अर प्रत्यक्ष देखिए है, धनवान् शूरवीर कुटुम्बका धनी सर्व कुटुम्बके मध्य मरण करे है कोऊ रक्षा करने समर्थ नाहीं पात्रदा-से व्रत अर शील अर सम्यक्त अर जीवोंकी रक्षा होय है । दयादानसे जाने धर्म न उपार्जा अर बहुत काल जीया चाहे सो कैसे बने ? इन जीवनिके कर्म तप विना न विनशें ऐका जानकर जो पंडित है तिनको बेरीयों पर भी क्षमा करनी। क्षमा समान और तप नाही, जे विचक्षण पुरुष है वे ऐनी बुद्धि न धरें कि यह दुष्ट विगाड करें है। या जीवका उपकार अर लिगाड केवल कर्माधीन है कर्म ही सुख दुःश्व का कारण है । ऐसा जानकर जे विचक्षण पुरुष हैं ते बाह्य सुख दुःखके निमित्त कारण अन्य पुरुषों पर राग द्वेष भाव न धरें। अन्धकारसे आच्छादित जी पंथ तामें नेत्रवान् पृथिवीपर पडे सप पर पग थर अर सूर्य के प्रकाशसे मार्ग प्रकट होय तब नत्रवान् सुखसे गमन करे तैसे जो लग मिथ्यात्वरूप अन्धकारसे मार्ग नाही अवलोके तौलग नरकादि विवरमें पडै अर जब ज्ञान सूर्यका उद्योत होय तब सुखसे अविनाशीपुर जाय पहुंचें ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापमपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै हस्त प्रहस्त नल नीलके पूर्वभवका वर्णन करनेवाला उनसठनो पर्वा पण भया ।। ५६ ।। -०()अथानन्तर हस्त प्रहस्त, नल नीलने हते सुन बहुत योधा क्रोधकर युद्धको उद्यमी भये । मारीच सिंहजघन स्वयंभू शंभू ऊर्जित शुक सारण चन्द्र अर्क जगत्वीभत्स निस्वन ज्वर उग्र क्रमकर बज्राक्ष आत्मनिष्ठुर गंभीरनाद संनद संवृद्ध वाहू अनुचिदन इत्यादि राक्षस पक्षके योधा वानरवंशियोंकी सेनाको क्षोभ उपजायते भये । तिनको प्रबल जान बानरबंशियोंके मेधा युद्ध को उद्यमी भये। मदन मदनांकुर संताप प्रथित आक्रोश नन्दन दुरित अनष पुष्पास्त्र विघ्न प्रियं Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साठा पर्व ३६५ कर इत्यादि अनेक वानरवंशी योधा राक्षसोंसे लडते भये । याने वाको ऊंचे स्वरसे बुलाया वाने याको बुलाया इनके परस्पर संग्राम भया, नाना प्रकार के शात्रों से आकाश व्याप्त होय गया । संताप तो मारी से लडता भया र प्रथेन सिंहजवनसे पर विघ्न उद्यानसे पर आक्रोश सार से ज्वर नन्दनसे इन समान योधावों में अद्भुत युद्ध भया तब मारीचने संतापका निपात किया अर नन्दनने ज्वरके वक्षस्थल में बरछी दई अर सिंहकटिने प्रथितके अर उद्यामकीर्तिने विघ्नको हा । ता समय सूर्य अस्त भया अपने अपने पतिको प्राणरहित भये सुन इनकी स्त्री शोकके सागर में मग्न भई सो उनकी रात्रि दीर्घ होती भई । दूजे दिन महा क्रोध भरे सामन्त युद्धको उद्यमी भये वज्राक्ष पर क्षुभितार मृगेन्द्रदमन अरविधि शंभू र स्वयम्भू चन्द्रार्क श्रर वज्रीदर इत्यादि राक्षस पक्ष के बड़े २ सामन्त भर वानरवंशियोंके सामन्त परस्पर जन्मान्तर के उपार्जित वैर तिनसे महा क्रोधरूप होय युद्ध करते भये । अपने जीवन में निस्पृह संक्रोधने महाक्रोध कर चिपितारको महा ऊंचा स्वरकर बुलाया बाहुवलीने मृगारिदमनको बुलाया और वितापीने विधिको बुलाया इत्यादि योथा परस्पर युद्ध करते भये र योधा अनेक मृए शार्दूलने बोदरको घायल किया अर खिपितार संकोको मारता भया अर शंभूने विशालद्युति मारा र स्वयम्भूने विजयको लोहयष्टिसे मारा श्रर विधिने विद्यापीको गासे मारा । बहुत कष्टसे या भांति योधाोंने युद्धमें अनेक योधा हते सो बहुत बेर तक युद्ध भया । राजा सुग्रीव अपनी सेनाको राक्षसोंकी सेनासे खेद खिन्न देख थाप महा क्रोधका भरा युद्ध करनेको उद्यमी भया तत्र अंजनी का पुत्र हनुमान हाथियोंके रथपर चढा राक्षसोंसे युद्ध करता भया सो राक्षसों के सामन्तोंके समूह पवनपुत्रको देखकर जैसे नाहरको देख गाय डरे तैसे डरते मये अर राक्षस परस्पर बात करते भये कि यह हनूमान वानर ज श्रज घनोंकी स्त्रीनिकू' विधवा करेगा, तब याके सन्मुख माली आया ताहि आया देख हनूमान धनुष में वारा तान सन्मुख भये विन में महायुद्ध भयः । मंत्री मन्त्रियोंसे लडने लगे, रथी रथियोंसे लडने लगे, घोडोंके असवार घोडोंके सवारोंसे लडते भये, हथियां सवार हाथियों के अमबारोंसे लडते भये । सो हनूमानकी शक्तिये माली पराङ्मुख भया । तब बजूोदर महा पराक्रती हनुमानपर दौडा, युद्ध करता भया चिरकाल युद्ध भया सो हनूमानने बजीरको स्थरहित किया, तब वह और दूजे रथपर चढ हन्मानपर दौड़ा तब हनूमानने बहुरे ताको रथरहित किया तब बहुरि पवन से अधिक है जाका ऐसे रथवरचढ हनुमानपर दौड़ा तब हनूमानने ताहि हता सो प्राणरहित भया । तब हनूमानके सन्मुख महा बलवान रावणका पुत्र जम्बूमाली आया सो आवता ही हनूमानकी ध्वजा छेद करता भया तब हनूमानने क्रोवसे जम्बूालीका वक्तर भेदा, धनुष तोड डारा जैसे. तृणको तांडें । तब मंदोदरीका पुत्र नवा वक्तर पहिर हनूमानके वक्षस्थल में तीक्ष्ण वाणोंसे वाव करता भया मो हनूमानने ऐसा जना मानो नवीन कमलकी नालिकाका स्पर्श मया । कैसा है हनुमान ९ पर्वत समान निश्चल है बुद्धि जाकी, बहुरि हनुमानने चन्द्राक्र नामा बाण चलाया .. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण सो जम्बूमालीके रथके अनेक सिंह जुते हुने सो छूट गए, तिनहीके कटकविणे पडे तिनकी विकराल दाढ विकराल वदन भयंकर नेत्र तिनसे सकल सेना विह्वल भई मानो सेनारूप समुद्रविणे ते सिंह कल्लोलरूप भए उछलते फिरे हैं अथवा दुष्ट जलचर जीवनि समान विचरे हैं अथवा सेनारूप मेघविणे विजली समान चमके हैं अथवा संग्राम ही भया संसार चक्र, ताविणे सेनाके लोक तेई भए जीव तिनको ये रथके छुटे सिंह कर्मरूप होय महादुखी करे हैं इनसे सर्व सेना दुखरूप भई तुरंग गज रथ पियादे सव ही विह्वल भए, रणका उद्या तज दशोंदिशाको भाजे, तर पवनका पुत्र सबोंको पेल रावण तक जाय पहुंचा, दूरसे रावणको देखा, सिंहके रथ चढा हनूमान धनुषवाण लेय रावण पर गया, रावण सिंहोंसे सेनाको भ-रूप देख अर हनूमानकी काल समान महादुद्ध र जान आप युद्ध करनेको उद्यमी भया । तब महोदर रावणको प्रणाम कर हनूमानपर महाक्रोधसे लडनेको आया सो याके पर हनूमानके महायुद्ध भया । ता समयविषै वे सिंह योधावोंने वश किए, सो सिहोंको वशीभूत भए देख महाक्रोधकर समस्त राक्षस हनूमानपर पडे तव अंजनीका पुत्र महाभट पुण्याधिकारी तिन सबको अनेक बाणोंसे थांभता भया अर अनेक राक्षसोंने अनेक बाण हनुमानपर चलाए, परन्तु हनूमानको चलायमान न करते भए । जैसे दुर्जन अनेक कुवचन रूप बाण संयमीके लगावे, परन्तु तिनके एक न लगे, तैसे हनुमानके राक्षसोंका एक बाण भी न लगा, अनेक राक्षसोंसे अकेला हनूमानको बेढा देख बानरवंशी विद्याधर युद्धके निमित्त उद्यमी भए, सुषेण नल नील प्रीतिकर विराथित संत्रासित हरिकट सूर्यज्योति महाबल जांबूनन्द । केई नाहरोंके रथ केई गजोंके रथ कोई तुरंगोंके रथ चढे रावणकी सेनापर दौडे, सो बानरवंशियोंने रावणकी सेना सब दिशाविणे विध्वंस करी. जैसे तथादि परीषह तुच्छ बलियोंके ब्रतोंको भंग करे। - तब रावण अपनी सेनाको व्याकुल देख आप युद्ध करने को उद्यमी भया तब कुम्भकरण रावणको नमस्कारकर आप युद्धको चला तर याहि महाप्रबल योद्धा रणमें अग्रगामी जान सुषेण आदि सबही वानरवंशी व्याकुल भए । जब वे चन्द्ररश्मि जयस्कंध चन्द्राहु रतिवर्धन अंग अंगद सम्मेद कुमुद कशमंडल बालचंड तरंगसार रन्नजटी जय वेलक्षिपी वसन्त कोलाहल इत्यादि अनेक योधा राम के पक्षी कुम्भकर्ण से युद्ध करने लगे तो कुम्भकर्ण ने सबको अपनी निद्रानामा विद्यासे निद्राके वश किए जैसे दर्शनावरणीय कर्म दर्शनके प्रकाश को रोके तैसे कुम्भकर्ण की विद्या वानरवशियों के नेत्रनिके प्रकाश को रोकती भई । सब ही कपिध्वज निद्रासे घूमने लगे अर तिनके हाथोंसे हथियार गिर पड़े तब इन सबों को निद्रा वश अचेतन समान देख सुग्रीव ने प्रतिबोधिनी विद्या प्रकाशी सो सब वानरवंशी प्रतिवोध भए अर हनूमानादि युद्ध को प्रवर्ते । वानरवंशियों के बलमें उत्साह भया अर युद्ध में उद्यमी भए अर राक्षसोंकी सेना दबी , रावण आप युद्धको उद्यमी भए , तब बडा बेटा इन्द्रजीत हाथ जोड सिरनिवाय बीनती करता भया-हे नाथ ! यदि मेरे होते आप युद्धको प्रवतें तो हमारा जन्म निष्फल है जो तृण नखहीसे उपड आवे उसपर फरसी उठावना कहा , ताते आप Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साठवा पव ३५७ , । निश्चित होवें मै आपकी आज्ञा प्रमाण करूंगा । ऐसा कहकर महाहर्षित भया पर्वत समान त्रैलोक्यकंटक नामा गजेंद्रपर चढ युद्धको उद्यमी भला कैसा है गजेन्द्र, इन्द्रके गज समान अर इन्द्रजीतको अतिप्रिय अपना सब साज लेय मंत्रियों पति ऋद्धि इंद्र मन रावण का पुत्र कपियोंपर क्रूर भया सो महालका स्वामी मानी थाना प्रमाण ही वानरवशियोंका बल अनेक प्रकार आयुधोसे जो पूर्ण हुता सो सब विह्वल किया । सुग्रीत्रकी सेना में ऐसा सुभट कोई न रहा जो इन्द्रजीत के वाणनिकर घायल न भया । लोक जानते भए जो यह इंद्रजीत कुमार नाही अग्निकुमारों का इन्द्र है थवा सूर्य है । सुग्रीव पर भामंडल ये दोऊ अपनी सेनाको इंद्रजीत कर दबी देख युद्धको उद्यमी भए । इनके योधा इन्द्रजीत के योधानिसे अर ये दोनो इन्द्रजीत से युद्ध करने लगे तो परस्पर योवा योधावोंको हंकार हंकार बुलावते भए । शस्त्रोंसे आकाशमें अंधकार होय गया, योधावोंके जीनकी आशा नहीं, गजसे गज, रथसे रथ, तुरंगसे तुरंग, सामंतोंसे सामंत उत्साहकर युद्ध करते भए । अपने अपने नाथके अनुरागविषै योधा परस्पर अनेक आयुधनिकर प्रहार करते भए । ताही समय इन्द्रजीत सुग्रीवको समीप आया देख ऊंचे स्वरकर अपूर्व शस्त्ररूप दुर्वचननिकर छेदता भया - अरे वानरवंशी पापी स्वामिद्रोही ! रावण से स्वामीको तज स्वामी के शत्रुका किंकर भवा । अब मुझसे कहां जायगा तेरे शिरको तीक्ष्ण बाणनिकर तत्काल छेदूंगा । वे दोनों भाई भूमिगोचरी तेरी रक्षा करें । तब सुग्रीव कहता भया - ऐसे वृथा गर्व के वचन कर कहा तू मानशिखर पर चढा है सो रही तेरा मान भंग करू ंगा । जब ऐसा कहा तब इन्द्रजीतने कोपकर धनुष चढाया बाण चलाया र सुग्रीवने इन्द्रजीत पर चलाया दोनों महा योथा परस्पर बाणनिकर लडते भए, आकाश बाणोंसे आच्छादित होय गया। मेघवाहनने भामण्डलको हंकारा सो दोनों भिडे अर विराधित अर वज्रनक्र युद्ध करते भए सो विराधितने वज्र क्र के उरस्थल में चक्रनामा शस्त्रकी दई र वज्रकने विराधितदई, शूरवीर घात पाय शत्रुघाव न करें तो लज्जा है, चक्रोंसे वक्तर पीसे गए तिनके अग्निकी कणका उछली सो मानों आकाशसे उलकाओंके समूह पडे हैं। लंकानाथ के पुत्रने सुग्रीवपै अनेक शस्त्र चलाए । लंकेश्वर के पुत्र संग्राममें अचल हैं जा समान दूजा योध नाहीं, तत्र सुर्य वने वज्रदंडसे इन्द्रजीत के शस्त्र निराकरण किए। जिनके पुण्यका उदय है तिनका घात न होय फिर क्रोधकर इन्द्रजीत हाथीसे उतर सिंहके रथ चढा समाधानरूप हैं बुद्धिजाकी नानाप्रकारके दिव्य शस्त्र अर सामान्यशस्त्र इनमें प्रवीण सुग्रीव पर मेघवाण चलाया सो संपूर्ण दिशा जलरूप होय गई तब सुग्रीवने पवनवाण चलाया सो मेघवारा बिलाय गया अर इंद्रजीतकाछत्र उडाया अर ध्वजा उडाई अर मेघवाहननं भामंडल पर अग्निबाण चलाया सो भामडलका धनुष भस्म होय गया अर सेना में अग्नि प्रज्वलित भई तब भामंडलने मेघबहनपर मेघवाण चलामा सो अग्निवाण विलाय गया अर अपनी सेनाकी बहुरि रक्षा करी । मेघवाहनने भामंडलको रथरहित किया तब भामंडल दूजे रथ चढ़ युद्ध करने लगा। मेघवाहनने तामसवाण चलाया सो भामण्डलकी सेना में अंधकार होय गया अपना पराया कुछ सूझे नाही मानोंमूर्छाको Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल-पुराण प्राप्त भए तव मेघवाहनने भामण्डलको नागपाशसे पकडा मायामई सर्प सर्व अंगमें लिपट गए जैसे चन्दनके वृक्षके नाग लिपट जाय कैसे हैं नाग ? भयंकर जे फण तिनकर महा विकराल हैं भामडएल पृथिवीपर पडा अर याही भांति इन्द्रजीतने सुग्रीवको नागपाशकर पकडा सो धरती पर पडा। तब विभीषण जो विद्याबलमें महाप्रवीण, श्रीराम लक्ष्मणसे दोनों हाथ जोड सीस नवाय कहता भया-हे राम महाबाहो ! महावीर इन्द्रजीतके बाणोंसे व्याप्त सब दिशा देखों धरती आकाश वाणोंसे आच्छादित है, उल्कापातके स्वरूप नागवाण तिनसे सुग्रीव अर भामण्डल दोनों भूमिविणे बंधे पडे हैं मंदोदरीके दोनों पुत्रोंने दोनो महाभट पकडे अपनी सेनाके जेदोनों मूल हुते वे पडे गए, तब हमारे जीवनेसे कहा इन विना सेना शिथिल होय गई है, देखो दशों दिशाको लोक भागे हैं पर कभकर्णने महा युद्धकर हनूमानको पकडा है कुम्भकरणके बाणोंसे हनूमान जरजरे भए, छत्र उड गए, ध्वजा उड गई धनुष टूटा वक्तर टूटा रावण के पुत्र इन्द्रजीत भर मेघवाहन युद्ध में लग रहे है अब वे आयकर सुपीव भामण्डल को ले जायगे सो वे न लेजावे तासे पहिले श्राप उनको ले पावें । वे दोनों चेष्टारहित हैं सो मैं उनके लेवनेको जाऊहूँ अर श्राप भामण्डल सुग्रीवकी सेना निर्नाथ होय गई है सो ताहि थांभो या भांति विभीषण राम लक्ष्मणसे कहे है ताही समय सुग्रीव का पुत्र अंग छाने २ कुम्भकर्ण पर गया अर ताका उत्तरासनवस्त्र परे किया सो लज्जाके भारकर व्याकल भया वस्त्रको थामे तौलग हनूमान इसकी भुजाफांससे निकसि गया जैसा नवा पकडा पक्षी पिंजरेसे निकम जाय । हनुमान नवीन जन्मको धर अर अंगद दोनों एक विमान बैठे ऐसे शोभते भए मानों देव ही हैं अर अंगदका भाई अंग अर चंद्रोदयका पुत्र विर धित इन सहित लक्ष्मण सग्रीवकी अर भामण्डलकी सेनाको धैय बंधाय थांभते भए अर विभीषण इन्द्रजीत मेवबाहन पर गया सो विभीषणको आवता देख इन्द्रजीत मनमें विचारता भया जो न्याय विचारिए तो हमारे पितामें अर इनमें कहा भेद है ? तातें इनके सन्मुख लडना उचित नाहीं सो याके सन्मुख खडान रहना यही योग्य है अरे ये दोनों भामण्डल सुग्रीव नागपाशमें बंधे सो निःसंदेह मृत्युको प्राप्त भए अर काकासे भाजिए तो दोष नाही ऐका विचार दोनों भाई महा अभिमानी न्यायके वेत्ता विभीषणसे टरि गए अर विभीष त्रिशनका है आयुध जिसके रथसे उतर सुग्रीव भामण्डलके समीय गया सो दोनों को नागपाशसे मूर्छित देख खेद खिन्न होता भया तब लक्ष्मण ने राम से कही हे नाथ ! ए दोनों विद्या धरोंके अधिपते महासेन के स्वामी महा शक्तिके धनी भामण्डल सुग्रीव रावणके पुत्रोंने शक्तिरहित कीए मूर्छि होय पड़े हैं मी इन वगैर आप रावण को कैसे जीतेंगे तब रामको पुण्यके उदयतें गरुडेंद्रने वर दिया हुता सो चितारा, लक्ष्मण राम कहते भए हे भाई ! वंशस्थल गिरिपर देशभूषण कुलभूषण मुनिका उपसर्ग निवारा ता समय गरुडेंद्रने वर दिया हुता ऐसा कह महालोचन रामने गरुडेंद्रको चितारा सो सुख अवस्थाविर्षे लिष्ठे था सो सिंहासन कम्पायमान भया तब अवधिकर राम लदमणको काम जान चिंतावेग नामा देवको दोय विद्या देय पठाया सो आयकर बहुत आदरसे राम लक्ष्मणसे मिजा भर Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकसठयां पणे दोऊ विद्या तिनको दई, श्रीरामको सिंहवाहिनी विद्या दई अर लक्ष्मण को गरुडवाहिनी विद्या दई तब यह दोऊ वीर विद्या लेय चिंतावेगका बहुत सन्मान कर जिनेन्द्रकी पूजा करते भए अर गरुडेंद्रकी बहुत प्रशंसा करी । वह देव इनको जलवाण अग्निवागा पवन वाण इत्यादि अनेक दिव्य शस्त्र देता भया अर चांद सूर्य सारिखे दोऊ भाइनिको छत्र दिए अर चमर दिए नाना प्रकारके रत्न दिये कांतिके समूह अर विद्युद्वक्र नाम गदा लक्ष्मण को दई अर हल मूसल दुष्टोंको भयके कारण रामको दिये । या भांति वह देव इनको देवोपनीत शस्त्र देय अर सैकड़ों आशिष देय अपने स्थानक गया । यह सर्व धर्मका फल जानो जो समयमें योग्य वस्तुकी प्राप्ति होय । विधिपूर्वक निर्दोष धर्म आराधा होय ताके ये अनुपम फल हैं जिनको पायकर दुख की निवृत्ति होय महा धीर्य के थनी आप कुशल रूप अर औरोंको कुशल गरें मनुष्य लोककी सम्पदाको कहा बात? पुण्याधिकारियों को देव लोककी वस्तु भी सुलभ होय है तातें निरंतर पुश्य करहु । अहो प्राणि हो! जो सुख चाहो तो सर्व प्राणियोको सुख देवहु जो धर्मके प्रसाद कर सूर्य समान तेजके धारक होहु अर आश्चर्यकारी वस्तुनिका संयोग होय ॥ इति श्रीरविणेणाचार्गगिरचि: महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा गचनिकागि राम लक्ष्मणको अनेक विद्याका लाभ गणन करनेवाला साठयां पर्व पूर्ण भया ।। ६० ॥ अथानन्तर राम लक्ष्मण दोऊ वीर तेजके मण्डलमें मध्यवर्ती लक्ष्पीके निवास श्रीवत्स लक्षणको घरे महामनोज्ञ कवच पहिरे सिंहवाहन गरुडवाहन पर चढे महामुन्दर सेनासागरके मध्य सिंहकी अर गरुड की वजा थरे परपक्षके क्षय करने को उद्यमी महा समर्थ सुभटोंके ईश्वर संग्राम भूमिके मध्य प्रवेश करते भए, आगे आगे लक्ष्मण चाल्या जाय है दिव्य छत्रके तेज कर सूर्य के तेजको आच्छादित करता संता हनूमान आदि बड़े बड़े योधा वानरवंशी तिनकर मण्डित वर्णनविष न श्रावै ऐसा देवनिकैसा रूप धारें सूर्यकोसी ज्योति लिये लक्ष्मणको विभीषणने देखा सो जगत्को आश्चर्य उपजावै ऐसे तेज कर मण्डित मो गरुडवाहनके प्रताप कर नागपासका बंधन भामण्डल सुग्रीवका दूर भया । गरुडके पंखनिकी पवन क्षीर सागरके जलको चोभ रूप करै ताकरि वे सर्प विलाय गये जैसे साधुनिके प्रतापकर कुभाव मिट जाय गरुडके पक्षनिकी कांतिकर लोक ऐसे होय गये प्रानो सुवणके रसकर निर्मापे हैं तब भामण्डल सुग्रीव नाग पाशसे छूट विश्रामको प्राप्त भये मानों सुख निद्रा लेय जागे, अधिक शोभते भए तव इनको देख श्रीवृक्ष प्रथादिक सब विद्याधर विस्मयको प्राप्त भए अर सब ही श्रीराम लक्षमणकी पूजा कर विनती करते भए-हे नाथ ! आज कीसी विभूति हम अब तक न देखी, वाहन शस्त्र सम्पदा छत्र ध्वजामें अद्भुत शोभा दीखे है । तर श्रीरामने जबसे अयोध्यासे चले तबसे लेग सर्व वृत्तांत कहा--कुलभूषण देशभूषणका उपसर्ग दूर किया सो सर वृत्तांत कहा । तिन्हों को केवल उपजा अर कहाँ हमसे गरुडेंद्र तुष्टायमान भया सो अवार उसका चितवन किया ताकरि यह विद्याकी प्रामि भई । तब वे यह कथा सुन परम हरेको प्राप्त भये पर कहते भए या Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० पहा राण ही भवमें साधु सेवाकर परम यश पाइए है अर अति उदार चेष्टा होय है अर पुण्यकी विधि प्राप्ति होय है अर जैसा साधु सेवासे कल्याण होय है तैना न माता न पिता न मित्र न भाई कोई जीवनिका न करे । साधु या प्राणीकू धर्म उत्तम बुद्धि देय कल्याण करे। या भांति साधु सेवाकी प्रशंसामें लगाया है चित्त जिन्होंने, जिनेन्द्रके मार्ग की उन्नतिमें उपजी है श्रद्धा जिनके, ते राजा बलभद्र नारायण का प्राश्रय कर महा विभूतिकर शोमते भए। भव्य जीव रूप कमल तिनको प्रफुल्लित करनहरी यह पवित्र कथा ताहि सुनकर ये सर्व ही हर्षके समुद्रवि मग्न भए अर श्रीराम लक्ष्मणकी सेवामें अति प्रीति करते भये पर भामण्डल सुग्रीव हनूमान् मूलारूप निद्रा से रहित भये हैं नेत्र कमल जिनके श्री भगवानकी पूजा करते भये । वे विद्याधर श्रेष्ठ देवों सारिखे सर्वथा थर्ममें श्रद्धा करते भये, पुण्याधिकारी जीव हैं सो या लोकमें परम उत्सवके योगको प्राप्त होय हैं यह प्राणी अपने स्वार्थस संसारमें महिमा नाही पावै है, केवल परमार्थसे महिमा होय है. जैसा सूर्य पर पदार्थको प्रकाश करे तैसे शोभा पावै ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ नाकी भाषा वचनिकाविौं सुग्रीन भामंडल का नागमशन छूटना अ. हतूनानका कु भकण की भुजापाशते छूटना राम लक्ष्मणको सिंहगिमान गरुडनिमानकी प्राप्ति कहनेवाला इकसठगां पर्ण पर्ण भया ॥६॥ अथानन्तर श्रीरामके पक्षके योधा महापराक्रमी रणरीतिके वेत्ता शूरवीर युद्धको उद्यमी भये वानरवंशिनि की सेनासे आकाश व्याप्त भया अर शंख आदि वादित्रोंके शब्द अर गजोंकी गर्जना अर तुरंगोंके हीसिवेका शब्द सुनकर कैलाशका उठावनहारा जो रावण अति प्रचंड है बुद्धि जाकी महामानी देवन सारिखी है विभूति जाके म..प्रतापी बलवान सेनारूप समुद्रकर संयक्त शस्त्रोंके तेजकर पृथिवीमें प्रकाश करता पुत्र भ्रातादिकसहित लंकासे निकसा, युद्धको उद्यमी भया, दोऊ सेनाके योधा वखतर पहिर संग्राम के अभिलाषी नानाप्रकार बाहनपर आरूढ अनेक आयधोंके धरणहारे पूर्वोपार्जित कर्मसे महाक्रोधरूप परस्पर युद्ध करते भये, चक्र करौंत कुठार धनुषवाण खड्ग लोहयष्टि वज़ मुगदर कनक परिध इत्यादि अनेक आयुधनिकर परस्पर युद्ध भया, घोडनिके असवार घाडेके असवारों से लडने लगे, हाथियोंके असवार हाथियोंके असवारोंसे, रथके रथियोंसे महावीर लडने लगे, मिहोंके असवार सिंहोंके अस. वारोंसे. पयादे पयादोंसे भिडते भये । बहुत देरमें कपिध्वजोंकी सेना राक्षसोंके योधावोंसे दवी तब नल नील संग्राम करने लगे सो इनके युद्धकर राक्षसनिकी सेना चिगी तब लंकेश्वरके योधा समुद्र की कल्लोल सारिखे चंचल अपनी सेनाको कंपायमान देख विद्युद्वचन मारच चन्द्रार्क सुखसारण कृतांत मृत्यु भूननाद संकोषन इत्यादि महा सामन्त अपनी सेनाको धीर्य बंधायकर कपिध्वजोंकी सेनाको दवावते भये । तब मर्कटवंशी योधा अपनी सेनाको चिगी जान हजारां यद्धको उठे, सो उठोही नाना प्रकारके आयुधनिकर राक्षसनिकी सेना को हणते भये, अति उदार है चेष्टा जिनकी, तब रावण अपनी सेनारूप समुद्रको कपिध्वजरूप प्रलय कालकी अग्नि Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासठवां पर्ण से सूकता देख आप कोपकर युद्ध करनेको उद्यमी भया सो रावणरूप प्रलय कालकी पवनस वानरवंशी के पातसे उडने लगे तब विभीषण महायोधा बानरवंशीनिको धीर्य बंधाय तिनकी रक्षा करवेको आप रावणसे युद्ध को सन्मुख भया । तब रावण लहुरे भाईको युद्ध में उद्यमी देख क्रोधकर निरादर वचन कहता भया-रे बालक ! तू भ्राता है सो मारवे योग्य नाहीं मेरे सन्मुखतें दूर हो, मैं तोहि देख प्रसन्न नाहीं । तब विभीषण रावण सूकही-कालके योगसे तू मेरी दृष्टि पडा तब मोपै कहां जायगा ? तब रावण अति क्रोधकर कहता भया-रे पुरुषत्वरहित क्लिष्ट धृष्ट पापिष्ठ कुचेष्टि नरकाधिकारी तो सारिखे दीनको मारे मोहि हर्ष नाही, तू निर्बल रंक अवध्य है अर तो सारिखा मूर्ख और कौन जो विद्याधरोंकी सन्तानमें होय कर भूमिगोचरियोंका आश्रय करै जैसे कोई दुर्बुद्धि पापकर्मके उदयतें जिन धर्मको तज मिथ्यात्वका सेवन करे तब विभीषण बोला-हे रावण ! बहुत कहने कर कहा तेरे कल्याणकी बात तुझे कहूहूं सो सुन-ऐती भई तोहू कछु विगडा नाहीं जो तू अपना कल्याण चाहे है तो रामसे प्रीति कर सीता रोमको सौंप अर अभिमान तज रामको प्रसन्न कर, स्त्रीके निमित्त अपने कुलको कलंक मत लगावै अथवा तू मेरे वचन नहीं माने है मो जानिये है तेरी मृत्यु नजीक पाई है, समस्त बलवन्तोंमें मोह महावलपान है, तू मोहकर उन्मत्त भया है। ये वचन भाई के सुनकर रावण अति क्रोधरूप भया, तीक्ष्ण वाण लेय विभीषणपर दौडा और भी रथ घोडे हाथियोंके असवार स्वामी भक्तिविषी तत्पर महायुद्ध करते भये । विभीषणने हू रावणको आवता देख अर्धचन्द्र वाणसे रावणकी ध्वजा उडाई अर रावणने क्रोधकर वाण चलाया सो विभीषणका धनुष तोडा पर हाथ तेवाण गिरा तव विभीषणने दूजा धनुष लेय वाण चलाया सो रावणका धनुष तोडा । या भांति दोऊ भाई महायोधा परस्पर जोरसे युद्ध करते भए अर अनेक सामन्तनिका क्षय भया तब इन्द्रजीत महायोधा पिताभक्त पिताका पक्ष कर विभीषण पर आया तब ताहि लक्ष्मणने रोका जैसे पर्वत सागरको रोके पर श्रीरामने कुम्भकर्णको घेरा अर सिंहकटिसे नील अर स्वयंभूसे नल अर शंभूसे दुर्मति अर घटोदरसे दुख, शक्रासनसे दुष्ट, चंद्रनखसे काली, भिन्नांजनसे स्कंध, विघ्नसे विराधित अर मपसे अंगद अर कुम्भकर्णका पुत्र जो कुम्भ तास हनूमानका पुत्र अर सुमालीसे सुग्रीव अर केतुसे भामंडल, कामस दृहरथ, क्षोभसे बुध इत्यादि बडे २ राजा परस्पर युद्ध करते भए अर समस्त ही योथा परस्पर रण रचते भए। वह वाहि बुलावै बराबरके सुभट, कोई कहै हैं मेरा शस्त्र आवै है उसे झेल, कोई कहै है तू हमसे युद्ध योग्य नाही वालक है वृद्ध है रोगी है निर्वल हैं तू जा फलाने सुभट युद्ध योग्य है सो आवो या भांतिके वचनालाप होय रहे हैं कोई कहै हैं याहि छेदो, कोई कहै है बाण वलावो, कोई कहैं मार लेयो पकड लेवो बांध लेवो ग्रहण करो छोडो चूर्ण करो घाव लगे ताहि सहा घाव देहु आगे होयो मूर्थित मत होवो सावधान होवो तू कहा डरे है मैं तुझे न मारू कायरनिकून मारना भागों को न मारना, पडे को न मारना आयुधरहित पर चोट न करनी तथा रोगसे असा मूर्छित दीन बाल वृद्ध यति Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ पद्म-पुराण व्रती स्त्री शरणागत तपस्वी पागल पशु पक्षी इत्याहि सुपट न मार यह सामन्तनिकी वृत्ति है। कोई अपने वंशियोंको भागते देख धिक्क र शब्द कहे हैं और को हैं तू कायर है नष्ट है मति कापै कहां जाय है धीरा रहो अपने ममूहमें खडा रहु तो क्या होय है तोस्कोन डरे तू काहे को क्षत्री ? शूर और कायर निके परखने का यह समय है मीठा मीठा अन्न तो बहु । खाते यथेष्ट भोजन करते अब युद्ध में पीछे को होयो ? ___ या भांति वीरोंकी गर्जना अर बादित्रोंका बाजना तिनसे दशोदिशा शब्दरूप भई कार तुरंगोंके खुरकी रजसे अंधकार हो गया चक्र शक्ति गदा लोहयष्टि कनक इत्यादि शस्त्रोंसे युद्ध भया म नों ये शस्त्र काल की डाढ ही हैं । लोग घायल भए. दोनों सेना ऐसी दीखें मानों लाल अशोकका वन है अथवा टेसू का वन है अथवा पारिभद्र जातिके वृक्षोंका वन है। कोऊ योधा अपने वक्तरको टूटा देख दूजा वक्ता पहाता भया जैसे साधु व्रतम दूषण उपना देख बहुरि पीछे दोष स्थापना करे पर कोई दांतोंसे तरवार थांभ कमर गाढो कर बहुरि युद्धको प्रवृत्ता कोई यक सामंत माते हाथिनिके दांतोंके अग्रभागसे बेदारा गया है वक्षस्थल जाका सो हाशीके चालते जे कान तेई भए बीना उससे मनो हवासे सुखरूप कर रहे हैं अर काईयक सुगट निराकुल बुद्धि हुया हाथीके दांतोंपर दोनों भुजा पसार सोचे है मानों स्वामीके कार्यरूप समुद्र में उतरा अर कैयक योधा युद्धसे रुधिरका नाला बहावते भए जैसे पर्वतमें गेरुकी खानसे लाल नीझरने ब हैं और कैपक योवा पृथिली में साम्हने मुंहसे पडे, होठ डसते शस्त्र जिनके करमे, टेढी भौंह विकराल बदन या रीतिसे प्राण तजे हैं और केएक भव्यजीव महाभग्रामसे अत्यंत घाल हाय कषायका त्यागकर सन्यास धार अविनाशी पदका ध्यान करते देह को तज उत्तम लोकको पावेहैं कैएक थीरवीर हाथीयोंके दांगोंको हाथसे पकडकर उपाडते भए सो रुधिरकी छटा शरीरसे पडे है शस्त्र हैं ह थोंमें जिनके अर कैएक काम आय गए तिनके मन्तक भिर पडे अर सैकडो घड नाचे हैं कैएक शस्त्ररहित भए अर पावसे जरजरे भए तृषातुर होय जल पी नेको बैठे हैं जीवनेकी आशा नाहीं ऐसे भयंकर संग्रामके होते परस्पर अनेक योधात्रों का क्षय भया । इन्द्रजीत तीक्ष्ण वाणनिसे लक्ष्मण को आच्छ दने लगा अर लक्ष्मण उसको, सो इद्रजीतने लक्ष्मण पर तामस बाण चलाया सो अंधकार होयगया तब लक्ष्मने सूर्यबाण चलाया उससे अन्धकार दूर भया बहुहि इन्द्रजीतने आशीविष जातिके नागवाण चलाए सो लक्ष्मण अर लक्ष्मण का रथ नागोंसे वेष्टित होने लगा तब लक्षाणने गरुडबाणके योगसे नागवाणका निराकरण किया जैसे योगी महातपसे पूर्योपार्जित पापों के समूहको निर करण करें र लदाणने इन्द्रजीतको रथरहित किया । कैसा है इन्द्रजीत ? मंत्रियोक मध्य मिष्ठे है अर हाथियों की घटाओंसे वॉष्टत है सो इन्द्रजीत दूजे स्थपर वह अपनी सेनाको वचनसे कृपाकर रक्षा करता ता लक्ष्मण पर प्वाण चलावता भया ताहि लक्ष्मणने अपनी विद्यासे निवार इन्द्रजीतपर आशीविष जातिका नागवाण चलाया सो इन्द्रजीत नागमःणसे अचेत हाय भूमिमें प.जैसे भामंडल पड़ा हुना अर रामने कुम्भकरणको रथरहित किया बहुरि कुम्भारण, सूयाण रानपर चलाया सोरामने वाका बाण Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासठ पर्व निराकरण कर नागबाण र ताहि बढा सो कुम्भव रण भा नागांका बेढा थका धरती पर पडा। यह कथा गौतमण वर राजा श्रेणि इ. से कहे हैं हे श्रेणिक ! बडा आश्चर्य है ते नागवाण धनुष के लगे उल्कापात स्वरूप होय जाय हैं पर त्रुटोंक शरीरके लग नागरूप होय उसको बेढे हैं यह दिव्य शस्त्र देशोपनीत है मा बांछित रूप का हैं एक क्षण में वाण एक क्षण में दण्ड क्षण एकमें पा रूप हाय परणवे हैं जैसे कर्म पाश कर जीव बंधे तैो नागपाशकर कुम्भकरण बधा सो राम की अज्ञा पाय भामण्डलने अपने रथमें राखा, कुम्भकरणको रामने भमण्डलके हवाले किया पर इ द्रजीतको लक्ष्मण ने पकडा सो विराधितके हवाले किया सो विराधि ने अ.ने रथमें राखा खेद खिन्न है शरीर जाका । ता समय युद्धमें रावण विभीषण को कहता भया जो यदि तु आपको योधा माने है तो एक मेग घाव सह, जाकर रण की खाज बुझे। यह रावणने कही। कैसा है विभीषण ? क्रोधकर र वणके सन्मुख है अर विकराल करी है रणक्रीडा जाने, रावणने कोपकर विभीषणपर त्रिशूल चलाया, कैमा है त्रिशूल ? प्रज्वलित अग्निके स्फुलिंगोंकर प्रकाश किया है आकाशमें जाने, सो त्रिशूल लक्ष्मण ने विभीषण तक आवने न दिया, अपने वाणकर बीचही में भस्म किया तब रावण अपन त्रिशलको भस्मकिया देख अति क्रोधायमान भया अर नागेन्द्रकी दई शक्ति महादारुण सो ग्रही अर आगे देखे तो इन्दीवर कहिये नीलकमल ता समान श्याम सुन्दर महा देदीप्यमान पुरुषोत्तम गरुड ज लक्ष्मण खडे हैं तब काली घटा समान गम्भीर उदार है शब्द जाका ऐसा दशमुख सो लक्ष्मणको ऊचे स्वरकर कहता भया मानों ताडना ही करे है तेरा बल कहां ? जो मृत्युके कारण मेरे शस्त्र तू झेले, तू औरानकी तरह मोहि मत जाने, हे दुर्बुद्धि लक्ष्मण ! जो तू मूवा चाहे है तो मेरा यह शस्त्र झेल, तब लक्ष्मण यद्यपि चिरकाल संग्राम कर अति खेदखिन्न भया है तथापि विभीषणको पीछेकर श्राप आगे होय रावण की तरफ दौडे तव रावणने महा क्रोध करि लक्ष्मण पर शक्ति चलाई । कैसी है शक्ति ? निकसे हैं तारावोंके आकार स्फुलिंगनिके समूह जाविणे सो लक्ष्मण का वक्षस्थल मड़ा पर्वतके तट समान, ता शक्ति कर विदारा गया। कैसी है शक्ति ? महा दिव्य अति देदीप्यमान अमोषक्षेपा कहिए वृथा नाहीं है लगना जाका, सो शक्ति लक्ष्मण के अंगों लग कैसी सोहती भई मानो प्रेमकी भरी बधू ही है। सां लक्ष्मण शक्ति प्रहार कर परार्धन भया है शरीर जाका सी भूमि पर पडा जैसे वजका मारा पहड पर सो ताहि भूमि पर पड़ा देख श्रीराम कमललोचन शोकको दबाय त्रु घात करिव निमक्ष उद्यमी भए, सिंहाक रथ चढे क्रांधके भरे शत्रुको तत्कालही रथ हित किया तष रावण और रथ चढा तब रामने रावण का धनुष तोडा बहुर रावण दूजा धनुप लिया तितने रामने रावण का दूजा रथ भी ताडी सो रामक बाणानकर विह्वल हुआ रावण धनुषवाण लेयवे असमर्थ भया तीन वाण निकर राम रावण का रथ तोड डारै वह बहुरि स्थ चढे सो अत्यन्त खेदखिन्न भया । छेदा है था बक्तर जाका सो छहबार रामने रथरहित किया तथापि रावणअद्भुतपराक्रमका धारा राम कर देता न गया तब २.म आश्चर्य पाय राणसे कहते भए-तू अल्पायु नाही, कोइयक दिन श्रायु वाकी है तात मेरे बाणनिकर न मूश मेरी भुजाकर चलाए Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण वाण महातीक्ष्ण सिनकर पहाड भी भिदजाय मनुष्यकी तो कहा बात ? तथापि श्रायकर्मने तो बचाया अब मैं तोहि कहूं सो सुन-हे विद्याधरोंके अधिपति ! मेरा भाई संग्राममें शक्ति कर तेने हना सो याकी मृत्यु क्रियाकर मैं तोसे प्रभात ही युद्ध करूंगा, तब रावणने कही ऐसे ही करो, यह कह रावण इंद्रतुल्य पराक्रमी लंकामें गया । कैसा है रावण १ प्रार्थना भंग करिवेको असमर्थ है। रावण मनमें विचारे है इन दोनों भाइयोंमें एक यह मेरा शत्रु अति प्रवल था सो तो मैं हत्या यह विचार कछुइक हर्षित होय महिलविणे गया, कैयक जो योधा यद्धसे जीवित आए तिनको देख हर्षित भया । कैसा है रावण ? भाइनिमें है वात्सल्य जाके, बहुरि सुनी इन्द्रजीत मेघनाद पकडे गए अर भाई कुम्भकर्ण पकडा गया सो या वृत्तांत कर राक्षण अति खेदखिन्न भया । तिनके जीवनकी आशा नहीं। यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिकम् कहे हैं-हे भन्योत्तम ! अनेक रूप अपने उपार्जे कोंके कारणसे जीवनिके नानाप्रकारकी साता असाता होय है, देख ! या जगविणे नानाप्रकार के कर्म तिनके उदयकर जीयनिके नानाप्रकारके शुभाशुभ होय हैं अर नानाप्रकारके फल होय हैं, कैयक तो कर्मके उदयकर रणविगै नाशको प्रप्त होय हैं अर कैयक वैरियोंको जीत अपने स्थानकको प्राप्त होय हैं अर काहूकी विस्तीर्ण शक्ति विफल होय जाय है अर बंधनको पावे हैं सो जैसे सूर्य पदार्थोंक प्रकाशने में प्रवीण है तैसे कर्म नीवनिको नानाप्रकारके फल देने में प्रवीण है। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै लक्षमणके रावणके हाथकी शक्तिका लगना अर भू मवि अचेत होय पडना वर्णन करनेवाला वासठबांपर्व पूर्ण भया ।। ६२ ।। अथानन्तर श्रीराम लक्ष्मणके शोकसे व्याकल भए जहां लक्ष्मण पडा हुता तहां आय पृथिवी मण्डलका मंडन जो भाई ताहि चेष्टारहित शक्तिसे आलिंगित देख मूर्छित होय पडे, बहुरि धनी बेरमें सचेत होयकर महा शोकसे संयुक्त दुःखरूप अग्निसे प्रज्वलित भत्यंत विलाप करते भए-हा वत्स ! कर्मके योग कर तेरी यह दारुण अवस्था भई, आप दुर्लव्य समुद्र तर यहां आए, तू मेरी भक्तिमें सदा सावधान मेरे कार्य निमित्त सदा उद्यमी शीघ्र ही मेरसे वचनालाप कर, कहा मौन धरे तिष्ठे? तू न जाने में तेरे वियोगको एक क्षणमात्र भी सहवे सक्त नहीं, उठ मेरे उरसे लग, तेरा विनय कहां गया तेरे भुज गजके सूड समान दीप भुजबयनिकर शोभित सो ये क्रियाराहत प्रयोजनरहित होय गए भावमात्र ही रह गए अर तू माता पिताने मोहि धरोहर सोंपा हुना सो मैं महा निर्लज्ज तिनको कहा उत्तर दंगा ? अत्यंत प्रेमके मरे अति अभिलापी राम, 'हा लक्ष्मण हा लक्ष्मण ऐसा जगत्में हितु तो समान नाही' या भांति के वचन कहते भए, लोक समस्त देखें हैं और महादीन भए भाईसों कहे हैं, तू सुभटनिमें रत्न है तो बिना मैं कैसे जीऊंगा ? मैं अपना जीतव्य पुरुषार्थ तेरे विना विफल मान हूं, पापोंके उदयका चरित्र मैंने प्रत्यक्ष देखा, मोहि तेरे विना सीता कर कहा १ अर अन्य पदार्थनिकर कहा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ naamana+raia+ जा सीताके निमित्त तेर सारखे भाईको निर्दय शक्ति कर पृथवी पर पड़ा देखू हूं सो ती समान भाई कहां ? काम अर्थ पुरुषों को सब सुलभ हैं अा और और संबंधी पृथिवी पर जहां जाइये वहां सब मिलें परंतु माता पिता अर भाई न मिलें । हे सुग्रीव, तैंने अपना मित्रपणा मुझे अति दिखाया अब तुम अपने स्थानक जायो अर हे भागण्डल, तुम भी जावो अब मैं सीताकी आशा तजी अर जीवने की भी आशा तजी, अब मैं भाईके साथ निसंदेह अग्निमें प्रवेश करूंगा । हे विभीषण, मोहि सीताका भी सोच नहीं अर भाईका सोच नहीं परंतु तिहारा उपकार हमसे कछु न बना सो यह मेरे मन में महाबाधा है। जे उत्तम पुरुष हैं ते पहिले ही उपकार करें पर जे मध्यम पुरुष हैं ते उपकार पीछे उपकार करें और जो पीछे भी न करें वे अथम पुरुष हैं सो तुम उत्तम पुरुष हो, हमारा प्रथम उपकार किया ऐसे भाईये विरोधका हम पै अाए अर हमसे तिहारा कछु उपकार न बना तातें मैं अतिआतापरूप हूँ। हो भामण्डल सुग्रीव चिता रचो, मैं भाईके साथ अग्निमें प्रवेश करूंगा, तुम योग्य होय सो करियो यह कहकर लक्ष्मणको गम सशंने लगे तब जाबूनन्द महः बुद्धिमान मने करता भया—हे देव, यह दिव्यास्त्रसे मूर्छित भया हे तिहारा भाई सो स्पर्श भत को। यह अच्छा होजायेगा, ऐसे होय है तुम थीरताको धरो, कायरता तजो, आप में उपाय ही कार्यकारी है यह विलाप उपाय नाहीं, तुम सुभट जन हो तुमको क्लिप उचित नहीं, यह विलाप करना क्षुद्र लोगों का काम है तातें अपना चित्त धीर करो कोई यक उपाय अव ही बने है। यह तिहास भाई नारायण है अवश्य जीवेगा। अवार याकी मृत्यु नाहीं । यह कह सब यिावर विषादी भये पर लक्ष्मणके अंगसे शक्ति निकसनेका उपाय अपने मनमें सत्र ही चिंबते भये--यह दिव्य शक्ति है याहि औषधकर कोऊ निवारवे समर्थ नाही अर कदाचिा सूर्य उगा तो लक्ष्मण जीवना कठिन है यह विद्याधर बारम्बार विचारते हुये उपजी है चिंता जिनके सो कमरबंध आदिक सब दर कर आध निमिषमें धरती शुद्ध कर कपडे के डेरे खड़े किये अर कटक की सात चौकी मेली मोबडे बड़े योधा वक्तर पहिरे धनुष वाण धरे बहुत सारधानीस चौकी बैठे, प्रथम चीनील बैठे धनषवाण हाथमें धरे हैं अर दूजी चौकी नल बेठे गदा करमें लिये अर तीजो चौकी विभीषण बैठे महा उदार मन त्रिशल थांभे अर कल्पय हों की माला रत्नोंके आभूषण पहरे ईशानईन्द्र समान अर चौथी चौकी तरकश बांधे कुमुद बैठे मह! साहस धरे, पांचवी चौकी बछी संपारे सुषेण बैठे महा प्रतापी अर छठी चौकी हा दृढभुज आप सुग्रीव इंद्र सारिखा शोभायमान भिंडपाल लिये बैठे, सातवीं चौकी महा शस्त्रका निकन्दक तलवार सम्हाले भाप भामण्डल बैठा पूर्वके द्वार अष्टापदक घजा जाके ऐसा शोभता भया मानों महावलो अष्टापद ही है अर पश्चिम के दूर जाम्बुकुमार विराजता भया अर उत्तरके द्वार मत्रिोंके समूह सहित बालीका पुत्र महावलवान चन्द्रमरीच बैठा या भांति विद्याधर चौकी बैठे सो कैसे साहते भए जैसे आकाशमें नक्षत्रमण्डल भासे अर वानरवंशी महाभट वे सब दक्षिण दिशाकी तरफ चौकी बैठे या भांति चौकी का यत्न कर विद्याधर तिष्ठे, लक्ष्मणकं जीने में है संदेह जिनके, प्र.ल है शोक जिनको । जीवोंके Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण कर्मरूप सूर्य के उदय कर फल का प्रकाश होय है ताहि न मनुष्य न देव न नाग न असुर कोई भी निवारचे समर्थ नाहीं यह जीव अाना उपाजो कर्म पाप ही भोगवे है ॥ इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापापुगण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषा वचनिकाविणै लक्षमणके शक्ति लगना अर रामका विलाप करनेवाला सठवा पर्व पर्ण भया ।। ६३ ।। अथानन्तर रावण लक्ष्मण का निश्चय से मरण जान पर अपने भाई अर दोऊ पुत्रनि को युद्ध में मरण रूप ही जान अत्यन्त दुःखी भवा । रावण विलापकरे है-हाय भाई कुम्भकर्ण परम उदार अत्यंन हितु कहा ऐमी बन्धन अवस्थाको प्राप्त भया , हाय इन्द्रजीत मेघनाद महा पराक्रमके धारी हो, मेरी भुजा समान दृढ कर्मके योमकर बंधको प्राप्त भए ऐसी अवस्था अबतक न भई , मैं शत्रुका भाई हना है सो न जानिर शत्रु व्य कुल भया कहा करे ? तुम सारिखे उत्तम पुरुष मेरे प्रागवन्लम दुःख अवस्थाको प्राप्त भए या समान मोकों श्री कष्ट का ? ऐमा रावण गोप्य भाई मर पुत्रनिका शोक करता भया अर जानकी लक्ष्मण के शक्ति लगी सुन अतिरुहन करती मई-हाय लक्ष्मण ! विनयवान गुणभूषण ! तू मन्दभागिनीके निमित्त ऐमी अवस्थाको प्राप्त भया , मैं तोहि ऐसी अवस्था में हू देखा चाहूं हुं सो दैवयोग से देखने नहीं पाऊ हुँ । तो सारिखे योधा को पापी शत्रु ने हना सो कहा मेरे मरणका संदेह न किवा , तो समान पुरुष या संसारमें और नाही जो बडे भाई की सेवामें आसक्त ई चित्त जाका समस्त कुरम्मको तजि भाइके साथ निकमा अर समुद्र तिर यहां आया ऐसी अवस्थाको प्राप्त भया तोहि मैं कर देखू। कैसा है तू बालक्रीड में प्रवीण पर महाविनयवान महा विष्टवाक्य अमृतकार्यका करणहारा ऐमा दिन कब होगा जो तुझे मैं देखू। सर्व देव सर्व प्रकार तेरी सहाय करहु, हे सर्व लोकके मनके हरण हारे तू शक्ति की शल्यसे रहित होय ! या भांति महा कष्टतै शोकरूप जानकी विलाप करे। ताहि भातनिकर अति प्रीतिरूप जे विद्याथरी तिनने धीर्य बंधाय शांतचित्त करी-हे देवि ! तेरे देवर का अबतक मरनेका निश्चय नाहीं त तँ तू रुदन मतकर अर महाधीर सामन्तोंकी यही गति है अर या पृथ्विीमें उपाय भी नानाप्रकारके हैं ऐसे विद्याधरपोंके वचन सुन सीता किंचित् निराकुन भई । अब गोतम स्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं-हे राजन! अब जी लक्ष्मणका वृत्तान्त भया सो सुन--एक योधा सुन्दर है मृत जाकी सो डेरोके द्वार पर प्रवेश करता भामंडहने देखा और पूछा कि तु कोन अर कहां से आया अर कोन अर्थ यहां प्रवेश कर है यहां ही रह आगे मत जावो । तब वह कहता भया मोहि माने ऊपर कई दिन गए हैं मेरे अभिलाषा रामके दर्शनकी है सो राममा दर्शन करूंगा अर जो तुम लक्ष्मण के जीवनेकी बांछा करो हो तो मैं जीवनेका उपाय कहूँगा । जय वाने ऐसा कहा तब भामंडल अति प्रसन्न होय द्वार आप समान अन्य सुभट भेल ताहि लार लेय श्रीरामपं आयासो विद्याधर श्रीरामसे नमस्कारकर कहता भया Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADHUKLALLAAAAAAA तिरेमठयां पा ४०७ हे देव ! तुम खेद मत करो। लक्ष्मण कुमार निश्चयसेती जीवेगा। देवगतनामा नगर तहां राजा शशिमंडल राणी सुप्रभा तिनका पुत्र मैं चंद्रनीतम सो एक दिन आकाशमें विचरता हुता सो राजा वेलाध्यक्षका पुत्र सहस्रविजा सो वासे मेरा यह वैर कि मैं वाकी मांग परणी सो वह मेरा शत्रु ताके अर मेरे महा युद्ध भया सो ताने चण्डरश नामा शक्ति मेरे लगाई सो मैं आकाशसे अयोध्याके महेन्द्रनामा उद्यान में पड़ा सो मोहि पडना देख अयोध्याके धनी राजा भरत आय ठोडे भए , शक्तिसे विदाग मेरा वक्षस्थल देख वे महा दयावान् उत्तम पुरुष जीवदाता मुझे चन्दनके जलकर छांटा सो शक्ति निकस गई मेग जैसा रूप हुना वैसा ही होय गया अर कुछ अधिक भया का नरेंद्र भरतने मोहि नवा जन्म दिया जाकर तिहारा दर्शन भया। यह वचन सुन श्रीरामचन्द्र पूछते भये कि-बा गन्धोदककी उत्पत्ति तू जान है तब ताने कहा-हे देव ! जानू हूँ. तुम सुन्गे, मैं राजा भरतको पूछी अर ताने मोहि कही जो यह हमारा समस्त देश रोगनिकर पीडित भया सो काहू इलाजसे अच्छा न होय, पृथिवी में कौन कौन रोग उपजे सो सुनो-उरोधात महादाहज्वर लालपरिश्रम सर्वशून अर छि दसोई फोरे इत्यादि अनेक रोग सर्वदेशके प्राणियोंको भए, मानों क्रोधकर रोगनिकी धाड ही देशविर्ष आई अर राजा द्रोण. मेघ प्रजासहित निरोग तब मैं ताको बुलाया अर कही-हे माम ! तुम जैसे नौरोग हो तैसा र्शघ्र मोहि अर मेरी प्रजाको करो। तब राजा द्रोणमेघने जाकी सुगनातासे दशो दिगा सुगन्ध होंय ता जलकर मोहि सींचा सो मैं चंगा भया र ता जलकर मेरा रा लोक भी चंगा और नगर तथा देश चंगा भया, सर्वरोग निवृत्त भए सो हजरों रोगोंकी करणहारी अन्यन्त दुम्सह वायु मर्म की भेदनहारी ता जलसे जाती रही तब मैंने द्रोणमेघको पूछा यह जल क का है जाकर सर्व रोगका विनाश होय तर द्रोणमेघने कही-हे राजन् ! मेर विशिल्यानामः पुत्री सर्व विद्यामे प्रवीण महागुणवती सो जब गर्भविष आई तब मेरे देशरिष अनेक व्याधि हुतीं सो पुत्रीके गर्भविष आवते ही सर्व रोग गए, पुत्री जिनशासनविर्ष प्रवीण है भगवानकी पूजावि तत्पर है सर्व कु म्ब की पूजनीक है ताके स्नानका यह जल है ताके शरीरकी सुगन्थत से जल महा सुगन्ध है, क्षणमात्र में सर्व रोगका विनाश करै है । ये वचन द्रोण मेघके सुनकर मैं अचिरजकों प्राप्त भया ताके नगरविष जाय ताकी पुत्रीकी स्तुति करी, अर नगर्गसे निकस सत्वहित नामा मुनिको प्रणाम कर पूछा-हे प्रभो ! द्रोण मेघकी पुत्री विशल्याका चरित्र कहो तब चार ज्ञानके धारक मुनि महावात्सल्यके धरणहारे कहते भए-हे भरत ! महाविदेहक्षेत्र स्वर्गसमान पुण्डरीक देश तहां त्रिभुवनानंद नामा नगर तहां चक्रवर नामा चक्रवर्ती राजा राज्य करें ताके पुत्री अनंगरा गुण ही हैं आभूषण जाके, स्त्रीविष ता समान अद्भु। रूप और का नाहीं सो एक प्रतिष्ठितपुर का धनी राजा पुनर्वसु विद्याधर चक्रवतीका सामन्त सी कन्याकी देख कामवाणकर पीडित हाय विमानमें बैठाय लेय गया सो चक्रवतीने क्रोधायमान होय किंकर भेजे सो तासू युद्ध करते भए ताका विमान चूर डारा तय ताने व्याकुल होय कन्या माकाश डारी सो शरद चन्द्रमाकी Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ पद्म-पुराण ज्योति समान पुन पर्श लघुकर विषै आय पडी सो अवी दुष्ट जीवनिकर महा भयानक जाका नाम श्वापदरौव जहां विद्याधरोंका भी प्रवेश नाहीं. वृक्षनिके समूहकर महा अंधकाररूप नाना प्रकार की वेदनिकर बेठे नाना प्रकार के ऊंचे वृक्षनिकी सघनतासे जहां सूर्य की किरणका भी प्रवेश नाहीं पर चीता व्याघ्र सिंह अष्टापद गैंडा रीछ इत्यादि अनेक वनचर विचरें अर नीची ऊंची विषमभूमि जहां बडे २ गर्त ( गढे) सो यह चक्रवर्तीकी कन्या नंगशरा बालक अकेळी ता बनने महाभयकर युक्त अति खेदखिन्न होती भई । नदीके तीर जाय दिशा लोकनर माता पिताकी चितार रुदन करती भई - हाय ! मैं चक्रवतकी पुत्री मेरा पिता इन्द्रमान ताके मैं अनि लाडली दैवयोगकर या अवस्थाको प्राप्त भई कहा करू ? या वनका छोर नाहीं यह वन देखे दुःख उपजे, हाय माता ऐसे महा दुःखकर मोहि गर्भ राखी का हेसे मेरी दया न करो। हाय मेरे परिवारकं उत्तम मनुष्य हो ! एक क्षणमात्र मोहि न छोडने सो अब क्यों रुज दीनी घर में होती ही क्यों न मरगई, काहेसे दुःख की भूमिका भई, चाही मृत्यु भी न मिले, कहा करू कहां जाऊ' में पापिनी कैसे छू यह स्वप्न है कि साक्षात् है । या भांति चिरकाल बिलापकर महा विह्वल भई ऐसे विलाप किए जिनको सुन महा दुष्ट पशुका भी चित्त कोमल होय । यह दीनचित्त क्षुधा तृष्णासे दग्ध शोकके सागर में मग्न फल पत्रादिकसे कीनी है आजीविका जाने, कर्मके योग ता वनमें कई शीतकाल पूर्ण किए। कैसे हैं शीतकाल ? कमलानिके वनकी शांभाका जो सर्वस्व ताके हरणहारे पर जिसने अनेक ग्रीष्मके आताप सहे, कैंप हैं ग्रीष्मके प्रताप ! सूके हैं जलोंके समूह अर जले हैं दावानलों से अनेक वन वृक्ष अर अरे हैं मरे हैं अनेक जन्तु हो अर जाने ता वनमें वर्षाकाल भी बहुत व्यतीत किए ता समय जलधारा के अन्धकारकर दब गई है सूर्य की ज्योति र ताका शरीर वर्षा धोया के समान हो गया, क्रांतिरहित दुर्बल विखरे केश मलयुक्त शरीर लावरहित ऐसा हो गया जैसे सूर्यके प्रकाशकर चन्द्रमाको कलाका प्रकाश कीण होय जाय, कैथका वन फलनियर नम्रीभूत वह बैठी, पिताको चितार या भांतिके वचन कहकर रुदन करे कि मैं जो चक्र तो जन्म वाया अर पूर्व जन्मके पपकर वन में ऐसी दुःख अवस्थाको प्राप्त भई । या भांति आंसुवों की वर्षा कर चातुर्माधिक किया अर जे वृद्धांसे टूटे फल सूक जांय तिनका भक्षण करे अर बेला तेला आदि अनेक उपवासनिकर क्षीण होय गया है शरीर जाता सो केवल फल अर जलकर पारणा करती भई, अर एक ही बार जल ताही समय फल । यह चक्र पुत्री पुष्पनिकी सेजर सोबती कर अपने केश भो जाको चुभते सो विषम भूमिपर खेदसहित शयन करती भई पिताके अनेक गुणीजन राग करते तिनके शब्द सुन प्रवोधको पावती सो अब स्थाल आदि अनेक बनचरोंके भयानक शब्दसे रात्रि व्यतीत करती भई । या मांति तीन हजार वर्ष तप किया सके फन तत्रा सूत्रे पत्र र पवित्र जल आहार किये अर महावैराग्यको प्राप्त होय खान पानका त्यागकर धीरता घर संलेपणा मरण आरम्भा एक सौ हाथ भूमि पावोंसे परै न जाऊं यह नियम धार तिष्ठी, आयु में छह दिन बाकी हुते अर Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंसठत्रां पव T 1 एक अरदास नामा विद्याधर सुमेरुकी बन्दना करके जावे था सो आय निकसा सो चक्रवर्ती की पुत्री को देख पिता के स्थानक लेजाना विचारा, संलेषणा के योगकर कन्याने मने किया । तब अरदास शीघ्री चक्रवर्ती पर जोय चक्रवर्तीको लेय कन्या पै श्राया सो जा समय चक्रवर्ती या ता समय एक सर्प कन्याको भखे था सो कन्याने पिताको देख अजगर को अभयदान दिया अर आप समाधि धारण कर शरीर तज तीजे स्वर्ग गई, पिता पुत्री की यह अवस्था देखकर बाईस हजार पुत्रनि सहित वैराग्यको प्राप्त होय मुनि भया, कन्याने अजगरसे क्षमाकर अजगरको पीडा न होने दई सो ऐसी दृढता ताहीसू बनै अर वह पुनर्वसु विद्याधर अनंगशराको देखता भया मो न पाई तब खेदखिन्न होय द्रुमसेन मुनिके निकट मुनि होय महा तप किया सो स्वर्ग देन होय महासुन्दर लक्ष्मण भया, अर वह अनंगशरा चक्रवर्तीकी पुत्री स्वर्गलोकतें चयकर द्रोणमेव विशल्या भई अर पुनर्वसुने ताके निमित्त निदान किया हुता, सो अव लक्ष्मण याहि बरेगा, यह विशल्या या नगरविषै या देश में तथा भरतक्षेत्र में महा गुणवन्ती है पूर्वभवके तपके प्रभावकर महा पवित्र है ताके स्नानका यह जल है तो सकल विकार को हरै है, याने उपसर्ग सहा महा तप किया ताका फल है याके स्नान के जलकर जो तेरे देश में वायु से विषम विकार उपजा हुता सो नाश भया । ये मुनिके वचन सुन भरतने मुनिसे पूछी- हे प्रभो ! मेरे देश में सर्व लोकोंको रोगविकार कौन कारण से उपजा ? तब मुनिने कहा- गजपुर नगरतें एक व्यापारी महा धनवन्तविन्ध्यनामा सो रासभ ( गधा ) ऊंट भैंसा लदे अयोध्या में आया अर ग्यारह महीना अयोध्या में रहा ताके एक मैंमा सो बहुत बोझ के लगनेसे घायल हुआ, तीव्र रोगके भारसे पीडित या नगर में मूत्रा सो अकामनिर्जराके योग कर अश्वकेतु नामा वायुकुमार देव भया जाका विद्यावर्त नाम, सो अवधिज्ञानसे पूर्वभवको चितारा कि पूर्वभव विषै मैं भैंसा था पीठ कट रही हुती र महा रोगों कर पीडित मार्ग विषै कीच में पड़ा हुता सो लोक मेरे रिपर पांव देय देय गए । यह लोक महानिर्दई अब मैं देव भया सो मैं इनका निग्रह न करू तो मैं देव काका ? ऐसा विचार अयोध्या नगरविषै अर सुकौशल देशमें वायु रोग विस्तारा सो समस्त रोग विशल्याके चरणोदकके प्रभाव से विलय गया बलवान से अधिक बलवान है सो यह पूर्णकथा मुनिने भरत से कही र भरतने मोसे कही सो मैं समस्त तुमको कही विशल्याका स्नान जल शीघ्र ही मंगावो लक्ष्मण के जीवनेका अन्य यत्न नाहीं । या मोति विद्य धरने श्रीराम से कहा सो सुनके प्रसन्न भये । गौतमस्वामी कहे हैं कि - हे श्रेणिक ! जे पुण्याधिकारी हैं तिनको पुरुषके उदयकरि अनेक उपाय मिले हैं। अहो महंतजन हो, तिन्हें आपदाविषै अनेक उपाय सिद्ध होय हैं ॥ इति श्रीरविणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनकाविषै विंशल्याका पूर्णभव वर्णन करनेवाला चौसठगां पर्ग पूर्ण भया ॥ ६४ ॥ अथानन्तर ये विद्याधरके वचन सुनकर रामने समस्त विद्याधरनि सहित ताकी अति प्रशंसा करी पर हनुमान भामंडल तथा अंगद इनको मंत्रकर अयोध्या की तरफ बिदा किए । ये चणमात्रमें गए जहां महाप्रतापी भरत विराजे हैं सो भरत शयन करते हुते तिनको रागकर ५२ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wrimmmmmmmmmmmamtakaudinavianimalkannadankankson पैन पराण जगावनेका उद्यम किया सो भरत जागते भए तब ये मिले सीताका हरण रावणसे युद्ध अर लक्ष्मणके शक्तिका लगना ये समाचार सुन भरतको शोक अर क्रोध उपजा अर ताही समय युद्धकी मेरी दिवाई सो संपूर्ण अयोध्याके लोग व्याकुल भए अर विचार करते भए यह राज. मन्दिरमें कहा कलकलाहट शब्द है ? आधीरात के समय कहा अतिवीर्यका पुत्र आय पडा ? कोईयक सुभट अपनी स्त्रीसहित सोता हुता ताहि तजकर वक्तर पहिरे अर खड्ग हाथमें समारा अर कोई मृगनैनी भोरे बालकको गोद में लेय अर कुचोंपर हाथ धर दिशावलोकन करती भई अर कोई एक स्त्री निद्रारहित भई सोते कंथको जगारती भई अर कोई एक भरत जीका सेवक जागकर अपनी स्त्रीको कहता भया–हे प्रिये ! हा सोवे है ? आज अयोध्यामें कछु भला नाहीं राजमन्दिरमें प्रकाश होरहा है अर रथ, हाथी, घोडे, प्यादे, राजद्वारकी तरफ जाय हैं जो सयाने मनुष्य हुने ते सब सावधान होय उठ खडे हुये अर कई एक पुरुष स्त्रीसे कहते भए ये मुर्ण कलश अर मणि रत्नों के पिटारे तहखानोंमें अर सुन्दर वस्त्रों की पेटी भूमिगृह में धरो और भी द्रव्य ठिकाने धरो अर शत्रुघ्न भाई निद्रा तम हाथी चह मंत्रीशेसहित शस्त्रधारक योधावोंको ले राजद्वार आया और भी अनेक राजा राजद र आए सी भरत सबको युद्ध का आदेश देय उद्यमी भया तब भामण्डल हनूमान अंगद भरतको नमस्कार कर कहते भये-हे देव ! लंकापुरी यहांसे दूर है अर बीच समुद्र है तब भरतने कही-कहा करना ? तब उन्होंने विशन्याका वृत्तान्त कहा-हे प्रभो ! राजा द्रोण मेघ की पुत्री विशल्या ताके स्नानका उदक देशो शीघ्रही कृपा करो जो हम ले तांप सूर्यका उदय भए लदाण का जीवना कठिन है तब भरतने कडी ताके स्नानका जल क्या ? वादी लेजावो | मोहि मुनिने कही हुती यह विशल्या लक्ष्मणकी स्त्री होयगी तब द्रोणमेषके निकट एक निज मनुष्य ताही समय पठाया सो द्रोगा मेघने लक्ष्मणके शक्ति लगी सुन अति कोप किया अर युद्धको उद्यमी भया अर ताके पुत्र मंत्रिनि सहित युद्धको उद्यमी भए तब भरत अर माता के कई न आप द्रोणमेघको जाकर ताको समझाय विशाल्यको पठावना ठहराया तब भामण्डल हनुमान अंगद विशल्याको विमानमें बैठ य एक हजार अधिक राजाकी कन्या सहित लेग रामकटक में पाए, एक क्षणमात्रमें संग्राम भूमि प्राय पहुंचे, विमानसे कन्या उतरी, ऊपर चमर दुरै हैं कन्याके कमल सारिखे नेत्र सो हाथी, घोडे, बडे २ योधानिको देखती भई ज्यों ज्यों विशल्या कटकमें प्रवेश करै त्यों त्यों लक्ष्मणके शरीरमें साता होती भई, वह शक्ति देवरूपणी लक्ष्मण के अंगा निकर्स ज्योतिके समू से युक्त मानो दुष्ट स्त्री घरसे निकसी. देदीप्यमान अग्निके स्फूलिंगोंके समूह आकाशमें उबलते सो वह शक्ति हनूमानने पकडी, दिव्य स्त्रीका रूपधर तब हनूमानको हाथ जोड कहती भई-हे नाथ ! प्रसन्न होतो माहि छांडो मेरा अपराथ नाही हमारी यही रीति है कि हमको जो साथै, हम ताकं वशीभूत हैं मैं अमोघविजया नामा शक्ति विद्या तीन लोकविष प्रद्धि हूं मो कैलाशपर्वतविष बलमुन प्रतिमा जोग धरि तिने हुते पर रावणने भगवान्के चैत्याल में गान किया अर अपने हाथनिकी नस बजाई अर जिनेंद्रके चरित्र गाए, तब घरोंद्रका आसन कंपायमान भया सो धरणेंद्र परम हर्ष धर पाए Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैसठना पर्ण रावणसों अतिप्रसन्न होय मोहि सोंपी । रावणा याचनाविप कायर मोहि न इच्छै तब धरणेन्द्रने हठकर दई सो मैं महा विकरालस्वरूप जाके लागू ताके प्राण हरू, कोई मोहि निवारवे समर्थ नाहीं एक या विशल्या संहरीको टार, मैं देशों की जीन नहारी मो मैं या के दर्शन तेही भग जाऊं याके प्रभावकर मैं शक्तिरहित भई, तपका ऐषा प्रभाव है जो चाहे तो सूर्य को शीतल करे अर चन्द्रमाको उष्ण करै याने पूर्व जन्मविष अति उग्र तप किए। मिझन' के फूल समान याका सुकुमार शरीर सो याने तपविष लगाया ऐठा उग्र तप किया जो मुनिहते न बनै, मेरे मन में संपारमें यही सार भासे है जो ऐसे तप प्राणी करें वर्षा शीतल पाताप अरमहा दुस्सह पवन तिनसे यह सुमेरुकी चूलिका समान न कांपी, थन्य याका साहम, धन्य याका धर्मविगै दृढमन, यासासा तप और स्त्रीजन करने समर्थ नाही, सर्वथा जिनेंद्रचन्द्र के मतके अनुसार जे तपको थारण करें है ते तीन लोकको जीते हैं अथवा या बातका कहा आश्चर्य जो तपकर मोक्ष पाइये ताकर और कहा कठिन ? मैं पराए आधीन जो मोहि चलावै ताके शत्र का मैं नाश करू', सो याने मोहि जीती अब मैं अपने स्थानक जाऊहूं सो तुम तो मेरा श्राराध क्षमा करहु । या भांति शक्तिदेवीने कहा तव तत्त्वका जाननहारा हनूमान ताहि विदाकर अपनी सेनामें पाया अर द्रोणमेषकी पुत्री विशल्या अति लज्जो की भरो रामके चरणारविन्दको नमस्कारकर हाथ जोड ठाढी भई विद्याधर लोक प्रशंसा करते भए अर नमस्कार करते भए अर आशीर्वाद देते भए जैसे इंद्र के समीप शची जाय ष्ठेि तैसे यह विशन्या सुलक्षणा महा भाग्यवती सखियोंके वचनसे लक्ष्मण के समीप तिष्ठी, वह नव यौवन जाके मृगी कैसे नेत्र, पूर्णमासीक चन्द्रमा समान मुख जाका अर महा अनुरागकी भरी उदारमन पृथिवी विष सुखसे सूते जो लक्ष्मण तिनको एकांतविणे स्पर्श कर अर अपने सुकुमार करकमल सुन्दर तिनकर पतिके पांव पलोटने लगी और मलयागिरि चन्द्रनसे पतिका सर्व अंग लिप्त किया अर याकी लार हजार कन्या आई थी तिनने याके करसे चन्दन लेय विद्याधरनिके शरीर छांटे सो सब पायल माछे भए अर इंद्रजीत कुम्भकर्ण मेघनाद घायल भए हुते सो उनको हू चन्दनके लेपसे नीके किये सो परम आनन्दको प्राप्त भए जैसे कर्मरोगरहित सिद्धएरमेष्ठी परम आनन्द को पावें पर भी जे योधा घायल भए हुते हार्थ घोडे पियादे सो सब नीके भए घावोंकी शल्य जाती रही सय कटक अच्छा भया अर लक्ष्मण जैसे सूता जागै तैले व णके नाद सुन अति प्रसन्न भए भर लक्ष्मण मोहशय्या छोडते भए स्वास लिए आंख उधडी, उठकर क्रोथके भरे दशों दिशा निरखि एमे वचन कहते भए कहां गया रावण कहां गया वो रावण ? ये वचन सुन राम अति हर्षित भए, फूल गए हैं नेत्र कमल जिनके, महा आनन्दके भरे बडे भाई, रोमांच होय गया है शरीरमें जिनके पर अपनी भुजानिकर भाईस मिलते भए पर कहने भए-हे भाई ! वह पापी तोहि शक्तिसे अचेत कर आपको कृतार्थ मान घर गया अर या राजकन्याके प्रसादतें तू नीका भया भर जामवन्तको श्रादि दे। सब विद्यावरानने शक्तिके लागवे आदि निकसवे पर्यन्त सव वृत्तान्त कहा पर लक्ष्मणने विशन्या अनुरागकी दृष्टिकर देखी । कैसी है विशल्या १ श्वेत श्याम Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण आरक्त तीन वर्ण कमल तिन समान हैं नेत्र जाके अर शरदकी पूर्णिमाके चन्द्रमा समान है मुख जाका अर कोमल शरीर क्षीण कटि दिग्गजके कुम्भस्थल समान स्तन हैं जाके नव यौवन मानों साक्षात् मूर्तिदन्ती कामकी क्रीडा है मानो तीन लोककी शोभा एकत्रकर नामकर्मने याहि रचा है ताहि लक्ष्मण देख आश्चर्यको प्राप्त होय मनमें विचारता भया, यह लक्ष्मी है अक इद्रकी इंद्राणी है अथवा चंद्रकी कांति है यह विचार करे है अर विशल्याकी लारकी स्त्री कहती भई हे स्वामी ! तिहारा यासू विवाहका उत्सव हम देखा चाहे हैं तब लक्ष्मण मुलके पर विशल्याका पाणिग्रहण किया अर विशल्याकी सर्व जगतमें कीर्ति विस्तरी। या भांति जे उत्तम पुरुष हैं पर पूर्वजन्ममें महा शुभ चेष्टा करी हैं तिनको मनोग्य वस्तुका संबंध होय है अर चांद सर्यकीसी उनकी कांति होय है ॥ इति श्रीरविषेणा बार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविर्षे विशल्याका समागम वर्णन करनेवाला पंसठबां पर्व पूर्ण भया ।। ६५ ।। अथानन्तर लक्ष्मणका विशल्यासू विवाह अर शक्तिका निकासना यह सब समाचार रावणने हलकारनिके मुख सुने अर सुनकर मुलकि कर मंदबुद्धि कर कहता भया-शक्ति निकसी तो कहा ? अर विशल्या व्याही तो कहा ? तब मारीच आदि मंत्री मंत्र में प्रवीण कहते भए-हे देव ! तिहारे कल्याण की बात यथार्थ कहेंगे तुम कोप करो अथवा प्रसन्न होवो सिंहबाहनी गरुडबाहनी विद्या राम लक्ष्मणको यत्न विना सिद्ध भई सो तुम देखी अर तिहारे दोऊ पुत्र अर भाई कुम्भकर्णको तिन्होंने बांध लिए सो तुम देखे अर तिहारी दिव्य शक्ति सो निरर्थक भई तिहारे शत्रु महाप्रबल हैं उनकर जो कदाचित् तुम जीते भी तो भ्राता पुत्रोंका निश्चय नाश है तातें ऐमा जानकर हम पर कृपा करो, हमारी विनती अब तक आपने कदापि भंग न करी तातें सीताको तजो अर जो तिहारे धर्म बुद्धि सदा रही है सो राखों सर्व लोकको कुशल होय राघवसे संधि करो यह बात करने में दोष नाहीं, महागुण है तुम ही कर सर्व लोकविणे मर्यादा चले है धर्मकी उत्पत्ति तुमसे है जैसे समुद्रतें रत्ननिकी उत्पत्ति होय ऐसा कहकर बडे मंत्री हाथ जोड नमस्कार करते भए अर हाथ जोड विनती करते भए । सबने यह मंत्र किया जो एक सामंत दूतविद्याविणै प्रवीण संधिके भर्थि रामपै पठाइये सो एक बुद्धिसे शुक्रसमान महा तेजस्वी प्रतापवान मिष्टवादी ताहि बुलाया सो मंत्रिनिने महासुन्दर महाअमृत औषधि समान वचन कहे परन्तु रावणने नेत्रकी समस्या कर मंत्रिनिका अर्थ दक्षित कर डाला जैन कोई विषसे महा औषधिको विषरूप कर डारे तैसे रावण संधिकी बात विग्रहरूप जताई, सो दत स्वामीको नमस्कारकर जायवेको उद्यमी भया । कैसा है दूत ? बुद्धिके गर्वकर लोकको गोपद समान मिरखे है, आकाशके मार्ग जाता रामके कटकको भयानक देख दूतको भय न उपजा । याके बादित्र सुन बानरवंशियोंकी सेना क्षोभको प्राप्त भई, रावणके आगमकी शंका करी जब नजीक आया तब जानी यह रावण नाहीं कोई और पुरुष है तब बानरवंशियों की सेनाको विश्वास उपजा दूत द्वारे आय पहुंचा तब द्वारपालने भामण्डलसे कही । भामंडल ने रामसे विनतीकर केतेक लोकनि सहित निकट बुलाया अर ताकी सेना कटकमें उतरी।। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियासठयां ६ रामसे नमस्कारकर दूत वचन कहता भया–हे घुरन्द्र ! मेरे वचननिकर मेरे स्वामीने तुमको कुछ कहा है सो चित्त लग य सुनहु, युद्धकर कछु प्रयोजन नाही आगे युद्ध के अभिमानी बहुत नाशको प्राप्त भये तातै प्रीतिही योग्य है युद्धकर लोकनिका क्षय होय है अर महा दोष उपजे हैं अपवाद होय है आगे संग्राम की रुचिकर राजा दुर्वनै शंक धवलांग असुर सम्बरादिक अनेक राजा नाशको प्राप्त भये तातै मेरे महिन तुमको प्रीति ही योग्य है। अहो जैसे सिंह महा पर्वतकी गुफाको पायकर सुखी होय है तैसे अपने मिलापकर सुख होय है । मैं रावण जगत प्रसिद्ध कहा तुमने न सुना जाने इन्द्रसे राजा बन्दीगृहमें किए जैसे कोई स्त्रीनिको अर सामा न्यलोकोंको पकडै तैसे इन्द्र पकडा अर जाकी आज्ञा सुर असुरनिकर न रोकी जाय, न पाताल विष न जलमें न आकाशविर्ष आज्ञाको कोई न रोक सके, नाना प्रकारके अनेक युद्धोंका जीतनहारा वीर लक्ष्मी जाको बरै ऐसा मैं मो तुमको सागरांत पृथिवी विद्याधरोंसे मंडित दंह अर लंकाके दोय भागकर बांट दुई-भावार्थ-समस्त राज्य अर आधीलंका दहं तुम मेरा भाई अर दोनों पुत्र मोपै पठावो पर सीता मोहि देशो जाकर सब कुगल होय अर जो तुम यों न करोगे तो जो मेरे पुत्र भाई बन्धनमें हैं तिनको तो बलात्कार छुटाय लूगा अर तुमको कुशल नाहीं । तब राम बोले-मोहि राज्यसे प्रयोजन नाही अर और स्त्रियोंसे प्रयोजन नाही, सीता हमारे पठावो हम तिहारे दोऊ पुत्र अर भाईको पठ वें अर तिहारे लंका तिहारे ही रहो अर समस्त राज्य तुम ही करी । मैं सीतासहित दुष्ट जीवनिसंयुक्त जो वन तामें सुखम् विचरूगा। हे दूत ! तू लंकाके धनीसे जाय कह याही बातमें तिहारा कल्याण है, और भांति नाही। ऐसे श्रीरामके सर्व पूज्य वचन सुख साताकर संयुक्त तिनको सुनकर दूत कहता भया-हे नृपति ! तुम राज काजविणे समझो नाहीं, मैं तुमको बहुरि कल्याणकी बात कहू हूं निर्भय हो समद उलंव पाए हो सो नीके न करी अर यह जानकीकी भाशा तुमको भली नाही। यदि लंकेश्वर कोप भया तव जानकीकी कहा बात ? तिहारा जीवना भी कठिन है अर रजनीतिविणे ऐसा कहा है जे बद्धिमान् हैं तिनको निरन्तर अपने शरीर की रक्षा करनी, स्त्री अर धन इनपर दृष्टि न थरनी अर जो गरुडेन्द्रन सिंहबाहन गरुडवाहन तुपे भेजे तो कहा ? अर तुम छल छिद्रकर मेरे पुत्र अर सहोदर बांधे तो कहा ? जोलग में जीबू हूं तो लग इन बातोंका गर्व तुमको वृथा है जो तुम युद्ध करोगे तो न जानकीका न तिहारा जीवन, तातें दोऊ मत खोवो, सीताका हठ छांडहु अर रावणने यह कही है--जे बडे २ राजः विद्याधर इन्द्रतुल्य पराक्रम जिनके सो समस्त शास्त्रशिष प्रवीण अनेक युनिके जीनिहारे ते मैं नाशको प्राप्त किए हैं तिनके कैलाशपर्वत के शिखर हाडनके समूह देखो। जब ऐसा दूतने कहा तब भामण्डल क्रोधायमान भया ज्वाला समान महा विकराल मुख ताकी ज्योलिसे प्रकाश किया है आकाशमें जाने। भामण्डलने कही-रे पापी दूत ! स्याल चातुर्यतारहित दुवुद्धि वृथा शंकारहित कहा भा है सीताकी ? कडा वार्ता ? सीता तो राम लेडींगे यदि श्रीराम को तब रावण राक्षस कुचेष्टित पशु कहा ? ऐसा कह वाके मारवेको खड्ग सम्हारा । तब लक्ष्मणने हाथ पकड़े अर भने किया। कैसे हैं Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAA पन-पराण लक्ष्मण ! नीति ही हैं नेत्र जिनके, भामण्डलके क्रोधकर रक्त नेत्र होय गर वक्र होय गए जैसी सांझ की लाली होय तैता लालवदन होय गया । तब मंत्रिनिने योग्य उपदेश कह समताको प्राप्त किया । जैसे विषका भरा सर्प मंत्रसे वश कीजिये है । हे नरेन्द्र, क्रोध तजो यह दीन तिहारे योग्य नाही, यह तो पराया झिकर है जो वह कहावै सो क है याके मारवेकर कहा ? स्त्री, चालक, दूत, पशु, पक्षी, वृद्ध, रोगी, सोता, आयुधरहित, शरणागत, तपस्वी, गाय, ये सनथा अवध्य हैं । जैसे सिंह कारी घटा समान गाजते जे गज तिनका मर्दन करनेहारा सो मीडकनि पर कोप न कर तैसे तुमसे नृपति दूतपर कोप न करें, यह तो वाके शब्दानुसार है जैसे छाया पुरुष है (छाया पुरुषकी अनुगामिनी है) पर सूवाको ज्यों पढ़ावें तैसे पढ़ अर यन्त्रकोज्यो वजावे त्यों वजै तैसे यह दीन वह बकावै त्यों बकै। ऐसे शब्द लक्ष्मणने कहे तब सीताका भाई भामण्डल शांतचित्त भया। श्रीराम दूतको प्रकट कहते भए-३ मूढ दूत :तू शीघ्र ही जा पर रावणको ऐसे कहियो तू ऐसे मूढ मंन्त्रियों का बहकाया खोटे उपाय कर पापा उगावेगा तू अपनी बुद्धिकर विचार, किसी कुवृद्धिको पूले मन, सीताका प्रसंग तज, सर्व पृथिवीका इन्द्र हो पुष्पक विमानमें बैठा जैसे भ्रमे था तैसे विभवसहित भ्रम, यह मिथ्या हठ छोड दे, बुद्रनिकी बात मत सुनहु, करने योग्य कार्य में चित्त थर जो सुखकी प्राप्ति होय । ये वचन कह श्रीराम तो चुप होय रहे अर और पुरुषनिने दत को बहुरि बात न करने दई, निकाल दीया। दूा रामके अनुचरनिने तीस्व वाणरूप वचननि कर बींधा अर अति निरादर किया तब रावणके निकट गया, मनविष पीडा थका, सो जायकर रावणको कहता भया हे नाथ ! मैं तिहारे आदेश प्रमाण रामसों कही जो या पृथिवी नाना देशनि कर पूर्ण समुद्रांत महा रत्ननि की भरी विद्याधशेके समस्त पट्टन सहित मैं तुमको दंह भर बडे २ हाथी रथ तुरंग दूंहूँ अर यह पुष्पक विमान लेवो जो देवोंसे न निवारा जाय याविषे बैठ विचरो अर तीन हजार कन्या मैं अपने परवार की तुमको परणाय दूं अर सिंहासन सूर्य समान पर चन्द्रमा समान छत्र वे लेहु अर निःकंटक राज करो ऐती बात मुझे प्रमाण हैं जो तिहारी माज्ञा कर सीता मोहि इच्छे यह धन अर थरा लेवो अर मैं अल्प विभूति राख बैंतहीके सिंहासन पर बैठा रहंगा। विचक्षण हो तो एक वचन मेरा मानहु, सीता मोहि. देवो। ए वचन मैं बार बार कहे सो रघुनन्दन सीताका हठ न छोडें, केवल वाके सीताका अनुराग है और वस्तुकी इच्छा नाही । हे देव ! जैसे मुनि महाशांतचित्त अठाईस मूल गुणोंकी क्रिया न तजें वह क्रिया मुनिव्रत का मूल हैं तैसे राम सीताको न तजें, सीता ही रामके सर्वस्व है। कैनी है सीता ? त्रैलोक्यमें ऐसी सुन्दरी नाहीं अर रामने तुमसू यह कही है कि -दशानन ! ऐसे सर्वलोकनिंद्य वचन तुमसे पुरुषनिको कहना योग्य नाहीं ऐसे वचन पापी कहे हैं। उनकी जीवके सौ टुक क्यों न होंय ? मेरे या सीता बिना इन्द्रके भोगनिकर कार्य नाहीं । यह सर्व पृथिवी तू भोग, मैं वनवास ही करूंगा अर तू परदारा हर कर मरवेको उद्यमी भया है तो मैं अपनी स्त्रीके अर्थ क्यों न मरूंगा? अर मुझे तीन हजार कन्या देहै सो मेरे अर्थ नाहीं, मैं वनके फल अर पत्रादिक ही भोजन करू गा अर सीतासहित वन में विहार करूंगा अर कपिध्वजोंका स्वामी सुग्रीव ताने हंसकर मोहि Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAJALAMAU छियासठवां पर्व “४१५ कही-जो कहा तेरा स्वामी आग्रहरूप ग्रहके वश भया है ? कोऊ वायुका विकार उपजा है जो ऐसी विपरीत वार्ता रंक हवा बकै है अर कहा लंका में कोऊ वैद्य नाही, अक मन्त्रवादी नहीं वायके तैलादिक्रकर यत्न क्यों न करे नातर संग्रामविष लक्ष्मण सर्वरोग निवारेगा । भावार्थ--मारेगा। तब यह वचन सुन मैं क्रोधरूप अग्निकर प्रज्वलित भया अर मुग्रीव मूकही-रे वानरध्वज, तू ऐसे बकै जैसे गनके लार स्वान बकै, तू रामके गर्वकर मूबा चाहे है जो चक्रवसिंकू निंदाके वचन कहे है सो मेरे अर सुग्रीपके बहुन वात भई अर विराधितसे कहा-अधिक कहा कहूँ ? तिहारे ऐसी शक्ति है तो मेरे अकेलेके ही साथ युद्ध करले अर राममों कहा-हे राम, तुम महारणविर्ष रावणका पराक्रम न देखा, कोऊ तिहारे पुण्यके योग कर वह वीर विकराल क्षमामें आया है। वह कैलाशका उठाव नहारा तीन जगतमें प्रसिद्ध प्रतापी तुमसे हित किया चाहै है अर राज्य देय है ता समान और कहा है, तुम पनी भुजनि कर दशसुख रूप समुद्रक कैसे तिरोगे। कैसा है दशमुख रूप समुद्र ? प्रचंड सेना सोई भई तरंगनिकी माला तिनकर पूर्ण है अर शस्त्र रूप जल वरनिके समूह कर भरा है। हे राम! तुम कैसे रावणरूप भयंकर वनविष प्रवेश करोगे, कैसा है रावणरूप बन ? दुर्गम कहिए जा विौ प्रवेश करना कठिन है अर पाल कहिए दुष्ट गज तेई नाग तिन कर पूर्ण है अर सेना रूप वृक्ष ने के समूः कर महा विपन है. हे राम ! जैसे कमल पत्रकी पवन कर सुमेरु न डिगे अर सूय की किरणकर समुद्र न सूके, बलद के सींगोंसे थरती न उठई जाय तैसे तुम सारिखे नरनिकर नग्थति दशानन जीता न जाय । ऐसे प्रचंड वचन मैं कहे तब भामण्डलने महा क्रोधरूप होय मोहि मारवेको खड्ग काढा तब लदमणने मने किया जो दूतको मारना न्यायमें नहीं कहा । स्थाल पर सिंह को न करे जो सिंह गजेन्द्रके कुम्भस्थल अपने नखनिसे विदारे । तात-हे भामण्डल ! प्रपन्न हो क्रोध तजो जे शूरवीर नृाति हैं महा सेजस्ती ते दीननिपर प्रहार न करें । जो भयकर कम्पायमान होय ताहि न हने श्रमण कहिए मुनि अर ब्राह्म । कहिए व्रतधारी गृहस्थी अर शून्य कहिए सूना अर स्त्री बालक वृद्ध पशु पक्षी दूत ये अवध्य हैं इनको शूरगर सर्वथा न हन इत्यादि बचन निके समूहकर लक्ष्मण महा पंडित ताने समझाय भामण्डलको प्रसन्न किया अर करिध्वजनिक कुमार महा कर तिन वज्र समान वचन निकर मोहि वींधा तब मैं उनके प्रसार पवन सुन आकाशमें गमनकर प्रायु कर्मके योगसे आपके निकट पाया हूँ । हे देव ! जो लक्ष्मण न होय तो आज मेरा मरण ही होता जो शत्रुनिके घर मेरे विवाद भपा सो मैं सब आप कहा मैं कछ शंका न राखी अब आपके मनमें जो होय सो करो, हम सारिखे किंकर तो वचन करे हैं जो कलो सो करें। या भांति दूत दशमुखसे कहता भया । यह कथा गौतम गणधर श्रेणिकसे कहै हैं-हे श्रेणिक ! जो अनेक शास्त्रनिके समूह जाने पर अनेक नयविष प्रवीण होय अर जाके मंत्री भी निपुण होय और सूर्य सारिखा तेजस्वी होय तथापि मोह रूा मेघपटल कर आच्छादित भया प्रकाश रहित होय है। यह मोह महा अज्ञानका मूत विभियाको तजना योग्य है ।। इति श्रीरविजेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा नचनिकानि रानणके दत ___ का भागमा बहुरि पाला रावण पास गमन गर्णन करनेगाला छियाराठयां पर्व पूर्ण भया ॥६६॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ पद्म पुराण वचन सुन अथानन्तर लंकेश्वर अपने दूत एक मंत्र के ज्ञाता मंत्रियों मंत्रकर कपोल पर हाथ पर अधोमुख होय कछु एक चिंता रूप तिष्ठा अपने मनमें विचारे है जो शत्रु को युद्ध में जीतू हूं तो भ्राता पुत्रनिकी अकुशल दीखे है अर जो कदाचित वैरिनके कटकमें मैं रति हावकर कुमारनिको ले आऊं तो या शू तायें न्यूनता है । रतिहाव क्षत्रियोंके योग्य नाही कहा करू' कैसे मोहि सुख होय ? यह विचार करते रावणको यह बुद्धि उपजी जो मैं बहुरूपिणी विद्या साधू | कैसी है बहुरूपणी ? जो कदाचित देव युद्ध करें तो भी न नीती जाय, ऐसा विचार कर सब सेवकनिको आज्ञा करी - श्रीमति मंदिर में समीचीन तोरणादिकनिकर अति शोभा करो सो सव चैत्यालयों में विशेष पूजा करो। सर्व भार पूजा प्रभावनाका मन्दोदरीके सिरपर धरा । गौतम गणधर कहे हैं - हे कि ! श्रीनाथ बीसवां तीर्थंकरका समय ता समय या भरत क्षेत्र में सर्व ठौर जिनमंदिर हुते यह पृथिवी जिन मंदिरनि कर मण्डित हुती चतुर विसंघकी विशेष प्रवृत्ति राजा श्रेष्ठे पति अर प्रजाके लोग सकल जैनी हुने सो महा रमणीक जिनमंदिर रचते जिनमंदिर जिनशासनके भक्त जो देव तिनसे शोभायमान वे देवधर्म की रक्षा में प्रवीण शुभ कार्य करणडारे, ता समय पृथिवी भव्य जीवनिकर भरी ऐसी सोढती मानों स्वर्ग विमान ही है ठौर ठौर पूजा ठौर ठौर भावना ठर डौर दान । हे मगधाधिपति ! पर्वत पर्वत में गांव गांव में नगर नगर में वन वन पट्टन पट्ट विषे मंदिर मंदिरविषै जिनमंदिर ते महा शोभाकर संयुक्त शरद के पूर्णका चन्द्रमा समान उज्ज्वल गीतों की ध्वनि कर मनोर नाना प्रकारके वादिनि के शब्द कर मानों समुद्र गाजे है अर तीनों संध्या वंदनाको लोक आवें सो साधुओं के संगसे पूर्ण नाना प्रकार के आश्चर्य कर संयुक्त नाना प्रकारके चित्रामको घरें अगर चन्दनका धूप अर पुष्पनिकी सुबन्धना कर महा सुगन्ध नई महा विभूति कर नाना प्रकार के वर्णकर शोभित महा विस्तीर्ण महा उतंग महा ध्वजनिकर विराजित तिनमें रत्नमई तथा स्वर्णकी प्रतिमा विराजें विद्याधरनिके स्थानविषै अति सुन्दर जिन मं देरनिके शिखर तिनकर अति शोभा होय रही हैं। ता समय नाना प्रकारके रत्नमई उपवनादिसे शोभित जे जिनमवन तिनकर यह जगत व्याप्त अर इन्द्रनगर समान लंकाका अंतर बाहिर जिनेंद्रके मंदिरर्शन कर मनोग्य था सो रावण ने विशेष शोभा कराई पर आप रावण अठारह हजार राणी वेई भई कमलनि वन तिनको प्रफुल्लित करता वर्षाके मेघ समान है स्वरूप जाका सो महा नागसमान है भुजा जाकी पूर्णमासीके चंद्रमा समान वदन सुन्दर केतकी के फूल समान लाल होठ विस्तीर्ण मंत्र स्त्रीनिका मन हरणहारा लक्ष्मण समान श्याम सुन्दर दिव्यरूपका धरणहारा सो अपने मंदिरनिविषै तथा सर्व क्षेत्र में जिनमंदिरनिकी शोभा करावता भया । कैसा है रावणका घर ? लग रहे हैं लोगनिके नेत्र जां पर जिन मंदिरनिकी पंक्ति कर मंडित नाना प्रकार के रत्नमई मंदिरके मध्य उतंग श्रीशांतिनाथका चैत्यालय जहां भगवान शांतिनाथ जिनकी प्रतिमा विराजै । जे भव्य जीव हैं ते सहल लोकचत्रिको असार अशाश्वता जानकर धर्ममें बुद्धि धर जिनमंदिरनिकी महिमा करो । कैसे हैं जिन मंदिर १ जगत कर वंदनीक हैं अर इन्द्रके मुकुटके मई Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडसठवां प. ४१७ शिखरविणे लगे जे रत्न तिनकी ज्योतिको अपने चरणनिके नखोंकी ज्योतिकर वढावन हारे हैं, थन पावनेका यही फल जो धर्म करिए मो गृहस्थका धर्म दान पूज रूप अर यतिका धर्म शांत भावरूप । या जगतविणै यह जिनधर्म मनवांछित फल का देन हारा है जैसे सूर्यके प्रकाश कर नेत्रनिके धारक पदार्थनिका अवलोकन करे है तैसे जिनधर्मके प्रकाश कर भव्य जीव निज भावका अवलोकन करे हैं। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाविौं श्रीशांतिनाथके चैत्यालयका वर्णन करनेवाला सरसठनां पर्ण पूर्ण भया ।। ६७ ।। अथानन्तर फाल्गुणसुदी अष्टमी लेय पूर्णमासी पर्यंत सिद्धचक्र का व्रत है जाहि अष्टाबिका कहे हैं सो इन आठ दिननिमें लंकाके लोग अर लशकरके लोग नियम ग्रहणको उद्यमी भए । सर्व सेनाके उत्तम लोक मनमें यह धारणा करते भए जो यह आठ दिन धर्मके हैं सो इन दिननिमें न युद्ध करें न और प्रारम्भ करें यथाशक्ति कल्याणके अर्थ भगवानकी पूजा करेंगे अर उपवासादि नियम करेंगे। इन दिननिमें देव भी पूजा प्रभावनामें तत्पर होय हैं। क्षीरसा. गरके जे सुवर्णके कलश जजकर भरे तिनकर देव भगवान का अभिषेक करे हैं कैसा है जल ? सत्पुरुपनिके यशसमान उज्जवल अर और भी जे मनुष्यादि हैं तिनको भी अपनी शक्तिप्रमाण पूना अभिषेक करना । इंद्रादिक देव नंदीश्वरद्वीप जायकर जिनेश्वर का अर्चन करे हैं तो कहा ये मनुष्य अपनी शक्ति प्रमाण यहांके चैत्यालयों का पूजन न करें ? करें ही करें । देव स्वर्ण रत्ननिके कलशनिसे अभिषेक करें हैं अर मनुष्य अपनी संपदा प्रमाण करें महानिर्धन मनुष्य होय तो पलाश पात्रनिके पुटहीसे अभिषेक करै । देव रत्न स्वर्णके कमलनिसे पूजा करें हैं निर्धन मनुप्य चित्तही रूप कमलनिसे पूजा करें हैं । लंकाके लोक यह विचारकर भगवानके चैत्यालयनिको उत्साहसहित ध्वजा पताकादिकर शोभित करते भए, वस्त्र वण रन्नादिकर अति शोभा करी रत्नोंकी रज अर कनकरज तिनके मंडल मांडे अर देवालयनिके द्वार अति सिंगारे अर मणि सुव के कलश कमलनिसे ढके दधि दुग्ध घृतादिसे पूर्ण मोतियोंकी माला है कंठमें जिनके, रत्न निकी कांतिकर शोभित, जिन बिम्बोंके अभिषेकके अर्थ भक्तिवंत लोक लाये, जहां भोगी पुरुपोंके घर में सैकडो हजारों मणिों के कलश हैं, नंदनवनके पुष्प अर लंकाके वनोंके नानाप्रकारके पुष्प कणि कार अतिमुक्त कदंब सहकार चंपक पारिजात मंदार जिनकी सुगन्धता कर भ्रमरनिके समूह गुजार करें हैं अर मणि सुवर्णादिकके कमल तिनकर पूजा करते भए अर दोन मृदग ताल शख इत्यादि अनेक वादित्रनिके नाद होते भए, लंकापुरके निवासी वैर तज मानन्दरूप होय आठ दिनमें भगवानकी अति महिमाकर पूजा करते भए, जैसे नंदीश्वर द्वीप में देव पजाके उद्यमी होंय तैसे लंकाके लोक लकाविष पूजाके उद्यमी भए अर रावण विस्तीर्ण प्रतापका धारक श्रीशांतिनाथ के मंदिरविष जाय पवित्र होय भक्तिकर महामनोहर पजा करता भया जैसे पहिले प्रतिवासुदेव करे, गोतम गणथर कहे हैं-हे श्रेणिक ! जे महाविभवकर युक्त Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ पद्मपुराण भगवान भक्त महाविभूतिवंत अति महिमाकर प्रभुका पूजन करे हैं तिनके पुण्यके समू का व्याख्यान कौन कर सके ? वे उत्तम पुरुष देवगतिके सुख भोग बहु-रे चक्रवर्तियोंके भोग पावें बहुरि राज्य तज जैनमतके व्रत धार महातप कर परम मुक्ति पावें । कैसा है तप, सूर्यहू अधिक है तेज जाका | इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा वचनिकाबि श्री शांतिनाथके चैत्यालय में अवान्हिका का उत्सव वर्णन करनेवाला अडसठवां पर्ग पूर्ण भया ।। ६८ ।। अथानन्तर महाशांतिका कारण श्रीकांतिनाथका मंदिर कैलाशके शिखर पर शरद के मेघ समान उज्जल महा दीप्यमान मंदिरोंकी पंक्तिकर मंडित जैसे जम्बूद्वीपके मध्य महा उतंग सुमेरु पर्वत सो है तै। रावण के मंदिरके मध्य जिनमंदिर सोहता भया । तहां रावण जाय विद्या के साथनमें श्रमक्त हैं चित्त जाका अर स्थिर है निश्चय जाका परम अद्भुत पूजा करता भया भगवानका अभिषेक कर अनेक बादित्र बजावता श्रति मनोहर द्रव्यनिकर महा सुगन्ध धूप कर नानाप्रकार की सामग्री कर शांतचित्त नया शांतिनाथ की पूजा करना भया मानों दूजा इन्द्र ही है। शुक्ल वस्त्र पहिरे महा सुन्दर जे भुजबन्ध तिन कर शोभित हैं सुना जाकी सिरके केश भली भांति बांध तिनपर मुकुट थर तापर चूडामणि लहलहाट करती महाज्योतिको धरे रावण दोनों हाथ जोड गोडोंसे धरती से स्पर्शता मन वचन कायकर शांतिनाथ को प्रणाम करता भया । श्री शांतिनाथके सन्मुख निर्मल भूमिमें खडा अत्यंत शोभता भया । कैसी है भूमि ? पद्मराग मणि की है फर्श जार रावण स्फटिक मणिकी माला हाथमें अर उरमें परे कैथा सोहता भया मानों बक पंक्तिकर संयुक्त कारो घाा समूह ही है । वह राक्षनिका अविरति महावीर विद्याका साधन आरम्भता भया । जब शांतिनाथके मंदिर गया ता पहिले मन्दोदरीको यह आज्ञा करी जो तुम मंत्रिनको र कोटवालको बुलाकर यह घोषणा नगर में फेरियो जो सर्वलोक दयामें तत्पर नियम धर्मके धारक होश्रो, समस्त व्यापार तज जिनेन्द्रकी पूजा करो श्रर अर्थी लोगों को मनवांछित धन देवो, अहंकार तजो । जौ लग मेरा नियम न पूरा होय तौलग समस्त लोग श्रद्धाविषै तत्पर संयमरूप रहो जो कदाचित् कोई बाधा करे तो निश्चयसेती सहियो, महाबलवान होग सो बलका गर्व न करियो इन दिवसनिवि जो कोऊ क्रोधकर विकार करेगा सो अवश्य सजा पावेगा । जो मेरे पिता समान पूज्य होय अर इन दिननिवि कषाय करे, कलह करे ताहि मैं मारू, जो पुरुष समा धिमरणकर युक्त न होय सो संसार समुद्रको न तिरे जैसे अंधपुरुष पदार्थनिको न परखे तैसे विवेक धर्म न निरखें तालेँ सब विवेकरूप रहियो, कोऊ पापक्रिया न करने पावे, यह आज्ञा मंदोदरीको कर रावण विनमंदिर गए अर मंदोदरी मंत्रीयोंको र यमदंडनामा कोटपालको द्वारे बुलाय पतिकी श्राज्ञा प्रमाण आज्ञा करती भई । तब सबने कही जो श्राज्ञा होयगी सोही करेंगे । यह कह आज्ञा सिरपर घर घर गए अर संयमपहित नियम धर्मके उद्यमी होय की आज्ञा प्रमाण करते भए । समस्त प्रजा के लोग जिन पूजाविषै अनुरागी होते भए अर समस्त Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरवा पर्ण कार्य तज सूर्यकी कांतित हू अधिक है कांति जिनकी ऐसे जे जिनमंदिर तिनविणे तिष्ठे, निर्मल भावकर युक्त सयम नियमका साधन करते भये ।। इति श्रीरभिषणाचार्यविरचि: महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा नचनिकागि लंकाके लोगनिका अनेकानेक नियम धारण वर्णन करनेवाला उनहत्तरगां पर्व पूर्ण मया ॥६॥ अथानन्तर श्रीरामके कटक में हलकारोंके मुख यह समाचार आए कि रावण बहुरूपिणी विद्याके साथनेको उद्यमी भया श्रीशांतिनाथके मन्दिर में विद्या साथै है, चौबीस दिनमें यह बहुरूपिणी विद्या सिद्ध होयगी । यह विद्या ऐनी प्रबल है जो देवनिका मद हरे सो समस्त कपिध्वजनिने यह विचार किया कि जो वह नियममें बैठा विद्या साधे है ताको क्रोध उपजावें जो ताकों यह विद्या सिद्ध न होश तातें रावणको कोष उपजाबनेका यन्न करना, जो वाने विद्या पिद्ध कर पाई तो इन्द्रादिक देवनिकरहू न जीता जाय, हम सारिखे रंकनिकी कहा बात ? तब विभीषण कही-जो कोप उपजारने का उपाय को शीघ्रही करों। तब सबने मंत्र कर रामसे कहा कि लंका लेनेका यह समा है । रावणके कायमें विघ्न करिए अर अपने को जो करना होय सो करिए तब कपिध्वजनिके यह वचन सुन श्रीरामचन्द्र महाधीर महा पुरुषनिकी है चेष्टा जिनकी, तो कहते भए-हो विद्याधर हो ! तुम महामूढताके वचन कहो हो, क्षत्रिनिके कुलका यह धर्म नाही जो एसे कार्य करें। अपने कुलकी यह रीति है जो भपकर भाजै ताका वध न करना तो जे नियमधारी जिनमन्दिग्में बैठे हैं तिनको उपद्रव कैसे करिए यह नीचनिके कर्म हैं सो कुलवंतनिको योग्य नाहीं । यह अन्याय प्रवृत्ति क्षत्रियनिकी नारी, कैले हैं क्षत्री ? महामान्यभाव अर शास्त्रकर्ममें प्रवीण। यह वचन रामके सुन सबने विचारी जो हमारा प्रभु श्रीराम महा धर्मधारी है, उत्तम भावका थारक है सो इनकी कदाचित् हू अथवर्ष प्रवृत्त न होयगी तब लक्ष्मण की जानमें इन विद्याधरमिने अपने कुमार उपद्र को विदा किए अर सुग्रीवादिक बड़े बडे पुरुष आठ दिनका नियम धर तिष्ठे पर पूर्ण चन्द्रमा समान है यदन जिनके क ल समान नेत्र नाना लक्षणके थरणहारे सिंह व्याघ्र बराह गज अष्टाप: इनकर युक्त जे रथ तिनविणै बैठे तथा विमाननिमें बैठे परम आयुथनिको थरे कपियों के कुमार रावणको कोप उपजायवेका है अभिप्राय जिनके मानों यह असुरकुमार देव ही हैं--प्रीतंकर दृढरथ क्षन्द्राभ रतिवर्थन वातायन गुरुभार सूर्यज्योति महारथ मामंतवल नंदन सर्वदृष्ट सिंह सर्वप्रिय नल नील सागर घोषपुत्र सहित पूर्ण चन्द्रमा स्कंध चन्द्र मारीच जांचव संकट समाथि बहुल सिंहकट चन्द्रासन इ द्रमणि बल तुरंग सब इत्यादि अनेक कमार तरंगनिके रथ चढे अर अन्य कैयक सिंह बाराह गज व्याघ्र इत्यादि मनहूते चंचल जे बाहन तिनपर चढे पयादनिके पटल तिनके मध्य महातेजको थरें नाना प्रकारके चिन्ह तिनकर युक्त हैं छन्त्र जिनके अर नानाप्रकारकी ध्वजा फहरे हैं जिनके, महा गंभीर शब्द करते दशोदिशाको श्राच्छादित करते लंकापुरीमें प्रवेश करते भए । मनविणे विचार करते भए-बडा अश्चर्य है जो लंकाके लोक निश्चित तिष्ठे हैं। जानिये है कछू संग्रामका भय नाही, अहो लंकेश्वरका बडा श्रीर्य महागंभीरता देखहु जो कुम्भकर्णसे भाई अर इन्द्रजीत मेघनाथसे पुत्र पकडे गए हैं तो Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० पद्म-पुराण 1 हू चिंता नाहीं अर अक्षादिक अनेक योवा युद्ध में हते गए, हस्त प्रहस्त सेनापति मारे गए तथापि लंकापतिको शंका नाहीं, ऐसा चितवन करते परस्पर वार्ता करते नगर में पैठे तथा विभीषणका पुत्र सुश्रूषणं कपिकुमारनि को कहता नया तुम निर्भय लंका में प्रवेश करो, बाल वृद्ध स्त्रीनिको तो कछु न कहना पर सबको व्याकुल करेंगे। तब याका वचन मान विद्याधर कुमार महा उद्धत कलहप्रिय आशीष समान प्रचण्ड व्रतरहित चपल चञ्चल लंका में उपद्रव करते भए । सो तिनके महाभया नक शब्द सुन लोक अति व्याकुल भए अर रावणके महल हू में व्याकुलता भई जैसे तीव्र पत्रनकर समुद्रक्षोभको प्राप्त होय तैसे लंका कपिकुमारनिसे उद्वेगको प्राप्त भई । रवणके महिलाविषै राजatafat उपजी । कैसा है रावणका मन्दिर १ रत्ननिकी कांतिकर देदीप्यमान है अर जहां मृदंगादिकके मंगल शब्द होवे हैं जहां निरन्तर स्त्रीजन नृत्य करें हैं और जिनपूजाविषै उद्यमी राजकन्या धर्म मार्ग में आरूढ सो शत्रु सेना के क्रूर शब्द सुन आकुलता उपजी, स्त्रीनिके आभूषणनिके शब्द होते भए मानों वीणा बाजे हैं सब मन में विचारती भई- इन जानिऐ कहा होय ? या भांति समस्त नगरीके लोग व्याकुलताको प्राप्त होय बिह्वल भए तब मन्दोदरीका पिता राजा विद्याधरनिवि दैत्य कहावे सो सब सेनासहित वक्तर पहिर आयुध धार महा पराक्रमी युद्धके अर्थ उद्यमी होय राजद्वार आया जैसे इन्द्रके भवन हिरणकेशी देव श्रावै तच मन्दोदरी पितासे कहती भई - हे तात ! जा समय लंकेश्वर जिन मन्दिर पधारे तासमय आज्ञा करी जो सबलोक सम्ररूप रहियो कोई कषाय मत करियो तातैं तुम कषाय मत करो। ये दिन धर्मध्यानके हैं सो धर्म सेव और भांति करोगे तो स्वामी की आज्ञा भंग होयगी श्रर तुम भला फल न पावोगे । ये वचन पुत्री के सुन राजा मय उद्धतता तज नहा शांत होय शस्त्र डारते भए जैसे अस्त समय सूर्य किरणों• कों तजे, मणियों के कुण्डलनिकर मंडित और हारकर शोभे है वक्षस्थल आका, अपने जिन मन्दिरमें प्रवेश करता भया अर ये वानरवंशी विद्याधरनिके कुमारनिने निज मर्यादा तज नगरका कोट भंग किया वज्रके कपाट तोडे, दरवाजा तोडे । 1 अथानन्तर इनको देख नगरके बासियोंको अति भय उपजा, घर घर में ये बात होय हैं। भजकर कहां जाइये ? ये आए बाहिर खडे मत रहो भीतर धसो, हाय मात यह कहा भया ? हे तात देखो, हे भ्रात हमारी रक्षा करो, हे आर्यपुत्र महाभय उपजा है ठिकाने रहो | या भांति नगरीके लोक व्याकुलताके वचन कहते भए । लोक भाग रावणके महिलमें आये अपने वस्त्र निमें लिये विह्वल बालकनिको गोद में लिये स्त्री जन कांपती भागी जाय हैं, कैएक गिर पड़ीं सो गोड़े फूट गये, कैएक चली जाय हैं हार मोती बिखरे हैं जैसे मेघमाला शीघ्र जाय तैसे जाय हैं त्रासको पाई जो नेत्र जिनके र ढीले हो गये हैं केशनिके वन्ध जिनके अर कोई भयकर गई । या भांति लोकनिको उद्वेग रूप महा भयभीत देख जिनशासन के मन्दिर के सेवक अपनी पक्ष के पालनेको उद्यमी करुणावन्त जिन शासन के प्रभाव करनेको उद्यमी भए । महा भैरव आकार घरे शान्तिनाथके मन्दिरसे निकसे, नाना भेष धरे विकराल हैं दाढ जिनकी, मयं टूट गए सो बडे बडे हिरणी ता समान हैं प्रीतमके उरसे लिपट देव श्रीशांतिनाथ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ सत्तरबां पर्यं कर हैं मुख जिनका, मध्याह्नके सूर्य समान तेज हैं नेत्र जिनके, होंठ डसते दीर्घ है काया जिनकी नाना वर्ण भयंकर शब्द महा विषम भेषको धरे, विकराल स्वरूप तिनको देखकर वानरवंशियों के पुत्र महा भयकर अत्यन्त विह्वल भए । वे देव क्षणमें सिंह क्षण में मेघ क्षणमें हाथी क्षण में सर्प क्षण में वायु क्षण में वृक्ष क्षण में पर्वत, मो इनकर कपिकुमार निको पीडित देख कटकके देव मदद करते भए । देवनिमें परस्पर युद्ध भया, लंकाके देव कटकके देवनिसे । अर कपिकुमार लंकाके सन्मुख भए तब यक्षनिके स्वामी पूर्णभद्र मणिभद्र महा क्रोधको प्राप्त भए दोनों यक्षेश्वर परस्पर वार्ता करते भए । देखो ये निर्दई कपिनिके पुत्र महाविकारको प्राप्त भए हैं। रावण तो निराहार होय Get free सर्व जगतका कार्य तज पोसे बैठा है सो ऐसे शान्तचित्तको यह छिद्र पाय पापी पीडा चाहे है, सो यह योधावोंकी चेष्टा नाही । यह वचन पूर्णभद्र के सुन मणिभद्र बोला-अहो पूर्णभद्र ! रावणका इन्द्र भी पराभव करिये समर्थ नाहीं, रावण सुन्दर लक्षणनिकर पूर्ण शांत स्वभाव है । तब पूर्णभद्र ने कही - जो लंकाको विघ्न उपजा है सो आपा दूर करेंगे, यह वचन कहकर दोनों धीर सम्यकदृष्टि जिनधर्मी यक्षनिके ईश्वर युद्धको उद्यमी भए सो वानरवंशिनिके कुमार और उनके पक्षी देव सब भागे । ये दोनों यक्षेश्वर महावायु चलाय पाषाण बरसावते भए र प्रलय कालके मेघ समान गाजते भए । तिनके जांघोंकी पवनकर कपिल सूके पानकी न्याई उडे तत्काल भाग गए । तिनके लार ही ये दोनों यक्षेश्वर रामके निकट उलाहना देने को आए । सो पूर्णभद्र सुबुद्धि रामको स्तुति कर कहते भए -राजा दशरथ महाधर्मात्मा तिनके तुम पुत्र अर अयोग्य कार्य त्यागी, सदा योग्य कार्यनिके उद्यमी, शास्त्र समुद्रके पारगामी, शुभ गुणनिकर सकलविषै ऊांचे, तिहारी सेना लंकाके लोकनिको उपद्रव करै । यह कहांकी बात ? जो जाका द्रव्य हरे सो ताका प्राण हरे है यह धन जीवनिके वाह्य प्राण हैं । अमोलिक हीरे वैडूर्य मणि मूंगा मोती पद्मराग मखि इत्यादि अनेक रत्ननिकर भरी लंका उद्वेग को प्राप्त करी । तब यह वचन पूर्णभद्र के सुन राजाका सेवक गरुडकेतु कहिये लक्ष्मण नीलकमल समान, सो तेजसे विविधरूप वचन कहता मया - ये श्री घुरुद्र तिनके राणी सीता प्राणहूत प्यारी - शीलरूप आभूषणकी वरणहारी वह दुरात्मा रावण छलकर हर लेगया ताका पक्ष तुम कहा करो, हे यक्षेन्द्र, हमने तिहारा कहा अपराध किया अर ताने कहा उपकार किया जो तुम भृकुटी बांकीकर र सन्ध्याकी ललाई समान अरुण नेत्रकर उलहना देने को आए सो योग्य नाहीं एती वार्ता लक्ष्मणने कही और राजा सुग्रीव अति भयरूप होय पूर्णभद्रको अर्घ देय कहता भया - हे यतेंद्र, क्रोध तजो श्रर हम लंकाविषै कछु उपद्रव न करें परन्तु यह वार्ता है रावण बहुरूपिणी विद्या साथै है सो जो कदाचित् ताको विद्या सिद्ध होय तो वाक सन्मुख कोई ठहर न सकै जैसे जिनधर्म पाठक के सन्मुख वादी न टिकै ताते वह क्षमावन्त होय विद्या साधै है सो ताको क्रोध उपजावेंगे जो विद्या साध न सके जैसे मिथ्यादृष्टि मोक्षको साथ न सके, तब पूर्णभद्र बोले- ऐसे ही करो परंतु लंका एक जी तृणको भी बाबा न करसकोगे अर तुम रावणके अंगको बाथा मत करो र अन्य बातनिकर क्रोध उपजावो परन्तु रावण अतिदृढ है ताहि क्रोध उपजना Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ पध्र-पुराण कठिन है। ऐसे कह वे दोनों यक्षेन्द्र भव्यजीवनि विगै है वात्सल्य जिनका, प्रसन्न हैं नेत्र जिनके, मुनिनिके समूहोंके भक्त, वैशाबतमें उद्यमी जिनधर्मी अपने स्थानक गए । रामको उलाहना देने आए थे सो लक्ष्मणके वचननिकर लज्जावान भए, समभावकर अपने स्थानक गये सो जाय तिष्ठे । गौतमस्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! जोलग निर्दोषता होय तौलग परस्पर अतिप्रीति होय अर सदोषता भए प्रीतिभंग होय जैसे सूर्य उत्पातसहित होय तो नीका न लगे। इति श्रीरविणेणाचार्यविरचित महापमा गण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा बनिकागि रागणका निद्या साधना अर कपिकुमारनिका लंका गमन बहुरि पर्णभद्र मणिभद्रका कोप, क्रोधकी शान्ति वर्णन करनेवाला सत्तरवां पर्ण पर्ण भया ॥ ७० ॥ अथानन्तर पूर्णभद्र मणिभद्रको शान्तभाव जान सुग्रीयका पुत्र अंगद ताने लंकाविषै प्रवेश किया सो अंगद किहकंधकांड नामा हाथीपर चढा मोतिनिकी माला कर शोभित उज्ज्वल चमरनिकर युक्त ऐमा सोहता भया जैसा मेघमालाविर्षे पूर्णमासीका चन्द्रमा सोहै, अति उदार महासामंत लथा स्कंध इन्द्र नील आदि बडी शुद्धिकर मंडित तुरंगनिपर चढ़े कुमार गमनको उद्यमी भए अर अनेक पयादे चन्दन कर चर्चित हैं अंग जिनके तांबूलनिकर लाल अधर कांधे ऊपर खड़गवरे सुन्दर वस्त्र पहिरे स्वर्ण के श्राभूषणकर शोभित सुन्दर चेष्टा धरे आगे पीछे अगल बगल पयादे चले जांय है बीण यांमुरी मृदंगादि वादिन बाजे हैं नृत्य होता जाय है कपिवंशियोंके कुमार लंकाविष ऐसे गए जैसे स्वर्गपुरीमें असुरकुमार प्रवेश करें, अंगदको ल कामें प्रवेश करता देख स्त्रीजन परस्पर वार्ता करती भई-देखो ! यह अंगदरूप चन्द्रमा दशमुखकी नगीमें निर्भय भया चला जाय है । याने कहा प्रारम्भा ? आगे अब कहा होयगा ? या भांति लोक वात करें हैं। ये चले चले रावण के मंदिरमें गये सो मणियोंका चौक देख इन्होंने जानी ये सरोवर हैं सो त्रासको प्राप्त भए । बहुरि निश्चय देख मणियोंका चौक जाना तब आगे गए सुमेरुकी गुफा समान महारत्ननिकर निर्मापित मंदिरका द्वार देखा मणियोंके तोरखनिकर देदीप्यमान तहां अजन पर्वत सारिखे इंद्रनीलमणिनिके गज देखे, महास्कंध कुम्भस्थल जिनके स्थल दंत अत्यन्त मनोग्य अर तिनके मस्तकपर सिंहनिके चिन्ह जिनके सिरपर पूछ हाथियोंके कुम्भस्थलपर सिंह विकरालवदन तीक्ष्ण दाढ डरावने केश तिनको देख पयादे डरे । जानिए सांचे ही हाथी हैं तब भयकर भागे अतिविहन भए अंगदने नीके समझाए तब आगे चले। रावण के महलविणै कपिवंशी ऐसे जावें जैसे सिंह की गुफामें मृग जांय, अनेक द्वार उलंघ आगे जायचे को असमर्थ भए, घरोंकी रचना गहन सो असे भटके जैसे जन्मका अंधा भ्रमै, स्फटिकमणिके महल तहां आकाशकी आशंका कर भ्रमको प्राप्त भए अर इन्द्र नीलमणिकी भांति सो अन्धकारस्वरूप भासे मस्तकमें शिलाकी लागी सो आकुल होय भूमिमें पड़े, वेदनाकर व्याकुल हैं नेत्र जिनके, काहू प्रकार मार्ग पायकर आगे गये जहां स्फटिक मणिकी भीति सो धनों के गोडे फूटे ललाट फूटं दुखी भए तब उलटे फिरे सो मार्ग न पावें। आगे एक रत्नमयी स्त्री देखी। साक्षात् स्त्री जान वासे पूछते भए--सो वह कहा कहै ? तब महाशंकाके भरे आगे गये पिहल होय स्फटिक मणिकी Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ इकहत्तरवां पर्ण भूमिमें पडे, आगे शांतिनाथके मन्दिरका शिखर नजर आया परन्तु जाय सकें नाहीं, स्फटिक की मीति प्राडा तब वह स्त्री दृष्टि परी थी त्यों एक रन्नमई द्वारपाल दृष्टि पडा हेमरूप बैंतकी छडी जाके हाथमें ताहि कहा-श्रीशान्तिनाथके मन्दिरका मार्ग वताओ सो वह कहा बतावे.? तब वाहि हाथ कूटा सो कूटनहारेकी अंगूरी चूर्ण होय गई । बहुरि आगे गए, जाना यह इन्द्रनीलमणिका द्वार है, शान्तिनाथके चैत्यालयमें जानेकी बुद्धि करी, कुटिल हैं भाव जिनके । आगे एक वचन बोलता मनुष्य देखा ताके केश पकडे अर कहा तू हमारे आगे २ चल, शांतिनाथका मन्दिर दिखाय जब वह अग्रगामी भया तब ये निराकुल भए श्रीशान्तिनाथके मन्दिर जाय पहुंचे। पुष्पांजलि चढाय जय जय शब्द किए स्फटिकके थम्भनिके ऊपर बडा विस्तार देखा सो आश्चर्यको प्राप्त भए मनमें विचारते भए जैसे चक्रवर्तीके मन्दिरमें जिनमन्दिर होय तैसे हैं। __अंगद पहिलेही वाहनादिक तज भीतर गया ललाट पर दोनों हाथ धर नमस्कारकर तीन प्रदक्षिणा देय स्तोत्र पाठ करना भया, सेना लार थी सो बाहिरले चौकविणे छांडी। कैसा है अंगद ? फूल रहे हैं मंत्र जाके रत्ननिके चित्राम कर मंडल लिखा सोलह स्वप्नेका भाव देखकर नमस्कार किया, आदि मंडपकी भीनिमें वह धीर भगवानको नमस्कार कर शांतिनाथके मंदिरमें गया अति हर्षका भरा भगवा रकी वंदना करता भया । बहुरि देखे तो मन्मुख रावण पद्मासन थरे तिष्ठे है, इन्द्र नीलमणिकी किरनके समूह समान है प्रभा जाकी, भगवान के सन्मुख कैसा बैठा है जैसे सूर्यके सन्मुख राहु बैठा होय । विद्याको ध्यावे जैसे भरत जिनदीक्षाको ध्यावे सो रावणको अंगद कहता भया-हे रावण, कहो अब तेरी कहा बात ? तोसे ऐसी करू जैसी यम न करे तैने कहा पाखण्ड रोपा ? भगवानके सन्मुख यह पाखण्ड कहा ? धिक्कार तुझ पापी कर्मीने वथा शुभ क्रियाका प्रारंभ किया है ऐसा कहकर ताका उत्तरासन उतारा याकी राणियोंको या आगे कूटता भया, कठोर वचन कहता. भया धर रावणके पास पुष्प पडे हुने सो उठाय लिये अर स्वर्णके कमलनि कर भगवानकी पूजा करी, बहुरि रावण कुवचन कहता भया । अर रावणके हाथ मेंसू स्फटिककी माला छीन लई सो मणियां बिखर गई बहुरि मणिये चुन माला परोय रावणके हाथमें दई बहुरि छिनाय लई बहुरि पिरोय गलेमें डाली बहुरि मस्तक पर मेली बहुरि रावणका राजलोक सोई भया कमलनिका वन तामें ग्रीषम कर तप्तायमान जो वनका हाथी ताकी न्याई प्रवेश किया अर निःशंक भया राजलोकमें उपद्रव करता भया जैसे चंचल घोडा कदता फिरे तैसे चपलता कर परिभ्रमण किया काहूके कंठमें कपड़ेका रस्सा बनाय बांधा अर काहूके कंठमें उत्तरासन डार थम्भमें बांध बहुरि छोड दिया काहूको पकड अपने मनुष्यनसे कही याहि वेच श्रावो ताने हंसकर कही पांच दीनारनिको बेच आया । या भांति अनेक चेष्टा करी । काहूके काननमें घुघुरू घाले अर केशनिमें कटिमेखला पहिराई, काहूके मस्तक का चूडामणि उतार चरणनिमें पहिराया पर काहू को परस्पर केशनिकर बांधा अर काहूके मस्तकपर शब्द करते मोर बैठाये । या भांति जैसे सांड गायोंके समूहमें प्रवेश करे पर तिनको Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A . . 'पद्म-पुराण व्याकुल करे तैसे रावणके समीप सब राजलोकोंको क्लेश उपजाया अर अंगद क्रोधकर रावणसू कहता भया–हे अधम राक्षम ! तैो कपटकर सीता हरी, अब हम देखते तेरी समस्त स्त्रीनिक हरे हैं तोमें शक्ति होय तो यत्न कर ऐसा कहकर याके आगे मन्दोदरीको पकड ल्याया जैसे मृ. गराज मृगीको पकड ल्यावै, कंगायमान हैं नेत्र जाके, चोटी पकड रावणके निकट खींचता भया जैसे भरत राजलक्ष्मीको खींचे अर रावण कहता भया-देख ! यह पटरानी तेरे जीवहूतै प्यारी मन्दोदरी गुग्णवंती ताहि हम हर ले जांय हैं। यह सुग्रीवके चमरग्राहणी चेरी होयगो, सो मन्दोदरी प्रांखिनः आंसू डारती भई, अर विलाप करने लगी। रावण के पायनमें प्रवेश करे कभी भुजनिमें प्रवेश करे अर भरतारसों कहती भई-हे नाथ, मेरी रक्षा करहु ऐसी दशा मेरी कहा न देखो हो, तुम क्या और ही होय गये । तुम रावण हो अक और ही हो । अहो जैसी निरपथ मुनि की वीतरागता होय तैसी तुम वीतरागता पकडी सो ऐसे दुख में यह अवस्था क्या ? धिक्कार तिहारे बल को जो या पापीका सिर खड्गसे न काटो। तुम महाबलवान चांद सूर्य समान पुरुषों का पराभव न सहो सो ऐसे रंकका कैसे सहो-हे लंकेश्वर ! ध्या. नमें चित्त लगाया न काहू की सुनो न देखो अधरयंकातन धर बैठे अहंकार तज दिया जैसा समेरुका शिखर अचल होय, तैले अचल होय तिष्ठे, सर्व इन्द्रियनिकी क्रिया तजी, विद्याके माराधनमें तत्सर निश्चल शरीर महावीर तिष्ठे हो मानों काष्ठ के हो अथवा चित्रामके हो, जैसे राम सीताको चितवें तैसे तुम विद्याको चिंतवो हो ऐसे स्थिरता कर सुमेरुके तुल्य भए हो । जब या भांति मन्दोदरी रावणसे कहती भई ताही समय बहुरूपिणी विद्या दशों दिशामें उद्योत करती जय जय कार शब्द उचारती रावणके समीप पाय ठाढी भई, अर कहती भई-हे देव ! आज्ञा में उद्यमी मैं तुमको सिद्ध भई मोहि आदेश देवहु । एक चक्री अर्धचक्रीको टार सिहारी आज्ञा से विमख होय ताहि वश करू या लोकमें तिहारी आज्ञाकारिणी हूं । हम सारिखनकी यही रीति है जो हम चक्रवनियोंसे समर्थ नाहीं । जो तू कहे तो सर्व दैत्यनिको जीतू, देवनिको वश जो तोसे अप्रिय होय ताहि वशीभूत करू अर विद्याधर तो मेरे तृण समान हैं। यह विद्या वचन सन रावण योग पूर्ण कर ज्योतिका धारक उदार चेष्टाका धरणहारा शांतिनाथके चैत्यालयकी प्रदिक्षणा करता भया । ताहो समय अंगद मन्दोदरीको छांड आकाश गमन कर रामके समीप आया। कैसा है अंगद ? सूर्य · समान है तेज जाका ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै अशांतिनाथके मंदिरमें रााणको बहुरूपिप्पी विद्याको सिद्ध होनेका वर्णन करनेबाला इकहत्तरबां पर्न पूर्ण भया।। ७१ ।। अथानन्तर रावणकी अट्ठारह हजार स्त्री रावणके पास एक साथ सर्वे ही रुदन करती भई सुन्दर है दर्शन जिनका । हे स्वामिन् ! सर्व विद्याधरनिके अधीश तुम हमारे प्रभु सो तमको होते संते मूर्ख अंगदने आयकर हमारा अपमान किया । तुम परम तेजके धारक सूर्य समान सो ध्यानारूढ हुने पर विद्याधर आगिया समान, सो तिहारे मूंह आगिला छोहरा सुग्रीवका पुत्र पापी हमको उपद्रव करै । सुनकर तिनके वचन रावण सबकी दिलासा करता भया पर कहता Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •ununciationainamainaramin MAAAAAAAD बहत्तरवां पर्व ४२५ भया-हे प्रिप्रे! वह पापी ऐसी चेष्टा करै है सो मृत्युके पाशकर बंधा हैं। तुम दुख तजो जैसे सदा आनन्द रूप रहो हो ताही भांति रहो, मैं सुग्रीव को निग्रीव कहिए मस्तकरहित भूमिपर प्रभात ही करूंगा अर वे दोनों भाई राम लक्ष्मण भूमिगोचरी कीट समान हैं तिनपर कहा कोप, ये दुष्ट विद्याधर सब इनपै भेले भए हैं तिनका क्षय करूंगा, हे प्रिय ! मेरी भोंह टेढी करनेही में शत्रु विलाय जांय अर अब तो बहुरूपिणी महाविद्या सिद्ध भई मोसे शत्रु कहा जीवे । या भांति सब स्त्रीनिको महा थीर्य बंधाया मनमें नानता भया मैं शत्रु हते। भगवानके मन्दिरसे बाहिर निकसा नानाप्रकारके बादित्र बाजते भए, गीत नृत्य होते भए, रावणका अभिषेक भया, काम देव समान है रूप जाका, स्वर्ण रत्ननिके कलशनिकर स्त्री स्नान करावती भई । कैसी हैं स्त्री ? कातिरूप चांदनोसे मंडित है शरीर जिनका चन्द्रमा समान वदन अर सुफेद मणिनिके कलशनिकर स्नान करावें सो अद्भुत ज्योति भासती मई अर कई एक स्त्री कमल समान कांतिको धरें मानों सांझ फूल रही है। अर उगते सूर्य समान सुवर्णनके कलश तिनकर स्नान करावें सो मानों सांझ ही जल वरसे हैं पर कई एक स्त्री हरित मणिके कलशनिकर स्नान करावती अतिहर्षकी भरी शोभे हैं मानों साक्षात् लक्ष्मी ही हैं । कमल पत्र हैं कलशनिके मुख पर, अर कैयक केलेके गर्भ समान कोमल महासुगन्ध शरीर जिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं वे नानाप्रकारके सुगन्ध उबटना कर रावण को नानाप्रकारके रत्नजडित सिंहासन पर स्नान करावती भई । सो रावणने स्नानकर आभूषण पहिरे, महा सावधान भावनिकर पूर्ण शांतिनाथ मन्दिरमें गया। वहां अरहन्तदेवकी पूजा कर स्तुति करता भया, बारम्बार नमस्कार करता भया बहुरि भोजनशालामें आया, चार प्रकारका उत्तम आहार किया-प्रशन पान खाद स्वाद बहुरि भोजन कर विद्याकी परख निमित्त क्रीडा भूमिमें गया, वहां विद्याकर अनेकरूप बनाये । नानाप्रकार के अद्भुत कर्म विद्याधरनिसे न बनें सो बहुरूपिणी विद्यासे कीए । अपने हायकी घात कर भूकम्प किया, रामके कटकमें कपियों को ऐसा भय उपजो मानों मृत्यु भाई अर रावणको मन्त्री कहते भए---हे नाथ ! तुम टार राघवको जीतनहारे और नाहीं, राम महा योधा है और क्रोधवान होवे तब कहाँ कहना ? सो ताके सन्मुख तुम ही आवो पर कोई रण में रामके सन्मुख मावने को समर्थ नाहीं। अथानन्तर रावणने बहुरूपिणी विद्यासे मायामई करक बनाया अर आप उद्यानविर्षे जहां सीता तिष्ठे तहां गया मंत्रिनिकर मंडित जैसे देवनिकर संयुक्त इंद्र होय, सो सूर्य समान कांतिकर युक्त आवता भया तब ताको आवता देख विद्याधरी सीतामों कहती भई-हे शुभे ! महा ज्योतिवन्त रावण पुष्पक विमानसे उतरकर आया जैसे ग्रीषम ऋतु में सूर्य की किरणसे थाताप को पाता गजेंद्र सरोवरीके ओर आवे तैसे कामरूप अग्निसे तापरूप भया आवै है। यह प्रमद नामा उद्यान पुष्पनिकी शोभाकर शोभित जहां भ्रमर गुजार करे हैं। तव सीता बहरूपिणी विद्याकर संयुक्त रावणको देखकर भयभीत भई मनमें विचार है याके बलका पार नाही सो राम लक्ष्मण हूं याहि न जीतेंगे । मैं मंदभागिनी रामको अथवा लक्ष्मणको अथवा अपने Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ بعدن منطقطعظمطالعهد طف ره خاطره تعد ४२६ पद्म पुराण भाई भामण्डलको मत हना सुन । यह विचार कर व्याकुल है चित्त जाका कांपती चिन्तारूप तिष्ठे है वहां रावण आया सो कहता भया हे देवी ! मैं पापीने कपटकर तुझे हरी सो :यह बात क्षत्री कुलमें उत्पन्न भए हैं जे धीर अतिवीर तिनको सर्वथा उचित नाही, परन्तु कम की गति ऐसी है मोहकर्म बलवान है और मैं पूर्व अनन्तवीर्य स्वामीके समीप ब्रत लिया हुता जो परनारी मोहि न इच्छै ताहि मैं न ग्रहं उर्वशी रंभा अथवा और मनोहर होय तो भी मेरे प्रयोजन नाहीं। यह प्रतिज्ञा पालो संते मैं तेरी क्या हो की अभिलाषा करी परन्तु बलात्कार रमी नहीं । हे जगतविष उत्तम सुन्दरी ! अब मेरी भुनानिकर चलाए जे वाण तिनसे तेरे अवलम्बन राम लक्ष्मण मिदे ही जान अर तू मेरे संग पुष्पक विमानमें बैठ पान से बिहार कर । सुमेरुके शिखर चैत्य वृक्ष अनेक वन उपवन नदी सरोवर अवलोकन करती विहार कर ! तब सीता दोनों हाथ कानोंपर धर गद्गद् वागीसे दीन शब्द कहनी भई--हे दशानन ! तू बडे कुलविष उपजा है तो यह करियो जो कदाचित् संग्राममें तेरे अर मेरे बल्ल के शस्त्रप्रहार होय तो पहले यह संदेशा कहे घगैर मेरे कंथको मत हतियों। यह कहियो-हे पद्म ! भामण्डलकी बहिनने तुमको यह कहा है जो तिहारे विनोगते महाशोकके भारकर महा दुःखी हूं मेरे प्राण तिहारे जीव ही तक हैं मेरी दशा यह भई हैं जैसे पवन की हती दीपककी शिखा, हे राजा दशरथके पुत्र, जनककी पुत्रीने तुमको बारम्बार स्तुतिकर यह की हे तिहरे-दशनकी अभिलाषाकर यह प्राण टिक रहे हैं, ऐसा कहकर मूर्छि । होय भूभपै पडो जैसे पाते हाथीते भग्न करी कल्पवृक्षकी बेल गिर पड़े, यह अवस्था महासतीकी देख रावणका मन कोमल भया परम दुःखी भया यह चिन्ता करता भया--अहो कर्मनिके योगकर इनका निःसंदेह स्नेह है इनके स्नेहका क्षय नाहीं अर थिक्कार मोको मैं अति अयोग्य कार्य किया जो ऐसे स्नेहवान युगलका वियोग किया, पापाचारी महानीच जन समान मैं निःकारण अपयशरूप मलसे लिप्त भया, शुद्धचन्द्रमा समान गोत्र हमारा, मैं मलिन किया। मेरे समान दुरात्मा मेरे वंशमें न भया ऐमा कार्य काहुने न किया सो मैंने किया। जे पुरुषों में इन्द्र हैं ते नारीको तुच्छ गिने हैं, यह स्त्री साक्षात् विषफल तुल्य है क्लेशकी उत्पत्तिका स्थानक सर्पके मस्तककी मणि समान अर महा मोहका कारण, प्रथम ती स्त्री मात्र ही निषिद्ध हैं अर परस्त्रीकी कहा बात ? सर्वथा त्याज्य ही है। परस्त्री नदी समान कुटिल महाभयंकर धर्म अर्थका नाश करणहारी सदा सन्तोंको त्याज्य ही है । मैं महा पापकी खान अब तक यह सीता ममी देवांगनासे भी अति प्रिय भासती थी सो अव विषके कुम्भ के तुल्य भास है। यह तो केवल राम तूं अनुरागिनी है । अबलग यह न इच्छती थी परन्तु मेरे अभिलाषा थी अब जीर्ण तणवत भासै है। यह तो केवल रामसे तन्मय है मोसे कदाचित् न मिले, मेरा भाई महा पण्डित विभीषण सब जानता हुता सो मोहि बहुत समझाया, मेरा मन बिकारको प्राप्त भया सो न मानी तात द्वेष किया। जब विभीषणके वचननिकर मैत्रीभाव करता तो नीके था अब महा युद्ध भया, अनेक इते गये अब कैसी मित्रता ? यह मित्रता सुभटोंको योग्य नाहीं अर युद्ध करके बहुरि दया पालनी यह बने नाही, अहो मैं सामान्य मनुष्यकी नाई संकटमें पडा हूँ जो कदाचित् जानकी Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहत्तरवां पव ४२७ रामपै पठाबों तो लोग मोहि असमर्थ जानें अर युद्ध करिये तो महा हिंसा होय, कोई ऐसे हैं जिनके दया नाहीं केवल क्रूरता रूप हैं, ते भी काल क्षेप करें हैं और कई एक दयावान हैं संसार कार्यसे रहित हैं ते सुखसे जीव है । मानी युद्धाभिलाषी र कछू करुणाभाव नाहीं सो हम सारिखे महा दुखी हैं र रामके सिंहवाहन पर लक्ष्मणके गरुडवाहन विद्या सो इनकर महा उद्योत है सो इनको शस्त्ररहित करू' श्रर जीवते पकडू बहुरि धन दूं श्रर सीता दूं तो मेरी बडी कीर्ति होय र मोहि पाप न होय यह न्याय है । तातैं यही करू ऐसा मनमें धार महा विभव संयुक्त रावण राजलोक विषै गया जैसे माता हाथी कमलनिके वनविषै जाय । बहुरि विचारी अंगद बहुत नीति करी या बाततैं अति क्रोध किया अर लाल नेत्र होय आए रावण होंठ डमता वचन कहता भयावह पापी सुग्रीव नाहीं दुग्रीव है ताहि निग्रीव कहिये मस्तकरहित करूँगा ताके पुत्र अंगदसहित चन्द्रहास खड्ग कर दोय ट्रक करूंगा अर तमोमण्डलको लोग भामण्डल कहैं सो वह महा दुष्ट है ताहि दृढबंधन से बांध लोहके मुगदरोंसे कूट मारूंगा श्रर हनुमानको तीक्ष्ण करोंतकी धारसे काठके युग में चांग बिहराऊंगा । वह महा अनीति है ! एक राम न्यायमार्गी है ताहि बांगा अर समस्त अन्यायमार्गी हैं तिनको शस्त्रनिकर चूर डारुगा ऐसा विचार कर रावण तिष्ठा । अर उत्पात सैकडों होने लगे-सूर्यका मण्डल युव समान तीक्ष्ण दृष्टि पडा र पूर्णमासीका चन्द्रमा अस्त होय गया, आसन पर भूकम्प भया, दशो दिशा कम्पायमान भई, उल्कापात भए, शृगाली ( गीदडी) विरमशब्द बोलती भई, तुरंग नाड हिलाय विरस विरूप हींसते भए, हाथी रूक्ष शब्द करते भए, सूण्ड से धरती कूटने भए, यक्षनिकी मूर्ति अश्रुपात पडे. वृक्ष मूलतें गिर पडे, सूर्य के सन्मुख काग कटुक शब्द करते भए ढीले पांख किए महा व्याकुल भये अर सरोवर जलकर भरे हुने शोषको प्राप्त भए पर गिरियोंके शिखर गिर पडे अर रुधिरकी वर्षा भई | थोडेही दिनमें जानिए है लंकेश्वर की मृत्यु होय ऐसे अपशकुन और प्रकार नाही जब पुण्यक्षीण होय तब इन्द्र भी न बचें पुरुष में पौरव पुण्यके उदय कर होय है जो कछू प्राप्त होना होय सोई पाइये है, हीन अधिक नाहीं । प्राणियोंके शूरवीरता सुकृतके बल कर है । देखो, रावण नीति शास्त्र केविषै प्रवीण समस्त लौकिक नीति रीति जाने व्याकरणका पाठी महा गुणनिकर मंडित सो कर्मनिकर प्रेरा संता अनीति मार्गको प्राप्त भया मूढबुद्धि भया । लोक में मरण उपरांत कोई दुःख नाहीं मो याको अत्यन्त गर्वकर विचार नाहीं । नक्षत्रनिके बलकर रहित पर ग्रह सब ही क्रूर आए सो यह अविवेकी रण क्षेत्रका अभिलाषी होता भया । प्रतापके भंगका है भय जाको अर महा शू' वीरताके रससे युक्त यद्यपि अनेक शास्त्रनिका अभ्यास किया है तथापि युक्त युक्तको न देखें । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकतें कहे हैं - हे मगधाधिपति ! रावण महामानी अपने मनमें विचारे है सो सुन-सुग्रीव भामण्डलादिक समन्तको जीत अर कुम्भकरण इन्द्रजीत मेघनादको छुडाय लंका में लाऊंगा बहुरि वानवंशिनिका वंश नाश अर भामण्डलका पराभव करूंगा घर भूमिगोचरिनिको भूमिमें न रहने दूंगा अर शुद्ध विद्याधरनिको Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थरामें थापूगा तब तीन लोकके नाथ तीर्थकर देव अर चक्रायुध बलभद्र नारायण हम सारिखे विद्याधरनिके कुलहीमें उपजेंगे ऐसा वृथा विचार करता भया । हे मगधेश्वर ! जा मनुष्यने जैसे संचित कर्म किये होंय तैमा ही फल भोगवे । ऐसें न होय तो शास्त्रोंके पाठी कैसे भूलें। शास्त्र हैं सो सूर्य समान हैं ताके प्रकाश होते अन्धकार कैसे रहै परन्तु जे घूघू समान मनुष्य हैं तिनको प्रकाश न होय । - इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषा वचनिकाविणै रावणके युद्धका निश्चय कथन करनेवाला बहत्तरवा पर्व पूर्ण भया ॥७२॥ - अथानन्तर दूजे दिन प्रभातही रावण महादेदीप्यमान आस्थान मंडपविणे तिष्ठा । सूर्यके उदय होते हुए समाविणै कुवेर वरुण ईशान यम सोम समान जे बडे २ राजा तिनकर सेवनीक जैसे देवनिकर मंडित इद्र विराजे तैसे राजानिकर मंडित सिंहासन पर विराजा । परम कांतिको धरे जैसे ग्रह तारा नक्षत्रनिकर युक्त चन्द्रमा सोहै अत्यंत तैसे सुगंध मनोग्य वस्त्र पुष्पमाला पर महामनोहर गज मोतीनिके हार तिनसे शोभ है उरस्थल जाका, महा सौभाग्यरूप सौम्यदर्शन सभाको देखकर चिंता करता भया जो भाई कुम्भकर्ण इन्द्रजीत मेघनाद यहा नाही दीखे हैं सो उन विना यह सभा सोहै नाहीं और पुरुष कुमुदरूप बहुत हैं पर वे पुरुष कमलरूप नाही, सो यद्यपि रावण महारूपवान सुंदर बदन है अर फूल रहै हैं नेत्र कमल जाके, महा मनोग्य तथापि पुत्र भाईकी चिंतासे कुमलाया वदन नजर आवता भया अर महा क्रोधस्वरूप कुटिल है भृकटी जाकी मानों कोषका भरा आशीविष सर्प ही महा भयंकर होठ डमे महा विकराल स्वरूप, मंत्री देखकर डरे आज ऐसा कौनसे कोप भया यह व्याकुलता भई । तब हाथ जोड सीस भूमिमें लगाय राजा मय उग्र सुक लोकाच सारण इत्यादि धरतीकी ओर निरषते चलायमान हैं कुण्डल जिनके शिनती करते भए-हे नाथ ! तिहारे निकटवर्ती योधा सबही यह प्रार्थना करें हैं प्रसन्न होहु अर कैलाशके शिखर तुल्य ऊचे महल जिनके मणियोंकी भीति मणियोंके झरोखा तिनमें तिष्ठती भ्रमररूप हैं नेत्र जिनके ऐसा सब राणियों सहित मंदोदरी सो याहि देखती भई। कैसा देखा? लाल हैं नेत्र जाके प्रतापका भरा ताहि देखकर मोहित भया है मन जाका, रावण उठकर आयु. घशालामें गया । कैसी है आयुधशाला ? अनेक दिव्य शस्त्र अर सामान्य शस्त्र तिनसे भरी अमोघवाण अर चक्रादिक अमोघ रत्न कर भरी जैसे वनशालामें इन्द्र जाय । जा समय रावण आयुधशालामें गया ता समय अपशकुन भए, प्रथम ही छींक भई सो शकुनशास्त्रविणे पूर्वदिशाकी छींक हाय ती मृत्यु अर अग्निकोणविगै शोक, दक्षिणमें हानि, नेऋतमें शुभ, पश्चिमविणे मिष्ट भाहार, वायुकोणमें सर्व संपदा, उत्तरविगै कलह, ईशानविणे धनागम आकाशमें सर्वसंहार पातालमें सर्व संपदा ये दशों दिशामें छींकके फल कहे । सो रावण को मृत्युकी छींक मई बहुरि आगे मार्ग रोके महा नाग निरखा पर हा शब्द ही शब्द धिक शब्द कहां जाय है यह वचन होते भए अर पानकर छत्रके वैडूर्य मसिका दण्ड भग्न भया अर उत्तरासन गिर पड़ा काग दाहिना बोला इत्यादि और भी अपशकुन भए ते युद्धत निवारते भए वचनकर कर्मकर निवारते Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहारमा पर्ण ४२६ भए । जे नाना प्रकारके शकुन शस्त्र में प्रवीण पुरुष हुत वे अत्यन्त श्राकुल भए अर मंदोदरी शुक सारण इत्यादि बडे २ मंत्रियोंसे कहती भई-तुम स्वामीको कल्याणकी बात क्यों न कहो हो ? अब तक अपनी पर उनकी चेष्टा न देखी । कुम्भकर्ण इंद्रजीत मेघनादसे बंधन में आए, वे लोकपाल समान महा तेजके थारक अद्भुत कार्यके करणहारे । तब नमस्कारकर मत्री मंदोदरीसे कहते भए-हे म्वामिनी ! रावण महामानी यमराजमा क्रूर आप ही आप प्रथान है ऐसे या लोकमें कोई नाहीं जाके वचन रावण मानै जो कुछ होनहार है ता प्रमाण बुद्धि उपजै है बुद्धि कर्मानुसारणी है सो इंद्रादिककर तथा देवोंके समूह कर और झांति न होय ? संपूर्ण न्यायशास्त्र अर धर्मशास्त्र तिहारा पति सब जाने है परन्तु मोह कर उन्मत्त भया है । हम बहुत प्रकार कहा सो काहू प्रकार मान नाही, जो हठ पकडा है सो छांडे नाही, जैसे वर्षाकालके समागममें महा प्रवाहकर संयुक जो नदी ताका विरना कठिन है तैर कर्मनिका प्रेरा जो जीव ताका संबोधना कठिन है यद्यपि स्वामीका स्वभाव दुनिवार है तथापि तिहारा का करे तो करै तातें तुम हितकी बात कहो यामें दोष नाहीं । यह मंत्रिनिने कही तब पटराणी साक्षात् लक्ष्मी समान निर्मल है चित्त आका सो कम्पायमान पतिके समीप जायवेको उद्यमी भई । महा निर्मल जल समान वस्त्र पहिरे जैसे रति कामके समाप जाय तैसे चनी शिरपर छत्र फिरै हैं अनेक सहेली चमर ढारे हैं जैसे अनेक देवनिकर युक्त इन्द्राणी इन्द्रपै जाय तैसे यह सुन्दरबदनकी धारणहारी पतिपै गई निश्वास नाखती पाय डिगने शिथिल होय गई है कटि मेखल जाकी, भरतारके कार्यमें सावधान अनुरागकी भरी, ताहि स्नेहकी दृष्टिकर रावण देखता भया, श्रापका चित्त शस्त्रनिमें अर वक्तरमें तिनको आदरसे स्पर्श है सो मंदोदरीसे कहता भया-हे मनोहरे हंगनी समान चालकी चलनहारी हे देवी, ऐसा कहा प्रयोजन है जो तुम शीघ्रतासे आवोहो । हे प्रिये, मेरा मन काहेको हरो हो, जैसे स्वप्नमें निधान । तब वह पतिव्रता पूर्ण चन्द्रमासमान है वदन जाका फूले कमलसे नेत्र स्वतः उत्तम चेष्टाकी धारणहारी मनोहर जे कटाक्ष वेई भए बाण सो पतिकी ओर चलाबनहारी महा विचक्षण मदनका निवास है अंग जाका महामधुर शब्दकी वोलनहारी स्वर्णके कुम्मसमान हैं स्तन जाके तिनके भारकर नयगा है उदर जाका द डिमके बीज समान दांत मुंगाममान लाल अधर अत्यन्त सुकुमार अति सुन्दरी भरतारकी कृपाभूमि सो नाथको प्रणामकर कहती भई-हे देव, मोहि भर्तारकी भीख देवो, आप महादयावन्त धर्मात्माओंसे अधिक स्नेहवन्त मैं तिहारे वियोगरूप नदीमें डबूहूं सो महाराज मोहि निकासो कैसी है नदी? दुःखरूप जलकी भरी संकल्प विकल्परूप लहरकर पूर्ण है, हे महाब ! कु.म्बरूप आकाशमें सूर्यसमान प्रकाशके कर्ता एक मेरी विनती सुनो-तिहारा कुलरूप कमलोंका वन महाविस्तीर्ण प्रलय हुआ जाय है सो क्यों न राखो। हे प्रभो ! तुम मोहि पटराणीका पद दिया हुता सो मेरे कठोर बचनोंकी क्षमा करो, जे अपने हितू हैं तिनका वचन औषध समान ग्राह्य है परिणाम सुखदाई विरोधरहित स्वभावरूप आनन्द कारी है मैं यह कहु हूं तुम काहेको संदेहकी तुला चढो हो । यह तुला चढिवेकी नाही, काहेको आप संताप करो हो अर हम सवनिको Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण संतापरूप करो हो, अब हू कहा गया ? तिहारा सब राज तुम सकल पृथिवीके स्वामी अर तिहारे भाई पुत्रनिको बुलाय लेहु तुम अपना चित्त कुमार्ग निवारो अपना मन वश करो तिहारा मनोरथ अत्यन्त अकार्यमें प्रवरता है सो इंद्रियरूप तरल तुरंगोंको विवेकरूप दृढ लगा. म कर वश करो इंद्रियनिके अर्थ कुमार्गमें मनको कौन प्राप्त करे, तुम अपवादका देनहारा जो उद्यम ता विषै कहा प्रय” हो ? जैसे अष्टापद अपनी छाया कूपमें देख क्रोधकर कूपमें पडे तैसे तुम आप ही क्लश उपजाय मापदामें पडो हो, यह क्लेशका कारण जो अपयशरूप वृद्ध ताहि तज कर सुखसे तिष्ठो, केलेके थंभ समान असार यह विषय ताहि कहा चाहो हो, यह तिहा. रा कुल समुद्रसमान गंभीर प्रशंसा योग्य ताहि शोभित करो यह भूमि गोचरोंकी स्त्री बड़े कुलवन्तनिको अग्निकी शिखा समान है ताहि तनो । हे स्वामी ! जे सामंतसामंतसों युद्ध करे हैं वे मनविष यह निश्चय करे हैं हम मरेंगे । हे नाथ ! तुम कौन अर्थ मरो हो पराई नारी ताके अर्थ मरणा ? या मरियेमें यश नाही पर उनको मारो तिहारी जीत होय तोहू यश नाहीं खत्री मरे हैं यशके अर्थ तातें सीता सम्बन्धी इठको छांडो अर जे बडे २ व्रत हैं तिनकी महिमा ती कहा कहैं, एक यह परदासपरित्याग ही पुरुषके होय तो दोऊ जन्म सुधरे, शीलवन्त पुरुष भवसागर तिरें जो सर्वथा स्त्रीका त्याग करे सो तो अतिश्रेष्ठ ही है काजल समान कालिमाकी उपजावनहारी यह परनारी तिनमें जे लोलुपी तिनमें मेरुसमान गुण होय तोह तण समान लघु टोय जांय । जो चक्रवर्तीका पुत्र होय अर देव जाका पक्ष होय भर परस्त्री के संगरूप कांच में डूबे तो महा अपयशको प्राप्त होय जो मूढमति परस्त्रीसे रति करे है सो पापी आशीविष भुजंगनीसे रमै है, तिहारा कल अत्यन्त निर्मज्ञ सो अपयशकर मलिन मत करी, दुर्बुद्धि तजो, जे महाबलवान हुते और दूसरोंको निर्बल जानते अर्क कीर्ति अशनपोषादिक अनेक नाशको प्राप्त हुए । सो हे सुमुख ! तुम कहा न सुने। . ये वचन मंदोदरीके सुन रावण कमलनयन कारी घटा समान है वर्ण जाका मलयागिर चन्दन कर लिप्त मंदोदरीसे कहता भया-हे कांत, तू काहेको कायर भई मैं अर्ककीर्ति नाहीं जो जयकुमारसे हारा भर मैं अशनधोष नाहीं जो अमिततेजसे हारा अर और हू नाही मैं दशमुख हूँ तू काहेको कायरताकी बात कहे है मैं शत्रुरूपवृक्षनिके समूहको दावानलरूप हूं। सीता कदाचित् न दं, हे मंदमानसे ! तू भय मत करे या कथा कर तोहि कहा ? तोकों सीताकी रक्षा सौंपी है सो रक्षा भली भांति कर अर जो रक्षा करिवेको समर्थ नाहीं तो शीघ्र मोहि सौंप देवो। तब मंदोदरी कहती भई--तुम उससे रतिसुख बांछो हो तातें यह कहो हो, मोहि सोंप देवो सो यह निर्लज्जताकी बात कुलवन्तों को उचित नाही, बहुरि कहती भई-तुमने सीताका कहा माहात्म्य देखा जो ताहि बारम्बर बांछों हो वह ऐसी गुणान्ती नाही ज्ञाता नाही, रूपवंतियोंका तिलक नाहीं, कलामें प्रवीण नाही, मनमोहनी नाहीं पतिके छांदे चलनेवारी नाही ता सहित रतिमें बुद्धि करा हो, सो हे कंत, यह कहा वार्ता, अपनी लघुता होय है सो तुम नाहीं जाना हो, मैं अपन मुख अपनी प्रशंसा कहा करूं अपने मुख अपने गुण कहे गुणोंकी Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहत्तरण पर ४३१ गौणता होय है अर पराए मुख सुने प्रशंसा होय है तातें मैं कहा कहू तुम सब नीके जानो हो, विचारी सीता कहा ? लक्ष्मी भी मेरे तुल्य नाही तातै सीताकी अभिलाषा तजो, मेरा निरादर कर तुम भूमिगोचरिणीको इच्छो हो, मो मंदमति हो जैसे बालबुद्धि वैडूर्य मणिको तज अर कांचको इच्छे ताका कछू दिव्य रूप नाही तिहारे मनमें क्या रुची यह ग्राम्यजाकी नारी समान अन्पमति ताकी कहा भभिलाषा अर मोहि आज्ञा देवो सोई रूप धरू तिहारे चित्तकी हरणहारी मैं लक्ष्मीका रूप धरूअर आज्ञा करो तो शची इन्द्राणीका रूप धरू कहो तो रतिका रूप धरू । हे देव, तुम इच्छा करो सोई रूप करू', यह वार्ता मंदोदरीकी सुन रावणने नीचा मुख किया अर लज्जावान भया । बहुरि मंदोदरी कहती भई-तुम परस्त्री आसंक्त होय अपनी प्रात्मा लघु किया विषयरूप आमिषकी आसक्ती है जाके सो पापका भाजन है धिक्कार है ऐसी क्षुद्र चेष्टाको। यह वचन सुन रावण मंदोदरी से कहता भया–हे चन्द्रवदनी, कमललोचने, तुम यह कही जो कहो जैसा रूप बहुरि धरू सो औरोंके रूपसे तिहारा रूप कहा घटती है तिहारा स्वतः ही रूप मोहि अति बल्लभ है । हे उत्तमे, मेरे अन्य स्त्रीनिकर कहा ? तब हर्षितचित्त हो कहती भई-हे देव, सूर्य को दीपका उद्योत कहा दिखाइये, मैं जो हितके वचन आपको कहे सो औरो को पूछ देखो मैं स्त्री हूँ मेरेमें ऐमी बुद्धि नाहीं शास्त्रमें यह कही है जो धनी सबही नय जाने हैं परन्तु दैव योग थकी प्रमादरूप भया होय तो जे हितु हैं ते समझायें जैसे विष्णुकुमार स्वामी को विकियाऋद्धिका विस्मरण भया तो औरोंके कहे कर जाना, यह पुरुष यह स्त्री ऐसा विकल्प मन्दबुद्धिनिके होय है जे बुद्धिमान हैं हितकारी वचन सबही मान लेंय आपका कृपाभाव मो ऊपर है तो मैं कहूँ हूं। तुम परस्त्रीका प्रेम तजो, मैं जानकीको लेकर रामपै जाऊ अर रामको तिहारे पास ल्याऊ, अर कुम्भकर्ण इन्द्रजीत मेघनादको लाऊ अनेक जीवनिकी हिंसा कर कहा ? ऐसे व वन मन्दोदरीने कहे तब रावण अतिक्रोधकर कहता भया-शीघ्रही जावो जावो जहां तेरा मुख न देखू तहां जावो । अहो तू आपको वृथा पंडित माने है आपकी ऊंचता तज परपक्षकी प्रशंसामें प्रवरती, तू दीन चित्त है योषायोंकी माता तेरे इन्द्रनीत मेघनाद कैसे पुत्र पर मेरी पटराणी राजा मयकी पुत्री तोमें एती कायरता कहाँसे आई ? ऐसा कहा तब मन्दोदरी बोली-हे पति ! सुनो जो ज्ञानियोंके मुख बलभद्र नारायण प्रतिनारायणका जन्म सुनिये है पहिला बलभद्र विजय नारायण त्रिपृष्ठ, प्रतिनारायण अश्वग्रीव, दूजा वलभद्र अचल नारा यण द्विपृष्ट प्रतिहरि तारक इसभांति अब तक सान बलभद्र हो चुके सो इनके शत्रु प्रतिनारायण इन्होंने हते अब तिहारे समय यह बलभद्र नारायण भए हैं अर तुम प्रतिवासुदेव हो भागे प्रतिवासुदेव हठ कर हते गए तैसे तुम नाशको इच्छो हो । जे बुद्धिमान हैं तिनको यही कार्य करना जो या लोक परलोकमें सुख होय अर दुःखके अंकुरकी उत्पत्ति न होय सो करनी । यह जीव चिरकाल विषयसे तृप्त न भया तीन लोकमें ऐसा कौन है जो विषयोंसे तृप्त होय ? तुम पाप कर मोहित भए हो सो वृथा है पर उचित तो यह है तुमने बहुत काल भोग किए अब मुनि Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wnnnnnnnnnnnn ४३२ पध-पुराण व्रत धरो अथवा श्रावकके व्रत धर दुखों का नाश करो अणुव्रत रूप खड्ग कर दीप्त है अंग जाका नियम रूप छत्रकर शोभित सम्यक् दर्शन रूप वक्त र पहिरे, शीलरूप मजा कर शोभित, अनित्यादि वारह भावना तेई चन्दन तिनकर चर्चिा है अंग जाका अर ज्ञान रूप धनुषको धरे, वश किया है इन्द्रियनिका क्ल जाने, शुभध्यान अर प्रताप कर युक्त, मर्यादा रूप अंकुश कर संयुक्त, निश्चलरूप हाथीपर चढा जिन भक्ति की है महाभक्ति जाके ऐसे तुम दुर्गतिरूप कुनदी सो महा कुटिल पापरूप है वेग जाका अतिदुःसह सो पंडितनिकर तिरिये है, ताहि तिरकर सखी होवो अर हिमवान सुमेरु पर्वतविणै जिनालयको पूजते संते मेरे सहित ढाई द्वीपमें बिहार कर अष्टादश सहस्र स्त्रीनिके हस्त कमल पल्लव तिनकर लडाया संता सुमेरु पर्वतके वनमें क्रीडा कर, अर गंगाके तक पर क्रीडा कर अर और भी मनवांछित प्रदेशनिविष रमणीक क्षेत्रनिविष हे नरेंद्र ! सुखसे बिहार कर । या युद्ध कर छू प्रयोजन नाही, प्रसन्न होवो, मेरा ववन सर्वथा सुखका कारण है यह लोकापवाद मत करावी । अपयशरूप समुद्रमें काहे डूबो हो,यह अपवाद विष तुल्य महानिन्छ परम अनर्थका कारण भला नाी, दुजन लोक सहज ही परनिन्दा करें सो ऐसी बात सुन कर तो करे ही करें, या भांति शुभ वचन कह यह महासती हाथ जोड पतिका परम हित वांछती पतिके पायन पडी। तब रावण मन्दोदरीको उठायकर कहता भया-तू निःकारण क्यों भयको प्राप्त भई । हे सुन्दरवदनी ! मोसे अधिक या संगारमें कोई नाहीं तू स्त्री पर्यायके स्वभाव कर वृथा काहे को भय करे है । तैने कही जो यह बलदेव नारायण हैं सो नाम नारायन अर नाम बलदेव भया तो कहा ? नाम भए कार्य की सिद्धि नाही, नाम नाहर भया तो कहा ? नाहरके पराक्रम भए नाहर होय, कोई मनुष्य मिद्ध नाम कहाया तो कहा सिद्ध भया ? हे कान्ते ! तू कहा कायरताकी वार्ता करै, रथ पुरका राजा इन्द्र कहावता सो कहा इ.द्र भया ? तैसे यह भी नारायण नाहीं । या भांति गवण प्रतिनारायण ऐसे प्रवल वचन स्त्रीको कह महाप्रतापी क्रीडाभवनमें मन्दोदरी सहित गया जैसे इन्द्र इन्द्राणी सहित क्र डागृहमें जाय । सांझ समय सांझ फूली सूर्य अस्त समय किरण संकोचने लगा जैसे संयमी कायोंको संकोचे, सूर्य आरक्त होय अस्त को प्राप्त भया, कमल मुद्रित भए, चावा चकवी वियोगके भयकर दीन वचन रटते भए, मानों सूर्यको बुलाये हैं अर सूर्यके अस्त हो रवे कर ग्रह नक्षत्रकी सेना आकाशमैं विस्तरी मानों चन्द्रमा ने पठाई । रात्रिके समय रत्नदीका उद्यात मा, दीपांकी प्रभाकर लंका नगरी ऐसी शोभती भई मानों समेरुकी शिखा ही है काऊ बन्लमा बल्लभसे मिलकर ऐसे कहती भई-एक रात्रितो तुम सहित व्यतीत करेंगे बहुरे देखिए कहा होय ? अर कोई एक प्रिया नाना प्रकारके पुष्पनिकी सगन्धताके मकरंदकर उन्मत्त भई स्वाभीके अंगमें लगी भानों महाकोमल पुष्पनिकी वृष्टिही पडी। कोई नारी कमल तुल्य हैं चरण जाके अर कठिन हैं कुच आके महासुंदर शरीरकी थरणहारी संदर पतिके समीप गई पर कोई सुन्दरी आभूषणको पहरती ऐमी शोभती मई मानों स्वर्ण रन्नोंको कृतार्थ कर है भावार्थ-सा समान ज्योति रत्न स्वर्णमें नाहीं रात्रि समय विद्याथर मायाचित Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहत्तरवां पर्ण क्रीडा करता भये । घर घरमें भोग भूमिकीसी रचना होती भई, महा सुन्दर गीत अर वीण बांसुरियों का शब्द तिनकर लंका हर्षित भई मानों वचनालाप ही करै है अर ताम्बूल सुगन्ध माल्या. दिक भोग अर स्त्री आदि उपभोग सो भोगोपभोगनिकर लोग देवनकी न्याई रमते भए अर कैएक उन्मत्त भई स्त्रियों को नाना प्रकार रमावते भए अर कैयक नारी अपने बदनकी प्रतिबिम्ब रत्ननिकी भीतिमें देखकर जानती भई कि कोई दूजी स्त्री मन्दिरमें आई है सो ईर्षाकर नील कमलसे पतिको ताडना करती भई । स्त्रीनिके मुखझी सुगन्धता कर सुगन्ध होय गया अर वर्फके योगकर नारिनके नेत्र लाल होय गए । कोई एक नायिका नवोढा हुनी अर प्रीतमने अमल खवाय उन्मत्त करी सो मन्मथ कर्मकर प्रौढाके भावको प्राप्त भई, लज्जारूप सखीको दा कर उन्मत्ततारूप मुखीने क्रांडामें अत्यंत तत्पर करी पर धमें हैं नेत्र जाके अर स्खलित वचन हैं जाके । स्त्री पुरुषनिकी चेष्टा उन्मत्तता कर विकट रूप होती भई । नरनारिनिके अधर मुंगा समान शोभायमान दीखते भए, नर नारी मदोन्मत्त सो न कहने की बात कहते भए अर न करनेकी बात करते भये, लज्जाही छुट गई, चन्द्रमाके उदयकर मदनकी वृद्धि भई ऐसा ही तो इनका यौवन ऐसे ही सुन्दर मंदिर अर ऐसा ही अमलका जोर सो सब ही उन्मत्त चेष्टाका कारण आय प्राप्त भया ऐसी निशामें प्रभातविणे होनहार युद्ध जिनके सो संभोगका योग उत्सय रूप होता भया अर राक्षसनिका इंद्र सुन्दर है चेष्टा जाकी सो समस्त की राजलोकको रमावता भया । बारम्बार मन्दोदरीसे स्नेह जनावता भया । याका वदनरूप चन्द्र निरखते रावणके नेत्र तृप्त न भये, मन्दोदरी रावणसे कहती भई-मैं एक क्षण मात्र हू तुमको न तजूंगी। हे मनोहर ! सदा तिहारे संग ही रहूंगी जैसे बेल बाहुवलिके व अंगसे लगी तैसे रहूंगी, आप युद्ध में विजय कर वेग ही आवो, मैं रत्न. निको चूर्ण कर चौक पूरूगी अर तिहारे अर्धपाद्य करूंगी प्रभु की महामख पूजा कराऊंगी प्रेमकर कायर है चित्त जाका, अत्यंत प्रेमके वचन कहते निशा व्यतीत भई अर कूकडा बोले नक्षत्रनिकी ज्योति मिटी संध्या लाल भई अर भगवानके चैत्यालयनिमें महा मनोहर गीत ध्वनि होती भई पर सूर्य लोकका लोचन उदयसन्मुख भया, अपनी किरणनिकर सर्व दिशामें उद्योत करता संता प्रलय कालके अग्निमण्डल समान है आकार जाका प्रभात समय भया तव सब राणी पतिको छोडती उदास भई, तब रावण सबको दिलासा करी, गम्भीर बादित्र बाजे, शंखोंके शब्द भए रावणकी आज्ञा कर जे युद्ध में विचक्षण हैं महा भट महाअहंकारको धरते परम उद्धत अति हर्षके भरे नगरसे निकसे, तुरंग हाथी रथों पर चढ़े खड्ग धनुष गदा बरछी इत्यादि अनेक आयुधनिको धरे, जिनपर चमर दुरते छत्र फिरते महा शोभायमान देवनि जैसे स्वरूपवान् महा प्रतापी विद्याधरनिके अधिपति योथा शीघ्र कार्यके करणहारे श्रेष्ठ ऋद्धिके धारक यद्धको उद्यमी भए । ता दिन नगरकी स्त्री कमलनयनी करुणा भावकर दुखरूप होती भई सो तिनको निरखे दुर्जनका चित दयाल होय, कोई एक सुभट घरसे युद्धको निकसा अर स्त्री लार लगी आवै है ताहि कहता भया-हे मुग्धे ! घर जावो हम सुखसे जाय हैं अर कैयक Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल-पुराण स्त्री भरतार चले हैं तिनको पीछेसे जाय कहती भई-हे कान्त ! तिहारा उत्तरासन लेवो तब पति सन्मुख होय लेते भए । कैनी है कमलनयनी ? पतिके मुख देखवेकी है लालसा जाके पर कैयक प्राणवल्लभा पतिको दृष्टि से अगोचर होते संते सखियों सहित मूळ खाय पडी अर कोई एक पति पाछे अाय मौन गह सेजर पडी मानों काठको पुली ही है अर कोई एक शूरवीर श्रावक व्रतका धारक पीठ पीछे अपनी स्त्रीको देखता भया अर आगे देवांगनाओं को देखता भया । भावार्थ-जे सामनन अणुवार थरक हैं वे देवलोकके अधिकारी हैं अर जे सामन्स पहिले पूर्णमासीके चन्द्रमा समान सौम्यवदन हुने वे युद्धके आगमनमें काल समान कर श्राकार होय गए सिरपर टोप धरे धक्ता पहिरे शस्त्र लिए तेज भागते भए। .. अथानन्तर चतुरंग सेनासंयुक्त धनुष छत्रादिक कर पूर्ण मारीच महा वैजको धरे युद्धका अभिलाषी आय प्राप्त भया फिर विमलचन्द्र पाया महा धनुषधारी और सुनन्द आनन्द नन्द इत्यादि हजारों राजा आए सो विद्या कर निरमापित दिव्यरय तिनपर चढे अग्नि कैसी प्रभा को धरे मानों अग्निकुमारदेव ही हैं कैयक तीक्ष्ण शस्त्रों कर सम्पूर्ण हिमवान पर्वत समान जे हाथी उनकर सब दिशावोंको याच्छ दते हुए पाए जसे जुिरीसे संयुक्त मेघमाला श्रावै और कैयक श्रेष्ठ तुरंगों पर चढे मंचों हथियारों कर संयुक्त शीत्र ही जोतिष लोकसो उलंघ आवते भए । नाना प्रकारके बडे बडे बादित्र और तुरंगोंका हीसना गजोंका गर्जना पयादोंके शन्द योधानिके सिंहनाद बन्दीजनांक जय जय शब्द ओर गुणी जनों के गीत वीर रसके भरे इत्यादि और भी अनेक शब्द भेले भए, थरती आकाश शब्दायमान भए, जैसे प्रलय कालके मेघपटल होवें तैसे निकसे मनुष्य हाथी घोडे रथ पियादे परम्पर अत्यंत विभूति कर देदीप्यमान बडी भुजानिसे बखतर पहिरे उतंग हैं उरस्थल जिनके विजयके अभिल पी और पयादे खडग सम्हालें हैं महा चंचल आगे २ चले जाय हैं स्वामी के हर्ष उपजावनहारे तिनके समूहकर आकाश पृथ्वी और सर्व दिशा ब्याप्त भई, ऐसे उपाय करते भी या जीवके पूर्व कर्मका जैमा उदय है तैसा ही होय है. यह प्राणी अनेक चेष्टा करै है परन्तु अन्यथा न होय जैसा भवितव्य है तैसा ही होय सूर्य ह और प्रकार करने समर्थ नाहीं॥ इति श्रीरविणेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ. ताकी भाषा ननिकानिङ्ग रानणका युद्ध में उद्यमी होने का वर्णन करनेवाला तिहत्तरबां पर्ण पूर्ण भया ।। ७३ ।। अथानन्तर लंकेश्वर मंदोदरीसू कहता भया-हे प्रिये ! न जानिये बहुरि तिहारा दर्शन होय वा न होय तब मंदोदरी कहती भई -हे नाथ ! सदा वृद्धिको प्राप्त होवो, शत्रुवोंको जीत शीघ्र ही आय हमको देखोगे अर संग्रामसे जीते. आरोगे ऐसा कहा अर हजारा स्त्रियोंकर अवलोका संता राक्षसोंका नाथ मंदिरसे वाहिर गया. महा विकटताको धर विद्याकर निरमापा ऐंद्रीनामा रथ ताह देखतो भया जाके हजार हाथी जुपें मानों कारी घटाका मेघ ही है वे हाथी मदोन्मत्त झरे है मद जिनके, मोतियोंकी माला तिनकर पूर्ण महा घटाके नादकर युक्त ऐरावतसमान नानाप्रकारके रंगोंसे शोभित जिनका जीतना कठिन अर विनयके थाम अत्यन्त गर्ज Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहत्तरवां पर्ण नाकर शोभित ऐसे सोहते भए मानों कारी घट के समूह ही हैं मनोहर है प्रभा जिनकी ऐसे हाथियोंके रथ चढा रापण सोहता भया भुजबन्ध कर शोभायमान हैं भुजा जाकी मानों साक्षात् इंद्र ही है विस्तीर्ण हैं नेत्र जाके अनुपम है आकार जाका अर तेजकर सकल लोकमें श्रेष्ठ १० हजार श्राप समान विद्याधर तिनके मंडलकर युक्त रणमें आया, सो वे महा बलवान देवों सारिखे अभिप्रायके वेत्ता रावणको आया देख सुग्रीव हनूम न क्रोधको प्राप्त भए अर जब रावण चढा तब अत्यन्त अपशकुन भए भयानक शब्द भया अर आकाशमें गृध्र भ्रमते भए आच्छादित किया है सूर्यका प्रकाश जिन्होंने मो ये क्षरके सूचक अपशकुन भए परंतु रावण के सुभट न मानते भए युद्धको अाए ही पर श्रीरामचन्द्र अपनी सेनामें तिष्ठते सो लोकोंसे पूछते भए-हे लोको! या नगरीके समीप यह कोन पर्वत है तब सुषेणादिक तो तत्कालही जवाब न देय सके अर जांबुवादिक कहते भए--यह बहुरूपिणी विद्यासे रचा पद्मनाग नामा रथ है घनेनिको मृत्युका कारण, अंगदने नगरमें जायकर रावणको क्रोध उपजाया सो अब बहुरूपिणी विद्या सिद्ध भई, हमसे महाशत्रुता लिए है सो तिनके वचन सुनकर लक्ष्मण सारथीसे करता भया-मेरा रथ शीघ्रही चलाय तब सारथीन रथ चलाया श्रर जैसे समुद्र गाजै ऐसे वादित्र बाजे । वादित्रोंके नाद सुनकर योधा, विकट है चेष्टा जिनकी, लक्ष्मणके समीप श्राए । कोई एक रामके कटकका सुभट अपनी स्त्रीको कहता भया-हे निये, शोक तज, पीछे जावो मैं लंकेश्वरको जीत तिहारे समीप श्राऊंगा, या भांति गर्वकर प्रचण्ड जे योवा वे अपनी अपनी स्त्रीनिको धीर्य बंधाय अन्तःपुरसे निकसे, परस्पर स्पर्धा करते, वेगसे प्रेरे हैं बाहन रथांदिक जिन्होंने ऐसे महा योधा शस्त्रके धारक युद्धको उद्यमी भए । भृतस्वननामा विद्याधरोंका अधिपति महा हाथियोंके रथ चढा निकसा, गंभीर है शब्द जाका । या विधि और भी विद्याधरनिके अधिपति हर्षसहित रामकं सुभट कर हैं आकार जिनके क्रोधायमान होय रावणके योधानिस, जैसा समुद्र गाजे तैसे गाजते गंगाकी उतंग लहर समान उछलते, युद्धके अभिलाषी भये अर राम लक्ष्मण डेर.निसे निकसे, कैस हैं दोनों भाई पृथिवीमें व्याप्त हैं अनेक यश जिनके, कर आकारको धरे सिंहानिके रथ चढे, बखर पहिरे महाबलवान उगते सूर्यसमान श्रीराम शोभते भए अर लक्ष्मण गरुडकी है ध्वजा जाके पर गरुड के स्थ चढा, कारी घटा समान है रंग जाका अपनी श्यामताकर श्याम करी है दशो दिशा जाने, मुकुटको धरे, कुंडल पहरे धनुष चढाये, बखतर पहरे, वाण लिये, जैसे सांझके समय अंजनगिरि सोहै तैसे शोभता भया। गौतम स्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! बडे २ विद्याधर नानाप्रकारके वाहन अर विमाननिपर चढ़े युद्ध करिवको कटकसे निकसे । जेब श्रीराम चढ़े तव अनेक शुभशकुन आनन्दके उपजावनहारे भए, रामको चढा जान रावण शीघ्र ही महा दावानल समान है प्राकार जाका युद्धको उद्यमी भया, दोनों ही कटकके योधा जे महासामंत तिनपर आकाशसे गंधर्व अर अप्सरा पुष्पवृष्टि करती भई, अंजनगिरिसे हाथी महावतोंके प्रेरे मदोन्मत्त चले पियादों कर वेढे अर सूर्यके रथ समान रथ, चंचल हैं तुरंग जिनके सारथिनिकर युक्त जिन पर महा योधा चढे युद्धको Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण प्रवर्ते, अर घोडोंपर चढे सामंत गंभीर हैं नाद जिनके परम तेजको धरे गाजते भए अर अश्व हींसते भए परम हर्षके भरे देदीप्यमान हैं आयुध जिनके अर पियादे गर्वके भरे पृथिवीमें उछलते भए खड्ग खेट बरछी है हाथमें जिनके. युद्धकी पृथिवीमें प्रवेश करते भए परस्पर स्पर्धा करे हैं दौडे हैं हने हैं योथानिमें परस्पर अनेक आयुथनिकर तथा लाठी मूका लोह यष्टिनि कर युद्ध भया परस्पर केश ग्रहण भया, खड्ग कर विदारा गया है शरीर जिनका, कैयक बाणोंकर वींधे गये तथापि योथा युद्धके आगे ही भए, मारे हैं प्रहार करें हैं गाजे हैं घोडे व्याकुल भए भ्रमै हैं कैयक आसन खाली होय गए असवार मारे गए मुष्टियुद्ध गदायुद्ध भया, कैयक बाणनिकर बहुत मारे गये कैयक खड्ग कर कैयक सेलोंकर घाव खाये, बहुरि शत्रुको घायल करते भए, कैयक मनवांछित भोगनिकर इंद्रियनिको रमावते सो युद्धमैं इंद्रिय इनको छोडती भई जैसे कार्य परे कुमित्र तजै कैयक के आंतनिके ढेर हो गये तथापि खेद न मानते भए शत्रुनि पर जाय पडे अर शत्रुमहित भाप प्राणान्त भए, डसे हैं होंठ जिन्होंने । जे राजकुमार देवकुमार सारिखे सुकुमार रत्ननिके महिलों के शिखरमें क्रीडा करते महा भोगी पुरुष स्त्रीनिके स्तनकर रमाये संते वे खडग चक्र कनक इत्यादि प्रायुधनिकर विदारे संत संग्रामकी भूमिमें पडे. विरूप आकार तिनको गृद्ध पक्षी अर स्याल भषे हैं अर जैसे रंगकी भरी रामा नखोंकर चिन्ह करती अर निकट प्रावती तैसे स्यालनी नख दं निकर चिन्द करे हैं पर समीप आवै हैं बहुरि श्वासके प्रकाश कर जीवते जान वे डर जांय हैं जैसे डाकनी मंत्रबादीसे दूर जांय अर सामंतनिको जीवते जान यक्षिणी डर कर उड जाती भई जैसे दुष्ट नारी चलायमान हैं नेत्र जिसके पतिके समीपसे जाती रहे । जीवोंके शुभाशुभ प्रकृतिका उदय युद्ध में लखिये है दोनों बराबर पर कोईकी हार होय कोई की जीत होय अर काहूं अल्प सेन का स्वामी महा सेनाके स्वामी को जीते अर कोई एक सुकृतके सामर्थ्यसे बहुतोंको जीते अर कोई बहुत भी पापके उदयसे हार जाय । जिन जीवोंने पूर्व भवमें तप किया वे राज्यके अधिकारी होय विजयको पावें हैं और जिन्होंने नप न किया अथवा तप भग किया तिनकी हार होय है । गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं-हे श्रेणिक ! यह धर्म मर्मकी रक्षा करे है अर दुर्जयको जीते है धमही बडा सहाई है बडा पक्ष धर्मका है धर्म सब ठौर रक्षा करै है । घोडोंकर युक्त रथ पर्वत समान हाथी पवन समान तुरंग असुर कुमारसे पयादे इत्यादि सामग्री पूर्ण है परन्तु पूर्वपुण्यके उदय विना कोई राखने समर्थ नाहीं, एक पुण्याधिकारीही शत्रुवोंको जीते है इस भांति राम रावणके युद्धकी प्रवृत्तिमें योषावोंकर योधा हते गए तिनकर रण खेत भर गया, अरकाश नाहीं प्रायुधोंकर योधा उछले हैं परे हैं सो आकाश ऐसा दृष्टि पडता भया मानों उत्पातके बादलोकर मंडित है। अथानन्तर मारीच चन्द्रनिकर बज्राक्ष शक सारण और भी राक्षसोंके अधीश तिन्होंने रामका कटक दवाया तब हनूमान चन्द्रमारीच नील मुकुंद भूतस्वन इत्यादि रामपक्षके योथा तिन्होंने राक्षसनिकी सेना दवाई तब रावणके योधा कुंद कुम्भ निकुंम्भ विक्रम क्रमाण जंबूमाली काकाली सूर्यार मकरध्वज अशनिरथ इत्यादि राक्षसनिके बडे बडे राजा शीघ्रही युद्ध Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ভীষণ এগ को उठे तब भूधर अचल सम्मेद निकल करिल अंगद सुपेण कालचन्द्र उर्मितरंग इत्यादि वानरवंशी योधा तिनके समुख भए उनही ममान, ताममय कोई सुभट प्रतिपक्षी सुभट बिना दृष्टि न पडा । भावार्थ-दोनों पक्षके योग परस्पर महा युद्ध करने भर अर अंजनीका पुत्र हाथिनिके रथ पर चढकर रणमें क्रीडा करता भया जैसे कमलनिकर भरे सरोवर में महागज क्रीडा करे। गोतमगणधर कहे हैं-हे श्रेणिक ! वा हनूमान शुरबीरने राक्षमनिकी बडी सेना चलायमान करी उसे रुचा जो किया तब राजा मय विद्याधर दैत्यवंशी मन्दोदरी का बार क्रोवके प्रसंगकर लाल हैं नेत्र जाके सो हननके संमुख आया तब वह हनूमान कमल समान हैं नेत्र जाके वागणवृष्टि करता भया सो मया रथ चकचूर किया तब वह दूजे रथ चढकर युद्धको उ. द्यमी भया तब हनुमानने बहुरे रथ तोड डाला तब मयको विह्वल देख रावण ने बहुरूपिणी विद्या कर प्रज्वलित उत्तमरथ शीघ्रहा भेजा सो राज मयने वा स्थपर चढकर हनुमानसे युद्ध किया अर हनुमानका रथ तोडा तब हनूमानको दबा देख भामंडल मदद आया सो मय ने वाण वर्षाकर भामंडल का भी रथ तोडा तब राजा सुग्रीव इनके मदद आए सो मयने ताको शस्त्ररहित किया अर भूमिमें डारो तब इनकी मदद विभीषण आया सो विभीषण के अर मयके अत्यन्त युद्ध भया परस्पर वाण चले सो मयने विभीषणका वखतर तोडा सो अशोकवृक्ष के पुष्प समान लाल होय तैसी लालरूप रुधिर की धारा विभीषण के पडी तब वानरवंशियोंकी सेना चलायमान भई पर राम युद्धको उद्यमी भए, विद्यामई सिंहनिके रथ चढे शीघही मय पर पाए अर वानरवंशिनिको कहते भर--तुम भय मत करो । रावण की सेना विजुरी सहित कारी घटा समान तामें उगते सूर्य समान श्रीराम प्रवेश करते भए अर परसेना का विध्वंस करनेको उद्यमी भए तब हनूमान भामंडल सुग्रीव विभीषणको धीर्य उपजा अर वानरवंशिनिकी सेना युद्ध करनेको उद्यमी भई । राम का बल पाय रामके सेव कनिका भव मिटा । परस्पर दोनो सेनाके योधानिमें शस्त्रोंका प्रहार भया, सो देव देव देव आश्चर्य प्राप्त भए अर दोनों सेनामें अंधकार होय गंया प्रकाशरहित लोक दृष्टि न पड़ें, श्रीराम राजा मयको वाण निकर 'अत्यन्त प्राच्छादते भए, थोडे ही खेद कर पयको विह्वल किया, जैसे इंद्र चमरेन्द्र को करे तब रामके वाणों कर मयको विह्वल देख, रावण काल समान क्रोधकर नाम पर धाया तब लक्ष्मण रामकी ओर रावणको आवता देख महातेज कर कहता भया-हो विद्याथर ! तू किधर जाय है मैं तोहि आज देखा , खडा रहो। हे रंक, पापी चोर परस्त्रीरूप दीप के पतंग अथम पुरुष दुगचारी आज मैं तोसों ऐसी करू भी काल न करे, हे कुमानुष , श्रीराघवदेव समस्त पृथिवीके पति तिन्होंने मोहि आज्ञा करी है जो या चोरकू सजा देहु तब दशमुख मह क्रोयकर लक्ष्मणसे कहता भया-रे मृढ, तैने कहा लोकप्रसिद्ध मेरा प्रताप न सुना ? या पृथिवीमें जे सुखकारी सार वस्तु है सो सब मेरी ही हैं मैं राजा पृथिवीपति जो उत्कृष्ट वस्तु सो मेरी, घंटा गजके कंठमें सोहैं स्वानके न सोहै तैसे योग्य वस्तु मेरे घर औरके नाहीं। तू मनुष्यमात्र वृथा विलाप करै तेरी कहा शक्ति ? तू दीन मेरे समान नाहीं मैं रंक से क्या युद्ध करू तु अशुभके उदयसे Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ पद्मपुराण मोसे युद्ध किया चाहे है सो जीवनेसे उदास भया है, मूत्रा चाहे है। तब लक्ष्मण बोले तू जैना पृथि चीपति है तैना मैं नीके जानू हूं । आज तेरा गाजना पूर्ण करू हूं। जब ऐसा लक्ष्मणने कहा तब रावणने अपने वाण लक्ष्मणपर चलाए, र लक्ष्मणने रावणपर चलाए जैसे वर्षाका मेघ जलवृष्टिकर गिरिको आच्छादित करे, तैसे बाणवृष्टिकर वाने वाको बेण्या अरवाने वाको बेध्या सो रावण के वाण लक्ष्मणने वज्रदंडकर बीचही तोड डारे, आप तक ग्राबने न दिए, वाणोंके समूह छेद भेद तोडे फोड़े चूर कर डारे, सो धरती आकाश वाण खंडनिकर भर गए, लक्ष्मणने रावणको सामान्य शस्त्रनिकर विह्वल किया तब रावणने जानी यह सामान्य शस्त्रनिकर जीता न जाय तब लक्ष्मण पर रावण ने मेघवाण चलाया सो धरती आकाश जलरूप होय गए तब लक्ष्मणने पवनवाण चलाया क्षणमात्रमें मेघवाण विलय किया, बहुरि दशमुखने व्यग्निवाण चलाया सो दशों दिशा प्रज्वलित भई तब लक्ष्मणने वरुणशस्त्र चलाया सो एक निमिषमें अग्निवाण नाशको प्राप्त भया बहुरि लक्ष्मणने पापवाण चलाया सो धर्मवाणकर रावणने निवारा बहुरि लक्ष्मणने इंधनवाण चलाया सां रावणने अग्निवाण कर भस्म किया बहुरि लक्ष्मणने तिमिरवाण चलाया सो अन्धकार होय गा आकाश वृवनि के समूहकर याच्छादित भया । कैसे हैं वृच ? आसार फलनिको बरसाव हैं आसार पुष्पनिके पटल छा गये तब रावण ने सूर्यवाण कर तिमिरवाण निवारा वर लक्ष्मण पर नागवाण चलाया, अनेक नाग चले विकराल हैं फण जिनके, तब लक्ष्मणने गरुड वाणकर नागवण निवारा, गरुडकी पाखोंपर आकाश स्वर्णकं प्रभारूप प्रतिभासता भया, बहुरि रामके भाईने रावण पर सर्पवाण चलाया प्रलयकाल के मेघ समान है शब्द आकार रूप अग्नि का निकर महाविषम तथ रावणनं मयूरवाणकर सर्पवाण निवारा अर लक्ष्मण पर विघ्नवाण चलाया सो विघ्नवाण दुर्निवार ताका उपाय सिद्धवाण सो लक्ष्मण को याद न आया तब वज्रदंड आदि अनेक शस्त्र चलाये । रावण हू सामान्य शस्त्रनिकर युद्ध करता भया, दोनों योधानिमें समान युद्ध भया जैसा त्रिपृष्ठ पर अश्वग्रीव युद्ध भया हुना, तैसा लक्ष्मण रावणके भया । जैसा पूर्वोपार्जित कर्मका उदय होय तैसा ही फल होय, तैसी क्रिया करें । जे महा क्रोध के वश हैं जो कार्य आरम्भा ता विषै उद्यमी हैं ते नर तीव्र शस्त्र को न गिने अर अग्निको न गिने सूर्यको नगिने वायुको न गिनें । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविषै रावण लक्ष्मणका युद्ध वर्णन करनेवाला चौहत्तरवां पर्व पूर्ण भया ॥ ७४ ॥ अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकस कहे हैं - हे भव्योत्तम ! दोनों ही सेनामें तृषाdant शीतल मिष्ट जल प्याइये है अर चुधावन्तोंको अमृत समान आहार दीजिये है अर खेदवन्तों को मलयागिरि चन्दनसे छिडकिये है, ताडवृक्ष के बीजनेसे पवन करिये, बरफके बारिसे छांcिये है तथा और हू उपचार अनेक कीजिए है, अपना पराया कोई होऊ सबके यत्न कीजिये है यही संग्रामकी रीति है । दश दिन युद्ध करते भए दोऊ ही महावीर अभंगचित रावण लक्ष्मण दोनों समान जैसा वह तैसा वह सो यक्ष गंधर्व किन्नर अप्सरा आश्चयको प्राप्त भए Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fretical प ४३६ श्रर दोऊनका यश करते भए, दोऊनिपर पुष्प वर्षा करी अर एक चन्द्रवर्धन नामा विद्याधर ताकी आठ पुत्री सो आकाशमं विमानमें बैठी देख तिनको कौतूहल से अप्सरा पूछी भई तुभ देवि सारिखी कौन हो ? तिहारी लक्ष्मणविषै विशेष भक्ति दाखे है घर तुम सुन्दर सुकुमार शरीर हो तब वे लज्जासहित कहनी मई- तुमको कौतूहल है तो सुनो, जब सीताका स्वयंम्बर हुआ तब हमारा पिता हम सहित तहां आया था तहां लक्ष्मणको देख हमको देनी करी अर हमारा भी मन लक्ष्मण में मोहित भया, सो अब यह संग्राम में वर्ते है, न जानिये कहा होय ? यह मनुष्यनिमें चन्द्रमा समान प्राणनाथ है जो याकी दशा सो हमारी । ऐसें इनके मोहर शब्द सुनकर लक्ष्मण ऊपरको चौके, तब वे आठो ही कन्या इसको देखकर परम हर्षको प्राप्त भई अर कहती भई – हे नाथ ! सर्वथा तिहारा कार्य सिद्ध होहु तब लक्ष्मणको विघ्नवारणका उपाय सिद्धवाण याद आया, अर प्रसन्न बदन भया सिद्धवाण चलाय विघ्नवाण विलय किया पर आप महाप्रतापरूप युद्धको उद्यमी भया । जो जो शस्त्र रावण चलावे सो सो रामा पीर महा धीर शस्त्रनिमें प्रवीण छेद डारे, अर आप वायनिके समूहकर सत्र दिशा पूर्ण करों जैसे मेघपटल कर पर्वत आच्छादित होय, रावण बहुरूपिणी विद्याके वल कर रथक्रीडा करता भया । लक्ष्मणने रावण का एक सीस छेद, तब दोय सीन भए दोष छेदे तत्र चार भए र दोष जा छेदी तब चार भई अर चार छेदी तत्र आठ मई या भांति ज्यों ज्यों वेदीं त्यों त्यों दुगुनी सीस दुगु भए हजारों सिर पर हजारों भुला भई रावणके कर हाथी के सूंड समान भुज बन्धन कर शोभित अर सिर मुकुटोंकर मंडित तिनकर रणक्षेत्र पूर्ण किया मानों रावण रूप समुद्र महा भयंकर ताके हजारों सिर वेई भए वह श्रर हजारो भुला वेई मई तरंग तिन कर बढता भया श्रर रावणरूप मेघ जाके बाहुरूप विजुरी र प्रचण्ड हैं शब्द र सिर ही भए शिखर तिनकर सोहता भया । रावण अकेला ही महासेना समान भया अनेक मस्तक तिनके समूह जिन पर छत्र फिरें मानों यह विचार लक्ष्णने याहि बहुरूप किया जो आगे मैं अकेले अनि युद्ध किया अव या अकेले से कहा युद्ध करू तातें याहि बहुशरीर किया । रावण प्रज्वलित बनसमान भासता भया, रत्ननिके आभूषण पर शस्त्रनिकी किरण निके समूहकर प्रदीप्त रावण लक्ष्मणको हजारों भुजानिकर वाण शक्ति खड्ग वरछी सामान्य चक्र इत्यादि शस्त्रfoat वर्षा च्छादना भया सो सब बाण लक्ष्मणनं छेदे पर महाक्रोथ रूप होय सूर्य समान तेज रूप वाणनिकर रावणके आच्छादनेको उद्यमी भया । एक दोय तीन चार पांच छह दस बीस शत सहस्र मायामई रावणके सिर लक्ष्मणने छेदे हजारों सिर भुजा भूमिमें पडे सो रणभूमि उनकर आच्छादित भई ऐसी सोहे मानों सर्पनिके फणनि सहित कमलनिके वन हैं, भुजों सहित सिर पडे वे उल्कापातसे भायें। जेते रावणके बहुरूपिणी विद्या कर सिर पर भुज भए ते सब सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मणने छेदे, जैसे महामुनि कर्मनिके समूहको छेदे, रुधिरकी धारा निरंतर पडी तिनकर आकाशमें मानी सांझ फूली, दोय भुजाका धारक लक्ष्ना ताने रावण की असंख्यात भुना विफल करों, कैसे हैं लक्ष्मणा १. महा प्रभाकार युक्त हैं । रावण पसेत्र के Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण समूह कर भर गया है अंग जाका स्वास कर संयुक है मुख जाका यद्यपि महाबलबान हुता तथापि व्याकुलचित्त भया । गौतमस्वामी कहै हैं—हे श्रोणिक ! बहुरूपिणी विद्याके बलकर रावणने महा भयंकर युद्ध किया, पर लक्ष्मण के आगे बहुरूपिणी विद्याका बल न चला तब रावण मायाचार तज सहजरूप हो क्रोधका भरः युद्ध करता भया, अनेक दिव्यशस्त्रनिकर अर सामान्य शस्त्रनिकर युद्ध किया परन्तु वासुदेवको जीत न सका । तब प्रलय कालके सूर्य समान है प्रभा जाकी परपक्षका क्षय करणहारा जो चक्ररत्न ताहि चिंतवता भया । कैला है चक्ररत्न ? अप्रमाण प्रभाबके समूहको धरे मोतिनिकी झालरियोंकर मंडित महा देदीप्यमान दिव्य वज्रमई महा अद्भुत नाना प्रकारके रत्ननिर मंडित है अंग जम्का, दिव्यमला अर सुगन्धकर लिप्त, अग्नि के समूह तुल्य थारानिके समूहकर महा प्रकाशवंत, वैडूय मणि के सहस्र बारे तिनकर युक्त जिस को दर्शन सहा न जाय, सदा हजार यक्ष जाकी रक्षा करें महा क्रोध का भरा जैसा कालका मुख होय ता समान वह चक्र चिंतवते ही करविष आया, जाकी ज्योति कर जोतिष देवोंकी प्रभा मंद होय गई अर सूर्यको कांति ऐसी होय गई मानों चित्रामका सूर्य है अर अप्सरा विश्वावसु तुबरु नारद इत्यादि गंधर्वनिक भेद अ.काशविषे रण का कौतुक देखते हुने सो भयकर परे गए, अर लक्ष्मण अत्यना धार शत्रुओ चक्र संयुक्त देख कहता भया, हे अथम नर ! याहि कहा ले रहा है जैसे कृपण कौडीको लेरहे तेरी शक्ति है तो प्रहार कर, ऐसा कहा तब वह क्रोधायमान होय दांतनिकर डसे हैं होंठ ज.ने लाल हैं नेत्र जाके चक्रको फेर लक्ष्मणपर चलाया। कैसा है चक्र. ? मेघ मंडल समान है शब्द जाका अर महा शीघ्रताको लिए प्रलयकालके सूर्य समान मनुष्यनिको जीतव्यका संशयका कारण ताहि सन्मुख अवता देख लक्ष्ण बज्रमई है मुख जिनका ऐस वाणनिकर चक्र निवारिवेको उद्यमी भया और श्रीराम वजात धनुर चढाय अमोघ वाण नेकर चक्र निवारिवेको उद्यमी भए अर हल मूशलनको भ्रमावते चक्रक सन्मुख भए अर सुग्रीव गदाको फिराय चक्रके सन्मुख भए अर मामण्डल खड्नको लेकर निवारिवेको उद्यमी भए अर विभाषण त्रिशल ले ठढे भरे अर हनूमान मुद्गर लागूर कनकादिक ले कर उद्यमो भये, अर अंगद पारण नामा शस्त्र लेकर उन्हे भए पर अंगदका भाई अं। कुरा लेकर महा तेज रूप खडे भए और हु दूसरे श्रेष्ठ विद्य पर अनेक आयुधनिकर युक्त सब एक होय कर जीवनेकी आशा तज चक्रके निवारिवको उद्यनी भये परन्तु चक्रको निहार न सके । कैपा है चक्र ! देव करे हैं सेवा जाकी ताने आयकर लक्ष्मण को तीन प्रदक्षिणा देय अपना स्वरूप विनयरूप कर लक्ष्मणके करमें तिष्ठा, सुखदाई शान्त है आकार जाका । यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसू कहे हैं-हे मगधाधिपति ! राम लक्ष्मणाका महाऋद्धिको धरे यह माहात्म्य तोहि संक्षेपसे कहा । कैसा है इनका माहात्म्य ? जाहि सुने परम आश्चर्य उपजे अर लोकमें श्रेष्ठ है । कैएकके पुण्यके उदयकर परम विभूति होय है अर कैएक पुण्यके चयकर नाश होय हैं जैसे सूर्यका अस्त होय है चन्द्रमाका उदय होय है तो लक्षणके पुष्पका उदय जानना। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत प्रथ, ताकी भाषा वचनिकाविणे लक्ष्मणके पक्ररत्नकी उत्पत्ति वर्णन करनेवाला पचहतरनां पर्ण पण भया ।। ७५ ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छितरा पर्व श्रथाननार लक्ष्मणके हाथमें महासुन्दर चक्ररत्न आया देख सुग्रीव भामण्डलादि विद्याधर के अधिपति अति हर्षित भए र परस्पर कहते भए – आगे भगवान अनन्तवीर्य केवलीने आज्ञा करी जो लक्ष्मण आठवां वासुदेव है पर राम आठवां वलदेव है सो यह महाज्योति चक्रपाणि भया अति उत्तम शरीरका धारक, याके बलका कौन वर्णन करसके, अर यह श्रीराम बलदेव जाके रथको महातेजवंत सिंह चलावें जाने राजा मगको पकडा अर हल मूसल महा रत्न देदीप्यमान जाके करमें सोहें । बलभद्र नारायण दोऊ भाई पुरुषोत्तम प्रगट भये, पुण्यकं प्रभावकर परमप्रेमके भरे लक्ष्मण के हाथमें सुदर्शन चक्रको देख राक्षसनिका अधिपति चित्तमें चितारे है जो भगवन अनन्तवीर्यने आज्ञा करी हुनीसोई भई । निश्चय सेती कर्मरूप पवनका प्रेरा यह समय आया, जाका छत्र देख विद्याधर डरते अर परकी महासेना भाग जाती परसेनाकी ध्वजा अर छत्र मेरे प्रतापसे बहे वहे फिरते अर हिमाचल विध्याचल है स्तन जा, समुद्र है वस्त्र जाके ऐसी पृथिवी मेरी दासी समान आज्ञाकारिणी हुती ऐसा मैं रावण सो रण में भूमिगोचरिनिने जीत्या यह अद्भुत बात है कष्टकी अवस्था श्राय प्राप्त भई, धिकार या राज्य लक्ष्मीको कुलटा स्त्री समान है चेष्टा जाकी, पूज्य पुरुष या पापिनीको तत्काल तजें यह इन्द्रियनिके भोग इन्द्रायण के फल समान इसका परिपाक विरन है अनन्त दुःख सम्बन्धके कारण साधुनिकर निन्द्य हैं, पृथिवी में उत्तम पुरुष भरत चक्रवत्र्त्यादि भये ते धन्य हैं जिन्होंने निःकंटक छहखंड पृथिवीका राज्य किया पर विषके मिले अन्नकी न्याई राज्यको तज जितेन्द्र व्रत धार रत्नत्रयका आराधन कर परम पदको प्राप्त भए । मैं रंक विषयाभिलाषी मोह बलवानने मोहि जीता। यह मोह संसार भ्रमणका कारण, धिक्कार मोहि जो मोहके वश होय ऐसी चेष्टा करी । रवण तो यह चिंतन करे हैर आया है चक्र जाके ऐसा जो लक्ष्मण महा तेजका थरक सो विभीषणकी ओर निरख रावण से कहता भया - हे विद्यावर ! अब हू छू न गया है, जानकीको लाय श्रीरामदेवको सोपदे अर यह वचन कह कि - श्रीराम के प्रसादकर जीवूं हूं, हमको तेरा कछु चाहिये नहीं, तेरी राज्य लक्ष्मी तेरे ही रहो । तब रावण मंदहास्यकर कहता भया - हे रंक ! तेरे वृथा गर्व उपजा है अवार ही अपना पराक्रम तोहि दिखावू हूं । हे अथगनर, मैं तोहि जा अवस्था दिखाऊ सो भोग, मैं रावण पृथी - पति विद्यावर तू भूमिगोचरी रंक, तव लक्ष्मण बोले बहुत कहिये कर कहा ? नारायण सर्वथा तेरा मारणहारा उपजा । तब रावणने कहा छात्रही नारायण हूजिये है तो जो तू चाहे सो क्यों न हो, इन्द्र हो, तू कुपुत्र पिताने दे से बाहर किया महा दुखी दलिद्री वनचारी भिखारी निर्लज्ज तेरी वासुदेव पदवी हमने जानी तेरे मनविषै मत्सर है सो मैं तेरे मनोरथं भंग करूंगा यह घेघली समान चक्र है ता कर तू है सा रंकोंकी यही रीति है खलिकाटूक पाय मनि उत्सव करें, बहुत कहिये कर कहा ? ये पापी विद्याधर तो मिले हैं तिनसहित अर या चक्रसहित बाहन सहित तेरा नाशकर तोहि पातालको प्राप्त करूंगा, ये रावणक वचन सुनकर लक्ष्मण ने ५६ ४४१ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ पद्म-पुराण कोपकर चक्रको भ्रमाय रावणपर चलाया, वज्रपातके शब्द समान भयंकर है शब्द जाका अर प्रलयकाल के सूर्य समान तेज को घरे चक्र पर आया तब रावण बाणनिकर चक्रके निवारवैको उद्यमी भया बहुरि प्रचंड दण्ड कर शीघ्रग मी वजू बाणकर चक्र के निवारका यत्न किया तथापि रावण का पुण्य क्षीण भया सो चक्र न रुका नजीक आया तब रावण चन्द्रहास खड्ग लेकर चक्र समीप आया चक्के खड्गकी दई सो अग्निके कण निकर काकाश प्रज्वलित भया खड्गका जोर चक्रार न चला, सन्मुख विष्ठा सण महाशूरवीर राक्षमनिका इंद्र ताका चक्रने उरस्थल भेदा सो पुरव क्ष कर अंजनगिरि समान रावण भूमिमें पडा, मानों स्वर्गसे देव चया, अथवा रतिका पति पृथिवी में पडा ऐसा सोहता मया मानों वीररसका स्वरूप ही है, चढ रही है जाकी से हैं होठ जाने स्वामीको पडा देख समुद्रसमान है शब्द जावा ऐसी सेना भागिवेको उद्यमी भई, ध्वजा छत्र कहे कहे फिरे, समस्त लोक रावण के विह्वल भए विलाप करते भागे जाय हैं कोई कहे हैं को दूरकर मार्ग देहु पीछेने हाथी आवे है कोई कहे हैं विमानको एक तरफकर र पृथिवीका पति पडा, अर्थमा महाभयकर कम्पायमान वह ता पर पडे दह ता पर पडे तब सबको शरखरहित देव भामण्डत सुग्रीव हनुमान रामकी आज्ञा से कहते भए -भर मत करो भय मत करो वीर्य बचाया थर वस्त्र फेरया काहूको भय नाहीं मृत समान कानोंको प्रिय ऐसे वचन सुन सेनाको विश्वास उपजा । यह कथा गौतम गणधर राजा श्रोणकयूं कहे हैं हे राजन् ! रावण ऐसा महा विभूतिको मोगे समुद्र पर्यन्त पृथिवी का राजकर पुण्य पूर्ण भए अन्त दशाकी प्राप्त भया । तातें ऐसी लक्ष्मीको विकार है । यह राज्यलक्ष्मी महाचंचल पापका स्वरूप सुकृतके समागम के आशाकर वर्जित ऐसा मनमें विचार कर ही बुद्धिजन हो तप ही है थन जिनके ऐसे मुनि हवी । कैस हैं मुनि तपोवन सूर्यसे अधिक है तेज जिनका मोह तिमिरको हरे हैं ॥ इति श्रारविशेणाचार्यविरचित महापद्मगु गण संस्कृत ग्रन्थ, ता की भाषा बचनिकाविषै रावणका बध वर्णेन करनवाला छिहत्तरवां पर्व पर्ण भया ।। ७६ ।। अथानन्तर विभीषण ने बडे भाई को पड़ा देख महा दुःखका भरा अपने घातके अर्थ हुई में हाथ लगाया सोयाकों मरणकी कगहरी मूत्र आयगई चेटाकर रहित शरीर हो गया बहुरि सचेत होय महादाहका भरा मरनेको उद्यमी भया तत्र श्रीरामने रथसे उतर हाथ पकडकर उरसे लगाया धीर्य बंधाया फिर मूर्छा खाय पडा अचेत होय गया श्रीरामने सचेत किया तब सचेत होय विलाप करता भया जिसका विलाप सुन करुणा उपजे, हाय भाई उदार क्रियावन्त सामं- के पति महाशूरवीर रणधीर शरणागतपालक महामनोहर ऐसी अवस्थाको क्यों प्राप्त भया ? मैं हितके वचन कहे सो क्यों न माने यह क्या अवस्था भई जो मैं तुमको चक्र विदारे पृथिवीविषै पडे देखूं हूं, देव विद्याधरोंके महेश्वर हे लंकेश्वर ! भोगोंके भोक्ता पृथ्वीमें कहा पौढे ९ महाभोगोंकर लडाया हैं शरीर जिनका यह सेज आपके शयन करने योग्य नाहीं, हे नाथ ! उठो सुन्दर बच नके वक्ता मैं तुम्हारा बालक मुझे कृपाके वचन कहो, हे गुणाकर कृपाधार मैं शो के समुद्र Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सततरवां पर ४४३ विषै डूबूं हूं सो मुझे हस्तालम्बन कर क्यों न निकालो, इस भांति विभीषण विलाप करे है डार दिये हैं शस्त्र घर वक्तर भूमिमें जाने || अथानन्तर रावणके मरण के समाचार रणवासमें पहुंचे सो राणियां सब अनुपातकी थाराकर पृथिवी तल को मींचती भई अर सर्व ही अन्तःपुर शोककर व्याकुल भया सकल राणी रणभूमिमें आईं गिरती पडती डिगे हैं चरण जिनके वे नारी पतिको चेतनारहित देख शीघ्रही पृथिवी में पड़ीं। कैना है पति पृथकी चूडामणे है मंदोदरी, रंभा, चन्द्राननी, चन्द्रमण्डला, प्रवरा उर्वशी महादेवी, सुंदरी,, कमलानना, रूपिण, रुक्मिणी, शीला, रत्नमाला, तनूदरी, श्रीकांता, श्रीमती भद्रा, कनकप्रभा, मृगावती, श्रीमाला, मानवी, लक्ष्मी, आनन्दा, अनंगदरी, वसुंधरा तडिन्माला, पद्मा, पद्मावती, सुखादेवी, कांतिप्रीति, सुभा, प्रभावळी, मनोवेगा, कान्ता, रति मनोवती, इत्यादि अष्टादशसहस्र राणी अपने २ परिवार तिर सखिनिहित महाशोककी भरी रुदन करती भई कैयक मोहकी भरी मू को प्राप्त भई सो चन्दनके जनकर छोटी कुमलाई कमलिनी समान भासती भई, कैयक पतिक अंगसे अत्यन्त लिपटकर परी अंजनगिरिसों लगी संध्या तिको थरी भई, कैक मूर्च्छासे सचेत होय उरस्थल कूटती भई पतिके समीप मानों मेघके निकट विजुरी ही चमक है, कैयक पतिका वदन अपने अंग में लेकर विह्वल होय मूर्छा को प्राप्त भई, कोश्यक विलाप करे हैं-हाथ नाथ, मैं तिहारे बिरहमे अतिकायर मोहि तजकर तुम कहां गए ? तिहारे जन दुःखसागर में डूबे हैं सो क्यों न देखो तुम महाबली महासुन्दर परम ज्योतिक धारक विभूति कर इंद्र समान मानों भरत क्षेत्र के भूपति पुरुषं त्तम महाराजनिके राजा मनोरम विद्याधरनिके महेश्वर कौन अर्थ पृथिवी में पौढे । उठो, हे कांत, करुणानिधे स्वजनवत्सल एक श्रमृत समान वचन हमसे कहो, हे प्र णेश्वर प्राणवल्लभ, हम अपराधरहित तुमसे अनुरक चित्त हमपर तुम क्यों कोप भए ? हमसे बोल ही नाहीं जैसे पहिले परिहास कथा करते तैसे क्यों न करो तिहारा रूपी चन्द्र कांतिरूप चांदनी कर मनोहर प्रसन्नतारूप जैसे पूर्व हमें दिखावते हुते तैसे हमें दिखावो अर यह विहार वक्ष थल स्त्रियोंकी क्रीडाका स्थानक महासुन्दर ता विषै चक्रकी धाराने कैसे पग धारा र विद्रुम समान तिहारे ये लाल अधर अब कूडारूप उत्तर के देनेकों क्यों न स्फुटायमान होय हैं ? अबतक बहुत देर लगाई क्रोध कबहूं न किया अब प्रसन्न होत्रो, हम मान करतीं तो आप प्रसन्न करने मनावते इन्द्रजीत मेघवाहन स्वर्गलोक से चयकर तिद्वारे उपजे सो यहां भी स्वर्गलोक कैसे भोग भोगे अब दोऊ बन्धनमें हैं और कुम्भकर्ण बन्धनविषै है सो यह पुरयाधिकारी सुभट महागुणवन्त श्रीरामचन्द्र तिनसे प्रीतिकर भाई पुत्रको डा हे प्राणवल्लभ प्राणनाथ, उठो, हममे हिनकी बात करो, हे देव, बहुत देर सोचना कहा ? राजानिको राजनीति में सावधान रहना सो आप रज्य काजमें प्रव । हे सुन्दर हे प्राणप्रिय हमारे अंग विरहरूप अग्निकर अत्यन्त जरे हैं सो स्नेह रूप जलकर बुझावो । हे स्नेहियोंके प्यारं तिहारा यह वदनकमल और ही अवस्थाको प्राप्त भया है सो याहि देख हमारे हृदय के सौ ट्रक क्यों न हो जावें ? यह हमारा पापी हृदय वज्र का है दुःखका भाजन जी तिवारी यह अवस्था Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण जानकर विनशन जाय है । यह हृदय महा निर्दई है । हाय विधाता हम तेरा कहा बुरा किया जो तैने निर्दई होकर हमारे सिरपर ऐसा दुःख डारा हे प्रीतम जब हम मान करती तब तुम उरसे लगाय हमारा मन दूर करते पर वचन रूप अमृत हमको ध्यावते महा प्रेम जनावते हमारा प्रेमरूप कोप ताके दूर करवेके अर्थ हमारे पांयन पडते सो हमारा हृदय वशीभूत हो जाता अत्यन्त मनोहर कीडा करते, हे राजेश्वर हमसे प्रीतिरो परम आनन्दकी करगहारीं वे क्रीडा हम याद आ हैं सो हमारा हृदय अत्यन्त दाहको म होय है तातें अब उठो हम तिहारे पायन पडे हैं नमस्कार करें हैं जे अपने प्रियजन होंय तिनसे बहुत कोप न करिए प्रीतिमें कोप न करिए प्रीतिमें कोप न सोहै । हे श्रेणिक, या भांति रावण की राणीय विलाप करती भई जिनका विलाप सुनकर कौनका हृदय द्रवीभूत न होय ? अथानन्तर श्रीराम लक्ष्मण भामण्डल सुग्रीवादिक सहित अति स्नेहके भरे विभीषणको उरसे लगाय आंसू डारते महा करुणावन्त वीर्य वन्यावनेविषै प्रवीय ऐसे वचन कहते भएलोक वृत्तांत से सहित हे राजन् ! बहुत रोपवे कर कहा ? व विषाद तजो यह कर्मकी चेष्टा तुम कहा प्रत्यक्ष नाहीं जानो हो ? पूर्व कर्मके प्रभाव कर प्रमोदको धरते जे प्राणी तिनके अवश्य कष्टकी प्राप्ति होय है उसका शोक कहा पर तुम्हारा भाई सदा जगतके हितमें सावधान परम प्रीतिका भाजन समाधान रूप बुद्धि जिसकी राजकार्य में प्रवीण प्रजाका पालक सर्वशास्त्रनिके अर्थ कर योगा है वित्त जाने, सो बलवान मोहकर दारुण अवस्थाको प्राप्त भया अर विनाशको प्राप्त भया जब जीवनिका विनाश काल आवै तब बुद्धि अज्ञान रूप होय जाय है । ऐसे शुभ वचन रामने कहे बहुरि भामण्डल अति माधुर्यताको वरे वचन कहते भये । हे विभीषण महाराज ! तिहारा भाई रावण महा उदारचित्त कर रण में युद्ध करता संता वीर मरमकर परलोककू प्राप्त भया । जाका नाम न गया ताका कछु ही न गया । ते धन्य हैं जिन सुभटता कर प्राण तजे । ते महा पराक्रमके धारक वीर तिनका कहा शोक १ एक राजा अरिंदमकी कथा सुनो। 1 1 अक्षयपुर नामा नगर तहां राजा अरिंदम जाके महा विभूति सो एक दिन काहू तरफसे अपने मन्दिर शीघ्रग मी घोडे चढा अकस्मात् आया सो राणीको श्रृंगार रूप देख महलकी अत्यंत शोभा देख राणीको पूछा- तुम हमारा आगम कैसे जाना ? तब राणीने कही - कीर्तिथर नामा मुनि अवधि ज्ञानी आज आहारको आए थे तिनको मैंने पूछा- राजा कब आगे सो तिन्होंने कहा राजा आज अचानक आयेंगे । यह बात सुन राजा मुनिपै गए अर ईर्षाकर पूछता भया - हे मुनि, तुमको ज्ञान है तो कहो मेरे चित्तमें क्या है तब मुनिने कही तेरे चित्तमें यह हैं कि मैं कब मरूंगा सो तू आजसे सातवें दिन वज्रपातसे मरेगा श्रर विष्टामें कीट होगा। यह मुनिके वचन सुन राजा श्ररिंदम घर जाय अपने पुत्र प्रीतिकरको कहता भया - मैं मरकर विष्टाके घर में स्थूल कीट होंऊंगा ऐसा मेरा रंगरूप होयगा सो तू तत्काल मार डारियो । ये वचन पुत्रको कह आप सातवें दिन मरकर विष्टामें कीडा भया सो -- Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठत्तरण पणे प्रीनिकर कीटके हनिवे को गया सो कीट मरनेके भयकर विष्टामें पैठिगया । तब प्रीतिकर मुनिपै जाय पूछना भया-हे प्रभो ! मेरे पिताने कही थी जो मैं मलमें कीट होऊगा सो तू हनियो अब वह कीट मरवेसे डरै अर भागे है तब मुनिने की--तू विषाद मत कर यह जीव जिस गतिमें जार है वहां ही रम रहे है इसलिए तू आत्मकल्याण कर, जाकर पापोंसे छूटे अर यह जीव सवही अाने अपने कम का फल भोगवे हैं कोई काहला नाहीं यह संसारका स्वरूप महा दुखका कारण जान प्रीति कर मुनि भया, मर्व बांया नजी, तात हे विभीषण ! यह नानाप्रकार जगतकी अवस्था तुम कहा न जानो हो, बिहारा भाई महा शूरवीर देवयोगसे नारायण ने हता ? संग्राममें अहत महा प्रधान पुरुष ताका मोव क्या ? तुम अपना चित्त कल्याणमें लगावो। यह शोक दुख का कारण ताको तजो यह वचनकर प्रीति करकी कथा भामण्डलके मुखसे विभीषणने सुनी, कैसी है प्रीतिकर मुनिकी कथा प्रतिबोध देवे में प्रवीण अर नाना स्वभाव कर संयुक्त अर उत्तम पुरुषों कर कहिवे योग्य सो सर्व विद्या परनिने प्रशंसा करी। सुनकर विभीषण रूप सूर्य शोकरूप मेष पटलसे रहित भया लोकोत्तर आचारका जाननेवाला ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै विभीषणका शोक निवारण वणनेव ला सततरवां पर्व पूर्ण भया ॥ ७ ॥ अथानन्तर श्रीरामचन्द्र भामण्डल सुग्रीवादि सबनिस्कहतै भये, जो पंडितों के बैर बैरी के मरण पर्यन्त ही है। अब लंकेश्वर परलोकको प्राप्त भए सो यह महानर हुते, इनका उत्तम शरीर अग्नि संस्कार करिए तब सबनि प्रमाण करी अर विभीषण महित राम लक्ष्मण जहां मंदोदरी श्रादि अठारह हजार राणीनि सहित जैसे कुरुचि करै तैने विलाप करती हुती सो वाहनसे उतर समस्त विद्याधरनि महित दोऊ वीर तहां गये सो वे राम लक्ष्मण को देख अति विलाप करती भई, तोड डारे हैं सर्व श्राभूषण जिन्होंने अर धूलकर धूमरा है अंग जिनका तब श्रीराम महादयावन्त नानाप्रकारके शुभ वचननिकर सर्व राणीनिकों दिलासा करी धीर्य बंधाया अर आप सब विद्याधरनिको लेकर रावणके लोकाचारको गए, कपूर अगर मलियागिरि चन्दन इत्यादि नानाप्रकारके सुगन्ध द्रव्यनिकर पद्मसरोवर पर प्रतिहरि का दाह धया बहुरि सरोवर के तीर श्रीराम मिष्ठे, कैसे हैं राम ! महा कृपालु है चित्त जिनका, गृहस्थाश्रममें ऐसे परिणाम कोई बिरलेके होय हैं। बहुरि आज्ञा करी-कुम्भकर्ण इन्द्रजीत मेघनादको सब सापन्तनिसहित छोडो तब कैयक विद्याधर कहते भए–वे महा क्रूरचित हैं अर शत्रु हैं छोडवे योग्य नाही बंधनही में मरें। तब श्रीराम कहते भए-यह क्षत्रियनिका धर्म नाहीं, जिनशासन में क्षत्रीनिकी कथा कहा तुमने नाहीं सुनी है। सूतेको बंधे को डरतेको शरणामतकू दन्तमें तृण लेतेको भागेको बाल वृद्ध स्त्रीनिकून हने, यह क्षत्रीका धर्म शास्त्रनिमें प्रसिद्ध है। तब सबान कही आप जो आज्ञा करो सो प्रमाण, रामकी आज्ञा प्रमाण बडे २ योधा नानाप्रकारके आयुधनिकू थरें तिनके ल्यायवेको गए, कुम्भकरण इन्द्रजीत मेघनाद मारीच तथा मन्दोदरीका पिता राजा मय इत्यादि पुरुषनिको स्थूल बन्धनसहित सावधान योधा लिए आवे हैं सो माते हाथी समान चले आव हैं तिनको देख वानरवंशी Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ पद्म पुराण योधा परस्पर बात करते भये जो कदाचित् इन्द्रजीत मेघनाद कुम्भकरण रावणकी चिता जरती देख क्रोध करें तो ऋपिवंशिनिमें इनके सन्मुख लडने को कोई ममर्थ नाहीं, जो कपिवंशी जहां बैठा था तहांसे उठ न सका अर भामण्डलने अपने सब योधानिकू कहा जो इन्द्रजीत मेघनादको यहां तक बंधेहीति यत्न से लाइयो, अबार विभीषणका भी विश्वास नाहीं है जो कदाचित् भाई भतीजे निको निर्धन देख भाईका बैर चितारे सो याको विकार उपज आवे, भाईके दुखकर बहुत तप्तायमान हैं। यह विचार भामण्डलादिक तिनको अति यत्नकर राम लक्ष्मणके निकट लाए सो वे महाविरक्त राग द्वेपरहित जिनके मुनि डोपवेके भाव महा सौम्य दृष्टिकर भूमि निरखते द्यावें, शुभ हैं श्रानन जिनके, वे महा धीर यह बिचारे हैं कि या असार संसार सागर में कोई सारताका लवलेश नाहीं, एक धर्मही सत्र जीवनका बांधव है सोई सार है । ये मनमें विचारे हैं जो आज से छूटें तो दिगम्बर होय पाणिपात्र आहार करें । यह प्रतिज्ञा धरते रामके समीप आए । इन्द्रजीत कुम्भकरर्णादिक विभीषणकी ओर आय तिष्ठे यथायोग्य परस्पर संभाषण भया बहुरि कुम्भकर्णादिक श्रीराम लक्ष्मण कहते भए - अहो तिहारा परम धैर्य परम गंभीरता अद्भुत चेष्टा देवनिहू कर न जीता जाय ऐसा राचसनिका इन्द्र रावण मृत्युकू प्राप्त किया, पंडितनिके अति श्रेष्ठ गुणनिका धारक शत्रु हू प्रशंना योग्य है। तत्र श्रीराम लक्ष्मण इनको बहुत साता उपजाय अति मनोहर बचन कहते भये । तुम पहिले महा भोगरूप जैसे तिष्ठे तैसे तिष्ठो । तत्र वह मा विरक्त कहते भर अब इन भोगनिसे हमारे कछु प्रयोजन नाहीं । यह विषसमान महा मोहके कारण महा भयंकर महा नरक निगोदादि दुःखदाई जिनकर कबहूं जीवके साता नाहीं । विचक्षण हैं ते भोगको कबहूँ न बांछे । राम लक्ष्मणने घना ही कहा तथापि तिनका चित्त भोगामक्त न भया । जैसे रात्रि में दृष्टि अन्यकार रूप होय पर सूर्य के प्रकाश कर वही दृष्टि प्रकाशरूप होय जाय तैसे ही कुम्भकर्णादिककी दृष्टि पहिले भांगासक्त हुती सो ज्ञानके प्रकाश कर भोगनित विरक्त भई । श्रीरामने तिनके बंधन छुडाये पर इन सबनि सहित पद्म सरोवर में स्नान किया । कैसा है सरोवर १ सुगंध है जल जाका, ता सरोवर में स्नान कर कपि श्रर राक्षस सब अपने अपने स्थानक गये । अथानन्तर कैयक सरोवरके तीर बैठे विस्मयकर व्याप्त हैं चित्त जिनका शूरवीरों की कथा करते भये, कैयक क्र ूर कर्मको उलाहना देते भये, कैयक हथियार डारते भये, कैयक रावणके गुणोंकर पूर्ण है चित्त जिनका सो पुकारकर रुदन करते भये, कैयक कर्मनकी विचित्र गतिका वर्णन करते भए श्रर कैवक संसार वनको निन्दते भये । कैसा है संसार वन ? जाकी निकसना अति कठिन है कैक भोगने अरुचिको प्राप्त भये राज्यलक्ष्मीको महा चंचल निरर्थक जानते भये र कैक उत्तम बुद्धि कार्यकी निंदा करते भये, कैयक रावणकी गर्व की भरी कथा करते भये, श्रीरामके गुण गावते भये, कैयक लक्ष्मणकी शक्तिका गुण वर्णन करते भये, कैपक सुकृतके फलकी प्रशंसा करते भये, निर्मल हैं चित्त जिनका, घर घर मृतकों की क्रिया होती भई, बाल वृद्ध सबके मुख यही कथा | लंकामें सर्वलोक रावण के शोककर अश्रुपात डारते चातुर्मास्य करते भये शोककर Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ القعقعقل طقطع अठत्तरमा पर्व द्रवीभूत भया है हृदय जिनका, सकल लोकनिके नेत्रनिसे जलके प्रवाह बहे सो पृथिवी जलरूप होय गई अर तत्वोंकी गौणता दृष्टि पड़ी मानों नेत्रोंके जलके भयकर आताप घुसकर लोकोंके हृदय मे पैठा सर्वलोकोंके मुखसे यह शब्द निकसे-धिक्कार धिक्कार अहो बडा कष्ट भया हाय हाय यह क्या अद्भुत भया या मांति लोक विलाप करै हैं आंसू डाएँ हैं, कैयक भूमिमें शय्या करते भये मौन धार मुख नीचा करते भये निश्चल है शरीर जिनका मानों काष्ठके हैं कैयक शस्त्रोंको तोड डारते भये कैयकोंने आभूषण डार दिये अर स्त्रीके मुखकमलसे दृष्टि संकोचा, कैयक अति दीर्घ उष्ण विस्वास नाखे हैं सो कलुष होय गये अधर जिनके मानों दुःखके अंकुरे हैं अर कैयक संसारके भोगनिसे विरक्त होय मनमें जिनदीक्षाका उद्यम करते भये। ___अथानन्तर पिछले पहिर महासंघ सहित अनन्तवीर्य नामा मुनि लंकाके कुमुवायुध नामा वनमें छप्पन हजार मुनि सहित पाए जैसे तारानि कर मण्डित चन्द्रमा सोहै तैसे मुनिनिहर मण्डित सोहते भए, जो ये मुनि रावणके जीवते श्रावते तो राम्ण मारा न जाना लक्ष्मणके पर रावणके विशेष प्रीति होती जहां ऋद्धिधारी मुनि मिष्ठे उहा सर्व मंगल होवें अर कंवली विरजे वहां चारों ही दशाओंमें दोयसौ योजन पृथिवी स्वर्ग तुल्य निरुपद्रव होय अर जीवनिक वैर भाव मिट जावै जैसे आकाशमें अमूल अवकाशप्रदानता निलेपता अर पवनमें मुार्यता, निसंगता, अग्निमें उष्णता, जल में निर्मला, पृथिवी में सहनशीलता तैस स्वतः स्वभाव महा मुनिके लोकको आनन्ददायकता होय है अनेक अद्भुत गुणोंके धारक महा मुनि तिन सहित स्वामी विराजे, गौतम स्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! तिनके गुण कौन वर्णन कर सके जैसे स्वर्ण का कुम्भ अमृतका भरा अति सोहै तैये मह'मुलि अनेक ऋद्धिके भरे सोहते भर निर्जत स्थानक वहां एक शिला ता ऊपर शुक्ल ध्यान धर तिष्ठे सो ताही रात्रिमें केवलज्ञान उपना जिनके परम अद्भुत गुण वर्णन किये पापनिका नाश होय तब भग्नवासी असुरकुमार, नागकुमार गरुडकुमार, विद्युतकुमार, अग्निकुमार, पवनकुमार, मेघाम र, दिक्कुमार, दीपकु र, उदधिकमार, ये दशप्रकार तथा अष्ट प्रकार व्यंतर किनर किंपुरुष महोरग गर्व यक्ष राक्षस भूत पिसाच, तथा पंच प्रकार ज्योतिषी सूर्य चंद्र ग्रह तारा नक्षत्र, सोलह स्वर्गके सर्वही स्वर्गवासी ये चतुरनिकायके देव सौधर्म इन्द्रादिक सहित थातुकोखंडद्वीपकेविष श्रीतीर्थकर देवका जन्म भया हुता सो समेरु पर्वतमें क्षीर सागरके जलकर स्नान करार जन्म कल्यानकका उत्सब कर प्रभुको माता पिताको सोंप तहां उत्सव सहित तांडवनृत्य कर प्रभुती बारम्बार स्तुति करते भये । कैसे है प्रभु ? बाल अवस्था को धरे हैं परन्तु बालअवस्थाकी अज्ञान चेष्टाने रहित हैं। तहां जन्म कल्याणकका समय साधकर सब देव लंकामें अनन्तवीर्य केवलीके दर्शनको आए । कैयक विमान चढ़े पाए, कैयक राजहंसनिपर चढे आये अर कई एक अश्व सिंह व्याघ्रादिक अनेक वाहननिपर चढे आये, ढोल मृदंग नगारे वीण बांसुरी झांझ मंजीरे शंख इत्यादि नाना प्रकारके वादित्र बजावते मनोहर गान करते आकाश मंडलको आच्छादते केवली निकट महा भक्तिरूप अर्ध रात्रि के समय आये, तिनके विमाननिकी ज्योति कर प्रकाश होय गया अर वादित्रनिके शब्दकर दशों Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहा राण दिशा व्याप्त होय गई, राम लक्षण यह वृत्तांत जान हर्षको प्राप्त भये, समस्त वानरवंशी अर राक्षसवंशी विद्याधर इंद्रजीत कुम्भकर्ण मेघनाद आदि सर्व राम लक्ष्मणके संग केवलीके दर्शनके लिये जाययको उद्यनी भये । श्रीराम लक्ष्मण हाथी चढे अर कई एक राजा रथपर चढे कई एक तुरंगनिपर चढे छत्र चमर ध्वजाकर शोभायमान महा भक्तिका संयुक्त देवनिसारिखे महा सुगन्ध हैं शरीर जिनके अति उदार अपने बाहननितें उतर महा भक्तिकर प्रणाम करते स्तोत्र पाठ पढते केवलीके निकट आये। अष्टांग दण्डात् कर भूमिमें तिष्ठे, धर्म श्रवणकी है अभिलाषा जिनके, केवली के मुखत धर्म श्रवण करते भये । दिव्यध्वनिमें यह व्याख्यान भया जो ये प्राणी अष्ट कर्मसे बंधे महादुखके चक्र पर चढे चतुर्गतिमें भ्रमण कर हैं। प्रात रौद्र ध्यानकर युक्त नामा प्रकारके शुभाशुभ कमनि को करे हैं, महा मोहिनी कमने ये जी बुद्धि हिन किये जाते सदा हिंसा करे हैं असत्य वचन कहे हैं, पराये मर्म भेदक वचन क हैं, परनिंदा कर हैं पर द्रव्य हरे हैं, परस्त्रीका सेवन करे हैं, प्रमाणरहित परिग्रहको अंगीकार करे हैं, बढा है महालोभ जिनके । वे कै। हैं महा निन्द्यकर्म कर शरीर तज अधोलोमें जाय हैं तहां दुःखके कारण सप्त नरक तिनके नाम रत्नप्रभा, शर्करा, बालुका, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, महातमप्रभा, सदा महा दुःखके कारण सप्त नरक अंधकारकर युक्त दुगंध सूधा न जाय देखा न जाय स्पर्मा न जाय महा भयंकर महाविकराल हे भूमि जिनकी सहा रुदन दुर्वचन त्रास नानाप्रकार छेदन भेदन तिनकर सदा पीडित नारकी खोटे कर्मनितें पापबन्ध कर बहुत काल सागरों पयंत महा तीव्र दुःख भोगवे हैं ऐसा जान पंडित विवेकी पाप बंधसे रहित होष थमम चित्त धरो कैसे हैं विवेकी ? व्रत नियमके धरणारे नि:कपटस्वभाव अनेक गुण निकर मंडि वे नानाप्रकारके तपार स्वर्ग लोकको प्राप्त होय हैं। बहुरि मनुष्य देह पाय मोक्ष प्राप्त होय हैं अर जे धर्म । अभिलाषासे रहित हैं ते कल्याणके मार्ग रहित बारम्ब र जन्म मरण करने महादुखी संसार में भ्रण करे हैं । जे भव्यजीव सर्वज्ञ वीतरागक वचनकर धर्ममें तिष्ठे हैं ते मोक्षमार्गी शील सत्य शौच सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकार जब लग अष्ट कर्मका नाश न करें तवग इन्द्र अहमिंद्र पदके उत्तम सुख भोगवे हैं । नानाप्रकार के अद्भुत सुख भाग हा से चय कर महाराजाधिराज होय बहुरि ज्ञान पाय जिनमुद्राथर महा तपकर केवल ज्ञान उपाय अष्ट कर्म रहित द्धि होय हैं, अनन्त अविनाशी आत्मिकस्वभावमयी परम आनन्द भोगवे हैं। यह व्याख्य न सुन इंद्रजीत मेघनाद अपने पूर्वभव पूछते भये। सो कंवली कहे हैं-एक कौशांबी नामा गरी तहां दो भाई दलिद्री एकका नाम प्रथम, दूजेका नाम पश्चिम । एकनि वहार करते भवदत्तनामा मुनि वहां पाए सो ये दोनों भाई धर्म श्रवण कर ग्यारमी प्रतिमाके धारक क्षुल्लक श्रावक भए सो मुनिके दर्शनको कौशांबी नगरीका इंद्रनामा राजा आया सो मुनि महाज्ञानी राजाको देख जान्या याके मिथ्यादर्शन दुनिवार है अर ताही समय नंदीनामा श्रेष्ठी महाजिनभक्त मुनिके दर्शनको आया ताका राजाने आदर किया ताको देख प्रथम अर पश्चिम दोऊ भाईनिमें से छोटे भाई पश्चिमन निदान किया जो मैं या धर्मके प्रसादकर नंदी सेठके पुत्र होऊ सो बडे भाईने भर गुरुने बहुत सम्बोधा जो जिनशासनमें निदान महा Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठत्तर प ४४५ निन्द्य है सो यह न समझा, कुबुद्धि निदानकर दुखित भया मरण कर नंदी के इन्द्रमुखी नामा स्त्री are गर्भ में आया सो गर्भमें श्रावते ही बडे बडे राजानिके स्थानकनिविषै कोटका निपात दरवाजनिका निपात इत्यादि नानाप्रकार के चिह्न होते भये, तब बड़े बड़े राजा याको नानाप्रकार के निमित कर महानर जान जन्महीसे अति चादर संयुक्त दूत भेज भेज कर द्रव्य पठाय सेवते भये । यह बडा भया याका नाम रतिवर्थन सो सब राजा याको सेवें, कोशांबी नगरीका राजा इन्दु भी सेवा करै । नित्य आय प्रणाम करें। या भांति यह रतिवर्धन महाविभूति कर संयुक्त या बडा भाई प्रथम मर कर स्वर्ग लोक गया, सो छोटे भाईके जीवको संबोधवेके अर्थ चुल्लकका स्वरूप धर आया सो यह मदोन्मत्त राजा मदकर अन्धा होय रहा सो क्षुल्लकको दुष्ट लोकनिकर द्वार में पैठने न दिया तब देवने चुल्लकका रूप दूरकर रतिवर्धनका रूप किया तत्काल ताका नगर उजाड उद्यान कर दीया पर कहता भया अब तेरी कहा वार्ता १ तब वह पायन पड स्तुति करता मया तब ताको सकल वृत्तांत कहा- जो आपां दोऊ भाई थे। मैं बडा, तू छोटा । सो चुल्लकके व्रत धारे सो मैंने नंदीसेठ को देख निदान किया सो मरकर नंदी के घर उपजा, राजविभूति पाई और मैं स्वर्ग में देव मया । यह सब वार्ता सुन रतिवर्धनको सम्यक्त्व उपजा, मुनिः मया अर नंदीको आदि दे अनेक राजा रतिवर्धन के संग मुनि भए । रतिवर्धन तप कर जहां माईका जीव देव हुना वहां ही देव भया बहुरि दोऊ माई स्वर्गत चयकर राजकुमार भये । एकका नाम उर्व दूजे का नाम उर्वस राजा नरेन्द्र राणी विजयाके पुत्र बहुरि जिनधर्मका आराधनकर स्वर्ग में देव भए वहसि चयकर तुम दोऊ भाई रावण के राखी मंदोदरी ताके इन्द्रजीत मेघनाद पुत्र भये पर नंदी सेठके इन्दुमुखी रतिवर्धनकी माता सो जन्मांतर में मंदोदरी भई । पूर्व जन्ममें स्नेह हुता सो अब हू माताका पुत्र से अतिस्नेह भया । कैसी है मंदोदरी ? जिनधर्म में आसक्त है चिच जाका । यह अपने पूर्व भव सुन दोऊ भाई संसारकी मायासे विरक्त भए ! उपजा है महा वैराग्य जिनको जैनेश्वरी दीक्षा आदरी अर कुम्भकर्ण मारीच राजा मय पर भी बडे बडे राजा संसारतें महा विरक्त होय मुनि भए, तजे हैं विषय कषाय जिन्होंने, विद्याथरोंके राजकी विभूति तृणवत् तजी, महा योगीश्वर हो अनेक ऋद्धिके धारक भए, पृथिवी में बिहार करते भव्यनिको प्रतिबोधते भए, श्रीमुनिसुव्रतनाथ के मुक्ति गए पीछे तिनके तीर्थ में यह बडे बडे महा पुरुष भए, परम तप के धारक अनेक ऋद्धि संयुक्त | वह भव्य जीवनिको बारम्वार बंदिवे योग्य हैं अर मन्दोदरी पति र पुत्रनिके विरह कर अति व्याकुल भई महा शोककर मूर्छाको प्राप्त भई बहुरि सचेत होय कुरवीमृगीकी न्याई विलाप करती भई । दुख रूप समुद्र-: मग्न होय, हाय पुत्र इन्द्रजीत, मेघनाद ! यह कहा उद्यम किया, मैं तिहारी माता अति दीन ताहि क्यों तजी ? यह तुमको कहा योग्य जो दुखकर तप्तायमान जो माता ताका समाधान किए बगेर उठ गए। हाय पुत्र हो ! तुम कैसे सुनिव्रत धरोगे। तुम देवनि सारिखे महा भोगी शरीरको लडावनहारे भूमिपर कैसे फू Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० पद्मपुराण معهد الفسقنلننفخ शयन करोगे। समस्त वैभव तजा, समस्त विद्या तजी, केवल आध्यात्मविद्यामें तत्पर भए पर राजा मय मुनि भया ताका शोक करे है ---हाय पिता ! यह क्या किया ? जगतको तज मुनिरूप धरा तुम मोसे तत्काल ऐसा स्नेह क्यों तजा ? मैं तिहारी पुत्री बालिका, मोपै दया क्यों न करी बालअवस्थामें मोपर तिहरी अति कृपा हुनी, मैं पिता अर पुत्र पति सबसे रहित भई, स्त्रीके यही रक्षक अब मैं कोनके शरण जाऊ मैं पुए हीन महा दखको प्राप्त भई या भांति मन्दोदरी रुदन करै ताका रुदन सुत सबहीको दया उपजे अश्रुपात कर चातुर्मास कर दिया ताहि शशिकांता श्राविका उत्तम वचन कर उपदेश देती भई—हे मूर्खिणी, कहा रोवै है या संसार चक्रमें जीवनिने अनन्त भव धरे तिनमें नारिकी अर देननिके तो सन्तान नाही अर मनुष्य पर तिर्यच. निके है सो चतुर्गति भ्रमण करते मनुष्य तियंचनिके भी अत्यंत जन्म धारे तिनमें तेरे अनंत पिता पुत्र बांधव भए जिनका ज म जन्म में रुदन किया अब कहा विलाप करे है ? निश्चलता भज यह संसार असार एक जिन धर्मही सार है । तू जिनधर्मका. आराथन कर दुखसे निवृत्त हो । ऐसे प्रतियोधके कारण आर्यिकाके मनोहर वचन सुन मन्दोदरी महा विरक्त भई । उत्तम गुण हैं जामें, समस्त परिग्रह तज कर एक शुक्ल वस्त्र धारकर आर्थिका भई । कैसी है मन्दोदरी? मन वचन कायम र निर्मल जो जिनशामन तामें अनुरागिणी है अर चन्द्रनखा रावणकी बहिन ह याही श्रायिकाके निकट दीक्षा धर आर्यिका भई। जा दिन मन्दोदरी आर्यिका भई ता दिन अडतालीस हजार अयिका भई ।। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषा वचनिकाविषै इंद्रजीत मेघना कुम्भकरणका पैराग्य अर भदोदरी आदि रानीका गैराग्य कहनेवाला अठत्तरवा पर्व पूर्ण भया ॥८॥ अथाननर गौतम स्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं-हे राजन् ! अब श्रीराम लक्ष्मणका विभूति सहित लंका में प्रवेश भया सो सुन । महा विमाननिके समूह अर हाथिनकी घटा भर श्रेष्ठ तरंगनिके समूड अ. मन्दिर समान रथ अर विद्याधरनिके समूह अर हजारा देव तिनकर यक्त दोनों भाई महाज्योतिको घरे लंकामें प्रवेश करते भए, तिनको देख लोक अति हर्षित भये. जन्मांतरके धर्मके फल प्रत्यक्ष देखते भये, राजमार्गक विष जाते श्रीराम लक्ष्मण तिनको देख नगरके नर पर नारिनको अपूर्व प्रानन्द भया । फूल रहे हैं. मुख जिनके, स्त्री झरोखनमें बैठी जालिनिमें होय देखे हैं । कपल समान है मुख जिनके, महा कौतुक कर युक्त परम्पर वार्ता करे हैं-सखी ! देखो यह राम राजा दशरथका पुत्र गुणरूप रत्ननिका राशि पूर्णमासीके चन्द्रमा समान हैं वदन जाका कमल समान नेत्र जाके अद्भुन पुण्यकर यह पद पाया है अति प्रशंसा योग्य है अकार ज.का, धन्य है वह कन्या जिन्होंने एसे वर पाये । जाने यह वर पाये ताने कीर्तिका थंभ लो में थापा, जाने जन्मान्तरमें धर्म आचरा होय सोही ऐसा नाथ पाये ता समान अन्य नारी कौन ? जाया अत्यंत, राजा जनककी पुत्री महा कल्याणरूपिणी जन्मान्तर में महा पुण्य उपार्ने हैं नाते यह एसे पति जैसे शची इन्द्रकं तैसे सीता रामके पर यह लक्ष्यण वासुदेव चक्रपाणि शंभे है जाने अनुरेंद्र सभान रावण रणमे हता, नील कमल Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनासी पर्ण ४५१ समान कांति जा की पर गौर कीर्तिकर संयुक्त जो बलदेव श्रीरामचन्द्र तिन सहित ऐसे सोहे जैसे प्रयाग में गंगा यमुना प्रवाहका मिलाप मोहै । अर यह राजा चंद्रोदयका पुत्र विराधित है जाने लक्ष्मणासे प्रथम मिलाप कर विस्तीर्ण विभूति पाई अर यह राजा सुग्रीव aिsharपुरका aft मा पराक्रमी जाने श्रीराम देवसे परम प्रीति जनाई पर यह सीताका भाई भामण्डल राजा जनकका पुत्र चंद्रगति विद्याधग्ने पाला मो विद्याधरका इन्द्र है और यह अंगदकुमार राजा सुग्रीवका पुत्र जो रावणको बहुरूपिणी विद्या साधते को घनी भार हे सखी, यह हनूमान महा सुन्दर उतंग हाथिनके रथ पढा पवन कर हाले हैं वारके चिह्नकी ध्वजा जाके, जाहि देख रणभूमिमें शत्रु पलाय जांग सो राजा पवनका पुत्र अंजनीके उदर में उपजा जाने लंका कोट दरवाजे ढाहे हैं। ऐसी वार्ता परस्पर स्त्रीजन करे हैं तिनके वचनरूप पुष्पनिकी मालाकर पूजित जो राम सो राजमार्ग होय आगे गए। एक चमर ढरती जो स्त्री ताहि पूछा हमारे विरहके दुःख कर तप्तायमान जो भामण्डलकी वहिन सो कहां तिष्ठे है ? तब वह रत्ननिके चूडाकी ज्योतिकर प्रकाश रूप है भुजा जाकी सा अंगुरी कर समस्या कर स्थानक दिखावती भई । हे देव, यह पुष्पप्रकीर्ण नाग गिरि निरकरना नोंके जलकर मानों हाय ही करे हैं त नन्दन वन समान महा मनोहर वन ताविषै राजा जनक की पुत्री कीर्ति शोल है परिवार जाके सो तिष्ठे है । या भांति रामजीसे चमर ढारती स्त्री कहती भई र सीताके समीप जो उर्मिका नाम सखी च सखिनमें प्रीति की भजनहारी सो अंगुरी पसार सीताको कहनी भई – हे देवि ! यह चन्द्रमा समान है छत्र जिनका अर चांद सूर्य समान हैं कुंडल जिनके घर शरदके नीझरने समान है हार जिनके सो पुरुषोतम श्रीरामचन्द्र तिहारे बल्लभ आए । तिहारे बियोग कर मुखमें अत्यन्त खेदको धरे हैं । हे कमलनेत्र ! जैसे दिग्गज आवे तैसे आचे हैं। यह वार्ता सुन सीताने प्रथम तो स्वप्न समान वृतांत जाना बहुरि आप अति आनंदको घरे जैसे मेघपटलसे चन्द्र निकसे तैसे हाथीसे उतर आए जैसे रोहिणी के निकट चन्द्रना आवे तैसे आए तब सीता नाथ को निकट जान की मरी उठकर संमुख आई। कैरी हैं सीता ? धूरकर धूसर है अंग अर केश बिखर रहें हैं श्याम पड गए हैं होठ जाके स्वभाव कर कृष हुनी र पतिके वियोगकर अत्यन्त कृश भई अब पतिके दर्शन कर उपजा है प्रतिहर्ष जाको, प्राण की आशा बाँधी, मानो Feat भरी शरीर की कांतिकर पतिसे मिलाप ही करें है श्रर मानो नेत्रनिकी ज्योतिरूप जल कर पतिको स्नान ही करावे है और क्षणमात्रमें बढ गई है शरीर को लावण्य रूप सम्पदा Refh भरे निश्वास कर मानो अनुराग के भरे बीज बोने है। कैसे है जोता ? र नेत्रनिको विश्रामकी भूमि पर पल्लव समान जे हस्त तिनकर जीते हैं लक्ष्नी के करकमल जाने, सौभाग्य रूप रत्ननिकी खान सम्पूर्ण चन्द्रमा समान है वदन जाका चन्द्र कल की यह निःकल के, त्रिजुरी समान है कांति जाकी, वह च चन यह निश्चल, प्रफुल्ति कमल समान हैं तंत्र जाते, मुखरूप चन्द्रकी चन्द्राकर अतिशाभाको प्राप्त भई है यह अवार्ता है कि कम तो चन्द्रकी ज्यो Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण ४५२ तिकर मुद्रित होय हैं अर याके नेत्रकमल मुखचद्रमाकी ज्योतिकर प्रकाशरूप हैं । कलषतारहित उमत हैं स्तन जाके मानों कामके कलश ही हैं, सरल है चित्त जाका, सो कौशल्याका पुत्र राणी विदेहाकी पुत्रीको निकट श्रावनी देख कथनविष न पावे ऐसे हर्षको प्राप्त भया, पर यह रतिसमान सुन्दरी रमण को आवता देख विनयकर हाथ जोड खडी अश्रुपातकर मरे हैं नेत्र जाके जैसे शची इन्द्र के निकट आवै, रति कामके निकट प्रावै, दया जिनधर्मके निकट मात्र, सुभद्रा भरतके निकट आवै, तैसे ही सीता सती रामके समीप आई सो घने दिननिका वियोग ताकर खेदखिन रामने मनोरथके सैकडोंकर पाया है नवीन संगम जाने सो महाज्योतिका धरणहारा सजल हैं नेत्र जाके भुज बनकर शोभित जे भुजा तिनकर प्राणप्रियासे मिलता भया । ताहि उरसे लगाय सुखके सागरमें मग्न भया, उरसे जुदी न कर सके मानों विरहसे डरै है अर वह निर्मल चित्तकी धरणहारी प्रीतम के कंठविणे अपनी भुत्र पासि डारि ऐसी सोहती भई जैसे कल्पवृक्षनिसे लिपटी कल्पवेलि सोहै, भया है रोमांच दोनोंके अंगमें परस्पर मिलापकर दोऊ ही अति सोहते भये । ते देवनिके युगल समान हैं जैसे देव देवांगना सो है तैसे सोहते भये । सीता अर रामका समागम देख देव प्रसन्न भये प्राकाशसे दोनोंपर पुष्पोंकी वर्षा करते भये सुगन्ध जलकी वर्षा करते भये अर ऐसे वचन मुखतै उचारते भए-अहो अनुपम है शील सीताका, शुभ है चित्त सीता धन्य है याकी अचलता गम्भीरता धन्य है व्रत शीलकी म. नोग्यता धन्य है निर्मलपन जाका धन्य है सदिनिविष उत्कृष्टता है जाकै, जाने मनहूकर द्विनीय पुरुष न इच्छा, शुद्ध है नियम व्रत जाका या भांति देवनि प्रशंसा करी ताही समय अति भक्तिका भरा लक्ष्मण आय सीताके पायन पडा विनयकर संयुक्त, सीता अश्रपात डारती ताहि उरसों लगाय कहती भई-हे वत्स ! महाज्ञानी मुनि कहते हुते जो यह वासुदेव पदका धारक है सो तू प्रगट भया अर अर्थचक्रो पदका राज तेरे आया निग्रंथ के वचन अन्यथा न होंय पर यह तेरे बडे माई बलदेव पुरुषोत्तम जिन्होंने विरहरूप अग्निमें जरती जो मैं सो निकासी । बहुरि चंद्रमा समान है ज्योति जाकी ऐसा भाई भामएल बहिनके समीप पाया ताहि देख अतिमोहकर मिली । कैसा है भाई ? महाविनयवान् है अर रणमें भला दिखाया है पराक्रम जाने, सुग्रीव हनुमान नल अंगद विराथित चंद्र सुषेण जांबव इत्यादि बडे बडे विद्याधर अपना २ नाम सुनाय बंदना अर स्तुति करते भये, नाना प्रकारके वस्त्र आभूषण कल्पवृक्षोंके पुष्पनिकी माला सीताके चरणके समीप स्वर्णके पात्रमें मेल भेट करते भए अर स्तुति करते भए--हे देवि ! तुम तीन लोकविष प्रसिद्ध हो महा उदारताको धरो हो गुण सम्पदाकर सबनिमें बडी हो देवोंकर स्तुति करने योग्य हो अर मंगल रूप है दर्शन तिहारा, जैसे सूर्यकी प्रभा सूर्यसहित प्रकाश करै तैसे तुम श्रीरामचन्द्र सहित जयवन्त होहु। इति श्रीरनिषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा गचनिकागि राम र सीताका मिलाप वर्णन करनेगाला उन्नासीवां पर्व पूर्श भया ॥७॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्सीवां पर्ण अथानन्तर सीताके मिलापरूप सूर्यके उदय कर फूल गया है मुख जिनका ऐसे जो राम सो अपने हाथ कर सीताका हाथ गह उठे, ऐरावत गज समान जो गज ता पर सीतासहित आरोहण किया। मेघ समान वह गज ताकी पीठपर जानकी रूप रोहिणीकर युक्त रामरूप चन्द्रमा सोहते भए समाथान रूप है बुद्धि जिनकी, दोउ अतिप्रीतिके भरे, प्राणीयोंके समूहको प्रामन्दके करता बडे २ अनुरागी, विद्याधर लार लक्ष्मण लार स्वर्ग विमान तुल्य रावणका महल यहां श्रीराम पधारे । रावणके महिलके मध्य श्रीशांतिनाथका मंदिर अति सुन्दर तहां स्वर्णके हजारों यंभ नानाप्रकारके रत्नोंकर मंडित मन्दिरकी मनोहर भीति जैसे महाविदेहके मध्य सुमेरु गिर सोहै तैसें रावण के मन्दिर विषै श्रीशांतिनाथ का मन्दिर सोहै जाकों देख नेत्र मोहित होय जाय, जहां घंटा बाजे है ध्वजा फहरे हैं, महा मनोहर वह शांतिनाथ का मन्दिर वर्णनमें न आवै। श्रीराम हाथीसे उपर नागेंद्र समान है पराक्रम जिनका, प्रसन्में हैं नेत्र जिनके महालक्ष्मीवान जानकीसहित किंचित्काल कायोत्सर्गको प्रतिज्ञा करी, प्रलंबित हैं भुजा जिनकी महा प्रशांत हृदय सामायिकको अंगीकार कर हाथ जोड शांविनाथस्वामीका स्तोत्र समस्त अशुभ कर्मका नाशक पढते भए-हे प्रभो ! तिहारे गर्भावतारमें सर्वलोकमें शांति भई महा कांतिकी करणहारी सर्वरोग हरमहारी पर सकल जीवनको आनंद उपजे कर तिहारे जन्मकन्याणमें इंद्रादिक देव महा हर्षित होय पाए हीर सागरके जल कर सुमेरु पर्वत पर तिहारा जन्मभिषेक भया अर तुमने चक्रवर्ती पद पर जगत्का राज्य किया वायशत्रु वाह्यचक्रसे जीते भर मुनि-होय · माहिले मोह रागादिक शत्रु ध्यानकर जीते केवलबोष लहा, जन्म जरा मरणसे रहित जो शिवपुर कहिए मोक्ष ताका तुम अविनाशी राज्य किया, कर्म रूप वैरी ज्ञान शस्त्रसे निराकरण किए। कैसे हैं कर्म शत्रु सदा भवभ्रमणके कारण पर जन्म जरा मरण भयरूप आयुधनिकर युक्त सदा शिवपुर पंथके निरोथक । कैसा है शिवपुर १ उपमारहित नित्य शुद्ध जहां परभावका आश्रय नाही, केवल निजभावका आधय है अत्यन्त दुर्लभ सो तुम आप निर्वाणपद सुलम करो हो, सब जगतको शांतिके कारण हो। हे श्रीशांतिनाथ ! मन वचन काय कर नमस्कार तुमको, हे महेश ! अत्यन्तशांत दिशाको प्राप्त भए हो, स्थावर जंगम सर्वजीवोंके नाथ हो जो तिहारे शरण पावै ताके रक्षक हो, समाथि बोथके देनहारे तुम एक परमेश्वर सवनके गुरु सबके बांधव हो मोक्ष मार्गके प्ररूपणहारे सर्व इंद्रादिक देवनिकर पूज्य धर्मतीर्थके कर्ता हो, तिहारे प्रसाद कर सर्व दुखसे रहित जो परम स्थानक ताहि मुनिराज पावे हैं । देवाधिदेव नमस्कार है तमको सर्व कर्म विलय किया है । हे कृतकृत्य ! नमस्कार " तुमको, पाया है परम शांतिपद जिन्होंने, तीनलोकको शांतिके कारण सकल स्थावर जंगम जीवोंके नाथ, शरणागतपालक समाथि बोधके दाता महा कांतिके धारक हो। हे प्रभो ! तुमही मुरु तुमही वांधव तुमही मोक्षमार्गके नियंता परमेश्वर इंद्रादिक देवनिकर पूज्य धर्म तार्थके कर्ता जिनकर भव्य जीवनिको मुख होय सर्व दुखके हरणहारे कर्मोंके अन्तक नमस्कार तुमको, हे लब्धलम्य ! नमस्कार तुमको लब्धलभ्य कहिये पाया है पायवे योग्य पद जिन्ह ने, महाशांत स्वभावमें विराजमान सर्वदोषरहित हे भगवान! कपा करो वह प्रखंड अविनाशी पद हमें देवो। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण इत्यादि महास्तोत्र पढते कमलनयन श्रीराम प्रदक्षिणा देकर पंदना करते भए महाविवेकी पुण्य कर्ममें सदा प्रवीण पर रामके पीछे नम्रीभूत है अंग जाका दोऊकर जोडें महासमाधानरूप जानकी स्तुति करती मई। श्रीरामके शब्द महा ददुभी समान पर जानकी महामिष्ट कोमल वीणा समान बोलती भई अर विशन्या सहित लक्ष्मण स्तुति करते भए अर भामण्डल सुग्रीव तथा हनुमान मंगल स्तोत्र पढते भए जोडे हैं कर कमल जिन्होंने पर जिनराज में पूर्ण है भक्ति जिनकी महा गान करते मृदंगादि वजावते महा ध्वनि करते भए । मयूर मेषकी ध्वनि जान नृत्य करते भए बारम्बार स्तुति प्रणाम कर जिनमन्दिरमें यथायोग्य तिष्ठे। ता समय राजा विभीषण अपने दादा सुमाली भर तिनके लघुवीर मान्यवान अर सुमालीके पुत्र रत्नश्रवा रावणके पिता तिनको आदि दे अपने पडे तिनको समाधान करता भया, कैसा है विभीषण ? संसारकी अनित्यताके उपदेशमें अत्यन्त प्रवीण सो षडोंको कहता भया-हे वात! यह सकल जीव अपने उपार्जे कर्मोको भोगे हैं तात शोक करना वृथा है पर अपना चित्त समाधान करो आप जिन आगमके वेत्ता महा शांतचित्त पर विचक्षण हो औरोंको उपदेश देयवे योग्य आपको हम कहा कहें जो प्राणी उपजा है सो अवश्य मरणाको प्राप्त होय है अर यौवन पुष्पनिकी सुगंधतासमान समात्रमें और रूप होय है पर लक्ष्मी पल्लवोंकी शोभासमान शीघ्र ही और रूप होय है अर विजुरीके चमकार समान यह जीतव्य है अर पानीके बुरबुदाममान बंधुनिकर समागम है पर सांझके बादरके रंग समान यह भोग, अर यह जगतकी करनी स्वप्नकी क्रिया समान है जो यह जीव पर्यायार्षिक नयकर मरण न करे तो हम भवान्तरसे विहारे वंशमें कैसे भावते ? हे तात ! अपना ही शरीर विनाशीक है तो हितु जनका अत्यन्त शोक काहे को करिए, शोक करना मूढता है सत्पुरुषों को शोकसे दर करिवे अर्थ संसारका स्वरूप विचारणा योग्य है देखे सुने अनुमवै जे पदार्थ वे उत्तम पुरुषोंको शोक उपजाये है परन्तु विशेष शोक न करना पणमात्र भया तो भया शोककर बाधक्का मिलाप नाही,पुद्धिभ्रष्ट होय है तात शोक न करना यह विचारणा या संसार असारमें कौन २२ भए ऐसा जान शोक तजना अपनी शक्ति प्रमाण जिनधर्मका सेवन करना । यह वीतरागका मागं संसार सागरका पार करणहारा है सी जिनशासनमें चित्त धर प्रात्मकन्यारण करना। इत्यादि मनोहर :मधर वचननिकर विभीषणने अपने बडनिका समाधान किया। बहुरि विभीषण अपने निवास गया । अपनी विदग्धानामा पटराणी समस्त व्यवहारमें प्रवीण हजाराराणीनिमें मुख्य ताहि श्रीरामके नौतवेको भेजा सो मायकर सीतासहित रामको नमस्कार कर कड़ती भई-हे देव ! मेरे पतिका पर आपके चरणाविंदके प्रसंगकर पवित्र करहु, भाप अनुग्रह करिने योग्य हो या मांति राणी विनती करे है, तब ही विभीषण पाया, अतिआदरतें कहता भया-हे देव ! उठिये मेरा घर पवित्र करिए आप याके लार ही याके घर जायवेको उद्यमी मए नानाप्रकारके वाहन कारी बटा समान गज अति उसंग मर पवनसमान चंचल तुरंग पर मन्दिरसमान रथ इत्यादि नाना प्रकारके जे बाहन तिम्पर प्रारूढ अनेक राजा तिन सहित विभीषणके पर पधारे, समस्त राजमार्ग सामंवनिःकरमावाविव भवा। विभीनने मगर बाला, Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्सीवां पर्न मेषकी ध्वनि समान बादित्र वाजते भए, शंखनिके शब्द कर गिरिकी गुफा नाद करती भई, झझा मेसे मृदंग ढोल हजारों बाजते भए, लपाक काहल धुन्धु अनेक बाजे अर दुदंभी बाजे दशों दिशा वादिनोंके नाद कर पूरी गई। ऐसे ही तो वादित्रनिके शब्द अर ऐसेही नानाप्रकारके बाहननिके शब्द ऐसेही सामंतनिके अट्टहास तिनकर दशों दिशा पूरित भई कैयक सिंह शाईल पर चढ़े हैं, कैयक स्थान पर चढ़े हैं. कैयक हाथिनि पर कैयक तुरंगनि पर चढे हैं नानाप्रकारके विद्यामई तथा सामान्य वाहन तिनपर चढे चले, नृत्यकारिणी नृत्य करें हैं नट भाट अनेक कला अनेक चेष्टा करे है अति सुन्दर नृत्य होय है बंदीजन विरद बखाने हैं ऊंचे स्वरसे स्तुति करे हैं अर शरदकी पूर्णमासी के चन्द्रमा समान उज्वल छत्रनिके मंडल कर अंबर छाय रहा है नाना प्रकारके आयुधनिकी कांति कर सूर्य की किरण दब गई है, नगरके सकल नर नारी रूप कमलनिके वनको आनन्द उपजावते भानु समान श्रीराम विभीषणके घर आए । गौतमस्वामी कहे हैं-हे श्रेषिक! ता समयकी विभूति कही न जाय, महा शुभ लक्षण जैसी देवनिक शोभा होय तैसी भई । विभीषण ने अर्धपाय किये, अति शोभा करी। श्रीशांतिनाथ के मन्दिर ते लय अपने महिलतक महा मनोग्य तांडव किये । आप श्रीराम हाथीसे उतर सीता भर लक्ष्मण सहित विभीषण के घरमें प्रवेश करते भये, विभीषणके महिलके मध्य पमप्रभु जिनेंद्रका मन्दिर रत्नके तोरणनिकर मंडित कनकमई ताके चौगिर्द अनेक मन्दिर जैसे पर्वतनिके मध्य सुमेरु सोहै तैसे पायका मन्दिर सोहै। सुवर्णके हजारा थम्भ तिनके उपर अतिऊंचे देदीप्यमान अति विस्तार संयुक्त जिन मन्दिर सोहैं, नानाप्रकारके मणि निके समूह करमंडित अनेक रचनाको धरे अतिसुन्दर पराग मणिमई पमप्रमु जिनेंद्रकी प्रतिमा अति अनुपमा विराजाकी कांतिकर मणिनिकी भूमिमें मानों कमलनिका वन फूल रहे हैं। सोरामलक्ष्मण सीतासहित बंदना कर स्तुतिकर यथायोग्य निष्ठे॥ अथानन्तर विद्याधरनिकी स्त्री राम लक्ष्मण मीताके स्नानकी तयारी करावती भई. अनेक प्रकारके सुगन्ध-तेलः तिनके उबटन किये, नासिकाको सुगन्ध पर देहकू अनुकूल पूर्व दिशाको मुखकर स्नान की चौकी पर विराजे, बडी ऋद्धिकर स्मानको प्रवरते सुवर्ण के मस्कत भषिके हीरानिक स्फटिक मभिके इन्द्रनीलमणिके कलश सांध जलके भरे तिनकर स्नान मया, नानाप्रकारके वादित्र बाजे, गीत गान भए, जब स्नानम्होय चुभा तब महापवित्र वस्त्र श्राभूषण' पहिरे बहरि पद्मप्रभुके चैत्यालय जाय यन्दना करी। विभीषणने रामकी मिजमानी करी ताका विस्तार कहां लग कहिए, दुग्ध दही घी शर्वत की बावडी भरवाई पकान अर अमके पर्वत किए अर जे अद्भुत वस्तु नन्दनादि वन विष पाइये ते मंगाई मनको आनन्दकारी नसिकाको सुगंध नेत्रोंको प्रिय अति स्वादको थरे जिहाको बनभ-पट रससहित भोजनकी तैशारी करी, सामग्री तो सर्व सुन्दर ही हुती पर सीताके मिलापकर रामको अति प्रिय लगी रामके चितकी प्रसन्नता कथनमें न मावै । जब इष्टका संयोग होय तब पांचों इंद्रियनिक सर्वही भोगप्यारे'लमें नातर नाहीं, अब अपने प्रीतमका संयोग होय सक भोजन भली भांति रुः सुगंधकचे संदरवस्त्रका Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ पद-पुराण देखना रुचे रागका सुनना रुचै कोमल स्पर्श रुचै, मित्रके संयोगकर सब मनोहर लगै, अर जब मित्रका वियोग होय तव स्वर्ग तुल्य विषय भी नरक तुल्य भासै अर प्रियके समागम में महा विषमवन स्वर्गतुल्य भासै महा सुंदर अमृतसारिखे रस अर अनेक वर्णके अद्भुत भक्ष्य तिनकर रामलक्ष्मण सीताको तृप्त किये अद्भुत भोजन क्रिया भई, भूमिगोचरी विद्याधर परिवारसहित अति सन्मानकर जिमाए, चन्दनादि नुगन्धके लेप किये तिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं अर भद्रसाल नंदनादिक वनके पुष्पनिसे शोभित किए अरमहा सुन्दर वस्त्र पहिराए नानाप्रकारके रत्ननिके आभूषण दिए, कैसे हैं प्राभूषण ? जिनके रत्ननिकी ज्योतिके समूहकर दशोंदिशामें प्रकाश हो रहा है। जेते रामकी सेनाके लोक थे वे सब विभीषणने सनमान कर प्रसन्न किये सबके मनोरथ पूर्ण किये रात्रि पर दिवस सब विभीषण ही का यश करें, अहो यह विभीषण रायसवंशका आभूपण है, जाने राम लक्ष्मणकी बडी सेवा करी यह महा,प्रशंसा योग्य है मोटा पुरुष है यह प्रभावका थारक जगतमें उतंगताको प्राप्त भया, जाके मंदिर श्रीराम लक्ष्मण पधारे, या मांति विभीपणके गुण ग्रहणमें तत्पर विद्याधर होते भए । सर्व लोक सुखसे तिष्ठे राम लक्ष्मण सीता पर विभीषणकी कथा पृथिवीमें प्रवरती। अथानन्तर विभीषणादिक सकल विद्याधर राम लक्ष्मणका अभिषेक करनेको बिनयकर उद्यमी भए तब श्रीराम लक्ष्मणने कहा अयोध्यामें हमारे पिताने भाई भरत अभिषेक कराया सो भरत ही हमारे प्रभु हैं तब सबने कही भापको यही योग्य है परन्तु भव प्राप त्रिखंडी भए तो यह मंगल स्नान योग्य ही है यामें कहा दोष है अर ऐसी सुनने में प्रावै है-भरत महा धीर है अर मन वचन काय कर भापकी सेवामें प्रवरते है विक्रियाको नाहीं प्राप्त होय है। ऐसा कह सबने राम लक्ष्मणका अभिषेक किया जगतमें बलभद्र नारायणकी अति प्रशंसा भई जैसे स्वर्गमें इन्द्र प्रतिइन्द्रकी महिमा होइ तैसे लंका में राम लक्ष्मण की महिमा भई, इद्रन्के नगर समान वह नगर महा भोगनिकर पूर्ण तहां रामलक्ष्मण की आज्ञासे विभीषण राज्य करे है, नदी सरोवरनिके तीर अर देश पुर ग्रामादिमें विद्याधर राम लक्ष्मणही का यश गावते भए, विद्याकरयुक्त अद्भुत आभूषण पहिरे सुन्दर बस्त्र मनोहर हार सुगंधादिकके विलेपन उनकर युक्त क्रीडा करते भए जैसे स्वर्ग में देव क्रीडा करें पर श्रीरामचन्द्र सीताका मुख देखते तृप्ति को न प्राप्त भए । कैसा है सीताका मुख १ सूर्यके किरणकर प्रफुखित भया जो कमल ता समान है प्रभा जाकी, अत्यन्त मनकी हरणहारी जो सीता ता सहित राम निरन्तर रमणीय भूमिमें रमते भए अर लक्ष्मण विशन्या सहित रतिको प्राप्त भए मन बांछित सकल वस्तु का है समागम जिनके उन दोऊ भईनिके बहुत दिन भोगोपभोगयुक्त सुखसे एक दिवस समान गए। एक दिन लक्ष्मण सुन्दर लक्षणोंका थारणहारा विराधितको अपनी जे स्त्री तिनके लेयवे अर्थ पत्र लिख'बडी ऋद्धिसे पठावता मा सो जायकर कन्यानिके पितानिको पत्र देता भया, माता पितानिने बहुन हर्षित होय कन्याको पठाई सो बडी विभूतिसों आई । दशांग नगरके स्वामी बजानकी पुत्री रूपवती महारूपकी वरणहारी पर कवर स्थानके नाथ बालखिल्यकी Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rai पर्व पुत्री कल्याण माला परम सुंदरी र पृथ्वीपुर नगरके राजा पृथ्वीधरकी पुत्री बनमाला गुणरूपकर प्रसिद्ध अर खेमांजलके राजा जितशत्रुकी पुत्री जितपद्मा पर उज्जैन नगरीके राजा सिंहोदरकी पुत्री यह सब लक्ष्मणके समीप आई विराधित ले आया जन्मान्तरके पूर्ण पुण्य दया दान मन इंद्रियोंको वशकरना शील संयम गुरुभक्ति महा उत्तम तप इन शुभ कर्मनिकर लक्ष्मणसा पति पाईये इन पतिव्रतानिने पूर्वै महा तप किए हुते रात्रि भोजन तथा चतुर्विध संघ की सेवा करी तातें बासुदेव पति पाये उनको लक्ष्मण ही वर योग्य र लक्ष्मण के ऐसे ही स्त्री योग्य तिनकर लक्ष्मण को र लक्ष्मणकर तिनको अति सुख होता भया । परस्पर सुखी भए । गौतम स्वामी राजा श्रेणि कसे करूँ हैं— हे श्रेणिक ! जगत में ऐसी संपदा नाहीं ऐसी शोभा नाहीं ऐसी लीला नाहीं ऐसी कला नाहीं जो इनके न भई । राम लक्ष्मण अर इनकी राणी तिनकी कथा कहां लग कहें श्रर कहां कमल क चन्द्र इनके मुखकी उपमा पावै अर कहा लक्ष्मी अर कहाँ रति इनकी राणियोंकी उपमा पावें । राम लक्ष्मणकी ऐसी संपदा देख विद्याधरों के समूह को परम आश्चर्य होता भया । चंद्रवर्धनकी पुत्री श्रर और अनेक राजानिकी कन्या तिनसे श्रीराम लक्ष्मणको प्रति उत्सवसे विवाह होता गया । सव लोकको आनन्दके करण्हारे वे दोऊ भाई महा भोगनिके भोगता मनवांछित सुख भोगते भए । इन्द्र प्रतींद्र समान श्रानन्द कर पूर्ण लंका में रमते भए, सीता में है अत्यन्त राग जिनका ऐसे श्रीराम तिन्होंने छह लंका में व्यतीत किये सुखकें सागरमें मग्न सुन्दर चेष्टाके घरणहारे श्रीरामचन्द्र सकल दुःख भूल गए || : श्रथानन्तर इन्द्रजीत मुनि सर्व पापनिके हरनहारे अनेक ऋद्धि सहित विराजमान पृथिवीमे विहार करते भये, वैराग्यरूप पवनकर मेरी ध्यानरूप अग्नि र कर्मरूप वन भस्म किये । कैसी है ध्यानरूप अग्नि १ क्षायिक सम्यक्त्वरूप श्ररण्यकी लकडी ताकर करी है अर मेघवाहन मुनि भी विषयरूप ईंधनको अग्नि समान आत्नध्यानकर भम्म करते भए, केवल ज्ञानको प्राप्त भए । केवलज्ञान जीवका निजस्वभाव है और कुम्भकर्ण मुनि सम्यक् दर्शन ज्ञानचारित्रके धारक शुक्ल लेश्या कर निर्मल जो शुक्लध्यान ताके प्रभावकर केवलज्ञानको प्राप्त भए । लोक अर लोक इनको अवलोकन करते मोहरज रहित इन्द्रजीत कुम्भ र्ण केवली आयु पूर्णकर अनेक सुनिन सहित नर्मदा तीर सिद्धपदको प्राप्त भए, सुरअसुर मनुष्यनिके अधिपति निकर गाइये है. उत्तम कीर्ति जिनकी, शुद्ध शीलके धरणहारे महादेदीप्यमान जगत बन्धु समस्त ज्ञ ेयके ज्ञाता जिनके ज्ञान समुद्रमें लोकालोक गायके खुर समान भास, संसारका क्लेश महाविपता के जाल से निकसे, जा स्थानक गए बहुरि यत्न नाहीं तहां प्राप्त भये उपमारहित निर्विघ्न अखण्ड सुख को प्राप्त भए । जे कुंभकर्णादिक अनेक सिद्ध भए से जिनशासन के श्रोताओं को आरोग्य पद देवें, नाश किये हैं कर्म शत्रु जिन्होंने । ते जिन स्थानकोंसे सिद्ध भए हैं वे स्थानक अद्यापि देखिये है । वे तीर्थ भव्यनिकर बंदवे योग्य हैं। विध्याचल की वनी में इन्द्रजीत मेवनाद तिष्ठे सो तीर्थ मेघरव कहावे है अर जम्बूवाली महा बलवान तूणीमंत नामापर्ववतें अहमिंट Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Watc पद्म-पुराण पदको प्राप्त भए सो पर्वत नानाप्रकारके वृक्ष पर लतानिकर मंडित अनेक पक्षिनके समूहकर तथा नानाप्रकार के वनचरनिकर भरा । श्रहो भव्यजीव हो ! जीवदया आदि अनेक गुणनिकर पूर्ण ऐसा जो जिनधर्मं ताके सेवन से कछु दुर्लभ नाहीं, जिनधर्म के प्रसादसे सिद्धपद अहमिंद्रपद इत्यादिके पद सबही सुलभ हैं। जम्बूनालीका जीव श्रहनिंद्र पदसे ऐरावतक्षेत्र में मनुष्य होय केवल उपाय सिद्धपदको प्राप्त होयेंगे अर मंदोदरीका पिता चारण सुनि होय महा ज्योतिको थरे अढाईद्वीप में कैलाश आदि निर्वाण क्षेत्रनिकी र चैत्यालयोंकी बंदना करते भये, देवों का है आगमन जहां सो मय महामुनि रत्नत्रय रूप आभूषण कर मंडित महाधारी पृथिवीमें विहार करें अर मारीच मंत्री महामुनि स्वर्ग में बडीऋद्धिके धारी देव भए । जिनका जैसा तप तैसा फल पाया। सीताके दृढत्रत कर पतिका मिलाप भया जाको रावण डिगाय न सका । सीताका अतुल धीर्य अद्भुतरूप महानिर्मल बुद्धि भरतार में अधिक स्नेह जो कहने में न आवै सीता महा गुणनिकर पूर्ण शीलकं प्रसादतें जगतमें प्रशंसा योग्य भई । कैसी है सीता ? एक निजाति में है संतोष जाके भवसागर की तरणहारी परम्पराय मोक्षकी पात्र जाकी साधु प्रशंसा करें। गौतमस्वामी कहैं हैं - हे श्रेणिक ! जो स्त्री विवाह ही नहीं करे बालब्रह्मचर्य धेरै सो तो महा भाग्य ही हैं और पत्रिका व्रत आदरै मन वचन कायकर परपुरुषका त्याग करें तो यह भी परम रत्न है । स्त्रीको स्वर्ग र परम्पराय मोक्ष देववे को समर्थ हैं । शीलत्रत समान और व्रत नाहीं, शील भवसागरकी नाव है । राजा मय मंदोदरीका पिता राज अवस्थामें मायाचारी हुता र कठोर परिणामी हृता, तथापि जिन धर्मके प्रसादकर राग द्व ेषरहित हो अनेक ऋद्धिका धारक मुनि भया । T 1 यह कथा सुन राजा श्रेणिक गौतमस्वामीकी पूछते भए - हे नाथ ! मैं इन्द्रजीतादिकका माहात्म्य सब सुना अब राजा मयका माहात्म्य सुना चाहू हूं अर हे प्रभो ! जो पृथिवी में पतिव्रता शीलवंती स्त्री हैं निज भरतार में अनुरक्त हैं वे निश्चयसे स्वर्ग मोदकी अधिकारिणी हैं तिनकी महिमा मोहि विस्तारसू कहो । तब गणधर कहते भए जे निश्चयकर सीता समान पतिव्रता शीत को धारण करें हैं ते अल्प भवमें मोच होय हैं पवित्रता स्वर्गही जाय परम्पराय मोक्ष पावें, अनेक गुणनिकर पूर्ण । हे राजन् ! जे मन वचन काय करशीलबन्दी हैं, चित्त की वृति जिन्होंने रोकी है ते धन्य हैं, घोडनिमें हाथिनिमें लोहेनि में पाषाणमें वस्त्रनिमें जलमें वृश्चनिमें बेलनिमें स्त्रीनिमें पुरुषनिमें बडा अन्तर है सबही नारियोंमें पतिव्रता न पाइये अर सबढी पुरुषनिमें विवेकी नाहीं । जे शील रूप कुशकर मनरूप माते हाथी को वश करें ते पतिव्रता है । पतिव्रता सही कुलमें होय हैं पर वृथा पतिव्रता का अभिमान किया तो कहा ? जे जिनधर्मसे वहिर्मुख हैं ते मनरूप माते हाथीको वश करने समर्थ नाहीं, बीतरागकी वाणीकर निर्मल भया है चित्त जिनका तेई मनरूप इस्तीको विवेक रूप अंकुश कर वशीभूत कर दया शीलके मार्ग विषे चलायबे समर्थ हैं । हे श्रेणिक ! एक अभिमाना स्त्री ताकी संक्षेपसे कथा कहिए है-सो सुन, यह प्राचीन कथा प्रसिद्ध है एक ध्यानग्रामनामा ग्राम वहां नोदन नामा ब्राह्मण ताके अभिमाना नामा स्त्री सो अग्निनामा 1 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्सीगां पण ब्रामणकी माननी नाम माताके उदर में उपजी, सो अति अभिमान की धरणहारी सो नोदन नामा ब्राह्मण क्षुधाकर पीडित होय अभिमानाको तज दई सो गजबनमें कारुह नाम राजाको प्रात भई, वह राजा पुष्प प्रकाण नगरका स्वामी लंपट सो ब्राह्मणीको रूपवन्ती जान लेगया, स्नेह कर घरमें राखी। एक समय रातिमें ताने राजाके मस्तकमें चरणकी लात दई । प्रातः समय सभामें गजाने पंडितनिसे पूछी-ज ने मेरा सिर पांच कर हता होय ताका कहा करना.? तब मूर्ख पंडित कहते भए-हे देव ! ताका पांव छेदना अथवा प्राण हरणा ता समय एक हेमांक नामा ब्राह्मण राजाके अभिप्रायका बेत्ता कहता भया--ताके पांवकी श्राभूषणादि कर पूजा करना, तब राजाने हेमांकको पूछी-हे पंडित ! तुमने रहस्य कैसे जाना तर ताने कही-स्त्रीके दंतनिके तिहारे अधरों में चिह्न दीखे तातें यह जानी स्त्रीके पांवकी लागी । तब राजाने हेमांकको अभिप्रायका वेत्ता जान अपना निकट कृपापात्र किया बडी ऋद्धि दई सो हेमांकके घरके पास एक मित्रयशा नामा विथवा ब्राह्मणी महादुःखी अमोघसर नाम ब्राह्मणकी स्त्री है सो अपने पुत्रको शिक्षा देती हुनी, भरतारके गुण चितार चितार कहती- भई हे पुत्र ! बाल अवस्थामें जो विधाका अभ्यास करै सो हेमांक की न्याई महा बिभूतिको प्राप्त होय, या हेमांकने बाल अवस्था में विद्याका अभ्यास किया सो अब याकी कीर्ति देख अर तेरा वाप थनुषवाण विद्यामें अति प्रवीण हुना ताके तुम मूर्खपत्र भये, आंसू डार माताने यह वचन कहे ताके वचन सुन माताको धीर्य बंधाया महा अभिमानका धारक यह श्रीवर्धित नामा पुत्र विद्या सीखनेके अर्थ ब्याघ्रपुर नगर गया सो गुरुके निकट शस्त्र शास्त्र सर्व विद्या सीखी अर या नगरके राजा सुकांतकी शीला नामा पुत्री वाहि ले निकसा । तब कन्याका भाई सिंह चन्द्र या ऊपर चढा सो अकेलेने शस्त्रविद्याके प्रभावकर सिंहचंद्रको जीता अर स्त्रीसहित माताके निकट आया। माताको हर्ष उपज या । शस्त्र कला कर याकी पृथिवीमें प्रसिद्ध कीर्ति भई सो शस्त्रके बल कर पोदनापुरके राजा करूरुहको जीत्या भर व्याघ्रपुरका राजा शीलाका पिता मरणको प्राप्त भया ताका पुत्र हिचंद्र शत्रुलिने दवाया सो सुरंगके मार्ग होय अपनी रानी को ले निकसा राज्यभ्रष्ट भया पोदनापुर में अपनी बहिनका निवास जान तंबोलीके लार पाननिकी झोली सिर पर धर स्त्रीसहित पोदनापुरके समीप पाया। रात्रिको पोदनापुरके वनमें रहा, ताकी स्त्री सर्प ने डपी तब यह ताहि कांधे पर जहां मय महा मुनि विराजे हुते, वे वज्रके थंभ समान महानिश्चल कायोत्सर्ग धरे अनेक ऋद्धिके थारक तिनको सर्व औषधि ऋद्धि उपजी हुती सो तिनके चरणारविंदके समीप सिंहचंद्रने अपनी राणी डारी सो तिनके ऋद्धिके प्रभाव कर राणी निर्विष भई। स्त्रीसहित मुनिके समीप तिष्ठे था। ता मुनिके दर्शनकू विनयदत्त नामा श्रावक आया ताहि सिंहचन्द्र मिला और अपना सब वृत्तांत कहा तब ताने जाय कर पोदनापुरके राजा श्रीवर्धितको कहा जो तिहारा स्त्रीका भाई सिंहचन्द्र आया है तब वह शत्रु जान युद्ध को उद्यमी भया तब विनयदत्तने यथावत् वृत्तांत कहा जो विहारे शरण आया है, तब ताहि बहुत प्रीति उपजी अर महाविभूतिसे सिंहचन्द्रके सन्मुख आया. दोनों मिले, प्रति हर्ष उपजा । बहुरि श्रीवर्धित मय मुनिको पूछता भया- हे भगवान ! मैं मेरे पर Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४६० पद्म-पुराण अपने स्वजनोंके पूर्व भव सुना चाहूं हूं- - तब मुनि कहते भए - एक शोभपुरनामा नगर वहां मुद्राचार्य दिगंबर ने चौम से में निवास किया सो अमलनामा नगरका राजा निरंतर आचार्यके दर्शनको श्रावै सो एक दिवस एक कोढिनी स्त्री नाकी दुर्गंध आई सो राजा पांवपयादाही भाग अपने घर गया ताकी दुर्गंध सह न सका और वह कोदनीने चैत्यालय दर्शनकर भद्राचार्य के समीप श्रविका व्रत धारे, समाधिमरण कर देवलोक गई वहांते चयकर तेरी स्त्री शीला भई श्रर राजा अमल अपने पुत्र को राज्य भार सोंप आप श्रावकके व्रत धारे, आठ ग्राम पुत्र पै ले संतोष धरा । शरीर तज देवलोक गया वहां चयकर तू श्रीवति भया । अघ तेरी माताके भव सुन - एक विदेशी सुखाकर पीडित ग्राममें श्राय भोजन मांगता भया सो जब भोजन न मिला तब महा कोपकर कहता भया कि मैं तिहारा ग्राम बालूंगा जैसे कडक शब्द कह निकसा । दैवयोग से ग्राम में आग लगी सो ग्रामके लोगनिने जानी ताने लगाई 1 1 कोधायमान होय दौडे अर ताहि न्याय अग्नि में जराया सो महा दुःखकर राजाकी रसोवि ई । मरकर नरक में घोरवेदना पाई। तहांसे निकस तेरी माता मित्रयशा भई अर पोदनापुर में एक गोवणिज गृहस्थ मर कर तेरी स्त्रीका भाई सिंहचन्द भया अर वह भुजपत्रा ताकी स्त्री रतिवर्धना भई । पूर्वभव में पशुमोंपै बोझ लदे थे सो या भवमें भार वहै । ये सर्वके पूर्व जन्म कहकर मय महा मुनि आकाश मार्ग विहार कर गए अर पोदनापुरका राजा श्रीति सिंह चन्द्रसहित नगर में गया । गौतम स्वामी कहे हैं - हे श्रेणिक ! यह संसारकी विचित्र गति हैं, कोईयक तो निर्धन से राजा हो जाय अर काईयक राजासे निर्धन होजाय है । श्रीवर्धित ब्राह्मणका पुत्र सो राजभ्रष्ट होय राजा होय गया अर सिंहचन्द राजाका पुत्र सो राज्यभ्रष्ट होय श्रीधितके समीप आया । एकगुरुके निकट प्राणी धर्मका श्रवण करै तिनमें कोई समाधि मरणकर सुगति पावै कोई कुमरणकर दुर्गति पावै । कोई रत्ननिके भरे जहाज सहित समुद्र उलंघ सुखसे स्थानक पहुंचे, कोऊ समुद्र में डूबे, कोई को चोर लूट लेय जावै, ऐसा जगत्का स्वरूप विचित्रगति जान जे विवेकीं हैं ते 'दया दान विनय वैराग्य जप तप इन्द्रियोंका निरोध शांतता आत्मध्यान तथा शास्त्राध्ययनकर श्रात्मकल्याण करें। ऐसे मय मुनिके वचन सुन राजा श्रीवर्धित अर पोदनापुर के बहुतलोक शांतचित्त होय जिनधर्मका आराधन करते भए । महामुनि मय अवधिज्ञानी महागुणवान शांतचित्त समाधिमरणकर ईशान स्वर्ग उत्कृष्ट देव भए । यह मय मुनिका माहात्म्य जे चित लगाय पढे सुनें तिनको वैरियोंकी पीडा न होय, सिंहव्याघ्रादि न इतें सर्वादि न डसें ॥ हाति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषात्रचनिका विर्षे मयमुनिका माहात्म्य वर्णन करनेवाला अस्सीवां पर्व पूर्ण भया ॥ ८० ॥ अथानन्तर लक्ष्मणके वडे भाई श्रीरामचन्द्र स्वर्गलोक समान लक्ष्मीको मध्यलोक विष योग भए चन्द्र सूर्य समान है कांनि जिनकी पर इनकी माता कौशन्या भर्तार र पुत्रके वियोगरूप अग्निकी ज्वालाकर शोकको प्राप्त भया हैं शरीर जाका महिलके सातवें खप बैठी सथियोंकर मंडित प्रतिउदास सुनिकर पूर्ण है नेत्र जाके, जैसे गायको बच्चेका वियोग दोप Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्यासीवा पर्व अर वह व्याकुल होय ता समान पुत्रके स्नेहविष तत्पर तीव्र शोकके मागरविर्ष मग्न दशों दिशाकी ओर देखै महिलके शिखरमें तिष्ठना जो काग ताहि कहे है-हे वायस ! मेरा पुत्र राम आवे तो तोहि खीर का भोजन दूं ऐसे वचन कहकर विलाप करे अश्रुपातकर किया है चातुर्मास जिसने हाय वत्स तू कहां गया मैं तुझे निरंतर सुखसे लडाया था तेरे विदेश भ्रमणकी प्रीति व हांसे उपजी कहां पल्लव समान तेरे चरण कोमल कठोर पंथविष पीडा न पावें ? महा गइन वनविष कोन वृक्षके तले विश्राम करता होयगा ? मैं मन्दभागिनी अत्यन्त दुःखो मुझे तजकर तू भाई लक्ष्मण सहित किस दिशाको गया ? या भांति माता विलाप करें ता समय नारद ऋषि प्रकाशके मार्गरि आए पृथिवीमें प्रसिद्ध मदा अढाई द्वीपविणे भ्रमते ही रहें मिरपर जटा शुक्ल वस्त्र पहरे उनको समीप पावता जान कौशल्याने उठकर मन्मुख जाय नारदका आदरसहित सिंहांसन बिछाय सनमान किया तब नारद उसे अश्रुगत सहित शोकवन्नी देख पूछते भए हे, कन्याणरूपिणी तुम ऐसी दुःम्वरूप क्यों ? तुमको दुःखका कारण क्या ? सुकौशल महाराजकी पत्री लोकमें प्रसिद्ध राजा दशरथकी राणी प्रशंसा योग्य श्रीरामचन्द्र मनुष्यनिमें रत्न तिनकी माता महासन्दर लक्षण की धरण हारी तुमको कौनने रुसाई जो तिहारी श्राज्ञा न माने सो दुरात्मा है अवार ही ताका राजा दशरथ निग्रह करें तब नारदको माता कहती भई-हे देवर्षे ! तुम हमारे घर का वृतांत नाहीं जानो हो तातें कहो हो पर तिहरा जैसा वात्सल्य या घर था सो तुम विस्मरण किया कठोर चित्त होय गए अब यहां श्रावनों ही तजा अब तुम बात ही न झो। हे भ्रमण प्रिय, बहुत दिनमें आए। तब नारदने कहा-हे माता, धातुकी खंड द्वीप में पूर्व विदेह क्षेत्र वहां सरेंद्ररमण नामा नगर वहां भगान तीर्थकर देवका जन्मकल्याण भया मो इंद्रादिक देव आए, मंगवानको सुमेरुगिरि लेगए अद्भुा विभूविकर जन्माभिषेक किया सो देवादि देव सर्व पापके नाशनहारे तिनका अभिषेक मैं दख्या जाहि देखे धर्मकी बढवारी होय वहां देवनिने आनन्द से नृत्य किया श्रीजिनेंद्र के दर्शनमें अनु गरूप है बुद्धि मेरी सो महामनोहर थातकी खडविर्ष तेईस वर्ष मैंने सबसे व्यतीत किये, तुप प्रेरी मातासमान सो तुमको. चितार या जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें आया अब कोइयक दिन इस मंडलहीमें रहूंगा अब मोहि सब वृत्तांत कहो तिहारे दर्शनको पाया हूं तब कौशल्याने सव धृत्तांत रहा। मामडाका यहां प्रावना अर विद्याथरनिका यहां श्रावना अर भामण्डलको विद्याधरनिका राज्य पर राजा दशरथका अनेक राजानिसहित वैराग्य अर रामचन्द्रका नीता सहित अर लक्ष्मणके लार विदेशको गमन बहुरि सीताका वियोग सुग्रीवादिकका रामसे मिलाप र ण युद्ध लकेराकी शक्तिका लक्ष्मणके लगना बहुरि द्रोणमंघकी कन्याका तहां गान एती खबर हमको है वहरि क्या भया सो खवर हमको नाही ऐसा कहकर मा दुःखित होय अश्रुपात डारती भई घर विलाप करती भई-हाय ! हाय पुत्र तू कहां गया, शीघ्र अब मोपे वचन कह, मैं शोकके सागरमें मग्न ताहि निकास मैं पुण्यहीन तेरे मुख देखे बिना महा दुःवरूप अग्निसे दाहको प्राप्त भई ताहि साता देवो पर सीता बाला पापी रावण तोहि बंदीगृहमें डारी, महा दुखसे Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा पुराण निष्ठनी होयगी । निर्दई रावणने लक्ष्मणके शक्ति लगाई सो न जानिए जीवे है कै नाहीं । हाय दोनों दुर्लभ पुत्र हो, हाय सीता ! तू पतिव्रता काहे दुःखको प्राप्त भई । यह वृत्तांत कौशभ्याके मुख सुन नारद अति खेखिन्न भया बीण धरतीमें डार दई अर अचेत होय गया बहुरि सचेत होय कहता भया-हे माता ! तुम शोक तनो में शीघ्रडी तिहारे पुत्रनिकी वार्ता क्षेम कुशलकी लाऊ हूं मेरे सब बातमें सामर्थ्य है यह प्रतिज्ञाकर नारद बीणको उठाया कांधे धरी आकाश मार्ग गमन किया पवन समान है वेग जाका अनेक देश देखता लंकाकी ओर चला सो लंकाके समीप जाय विचारी-राम लक्ष्मणकी वार्ता कौन भांति जानिव में आवै जो रामलक्ष्मण की वार्ता पूछिए तो रावणके लोकनिसे विरोध होय तातें रावण की वार्ता पूछिए तो योग्य है, रावणकी वार्ता कर उनकी वार्ता जानी जायगी । यह विचार नारद पद्म सरोवर गया तहां अन्तःपुर सहित अंगद क्रीडा करता हुता ताके सेवकनिको रावण की कुशल पूछी । वे किंकर सुनकर क्रोधरूप होय कहते भए यह दुष्टतापस रावना मिन्नापी है याको अंगदके समीप ले गए जो रावणकी कुल पूछ है । नारदने कहा-मेरा रावणसे कछु प्रयोजन नाहीं तब किंकरनिने कही तेरा कछु प्रयोजन नाही तो रावणकी कुल क्यों पूछे था । तब अंगदने हंसकर कहा इस तापसको पद नाभिक निकट ले जावो सो नारद को खींचकर ले चले । नारद विचारै है-न जानिए कौन पद्मनाभी है कौशल्याका पुत्र होय तो मोसे ऐसी क्यों होय, ये मोहि कहां लेजाय हैं, मैं संशयमें पडा हूं. जिन शासनके भक्त देव मेरी सहाय करो, अंगदके किंकर याहि विभीषण के मन्दिर श्रीराम विराजे हुते तहां लेगए श्रीराम दूरसे देख याहि नारद जान सिंहासनसे उठे अति आदर किया किंकरनिसे कहा-इनसे दूर जायो। नारद श्रीराम लक्ष्मणको देख अति हर्षित भया आशीर्वाद देकर इनके पास बैठा तब राम बोले अहो चल्लक ! कहांसे आये बहुत दिनमें आए हो नीक हो तब नारदने कहा-तिहारी मावा कष्टक सागरमें मग्न है सो वार्ता कहिवेभो तिहारे निकट शीघ्र ही पाया हूं, कौशल्या माता महा सती जिनमती निरन्तर अश्रुपात डारे है अर तुम पिना महा दुखी है जैसे सिंही अपने बालक विना व्याकुल होय तैसे अति व्याकुल भई विलाप करै है जाका विलाप सुन पाषाण भी द्रवीभूत होय तुमसे पुत्र माताके आज्ञाकारी अर तुम होते माता ऐसी कष्टरूप रहै यह आश्चर्य की बात, वह महा गुणवती सांझ सकारेमें प्राणरहित होयगी, जो ताहि व देखोगे तो तिहारे वियोग रूप सूर्यकर सूक जायगो तात मोपै कृपा करो उठो ताहि शीघ्र ही देखो या संसारमें माना समान पदार्थ नाही तिहारी दोनों मातानिके दुख करके कैकई सुप्रभा सब ही दुखी हैं। कौशल्या सुमित्रा दोनों मरण तुन्य होय रही हैं आहार नीद सब गई रात दिन मांस डार हैं तिनकी स्थिरता तिहारे दर्शन ही से होय जैसे कुरवि विलाप करे तैसे विलाप करें हैं भर सिर पर उर कूटे हैं दोनों ही माता तिहारे वियोग रूप अग्निकी ज्वाला कर जरे हैं तिहारे दशनरूप अमृतकी धारकर उनका आताप निवारो। ऐसे नारदके वचन सुन दोनों भाई मातानिके दूखकर अति दुःखी भये शस्त्र डार दीये अर रुदन करने लगे तब सकल विद्याधरनिने पीर्य Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्यासीगां पर बंधाया । राम लक्ष्मणसे कहते भए-ग्रहो नारद ! तुमने हमारा बड़ा उपकार किया, हम दराचारी माताको भूल गए सो तुम स्मरण कराया तुम समान इमारे और वल्लभ नाही, वही मनुष्य महा पुण्यवान् हैं जो मातके विनयमें तिष्ठे हैं दाम भए माताकी सेवा करें जे माताका उपकार विस्मरण करें हैं वे महा कृतघ्न हैं या भॉति माताके स्नेह कर व्याकुल भया है चित्त जाका दोनों भाई नारदकी अति प्रशंसा करते भए । अथानन्तर श्रीराम लक्ष्मणने ताही समय अति विभ्रम चित होय विभीगको बलाया अर भामंडन सुग्रीवादि पास बैठे हैं । दोऊ भाई विभीषणसे कहते भये-हे राजन् ! इंद्रके भवन समान तेरा भवन तहां हम दिन जाते न जाने अब हमारे माताके दर्शनकी अति बांछा है हमारे अंग अति तापरूप हैं सो माताके दर्शनरूप अमृत कर शांतताको प्राप्त होवें । अब अयोध्या नगरीके देखवे को हमारा मन प्रवरता है । वह अयोध्या भी हमारी दजी माता है तब विभीषण कहता भया-हे स्वा मन् ! जो प्राज्ञा करोगे मो ही होयगा अवार ही अयोध्याको दन पठायें जो तिहारी शुभवार्ता मातायों को कहें अर तिहारे आगमकी वार्वा कहें जो मातावोंको सुख होय अर तुम कृपाकर पोडश दिन यहां ही विराजो। हे शरणागतप्रतिपालक ! मापै कपा करो ऐसा कह अपना मस्तक रामके चरण तले धरा तव राम लक्ष्मणने प्रमाण करी । अथानन्तर भले भले विद्याधर अयोध्याको पठाये सो दानों माता महल पर चढी दधियदिशाकी ओर देख रहीं हुती सो दूरसे विद्यारों को देख कौशल्या सुमित्रासे कहती भई-हे सुमित्रा, देख दोय यह विद्याधर पवनके प्रेरे मेष तुल्य शीघ्र आवै हैं सो हे श्राविके, अवश्य कन्याकी वार्ता कहेंगे यह दोनों भाईगोंके भेजे प्रावे हैं तव सुमित्राने कही तुम जो कहो हो सो ही होय । वार्ता दाऊ मातानिमें होय है तब ही विद्याधर पुष्पनिकी वर्षा करते आकाशसे उतरे प्रति हर्षके भरे भरतके निकट पाए । राजा भरत अति प्रमोद का भरा इनका बहुत सन्मान करता भया, पर यह प्रणामकर अपने योग्य आसन पर बेठे, अति सुन्दर है चित्त जिनका यथावत् वृत्तांत कहते भये । हे प्रभु, लक्ष्मणने रावणको हता विभीषणको लंकाका राज्य दिया श्रीरामको बलभद्रपद अर लक्ष्मणको नारायणपद प्राप्त भया, चक्ररत्न हाथमें आया तिन दोनों भाई के तीन खंडका परम उत्कृष्ट स्वामित्व भया, रावणका पुत्र इन्द्रजीत मेघनाद भाई कुम्भकर्ण जो बंदीगृह में थे सो श्रीरामने छोडे तिन्होंने जिनदीचा धर निर्वाण पद पाया अर गरुडेन्द्र श्रीराम लक्षमण से देशभूषणकुलभूषण मुनिके उपसर्ग निवास्विकर प्रसन्न भए थे सो जब रावणरौं युद्ध भया उस ही समय सिंहवाण अर गरुडवाण दिये, इस भांति राम लक्ष्मण के प्रतापके समाचार सुन भरत भूप अतिप्रसम भए । ताम्बूल सुगन्धादिक तिनको दिये पर तिनको लेकर दोनों माताओके समीप भरत गया, राम लक्ष्मण की माता पुत्रोंकी विभूतिकी वार्ता विद्याधरोंके मुखसे सन आनन्दको प्राप्त भई उस ही समय आकाशके मार्ग हजारों वाहन विद्यामई स्वर्ण रत्नादिकके भरे आये अर मेवमालाके समान विद्याधरनिके समूह अयोध्या माये जैसे देवनिक समूह आवे ते प्राकाशमें Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुरीण तिष्ठे नगरमें नाना रत्नमई वृष्टि करते भये, रत्न के उद्योत कर दशों दिशा में प्रकाश भया, अयोध्यामें एक एक गृहस्थके घर पर्वत समान सुवर्ण रत्ननिकी राशि करी । अयोध्याके निवासी समस्त लोक ऐसे अति लक्ष्मीवान किये मानों स्वर्गके देव ही हैं अर नगरमें यह घोषणा फेरी कि जाके जिस वस्तुकी इच्छा होय सो लेबो तब सब लोक आय कर कहते भये-हमारे घरमें अटूट भंडार भरे हैं किसी वस्तु की बांछा नाहीं। अयोध्यामें दरिद्रताका नाश भया, राम लक्ष्मणके प्रताप रूप सूर्य कर फूल गए हैं मुख कमल जिनके ऐसे अयोध्याके नरनारी प्रशंसा करते भये अर अनेक मिलावट विद्याधर महा चतुर आय कर रत्न स्वर्णमई मंदिर बनावते भये पर भगवान्के चैत्यालय महा मनोग्य अनेक बनाये मानों विंध्याचल के शिखर ही है हजारनि स्तम्भनिकर मंडित नाना प्रकार के मंडप रचे अर रत्ननि कर जडित तिनके द्वार पर तिन मंदिरनिपर ध्वजानिकी पंक्ति फरहरे हैं तोरणनिक समू गिनकर शोभायमान जिनमंदिर रचे गिरिनिके शिखर समान ऊचे तिनमें महाउत्सव होते भये अनेक प्राश्चयकर भरी लंकाकी शोभाको जीतनहारी संगीतकी ध्वनिकर दसों दिशा शब्दायमान भई, कारी घटा समान वन उपवन सोहते भये तिनमें नानाप्रकारके फल फूल तिनपर भ्रमर गुंजार करें हैं समस्त दिशा नमें वन उपवन ऐसे सोहते भये मानों नंदनवन ही है अयोध्या नगरी बारह यो न लम्बी नव योजन चौडी अति शोभायमान मा. सती भई सोलह दिनमें विद्याधर शिल पटनिन ऐली बनाई जाका सौष तक वर्णन किया न जाय तहां वापिनिक रत्न स्वर्ण के सिवान अर सरोवरनिके रत्नके तट तिनमें कमल फूल रहे हैं ग्रीष्ममें सदा भरपूर ही रहें तिनके तट भगवानके मंदिर अर वृक्षनिकी पंक्ति अति शोभाको धरै म्वर्गपुरी समान नगरी निःमापी सो बलभद्र नारायण लंकासे अयोध्याकी ओर गमनको उद्यमी भए । गोतमस्थामी कहै हैं हे श्रेणि क जिस दिनसे नारदके मुखसे राम लक्ष्मणने मातानिकी वार्ता सुनी ताही दिनसे सब बात भूल गए। दोनों मातानि हीका ध्यान करते भये। पूर्व जन्मके पुण्य कर ऐसे पुत्र पाइये पुण्यके प्रभाव कर सर्व वस्तुकी सिद्धि होवै है पुण्य कर क्या न होय १ इलिये हे. प्राणी हो पुण्यमें तत्पर होवो ज कर शोकरूप सूर्यका आताप न होय ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाविर्षे अयोध्या नगरीका वर्णन करनेवाला इक्यासीवां पर्व पूर्ण भय। ।। ८१॥ . अथानन्तर सूर्यके उदय होतेही बलभद्र नारायण पुष्पक नामा विमान में चढकर अयोध्याको गमन करते भर नानाप्रकारके बाहनदिपर आरूढ विद्याधरनिके अधिपति राम लक्ष्मण की सेवामें तत्पर पवारसहित संग चाले, छत्र अर ध्वाजानि कर रोकी है सूर्य की प्रभा जिन्होंने आकाशमें गमन करते दूरसे पृथिवीको देखते जाय हैं । पृथिवी गिरि नगर वन उपवनादिक कर शोभित लवण समुद्र को उलंघकर विद्याधर हर्ष के भरे लीलासहित गमन करते आगे आए । कैसा है लवण समुद्र ? नानाप्रकार के जलचरजीवनिके समूटकर भरा है। रामके समीप सीता सती अनेक गुणनिकर पूर्ण मानों साचात् लक्ष्मीही है सो सुमेरु पर्वतको देखकर रामको पूछती भई-हे नाथ ! यह जंबुद्धीपके मध्य अत्यन्त मनोग्य स्वां कमल समानः कहा Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vindranamanna विधासीवां पर्ण दीखे है ? तब राम कहते भए. हे देवी! यह सुमेरु पर्वत है । जहां देवाधिदेव श्रीमुनिसुव्रतनाथका जन्माभिषेक इंद्रादिक देवनिने किया। कैसे हैं देव ? भगवान के पांचों कल्यानको जिनके अति हर्ष है । यह सुमेरु रत्नमई ऊचे शिखरनिकर शोभित जगतमें प्रसिद्ध है अर बहुरि आगे आयकर कहते भए-यह दंडक वन है जहां लंकापतिने तुमको हरा अर अपना अकाज किया। या वनमें चारण मुनिको हमने पारणा कराया था याके मध्य यह सुन्दर नदी है अर हे सुलोचने ! यह वंशस्थल पर्वत जहां देशभूषण कुलभूपणका दर्शन किया ताही समय मुनिनिको केवल उपजा अर हे सौभाग्यवती कल्याणरूपिणी! यह ब लखिल्यका नगर जहां लक्ष्मणने कल्याणमाला पाई पर यह दशांग नगर जहां रूपवतीका पिता वज्र ो परम श्रावक राज्य कर बहुरि जानकी पृथिवीपतिको पूछती भई-हे कान्त ! यह नगरी कौन जहां विमान समान घर इंद्रपुरीसे अधिक शोभै हैं। अबतक यह पुरी मैंन कबहुं न देखी ऐसे जानकीके वचन सुन जानकीनाथ अवलोकन कर कहते थए-हे प्रिये ! यह अयोध्यापुरी, विद्याधर सिलान्टोंने बनाई है, लंका पुरीको ज्योतिकी जीतनहारी। बहुरि आगे आए तब रामका विमान सूर्यके विमान समान देख भरत.महा हस्ती पर चढ अति प्रानन्दके भरे इन्द्र समान परम विभूतिकर युक्त सन्मुख आए सवदिशा विमाननिकर आच्छादित देखीं भरतको आवता देखा राम लक्ष्मणने पुष्पक विमान भूमिमें उतारा भरत गजसे उतर निकट आया, स्नेह का भरा दोऊ भाइनिको प्रणामकर बर्षाद्य करता भया अर ये दोनों भाई विमानसे उतर भरलसे मिले उरसे लग य लीया परस्पर कुशल वार्ता पूछी बहुरि भरतको पुष्पक विमानमें चढाय लीया । अर अयोध्या में प्रवेश किया। अयोध्या रामके आगमनकर अति सिंगारी है अर नाना प्रकारकी ध्वजा फरहरे हैं नाना प्रकारके विमान अर नाना प्रकारके रथ अनेक हाथी अनेक घोडे तिनकर मार्गमें अवकाश नाही, अनेक प्रकार वादित्रनिके समूह वाजते भए, शंख भांज भेरी ढोल धूकल इत्यादि वादित्रोंका कहां लग वर्णन करिये महा मधुर शब्द होते भए, ऐसे ही वादित्रोंके शब्द ऐकी ही तुरंगोंकी हींस ऐपी ही गजों की गर्जना सामन्तोंके अट्टहास मायामई मिह व्याघ्रादिकके शब्द ऐसे ही वीणा वांसुरीनिके शब्द तिनकर दशों दिशा व्यास भई, बन्दीजन विरद बखाने हैं, नृ यकरिणी नृत्य करें हैं भांड नकल कर हैं नट कला करें है, सूर्यके रथ समान रथ तिनके चित्राकार विद्याधर मनुष्य पशुनिके नाना शब्द सो कहां लग वर्णन करिए ? विद्याधरनिके अधिपति नेने परमशोभा करी दोनों भाई महा मनोहर अयोध्यामें प्रवेश करते भए । अयोध्यानगी स्वर्गपुरी समान राम लक्ष्मण इन्द्र प्रतीन्द्रसमान समस्त विद्याथर देव समान तिनका कहां लग वर्णन करिए। श्रीरामचन्द्रको देख प्रजारूप समुद्र में आनन्दकी धनि बढती भई भले २ पुरुष अर्घ्यपाद्य करते भए सोई तरग भई पैंड पैंडमें जगतकर पूज्यमान दोनों वीर महाधीर तिनको समस्त जन आशीर्वाद देते भए-हे देव ! जयवन्त होवो वृद्धिको प्राप्त होवो चिरंजीव होवो नादो विरदी । या भांति असीन देते भए अर अति ऊचे विमान समान मंदिर तिनके शिख में तिष्ठती सुन्दरी फूल गए हैं नेत्र कमल जिनके वे मोति. Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण निकं अक्षत डारती भई, सम्पूर्ण पूर्णमापीके चन्द्रमा समान राम कमलनत्र अर वर्षाती घटा समान लक्ष्मण शुभ लक्षण तिनके देखवेको नर नारी पावते भए अर समस्त कार्य तज झरोखोंमें बैठी नारी जन निरखे हैं सो मानों कमलोंके वन फूल रहे हैं पर स्त्रीनिके परस्पर संघट्टर मोंतिनिके हार टूटे सो मानो मोतितिकी वर्षा होय है स्त्रीनिके मुखसे ऐपी पनि निकसे-ये श्रीराम जाके समीप राजा जनककी पुत्री सीता बंठी जाकी माता राणी विदेहा है अर श्रीरामने साहसगति विद्याधर मारा वह सुग्रीवका अकार पर पाया हुता विद्याधरनिमें दैत्य कहावे अर यह लक्षमण रामका लघु र इन्द्र तुल्य पर क्रम जाने लंकेश्वरको चक्रकर हता, अर यह सुग्रीव जाने रामसे मित्रता करी अर भामण्डल सीता का भाई जिसको जन्मसे ही देव हर लेगम बहुरि दयाकर छोडा सो राजा चंद्रगनिके पला आकाशसे वनमें गिरा राज ने लेकर राणी पुपावतीको सौंपा देवोंने काननमें कुंडल पहराकर आकाशसे डाला मो कुंडलकी ज्योतिकर चंद्रसमान मसा तातै भामण्डल नाम धरा अर यह राजा चन्द्रोदयका पुत्र विराधित पर यह पवनका पुत्र नान कपिध्वज या भांति आश्चर्यकर युक्त नगरकी नारी बातों क ती भो ॥ अथानन्तर राम लक्ष्मण राजमहिल में पधारे सो मंदिर शिखर तिष्ठनी दोनो माता पुत्रनिके स्नेहमें तहर जिनके स्तनसे दुग्ध झरे महा गुणनिकी घर गहरी कौशिल्या सुमित्रा अर के कई सुप्रभा चारों माता मंगलमें उद्यमी पुत्रोंके समीप आई र म लक्ष्मण पुष्पक विमानसे उतर मातावोंसे मिले मातानोंको देख हर्षको प्राप्त भए कमल समान नेत्र दोनों भाई लोकपालसमान हाथ जोड नम्रीभूत होय अपनी स्त्रीयों सहित माताको प्रणाम करते भए वे चारों ही माता अनेक प्रकार असीस देती भई तिनकी असीस कल्याण की बरणहारी है अर चारों ही माता राम लक्ष्मणको उरसे लगाय परम सुखको प्रप्त भई उनका सुख वे ही जाने कहिवेमें न आवे बारम्बार उरसे लगाय सिर पर हाथ धरनी भई, अानन्द के अश्रुगात कर पूर्ण हैं नत्र जिनके, परस्पर माता पुत्र कुशल क्षेम सुख दुखकी वार्ता पूछ परम संतोषको प्राप्त भए , माता मनोरथ करती थीं सो हे श्रेणिक ! बांछासे अधिक मनोरथ पूण भए वे माता योधावोंकी जननहारी साधुवोंकी भक्त जिन धर्ममें अनुक्त सुन्दरचित्त बेटावोंकी बहू सैकडों तिन को देख चारों ही अति हर्षित भई अपने योधा पुत्र तिनके प्रभाव कर पूर्व पु के उदय कर अति महिमा संयुक्त जगतमैं पूज्य भई राम लक्ष्मणका सागरां पर्यंत कंटकरहित पृथिवीमें एक छत्र राज्य भया सबपर यथेष्ट आज्ञा करते भए, राम लक्ष्मणका अयोध्यामें आगमन अर मातावोंसे तथा भाईयों से मिलाप । यह अध्याय जो पढ़े सुने शुद्ध हैं बुद्धि जाकी सो पुरुष मनवांछित मंपदाको पावै, पूर्ण पुण्य उपार्जे शुभमति एक ही नियम दृढ होय भावनकी शुद्धतासे करे तो अतिप्रतापको प्राप्त होय, पृथिवी में सूर्य समान प्रकाशको करे ताः अबत तज नियमादिक धारण करो। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वनिकाविषै अयोध्यामें राम लक्ष्मणका आगमन वर्णन करनेवाला वयासीवां पर्व पूर्ण भया ।। ८२॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरासीवां प O अथानन्तर राजा श्रेणिक नमस्कार कर गौतम गणधरको पूछता भया, हे देव श्रीराम लक्ष्मण की लक्ष्मीका विस्तार सुनने की मेरे अभिलाषा है तब गौतमस्वामी कहते भए - हे श्रेणिक राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न इनका वर्णन कौन कर सके तथापि संक्षेपसे कहे हैं—राम लक्ष्मण के विभवका वर्णन - हाथी घरके वियालीस लाख र रथ एते ही घोडे नौ कोटि, पयादे व्यालीस कोटि र तीन खंडके देव विद्यघर सेवक रामकेरल चार हल मूगल रत्नमाला गदा श्रर लक्षमणके साथ संख चक्र गदा खड्ग दंड न गशय्या कौस्तुभमणि राम लक्ष्मण दोनों ही वीर महाधीर धनुषधारी र तिनका घर लक्ष्मीका निवास इंद्रके भवन तुल्य ऊंचे दरवाजे श्रर चतुश्शाल नामा कोट महा पर्वत के शिखर समान ऊंचा और वैजयन्ती नामा सभा महामनोज्ञ श्रर प्रासादकुदुम्बनामा अत्यन्त उसग दशदिशा के अवलोकनका गृह अरविंध्याचल पर्वत सारिखा वर्धमानक नामा नृत्य देखवेका गृह अर अनेक सामग्री सहित कार्य करनेका गृह अर कूकडेके अंडे समान महाअद्भुत शीतकाल में सोवनेका गर्भगृह अर ग्रीष्ममें दुपहरीके विराजवेका धारा मंडपगृह इकथंभा महामनोहर, घर राणीयोंके घर रत्नमई महासुन्दर, दोनों भाईयों की सोयवेकी शय्या जिनके सिंहों के आकार पाए, पद्मराग मणिके यति सुन्दर अम्भ दवाएड नामा विजुरीकासा चमत्कार थरे वर्षा ॠतुमें पौढवेका महिल र महाश्रेष्ठ उगते सूर्य समान सिंहासन र चन्द्रा तुल्य उज्ज्वल चमर पर निशाकर समान उज्ज्वल छत्र अर महा सुन्दर विषमोचक नाम पावडी तिनके प्रभाव से सुखसे आकाशमें गमन करें और अमोलिक वस्त्र पर महा दिव्य श्राभरण अभेद्य वर महा मनोहर मणियोंके कुण्डल र अमोघगदा खड्ग कनक बाण अनेक शस्त्र महा सुन्दर महारण के जीतनहारे अर पचास लाख हल कोटिसे अधिक गाय अक्षय भण्डार घर अयोध्या आदि अनेक नगर जिनमें न्यायको प्रवृत्ति, प्रजा सब सुखी संपदाकर पूर्ण र महा मनोहर वन उपवन नानाप्रकार फन पुष्पों शोभित अर महा सुन्दर स्वर्ण रत्नमई सिवाखोंकर शोभित क्रीडा करवे योग्य वाषिका अर पुर तथा ग्रामों में लोक अति सुखी जहां महिल नाहीं जिनके गाय अति सुन्दर अर किसाणोंको किसी भांतिका दुख के मूत्र सर्व भांतिके सुख र लोकपालों जैसे सामंत और इन्द्र तुल्य विभवके धरण हारे महा संजवन्त अनेक राजा सेवक र रामके स्त्री आठ हजार र लक्ष्मण के स्त्री देवांगना समान सोलह हजार जिनके समस्त सामग्री समस्त उपकरण मनवांछि सुख के देनहारे । श्रीरामने भगवान के हजारों चैत्यालय कराये जैसे हरिषेण चक्रवर्तीने कराए थे वे भव्यजीव सदा पूजित महा ऋद्धिके निवास देशग्राम नगर वन गृह गली सर्व ठौर २ जिनमंदिर करावते मयं सदा सर्वत्र धर्मकी कथा लोक श्रतिसुखी सुकौशल देशके मध्य इन्द्रपुरी तुल्य अयोध्या जहां अति उतंग जिनमंदिर जिनका वर्णन किया न जाय पर कडा करवेक पर्वत मानों देवोंक क्र डा करवेकं पर्वत हैं प्रकाशकर मंडित मानों शरद के बादर ही हैं श्रयं ध्याका कोट श्रति उतंग समुद्रकी वेदिका तुल्य महाशिस्वर कर शोभित स्वर्ण लोंका समूह अपनी किरणां कर प्रकाश किया है आकाशमें जिसने जिसकी शोभा मनसे भी अगोचर, निश्चयसेती यह अयोध्या नगरी पवित्र मनुष्योंकर भरी सदा Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ पद्म-पुराण ही मनोग्य हुती श्रीरामचन्द्र अति शोभित करी जैसे कोई स्वर्ग सुनिये है जहां महा संपदा है मानों रामलक्ष्मण स्वर्गसे आए सो मानों सर्व संपदा ले आए। श्रागे अयोध्या हुती तातें राम के पधारें अति शोभायमान भई । पुण्यहीन जीवोंको जहांका निवास दुर्लभ अपने शरीरकर तथा शुभ लोकोंकर तथा स्त्री धनादि कर रामचन्द्रने स्वर्ग तुल्य करी, सर्व ठौर रामका यश परन्तु सीता के पूर्व कर्मके दोषकर मूढ लोग यह अपवाद करें- देखो विद्याधरोंका नाथ रावण उसने सीता हरी को राम बहुरि न्याये घर गृहमें राखी यह कहा योग्य ? राम महा ज्ञानी बड़े कुलीन चक्री महा शूरवीर तिनके घर में जो यह रीति तो और लोकोंकी क्या बात ? इस भांति शठ जन वार्ता करें ॥ अथानन्तरस्वर्ग लोकको लज्जा उपजावे भी अयोध्यापुरी तहाँ भरत इंद्रसमान भोगनिकर भी रति न मानते भए, अनेक स्त्रीनिके प्राणवल्लभ सो निरंतर राज्य लक्ष्मीसे उदास, सदा भोगोकी निंदा ही करें । भरतका मंदिर अनेक मन्दिरनिकर मण्डित नानाप्रकारके रत्ननिकर निर्मात मोतिनिकी मालावर शोभित फूल रहे हैं वृक्ष जहां अनेक आश्चर्यका भरा सब ऋतुके विलासवर युक्त जहां बीण मृदंगादिक अनेक वादित्र वाजैं देवांगना समान अतिसुन्दर स्त्रीजनोकर पूर्ण जाके चौगिरद मदोन्मत्त हाथी गाजें, श्रेष्ठ तुरंग हींस, गीत नृत्य वादित्रनिकर महा मनोहर रत्नों के उद्योतकर प्रकाशरूप महारमणीक क्रीडाका स्थानक जहां देवोंको रुचि उपजै परंतु भरत संसारसे भयभीत अति उदास उसे तहां रुचि नाहीं, जैसे पारधीकर भय भीत जो मृग सो किसी ठौर विश्राम न लहै भरत ऐसा विचार करें कि मैं यह मनुष्य देह महाकष्टसे पाई सो पानीके बुदबुदावत् क्षण भंगुर अर यह यौवन झागोंके पुत्र समान अति असार दोषोंका भरा अर ये भोग अति विरस इनमें सुख नाहीं । यह जीतव्य स्वप्न समान अर कुटुम्बका सम्बन्ध जैसे वृक्षनिपर पक्षियोंका मिलाप रात्रिहो होय प्रभात ही दशों दिशाको उड जावें ऐसा जान जो मोका कारण धर्म न करें सो जराकर जर्जरा होय शोकरूप अग्निकर जरै । यह नव यौवन मूढ़ों को वल्लभ, यामें कौन विवेकी राग करे कदाचित् न करै । यह अपवादके समूहका निवास संध्या के उद्योत समान विनश्वर श्रर यह शरीररूपी यन्त्र नाना व्याधिके समूहका घर पिता के वीर्य माता के रुथिरसे उपजा यामें कहा रति, जैसे इन्धनकर अग्नि तृप्त न होय र समुद्र जलसे तृप्त न होय तैसे इन्द्रियनिक विषयनिकर तृप्ति न होय । यह विषय अनादिसे अनंतकाल सेए परंतु तृप्तिकारी नाहीं यह मूढ जीव काममें आसक्त अपना भला बुरा न जाने पतंग समान विषयरूप अग्निमें पड पापी महा भयंकर दुःखको प्राप्त होय । यह स्त्रीनिके कुच मांसके पिण्ड महावीभत्स गलगंड समान तिन में कहा रति, अर स्त्रीनिका मुखरूप विल दतरूप कीडोंकर भरा तांबूल के रसकर लाल छुरीके घाव समान तामें कहा शोभा पर स्त्रीकी चेष्टा वायुविकार समान विरूप उन्मादकर उपजी उसमें कहा प्रीति अर भोग रोग समान हैं महा खेदरूप दुखके निवास इनमें कहा विलास अर यह गीत वादित्र नाद रुदन समान तिनमें कहा प्रीति, रुदनकर भी महल के गुम्मट गाजे यर गानकर भी गाजे । नारियोंका शरीर मलमूत्रादिकर पूर्ण चर्मकर वेष्टित याके Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरासीव! पर्ण ४६६ सेवनमें कहा सुख होय। विष्टाके कुम्भ तिनका संयोग अतिबीभत्स अति लज्जकरी महादुःखरूप नारियोंके भोग उनमें मूढ सुख माने देवनिके भोग इच्छा उत्पन्न होते ही पूर्ण होंय तिनकर भी जीव तृप्त न भया तो मनुष्योंके भोगकर कैम तृप्त होय जैसे डाभकी अणीपर जो ओस की बूंद ताकर कहा तृषः बुझे अर जैसे इन्धनका वेचनहारा मिरपर भार लाय दुखी होय तैसे राज्यके भारका धरणहारा दुखी होय हमारे बडोंविष एक राजा सोदास उत्तम भोजनकर तृा न भया अर पापी अभक्ष्यका आहारकर राज्यभ्रट भया जैसे गंगाके प्रवाहमें मांगका लोभी काग मृतक हाथीके शरीरको चूथता तृप्त न मया समुद्रमें डूब मुवा तैय यह विषयाभिलापी भवसमुद्र में डूबेहै यह लोक मींडकसमान मोहरूप कीचविषमग्न लोभरूप पर असे नरक में पडे हैंऐसे चिन्तवन करते शांतचित्त भरत को कैयक दिवस अति विरससे वीते जैसे सिंह महा समर्थ पींजरे में पडः खेदखिन्न रहे, ताके वनमें जायवेकी इच्छा तैसे भरत महाराजके महाव्रत धारिवेकी इच्छा, सो घरमें सदा उदास ही रहे, महाव्रत सर्व दुःखका नाशक, एक दिवस वह शांतचित्त घर तजिवेको उद्यमी भया तब केकईके कहसे राम लक्ष्मणने थांभा, पर महा स्नेहकर कहते भए-हे भाई ! पिना वैराग्यको प्राप्त भए तब तोहि पृथिवीका राज्य दिया सिंहासन पर बैठाया सो तू हमारा सर्व घुवंशियोंका स्वामी है लोकका पालन कर, यह सुदर्शनचक्र यह देव अर विद्याधर तेरी पानाम हैं या धराको नारी समान भोग, मैं तेरे सिर पर चन्द्रमा समान उज्ज्वल छत्र लिए खडा रहूं अर भाई शत्रुघ्न चमर ढारे अर लक्ष्मण सा सुन्दर तेरे मंत्री अर तू हमारा वचन न मानेगा तो मैं बहुरि विदेश उठ जाऊंगा मृगोंकी न्याई वन उपवनमें रहूँगा, मैं तो राक्षसोंका तिलक जो रावण ताहि जीत तेरे दर्शनके अर्थ आया अब तू निःकंटक राज्य कर, पीछे नेरे साथ मैं भी मुनिव्रत श्रादरूगा । इस भांति महा शुभचित्त श्रीराम भाई भरतसे कहते भए। - तब भरत महानि पह विषयरूप विषसे अति विरक्त कहता भया–हे देव ! मैं राज्य संपदा तुरंत ही तजा चाहूं हूं जिसको तजकर शगीर पुरुष मोक्ष प्राप्त भए । हे नरेन्द्र, अर्थ काम महा चंचल भहादुखके कारण जीवोंके शत्रु महापुरुषोकर न्यि हैं तिनको मूढ जन सेवें हैं, हे हलायुध यह क्षणभंगुर भोग तिनमें मेरी तृष्णा नाहीं यद्यपि स्वर्गलोक समान भोग तुम्हारे प्रसादकर अपने घरमें हैं तथापि मुझे रुचि नाहीं । यह संसार सागर महा भयानक है जहां मृन्युरूप पातालकुण्ड महाविषम है अर जन्म रूप कल्लोल उठे हैं अर राग द्वेष रूप नाना प्रकारके भयंकर जलचर हैं अर रति अरति क्षार जल कर पूर्ण है जहां शुभ अशुभकप चोर विचरे हैं सो मैं मुनिव्रत रूप जहाजमें बैठकर संसारसमुद्रको तिरा चाहूं हूं । हे राजेंद्र ! मै नाना प्रकार योनिमें अनन्त काल जन्म मरण किए, नरक निगोदमें अनन्त कष्ट सहे गर्भवासादिमें खेदखिन्न भया । यह वचन भरतके सुन बडे बडे राजा आंखोंसू आंसू डारते भए महा आश्चर्यको प्राप्त होय गदगद वाणीसे कहते भए-हे महाराज ! पिताका वचन पालो कैयक दिन राज्य करो अर तम इस राजलक्ष्मीको चंचल जान उदास भए हो तो कैयक दिन पीछे मुनि हजियो अवार तो तुम्हारे बडे भाई आए हैं तिनको साता देखो तब भरतने कही--मैं तो पिताके वचन प्रमाण बहुत Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण दिन राजसंपदा भोगी प्रजाके दुःख हरे पुत्रकी न्याई प्रजाका पालन किया दान पूजा आदि गृहस्थके धर्म आदरे माधुवों की सेवा करी अब जो पिताने किया सो मैं किया चाहूं हूं अब तुम इस वस्तुकी अनुमोदना को न करो, प्रशंसा योग्य वस्तु में कहा विवाद ? हे श्रीराम, हे लक्ष्मण, तमने महाभयंकर युद्ध में शत्रुषोंको जीत अगले बलभद्र वासुदेवकी न्याई लक्ष्मी उपार्जी सो तम्हारे लक्ष्मी और मनुः सकैती नाहीं तथापि राजलक्ष्मी मुझे न रुचे तृप्ति न करे जैसे गंगादि नदियां समुद्रको तन न करें इसलिए मैं नत्वज्ञानके मार्ग प्रवरतूंगा ऐसा कहकर अत्यंत विरक्त होय राम लक्ष्मणको विना पूछे ही वैराग्यको उठा जैसे आगे भरत चक्रवर्ती उठे। यह मनोहर चाल का चलनहारा मुनिराजके निकट जायोको उद्यमी भया तब अति स्नेह कर लक्ष्मणने थांभा भरतके करपल्लव ग्रहे लक्ष्मण खडा ताही समय माता केकई आँसू डारती आई अर रामकी आज्ञासे दोऊ भ ईनिकी राणी सवहो पाई लक्ष्मी समान है रूप जिनके घर पवन कर चंचल जो कमल ता समान हैं नेत्र जिनके, आय भरतको थामती भई तिनके नाम ___ सीता, उर्वशी, भानुमती, विशल्यासुन्दरी, ऐंद्री, रत्नवती, लक्ष्मी, गुणमती, बंधुमती, सुभद्रा, कुवेरा, नलकूधरा, कल्याणमाला, मदनोत्सवा, मनोरमा, प्रियनंदा, चन्द्रकांता, कलावती. रत्नस्थली, सरस्वती, श्रीकान्ता, गुणसागरी, पद्मावती, इत्यादि सब आई जिनके रूपगुण कार किया न जाय मनको हरं अाकार जिनके दिव्य वस्त्र अर आभूषण पहिरे बडे कुलविणे उपजी सत्यवादिनी शीलवंती पुण्यकी भूमिका समस्त कलामें निपुण सो भरतके चौगिर्द खडी मानों चारों ओर कमलोंका वन ही फूल रहा है भरतका चित्त राजसंपदामें लगायवेको उद्यमी अति आदर कर भरतको मनोहर वचन कहती भई कि-हे देवर हमारा कहा मानों कृपा करो आवो अाज सरोवरों में जलक्रीडा करो पर चिंता तजो जा बातकर तिहारे बड़े भाईयोंको खेद न होय तो करो और तिहारी माताके खेद न होय सो करों पर हम तिहारी भावज हैं सो हमारी विनती अवश्य मानिए तम विवेकी विनयवान हो ऐमा कहकर भरतको सरोवर पर ले गई भरतका चित्त जल क्रीडासे विरक्त यह सत्र सरोवर में पैंठी वह विनय कर संयुक्त सरोवरके तीर ऊभा ऐमा सोहै मानों गिरिराज ही है और वे स्निग्ध सुगन्ध सुन्दर वस्तुनि कर याके शरीरका विलेपन करती भई अर नाना प्रकार जलकेलि करती भई यह उत्तम चेष्टाके धारक काह पर जल न डारतः भेग बहुरे निर्मल जलसे स्नान कर सरोदरके तीर जे जिनमंदिर वहां भगवानकी पूजा करता भया, उसी समय त्रैलोक्यमडा हाथी कारी घटा समान आकार जाका सो गजबंधन तडाय भयंकर शब्द करता निज आवासथकी निकसा, अपने मद झरवे कर चौमासेकैसा दिन करता सता मेघ गर्जना समान ताका गाज सुनकर अयोध्यापुरीके लोग भयकर कम्पायमान भए अर अन्य हाथियों के महावत अपने अपने हाथी को ले दूर भागे अर त्रैलोक्यमंडन गिरि समान नगरका दरबाजा भंग कर जहां भरत पूजा करते थे वहां आया तब राम लक्ष्मणकी समस्त राणी भयकर कम्पायमान होय भरतके शरण श्राई, श्रर हाथी भरतके नजीक पाया तब समस्त लोक हाहाकार करते भए अरं इनकी माता अति विह्वल भई विलाप करती भई पत्रके Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौरासीवां पर्ण ४७१ स्नेहमें तत्पर महा शंकामान भई अर राम लक्ष्मण गाबंधनमें प्रवीण गजके पडनेको उद्यमी भये । गजराज महा प्रवल सामान्य जनोंसे देखा न जाय महाभयंकर शब्द करता अतितेजवान नाग फांसि कर भी न रोका जाय अर महा शोभायमान कमल नयन भरत निर्भय स्त्रियोंके आगे तिनके बचायबेको खडे मो हाथी भरतको देखकर पूर्व भव चितार शांतचित्त भया अपनी मूण्ड शिथिल कर महा विनयवान भया भरतके आगे ऊभा भरत याको मधुर वाणी कर कहते भए अहो गज, तू कौन कारण कर क्रोधको प्राप्त भया ऐसे भरतके वचन सुः अत्यंत शांतचित्त निश्चल भया सौम्य है मुख जाका ऊभा भरतकी ओर देखे है भरत महा शबीर शरणागत प्रतिपालक ऐसे सो हैं जैसे स्वर्ग में देव सोहैं हाथीको जन्मान्तर का ज्ञान भगा सो समस्त विकारसे रहित होय गया दीर्घ निश्वास डारे हाथी मनमें विचार है यह भरत मेरः परममित्र है छठे स्वर्गमें हम दोनों एकत्र थे यह तो पुण्पके प्रभाव कर वहांसे चयकर उत्तः पुरुष भया भर मैंने कर्मके योगस तिपंचकी योग पाई कार्य अकायकं विवेकसे रहित महानिंद्य पशुका जन्म है मैं कौन योगसे हाथी भया धिक्कार इस जन्मको अब वृथा क्या शोच ऐसा उपाय करू जिससे आत्मकल्याण होय अर वहुरि संसार भ्रमण न कर। शोच किये कहा ? अव सर्व प्रकार उद्यमी होय भव दुखसे छूटिवेका उपाय करू चितारे हैं पूर्व भर जाने गजेंद्र अत्यत विरक्त पाप चष्टासे पराङ मुख होय पुण्यके उपार्जनमें एकाग्रचित्त भया । यह कथा गोतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे है-हे राजन्, पूर्वे जीवने अशुभ कर्म किये वे संतापको उपजावें तात हे प्राणी हो अशा कर्मको तज दुर्गतिके गमनसे छूटा जैसे सूर्य होते नेत्रवान मार्गमें न अटके तैसे जिनधर्मके होते विवेकी कुमार्गमें न पडे प्रश्रम अधर्म को तज धर्मको आदरें बहुरि शुभ अशुभसे निवृत होय आत्मधर्मसे निर्वाण को प्राप्त होवें॥ इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै त्रैलोक्यमंडन हाथाको जांतिस्मरण उपशांत हानेका वर्णन करनेवता तिराप्तीवां पर्ण पण भया ॥३॥ अथानन्तर वह गजराज महा विनयवान धर्मध्यानका चितवन करता राम लक्ष्मण ने देखा और धीरे २ इसके समीप आए कारी घटा समान है आकार जाका सो मिष्ट वचन बोल पकडा अर निकटवती लोकोंको आज्ञा कर गज को सवे आभूषण पहिराये। हाथी शान्तचित्त भया तब नगरके लोकोंकी आकुलता मिटी हार्थी ऐसा प्रबल जाको प्रचण्ड गति विद्याधरों के अधिपति सेन रुके. समस्त नगरमें लोक हाथीकी वातों करें -यह त्रैलोक्यमंडन रावरमका पाट हस्ती है याके बल समान और नाहीं । राम लक्ष्मणने पकडा विकार चेष्टाको प्राप्त भया था अब शांतचित्त भया सो लोकोंके महा पुण्यका उदय है अर घने जीशंकी दीघ आयु । भरत अर सीता विशल्या हाथी पर चढे बडी विभूतिसे नगर में आये अर अद्भुत वस्त्राभरणसे शोभित समस्त राणी नाना प्रकारके बाहनों पर चढी भरतको ले नगर में आई, और शत्रुध्न भाई अशा पर आरूढ महा विभूति सहित महा तेजस्वी, भरतके हाथी आगे नानाप्रकारके वा दत्रांके शब्द हाते नंदन वन समान मनसे नगरमें आए, जैसे देव सुरपुरमें आवें, भरत हाथीसे उतर भोजनशालामें गए, साधवोंको Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंपरीण भोजन देय मित्र बांधवादि सहित भोजन किया, अर भावजों को भोजन कराया फिर लोक अपने अपने स्थानको गए। समस्त लोक आश्चर्यको प्राप्त भए, हाथी रूठा फिर भरतके समीप खडा रहा सो सबों को आश्चर्य उपजा, गौतममणवर राजा श्रेणिकसे कहे हैं कि-हे राजन् ! हाथीके समस्त महावत राम लक्ष्मणपै माय प्रणामकर कहते भए कि हे देव ! आज गजराजको चौथा दिन है कळू खाय न पीये न निद्रा करै सर्व चेटा तन निश्चल ऊभा है जिस दिन क्रोध किया था पर शांत भया उसही दिनसे ध्यानारूढ निश्चल करते है। हम नानाप्रकार के स्तोत्रों कर स्तुति करें हैं अनेक त्रिय वचन कहे हैं तथापि आहार पानी न लेय है, हमारे वचन कान न धरे, अपनी सूण्ड को दांतों में लिये मुद्रित लोवन ऊभा है मानों चित्रामका गज है जिसे देखे लोकोंको ऐसा भ्रम होय है कि यह कृत्रिम गज है अथवा सांचा गज है । हम प्रिय वचन कह आहार दीया च हे हैं सो न लेय नानाप्रकारके गजोंके योग्य सुन्दर श्राहार उसे न रुचे चिन्तावान सा ऊभा है निश्वास डारे है समस्त शास्त्रोंके वेत्ता महा पंडिन अमिद गनवेद्योंके भी हाथ हाथीका रोग न आया, गंधर्व नानाप्रकारके गीत गायें हैं सो न सुनेर नृत्यकारिणी नृत्य करे हैं सो न देखे पहिले नृत्य देखे था गीत सुन था अनेक चेष्टा करे थामा सब तजा नानाप्रकारके कोतुक होय हैं सो दृष्टि न धरै मंत्रविद्या औषधादिक अनेक उपाय किए सो न लगे आहार विहार निद्रा जलपानादिक सब तज हम अति विनती करें हैं सो न साने जैसे रूठे मित्र को अनेक प्रकार मनाइये सो न माने । न जानिए इस हाथीके वित्त में कहा है काहू वस्तु से काहू प्रक र रीझे नाही काहू वस्तुपर, लुभावे नाहीं खिनाया संतां क्रन्थ न करे चित्राम कामा खडा है । यह त्रोक्यमंडन हाथी समस्त सेनाका श्रृंगार है जो पापको उपाय करन होय यो करो हम हाथीका सब वृत्तांत आपसे निवेदन किग, तब राम लक्ष्मण गजराज की चेष्टा सुन चिंतावान भए मनमें विचार हैं यह गजबन्धन तुडाय निसरा कौन प्रकार क्षमाको प्राप्त भया अर आहार पानी क्यों न लेय ? दोनों भाई हाथीका शोच करते भये। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपु गण संस्कृत ग्रन्थ, ताको भाषा बचनिकागि त्रिलोकमंडन हाथीका कथन वर्णन करनवाला चौरामीवां पर्व पण भया ।। ८४॥ . अथान तर गोतमस्वामी राजा श्रेमिक कहे है-हे नराधिपति ! ताही समय अनेक मु. निन सहित देशभूषण कुलभूषण केवली जिनका वंशस्थल गिरि ऊपर राम लक्ष्मणने उपसर्ग निवारा हृता अर जिनकी सेवा करने कर गरुडेंद्रने राम लक्ष्मण से प्रसन्न होय उनको अनेक दिव्यशस्त्र दिये, जिनकर युद्ध में विजय पाई । ते भगवान केवली सुर असुरानकर पूज्य लोक प्रसिद्ध अयोध्याके नन्दनवन समान महेन्द्रोदय नामा बनविणे महा संव सहित आय विराजे, तब राम लक्षण भरत शत्रुन दशनके अर्थ प्रभातही हाथिन पर चढि जायवेको डद्यत्री मए अर उपजा है जाति स्मरण जाको ऐसा जो त्रैलोक्यम् ण्डन हाथी सो आगे चला जाय है जहां वे दोनों केवली कल्याण के पर्वत तिष्ठे हैं वहां देवनि समान शुभचित्त नरोत्तम गए अर कौशल्या सुमित्रा केई सुप्रभा यह चारों ही माता साधुभक्तिमें तत्पर जिन शासनकी सेवक स्वर्गनिवा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ teratri प ४७३ सिनी देवीनि समान सैकडों राणिनिसे युक्त चलीं पर सुग्रीवादि समस्त विद्याधर महाविभूति संयुक्त चले, केवली का स्थानक दूरहोतें देख रामादिक हाथ उतर आगे गए। दोनों हाथ जोड प्रणामकर पूजा करी, आप योग्य भूमिमें विनयतें बैठे तिनके वचन समाधानवित्त होय सुनते भए, ते वचन पैराग्य मूल रागादिकके नाशक क्योंकि रागादिक संसार के कारण श्रर सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्षके कारण हैं केवली की दिव्य ध्वनि में यह व्याख्यान भया । श्रवरूप श्रावकका धर्म अर महाव्रतरूप यतिका धर्म यह दोनोंही कल्याणके कारण हैं यतिका धर्म साचात् निर्वाणका कारण अर श्रावकका धर्म परम्पराय मोक्षका कारण हे गृहस्थका धर्म पारम्भ अल्प परिग्रहको लीये कछू सुगत है अर यतिका धर्म निररम्भ निपरिग्रह अति कठिन महा शूरवीरनिही तें सधे है यह लोक अनादि निधन जाकी आदि अन्त नाहीं ताि यह प्राणी लोभकर नानाग्रकार कुनिमें मदुःख को पावें हैं संसार का तारक धर्म ही है, यह धर्म नामा परम मित्र जीवोंका मह हितु है जिस धर्मका मूल जीवदयाकी महिमा कहिवेमें न वे ताके प्रसादसे प्राणी मनवांछित सुख पावे हैं धर्म ही पूज्य हैं जे धर्मका साधन करें ते ही पंडित हैं यह दयामूल धर्म महाकल्याणका कारण जिनशासन विना अन्यत्र नाहीं जे प्राणी जिन प्रणीत धर्म में लगें ते त्रैलोक्य के अग्र जो परम धाम है वहां प्राप्त भए यह जिनधर्म परम दुर्लभ है, या धर्मका मुख्यफल तो मोक्षही है अर गौणफल स्वर्ग इन्द्राद अर पाताल में नागेन्द्रपद पृथिवी यदि नरेन्द्रपद यह फल हैं इस भांति केवलाने धर्मका निरूपण किया, तब प्रस्ताव पाय लक्ष्मण पूछते भए - हे प्रभो ! त्रैलोक्यम्ण्डन हाथी गन्न उपाडि क्रोधको प्राप्त भया बहुरि तत्काल शांतभाव को प्राप्त भासो कौन कारण १ तब केवली देशभूषण कहते भए, प्रथम तो यह लकनिकी भीड देख मदोन्मत्तता ratarat ma aा बहुरि भरतको देख पूर्वभव चितार शतभावको प्राप्त भया । चतुर्थ कालके श्रादिध्या नाभिराजाके मरु देवीके गर्भ में भगवान् ऋषभ उपजे पूर्णभव में षोडश कारण भावना भाय त्रैलोक्यको आनन्दका कारण तीर्थकर पद उपार्जा । पृथिवीमें प्रगट भए, इंद्रादिक देवनिन जिनके गर्भ अर जन्मकल्याणक कीए सो भगवान् पुरुषोत्तम तीन लोक कर नमस्कार करने योग्य पृथिवीरूप पत्नी के पति भए । कैसी है पृथिवी रूप पत्नी ? विध्याचल गिरि वेई हैं स्तन जाके र समुद्र हैं कटिमेखला जाकी सो बहुत दिन पृथिवीका राज्य कीया तिनके गुण केवल विना भर कोई जान समर्थ नाहीं, जिनका ऐश्वर्य देख इन्द्रादिक देव आश्चर्य को प्राप्त भए । एक समय नीलांजना नामा अप्सरा नृत्य करती हुती सो विलाय गई ताहि देख प्रतिबुद्ध भए ते भगवान् स्वयं बुद्ध महामहेश्वर तिनकी लौकांतिक देवनिने स्तुति करी । ते जगत् गुरु भरत पुत्र को राज्य देय वैरागी भए । इन्द्रादिकदेवनिने तप कल्याणक किया, तिलक नामा उद्यान में महावत घरे तब से यह स्थान प्रयाग कछाया भगवान्‌ने एक हजार वर्ष तपकिया सुमेरु Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ पदा पगण समान अचल सर्गपरिग्रहके त्यागी महातप करते भये तिनके संग चार हजार राजा निसे ते परीषह न सह सकनेकर व्रत भ्रष्ट भये स्वेच्छा विहारी होय वन फनादिक भखते भए तिनके मध्य भारीच दण्डीका भेष धरता भया ताके प्रसंगसे सूदय चन्द्रोदय राजा सुप्रभयके पुत्र राणी प्रल्हादनाकी कुनीमें उपजे ते भी चरित्र भ्रट भए म रोचके मार्ग लागे कुधमक आचरणसे चतुगति संसारमें भ्रमे अनेक भवों में जन्म मरण किए बहुरि चन्द्रोदय का जीव कर्मके उदयसे नाग. पुरनामा नगरमें राजा हरिपतिके राणी मनोलनाके गर्भ में उपजा कुलकर नाम कहाण्या बहरि राज्य पाया अर सूर्योदयका जीव अनेक भव भ्रमण कर उसही नगरमें विश्व नामा ब्राह्मण जिसके अग्निकुंड नामः स्त्री उसके अतिरति नामा पुत्र भया सो पुरोहित पूर्व जन्मके स्नेहसे रामा कुलंकरको अतिप्रिय भया, एक दिन राजा कुलकर तापसियोंके समीप जाय था सो मागावणे - भिनन्दन नामा मुनिका दर्शन भया । वे मुनि अवधिज्ञानी सर्व लोकके हितु तिन्होंन राजासे कही तेरा दादा सर्प भया सो तपस्वियोंके काष्ठमध्य तिष्ठे है सो तापसी काष्ठ विदारेंगे सो तू रक्षा करियो तब यह सहा गया जो मुनिने कही थी त्योंही दृष्टि पडी इसने सर्प वचाया पर तापसियोंका मार्ग हिंसा रूप जान तिनसे उदास भया, मुनिव्रत धारिवेको उद्यम किया तब श्रुतिरति पुरोहित पापकर्मीने कहीं-हे राजन् ! तिहारे कुनमें वदोक्त धर्म चला आया है अर तापसही तिहारे गुरु हैं तातें तू राजा हरिपतिका पुत्र है तो वेदमार्गका ही आचरण कर, जिनमार्ग मत आरै, पुत्रको राज देय वेदोक्त विधिकर तू तापसका व्रत घर, मैं तेरे साथ तप धरूंगा, या मांति पापी पुरहित मृहमतिने कुलंकरका मन जिनशापनसे फेरा अर कुलंकरका स्त्री श्रीदामा सोपिनी पर पुरुषा. सक्त उसने विचारी कि मेरी कुक्रिया राजाने नानी इसलिए तप धार है सो न जानिए तप धरै कैन धरै, कदाचित् मोहि मारे तातें मैं ही उसे मारू तब उसने विष दयकर राजा अर पुरोहित दोनों मारे सो मरकर निकुजिया नामा वनमें पशुधातकके पापसे दोनों सुआ भए बहुर मीडक भए ममा भए मोर भए सर्प भर कूकर भए कर्मरूप पवन के प्रेरे तियंच योनिमें भ्रमे बहुरि पुरोहित श्रतिरतिका जीव हस्ती भया पर रजा कुलंकरला जीव मीडक भया सो हाथ के पगतलेते दबकर मुबा, बहुरि मीडक भया सो सके सरोवरमें कागनि भषा सो कूकडा भया हाथी मर मार्जार भया उसने कुक्कुट भषा कुलंगरका जीव तीन जन्म कूडा भया सो पुरोहितके जीव माजारने भषा बहुरि ये दोनों मुसा मार मच्छ भए सो धीररने जालमें पकड कुहाडेनि से काटे सो मुवे दोनों भर कर राजगृही नगरमें वह्वा नामा ब्रह्मण उसकी उल्का नामा स्त्रीके त्र भए । पुरोहितके जीवका नाम विनोद, राजा कुलं रके जीवका नाम रमण ,सो महादरिद्री अर विद्यारहित तब रमणने विचारी देशान्तर जाय विद्या पढ़ तब घरसे निकसा पृथिवीमें भ्रमता चारों वेद अर बेदोंके अंग पढे बहुरि र जगृही नगरी आय पहुंचे भाईके दर्शनको अभिलाषा सो नगरके बाहिर पर्य अस्त होय गया आकाशमे मेघाटल के योगसे अति अन्धकार भया सो जीर्ण उद्यानके मध्य एक यत का मन्दिर तहां बैठा अर याके भाई विनोदकी समिधा नामा स्त्री सा महा कुजीना एक अशोकदत्त नाभा पुरुषसे आसक्त सो ताले यक्षके मन्दिरसा संकत किया हुता सो अशोकचो Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचासीयां पर्व तो मार्गमें कोटपालके किंकरने पडा और विनोद खड़ग हाथमें लिए अशोकदत्तके मारवेको यक्षके मन्दिर आया सो जार समझ खडगसे भाई ग्मण को गरा, अन्धकारमें दृष्टि न पडा सो रमण मुवा, विनोद घर गया बहुरि विनोद भी मुवा सो दोनों अनेक भव धारते भए॥ बहुरि विनोदका जीव तो साल वनमें श्रारण भैंसा भया अर रमणका जीव अंधा रीछ भया सो दोनों दावानलमें जरे, मरकर गिरिवनमें भील भए बहुरि मरकर हिरण भए सो भीलने जीवते पकडे दोनों अति सुन्दर मो तीसरा नारायण स्वयंभूति श्रीविमलनाथजीके दर्शन जायकर पीछे आवे था उसने दोनों हिरण लिए अर जिनमन्दिरके समीप राखे, सो राजद्वारसे इनको मनवांछित आहार मिलै अर मुनिनिके दर्शन करें जिनवाणीका श्रवण करें तिनविष रमणका जीव जो मृग हुता सो समाधि मरण कर स्वर्गलोक गया अर विनोदका जीव जो मृग हुता वह आर्तध्यानसे तियंचगतिमें भ्रमा बहुरि जंबूद्वीपके भरत क्षेत्रमें कंपिल्यानगर तहां धनहत्त नामा बणिक घाईस कोटि दीनारका स्वामी भया। चार टांक स्वर्णाकी एक दीनार होय है ता बणिकके बाणी नाम स्त्री उसके गर्भ में दूजे भाई रमणका जीव मृग पर्यायसे देव भया था सो भूषण नाम पुत्र भगा निमित्तज्ञानीने इसके पितासे कहा कि-यह सर्वथा जिन दीक्षा धरेगा, सुनकर पिता चिंतावान भया, पिता । पुषसे अधिक प्रेम इसको घरहीविष राखै बाहिर निकसने न देय सब सामग्री याके घरमें विद्यमान यह भूषण सुन्दर स्त्रीनिकर सेव्यमान । नाना प्रकारके वस्त्र आहार सुगन्थादिक विलेपन कर घरविष सुख पे रहे या को सूर्यके उदय अस्तकी गम्य नाही, याके पिताने सेकडों मनोरथकर यह पुत्र पाया पर एकही पुत्र सो पूर्व जन्मके स्नेहसे पिताके प्राणसे भी प्यारा, पिता तो विनोदका जीव अर पुत्र रमण का जीव, आगे दोनों भाई हुते सो या जन्मविष पिता पुत्र भए॥ ___ संसारकी विचित्र माया है ये प्राणी नटवत् नृत्य करे हैं संसारका चरित्र स्वप्नके राज्य समान असार है एक समय यह धनदत्तका पुत्र भूषण प्रभात समय दुदुभी शब्द सुन आकाशमें देवनिका आगमन देख प्रतिबुद्ध भया यह स्वभावसे ही कोमलचित्त धर्म के प्राचारमें महा हर्षका भरा दोनों हाथ जोड नमस्कार करता, श्रीधर केवलीकी बन्दना शीघ्र जाय था सो सिवाण से उतरते सर्पने डसा, देहतज महेंद्र नाम जो चौथा स्वर्ग तहां देव भया तहांसे चयकर पुष्कर द्वीप में चन्द्रादित्य नामा नगर तहां राजा प्रकाशश ताके राणी माधवी उसके जगद्यत नामा पुत्र भया । यौवनके उदयमें राज लक्ष्मी पाई परंतु संसारसे प्रति उदास, राजमें चित्त नाहीं सो याके पद्ध मंत्रिनिने कही यह राज तिहारे कुल क्रनसे चला आवै है सो पालो तिहारे राज्यसे प्रजा सुखरूप होगी सो मंत्रियोंके हठसे यह राज्य करे । राज्य में तिष्ठता यह साधुनिकी सेवा करे सो मुनिके दानके प्रभावसे देवकुरु भोगभूमि गया तहांसे ईशान नाम दूजा स्वर्ग तहां देव भया चार सागर दोय पन्य देवलोकके सुख भोग देवांगनानिकर मण्डिन नाना प्रकारके भोग भोग तहांसे चया सो जम्बू द्वारके पश्चिम विदेह मध्य अचल नामा चक्रवर्तक रत्न नाम राणीके अभिराम नामा पुत्र भया सो महागुणनिका समूह अति सुन्दर जाहि देख सर्व लोकको आनन्द होय सो Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराणे बाल अवस्था ही से अति विरक्त जिनदीक्षा धारा च हे अर पिता चाहे घरमें रहे तीन हजार राणी इसे परणाई सो वे नाना प्रकारके चरित्र करें परंतु यह विषयसुखको विष समान गिने केवल मुनि होयवेकी इच्छा, अति शांतचित्त परंतु पिता घरसे निकसने न देय । यह महाभाग्य महा शीलवान महागुणवान महात्यागी स्त्रियों का अनुराग नाहीं याको ते स्त्री भांति भांतिके वचनकर अनुराग उपजावें अति यत्नकर सेवा करें परंतु याको संसारकी माया गर्तरूप भासे जैसे गर्त में पड़ा जो गज ताके पकडनहारे मनुष्य नाना भांति ललचावें तथापि गजको गर्त न रुचे ऐसे याहि जगत् की माया न रुचे यह परम शांतचित पिताके निरोधसे अति उदास भया घरमें रहे तिन स्त्रीनिके मध्य प्राप्त हुआ तीव्र असिधारका पाले स्त्रीनिके मध्य रहना अर शील पालना तिनसे संसर्ग न करना ताका नाम असिधारा वन कहिये । मोतिनके हार बाजूवंद मुकुटादि अनेक भूषण पहिरे तथापि आभूषणम् अनु ग नाहीं यह महाभाग्य सिंहासनपर बैठा नि. रंतर स्त्रीनिको जिनधर्मको प्रशंसाका उपदेश देय त्रैलोक्यमें जिनधर्म समान और नाही ये जीव अनादिकालसे संभार वनमें भ्रमण करे हैं सो कोई पुण्य कर्मके योगसे जीवोंको मनुष्य देहकी प्राप्ति होय है यह बात जाना मन्ता कौन मनुष्य संमार कूपमें पडे अथवा कौन विवेकी विषको पीवै अथवा गिरिके शिखरपर कौन बुद्धिमान निद्रा करे अथवा मणिकी बांछाकर कौन पंडित नागका मस्तक हाथसे स्पर्श, विनाशीक ये कान भोग तिनमें ज्ञानी को कैस अनुराग उपजे ? एक जिनधर्मका अनुराग ही महा प्रशंपा योग्य मोक्षके मुखका कारण है। यह जीवोंका जीतव्य अत्यंत चंच यामें स्थिरता कहा ? जो अवांछक निस्पृक्षचित्त हैं जिनके राज्यकाज अर इंद्रियों के भोगोंसे कौन काम इत्यादिक परमार्थके उपदेशरूप याको बाणी सुनकर म्बी भी शांतचित्त भई नानापारके नियम धरती भई । यह शीलवान तिनको भी शीलमें दृढचित्त करना मया। यह राजकुमार अपने शरीरमें भो रागरहित एकांतर उपास अथवा बेला तेला श्रादि अनेक उपवा. सोंकर कर्म कलंक खिपायता भया नाना प्रकारके तपकर शरीरको शोखता भया जैसे ग्रीष्मका सूर्य जल को शोखे समाधान है मन ज का, मन इंद्रियनिके जीनवे को समर्थ यह सम्यक दृष्टि निश्चलचित्त महाधीर वीर चौठ हजार वर्ष लग दुर्धर तप करता भया बहुरि समाधि मरण कर पंचनमोकार स्मरण करता देह त्यागकर जो ब्रह्मोत्तर स्वर्ग तहां महाऋद्धिका धारक देव भया अर जो भूषगके भामें याका पिता धनदत्त सेठ था विनोद ब्रामणका जीव सो मोहके योगते अनेक होनिनिमें भ्रम कर जम्बूद्वीप भरत क्षेत्र तहां पोदन नाम नगर तामें अग्निमुख नामा ब्राह्मण ताके शकुना नामा स्त्री मृदुमति नामा पुत्र सो नाम तो मृदुमति परंतु कठोर चित्त अतिदृष्ट महाजुबारी विनयी अनेक अपराधोंका मरा दुराचारी सो लोकोंके उराहनोंसे माता पिता ने घरसे निकासा सो पृथिवीमें परिभ्रमण करता पोदनापुर गया, किसीक घर तृषातुर पानी पीने को पैठा सो एक बामणी श्रांसू डारती हुई इसे शीतल जल प्यावती भई यह त्रीतल मिष्ट जलसे वप्त हो ब्राह्मणीको पूछता भया -तु कौन कारणा रुदन करे है तब ताने कही तरे आकार एक मेरा पुत्र था सो मैं कठोर चित्त होय क्रोधकर वासे निकासा सो तैंने भ्रमण करते कहूं देखा Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवासीयां पर्व ४७७ होय तो कह, नील कमल समान तो सारिखा ही है, तब यह आंसू डार कहना भया - हे माता, तू रुदन तज वह मैं ही हूं तोहि देखे बहुत दिन भए तातैं मोहि न पहिचानें है तू विश्वास गह मैं तेरा पुत्र हूं तब वह पुत्र जान राखती भई, पर मोहके योगतै ताके स्तनोंसे दुग्ध झरा, यह मृदुमति तेजस्वी रूपवान स्त्रीनिके मनका हरणहारा धूर्डीका शिरोमणि जुत्र में सदा जीते बहुत चतुर अनेक कला जाने काम भोगमें आयुक्त, एक वसंतदाला नामा वेश्या सो ताके अति बल्लभ अर या माता पिताने यह काढा हुता सो इसके पीछे वे अति लक्ष्मीको प्राप्त भए, पिता कुण्डलादिक अनेक भूषण कर मण्डित घर माता कांचीदामाटिक अनेक श्राभरणोंकर शोभित सुखमे तिष्ठे पर एक दिन यह मृदुमति ससांक नगर में राजमंदिर में चोरीको गया सो राजा नन्दीवर्धन शशांक मुख स्वामीके मुख धर्मोपदेश सुन विरक्तचित्त भया था सो अपनी राणीसे कहे हैं कि हे देवी! मैं मोक्ष सुखका देनदारा मुनिके मुख परमधर्म सुना । ये इंद्रियनि के विषय विष समान दारुण हैं इनके फल नरक निगोद हैं सो मैं जैनेश्वरी दीक्षा धरूंगा तुम शोक मत करियो या भांति स्त्रीको शिक्षा देता हुता सो मृदुमति चोरने यह वचन सन अपने मनमें विचारी -- देखो यह राजऋद्धि तज मुनिव्रत धारे है अर मैं पापी चोरी कर पराया द्रव्य हरू हूं धिक्कार मोकू ऐसे विचारकर निर्मज्ञचित्त होय सांसारिक विषयभोगोंसे उदासचित्त भया स्वामी चन्द्रमुखके समीप सर्व परिग्रहका त्यागकर जिनदीक्षा आदरी शात्रोक्त महादुर्धर तप करता महाचमावान् महाप्राक आहार लेता भया । अथानन्तर दुर्गनाम गिरिके शिखर एक गुणनिधि नाम मुनि चार महीने के उपवास धर तिष्ठे थे वे सुर असुर मनुष्यनिकर स्तुति करिवे योग्य महाऋद्विवारी चारण मुनि थे सो चौमासेका नियम पूर्ण कर आकाशके मार्ग होय किसी तरफ चले गए, अर यह मृदुमति मुनि आहारके निमित्त दुर्गनामागिरि के समीप आलोक नाम नगर वहां आहार को आया, जूडा प्रमाण भूमि को निरखता जाय था सो नगर के लोकनि जानी यह वे मुनि हैं जो चार महीना गिरिके शिखर . रहे । यह जानकर यतिभक्तिकर पूजा करी पर इसे अति मनोहर आहार दिया नगर के लोकोंने बहुत स्तुति करी, इसने जानी गिरिपर चार महीना रहे तिनके भरोसे मेी अधिक प्रशंसा होय है सो मनका भरा मौन पकड रहा, लोकोंसे यह न कहीकि मैं और ही हूं अर वे मुनि और थे, और गुरु के निकट मायाशल्य दूर न करी, प्रायश्चित्त न लिया तैं तियंचगतिका कारण भया, तप बहुत किये थे सो पर्या पूरी कर छठे देव लोक जहां श्रभिरामका जीव देव भया था वहां ही यह गया पूर्वजन्म के स्नेहकर उसके घर या अतिस्नेह भया दोनों ही समान ऋद्धिक धारक अनेक देवांगनावों कर मंडित सुखके सामर में मग्न दोनों ही सागरां पर्यंत मुखसे रमे सो अभिरामका जीव तो भरत भया पर यह मृदुमतिका जीव स्वर्गसनम मायाचार के दोषसे इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र में उतंग है शिखर जिसके ऐसा जो निकुंज नामा गिरि उसमें महा गहन शल्लकी नामा वन वहां मेघकी घटा समान श्याम ऋतिसुन्दर गजराज भया, समुद्रकी गाज समान है गर्जना जिसकी अर पवन समान हैं शीघ्र गमन जिसका महा भयंकर आकारको घरे, अति मदोन्मच Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण चन्द्रमा समान उजल है दांत जिसके, गजराजोंके गुणोंकर मंडित विजयादिक महाइस्ती तिनके वंशमें उपजा महाकांतिका धारक औरावत समान अति स्वर्छद सिंह व्याघ्रादिकका हननहारा महा वृक्षोंका उपारनहारा पर्वनोंके शिखरका ढाहनहारा विद्याथरोकर न ग्रहा जाय तो भूमिगोचरियोंकी कार बात, जाकी वाससे सिंहादिक निवास तज भाग जावें ऐसा प्रबल गजराज गिरिके वनमें नानाप्रकार पल्लवका आहार करता मानसरोवर में क्रीडा करता अनेक गजों सहित विचरे कभी कैलाशमें विलास करे कभी गंगाके मनोहर द्रहोंमें क्रीडा करै अर अनेक वन गिरि नदी सरोनरोंमें सुंदर क्रीडा करे पर जारों हथिनीनि सहित स्मै, अनेक हाथियोंके समूहका शिरोमणी यथेष्ट विचरता ऐसा सोहै जैसा पक्षियों के समूह कर गरुड सोहै मेघ समान गर्जता मदके नीझरने तिनके झरनेला पर्वत सो एक दिन लंकश्वरने देखा, सो विद्याके पराक्रम कर महाउग्र उसनेह नीठि नोठि वश किया इसका त्रैलोक्यमण्डन नाम धरा सुन्दर हैं लक्षण जिपके जैसे स्वर्ग में चिरका अनेक अप्सराओं सहित क्रीडा करी तैसे हाथीकी पर्यायमें हजारों हपिनियोंसे क्रीडा करता भया । यह कथा देशभूपण केवली राम लक्ष्मणसे कहे हैं कि ये जीव सर्व योनिमें रति मान.लेय है निश्चय विचारिए तो सर्व ही गति दुःख रूप हैं अभिरामका जीव भरत अर मृदुभतिका जीव गज सूर्योदय चन्द्रोदयके जन्मसे लेकर अनेक भव के मिलापी हैं तात भरतको देख पूर्व भव चितार गज उपशांतचित भया अर भरत भोगोंसे पगड्मुख दूर भया है मोह जिसका अब मुनिपद लिया चाहै है इस ही भवसे निशेण प्राप्त होवेंगे बहुरि भव न धरंगे श्रीऋषभदेवके समय दोनों सूर्योदय चन्द्रोदय नामा भाई थे, मारीचके भरमाए मिथ्यात्वका सेवन कर बहुत काल संपारमें भ्राण किया, बस स्थावर योनिमें भ्रमे । चन्द्रोदयका जीव कैयक भव पीछे राजा कुलकर बहुरि कैयक भव पीछे रमण ब्राह्मण बहुरि कैयक भव थर समाधि मरण करणहारा मृग भया, बहुरि स्वर्ग में देव, बहुरि भूषण नामा वैश्यका पुत्र बहुरि स्वर्ग बहुरि जगधुति नामा राजा वहांसे भीगभूमि बहुर दूजे स्वर्ग देव, वहांसे चयकर महाविदेह क्षेत्रमें चक्रपतींका पुत्र अभिराम भए वहांसे छठे स्वर्ग देव, देवसे भरत नरेन्द्र सो चरमशरीरी हैं बहुरि देह न थारेंगे, अर सूर्योदयका जीव बहुत काल भ्रमण कर राजा कुलंकरका श्रुतिनामा पुरोहित भया बहुरि अनेक जन्म लेय विनोदनामा विप्र भया, बहुरि अनेक जन्म लेय आर्तध्यानसे मरणहारा मृग भया बहुरि अनेक जन्म भ्रमण कर भूषणका पिता धनदत्त नामा वणिक बहुरि अनेक जन्म धर मृदुमति नामा मुनि उसने अपनी प्रशंसा सुन राग किया मायाचार शल्य दर न करी तपके प्रभावसे छठे स्वर्ग देव भया वहांसे चयकर त्रैलोक्यमण्डन हाथी अब श्रावकके व्रत थर देव होयगा ये भी निकट भव्य है । या भांति जीवोंकी गति आगति जान अर इंद्रियोंके सुख विनाशीक जान या विषम संसार वनको तजकर ज्ञानी जीव धर्ममें रमो । जे प्राणी मनुष्य देह पाय जिनभाषित धर्म नाहीं करे हैं बेअनन्त काल संसार भ्रमण करेंगे प्रात्मकल्याणसे दूर हैं ताते जिनवरके मुखसे निकसा दयामई धर्म मोक्ष प्राप्त करानेको समर्थ याके तुल्य और नाहीं मोह Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ famritai पर्व ४ तिमिरका दूर करणारा जीती है सूर्यकी कांति जाने सो मन वचन कायकर अंगीकार करो जातैं निर्मल पद पावो || इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत प्रथ, ताकी भाषावचनिकाविषै भरतके अर हाथी पूर्वभव वर्णन करनेवाला पचासीवां पर्व पूर्ण भया ॥ ८५ ॥ . अथानन्तर श्रीदेशभूषण केवलीके वचन महा पवित्र मोह अन्धकारके हरणारे संसार सागरके तारणहारे नानाप्रकारके दुखके नाशक उनमें भरत अर हाथीके अनेक भयका वर्णन सुनकर राम लक्ष्मण आदि सकल मव्यजन आश्चर्य को प्राप्त भए, सकल सभा चेष्टारहित चित्राम कैसी होय गई र भरत नरेंद्र देवेंद्र समान है प्रभा जाकी अविनाशी पदके अर्थ नि होकी है इच्छा जिसके गुरुवोंके चरण में नम्रीभूत है सीस जिसका महा शांतचित्त परम वैराग्यको प्राप्त हुआ । तत्काल उठकर हाथ जोड केवली को प्रणामकर महा मनोहर वचन कहता भवा हे नाथ, मैं संसारमें अनन्त काल भ्रमण करता नानाप्रकार कुयोनियो में संकट सहता दुखी भया अब मैं संसार भ्रमण से थका मुझे मुक्तिका कारण तिहारी दिगम्बरी दीचा देवो यह आशारूप चतुर्गति नदी मरणरूप उग्र तरंगको घरे उसमें मैं डूबू हूं सो मुझे हस्तावलम्बन दे निकासी ऐसा कह केवलीकी आज्ञा प्रमाण वजा है समस्त परिग्रह जिसने अपने हाथों से सिरके केश लोच किये परम सम्यक्त्वी महाव्रतको गीकारकर जिन दीदाधर दिगम्बर भया तब कवि देव धन्य धन्य शब्द कहते भए र कल्पवृक्षों के फूलों की वर्षा करते भए । हजार से अधिक राजा भरतके अनुरागसे राजऋद्धि तज जिनेन्द्री दीक्षा धरते भए अर कैयक अल्पशक्ति हुते ते अणुव्रतधर श्रावक भये, अर मात्रा के कई पुत्रका वैराग्य सुन सुन की वर्षा करती भई व्याकुलचित्त होय दौडी सो भूमिमें पडी, महामोहको प्राप्त भई पुत्रकी प्रीति कर मृतक समान होय गया है शरीर जाका सो चन्दनादिकके जलसे छांटी तो भी सचेत न भई, नीवेर विषै सचेत भई जैसे वत्स विना गाय पुकारे तैसे विलाप करती भई, हाय पुत्र ! महा विनयवान गुणनिकी खान मनको आल्हादका कारण तू कहां गया, हे अंगज ! मेरा अ'ग शोकके सागरमें डूबे हैं सो थांभ, तो मारिखे पुत्र विना मैं दुःखके सागर में मग्न शोककी भरी कैसे जीऊंगी ? हाय, हाय, यह कहा गया ? या मांति विलाप करती माता श्रीराम लक्ष्मणने स ंबोथकर विश्रामको प्राप्त करी, अति सुन्दर वचननिकर धीर्य बधाया हे मात, भरत महा विवेकी ज्ञानवान हैं तुम शोक तजों, हम कहा तिहारे पुत्र नाहीं, आज्ञाकारी किंकर हैं पर कौशल्या सुमित्रा सुप्रभाने बहुत संबोधा तब शोकरहित होय प्रतिबोधको प्राप्त भई । शुद्ध है मन जाका अपने अज्ञानकी बहुत निंदा करती भई, धिक्कर या स्त्री पर्याय यह पर्याय महा दोषनिकी खान है, अत्यन्त अशुचि वीभत्स नगर की मोरी समान अव ऐसा उपाय करू? जाकर स्त्री परियाय न धरू, स ंसार समुद्रको तिरु ं । यह महा ज्ञानवान सदाही जिनशासनकी भक्तिवन्त हुन अब महा वैराग्यको प्राप्त होय पृथिवीमती आर्थिका के समीप आर्यका भई, एक श्वेत वस्त्र धारा घर सर्व परिग्रह तज निर्मलसम्यक्त्वकू थारसी सर्व आरम्भ टारती भई । याके साथ तीनस आर्यका भई । यह विवेकिनी परिग्रह तंज कर वैराग्य थार ऐसी सोहती भई जैसी 1 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण कलकरहित चन्द्रमाकी कला मेवपटलरहित सोहै। श्रीदशभूषण केवलीका उपदेश सुन अनेक मुनि भये अनेक आर्यका भई तिनकर पृथ्वी ऐमी सोहती भई जैसे कमलनिकर सरोवरी सोहै अर अनेक नर नारी पवित्र हैं चित्त जिनके तिन्होंने नानाप्रकारके नियम धर्मरूप श्रावक श्राविकाके ब्रत थारे, यह युक्त ही है जो सूर्य के प्रकाशर नेत्रवान् वस्तुका वलोकन करे ही करें। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषा वचनिकाविणै भरत अर कैकयीका नैराग्य वर्णन करनेवाला छियासीवां पर्व पूर्ण भया!॥८६॥ अथानन्तर रैलोक्यमण्डन हाथी अतिप्रशान्त चित्त केवलीके निकट श्रावकके व्रत धारता भया सम्यक दर्शनसंयुक्त महाज्ञानी शुभक्रियामें उद्यमी हाथी धर्मविष तत्पर होता भया, पंद्रह २ दिनके उपवास तथा मासोपवास करता भया, सूके पत्रनिकर प रणा करता भया, हाथी संसारसे भयभीत उत्तम चेष्टामें परायण लोकनिकर पूज्य महाविशुद्धताको धरे परिवीविष विहार करता भया। कभी पक्षोपवास कभी मामोपवासके शरणा प्रामादिकविष जाय तो श्रावक ताहि अतिभक्तिकर शुद्ध अन्न शुद्धजलकर पा णा कावते भए, क्षीण होय गया है शरीर जाका वैराग्य रूप खूटेसे बंधा मह उग्रतप करता भया। यमनियम रूप है अंकुश जाके बहुरि महाउग्रतपका करणहारा गज शनैः शनैः आहार का त्यागकर अन्त संलेषणा धर शरीर तज छठे स्वर्ग देव हो। भया, अनेक देवांगनाकर युक्त हारकुण्डलादिक आभूषणनिकर मण्डित पुण्यके प्रभावतें देवगति के सुख भोगता भया । छठ गहातें आया हुा अर छठेही स्वर्ग गया परम्पराय माक्ष पायेगा, भर भरत महामुनि महातप के धारक पृथिवीके गुरु निग्रंथ जाके शरीरका भी ममत्व नाही वे महा थीर जहां पिछिला दिन रहै ततां ही बैठ रहें जिनको एक स्थान न रहना, पवन सारिखे असंगी पथिवीसमान क्षमाको धरें, जलतमान निर्मल, अग्नि समान कर्म काष्ठके भस्म करनहारे अर आकाशं समान अलेप चार अापनामें उद्यम तेरह पकार चारित्र पालते विहार करते भए। निर्भमत्व स्नेहके बंधनते रहित मृगेंद्र सारिखे निर्भय समुद्र समान निश्चल यथाजातरूपके धारक सत्यका वस्त्र पहरे क्षमारूप खड्गको धर वाईन परीषहके जीतनहारे महापस्वी, समान हैं शत्रु मित्र जिनके अर समान है सुख दुःख जेके पर समान है तृण रत्न जिनके मा उत्कृष्ट मुन शास्त्रोक्त मार्ग चलते भए, तपके प्रभाकर अनेक ऋद्धि उपनीं । यूई समान तीच तृणकी सली पावोंमें चुभे हैं परन्तु ताकी कछु सुध नाही अर शत्रु के स्थानको उपसर्ग सहिवे निमित्त विहार करते भए, तपके संयमके प्रभावकर शुक्न ध्यान उपजा शुक्ल धानके बलकर मोहका नाशकर ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय कर्म हर लोकालोकको प्रकाश करणहारा केवलज्ञान प्रकट भगा हुरे अघातिया कर्म भी दरकर मिद्वपदको प्राप्त भए जहांत बहुटि संसारमें भ्रागा नाहीं, यह केकईके पुत्र भरत का चरित्र जो भक्ति कर पढे सुने सो सब क्लशसे रहित होग, यश कीनि बल विभूति आरोग्यताको पावै अर स्वग मोक्ष पावै । यह परम चरित्र महा उज्ज्मल श्रेष्ठ गुगनिका युक्त भव्य जीव सुनों जातें शीघ्र ही सूर्य अधिक तेजके धारक होहु । इति श्रीरक्ोिणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै भरतका निर्वाण गमन वर्णन करनेवाला सतासीवां पर्ण पर्ण भया॥८७ ।। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठासीवा पर्ने *** अथानन्तर भरत के साथ जे राजा महाधीर वीर अपने शरीर में भी जिनका अनुराग नहीं घर से निकसे । जैनेश्वरी दीक्षा थर दुर्लभ वस्तुको प्राप्त भए तिनविषै कैयकनिके नाम कहिये हैं — हे श्रेणिक ! तू सुन - सिद्धार्थ, रतिवर्धन, मेघरथ, जांबू, नंद, शल्य, शशांक, निरसनन्दन, नंद, आनन्द, सुमति, सदाय, महाबुद्धि, सूर्य, इन्द्रध्वज, जनवल्लभ, श्रुतिधर, सुचंद्र, पृथिवीधर, अलॅक, अक्रोध, कुन्दर, सत्यवान, हरि, सुमित्र, धर्ममित्र, पूर्णचन्द्र, प्रभाकर, नघोष, सुनंद, शांति, प्रियधर्मा इत्यादि एक हजारतें अधिक राजा वैराग्य धारते भए विशुद्धकुल में उपजे सदा आचारमं तत्पर पृथिवी में प्रसिद्ध हैं शुभ चेष्टा जिनकी । ये महाभाग्य हाथी घोडे रथ गयादे स्वर्ण रत्न रणवास सर्वं तजकर पंच महाव्रत धारते भए, राज्यको जिनने तृणवत् तजा, महाशांत योगीश्वर नानाप्रकार ऋद्धिके धारक भए सो आत्मध्यानके ध्याता कैयक तो मोच गये कैयक अद्रि भये कैक उत्कृष्ट देव भये । अथानन्तर भरत चक्रवर्ती सारिखे दशरथ के पुत्र भरत तिनको घर से निकसे पीछे लक्ष्मण तिनके गुण चितार चितार अतिशोकवन्त भया अपना राज्य शून्य गिनता भया शोककर व्याकुल है चित्त जाका, अति विपाद आंसू डारता भया, दीर्घ निश्वास नाखता भया नील कमल समान है कांति जाकी सो कुमलाब गया, विराधितकी भुजानिपर हाथ धरै ताके सहारे बैठा मन्द २ वचन कहें, वे भरत महाराज गुण ही हैं आभूषण जिनके सो कहां गए ? जिन तरुण अवस्था में शरीर प्रीति छांडी, इन्द्र समान राजा अर हम सब उनके सेवक वे रघुवंशके तिलक समस्त विभूति तज कर मोक्षके अर्थी महादुद्धर मुनिका धर्म धारते भए । शरीर तो अति कोमल कैसे पह सहेंगे ? धन्य वे अर श्रीराम महा ज्ञानवान कहते भये, भरतकी महिमा कही न जाय जिनका चित्त कभी संसार में न रचा जो शुद्धबुद्धि है तो उनकी ही है और जन्म कृतार्थ है तो उनका ही है, जे विषके भरे अनकी न्याई राज्यको तजकर जिनदीक्षा धरते भये वे पूज्य प्रशंसा योग्य परम योगी उनका वर्णन देवेंद्र भी न कर सके तो औरों की कहा शक्ति जो करें वे राजा दशरथ के पुत्र केकईक नंदन तिनकी महिमा हमतें न कही जाय । या भरतके गुण गावते एक मुहूर्त सभा में तिष्ठे, समस्त राजा भरत ही के गुण गाया करे । बहुरि श्रीराम लक्ष्मण दोऊ भाई भरत के अनुरागकर अति उद्योग रूप उठे सब राजा अपने अपने स्थानकू गये घर घर भरत की चर्चा सब ही लोक आश्चर्य को प्राप्त भये । यह तो उनकी यौवन अवस्था अर यह राज्य ऐसे भाई सब सामिग्री पूर्ख ऐसे ही पुरुष तजें सोई परम पदको प्राप्त होवें या भांति सब ही प्रशंसा करते भये । बहुरि दूजे दिन सब राजा मन्त्रकर राम पै आए नमस्कारकर प्रति प्रीति से वचन कहते भए - हे नाथ ! जो हम समझ हैं तो आपके घर बुद्धिवंत हैं तो आपके, हम पर कृपाकर एक बीनती सुनो - हे प्रभो ! हम सत्र भूमिगोचरी अर विद्याधर आपका राज्याभिषेक करें, जैसे स्वर्गविषै इन्द्रका होय, हमारे नेत्र अर हृदय सफल होवें तिहारे अभिषेकके सुखकर पृथिवी ६१ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ पापुराण सुखरूप होय तब राम कहते भए तुम लक्ष्मणका राज्याभिषेक करो वह पथिलीका म्तंभ भूवर है समस्त राजानिका गुरु वासुदेव राजानिका राजा सब गुण ऐश्वर्यका स्वामी सदा मेरे चरणनि को नमै या उपरान्त मेरे राज्य कहा ? तब वे समस्त श्रीरामकी अतिप्रशंसा कर जय जयकार शब्द कर लक्ष्मणपै गए अर सत्र वृत्तांत कहा तब लक्ष्मण सबों को साथ लेय रामपं आया पर हाथ जोड नमस्कार कर कहता मया हे वीर ! या राज्य के स्वामी आप ही हो मैं तो आपका आज्ञाकारी अनुचर हूँ तब राम ने कहा-हे वत्स ! तुम चक्र के धारी नारायण हो ताल राज्याभिषेक तुम्हारा ही योग्य है, सो इत्यादि वार्तालाप से दोनों का राज्याभिषेक ठहरा बहुरि जैसी मेघ की ध्वनि होय तैसी वादित्रनिकी ध्वनि होती भई दुन्दुभी वाजे नगारे ढोल मृदंग वीण तमूरे झालर झांझ मनीरे वांसुरी शंख इत्यादि वादित्र वाजे अर नानाप्राकरके मंगल गीत नृत्य होते भए या चकों को मनवांछित दान दीया सवनिकी अति हर्ष भया। दोऊभाई एक सिंहासन पर विराजे, स्वर्ण रत्नके कलश जिनके मुख कमलसे ढके पवित्र जलसे भरे तिनकर विधिपूर्वक अभिषेक भया, दोऊ भाई मुकट भुजबन्ध हार केयूर कुण्डलादिक कर मण्डित मनोग्य वस्तु पहिरे सुगंधकर चर्चित तिष्ठे विद्यावर भूमिगोचरी तथा तीन खण्डके देव जय जय शब्द कहते भए। यह बलभद्र श्रीराम हल मृमलके थारक अर यह वासुदेव श्रीलक्ष्मण चक्रका धारक जयवन्त होहु दोऊ राजेन्द्रनिका अभिषेक कर विद्याधर बडे उत्साहसे सीता अर विशिल्याका अभिषेक करावत भए, सीता रामकी राणी अर विशल्या लक्ष्मणकी, तिनका अभिषेक विधिपूर्वक होता भया। अथानन्तर विभीषणको लंका दई, सुग्रीव को किहकंधापुर, हनूमान हो श्रीनगर अर हनूरुह द्वीप दिया, विराधितको नागलोक समान अलंकापुर दिया, नल नील को किकंधूपुर दिया, समुद्रकी लहरोंके समूहकर महाकोतुकरूप अर भामण्डलको बैतडयो दक्षिण अणिविषे रथन् र दिया समस्त विद्याधर निका अधिपति किया अर रत्नजटीको देवोपनीत नगर दिया कर भी यथायोग्य सबनिको स्थान दिये । अपने पुण्यके उदय योग्य सबही राम लक्ष्मण के प्रतापते राज्य पोवते भए । रामकी आज्ञा कर यथायोग्य स्थानमें तिष्ठे। जे भव्यजीव पुण्यके प्रभावका जगतविर्षे प्रसिद्ध फल जान धर्मविष रति करे हैं वे मनुष्य सूर्य से अधिक ज्योति को पावे हैं। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा वचनिकाविौं राम लक्ष्मणका राज्याभिषेक वर्णन करनेवाला अठासीवां पर्व पूर्ण भया ।। ८ ।। अथानन्तर राम लक्ष्मण महा प्रीतिकर भाई शत्रुघ्नसू कहते भए, जो तुम को रुचै सो देश लेवो जो तुम आथी अयोध्या चाहो तो आथी अयोध्या लेवो अथवा राजगृह अथवा पोरनापुर अथवा पौंड्रसुन्दर इत्यादि सेकडा राजधानी हैं, तिनमें जो नीकी सो निहारी नत्र शत्रुघ्न करता भया-मोहि मथुराका राज्य देवो तब राम बोले-हे भ्रात! वहां राजा मधुका राज्य है अर यह रावणका जमाई है अनेक युद्धनिका जीतनहारा ताको चमरेन्द्रने त्रिशूल रन दिया है ज्येष्ठके Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवासीवां प सूर्य समान दुम्ह है अर देवनिसे दुर्निवार है ताकी चिंता हमारे भी निरंतर रहे | वह राजा मधु हरिवंशियोंके कुलरूप आकाश में सूर्य समान प्रतापी है जाने वंशमें उद्योत किया है अर जाका लवणार्णव नामा पुत्र विद्याधरनि हूं कर श्रमाध्य है पिता पुत्र दोऊ महशूरवीर हैं तातें मथुरा टार और राज्य चाहो सोही लेवो तब शत्रुघ्न कहता भया - बहुत कहिवेकर कहा ? मोहि मथुरा ही देवो जो मैं मधु के छाते की न्याई मधुको रण संग्रामनें न तोड लू तो दशन्का पुत्रशत्रुघ्न नाहीं जैसे सिंहनिके समूहको अष्टापद तोड डारे तैसे ताके कटकसहित तीन चूर डारू, तो मैं तिहारा भाई नाहीं, जो मधुको मृत्यु प्राप्त न करू तो मैं सुप्रभाकी कुक्षिमें उपजा ही नहीं या भांति प्रचण्ड तेजका धारणहारा शत्रुघ्न कहता मया तव समस्त विद्यावरनिके अधिपति ग्राश्चर्यको प्राप्त भये अर शत्रुघ्न की बहुत प्रशंसा करते भए । शत्रुघ्न मथुरा जायवेको उद्यमी भयात श्रीराम कहते भए - हे भाई ! मैं एक याचना करू सो मोहि दक्षिणा देहु तब शत्रुघ्न कहता भया सबके दाता आप हो सब आपके याचक हैं आप याचो सो वस्तु वहा ? मेरे प्राणही के नाथ आप हो तो अर वस्तुकी कहा बात ? एक मधुसे युद्ध तो मैं न राजू धर कहो सोही करू तब श्रीरामने कही - हे बस्स ! तू मधुसे युद्ध करें तो जासमय वाके हाथ त्रिशूलरत्न न होय तासमय करियो तब शत्रुघ्न ने कही जो श्राज्ञा करोगे सोही होयगा ऐसा कह भगवानकी पूजाकर नमोकार मन्त्र जप सिद्धनिको नमस्कारकर भोजनशला में जय भोजनगर माताके निकट आय आज्ञा मांगी तब वे माता प्रतिस्नेहतें याके मस्तकपर हाथथर कहती भई - हे वत्स ! तू तीक्ष्ण बाणनिकर शत्रुनिके समूहको जीत । वह योधाकी माता अपने य धात्र से कहती भई - हे पुत्र बतक संग्राम में शत्रुनिने तेरी पीठ नाही देखी है अर चहृन देखेंगे तू रण जीत वेगा । तब मैं स्वर्ण कमलनिकर श्रीजिनेन्द्रको पूजा कराउौंगी वे भगवान त्रैलोक्य मंगलके कर्ता आप महामंगलरूप सुर असुरनिकर नमस्कार करवे योग्य रागादिकके जीतनहारे तोहि मंगल करें | वे परमेश्वर पुरुषोत्तम अरहंत भगवन्त जिनने अत्यंत दुर्जय मोहरि जीता वे तोहि कल्याणके दायक होहु | सर्वज्ञ त्रिकालदशीं स्वयंयुद्ध तिनके प्रसाद तेरी विजय होहु । जे केवलज्ञानकर लोकालोकको हथैली में आंवलाकी न्याई देखे हैं ते तोहि मंगल रूप होहु । हे वत्स ! वे सिद्धपरमेष्ठी ष्टकर्मकर रहित अष्टगुण आदि अनन्त गुणनिकर विराजमान लॉक के शिखर तिष्ठे ते सिद्ध तोहि सिद्धिके कर्ता होवें अर आचार्य मध्यजीवनिके परम आधार तेरे विघ्न हरें जे कमल समान अलिप्त सूर्यमान तिमिरहर्ता श्रर चन्द्रमा समान आल्हादकर्ता भूमिसमान क्षमावान् सुमेरु समान अचल समुद्र समान गम्भीर श्राकाश समान अखंड इत्यादि कनेक गुणनिकर मण्डित हैं र उपाध्याय जिनशासनके पारगामी तोहि कल्याण के कर्ता होहु र कर्म शत्रुनिके जीतको महा शूरवीर बारह प्रकार तपकर जे निर्वाणको साथै हैं ते साधु तोहि महावीर्य के दाता होवें या भांति विघ्नकी हरणहारी मंगलकी करणहारी माता ने काशीस दई सो शत्रुघ्न माथे चढाय माताको प्रणामकर वाहिर निकसा । स्वर्णकी सांवलनिकर मण्डित जो गज तापर चढा ऐसा सोहता भया जैसे मेघमाला ऊपर चन्द्रमा सोहै थर नाना प्रकारके बाहननि 1 1 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-पुराण पर प्रारूढ अनेक राजा संग चले सो तिनकर ऐसा सोहता भया जैसा देवनिकर मण्डित देवेंद्र सोहै राम लक्ष्मणकी भाई अधिक प्रीति सो तीन मंजिल भाईके संग गये तब भाई कहता भया-हे पूज्य पुरुषोत्तम ! पीछे अयोध्या जावो मेरी चिंता न करो मैं आपके प्रसादतें शत्रुनिको निस्सन्देह जीतूंगा तब लक्ष्मण ने समुद्रावर्त नामा धनुष दिया, प्रज्वलित है मुख जिनके पवन सारिखे वेगको धरे ऐसे बाण दिये अर कृतांतवक्रको लार दिया और लक्ष्मणसहित राम पंछे अयोध्या आये परंतु भाईकी चिंता विशेष । अथानन्तर शत्रुघ्न महाधीर बडी सेना कर गंयुक्त मथुराकी तरफ गया अनुक्रमसे यमुना नदी के तीर जाय डेरे दिये जहां मंत्री महासूक्ष्मबुद्धि मंत्र करते भये । देखो, इस बालक शत्रुघ्न की बुद्धि जो मधुके जीतवेकी शंछा करी है । यह नयवर्जित केवल अभिमान कर प्रवर्ता है, जा मधुने पूर्व राजा मान्धाता रण में जीता सो मधु देवनिकर विद्याथरनिकर न जीता जाय, ताहि यह कैसे जीतेगा ? राजा म्धु सागर समान है उछलते पियादे तेई भये उतंग लहर अर शत्रुनिके समूह तेई भये ग्रह तिनकर पूर्ण ऐसे मधुसमुद्रकूत्रुध्न भुजानिकर तिरा चाहं है सो कैसे तिरेगा तशा मधुभूपति भयानक वन समान है तामें प्रवेशकर कौन जीवता निसर। कैसा है राजा मधुरूप वन ? पयादेके समूह तेई हैं वृक्ष जाहाँ अर माते हाथिनिकर महा भयकर अर घोडनिके समूह तेई हैं मृग जहां, ये वचन मंत्रिनिके सुन कृतांतवक्र वहता भया । तुम साहस छोड ऐसे काय ताके वचन क्यों कहो हो ? यद्यपि वह राजा मधु चमरेंद्र कर दिया जो अमघ त्रिशूल ताकर अति गर्दित है तथापि ता मधुको शत्रुध्न सुन्दर जीतेगा जैसे हाथी महाबलवान है अर सूंडकर वृक्ष निको उपाडे है मद भरे है तथापि ताहि सिंह जीते है यह शत्रुघ्न लक्ष्मी अर प्रताप कर मंडित है महार लवान है शूरवीर है महा पडित प्रवीण है अर याके सहाई श्रीलक्ष्मण हैं अर आप सबही भले भले मनुष्य याके संग हैं तातें यह शत्रुघ्न अवश्य शत्रुको जीतेगा जब ऐसे वचन कृतांतवक्रने कहे तव सबही प्रसन्न भए अर पहिलेही मंत्रीजननिने जो मथुरामें हलकारे पठाये हुते ते आयकर सर्व वृत्तांत शत्रुघ्नसे वहते भए-हे देव ! मथुरा नगरीकी पूर्व दिशाकी ओर अत्यंत मनोग्य उपवन है तहां रणवास सहित राजा मधु मै है । राजाके जयंती नामा पटराणी है ता सहित वनक्रीडा कर है जैसे स्पर्श इंद्रियके वश भया गजराज बंधन में पड़े है, तैसे राजा मोहित भया विषयनिके बंधन में पडा है, महा कामी आज छठा दिन है कि सर्व राज्य काज तज प्रमादके वश भया वनमें तिष्ठै है कामान्ध मूर्ख तिहारे अागमनको नाहीं जाने है, अर तुम ताके जीतको बांछा करी है ताकी ताहि सुध नाही अर मंत्रिनिने बहुत समझाया सो काहूकी बात धारे नाहीं, जैसे मृढ रोगी वैयकी ओषध न थारे इस समय मथुरा हाथ आवे तो आवे अर कदाचित मधु पुरीमें धसा तो समुद्र समान अथाह है, यह वचन हलकारोंके मुख से शत्रुघ्न सुनकर कार्य में प्रवीण ताही समय बलबान योधानिके सहित दौडकर मथुरा गया, अर्ध त्रिके समय सब लोक प्रमादी हुते अर नगरी राजारहित हुती सो शत्रुघ्न नगरमें जाय पैठा जैसे योगी कर्म शम कर सिद्धपुरीमें प्रवेश करे, तैसे शत्रुघ्न द्वारको चूरकर मथुरा में प्रवेश करता भया ।मथुरा इनमानोग्य है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - नवाशेवा पर्वा __ तब वंदीजननिके शब्द होते भए जो राजा दशरथका पुत्र शत्रुघ्न जयवंत होहु ये वचन सु के नगरीके लोक परचक्रका आगम जान अति व्याकुन भर. जैसे लंका अंगदके प्रवेश कर आ व्याकुल हुती तो मथुरामें व्याकुलता भई । कैयक कायर हृदय की धरनहारी स्त्री हुकी गिन भयकर गर्भपात होय गये, अर कैयक महाशूवीर कलकलाट शब्द मन तत्काल सिंहकी न्याई उठे शत्रुन रानमंदिर गया आयुध माना अपने हाथ कर लीनी अर स्त्री बालक आदि जे नग रीके लोक अतित्रासाप्राप्त भये तिनको महा मधुर वचन का धीर्य बंधाया जो यह श्रीरामका राज्य है यहां काहू को दुःख नाहीं तर नगरीके लोक त्रामरहेत भये पर शत्रुध्नको मथुरा में आया सुन राजा मधु महाकोप कर उपबनते नगरको आया सो मथुरा में शत्रुनके सुभटों की रक्षा कर प्रवेश न कर सका जैसे मुनिके हृदयमें मोह प्रवेश न कर सके, नाना प्रकार के उपाय कर प्रवेश न पाया अर त्रिशून हूते रहित भया तथापि महा अभिम नी मधुने शत्रुध्नसे संधि न करी शुद्ध ही को उग्रमी भया तब शत्रुध्नके योधा युद्ध को निकसे दोनों सेना समुद्र मम'न मिना. परस्पर युद् भया, रथनिके तथा हाथिनके तथा घोडनिके असवार परस्पर युद्ध करते भये पर परस्पर पयादे भिडे, नाना प्रकारके आयुध निके धारक मा ममर्थ नाना प्रकार श्रायुधनि कर युद्ध करते भये ता समय परसेनाके गर्व को न सहता संता व क्र सेनापति परसेनामें प्रवेश करता भया । नाहीं निवारी जाय है गति जाकी, तहां रगक्रीडा करे है जैसे स्वयम्भू रमण" उद्यानमें इन्द्र क्रीडा करे, तब मधु का पुत्र लवणाणवकुमार याहि देख युद्ध के अर्थ आया अपने बाणनिरूप मेषकर कृतवक रूप पर्वतका आच्छादित करता भवा, कृतांतवक भी आशीविष तुल्य बाणनिकर ताके बाण छेदता भया, अर धरती आकाशको अपने बाण नि कर व्याप्त पारा भया, दोऊ महा योद्वा पिंह समान बलवान गजनिपर चढे क्रोधसहित युद्ध करते भये, बाने बाको रथरहित किया अर बाने वाको, बहुरि कृनांतवक्रने लवणाणवके वक्षस्थल में बाण लगाया अर ताका वषतर भेदा तय लवणार्णव कृतांतवक्र ऊपर तोमर जातिका शस्त्र चलावता भया क्रोध कर लाल नेत्र जाके दोनों घायल भए, रुधिर कर रंग रहे हैं वस्त्र जिनक, महा सुभटताके स्वरूप दोनों क्रोध कर उद्धा फूले टेसूके वृक्ष समान सोहते भए । गदा खड्गःचक्र इत्यादि अनेक आयुधनिकर परस्पर दोऊ महा भयंकर युद्ध करते भए । बल उन्नाद विपाद के भरे बहुत बेर लग युद्ध भया, कृतांतवाने लवणाविके वक्षस्थल में घाव किया, गो पृथ्वी में पड़ा जैसे पुण्यके क्षत स्वर्गवासी देव मध्य लोकमें आय प, लवणार्णव का प्राणान्त भया, तब पत्रको पडा देख मधु कृ. तांतवक्र पर दौडा तब शत्रुनने मधु को रोका, जैसे नदी के प्रवाहको पर्वत रोके, मधु महा दुस्सह शोक अर कोषका भरा युद्ध करता भया सो श्राशीविपकी दृष्टि समान मधु की दृष्टि शत्रुसकी सेनाके लोक न सहारते भए जैसे उग्र पवनके योगते पत्रनिके समूह चलायमान होंय तैसे लोक चलायमान भए बहुरि शत्रुघ्नको मधुके सन्मुख जाता देख धीर्य प्राप्त भए । शत्रुके भय कर लोक तबलग डरें जब लग अपने स्वामीको प्रबल न देखें अर स्वामीको प्रसन्न वदन देख धीर्य को प्राप्त होंय । शत्रुभ उत्तम रथ पर प्रारूढ मनोग्य धनुप हाथमें सुन्दर हारकर शोभे है वक्ष Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ पद्म-पुराण स्थल जाका सिर पर मुकुट धरे मनोहर कुण्डल पहिरे शरद के सूर्य समान महा तेजस्वी अखंडित गति जाकी शत्रुके सन्मुख जाता अति सोहता भया जैसे गजरात्र पर जाता मृगराज गोई अर अग्नि के पत्रको जलायै वैसे मधुके अनेक योवा क्षणमात्रमें ध्वंस किए, शत्रुघ्न के सन्मुख मधुका कोई योधा न ठहर सका जैसे जिनशासन के पंडित स्यादवादी तिनके यन्मुख एकवारी न ठहर सके, जो मनुष्य शत्रुघ्नसे युद्ध किया चाहे सो तत्काल विनाशको पात्र जैसे सिंहके आगे मृग । मधु की समस्त सेना के लोक प्रति व्याकुल होय मधु शरण आये सो घुमाभट शत्रुघ्न को सन्मुख आता देख शत्रुघ्नकी धधजा बेटी घर शत्रुघ्नने वा निदर तक स्थ | तब मधु पर्वत समान जो गरुडेंद्र गज तापर चढ कोवकर प्रज्वलित है शरीर जाका शत्रुघ्नको निरंतर बागनिकर याच्छादने लगा जैसे महामेव सूर्यको श्राच्छादे सो शत्रुघ्न महा शूरवीरता बाघ छेद डारे र मधुका वखतर भेदा जैसे अपने घर कोई पाहुना र ताके भले मनुष्य भली भांति पाहुन गति करें तैसे शत्रुघ्न मधुकी रणमें शस्त्रनिवर पाहुणागति करता भया । अथानन्तर मधु महा विवेकी शत्रुनको दुर्जय जान आपको त्रिशूल आयुधसे रहित जान पुत्र की मृत्यु देख पर अपनी आयु भी अल्प जान मुनिनका वचन चितारता भवा - अहो जगत्का समस्त ही आरंभ महा हिंसारूप दुखका देनहारा सर्वथा ताज्य है यह क्षणभंगुर संसार चरित्र तामें मूडजन राचे या संसारमें धर्म ही प्रशंसा योग्य है पर अधर्मका कारण अशुभ कर्म प्रशंसा योग्य नाही महा निंद्य यह पाप कर्म नरक निमोदका कारण हैं, जो दुर्लभ मनुष्य देह को पाय धर्म में बुद्धि नाही घरे है सी प्राणी मोह कर्म कर ठगाया अनन्त भवन करे है । मैं पापीने संसार असारको सार जाना, क्षणभंगुर शरीरको ध्रुव जाना आदि न किया। यतादमें प्रचरता, रोग समान ये इन्द्रियन के भोग भले जान भोगे, जब में स्वाधीन हुता तब मोहि सुबुद्धि न श्रई, अब अन्तकाल श्राया अब कहा करू ं, घर में बाग लागी त समय तलाब खुदवाना कौन अर्थ ? र सर्प डसा तो समय देशांतरसे मंत्राी बुलवाना कर दू देश मणि औषधि मंगवाना कौन अर्थात सर्व चिंता तज निरकुल होय अपना मन समाधान में ल्याऊ यह विचार वह वीरवीर घावकर पूर्व हाथी चहा ही भाव होना भए, अरहन नि आचार्य उपाध्याय साधुनि को मन कर वचनकर कायकर वारंवार नमस्कार कर और अरहंत निद्ध साधु तथा केवली प्रणीत धर्म यही मंगल हैं यही उत्तम है इसका मेरे शरण है। पंद्र कर्मभूमि तिनमें भगवान अरहन्त देव होय हैं वे मेरे हृदय में तिष्ठ । मैं बारंबार नमस्कार करू' हूं अब मैं यावज्जीव सर्व पाप योग तजे, चारों बाहार तजे, जे पूर्व पाप उपार्ज हुने तिनकी निन्दा करू हूं अर सकल वस्तुका प्रत्याख्यान करू हूं अनादि काल या संवार वन जो कर्म उपार्जे हुने ते मेरे दुःकृत मिथ्या हो । भावार्थ- मुझे फल मत देहु, अब मैं तत्वज्ञान में विष्ठा तजवे योग्य जो रागादिक तिनको त हूं अर लेयचे योग्य जो दिजमाव तिनको लेऊ' हूं, ज्ञान दर्शन मेरे स्वभाव ही हैं सो मोसे अमेय हैं कर जे शरीरादिक समस्त पदार्थ कर्मके . Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्नवा पा संयोग कर उाजे ने मोसे न्यारे हैं, देह त्याग के समय संसारी लोक भूमिका तथा तृणका सांथरा करे हैं सो सांधा नाहीं । यह जीव ही पाप बुद्धिरहिन होय तब अपना ही सायरा है। ऐसा नि: चार कर रजा मथुरे दोनों प्रकार के परिग्रह भावोंसे राजे अर हाथी की पीठ पर बैठा ही सिर के करा लाच करता भया, शरीर वावनि कर अतिमान है तापि महादुर्धर धीयको धर कर अध्यात्म योग, पारूढ होय कायाका ममन्य तजता भया, विशुद्ध है बुद्धि जाकी । तब शत्रुघ्न मधुकी परम शांत दशा देख नमस्कार करता भया घर कहता भया है मायो ! मो अपराधी का अपराध क्षमा को, देवनिती अपहारा मधु का संग्राम देखनेको पाई हती आकाशसे कल्पवृक्षनिके पुष्पोंको वा करनी भई मधुबा वीर रस अर शांत रस देख देव भी पार बर्यको प्राप्त भए । बहुरि मधु महा धीर एक क्षगम में समाथि मरण कर महा सुख के सागर में तीजे सात कुमार स्वर्गमें उत्कृष्ट देव भया कर शत्रन्न मधुकी स्तुति करता महा विदेशी मथुरा में प्रवेश करता भया जैसे हस्तिनागपुर में जयकुमार प्रवेश करता सोहता भया का शन मधुपुरी में प्रवेश करता सोहता मया । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं—हे नराधिपति श्रेगिक ! प्रालियोंके या संमारने कमाके प्रसंग कर नाना अयस्था होय हैं तात उत्तम जन सदा अशुभ कर्म तजकर शुभकर्म करो जाके प्रभाव कर सर्य समान कांतिको प्राप्त होहु ॥ झाति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविर्षे मधुका युद्ध अर नैराग्य होनेका वर्णन करनेवाला नवासीवां पर्व पूर्ण भया ।। ८६ | अथानना र असुर कुमारोंक इन्द्र जो चमरेंद्र महाप्रचंड तिनका दीया जो त्रिशूलरत्न मधुके हुता ताके अधिष्ठाता देव त्रिशूल को लेकर चमरेंद्र के पास गए अनिखेद खिन्न महा लज्जावान होय मधुके मरणका वृत्तांत असुरेंद्रसे कहते भए । तिनकी मधुसे प्रतिमित्रता सो पातालसे निकस. कर महाक्रोधके भरे मथुग प्रायवेको उद्यमी भए ता समय गरुडेंद्र असुरेंद्र के निकट आये पर पूछने भए-हे देत्येंद्र ! कौन तरफ गमनको उद्यनी भए हो? तब चमरेंद्रने कही-जाने मेरा मित्र मधु मारा है ताहि कष्ट देवेको उद्यमी भया हूं तब गरुडेंद्रने कही कहा विशिल्याका माहात्म्य तुमने न गुना है ? तर चापरेंद्रने कही-वह अद्भत अवस्था विशिल्याकी कुमार अवस्थामें ही हुती अर अब तो निर्षिय भुजंगी समान है । जौलग विशिल्याने वासुदेवका आभय न किया हुता तौ नग वा ब ग के प्रधादतै असाधारण शक्ति हुनी, अब वह शक्ति विशिल्या नाही जे निरति. चार बालबर्य धारं तिनके गुण निकी महिमा काहियेमें न आवै, शीलके प्रसादकर सुर असुर विशावादि सब डरें, जौलग शीलरूप खगड को धारे तौलग सुबकर जीना न जाय महा दुर्जय है। अब विशिल्या पवित्रता है ब्रह्मचारिणी नाहीं त तैं बह शक्ति नाहीं। मद्य मांस मैथुन यह महा पाप हैं इनके सेवनसे शक्ति का नाश होय है जिनका व्रत शील नियमरूप कोट भग्न न भया तिनको का विघ्न करये समथ नाही, एक कालाग्नि नाम रुद्र महाभयंकर मा सो हे गरुडेंद्र ! तुम सुना ही हो पाना बहुरि वह स्त्रीस आसक्त होय नाशको प्राप्त भया तात विषयका सेवन विपसे भा विषय है, परन आश्चरका कारण एक अखंड ब्रह्मचर्य है। अब मैं मित्रके शत्रुमर जाऊंगा Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ पद्म-पुराण तुम तिहारे स्थानक जावहु । ऐसा गरुडेंद्र मे कहकर चमरेंद्र मथुरा आए, मित्रके मरणकर कोपरूप मथुरा में वही उत्सव देखा जो मधु के समय हुता तत्र सुरेंद्रने विचारी - ये लोक महादुष्ट कृतघ्न हैं, देशका धनी पुत्रसहित मरगया है अर अन्याय बैठा है इनको शोक चाहिये वि हर्ष, जाके भुजाकी छाया पाय बहुत काल सुखसे बसे ता मधुकी मृत्युका दुःख इन भया? ये महाकृतघ्न हैं सो कृतघ्नका मुख न देखिये लोकनिकर शूरवीर सेवा योग्य. शूरवीरनिकर पण्डित सेवाको यो पंडित कौन जो पराया गुण जाने सो ये कृतघ्नमहामूर्ख हैं जैसा विचारकर मथुरा के लोकनिपर चमरेंद्र के प्या इन लोकोंका नाश करू । यह मथुरापुरी या देशसहित क्षय करू' । महाकोच के वश होय सुरेंद्र लोकनिको दुस्सह उपसर्ग करता भया, अनेक रोग लोगनिको लगाये, प्रल कालकी अग्नि समान निर्दयी होय लोवरूप वनको भाम करवेको उद्यमी भया, जो जहां ऊभा ता सो वहां ही मर गया पर बैठा हुआ सो बैठा ही रहा, सूता था सो सूना ही रहा, मरी पड़ी लोकको उपसर्ग देख मित्र कुल देवता के भय से शत्रुघ्न अयोध्या आयासो जलकर महावीर भाई आया बलभद्र नारायण अति हर्षित भये थर शत्रुघ्नकी माता सुप्रभा भगवानकी श्रद्भुत पूजा करावती भई, पर दुखी जीवनको अति करुणाकर र वर्षात्मा जीवनको अति विनयकर अनेक प्रकार दान देती भई, यद्यपि अयोध्या महा सुन्दर है स्वर्ण रत्ननिके मन्दिरनिकर मण्डित है कामधेनु समान सर्व कामना पूरणहारी देवपुरी समान पुरी है तथापि शत्रुघ्नका जीव मथुरा अति आसक्त सो अयोध्या में अनुरागी न होता भया जैसे कैक दिन सीता बिना राम उदास रहे तैसे शत्रुघ्न मथुरा विना अयोध्या में उदास रहै। जीवोंको सुन्दर वस्तुका संयोग स्वप्न समान क्षणभंगुर हैं परम दाहको उपजावै है ज्येष्ठ के सूने हू अधिक तापकारी है ॥ इति श्रीरत्रिषेणाचार्यविरचित महापद्म राण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी लोकनि असुरेन्द्रकृत उपसर्गका वर्णन करनेवाला नव्वेवां पर्व अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमस्वामी से पूछा भया- 'भगवान् ! कौन कारण कर "शत्रुघ्न मथुरा ही की याचता भया । अयोध्याहूतँ ताहि मथुरा का निवास अधिक में रुच', अनेक राजधानी स्वर्ग लोक समान सो न वांछी पर मथुरा ही वांछी सी मथुरा से कहा प्रीति, तब गौतमस्वामी ज्ञान के समुद्र सकल सभारूप नक्षत्रनिके चन्द्रमा कहते भये हे श्रेणिक ! इस शत्रुघ्न अनेक भव मथुरा में भये तातें याका मधु पुरीसे अधिक स्नेह भया । यह जीव कमनिके सम्बन्ध अनादि काल का संसार सागर में बसे है मो अनन्त मा धरै । यह शत्रुका का जीव अनन्त भत्र भ्रमण कर मथुरा में एक यमन देव नामा मनुष्य भया, महाक्रूर धर्मसे विमुख सो मर कर शूकर खर काग ये जन्म वर अज पुत्र भया सो अग्निमें जल सूत्रा, भैसा जलके लादने का भया सोबार भैंसा होय दुखसे मूसा नीच कुल में निर्धन मनुष्य भया, हे श्रेणिक ! महापापी तो नरक को प्राप्त होय है, पर पुण्यवान् जीव स्वर्गमें देव होय हैं कर शुभाशुभ मि श्रित कर मनुष्य होय हैं बहुरि यह कुलन्धरनामा ब्राह्मण भया, रूपवान् अर शीलरहित सो एक समय नगरका स्वामी दिग्ग्वजय निमित्त देशांतर गया ताकी ललिता नाम राणी महलके झरोसामें तिष्ठे श्री गोपायिनी इस दुराचारी को देख काम वागण कर वेधी गई यो गाहि महल में भाषा वचनिकावि मथुराके पूर्ण भया ।। ६० ।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्यानवेवा प 1 बुलाया | एक आसनपर राणी अर यह बैठे रहे ताही समय राजा दूरका चला अचानक आया र याहि महल में देखा सो राणीने मायाचार कर कही — जो यह बन्दीजन हैं भिक्षुक है तथापि राजाने न मानी । राजाके किंकर ताहि पकडकर नृपकी आज्ञातें आठो अंग दूर करने के अर्थ नगर के बाहिर लेजाते हुते सो कल्याणनामा साधु ने देख कही -- जो तू मुनि होय ती तोहि छुडावें तत्र याने मुनि होना कबूल किया तब किंकरानिसे छुडाया सो मुनिहोय महातप कर स्वर्ग में ऋजु मनका स्वामी देव भया । हे श्रेणिक ! धर्मसे कहा न होय ? अथानन्तर मथुरावि चंद्रभद्रं राजा ता राणी या ताके भाई सूर्य देव श्रग्निदेव मुनदेव र आठ पुत्र तिनके नाम श्रीमुख समुख व इन्द्रख प्रमुख उमुख परमुख अर राजा चंद्रभद्र के दूजी राणी कनकना तकि वह कुलवर नाना का जीव स्वर्ग में देव होय तहांत चक्कर अचल नामा पुत्र भया सो कजावान अर गुगनिकर पूर्ण सर्वं तो कके मनका हरणहारा देव कुमारतुल्य क्रीडामें उद्यमी भया । मेरा अचलकु अधानन्तर एक अौंकनामा मनुष्य धर्म की अनुमोदनाकर श्रावस्ती नगर में एक कपनामा पुरुष ताके अंगिका नामा स्त्री उसके अपनाना पुत्र मा सो अधिनयी तव कंपने आपको घर से निकाल दिया सो महादुखी भूमिमें भ्रमण करै अर अचलनामा कुमार पिताकू अविलम सो अचलकुमारकी बडी मात्रा धरा उसके तीन भाई अर या पुत्र तिन्होंने एकांत में अचलके मारणेका मंत्र किया सो यह वार्ता अचलकुमारी माताने जानी तर पुत्र भगा दिया सो तिलक वनमें उसके पांनमें कांटा लगा सो काका पुत्र अप काठका भार लेकर आवै सो अचलकुमारको कांटेके दुखसे करुणावन्त देखा तब अपने काष्ठका भार मेल से कुमार का कांटा काढ कुमारको दिखाया सो कुमार अति प्रसन्न नया अर अप को कहामार नाम याद राखि अर मोहि भूपति ने मेरे निकट आ । इस भांति कह अपको विदा किया सो अप गया अर राजपुत्र महादुखी कौशांबी नगरके विषै याया महापराक्रमी सो वाण विद्याका गुरु जो विशिवाचार्य उसे जीतकर प्रतिष्ठा पाई हुती सो राजने बलपारको नगर में ल्यागकर अपनी इन्द्रदत्ता नाना पुत्री परिणाई अनुक्रमका पुण्यके प्रभाव से राज पाया सो अंगदेश आदि अनेक देशको जीतकर महा प्रतापी मथुरा चाया नगर के बाहिर डेरा दिया बडी सेना साथ सब सामने सुनाकि यह राजा चन्द्रभद्रका पुत्र अचलकुमार हैं सो सब श्राय मिले राजा चन्द्रभद्र अना रहगया । तब राणी धराके भाई सूर्यदेव अग्निदेव हुनदेव इसको संधि करने ताई भेने सोये जायकर कुमारको देख लिखे होय भागे पर बराके आठ पुत्र हू भाग गए । अचलकुमारकी माता आय पुत्रको लेगई पितासे मिलाया, पिताने याको राज्य दिया । एकदिन राजा अचलकुमार नटों का नृत्य देखे था ताही समय अप आया जाने इसका वनमें कांटा काढा था सो ताहि दरवान थक्का देव काठे हुते सो राजाने मने किए पर आपको बुलाया बहुत कृपा करी और जो वाकी जन्मभूमि श्रावस्ती नगरी हुती सो ताहि दई और ये दोनों परममित्र भेले ही रहें | एक दिवस महासंपदा के भरे उद्यान में क्रीडाको गये सो यशसमुद्र आचार्यको देखकर दोनों ४८५६ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० पद्मपुराण मित्र मुनि भये, सम्यकदृष्टि परम संयमको आराध समाधिमरणकर स्वर्ग में उत्कृष्ट देव भये तहां से चयकर अचलकुमारका जीव राजा दशरथके यह शत्रुघ्न पुत्र भया अनेक भके संबंधसे याकी मथुरासे अधिक प्रीति भई । गौतमस्वामी कहे हैं - हे श्रेणिक ! वृक्षकी छाया जो प्राणी बैठा होय तो ता वृक्षसे प्रीति होय है जहां अनेक भव धरै तहांकी कहा बात ? संसारी जीवनिकी ऐसी अवस्था है पर वह अपका जीव स्वर्गत चयकर कृतांतवक्र सेनापति भया । या भांति धर्म के प्रसादतैं ये दोनों मित्र संपदाको प्राप्त भये अर जे धर्मसे रहित हैं तिनके कबहूं सुख नाहीं । अनेक भवके उपार्जे दुखरूप मल तिनके धोयवेकू धर्मका सेवनही योग्य है अर जलके तीर्थनि में मनका मल नाहीं धुवै है, धर्मके प्रसादतें शत्रुघ्नका जीव सुखी भया ऐसा जान कर विवेकी जीव धर्म में उद्यमी होवो धर्मको सुनकर जिनकी आत्मकल्याण में प्रीति नाहीं होय है तिनका श्रवण वृथा है जैसे जो नेत्रवाद सूर्यके उदय में कूप में पडै तो ताके नेत्र वृथा हैं 1 इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाबि शत्रुभवका वर्णन करनेवाला इक्यानवेत्रां पर्व पर्ण भय । ॥ ६१ ॥ 1 अथानन्तर आकाशमें गमन करणारे सप्तचारण ऋषि सप्त सूर्य समान है कांति जिनकी सो विहार करते निग्रंथ मुनींद्र मथुरापुरी आये तिनके नाम सुरमन्यु श्रीमन्यु श्रीनिचय सर्वसुन्दर जयवान विनयलालस जयमित्र ये सबही महाचारित्र के पात्र अति सुन्दर राजा श्रीनन्दन राखी धरणी सुन्दरीके पुत्र पृथिवी में प्रसिद्ध पिता सहित प्रीतिंकर स्वामीका केवलज्ञान देख प्रतिबोधको प्राप्त भये थे पिता पर ये सातो पुत्र प्रीतिकर केवली के निकट मुनि भये अर एक महीने का बालक डमर नामा पुत्र ताको राज्य दिया पिता श्री नन्दन तो केवली भया पर ये सातों महामुनि चारण ऋद्धि आदि अनेक ऋद्धि के धारक श्रुतकेवली भये सो चातुर्मासिक में मथुरा के वनमें वटके वृक्ष तले आय विराजे । तिनके तपके प्रभावकर चमरेंद्रकी प्रेरी मरी दूर भई जैसे श्वसुरको देखकर व्यभिचारिणी नारी दूर भागे मधुराका समस्त मंडल सुखरूप भया, विना वाहे धान्य सहजही उगे, समस्त रोगनिसे रहित मथुरापुरी ऐसी शोभती भई जैसे नई बधूपतिको देखकर प्रसन्न होय, वह महामुनि रसपरत्यागादि तप अर बेला तेल पक्षोपवासादि अनेक रूपके धारक जिनको चार महीना चौमासे रहना तो मथुराके वन में अर चारणऋद्धिके प्रभावतें चाहे जहां आहार कर आयें सो एक निमिष मात्र में आकाशके मार्ग होय पोदनापुर पारणाकर यावें बहुरि विजयपुर कर आयें उत्तम श्रावक के घर पात्र भोजनकर संधननिमित्त शरीरको राखें, कर्म के खिपायवे को उद्यमी । एक दिन वे धीर वीर महाशांतभावके धारक जूडा प्रमाण धरती देख विहारकर ईर्ष्या समिति के पालनहारे आहार के समय अयोध्या आये, शुद्ध भिक्षाके लेनहारे प्रलंबित हैं महा भुजा जिनकी, र्हदत्त सेठ के घर आय प्राप्त भए तब अर्हदत्तने विचारी वर्षां कालमें मुनिका बिहार नाहीं ये चौमासा पहिले तो यहां आये नाहीं अर मैं यहां जे जे साधु विराजे हैं गुरु में नदी के तीर वृक्ष तल शून्य स्थानक में बनके चैत्यालय निमें जहां जहां चौमासा साधु तिष्ठे हैं वे मैं सर्व बंदे यह तो अबतक देखे नाहीं पे आचारांग सूत्रकी आज्ञा से पराङमुख इच्छाविहारी हैं वर्षाकाल Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चानवेवा पर्न ४६१ में भी भ्रमते फिरें हैं जिन श्राज्ञा पराङमुख ज्ञानरहित निराचारी श्राचार्यकी आम्नायसे रहित हैं, जिन श्राज्ञा पालक होंय तो वर्षामें बिहार क्यों करें, सो यह तो उठगया थर याके पुत्रकी बघूने प्रति भक्तिकर प्रामुक आहार दिया सो मुनि आहार लेय भगवानके चैन्यालय आया जहां द्युति भट्टाकर विराजते हुते, ये सप्तर्षि ऋद्धि के प्रभावकर धरती से चार अंगुल अलिप्त चले आये र चैत्यालय में धरतीवर पग धरते आये, आचार्य उठ खडे भये श्रति आदरसे इनको नमस्कार किया अर जे द्युतिभट्टारकके शिष्य हुने तिन सबने नमस्कार किया बहुरि ये सप्त तो जिन बंदनाकर आकाशके मार्ग मथुरा गये इनके गये। पीछे अदत्त सेठ चैन्याजयति तब द्युतिभट्टारकने कही, सप्तमहर्षि महायोगीश्वर चारणमुनि यहां आये हुते तुमने हूँ वह बंदे हैं वे महा पुरुष महातपके धारक हैं चार महीना मथुरा निवास किया है श्रर चाहे जहां आहार लेजांय आज अयोध्यामें आहार लिया चैत्यालय दर्शन कर गये, हमसे धर्मचर्चा करी, वे महा तपोधन गगनगामी शुभ चेष्टा धरणहारे परम उदार ते मुनि बन्दिवे योग्य हैं। तब वह श्रावकनिविषै 'अग्रणी आचार्य के मुख से चारण मुनिनिकी महिमा सुनकर खेदखिन्न होय पश्चाताप करना भया । धिक्कार मोहि, मैं सम्यक्दर्शन रहित वस्तुका स्वरूप न पिछाना, मैं अत्याचारी मिथ्यादृष्टि मोसमान रथम कौन, वे महा मुनि मेरे मंदिर आहार को आये अर मैं नवधा भक्तिकर आहार न दिया । जो साधुको देख सन्मान न करे श्रर भक्तिकर अन्न जल न देय मो मिथ्या दृष्टि है, मैं पापी पापात्मा पापका भाजन महा निन्द्य मो समान और अज्ञानो कौन, मैं जिनवाणीमे विमुख, अब मैं जौ लगः उनका दर्शन न करू तौलग मेरे मन का दाह न मिटे, चारण मुनिनि की तो यही रीति हैं चौमासे निवास तो एक स्थान करें अर आहार अनेक नगरीमें कर श्रावें, चारण ऋद्धिके प्रभाव, कर अंगसे जीवोंको बाधा न हो । 1 अथानन्तर कार्त्तिक की पूनो नजीग जान सेठ अर्हदत्त महासम्यकदृष्टि नृपतुल्य विभूति जाके, अयोध्या मथुराको सर्वकुटुंब सहित सप्त ऋषिके पूजन निमित्त चला, जाना है मुनिनिका माहात्म्य जाने अर अपनी बारम्बार निन्दा करै है रथ हाथी पियादे तुरंगनिके असवार इत्यादि बडी सेनासहित योगीश्वरनिकी पूजाको शीघ्रही चला, बडी विभूति कर युक्त शुभ ध्यानविषै दत्पर कार्तिक सुदी सप्तमीके दिन मुनिनके चरणनिविषै जाय पहुंचा। वह उत्तम सम्यक्त्वका धारक विधिपूर्वक मुनिचन्दना कर मथुरा में अतिशोभा करावता भया, मथुरा स्वर्ग समान सोहती भई, यह वृत्तांत सुन शत्रुघ्न शीघ्र ही महा तुरंग चढा सप्त ऋनिके निकट आया अर शत्रुघ्न की माता सुप्रभा भी मुनिनिकी भक्तिकर पुत्रके पीछे ही आई अर शत्रुघ्न नमस्कार कर मुनिनि के मुख धर्म श्रवण करता भया, मुनि कहते भए - हे नृप ! यह संसार असार है वीतरागका मार्ग सार है, जहां श्रावकके बारह बा कहे, मुनिके अठाईस मूल गुण कहे, मुनीनिको निर्दोष आहार लेना अकृत अकारित रागरहित प्रासु चाहार विधिपूर्वक लीये योगीश्वरोंके तपकी भया - - हे देव आपके आये या नगरतें मरी गई, रोग सुभित भया सत्र साता भई प्रजाके दुख गए सर्व समृद्धि कोई दिन आप यहां ही तिष्ठो ! वारी होय तब वह शत्रुघ्न कहता गए दुर्भिक्ष गया, सब विघ्न गए, भई जैसे सूर्य उदयतें कमलनी फूलै, Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ पद्म-पुराण तब मुनि कहते भए - हे शत्रुघ्न ! जिन आज्ञा सिवाय अधिक रहना उचित नाहीं, यह चतुर्थकाल धर्मके उद्योतका कारण है यामें मुनीन्द्रका धर्म भव्य जीव धारें हैं जिन आज्ञा पालै हैं महामुनिनिके केवलज्ञान प्रगट होय है । मुनिसुव्रतनाथ तो मुक्त भए अब नमि, नेमि, पार्श्व, महावीर चार तीर्थंकर और होवेंगे बहुरि पंचमकाल जाहि दुखमा काल कड़िये सो धर्मकी न्यूनतारूप प्रबरतेगा, तासमय पाखण्डी जीवनिकर जिनशासन अति ऊंचा है तो हू आच्छादित होगा जैसे रजकर सूर्यका बिम्व श्राच्छादित होय, पाखण्डी निर्दई दया धर्मको लोपकर हिंसा का मार्ग प्रवर्तन करेंगे समय मा समान ग्राम पर प्रेत समान लोक कुचेष्टा के करणहारे होवेंगे, महाकुधर्म में प्रवीण क्रूर चोर पाखण्डी दुष्टजीव तिनकर पृथिवी पीडित होयगी, किसा दुखी होवेंगे, प्रजा निर्धन होयगी महा हिंसक जीव परजीवनिके घ तक होगे निरंतर हिंसाकी चढवारी होयगी पुत्र माता पिताकी आज्ञासे विमुख होगे यर माता पिता हू स्नेवरहित होयेंगे अर कलिकालमें राजा लुटेरे होवेंगे कोई सुखी नजर न आवेगा कहिवेके सुखी वे पापचित्त दुर्गविकी दायक कुकथा कर परस्पर पाप उपजायेंगे । हे शत्रुघ्न ! कलिकाल में कपायकी बहुलता होवेगी र अतिशय समस्त विलय जायेंगे चारण मुनि देव विद्याधरनिका याचना न होयगा । अज्ञानी लोक नग्नमुद्रा धारक मुनिनिको देख निन्दा करेंगे, मलिनचित्त मुढजन अयोग्यको योग्य जानेंगे जैसे पतंग दीपककी शिखा में पडे तैसे अज्ञानी पपपंथमें पड दुर्गतिके दुख भोगेंग अर जे महा शांत स्वभाव तिनकी दुष्ट निंदा करेंगे, विषयी जीवनि को भक्तिकर पूजगे, दीन अनाथ जीवनको दया भावकर कोई न देवेगा अर मायाचारी दुराचारिनिको लोक देवेंगे सो था जायगा जैसे शिला में बीज बोय निरंतर सीचे तो हूक कार्यकरी नाहीं, तैसे कुशील रुपनको विनय afteकर दीया कल्याणकारी नाहीं, जो कोई मुनिनिकी यज्ञ करें है अर मिथ्या मार्गियोंको भक्तिकर पूजे है सो मलयागिरिचंदनको तजकर कंटक को अंगीकार करें हैं सा जानकर हे वत्स ! तू दान पूजाकर जन्म कृतार्थकर, गृहस्थीको दान पूजा ही कल्याणकारी है पर समस्त मथुरा के लोक धर्ममें तत्पर होवो, दया पालो, साधर्मीयोंसे वात्सल्य धारो, जिनशासनकी प्रभावना करो, घर घर जिनबिम्ब थापो, पूजा अभिषेककी प्रवृत्ति करो जाकर सब शांति हो, जो जिनधर्मका आराधन न करेगा पर जाके घर में जिनपूजा न होगी, दान न होवेगा ताहि आपदा पीडेगी जैसे मृगको व्याघ्री भखे तैसे धर्मरहितको मरी भखेगी अंगुष्ठ प्रमाण ह जिनेन्द्रकी प्रतिमा जिसके विराजेगी उसके घरमेंसे मी यूं भाजेगी जैसे गरुडके भगसे नागिनी भागे । ये वचन मुनिनिके सुन शत्रुघ्नने कही - हे प्रभो ! जो श्राप याज्ञा करी त्यों ही लोक तेंगे। अथानन्तर मुनि श्राकाश मार्ग विहार कर अनेक निर्वाण भूमि बंदकर सीताके घर श्राहारको आये, कैसे हैं मुनि ? तप ही है धन जिनके सीता महा हर्षको प्राप्त होय श्रद्धा आदि गुणोंकर मण्डित परम छानकर विधिपूर्वक पारणा करावती भई, मुनि आहार लेय आकाशके मार्ग विहार कर गये, शत्रुघ्नने नगरीके बाहिर अर भीतर अनेक जिनमन्दिर कराए, घर घर जिन Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरानवेवा पर्व प्रतिमा पथराई नगरी सब उपद्रवरहित भई, वन उपवन फल पुष्पादिक कर शोभित भए, वापिका सरोवरी कमलोंकर मंडित सोहती भई, पक्षी शब्द करते भए, कैलाशके तटसमान उज्जल मंदिर नेत्रों को आनन्दकारी विमान तुल्य सोहते भए अर मर्व किमाण लोक संपदाकर भरे सुखमू निवास करते भए गिरिक शिखर समान ऊचे अनाजोंके ढेर गावोंमें सोहते भए स्वर्ण रत्नादिककी पृथिवी में विस्तीर्णता होती भई सकल लोक सुखी रामके राज्यमें देशों ममान अतुल विभूतिके धारक धर्म अर्थ काममें तत्पर होते भए शत्रुध्न मथुरामें राज्य करे, रामके प्रतारसे अनेक राजाओं पर आज्ञा करता सोहै जैसे देवोंमें वरुण सोहे या भांति मथुरापुरीका ऋद्धिके धारी मुनिनिके प्रताप कर उपद्रव दूर होता भया । जो यह अध्याय यांचे सुने सो पुरुष शुभनाम शुभगोत्र शुभसाता वेदनीका बंध करै । जो साधुवोंकी भक्तिविष अनुरागी होय अर साधुवोंक' समागम चाहे वहीं मनवांछित फलको प्राप्त होय, या साधुवोंके संगको पायकर धर्मको आराधनकर प्राणी सूर्य से भी अधिक दीप्तिको प्राप्त होवें हैं। इति श्रीरविणेणाचार्यविरचित महापद्मा गण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा बचानकावणे मथुराका उपसर्ग निवारण वर्णन करनेवाला बानवेवां पर्व पूर्ण भया ।।१२॥ अथानन्तर विजियाकी दक्षिण श्रेणिमें रत्नपुरनामा नगर वहां राजा रत्नरथ उसकी राणी पूर्णचन्द्रानना उसके पुत्री मनोरमा महारूपवती उसे यौवनयती देख राजा ताके वर दूहवेकी बुद्धिकर व्याकुल भया, मंत्रियोंसे मंत्र कियाकि यह कुमारी कौनको परणाऊ या भांति राजा चिंतासंयुक्त कईएक दिन गए एक दिन राजाकी सभामें नारद आया राजाने बहुत सन्मान किया नारद सबही लौकिक रीतियोंमें प्रवीण, उसे राजाने पुत्रीके विवाहनेका वृत्तांत पूछा तब नारदने कही रामका भाई लक्ष्मण महा सुन्दर है जगतमें मुख्य है चक्रके प्रभाव कर नवाए हैं समस्त नरेंद्र जिसने ऐसी कन्या उसके हृदयमें आनन्ददायिनी होवे जैसे कुमुदिनीके वनको चांदनी आनन्द दायिनी होय | जब या भांति नारदने कही तब रत्नरथके पुत्र हरवेग मनोवेग वायुवेगादि महा. मानी स्वजनोंके घातकर उपजा है वैर जिनके प्रलयकालकी अग्नि समान प्रज्वलित होय कहते भए-जो हमारा शत्रु जिसे हम मारा चाहे उसे कन्या कैसे देखें यह नारद दुराचारी है, इसे यहां से काढो, ऐसे वचन राजपुत्रोंके सुन किंकर नारद पर दौड़े तब नारद आकाश माग विहार कर शीघ्र ही अयोध्या लक्ष्मण पै पाया अनेक देशान्तरकी वार्ता कह रत्नरथ की पुत्री मनोरमाका चित्राम दिखाया, सो वह कन्या तीनलोककी सुन्दरियोंका रूप एकत्र कर मानों बनाई है । सो लक्ष्मण चित्रपट देख अति मोहित होय कामके वश भया यद्यपि महा धीर वीर है तथापि वशीभूत होय गया, मन में विचारता भया जो यह स्त्रीरत्न मुझे न प्राप्त होय तो मेरा राज्य निष्फन अर जीतव्य वृथा । लक्ष्मण नारदसे कहता भया-हे भगवान् ! आपने मेरे गुणकीर्तन किये अर उन दुष्टोंने आपसे विरोध किया, सो वे पापी प्रचण्डमानी महा चुद दुरान्मा कार्यके विचारसे रहित हैं उनका मान मैं दूर करूंगा । आप समाथानमें चित्त लायो तिहारे चरण मेरे सिर पर हैं अर उन दुष्टोंको तिहारे पायन पाडूगा ऐसा कहकर विराधित विद्याधरको बुलाया Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ पद्म-पुराण अर कही रत्नपुर ऊपर हमारी शीघ्र ही तयारी है तातै पत्र लिख सर्व विद्याधरोंको बुलावो रण का सरंजाम करायो। तब विराधितने सवोंको पत्र पठाये वे महासेना सहित शीघ्र ही आए लक्ष्मण रामसहित सव नृपों को लेकर रत्न पुरकी तरफ चले जैसे लोकपालों सहित इन्द्र चले, जीत जिनके सन्मुख है नाना प्रकारके शस्त्रोंके समूह कर आच्छादित करी है सूर्यको किरण जाने, सो रत्नपुर जाय पहुंचे उज्ज्वल छत्रकर शोभित, तब राजा रत्नरथ परचक्र ाया जान अपनी समस्त सेनासहित युद्धको निकसा, महातेज कर सो चक्र करोंत कुठार बाण खडग वरछी पाश गदादि आयुध निकर तिनके परस्पर महा युद्ध भया, अप्सरोंके समूह युद्ध देख योधावों पर पुष्पवृष्टि करते भए, लदमण परसेनारूप समुद्रके सोखिवेको वडवानल समान आप युद्ध करनेको उद्यमी भया, परचक्रके योधा रूप जलचरोंके क्षयका कारण सो लक्ष्मण के भयकर रथोंके तुरंगोंके हाथियोंके असवार सव दशों दिशाओंको भागे अर इन्द्रसमान है शक्ति जिनकी, ऐसे श्रीराम अर सुग्रीव हनूमान इत्यादि सब ही युद्धको प्रवर्ते इन योधाओंकर विद्याधरोंकी सेना ऐसे भागी जैसे पवन कर मेष पटल विलाय जावें तब रत्नरथ अर रत्नरथके पुत्रोंको भागते देख नारदने परम हर्षित होय ताली देय हंसकर कहा अरे रत्नरथके पुत्र हो ! तुम महाचपल दुराचारी मंदबुद्धि लक्ष्मण के गुणोंकी उच्चता न सह सके सो अब अपमानको पाय क्यों भागो हो तब उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया उसी समय मनोहर कन्या अनेक सखिगों सहित रथपर चढकर महा प्रेमकी भरी लाणके समीप आई, उसे देखकर लक्ष्मण क्रोधरहित भए, भ्रकुटी चढ रही थी सो शीतल वदन भए कन्या अानन्दकी उपजायनहारी, तब राजा रत्नरथ अपने पुत्रोंसहित मान तज नाना प्रकारकी भेट लेकर श्रीराम लक्ष्मणके समीप आया । राजा देश कालकी विधिको जाने है अर देखा है अपना अर इनका पुरुषार्थ जिसने । तब नारद सबके बीच रत्नरथको कहते भए-हे रत्नरथ अब तेरी क्या वार्ता ? तू रत्नरथ है ? कै रजरथ है वृथा मान करे हुता सो नारायण बलदेवों कहा मान अर ताली वजाय रत्नरथके पुत्रोंसे हंसकर कहता भया—हो रत्नरथके पुत्र हो ! यह वासुदेव जिनको तुम अपने घरमें उद्धत चेष्टा रूप होय मनमें आया सो ही कही अब पायन क्यों पडो हो ? तब वे कहते भए-हे नारद ! तिहारा कोप भी गुण करे जो तुम हमसे कोप किया तो बडे पुरुषोंका सम्बन्ध भया, इनका सम्बन्ध दुर्लभ है। या भांति क्षणमात्र वार्ता कर सत्र नगरमें गए । श्रीरामको श्रीदामा परणाई, रति समान है रूप जाका, उसे पायकर राम आनन्दसे रमते भए अर मनोरमा लक्ष्मणको परणाई सो साक्ष न मनोरमा ही है । या भांति पुण्यके प्रभाव कर अद्भुत वस्तुकी प्राप्ति होय है तातें भव्य जीव सूर्यसे अधिक प्रकाश रूप जो वीतरागका मार्ग उसे जानकर दया धर्मकी आराधना करो ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा वचनिकाविौं रामकू श्रादामाका लाभ अर लक्ष्मण मनोरामाका लाभ वर्णन करनेवाला त्राणवेवां पर्वा पूर्ण भया ।। ६३ ।। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौरानवे पर्व अथानन्तर और भी विजयार्ध के दक्षिण श्रेणी में विद्याधर हुने वे सब लक्ष्मण ने युद्ध कर जीते कैसा है युद्ध ? जहां नाना प्रकारके शस्त्रोंके प्रहार कर घर सेनाके संघट्ट कर अंधकार होय रहा है। गौतम स्वामी कहैं हैं — हे श्रेणिक ! वे विद्याक्षर अत्यंत दुःस्सह महा विषवर रुमान हुते सो सब राम लक्ष्मणके प्रतापकर मानरूप विष से रहित होय गए, इनके सेवक भए तिनकी राजधानी देवोंकी पुरी समान तिनके नाम कैयक तुझे कहूँ हूँ रविप्रभ, घनप्रभ, कांचनप्रभ, मेघप्रभ शिवमंदिर, गंधर्वगीति, अमृतपुर, लक्ष्मीधरपुर, किन्नरपुर, मेघकूट, मर्त्यगति, चक्रपुर, रथनूपुर, बहुरव, श्रीमलय, श्रीगृह, अरिंजय, भास्कर प्रम, ज्योतिपुर, चन्द्रपुर, गंधार, मलय, सिंहपुर, श्री विजयपुर, भद्रपुर, यक्षपुर, तिलक स्थानक इत्यादि बडे २ नगर सो सब राम लक्ष्मणने वश में किये । सब पृथ्वीको जीत, सप्त रत्न कर सहित लक्ष्मण नारायण के पदका भोक्ता होता भया, सप्तरत्नोंके नाम--चक्र शंख धनुष शक्ति गदा खड्ग कौस्तुभ मणि यर रामके चार हल मूशल रत्नमाला गदा । या भांति दोनों भाई प्रभेद भाव पृथिवीका राज्य करें, तब श्रेणिक गौतमस्वामीको पूछता भया - हे भगवान् ! तिहारे प्रसादसे रामलक्ष्मणका माहात्म्य विधिपूर्वक सुना अब लवण अंकुशकी उत्पत्ति र लक्ष्मण के पुत्रोंका वर्णन सुना चाहूं हूं सो श्राप कहो, तब गौतम गणधर कहते भए - हे राजन् ! मैं कहं हं सुन- राम लक्ष्मण जगत् में प्रधान पुरुष निःकंटक राज्य भोगते भए तिनके दिन पक्ष मास वर्ष महा सुख व्यतीत होंय जिनके बड़े कुलकी उपजी देवांगन समान स्त्री लक्ष्मणके सोलह हजार तिनमें आठ पटराणी कीर्ति समान लक्ष्मी समान रति समान गुणवती शीलवती अनेक कला में निपुण महासौम्य सुन्दराकार तिनके नाम प्रथम पटराणी राजा द्रोणमेत्रकी पुत्री विशल्या दुजी रूपवती जिससमान और रूपवान नाहीं तीजी वनमाला चौथी कल्याणमाला पंचमी रतिमाला छी जितपद्मा जिसने अपने मुख की शोभाकर कमल जीते सप्तमी भगवती आठवी मनोरमा अर रामके राणी आठ हजार देवांगना समान तिनमें चार पटराणी जग प्रसिद्ध कीर्ति तिनमें प्रथम जानकी दूजी प्रभावती तीजी रतिप्रभा चौथी श्रीदामा इन सत्रोंके मध्य सीता सुन्दर लक्षण ऐमी सोहै ज्यों तारानिमें चन्द्रकला घर लक्ष्मण के पुत्र अढाईसे तिनमें कैकोंके नाम कहूं हूं सो सुन ४६५ वृषभ धारण चन्द्र शरभ मकरध्वज हरिनाग श्रीधर मदन अच्युत यह महाप्रसिद्ध सुन्दर चेष्टा के धारक जिनके गुण निकर सव लोकनिके मन अनुरागी र विशिल्याका पुत्र श्रीधर अयोध्या में ऐसा सोहे जैसा आकास में चन्द्रमा अर रूपवती का पुत्र पृथ्वी तितक मो पृथिवीमें प्रसिद्ध अर कल्या मालाका पुत्र महाकल्याणका भाजन मंगल र पद्मावतीका पुत्र विमलप्रभ अर वनमालाका पुत्र अर्जुनप्रभ र अतिवीर्यकी पुत्रीका पुत्र श्रीकेशी र भगवतीका पुत्र सत्यकेशी र मनोरमाका पुत्र सुपार्श्वकीर्ति ये सब ही महा बलवान पराक्रमके धारक शस्त्र शास्त्र विद्या में प्रवीण इन सब भाइनिमें परस्पर अधिक प्रीति जैसे नख मांसमें दृढ कभी भी जुदा न होवे, तैसे भाई जुदे नाही, योग्य है चेष्टा जिनकी परस्पर प्रेमके भरे वह उसके हृदय में तिष्ठे वह बाके हृदयमें तिष्ठे जैसे स्वर्ग में देवर में तैसे ये कुमार अयोध्या पुरीमें रमते भए, जे प्रानी पुण्याधिकारा हैं पूर्व पुए उपार्जे . Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पराण महाशुभ चित्त हैं तिनके जन्मसे लेकर सकल मनोहर वस्तु ही आय मिले हैं रघुवंशिनिके साहे चार कोटि कुमार महा मनोज्ञ चेष्टाके थारक नगरके वन उपवनादिमें महा मनोज्ञ चेष्टासहित देवनि समान रमते भये पर राम लक्ष्मण के सोलह हजार मुकुटबन्ध राजा सूर्य हूते अधिक तेजके धारक सेवक होते भये।।। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकावि राम लक्ष्मणकी ऋद्धि वर्णन करनेवाला चौरानवेवां पर्व एग भया ॥१४॥ अथानन्तर राम लक्ष्मणके दिन अति आनन्दसे व्यतीत होय हैं धर्म अर्थ काम ये तीनों इनके अविरुद्ध होते भये, एक समय सीता सुखसे विमान समान जो महिल तामें शरदके मेघस. मान उज्ज्वल सेज पर सोवती थी सो पिछले पहिर वह कमलनयनी दोय स्वप्न देखती भई बहुरि दिव्य वादित्रनिके नाद सुन प्रतिबोधकों प्राप्त भई निर्मल प्रभात भए स्नानादि देह क्रिया कर सखिन सहित स्वामीपै गई जाय कर पूछती भई-हे नाथ ! मैं आज रात्रिमें स्वप्न देखे ति. नका फल कहो, दोय उत्कृष्ट अष्टापद शरदके चन्द्रमा समान उज्ज्वल अर क्षोभ को प्राप्त भया जो समुद्र ताके शब्द समान जिनके शब्द कैलाशके शिखर समान सुन्दर सर्व प्राभरण कर मंडित महा मनोहर हैं केश जिनके अर उज्ज्वल हैं दाढ जिनकी सो मेरे मुख में पैठे पर पुष्पक विमानके शिखरसे प्रबल पवनके झकोर कर मैं पृथ्वीमें पड़ी तब श्रीरामचन्द्र कहते भये--हे मुन्दरि ! दीय अष्टापद मुखमें पैठे देखे ताके फलकर तेरे दीय पुत्र होंयगे पर पुष्पक विमानसे पृथी में पड़ना प्रशस्त नाही सो कछु चिंता न करो, दानके प्रभासे क्रूर ग्रह शांत होवेंगे। अथानन्तर वसन्तरूपमयी राजा पाया तिलक जातिके वृक्ष फूले सोई उकै वपतर भर नीम जातिके वृत फूले बेई गजराज तिनपर आरूढ अर आंध मौर आये सो मानों वसन्तका धनुष अर कमल फूले सो वसन्तके बाण पर केसरी फले बेई रतिराजके तरकश अर भ्रमर गुजार करे हैं सो मानो निर्मल श्लोकोंकर बसन्त नृपका यश ग वै हैं अर कदम् फूले तिनकी सुगन्ध पवन आवै है सोई मानो बसन्त नृपके निश्वास भये अर मालतीके फल फूले सो मानों बसन्त शीतकालादिक अपने शत्रुनि को हसे हैं पर कोयल मिट वाणी बोलें है मो मानों वसन्त राजाके वचन हैं। या भांति वसन्त समय नृपतिकीती लीला धरे आया । बसन्तकी लीला लोक. निको कामका उद्वेग उपजावनहारी है बहुरि यह वसन्त मानों सिंह ही है । श्राकोट जाति वृक्षादिके फूल बेई हैं नख जाके अर कुखक जातिके वृक्षनिके फूल आए तेई भए दाढ जाके अर महारक्त अशोकके पुष्प बेई हैं नेत्र जाके पर चंच न पल्लव बेई हैं जिह्वा जिसकी ऐसा बसन्त केसरी आय प्राप्त भया लोकोंकी मनकी वृत्ति सोई भई गुफा तिनमें पैठा महेंद्रनामा उद्यान नंदनवन समान सदा ही सुन्दर है सो बसन्त समय अति सुन्दर होता भया, नाना प्रकारके पुष्पनिको पाखुडी अर नाना प्रकारकी कंपल दक्षिण दिशिकी पवनकर हलती भई सो मानों उन्मत्त भई घूमें हैं अर वापिका कमलादिक कर आच्छादित पर पक्षिनिके समूह नाद करे हैं अर लोक सिवाणोंपर तथा तीर पर बैठे हैं अर हंस सारस चकवा कौंव मनोहर शब्द करे हैं पर कारंड बोल रहे है इत्यादि मनोहर पक्षीनिके मनोहर शब्दकर रागी पुरुषनिको राग उपजाचे हैं, पक्षी जल में पड़े हैं Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिचानववा पर्श अर उठे हैं तिनकर निर्मल जल कलोल रूप होय रहा है जल तो कमलादिक कर भरा है अर स्थल जो है सो स्थल पमादिक पुष्पनि कर भरे हैं और आकाश पुष्पनिकी मकरंद कर मण्डित होय रहा है, फूलनिके गुच्छे अर लता वृक्ष अनेक प्रकारके फूल रहे है, वनस्पति की परमशोभा होय रही है ता समय सीता कछुगर्भ के भारकर दुर्बलशरीर भई तब राम पूछते भये-हे काँते ! तेरे जो अभिलाषा होय सो पूर्ण करू। तब सीता कहती भई-हे नाथ ! अनेक चैत्यालयनिके . दर्शन करवेकी मेरे संछा है, भगवानके प्रतिबिंन पांचो यणके लोकमें मंगलरूप तिनको नमस्कार करवेको मेरा मनोरथ है, स्वर्ण रत्नमई पुष्पनिकर जिनेंद्र को पूज्जू यह मेरे महाश्रद्धा है अर कहा बांछु ? ये सीताके वचन सुनकर राम हर्षित भये, फूल गया है मुखकमल जिनका राजलोकमें विराजते हुने सो द्वारपालीको बुलाय आज्ञा करी कि हे भद्र ! मंत्रिनिको आज्ञा पहुंचाको जो समस्त चैत्यालयनिमें प्रभावना करें श्रर महेंद्रोदयनाम उद्यान में जे चैत्यालय है तिनकी शोभा करा अर सर्व लोकको आज्ञा पहुंचायो कि जिन मंदिर में पूजा प्रभारना आदि अति उत्सब करें श्रर तोरणध्वजा घंटा झालरी चंदोवा सायवान महामनोहर बस्त्रनिके बनावें तथा सुन्दर सगस्त उपकरण देहुग चढावें, लोक समस्त पृथिवी में जिनपूजा व भर कैलाश सम्मेद शिखर' पावापुर चंगापुर गिरनार शत्र जय मांगीतुगी आदि निर्वाश क्षेत्रनिमें विशेष शोभा करावो कल्याण दोहला सीताको उपजा है सो पृथिवीमें जिनपूजाकी प्रवृत्ति करो। हम सीतासहित धर्म क्षेत्रनिमें विहार करेंगे। यह रामकी आज्ञा सुन वह द्वारपाली अपनी टौर अन्यको राखकर जाय मंत्री को आज्ञा पहुंदावती भई अर वे स्वामीकी आज्ञा प्रमाण अपने किंकर निको प्राज्ञा करते भए । सर्व चैत्यालयनिमें शोभा कराई अर महा पर्व की गुफाओं के द्वार पूर्ण कलश थापे, मोतिनके हारनिकर शोभित अर विशाल स्वर्ण की भीतिमें मणिनिक चित्राम रचे, महेंद्रोदय नाम उद्यान की शोभा नदन बन की शोभा समानकर अत्यन्त निर्मल शुद्धमणिनिक दर्पण थंभमें थापे अर झरोखनिके मुख में निर्मल मोतिनिक हार लटकाये सो जलनीझरना समान सो हैं पर पांच प्रकारके रत्ननिका चूर्णकर भूमि मांडित करी अर सहस्रदल कमल तथा नानाप्रकारके कमल तिनकर शोभा की अर पांच वर्णके मणिनिके दौंड तिन में महा सुन्दर वस्त्रनिके धजा लगाय मदिरनिके शिखर पर चढ़ाई, अर नानाप्रकार के पुषनि की माला जिनपर भ्रमर गुजार करें ठौर २ लुबाई हैं अर विशाल बादिवशाला नाटय शाला अनेक रची हैं तिनकर वन अति शोभै है मानों नदन बन ही है तब श्रीरामचन्द्र इंद्रसमान सब नगर के लोकनियर युक्त समस्त राजलोकनिमदिन वन में पधारे। मोता अा यार गजार प्रारू कैले सोहें ? जैसे शचीसहिन इंद्र ऐराचत गजार चढे सोहै अर लक्ष्मण भी परम ऋद्धिको धरे बन जाते भए अर और हू सब लोक अानन्दसे वनमें गये, अर सवनि के अन्न पान वनही में भया जहां महा मनोग्य लतानिके मडप अर केलिझे वृक्ष तहां राणी तिष्ठी अर और ह लोक यथायोग्य कामें मिष्टे, राम हाधीत उतर कर निर्मल जलका भरा जो सरोवर नानाप्रकारके कालनिकर संयुक उसमें रमते भए जसे इन्द्र Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ पद्म-पुराण क्षीरसागरमें रमै तहां क्रीडाकर जलतै बाहिर आये, दिव्य सामिग्रीकर विधिपूर्वक सीतासहित जिनद्रकी पूजा करते भए, राम महा सुन्दर अर वनलक्ष्मी समान जे बल्लभा तिनकर मडित ऐसे सोहते भये मानो मूर्तिवन्त वसत ही है। आठ हजार राणी देवांगना समान तिन सहित राम ऐसे सोहैं मानों ये तारानिकर मंडित चन्द्र ही हैं अमृतका आहार अर सुगधका विलेपन मनोहर से ज मनोहर आसन नानाप्रकारके सुगंध माल्यादिक स्पर्श रस गध रूप शब्द पांचों इन्द्रियनिक विषय अति मनोहर रामको प्राप्त भए, जिनमंदिरमें भलीविधि नृत्य पूजा करी, पूजा प्रभावनायें राम के अति अनुराग होता भया, सूर्यहूते अधिक तेजके धारक राम देवांगनासमान सुन्दर जे दारा तिन सहित कैयक दिन सुखसे वनमें तिष्ठे। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै जिनंद्रपजाकी सीताकू अभिलाषा गर्भका प्रादुर्भाव गर्णन करनेवाला पिचाणवेवां पर्वा पूर्ण भया ।। १५ ॥ अथानन्तर प्रजा के लोक रामके दर्शन की अभिलापा कर वनही में आये जैसे तिसाये पुरुष सरोवरपै आयें, तब बाहिरले दरवानने लोकोके श्रावने का वृत्तान्त द्वारपालीयोंसे कहा। वे द्वारपाली भीतर राजलोकमें रामसे जायकर कहती भई कि-हे प्रभो ! प्रजाके लोक पाके दर्शनको आये है अर सीताके दाहिनी आंख फुरकी, तब सीता विचारती भई-यह आंख मुझे क्या कहे है ? कछू दुःखका आगमन बतावै है। आगे अशुभकं उदय कर समुद्र के मध्यमें दुख पाये तो हू दुष्ट कर्म संतुष्ट न भया क्या और भी दुख दीया चाहे है ? जो इस जीवने रागद्वेषके योग कर कर्म उपार्जे हैं तिन का फल ये प्राणी अवश्य पाये है कार कर निधारा न जाय तय सीता चिंतावती होय और राणीनिसे कहती भई-मेरी दाहिनी आंख फाकनेका फल कहो! तब एक अनुमतिनामा राणी महाप्रवीण कहती भई-हे देवि ! या जीवन जे कर्म शुभ अथवा अशुभ उपार्जे हैं वे या जीव को भले बुरे फल के दाता हैं, कमसीको काल कहिये अर विधि कहिये अर दैव कहिये ईश्वर भी कहिये, सब संसारी जीव कर्मनिके आधीन हैं, मिद्ध परमेष्ठी कर्मनिसे रहित हैं। बहुरि गुणदोषकी ज्ञाता राणी गुणमाला सीताको रुदन करती देख धीर्य बंधाय कहती भई-हे देवी! तुम पतिके सबनिमें श्रेष्ठ हो, तुमको काहू प्रकार दुःख नाहीं अर और राणी कहती भई-बहुत विचारकर कहा ? शांतिकर्म करो, जिनेन्द्र का अभिषेक अर पूजा करायो अर किम इच्छक दान देवो जाकी जो इच्छा होय सो ले जाबो, दान पूजाकर अशुभका निवारण होय है तातें शुभ कार्यकर अशुभको निवारो । या भांति इन्होंने कही तर सीता प्रसन्न भई घर कही-योग्य है, दान पूजा अभिषेक श्रर तप ये अशुभके नाशक हैं दानधर्भ विघ्नका नाश:: वैरका नाशक है पुण्यका अर यशका मूल कारण है। यह विचारकर भद्रकलश नामा भंडारीको बुलाय कर कही-मेरे प्रसूति होय तोलग फिमिच्छक दान निरन्तर देवो । तर भद्रशालाराने कही जो आप आज्ञा करोंगी सोही होयगा, यह कहकर भंडारी गया अर जिनपूजादि शुभक्रिया प्रवरता, जितने भगवानके चेत्यालय है तिनमें नाना प्रकार के उपकरण चढाये अर सब चेत्या. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियानवेधा पर्व लयनिमें अनेक प्रकारके वादिन बजवाये मानों मेघ ही गाजै हैं अर भगवानके चरित्र पुराण आदिके ग्रंथ जिनमन्दिरनिमें पधराये पर त्रैलोक्यके पाठ पमो परणके पाठ द्वीप समुद्रांतके पाठ प्रभुके मन्दिरों में पथराये पर दूध, दही, घृत, जल, मिष्टानके भरे कलश अभिषेककों पठाये अर सब खोजाओं में प्रधान जो खोजा सो वस्त्राभूपण पहरे हाथी चढा नगरमें घोपणा फेरे जाको जो इच्छा होय सो ही लेयो । या भांति विधिपूर्वक दान पूजा उत्सव कराये, लोक पूजा दान तप आदिमें प्रवर्ते पापबुद्धिरहित समाधानको प्राप्त भये । सीता शांतचित्त धर्ममार्गमें अनुरक्त भई अर श्रीरामचंद्र मण्डपमें आय तिष्ठे । द्वारपालने जे नगरीके लोक आये हुते ते रामसे मिलाये । स्वर्ण रत्न कर निर्मापित अद्भुत सभाको देख प्रजाके लोक चकित होय गये, हृदयको आनन्दके उपजाबनहारे राम तिन को देखकर नेत्र प्रसन्न भये । प्रजाके लोक हाथजोड नमः स्कार करते भये, कांपे है तन जिनका अर डरे है मन जिनका । तब राम कहते भए हे लोको ! तिहारे आगमका कारण कहो । तब विजय सुराजि मधुमान वसुन पर काश्या पिंगल काल क्षेम इत्यादि नगरके मुखिया मनुष्य निश्चल होय चरण निकी तरफ चौंके, गल गया है गर्व जिनका राजतेजके प्रताप कर कछु कह न सके । यद्यपि चिरकालमें सोच सोच कहा चाहें तथापि इनके मुखरूप मंदिरसे पाणीरूप वधू न निकसे । तब समने बहुत दिलासा कर कही-तुम कौन अर्थ आये हो सो कहो । या भांति कही तोभी वे चित्राम कैसे होय रहे कछु न कहैं लज्जारूप फांसकर बंधा है कंठ जिनका अर चलायमान हैं नत्र जिनके जैसे हिरण के बालक व्याकुलचित्त देखें तैसे देखें । तब तिनमें मुख्य विजय नाम पुरुष चलायमान है शब्द जिसका सो कहता भया हे देव ! अभयदानका प्रसाद होय । तब रामने कही-तुम काहू बातका भय पत करो तिहारे चित्त में जो होय सो कहो, तिहारा दुःख दूरकर तुमको साता उपजाऊंगा, तिहारे प्रोगन न लूमा, गुण ही लूगा जैसे मिले हुए दूध जल तिनमें जलको टार हम दधही पावे है । श्रीरामने अभयदान दीया तो भी अतिकप्टसे विचार २ धीरे स्वर कर विजय ह थ जोड सिर सिवाय वहना भया कि हे नाथ नरोत्तर ! एक वीनती सुनो-अब सकल प्रजा मर्यादारहित प्रवत है । यह लोक स्वभा. वहीसे कुटिल हैं अर एक दृष्टांत प्रगट पावें तब इनको अकार्य करने में कहा भय ? जैसे बानर सहज ही चपल है अर महा चपला जो यंत्रपिंजरा उसपर चढा तब कहा कहना । निर्बलकी योजनधन स्त्री पापी बलबंन छिद्र प य बनातार हरे हैं पर कोईयक शीलवती विरहकर पराये घर अत्यंत दुखी होय हैं तिनको कोईयक सहाय पाय अपने घर ले आवे हैं सो धर्मकी मर्यादा जाय है, यह न जाय सो यत्न करो, प्रजाके हितकी वांछा करो जिस विधि अजाका दुख टरे सो करो या मनुष्य लोसमें तुम बडे राजा हो तुम समान अर कौन तुम ही जो प्रजाकी रक्षा न करोगे तो कौन करेगा। नदियोंके तट तथा वन उपवन कूप वापिका सरोवर के तीर माम ग्राममें घर घर में सभामें एक यही अपवाद की कथा है और नाही कि श्रीराम राजा दशरथके पुत्र सर्व शास्त्र में प्रवीण सो रावण सीताको हर ले गया ताही घरमें ले आये तब औरोंको कहा दोष है ?जो डेब हरुष करें सो सब जगतको प्रमाण जिस रीति राजा प्रवर्ते उसही रीति प्रजा प्रवर्ने Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म पुरण "यथा राजा तथा प्रजा'यह वचन है। या भांति दुष्टचित्त निरंकुश भए पृथिवी में अपवाद करे हैं तिनका निग्रह करो हे देव ! आप मर्यादाके प्रवर्तक पुरुषोत्तम हो, एक यही अपवाद, तिहारे राज्यमें न होता तो तिहारे यह राज्य इन्द्रसे भी अधिक है। यह वचन विजय के सुनकर क्षणएक रामचन्द्र वि. पादरूप मुद्गरके मारे चलायमान चित्त होय गए चित्त में चिंतवते भए-यह कौन कष्ट पडा मेरा यशरूप कमलोंका वन अपयशरूप अग्निकर जलने लगा है जिस संताके निमित्त मैं विरहका कष्ट सहा सो मेरे कुलरूप चन्द्रमाको मलिन करे है अयोध्यामें मैं सुख हे निमित्त पाया अर सुग्रीव हनूमानादिकसे मेरे सुभट सो मेरे गोत्ररूप कुमुदिनीको यह सीता मलिन करे है। जिसके निमित्त मैंने समुद्र तिर रणसं. ग्राम कर रिपुको जीता सो जानकी मेरे कुलरूप दर्पण गोकलुपित करें है अर लोक कहे हैं सो सांच हैदुष्ट पुरुपके घर में तिष्ठी सीता मैं क्यों लाया अर सीताके मेरा अतिप्रेम जिसे क्षणमात्र न देखू तो विरहकर आकुलता लहूं पर वह पतिव्रता मोसे अनुरक्त उगे कैसे तज जो सदा मेरे नेत्र अर उरमें वस महागुणवंती निर्दोष सीता सती उसे कैसे तजू अथवा स्त्रियोंके चित्तकी चेष्टा कोन जाने जिनमें सब दोषोंका नायक मन्मथ बसे है धिकार स्त्रीके जन्मको सर्वदोपोंकी खान श्रालापका कारण निर्मल कुल में उपजे पुरुषोको कर्दम समान मलिनताका कारण है, अर जेसे कीच में फसा मनुष्य तथा पशु निकस न सके तैसे स्त्रीके रागरूप पंकमें फसा प्राणी निकस न सके, यह स्त्री समस्त बलका नाश करणहारी है अर रागका आश्रय है अर बुद्धिको भ्रष्ट करे है पर सत्यते पटकवेको खाई समान है निर्वाण सुखकी विघ्न करणहारी ज्ञानकी उत्पत्ति निवारणहारी भवनमरणका कारण है भस्मसे दवी अग्निसमान दाहक हे डांभकी सूई समान तीक्ष्ण है देखने मात्र मनोव्य परन्तु अपवादका कारण ऐपी सीता उसे में दुख दूर करके निमित्त तजू जैसे सर्प कांपलीको तुजे फिर चिंतये हैं जिसकर मेरा हृदय तीत्रस्नेह के बंधनकर वशीभूत सो कैसे तजी जाय, यद्यपि मैं स्थिर हूं तथापि यह जानकी निकटवर्तिनी अग्निकी ज्वला समान मेरे मनको भाताप उपनाये है अर यह दूर रही भी मेरे मनको मोह उपनाये जा चन्द्ररेखा दही से कुमुदिनी को विकमित करे, एक ओर लोकापवादका भय अर एक और सीताके भार स्नेह का भय अर सग कर विकल्पक सागरमें पडा हूं अर सीता सर्व प्रकार देवांगनासे भी श्रेष्ठ महापतित्रता सती शीलरूपिणी मोसे सदा एकचित्त उसे कंसे तजू जो न तजू तो अपकी प्रगट होय है इस पृथिवी में भायमान और दीन नाही स्नेह घर अपवादका भय उसमें लगा है मन जिसका, दोनोमी मित्रताका लीव विस्तार वेगकर वशीभूत जो सम सो अपवादरूप तीन ऋरको प्राप्त भए, सिंहकी है जा सके ऐसे राम तिनके दोनों बातोंकी अति कुलतारूप चिंता असानाका कारण दुस्सह आताग उसजापती भई जैसे जे ठके मध्यान्हका सूर्य दुस्सह दाह उपजावे ॥ इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी आपा वनिकाविण राम लोकापवादका चिंताका करनेवाला छियानवेत्रां पर्व पूर्ण भया ।। ६६ ।। अथानन्तर श्रीराम एकाग्र चित्तकर द्वारवाल को लक्ष्मण के बुनाचनेकी आज्ञा करते भये सो द्वारपाल लक्ष्मण गया आज्ञा प्रमाण तिनको कही, लवण द्वारपालक वचन सुनकर तत्क्षाल तेज तुरंग पर चाह सम निकट आया हाथ जोड नमस्कारकर सिंहासन के नीचे पृथिवीपर Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतानोवां पर्न बैठा रामके चरणों की ओर है दृष्टि जाकी राम उठ कर आधे सिंहासन पर ले बैठे, शत्रुघ्न आदि सब ही राजा पर विराधित आदि सत्र ही विद्याधर यथा योग्य बैठे पुरोहित श्रेष्ठी मंत्री सेनापति सब ही सभामें तिष्ठे तब क्षण एक विश्रामकर रामचन्द्रने लक्ष्मणसे लोकापवादका वृत्तांत कहा, सुनकर लक्ष्मण क्रोध कर लालनेत्र भये अर योधावों को श्राज्ञा करी अवार मैं उन दुर्जनों के अन्त करवेको जाऊंगा पृथिवीको मृषावादरहित करूंगा जे मिथ्या वचन कहै हैं तिनकी जिह्वा छेद करूगा उपहारहित जो शील व्रतकी धरणहारी सीता वाकी जे निन्दा करें हैं तिनका क्षय करूगा । या भांति लक्ष्मण महाक्रोधरूप भये नत्र अरुण होय गये तब श्रीराम इन वचनोंसे शांत करते भये कि-हे सौम्य ! यह पृथिवी सागर पयंत उसकी श्रीऋपभदेवने रक्षा करी बहुरि भरतने प्रतिपालना करी अर इक्ष्वाकुवंशके तिलक भये जिनकी पीठ रण में रिपत्रोंने न देखी जिनकी कीर्तिरूप चान्दनीसे यह जगत शोभित है सो अपने वशमें अनेक यशके उपजावनहारे भए अब मैं क्षणभर पाप रूप रागके निमित्त यशको कैसे मलिन करू, अल्प भी अकीर्ति जो न टारिये तो वृद्धिको प्राप्त होय अर उन नीतिवान पुरुषों की कीर्ति इन्द्रादिक देवोंसे गाईये है । ये भोग वि. नाशीक तिनसे क्या जिनसे अकीर्ति रूप अग्नि कीर्तिरूप वनको वाले यद्यपि सीता सती शीलवन्नी निर्मल चित्त है तथापि इसको घरमें राखे मेरा अपवाद न मिटे यह अपवाद शस्त्रादिकसे हता न जाय यद्यपि सूर्य कमलोंके वनका प्रफुल्लित करणहारा है अति निमिरका हरणहारा है तथापि रात्रिके होते सूर्य अस्त होय है तैसे अपवाद रूप रज महा विस्तारको प्राप्त भई तेजस्वी पुरुषोंकी कांतिकी हानि करे है सो यह रज निवारनी चाहिए । हे भ्रान ! चन्द्रमा समान निर्मल गोत्र हमारा अकीर्तिरूप मेघमालासे आच्छादा जाय है सो न आछादा जाय यही मेर यत्न हैं जैसे सूके इथनके समूहमें लगी आग जलसे बुझाये बिना वृद्धिको प्राप्त होय है तैसे अकीर्तिरूप अग्नि पृथिवी में विस्तर है सो निवारे विना न मिटे यह तीर्थ का देवों का कुल महाउज्जल प्रकारा रूप है याको कलंक न लगे सो उपाय करो यद्यपि सीता महा निर्दोप शील नती है तथापि में तजूगा अपनी कीर्ति मलिन न करूंगा। तब लक्ष्मण कहता भया कैपा है लदमण ? रामके स्नेहमें तत्पर है बुद्धि जिसकी । हे देव ! सीताको शोक उपजावना योग्य नाही, लोक तो मुनियोंका भी अपवाद करे है, जिन धर्म का अपवाद ऋरे हैं, तो क्या लोकापवादसे धर्म तजिये है ? तैसे लोकापबाद मात्र मे जान की कैपे तजिरे जो सब सतियोंके सीस विराज है कार प्रकार निंदाके योग्य नाहीं अर पापी जीव शीलवन्त प्राणियों की निन्दा करे हैं क्या तिनके वचनसे शीलानोंको दोष लागे है वे निर्दोष ही हैं, ये लोक अविवेकी हैं इनके वचन में परमार्थ नाहीं विपकर दुषित हैं नेत्र जिन के वे चन्द्रमाको श्यामरूप देखे हैं परन्तु चन्द्रमा खेत ही है श्याम नाहीं तैने लोकोंके कहे निकलंकियों को कलंक नाहीं लगे हैं जे शोलसे पूर्ण हैं तिनको अपना आत्मा ही साक्षी है पर जीवनिका प्रपोजन नाहीं । नीव जीवनिक श्रावादकरि पण्डिा विवेकी क्रोधको , न प्राप्त होंय जैसे स्वानके भौंकनेते गजेन्द्र नाही कोप करे हैं । ये लोक विचित्रगति हैं तरंग समान है चेष्टा जिनकी परदोष कथवे में आसक्त सो इन दुष्टोंका स्वयमेव ही निग्रह होयगा जैसे कोई Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण अज्ञानी शिलाको उपाडकर चन्द्रमाकी ओर वगाय (फेके) बहुरि मारा चाहे सो सहन ही आप निस्सन्देह नाराको प्राप्त होय है जो दुष्ट पराये गुणनिको न सहसके अर सदा पराई निंदा करें हैं सो पापकर्मी निश्वयसेती दुर्गतिको प्राप्त होय हैं जब ऐसे वचन लक्ष्मणने कहे तब श्रीरामचन्द्र कहते भए-हे लक्ष्मण ! तू कहे है सो सब सत्य है तेरी बुद्धि रागद्वेपरहित अति मध्यस्थ महाशोभायमान है परन्तु जे शुद्ध न्यायमार्गी मनुष्य हैं वे लोकविरुद्ध कार्यको तजें हैं जाकी दशोंदिशामें अकीर्तिरूप दावानलकी ज्याला प्रज्वलित है ताको जगतमें कहा सुख पर कहा ताका जीतव्य ? अनर्थ का करणारा जो अर्थ ताकर कहा अर विषकर संयुक्त जो औषधि ता. कर कहा ? अर जो बलवान होय जीवनिकी रक्षा न करे शरणागतपालक न होय ताके बलकर कहा पर जाकर आत्मकल्याण न होय ता आचरणकर कहा, चारित्र सोई जो आत्महित करे अर जो अध्यात्मगोचर आत्माको न जानै ताके ज्ञानकर कहा, अर जाकी कीर्तिरूपवधू अपवाद रूप बलवान हरै ताका जन्म प्रशस्त नाहीं ऐसे जीवन मरण भला, लोकापवादको बात तो दूर ही रहो, मोहि यह महा दोष है जो पर पुरुषने हरी सीता मैं बहुरि घर में लाया । राक्षस के भवन में उद्यान तहां यह बहुत दिन रही अर ताने दूती पठाय मनवांछित प्रार्थना करी पर समीप आय दष्ट दृष्टि कर देखी अर मनमें आये सो वचन कहे ऐसी सीता मैं घरमें ल्याया या समान अर लजा कहा, सो मूहोंसे कहा न होय, या ससारकी मायामें मैं हु मूह भया। या भांति कहकर आज्ञा करी जो शीघ्रही कृतांतबक्र सेनापतिको बुलायो, यद्यपि दो वालकनि के गर्भ सहित सीता है तोह याहि तत्काल मेरे घरते निकासो यह आज्ञा करी। तब लक्ष्मण हाथ जोड नमस्कारकर कहता भया-हे देव ! सीताको तजना योग्य नाी, यह राजा जनक की पुत्री मा शीलवती जिनधर्मिणी कोमल वरणकमल जाके महा सुकुमार भोरी सदा सुखिया अोली कहां जायगी ,गर्भ के भारकर संयुक्त परम खेदको धरे यह राजपुत्री तिहारे तजे कोनो शरण जायगी अर आपने देखवे की कही सो देखिबेकर कहा दोष भया, जसे जिनराजके निकट चाया द्रव्य निर्माल्य होय है ताहि देखिए है परन्तु दोष नाही अर अयोग्य अभक्ष्य वस्तु आंखिनिस देखिए हैं परन्तु देखे दोष नाही, अंगीकार किये दोष है ताते हे नाथ, मोपर प्रसन्न होवो, मेरी बीनती सुनो महा निर्दोष सीता सती तुममें एकाग्र है चित्त जाका ताहि न तजो तब राम अत्यन्त विरक्त होय क्रोधंमें प्रागए अर अप्रसन्न होय कही-लक्ष्मण अब कछू न कहना, मैं यह अब. श्य निश्चय किया शुभ होवे अथवा अशुभ होवे,निमानुपवन जहां मनुष्यका नाम न सुनिये वहां द्विती. यसहायरहित अकेली सीताको तजो अपने कर्मके योगकर जीवो अथवा मरो एक क्षणमात्र हू मेरे देशमें अथवा नगरमें काहू के मन्दिरमें मत रहो वह मेरी अपकीर्तिको करणारी है, कृतांतवकको बुलाया सो चार घोड़े का रथ चहा बडी मेना सहित जाका बंदो विरद बखाने हैं लोक जप जय कार करें हैं सो राजमार्ग होय आया जापर छत्र फिरता अर धनुष चढाय ववसर पहिरे कुएड न पहिरे ताहि या विधि आवता देख नगर के नर नारी अनेक विकल्पकी वार्ता करते भए । आज यह सेनापति शीघ्र दौडा जाय है भो कौन पर बिदा होयगा आप कोन पर कोप भए हैं, आज Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतानदेवां पर्ण काहू का कछू विगाड है ज्येष्ठ के सूर्य समान ज्योति जाकी काल समान भयंकर शस्त्रनिके समूहके मध्य चलाजाय है सो आज न जानिये कौन पर कोप है, या भांति नगर के नर नारी वार्ता करै हैं अर सेनापति रामदेवके समीप आया स्वामीको सीस नयाय नमस्कार कर कहता भया-हे देव, जो आज्ञा होय सो ही करू। तब रामने कही, शीघ्र ही सीताको ले जायो अर मार्गमें जिनमंदिरनिका दर्शन कराय सम्मेद शिखर अर निर्वाण भूमि तथा मार्गके चैत्यालय तहां दर्शन कराय वाकी आशा पूर्ण कर अर सिंहनाद नामा अटवी जहां मनुष्यका नाम नहीं तहां अकेली मेल उठ पावो । तब ताने कही जो आज्ञा होयगी सोही होयगा कछू वितर्क न करो अर जानकीपै जाय कही-हे माता ! उठो, रथमें चढो, चैत्यालयनिकी बांछा है सो करो । या भांति सेनापतिने मधुरस्थर कर हर्ष उपजाया तब सीता रथ चढी, चहते समय भगवानको नमस्कार किया अर यह शब्द कहा जो चतुर्विध संव जयवंत होवै। श्रीरामचन्द्र महा जिनधर्मी उत्तम आचरणमें तत्पर सो जयवंत होहु अर मेरे प्रमादसे असुन्दर चेष्टा भई होय सो जिनधर्म के अधिष्ठाता देव क्षमा करो अर सखी जन लार भई तिन से कही तुम सुखसे तिष्ठो, मैं शीघ्रही जिनचैत्यालयनिके दर्शनकर आऊ हूं । या भांति तिनसे कही पर सिद्धनिको नमस्कार कर सीता आनन्दसे रथ चढी सो रत्न स्वर्ण का रथ तापर चढी ऐसी सोहती भई जैसी विमान चढी देशांगना मोहै वह रथ कृतांतवक्रने चलाया सो ऐसा शीघ्र चलाया जैसा भरत चक्रवर्तीका नलाया बाण चले मो चलते समय सीताको अपशकुन भए, सूके वृक्षपर काग बैठा विरस शब्द करता भया पर माथा धुनता भया र सम्मुख स्त्री महा शोक की भी सिरके बाल वखरे रुदन करती भई इत्यादि अनेक अपशकुम भए तो पुणि सीता जिनभक्तिमें अनुरागिणी निश्चलचित्त चली गई, अपशकुन न गिने पहाडनिके शिखर कंदरा अनेक वन उपवन उलंघ कर शीघ्र ही रथ दूर गया गरुड समान वेग जाका ऐसे अश्यों कर युक सफेद धना कर विराजित सूर्यके रथ समान रय शीघ्र चला । मनोरथ समान वह रथ पर चढी रामी राणी इन्द्रःणी समान सो अति सोहती भई । कृनांतवक्र सारथीने मार्गमें सीताको नाना प्रकारकी भूमि दिखाई ग्राम नगर वन अर कमलसे फूल रहे हैं सरोवर नानाप्रकारके वृक्ष, कहूं सघन वृक्षनि कर वन अन्धकार रूप है । जैसे अन्धेरी रात्रि मेघमाला कर मंडित महा अन्यकार रूप भासे कछू नजर न आवै श्रर कहूं विरले वृक्ष हैं सघनता नाहीं तहां कैसा भासे है जैसा पंचम कालमें भरत ऐरावत क्षेत्रनिकी पृथ्वी विरले सत्पुरुपनिकर सोहै अर कहूं वनी पतझड होय गई है सो पत्ररहित पुष्प फलादिरहित छायारहित कैसी दीखे जैसे बड़े कुलकी स्त्री विधा । भावार्थ-विवाहु पुत्र रूपी पुष्प फलादि रहित हैं अर ग्राभरण तथा सुन्दर वस्त्रादि रहित अर कांतिरहित हैं शोभा रहित हैं तैनी वनी दीखे है अर कहूं एक वनमें सुन्दर माधुरी लता आम्रके वृक्षसे लगे ऐसी सोहै हैं जैनी चाल वेश्या अाम्रम् लगि अशोककी बांछा करे है अर कैक वृक्ष दावानलकर जर गये हैं सो नाहीं सोहै हैं जैसे हृदय क्रोधरूप दावानल कर जरा न सोहै अर कहूं एक सुन्दर पल्लवनिके समूह मंद पवनकर हालत साह है माना Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण बसन्तराजके आयवेकर वनपंक्ति रूप नारी अानन्दसे नृत्य करे हैं अर कहीं एक भीलनिके समूह के कलकलाट शब्द कर मृग दूर भाग गए हैं अर पक्षी उड गए हैं और कहीं धनी अल्प है जल जिनमें ऐसी नदी तिनकर कैसी भासे है जैसी सन्तापकी भरी विरहनी नायका असुवन कर भरे नेत्र संयुक्त भासे अर कहूं एक वनी नाना पक्षिनिक नादकर मनोहर शब्द करे है श्रर कहूं एक निर्मल नीझरनावोंके नादकर शब्द करती तीव्र हास्य करे है पर कहूं एक मकरंदमें अति लुब्ध जे भ्रमर तिनके गुजार कर मानों वनी वसन्त नृपकी स्तुति ही करे है अर यहूं एक वनी फलनि कर नम्रीभूत भई शोभाको धरे है जैसे सफल पुरुष दातार नम्रीभृत भये सोह है पर कहूं एक वायुकर हालते जे वृक्ष तिनकी शाखा हाले हैं अर पल्लव हाले हैं पर पुष्प पडे हैं सो मानों पुष्पवृष्टि ही करे हैं। इत्यादि रीतिको धरे वनी अनेक कर जीवनिकर भरी ताहि देखनी सीता चली जाय है राममें है चित्त जाका मधुर शब्द सुनकर विचारती भई मानों रामके दुदुभी बाजेही बाजे हैं। या भांति चिंतवती सीता आगे गंगाको देखती भई । कैपी है गंगा ? अति सुन्दर है शब्द जाके पर जाके मध्य अनेक जलचर जीव मीन मकर ग्राहादिक विचरै हैं तिनके विचरवे कर उद्धत लहर उठे है तातें कम्पायमान भये हैं कमल जामें अर मलसे उपाडे हैं तीरके उतंगवृक्ष जाने अर उखाडे हैं पर्वतनिके पाषाणोंके समूह जाने, समुद्रकी ओर चली जाय है ऋति गम्भीर है उज्ज्वल कल्लोलोंकर शोभे है भागोंके समूह उठे हैं अर भ्रमते जे भवर तिनकर महा भयानक है अर दोनों हाहों पर बेठे पक्षी शब्द करे हैं सो परम तेजके धारक रथके तुरंग ता नदीको तिर पार भये, पवन समान है वेग जिनका जैसे साधु संसार समुद्रके पार होय । नदी के पार जाय सेनापति यद्यपि मेरुसमान अचलचित्त हुता तथापि दयाके योग कर अतिविषादको प्राप्त भया महा दुखका भरा कछू कह न सके आंखिनते आंसू निकल आये रथको थांभ ऊंच स्वर कर रुदन करने लगा ढीला होय गया है अंग जाका, जाती रही है कांति जाकी, त सीता सती कहती भई-हे कृतांतवक्र ! तू काहे को महा दुखीकी न्याई रोवै है, आज जिनवंदना के उत्सवका दिन न हर्ष में विषाद क्यों करे है ? या निर्जन वन में क्यों रोवै है तब वह अति रुदन कर यथावत् वृत्तति कहता भया । जो वचन विषपमान अग्नि समान शस्त्र समान है । हे मातः, दुर्जनानिके वचनतें राम अकीर्तिके भय से न तजा जाय तिहारा स्नेह ताहि तजकर चैत्यालयनिकी दर्शनकी तिहारी अभिलापा उपजी हुती सो तुमको चैत्यालयों के अर निर्वाण क्षेत्रों के दर्शन कराय भयानक वनमें तनी है । हे देवी ! जैसे यति रागपरगतिको तजे है तैसे रामने तुमको तजा है, अर जो लक्षणने कहियेकी हद थी सो कही, कछू कमी न राखी तिहारे अर्थ अनेक न्यायके वचन कहे, परंतु रामने हठ न छोडी । हे म्यामिनी ! राम तुमसे नीराग भए अब तुमको धर्म ही शरण है सो या संसारमें न माता, न पिता, न भ्राता, न कुटुम्ब एक धर्म ही जीवका सहाई है। अब तुमको यह मृगोंका भरा वनहीं अाश्रय है। ये वचन सीता सुनकर वज्रपात की मारी जैसी होय गई। हृदयमें दुख के भारकर मूर्खाको प्राप्त भई बहुरि सचेत होय गद २ वाणांसे कहती भई-शीघ्र ही मोहि प्राणनाथसे मिला । तब पाने कही है.---- माता! नगरी दूर रही अर रामका Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तानवेवा प दर्शन दूर । तब अश्रुपात रूप जल की धारासे मुखकमल प्रक्षालनी हुई रहती भइ कि-हे सेनापति ! तू मेरे वचन रामसू कहियो कि मेरे त्यागका विषाद आप न करना, परम धीयको अवलंबन कर सदा प्रजाकी रक्षा करियो, जसे पिता पुत्रकी रक्षा करै, आप महा न्यायवंत हो र समस्त कलाके पारगामी हो, राजाको प्रजा ही अानन्दका कारण है राजा वही जाहि प्रजा शरद की पूनाके चन्द्रमाकी न्याई चाहै । अर यह संसार असार है महा भयंकर दुखरूप है जा सम्यकदर्शन कर भव्यजीव संसारसे मुक्त होवें हैं सो तिहारे श्राराधिवे योग्य है, तुम राजतै सम्यकदशनको विशेष भला जानियो । यह सम्यग्दर्शन तो अविनाशी सुखका दाता है सो अभव्य जीव निंदा करें तो उनकी निंदाके भयले पुशोत्तम ! सम्यक दर्शनको कदाचिन् न तजना यह अत्यंत दुर्ल है जैसे हाथों पाया रत्न समुद्र में डालिये तो बहुरि कौन उपायसे हाथ अादै । अर अमृत फल अंधकूपमें टारा बहुरि कैसे मिले जैसे अमृत फलको डाल वालक पश्चाताप करै तसे सम्यग्दर्शन से रहित हुधा जीप विषाद करे है यह जगत दुनिबार है जगत का मुख बंद करके को कोन समर्थ जाके मुख में जो आये सो ही कहै तात जगतकी वान सुनकर जो योग्य होय सो करियो लोक गडलिका प्रवाह हैं सो अपने हृदयमें, हे गुणभूषण ! लौकिक वार्ता न धरणी अर दानसे प्रीतिक योगकर जनों को प्रसन्न राखना अर विमल स्वभावकर मित्रोंको वश करना अर साधु तथा प्रालिका आहारको आवें तिनको पासुक अन्नसे अतिभक्ति कर निरंतर याहार देना अर चतुर्विध संघकी सेवा करनी, मन वचन कायकर मुनिको प्रणाम पूजन अर्चनादिकर शुभ कर्म उपार्जन करना अ क्रोधको क्षमाकर, मानको निगतार, मायाको निष्कपटता कर, लोभको संगोप कर जीतना, आप सर्व शास्त्र में प्रवीण हो सो हम तुमको उपदेश देनेको समर्थ नहीं क्योंकि हम स्त्रीजन हैं आपकी कृपाके योगसे कभी कोई परहास्यकर अविनय भरा वचन कहा हो तो क्षमा करियो ऐसा कहकर रथसे उतरी अर तृण पापाण कर भी जो पृथ्वी उसमें अचेत होय मूछो खाय पडी सो जानकी भूमि में पड़ी ऐसी सोहती भई मानों रत्नों की राशि ही पड़ी है। कृतांतवक्र सीताको चेष्टारहित मूछित देख महादुखी भया पर चित्त में चित ता भया हाय, यह महा भयानक वन अनेक दुष्ट जोवों कर भरा जहां जे महाधीर शूरवीर शेय तिनके भी जीवनेकी आशा नहीं तो यह केसे जीवेगी ? इसके प्राण व चने काठिन हैं इस महासती माता को मैं अकेली बनमें तजकर जाऊ हूं मो मुझ समान निर्दयी कोन, मुझे किसी प्रकार भी किसी ठहर शांति नहीं एक तरफ स्वाभीकी आज्ञा अर एका रफ ऐसी निर्दयता, मैं पापी दुखके भवरमें पडाई धिक्कार पराई सेवाको जगतमें निंद्य पराधीनता तजो, स्वामी कहे सो ही करना जैसे यंत्रको यंत्री बजावै त्योंही बाजे सो पराया सेवक यंत्र तुल्य है अर चाकरसे कार भजा जो स्वाथीन आजीविका पूर्ण करे है जैसे पिशाचके वश पुरुष ज्यों वह बकावे त्यों बकै तैसे नरेंद्र के वश नर वह जो आज्ञा कर सो करै चाकर क्या न करे पर क्या न कहै अर जैसे चित्रामका थनुप निष्प्रयोजन गुण कहिये फिण चको धरे है सदा नम्रीभूत है तैसे परकिंकर नियोजन गुण को थरे है सदा नम्रीभूत है । धिक्कार किंकरका जीवना, पराई सेवा करनी तंज Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण रहित होना है जैसे निर्माल्य वस्तु निंद्य है तैसे परकिंकरता निंद्य है धिक २ गधीनके प्राण धारणको, यह पराधीन पराया किंकर टीकली समान है जैसे टीकली परतंत्र होय कूपका जीव कहिए जल हरै हैं तैसे यह परतंत्र होय पराए प्राण हरे है, कभी भी चाकरका जन्म हत ने पराया चाकर काटकी पूतली समान है ज्यों म्वामी नचाचे त्यों नाचे। यता उज्वलाता ला र कांति तिनसे परकिंकर रहित है जैसे विमान पराये आधीन है चलाश चाने थमाया थम ऊचा चलाये तो ऊचा चढे नीचा उतारे तो नीचा उतरे विकार पराधीनके जीमध्यको जो निर्मल अपने मांसको बेचनहारा महालघु अपने अधीन नहीं सदा परतंत्र, विहार निवारके प्राण धारणको, मैं पराई चाकरी करी पर परवश भया तो ऐसे पाप कर्मको वरूहूं, जो इस निदाप महासतीको अकेली भयानक वनमें तजकर जाऊ हूं। हे श्रेणिक ! जैसे कोई धर्मकी बुद्धिको तजे तैसे वह सीताको वनमें तज कर अयोध्याको सन्मुख भया, अतिलजावान होयकर चला । सीता याके गए पाछे देतीक वारमें मूळसे सचेत होय महा दुखकी भरी यूथभ्रष्ट मृगीकी न्याई विलाप करती भई सो या रुदन कर मानों सबही वनस्पति रुदन करे हैं, वृक्षनिके पुप्प पडे है सोई मानों अायू भए स्वतः स्वभाव महारमणीक याके सर तिनवर विलाप करती मई महा शोक की भरी हाय कमलनयन राम नरोत्तम मेरी रक्षा करो मोहि वचनालाप करो, अर तुम तो निरन्तर उत्तम चेष्टाके धारक हो महागुणवंत शांतचित्त हो तिहारा लेशमात्र ह दोष नहीं तुम तो पुरुपोचम हो मैं पूर्वभवमें जो अशुभकर्म कीए थे तिनके फल पाये जैसा करना तैसा भोगना, कहा करै भर्तार पर कहा करे पुत्र तथा माता पिता बांधव व हा करे, अपना कर्म अपने उदय आवै सो अवश्य भोगना, मैं मन्दभागिनी पूर्व जन्ममें शुभ कर्म कीये ताके फल या निर्जन वनमें दुख को प्राप्त भई, मैं पूर्वभवमें काहूका अपवाद किया परनिंदा करी होगी ताके पापकर यह कष्ट पाया तथा पूर्वभवमें गुरुनिके समीप व्रत लेकर भग्न कीया नाका यह फल पाया अथवा विषफल समान जो दुर्वचन तिनकर कारको अपमान कीया तातै यह फल आये अथवा मैं परभवमें कमलनिके वनमें तिष्ठता चकवा चकवीका युगल विछोडा तात मोहि स्वामीका वियोग भया अथवा मैं परभव में कुचेष्टाकर हंस हंसीनिका युगल निछोडा जे कमलनिकर मण्डित सरोवरमें निवास करणहारे अर बडे बडे पुरुषनिको जिनकी चालकी उपमा दीजै अर जिनके वचन अति सुन्दर जिनके चरण चोंच लोचन काल समान अरुण सी मैं विछोडे उनके दीपकर ऐसी दुख अवस्थाको प्राप्त भई अथवा मैं पापिनी कबूतर क वृतरीके युगल विछोडे हैं, जिनके लाल नेत्र प्राधीचिर में समान अर परस्पर जिनमें अतिग्नेह अर कृष्णागुरु समान जिनका रंग अथवा श्याम वटा रानान अथवा धूम समान धूसरे आरंभी है मुखसे क्रीडा जिन्होंने अर कंठमें तष्ठे हैं मनोहर शब्द जिनके, सो मैं पापिनी जुदे कीये अथवा भले स्थान से दुरे स्थान में मेले अथवा बांधे मारे ताके पापकर असंभाव्य दुःख मोहि प्राप्त भया अथवा वसंतके समय फूले वृक्ष तिनमें केलि करते कोकिल कोकिलीके युगल महामिष्ट शब्दके करनहार परस्पर भिन्न भिन्न कीये, ताका यह फल है अथवा ज्ञानी जीवनिके बंदिवे योग्य महाव्रती जितेन्द्रिय महा मुनि Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतानववा पर्व तिनकी निन्दा करी, अथवा पूजा दानमें विध्न किया, अर परोपकार में अन्तराय कीऐ, हिंसादिक पाय किए, ग्रामदाह, वनदाह स्त्री बालक पशुहत्यादि पाप कीए तिनके यह फल हैं अनछाना पानी पिया, रात्रिको भोजन किया, बीथा अन्न भपा, अभक्ष्य वस्तुका भक्षण किया, न करिव योग्य काम किए, तिनका यह फल है, मैं बलभद्रकी पटराणी स्वर्ग समान महलकी निवासिनी हजार सहेली मेशी सेवाकी करनहारी सो अव पापके उदयकर निर्जन वनमें दुख के सागरमें डूबी कैसे लिष्ट्र १ रलनिके मंदिर में महा राणीक महल विष रहणहारी मैं अब कैसी अकेली बनका निवास करूगी ? महा मनोहर बीण बांसुरी मृदंगादिक के मधुर स्वर सिनकर मुख निद्राकी लेनहारी में कैसे भयंकर शब्द कर भयानक वनमें अकेली तिष्ठमी, रामदेवकी पटशाणी अपयशरूपी दावानल कर जरी महा दुःखिनी एकाकिनी पापिनी कष्टका कारण जो यह बन जहां अनेक जातिके कीट अर करकस डाभकी अली अर कांकरनि से भरी पृथिवी यामें फैले शयन करूंगी ऐसी अवस्था भी पायकर मेरे प्रारण न जाय तो ये प्राण ही वन के हैं । अहो ऐसी अवस्था पायकर मेरे हृदयके सो टूक न होय हैं सो यह यज्रका हृदय है कहा करू कहां जाऊ कोनसे कहा कहूं कौनके आश्रय तिष्ठं ? हाय गुण समुद्र राम ! मोहि क्यों तजी, हे महाभक्त लदन, मेरी क्यों न सहाय करी । होय पिला जनक हाय माता विदंही यह कहा भया अहो विद्याधरनिके स्वामी भामण्डल ! मैं दुखके भवरमें पडी कैसे तिष्ठ? मैं ऐसी पापिनी जो मोसहित पतिने परम संपदाकर जिनेन्द्रका दर्शन अर्चन चिंतया था सो मोहि इस वनीमें डारी। हे श्रेणिक ! या भांति सीता सती रिलाप करे है अर राजा वज्रजंघ पुण्डरीकपुरका स्वामी हाथी पकडिवे निमित्त वनमें आया था सो हाथी पकड बडी बिभूति से पीछे जाय था सो ताकी सेनाकं प्यादे शूर वीर कटारी आदि नानाप्रकारके शस्त्र धरे कमर बांधे पाय निकसे गो याके रुदन के मनोहर शब्द सुनकर संशयको अर भय को प्राप्त भये एक फंड भी न जाय सके, अर तुरंगनिके सवार हू ताका रुदन सुन खडे होय रहे उनको यह आशंका उपजी जो या वनमें अनेक दुष्ट जीव तहां यह सुन्दर स्त्रीके रुदनका नाद कहां होय है ? मृग मुना रीझ सांप रीछ ल्याली बवेरा ारण भैसे चीता गैंडा शाल अष्ठापद बना कर गज तिनकर विकराल यह वन तामें यह चन्द्राला समान महामनोग्य कोन गनै है ? यह कोई देवांगना सौधर्म स्वगसे पृथिवीमें आई है । यह विचार सेनाके लोक आश्चर्यको प्राप्त होय खडे रहे अर वह सेना समुद्र समान जिसमें तुरंग ही मगर अर प्यादे मीन आ हाथी ग्राह हैं, समुद भी गाजे अर सेना भी गाजे हे अर समुद्र में लहर उठे हैं सेनामें सूर्यको किरणकर शस्त्रोंकी जोति उठे है समुद्र भी भयंकर है सेना भी भयंकर है सो सकल सेना निश्चल होय रही। इति श्रीविषेणावार्यविरचित महापद्मपुगण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाविणे सीताका वनमे विलाप हार वनजंघका अगमन वर्णन करनेवाला सत्तानवेबां पर्व पर्ण भय। ।। ६७ ।। ___ अथानन्तर जैसी महाविद्याकी थांभी गंगा थंभी रहे तैसे सेनाको थंभी देख राजा बज्रजंघ निकटवर्ती पुरुषोंको पूछता भया कि सेनाके थंभनेका कारण क्या है ? तब वह निश्चयकर राज Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण पुत्रीके समाचार कहते भये उससे पहिले राजाने भी रुदनके शब्द सुने, सुनकार कहता भया जिसका यह मनोहर रुदनका शब्द सुनिये सो कहो कौन है ? तब कई एक अग्रसर होय जायकर पूछते भये-हे देवि ! तू कोन है अर इस निर्जन वनविषे क्यों रुदन करई तो समान कोऊ और नाहीं तू देवी है अक नागकुमारी है अक कोई उत्तम नारी है तू महा कल्याणपिणी उत्तम शरीरकी धरणहारी तोहि यह शोक कहा हमको यह बड़ा कौतुक है। तब यह शन्त्रधारक पुरुषोंको देख त्रासको प्राप्त भई कांपे है शरीर जाका सो भयकर उनको अपने आभरण उतारकर देने लगी तब वे स्वामीके भयकरि यह कहते भये-हे देवी! तू को डर है शोकको तज धीरता भज आभूषण हमको काहेको देवे है तेरे ही रहो ये तोहि योग्य हैं-हे माता ! तू ह्विल को होग है विश्वास गह यह राजा वज्रजंघ पृथिवीविष प्रसिद्ध महा नरोत्तम राजनीतिकर मुक्त है पर सम्यकदर्शनरूप रत्न भूपणकर शोभित है। कैसा है सम्यकदर्शन ? जिस समान ओर रल नाही अविनाशी है अमोलिक है काहूसे हरा न जाय महा सुखका दायक शंकादिक मलरहित सुमेरु सारिखा निश्चल है । हे माता : जाके सम्यग्दर्शन होवे उसके गुण हम कहां लग वर्णन करें यह राजा जिनमार्गके रहस्यका ज्ञाता शरणागतप्रतिपालक है परोपकारमें प्रवीण महा दयावान महा निर्मल पवित्रात्मा निंद्यकर्मसं निवृत्त लोकोंका माता पिता समान रक्षक, महादातार जीयोकी रक्षाविप सावधान दीन अनाथ दुर्वल देह धारियों को माता समान पाले है कार्यकी सिद्धि करणहारा शत्ररूप पर्वतनिको वज्र समान है। शास्त्र विद्याका अभ्यासी परधनका त्यागी पर स्त्रीको माता बहिन बेटी समान मान है अन्याय मार्गको अजगरसहित अन्धकूप समान जाने है, धर्मविपे तत्पर अनुरागी संसारके भ्रमण से भयभीत सत्यवादी जितेंद्रिय है याके समस्त गुण जो मुखये कहा चाहे सो भुजानिकर समुद्रको तिरा चाहे है। ये बात बज्रजंघके सेवक कहे हैं, इसनेविणे ही राजा आप प्राय हाथी से उतर बहुत विनयकर सहज ही है शुद्ध दृष्टि जाकी सो सीताते कहता भया-हे वहिन ! वह वज्रसमान कठोर महा असमझ है जो तोहि ऐसे वनमें तजे अर तोहि तजते जाका हृदय न फट जाय । हे पुण्यरूपिणी ! अपनी अवस्थाका कारण कह, विश्वासको भज भयमत करे अर गर्भका खेद मत कर। तब यह शोककर पीडितचित्त बहारि रुदन करती भई। राजाने बहुत थीर्य बंधाया तत्र यह हंसकी न्याई अांसू डार गद् गद् वाणीत कहती भई-हे राजन् ! मो मंद भागिनी की कथा अत्यंत दीर्घ है यदि तुम मुना चाहो हो तो चित्त लगाय सुनो, मैं राजा जनककी पुत्री भामण्डलकी बहिन राजा दशरथके पुत्रकी बधू सीता मेरा नाम रामकी राणी राजा दशरथने केकईको वरदान दीया हुता सो भरतको राज्य देकर राजा तो वैरागी भये अर राम लक्ष्मण वनको गए सो मैं पति के संग वनमें रही, रावण कपटसे मोहि हर लेगया, ग्यारहवे दिन मैंने पति की वार्ता गुन भोजन किया पति सुग्रीवके घर रहे बहुरि अनेक विद्याधरनिको एकत्र कर आकाशके मार्ग होय समुद्रको उलंघ लंका गये, रावणको युद्ध में जीत मोहि ल्याये बदुरि राजरूप कीचको तज भरत तो बैरागी भये । कैसे हैं भरत ? जैसे ऋषभदेवके भरत चक्रवर्ती तिन समान हैं उपभा जिनकी, सो भरत तो कम कलंकरहित परमधामको प्राप्त भये अर केकई शोकरूप अग्निकर आतापको प्राप्त भई Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठानवेवां पर्ण ५०६ मार्ग सार जानकर थार्थिका होय महा तपसे स्त्रीलिंग छेद देव भई मनुष्य होय मोक्ष पावेगी । राम लक्ष्मण अयोध्या में इन्द्रसमान राज्य करें सो लोग दुष्टमित्त निश्शंक होय अपवाद करते भये कि रावण हरकर सीता की लेगया बहुरि राम ल्याय घर में राखी राम सहा विवेदी धर्म शास्त्रके वेत्ता न्यायवन्त एसी रीति क्यों आदरें जिस रीति राजा उता लोकसाहित होने लगे, बहें- राही घर यह रीति कहा दोष ? घर में गर्भनति दुर्बल शरीर यह चितवन करती हु कि जिनेन्द्र के चैपाल अर्चना की भरतार भी मु सहित जिनेन्द्र के निर्माण स्थानक तिनको बन्धना करनेको भावसदित उद्यमी भये हुने थर मोहि एसे कहते थे कि प्रथम तो हम कैलाश जाप श्री ऋषभदेवानिर्वाण क्षेत्र बहेंगे बहुरि और निर्वाण क्षेत्रनिन्दकर अयोध्या में यदि तीर्थकर देवनका जन्म कल्याणक है सो अयोध्याकी यात्रा करेंगे जेते भगवानके चैत्यालय है तिनका दर्शन करेंगे, कम्पिल्या नगर में विमलनाथका दर्शन करेंगे अर रत्नपुर में नाथ दर्शन करेंगे। धर्मनाथ ? धर्मका स्वरूप जीवनको यथार्थ उपदेश हैं बहुरि श्रावस्ती नगरी संभवनायका दर्शन करेंगे कर चम्पापुर में वासुपूज्यका थर का कंदीपुर में पुष्पदमाश, चंद्रपुरी में चंद्रप्रका, कौशांबी पुरी में पद्मप्रभुका, भद्रलपुर में शीतलनाथका घर मिथिलापुरी नाथ स्वामीका दर्शन करेंगे अर वाणास्मीमें सुपार्श्वनाथ स्वामीका दर्शन करेंगे अर सिंहपुर में शंसनाथका अर हस्तनापुर ने शांति कुंथ अरहनाथका पूजन करेंगेकर हे देवी! कुशाग्रनगर में श्री मुनिसुव्रतनाथका दर्शन करेंगे जिनका धर्मचक्र प्रवर्ते है घर और हू जे भगवान के व्यतिय स्थानक महापवित्र हैं पृथिवी में प्रसिद्ध हैं तहां पूजा करने, भगवान के चैत्य अर चैत्यालय सुर असुर पर गन्धर्वनिकर स्तुति करने योग्य हैं नमस्कार योग्य हैं दिन सबनिकी बन्दना इस करेंगे, अर पुष्पक विमान चढ सुमेरुके शिखरपर जे चैत्यालय हैं तिनका दर्शन कर भद्रयाल वन नन्दनवन सौमनस वन तहां जिनेंद्रकी अर्चाकरि क्रूर कृत्रिम कृत्रिम अढाई दीप जैसे चैपाल हैनिकी बन्दनाकर हम अयोध्या आयेंगे ॥ 雍 म हे प्रिये ! भावसहित एकवार हू नमस्कर श्री अरहंतदेव को करें तो ने जन्म के पापदिसे छुटे हैं, हे कति ! धन्य तेरा भाग्य, जो गर्म के प्रादुर्भाव में तेरे जिन बन्दना की बांधा उात्री, मेरेहूब रही है तो सहित महापवित्र जिनमंदिरनिका दर्शन करू । हे श्रिये ! पहिले भोग धर्मको प्रवृत्ति नही लोक अम थे सो भगवान देवने भञ्योंको मोक्ष उपदेश दिया जिनकी संसारका भय होय तिनको भव्य कहिये, कैसे हैं भगवान् ऋषभ ? प्रजापति जगत श्रेष्ठ त्रैलोकन कर बन्दवे योग्य नानाप्रकार अतिशय कर संयुक्त सुर नर अरनिको आश्चर्यकारी ते भगरान भव्यों को जीवादिक तत्त्वोका उपदेश देय अनेकोंको वारिनिर्वाण सम्यक्त्वादि ऋष्टगुणमंडित सिद्ध भए जिनका चैत्यालय सर्व रलमई भरत चक्रवतीन कैलाश पर कराया थर पांच धनुषी रतमई प्रतिमा सूर्य अधिक घरे मंदिर में पथराई सो बिराजै है जाकी च देव विद्याधर गंश्व किन्नर नाव दैत्य पूजा करे हैं - Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म पुराण जहां अप्सरा नृत्य करै हैं जो प्रभु स्वयंभू सर्वगति निर्मल त्रैलोक्यपूज्य जाका अन्त नहीं अनन्रारूप अनंत ज्ञान विराजमोन परमात्मा सिद्ध शिव आदिनाथ ऋषभ तिनकी कैलाश एक्त पर हम चलकर पूजा कर स्तुति करेंगे, वह दिन कब होयगा, या मांति मोसे कृपा कर दातो कारमा थे अर ताही समय नगर के लोक भेलो होय प्राय लोकापवादकी दावानलसो दुस्सह बातो रामसे कही सो राम बडे विचारके कर्ता चित्त में यह चिंतई यहलोक स्वभाव ही कर वक्र हैं सो और भांति अपवाद न मिटे या लोकापवादरो प्रियजनको तजना भला अशा मरणा भला, लोकापवादी यशका नाश होय कल्पान्त काल पर्यन्त अपयश जगतमें है मो भला नहीं ऐया विचार महाप्रवीण मेरा पति ताने लोकापवादके भयते मोहि महा अरण्ययन में तजा, मैं दोपरहिन सो पति नीके जाने अर लक्ष्मणने बहुन कहा सो न माना, मेरे ऐसा ही कर्मका उदय जे विशुद्ध मुलगे उपजे क्षत्री शुभचित्त सर्व शास्त्रनिके ज्ञाता तिनकी यही रीति है अर शाह न डरें एक लोकापवादसे डरें। यह अपने निकासने का वृत्तांस कह बहुरि रुदन करने लगी, शोवरूप अग्निकर बतायमान है चित्त जाका । सो याको रुदन करती अर रजकर धूसरा है अंग जाका महा दीन दुखी देख राजा वज्रजंघ उत्तम धर्मका धारणहारा अति उद्वेगको प्राप्त भया अर याको जनककी पुत्री जान समीप आय बहुत आदर से धीर्य बंधाया, पर कहता भया-हे शुभमते, तू जिनशासनमें प्रवीण है शोक कर रुदन मत करै, यह आतध्यान दुरुका बढावन हारा है, हे जानकी, या लोककी स्थिति तू जाने है तू महा सुज्ञान अनित्य अशरण एकत्व अन्यत्व इत्यादि द्वादश अनु हायों की चितवन करणहारी तेरा पति सम्यग् दृष्टि अर तू सम्यक्त्वसहित विवेकान्ती है रिथ्या दृष्टि जीवनिकी न्याई कहा बारम्बार शोक करे, तू जिनवाणीकी श्रोता अनेक बार महा मुनिनिके मुख श्रुतिके अर्थ सुने निरन्तर ज्ञान भावनाको धरणहारी तोहि शोक उचित नाही, अहो या संसारमें भ्रमता यह मूढ प्राणी वाने मोक्षमार्गको न जाना, याते कहा कहा दुख न पाये याको अनिष्टसंयोग इष्टवियोग अनेकवार भये यह अनादिकालसे भवसागरके मध्य क्लेश रूप भवर में पडा है, या जीवने तियंच योनिमें जलचर थलचर नभचर के शरीर पर या शीत आताप अादि अनेक दुख पाये पर मनुष्य देव में अपवाद विरह रुदन क्लेशादि अनेक दुख भोगे अर नरको शीत उष्ण छेदन भेदन शूलारोहण परस्पर घात महा दुर्गंध कारकड में निपात शुल्क रोग अनेक दुख लहे आर कबहूं अज्ञान तपकर अल्प ऋद्धिका धारक देवहू भया तहांहू उत्कृष्ट ऋद्धिके धारक देवनिको देख दुखी भया, अर मरणसमान महा दुखी होय विलापकर मूबा र काहू महा तपकर इन्द्रतुल्य उत्कृष्ट देव भया, तोहू विषयानुरागकर दुखी ही भया । या मांति चतुगतिमें भ्रमण करते या जीवने भवन में आधि व्याधि संयोग वियोग रोग शोक जन्म मृत्यु दुख दाह दरिद्रहीनता नानाप्रकारकी वांछा विकल्पता कर शोच संताप रूप हो। अनंत दुख पाये, अधोलोक मध्य लोक ऊर्ध्व लोक में ऐसा स्थानक नाही जहां या जीवने जन्म मरण न किये, अपने कर्म रूप पवन के प्रसंगवर भवसागर में भ्रमण करता जो यह जीव ताने मनुष्य देह में स्त्रीका शरीर पाया तहां अनेक दुःख भोगे, तेरे शुभ कर्मके उदयकर राम सारिखे सुन्दर पति Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ निन्यानवेवां पर्व भये, जिनके सदा शुभका उपार्जन सो पुण्यके उदय कर पतिसहित महा सुख भोगे घर अशुभके उदयतें दुस्सह दुखको प्राप्त भई, लंकाद्वीपमें रावण हर कर लेगया तहां पतिकी वार्ता न सुन ग्यारह दिन भोजन बिना रही पर जबतक पतिका दर्शन न भया तब तक आभूषण सुगंधलेपनादिरहित रही बहुरि शत्रुको हत पति ले आये तब पुण्यके उदय रुखको प्राप्त भई बहुरि अशुभका उदय आया तब बिना दोप गर्भवतीको पतिने लोकापवादके भक्तै घरसे निकासी, लोकापवाद रूप सर्पके डसने कर पति अचेत चित्त भया सो विना समझे भयंकर वन में जी | उत्तम प्राणी पुण्यरूप पुष्पनिका घर ताहि जो पापी दुर्वचनरूप न कर बाले हैं सोही दोष रूप दहनकर दाइको प्राप्त होय । हे देवी, तू परम उत्कृष्ट पतिव्रता महासती है प्रशंसायोग्य है चेष्टा जाकी, जाके गर्भाधान में चेन्यालयनिके दर्शनको बांछा उपजी श्रबहू तेरे पुरही का उदय है तू मा शीलवती जिनमती है तेरे शीलके प्रसाद कर या निर्जन वनमें हाथी के निमित्त मेरा आावना भया। मैं वज्रजंघ पुंडरीकपुरका अधिपति राजा द्विरदवाह सोमवंशी महाशुभ आचरणके धारक तिनके सुबंधु महिषीं नाम राणी ताका मैं पुत्र तू मेरे धर्मके विधान कर बडी बहिन है । पु ंडरीकपुर चल शोक तज । हे बहिन, शोकसे कछू कार्य सिद्ध नाहीं वहां पुडरीकपुर राम तोहि ढूंढ कृपाकर बुलायेंगे । राम हू तेरे वियोगसे पश्चाताप कर अति व्याकुल हैं, अपने प्रमाद कर अमोलिक सहा गुणवान रत्न नष्ट भया, ताहि विवेकी महा आदर से ढूंढे ही, तातें है पतिव्रते, निसंदेह राम तुम्हे यादरसे बुलायेंगे | या भांति वा धर्मात्माने सीताकोशांतता उपजाई तब सीता धीर्य को प्राप्त भई मानो भाई भामंडल ही मिला तब बाकी अति प्रशंसा करती भई - तू मेरा अति उत्कृष्ट भाई है महा यशवंत शूरवीर बुद्धिमान शांतचित्त साधर्मिनि पर वत्सल्यका करणारा उत्तम जीव है । गौतमस्वामी कहे हैं— हे श्रेणिक, राजा वज्रजंघ अधिगम सम्यग्दृष्टि, अधिगम कहिये गुरूपदेशकर पाया है सम्यक्त्व जाने अर ज्ञानी है परम तत्वका स्वरूप जनवहारा पवित्र है श्रात्मा जाकी सांधु समान है जाके व्रत गुण शीलकर संयुक्त मोक्षमार्गका उद्यमी सो ऐसे सत्पुरुषनिके चरित्र दोषरहित पर उपकारकर युक्त कौनका शोक न निवारें । कैसे हैं सत्पुरुष, जिनमत में यति निश्चल है चित्त जिनका । सीता कहै है है वज्रज ! तू मेरे पूर्व भवका सहोदर है सो जोया भव में तैन सांचा भाईपना जनाया मेरा शोक संतापरूप तिमिर हरा, सूर्यमान तू पवित्र आत्मा 1 11 इति श्रीरबिपेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविषै सोताको बजंधका धार्य का वर्णन करनेवाला अठानवेवां पर्व पूर्ण भया ॥ ६८ ॥ यथानन्तर वज्रधने सीता के चढवेको चरणमात्र में अद्भुत पालकी मगाई सो सीता तापर आरूढ भई पालकी विमानसमान महा मनोग्य समीचीन प्रमाणकर युक्त सुन्दर हैं थंभ जाके श्रेष्ठ दर्पण शंभो में जड़े हैं यर मंतिनकी झालरी कर पालकी मण्डित हैं श्रर चन्द्रमा समान उज्वल चनर तिन हर शोभित है, मोतिनके हार जल के बुदबुदे समान शोभ हैं अर विचि जे वस्त्र तिनकर मण्डित है चित्राम कर शोभित है सुन्दर हैं झरोखा जामें ऐसी सुखपालपर चढ पर ऋद्धि कर युक्त बडी सेना मध्य सीता चली जाय हैं, आश्चर्यको प्राप्त भई कर्मोकी * Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण विचित्रताको चिंतवे है तीन दिन में भयंकर बनकों उघ पुण्डीशपुरके देशी झाई, उत्तम है चेष्टा जाकी, सब देशके लोक माताको आय मिले ग्राम २ में भेट करें । कैसा है वज्रजपशा देश, समस्त जातिके अन्नकर जहां समस्त पृथिवी श्राच्छादित होय रही है अर क्रूडाउडान नजीक हैं ग्राम जहां, रत्ननिकी खान स्वर्ण रूपादिककी खान सुपर जैसे पुर सो देखती थकी सीता हर्ष को प्राप्त भई वन उपान की शोभा देखती चली जाय है, ग्रमले महन्त भेकर नानाप्रकार स्तुति करें हैं । हे भगवती, हे भाता, आपके दर्शन कर हम पापरहित भए कृतार्थ भए अर बारार प्रार्थना करते भो अर्घ पाय किये पर अनेक राजा देवनि समान अाय मिले सो नानाप्रकार भेट करते भए अर बारम्बार बन्दना करते भर । या मांति सीना सी पैः पैड पर राजा प्रजानिकर पूजी सती चली जाय है वन्नघका देश अति सुखी ठोर ठोर वन उपवनादिकर शोभित ठोर ठोर चैन्याले देख अति हर्षित भई मनमें विचार है जहां राजा धर्मात्मा होय यहां प्रजा सुखी होय ही। अनुकन कर पुण्डरीकपुर के समीप पाए सो राजाकी नसें मीताका आगमन सुन नगरके सब लोक सन्मुख आए अर भेट करते भए, नगर की अतिशोभा करी, मु. माम कर पृथिवी छांटी, गली बाजार सब सिंगारे अर इन्द्र धतुप ममान तोरण चढाए अछाशनिमें पूर्ण कलश थाये, जिनके मुख सुन्दर पल्लायुक्त हैं अर मंदिरनि पर धजा चढी बारवर मगल गाये हैं मानों वह नगर अानन्द कर नृत्य ही करे ई नगर के दाजे पर तथा कोट के कंगूरनियर लोक खडे देखे हैं हर्पकी वृद्धि हो रही है नगरके बाहिर अर भीतर सबहार तक साताके दर्शनको लोक खडे हैं, चलायमान जे लोकनिक सम्र तिनकर नगर यद्याने स्थावर है तथापि जानिए जगन होय रहा है। नानाप्रकार के बादित्र बाजे हैं तिनके बाद कर दशोदिशा शब्दायमान होय रही हैं शंख बाजे हैं बन्दी जन विरद बखाने हैं मसात नगर के लोक आश्चर्यको प्राप्त भए देखे हैं अर सीताने नगर में प्रवेश किया जैसे लक्ष्मी देवलोक में प्रवेश करे वज्रन पके मदिरमें अतिसुन्दर जिनमदिर हैं, सब जलोकी ही जन सीताके सन्मुख श्राई, सीता पाल कीसे उतर जिनमंदिरमें गई ! कैसा है जिनम्नन्दिर ? महा सुन्दर उपवन कर वेष्टित है अर वापिका सरोवरी तिनकर शोभित है, सुमेरु शिखर समान सुन्दर साणमई है जेसे भाई भामण्डल सीताका सन्मान करे तैसे वज्रघ आदर करता भया, बज्रबंधक समस्त परिवार के लोक अर राजलोककी समस्त राणी सीताकी सेवा करें अर ऐस मनोहर शब्द दिरन्तर कहे हैं-हे देवते ! हे पूज्ये ! हे स्वामिनी ! हे ईशानने ! सदा जयवन हो बहुत दिन जीत्रो आनन्दको प्राप्त होतो, वृद्धिको प्राप्त होतो आज्ञा करो । या भांति स्तुति करें अ जो आशा करें सो सीस चहाचे अति हर्षसे दोर कर सेवा करें अर हाथ जोड सीस नाय नमस्कार करें वहां सीता अति आनन्दतें जिन धर्मकी कथा करती तिष्ठे अर जो सामन्तनिकी भेट अ.वे पर राजा भेट कर सो जानकी धर्म कार्य में लगावे यह तो यहां धर्मका पारायन कर है। __ अर वह कृतांतवक्र सेनापति तप्सायमान है चित्त जाका रथके तुरंग खेदको प्राप्त हुने तिनको खेदरहित करता हुअा श्रीरामचन्द्र के समीप पाया याको प्रावता सुन अनेक राजा Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१३ निन्यानवेवां पर्व सन्मुख पाए सो कृनांतवक्र आयकर श्रीरामचन्द्र के चरणनिको नमस्कारकर कहता भया- हे प्रभो, मैं आज्ञा प्रमाण सीताको भयानक बनमें मेलकर आया हूं वाके गर्भमात्र ही सहाई है । हे देव ! वह वन नाना प्रकारके भयंकर जीवनिके अति घोर शब्दकर महा भयकारी है अर जैमा वैताल प्रेतनिका वन ताका श्राकार देखा न जाय । सघन वृक्षनिके समूह कर अन्धकार रूप हैं, जहां स्वतः स्वभाव पारणे मैं से श्रर सिंह द्वपकर सदा युद्ध करैं हैं और जहां व बसे हैं सो विरूप शब्द करैं हैं अर गुफानिमें सिंह गुजार करे हैं सो गुफा गुजार रहीं हैं घर महा भयंकर अजगर शब्द करे हैं अर चीतानि कर हने गये हैं मृग जहां कालको भी विकराल ऐसा वह वन ता वि-हे प्रभो ! सीता अश्रुपात करती महादीनवदन आपको जो शब्द कहती भई सो सुनो, आप आत्मकल्याण चाहो हो तो जैगे मोहितजी नैसे जिनेंद्रकी भक्ति न तजनी जैसे लोकनिके अप. वादकर मोसे अति अनुराग हुतातोह त जी तो काहूके कहिवेतें जिनशासनकी श्रद्धा न तजनी लोक विना विचारे निदोगनिसों दोष लगावें हैं जैसे मोहि लगाया सो पार न्याय करो सो अपनी बुद्धिसे विचार यथार्थ करना काहू के कहेते काहू को झा दोष न लगावना सम्मकदर्शनत विमुख मिथ्यादृष्टि जिनधर्म रूप रत्नका अपवाद कर हैं सो उनके अपवादके भयतै सम्यकदर्शन की शुद्नान तजनी गीतरागका मार्ग उर में दृढ धारना, मेरे तजनेका या भवमें किंचित् मात्र दुख है अर सम्यक दर्शनकी हानिः जन्म २ विष दुख है या जीवको लोकमें निधि रत्न स्त्री वाहन राज्य सब ही सुलभ हैं ए. सम्यकदर्शन ही महा दुर्लभ है। राजमें पाप कर नरक में पडता है। एक ऊर्ध्वगमन सम्यग्दर्शनके प्रताप हीसे होय । जाने अपनी यात्मा सम्यग्दर्शन रूप आभूषणकर मण्डित किया सो कृतार्थ भया । ये शब्द जानकीने कहे हैं जिनको सुन कर कौनके धर्मबुद्धि न उपजे हे देव ! एक तो वह सीता सभावही कर कायर अर महा भयंकर वनके दुष्ट जीवनितें कैसे जीवेगी ? जहां महा भयानक सर्पनिक समूह अर अल्पजल ऐसे सरोवर निनमें माने हायी कर्दमकरैं हैं अर जहां मृगनिक समूह मृगतृष्णाविणे जल जान वृथा दौड व्याकुल होय हैं, जैसे संसारकी मायाविषै रागकर रागी जीव दुखी होय अर जहां कौंछिकी रज के संग कर मर्केट अति चंचल होय रहे हैं पर जहां तृणामे सिंह व्याघ्र ल्यालियोंके समूह तिन की रसना रूप पल्लव लहलहाट कर हैं अर चिरन समान लालनेत्र जिनके ऐसे क्रोधायमान भुजंग फुक र करै हैं अर जहां तीव्र पवनके संचारकर क्षणमात्रविणे वृक्षनिके पत्रों के ढेर होय हैं अर महाअजगर तिनको विषरूप अग्निकर अनेक वृक्ष भस्म होय गये हैं अर माने हाथिनकी महाभयंकर गर्जना ताकर वह वन अति विकराल है अर वनके शूझरनिकी सेनाकर सरोवर मलिन जल होय रहे हैं, पर जहां ठौर २ भूमिशिप कांटे अर सांठे अर सांपोंकी वामी अर कंकर पत्थर तिनकर भूमि महासंकटरूप है अर डाभकी अणी सुईतेह अति पैनी हैं अर सूके पान फन परनकर उडे उडे फिरे हैं ऐसे महा अरण्यविषै--हे देव, जानकी कैसे जीवेगी, मैं ऐमा जान हूं क्षणमात्र हू वह प्राण राखिको समर्थ नाहीं । हे श्रेणिक, सेनापतिके वचन सुन श्रीराम अति विषादको प्राप्त भए, कैसे हैं वचन ? Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैदा-पुराण जिनकर निर्दईका भी मन द्रवीभूत होय, श्रीराम चिंतवते भए, देखो मो मूढचित्तने दुष्टनिके वचनकर अत्यंत निंद्यकार्य किया कहां वह राजपुत्री अर कहां वह भयंकर वन ? यह विचारकर मूर्खाको प्राप्त भए बहुरि शीतोपचार कर सचेत होय विलाप करते भए सीतामें है चित्त जिनका ? हाय श्वेत श्याम रक्त तीन वर्णके कमल समान नेत्रनिकी धरणहारी, हाय निर्मल गुणनिकी खान सुखकर जीता है चन्द्रमा जाने, कमल की किरण समान कोमल, हाय जानकी, मोसे वचनालाप कर, तू जाने ही है कि मेरा चित्त तो विना अति कायर है । हे उपमारहित शीलब्रतकी धरणहारी, मेरे मनकी हरणहारी हितकारी हैं आलाप जिसके हे पापवर्जित निरपराध मेरे मनकी निवा सिनी तू कौन अवस्थाको प्राप्त भई होगी, हे देवी वह महाभयंकर वन क्रूर जीवोंकर भरा उसमें सर्व सामिग्री रहित कैसे तिष्ठेगी ? हे मोमें आसक्त चकोर नेत्र लावण्यरूप जलकी सरोवरी महालज्जा. वती विनयवती तू कहां गई, तेरे श्वासकी सुगन्धकर मुखपर गुजार करत जे भ्रमर तिनको हस्त कमल कर निवारती अति खेदको प्राप्त होयगो, तू यथस विछुरी मृगीकी न्याई अकेली भयंकर वनमें कहां जायगी ? जो वन चितवन करते भी दुस्सह उसी में तू अकेली कैसे तिष्ठेगी कमलके गर्भ समान कोमल तेरे चरण महा सुन्दर लक्षण के धारणहारे कर्कश भूमिका स्पर्श कैसे सहेंगे र वनके भील महा म्लेच्छ कृत्य अकृत्यक भेदसे रहित है मन जिनका सो तुझे पाकर भयंकर पल्ली में लेगर होवेंगे सो पहिले दुःख से भी यह अत्यंत दुख है तू भयानक बनवि मोविना महा दुख को प्राप्त भई होयगी अथवा तू खेदखिन्न महा अंधेरी रात्रीविष वनकी रजकर मण्डित कहीं पडी होगी सो कदाचित् तुझे हाथिनने दाबी होय सो इस समान अर अनर्थ कहा अर गृध्र रीछ सिंह व्याघ्र अष्टापद इत्यादि दुष्ट जीनों कर भरा जो वन उसविप कैसे निवास करेगी ? जहां मार्ग नाहीं विकराल दाढके धरन हारे व्याघ्र महा क्षधातुर तिन कैसी अवस्थाको प्राप्त करी - होयगी जो कहिवे में न आवै अथवा अग्निकी मालाके समह कर जलता जो वन उसमें शुभ अस्थानकको प्राप्त भई होयगी, अथवा सूर्य की अत्यंत दुस्सह किरण तिनके अाताप कर लाख की न्याई पिघल गई होयगी, छायामें ज यवेकी नाहीं है शक्ति जिसकी अथवा शोभायमान शील की धरण हारी मो निर्दई विष मनकर हृदय फटकर मृत्युको प्राप्त भई होयगी । पहिले जैसे रत्नजटी ने मोहि सीताके कुशल की वार्ता प्राय कही तैसे कोई अब भी कहे, हाय हिय पतिव्रते विवेकवती सुखरूपिणी तू कहां गई कहां तिष्ठेगी क्या करेगी अहो कृतांतवक वह, क्या तैने सचमुच वनहीं में डारी, जो कहूं शुभ ठौर गेली होय तो तर मुखरूप चन्द्र से अमृतरूप वचन खिरं । जब ऐसा कहा तब सेनापतिने लज्जाके भारकर नीचा मुख किया प्रभारहित हो गया कछू कह न सके अति व्याकुल भया मौन गह रहा । तब रामने जानी सत्य ही यह सीताको भयंकर वनमें डार आया तब मूर्खाको प्राप्त होय राम गिरे बहुत बेरमें नीठि नीठि सचेत भए तब लक्ष्मण पाए अंतःकरणमें सोचको धरे कहते भए-हे देव, क्यों व्याकुन भये हो ? धीर्यको अंगीकार करो जो पूर्व कर्म उपार्जा उमका फल आय प्राप्त भया अर सकल लोकको अशुभके उदय कर दुख प्राप्त भया केवल सीता ही को दुख न भया । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निन्यानोवां पर्व ५१५ सुख अथवा दुख जो प्राप्त होना होय सो स्वयमेव ही किसी निमित्तसे आय प्राप्त होय हे प्रभो जो कोई किसीको आकाशमें ले जाय अथवा कर जीवोंके भरे वन विपै डारे अथवा गिरिके शिखर धरे तो भी पूर्व पुण्य कर प्राणीकी रक्षा होय है, सब ही प्रजा दुखकर तप्तायमान है अांसुओंके प्रवाह कर मानों हृदय गल गया है सोई झरे है। यह वचन कह लक्ष्मण भी अत्यंत व्याकुल होय रुदन करने लगा जैसा दाहका मारा कमल होय तैपा होय गया है मुखकमल जिस का, हाय माता ! तू कहां गई दुष्ट जनोंके वचन रूप अग्नि कर प्रज्वलित है शरीर जिसका हे गुण रूप धान्यके उपजनेकी भूमि, वारह अनुप्रेक्षाओंके चितवनकी करणहारी हे शीलरूप पर्वतकी पृथिवी, हे सीते सौम्य स्वभावकी धारक, हे विवेचनी, दुष्टोंके वचन सोई भए तुपार तिनकर दाहा गया है हृदय कमल जिपका, राजहंस श्रीराम तिनके प्रसन्न करनेको मानसरोवर समान, मुभद्रा सारिखी कल्याण रूप सर्व प्राचारमें प्रवीण लोकों को मूर्तिवंत सुखकी आशिषा, हे श्रेष्ठे, तू कहां गई जैसे सूर्य विना आकाशकी शोभा कहां पर चन्द्रमा विना निशाकी शोभा ' कहां तैसे हे माता ती विना अयोध्याकी शोभा कहां ? इस भांति लक्ष्मण विलाप कर रामसे कहे हैं ---हे देव ! समस्त नगर बीण बांसुरी मृदंगादिकी पनि कर रहित भया है अर अह. निश रुदन की पनि पूर्ण है गली गली में बन उपयनविष नदियों के तटविष चौहटमें ह ट हाटमें घर घरमें लाक रुदन करें हैं जिनके अश्रपातकी धारा कर कीच होप रही है, मानों अयो. ध्याम वर्षा काल ही फिर आया है समम्त लोक आंसू डारते गद् गद् वाणीव र कष्ट से वचन उचारते जानकी प्रत्यक्ष नहीं है परोक्ष ही है, तो भी एकागचित्त भए गुण कीर्ति रूप पुष्पोंके समूहकर पूजे हैं । वह सीता पतिव्रता समस्त सतियोंके सिर पर विराजे है गणों कर महा उज्ज्वल उसके यहाँ आरने की अभिलापा सबोंको है । यह सब लोक माताने ऐसे पाले हैं जैसे जननी पुत्रको पाले सो सब ही महा शोक कर गण चितार २ रुदन करे हैं, ऐसा कौन है जिसके जानकीका शोक न होय तात हे प्रभो तुम सब बातों में प्रवीण हो अब पश्चाताप तजो पश्चाताप से कछु कार्य की सिद्धि नाहीं जो आपका चित्त प्रसन्न है तो सीताको हेरकर बुलाय लेंगे अर उनके पुण्यके प्रभावकर कोई विघ्न नाहीं आप धैर्य अबलम्बन करवेयोग्य हो या भांति लक्ष्मण के वचनकर रामचन्द्र प्रसन्न भए कछु एक शोक तज कर्तव्यमें मन धरा। भद्रकलश भण्डारीको बुलाय कही तुम सीताकी श्राज्ञासे जिम विधि किमइच्छा दान करते थे तैसे ही दिया करो सीता के नामसे दान बटे तत्र भंडारी ने कही जो आप आज्ञा करोगे सोई होइगा । नव महीने अर्थियों को किम इच्छा दान बटियो किया, रामके आठ हजार स्त्री तिनकर सेवमान तो भी एक क्षण मात्र भी मन कर सीताको न बिसारता भया। सीता २ यह आलाप सदा होता भया, सीता के गुणों कर मोहा है मन जिसका सर्वदिशा सीतामई देखता भया स्वप्नमें सीताको या भांति देखे पर्वत की गुफा में पडी है पृथिवीकी रज कर मंडित है अर नेत्रोंसे अश्रुपात कर चौमासा कर राखा है महा शोक कर व्याप्त है या भांति स्वप्नमें अवलोकन करता भया । सीताका शब्द करता राम ऐसा चितवन करे है-देखो सीता सुन्दर चेटाकी थरणहारी दूर देशान्तरविर्षे है Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण तो भी मेरे चित्तसे दूर न होय है वह साध्वी शीलवंती मेरे हितमें सदा उद्यमी । या भांति सदा चितारवो करे अर लक्ष्मणके उपदेशकर अर सूत्रासिद्धांतके श्रवणकर कछू इक रामका शोक क्षीण भया धैर्यको थार धर्मध्यानमें तत्पर भया। यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणि कसे कहै हैंवे दोनों भाई महा न्यायवंत अखण्डप्रीतिके धारक प्रशंसा योग्य गुणोंके समुद्र रामके हल मूसल का आयुध लदमणके चक्रायुध समुद्र पर्यंत पृथिवीको भली भांति पालते सन्ते सौधर्म ईशान इन्द्र सारिखे शोभते भए। वे दोनों धीर वीर स्वर्गसमान जो अयोध्या उसमें देवों समान ऋद्धि भोगते महाकान्तिके धारक पुरुषोत्तम पुरुषोंके इंद्र देवेंद्र समान राज्य करते भए सुकृतके उदय से सकल प्राणियोंको आनन्द देयवेमें चतुर सुन्दर चरित्र जिनके, सुख सागरमें मग्न सूर्य समान तेजस्वी पृथिवीमें प्रकाश करते भए ।। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविष ___ गमको सीताका शोक वर्णन करनेवाला निन्यानवेवां पर्ण पूर्ण भया ।। ६६ ॥ अथानन्तर गौतम स्वामी कहै हैं-हे नराधिप ! राम लक्ष्मण तो अयोध्यामें तिष्ठे हैं अर अब लवणांकुशका वृत्तांत कहै हैं सो सुन-अयोध्याके सब ही लोक सीताके शोकसे पांडुता को प्राप्त भए अर दुर्बल होय गये अर पुण्डरीकपुरमें सीता गर्भके भार कर कछू एक पांडुता को प्राप्त भई अर दुर्बल भई । मानों सकल प्रजा महा पवित्र उज्ज्वल इसके गण वर्णन करे है सो गुणोंकी उज्ज्वलताकर श्वेत होय गई है अर कुचोंकी बीटली श्यामताको प्राप्त भई सो मानो माताके कुच पुत्रोंके पान करिवेके पयके घट हैं सो मुद्रित कर राखे हैं पर दृष्टि क्षीरसागर समान उज्ज्वल अत्यंत मधुरताको प्राप्त भई भर सर्व मंगलके समूहका आधार जिसका शरीर सर्वमंगलका स्थानक जो निर्मल रत्नमई प्रांगण उसमें मन्द २ पिचरै सो चरणोंके प्रतिबिंब ऐसे भासैं मानों पृथिवी कमलोंसे सीताकी सेवा ही कर है अर रात्रि में चन्द्रमा याके मन्दिर ऊपर आय निकसे सो ऐसा भासै मानों सुफेद छत्र ही है अर सुगन्धके महल में सुन्दर सेज ऊपर सूती ऐसा स्वप्न देखती भई कि महा गजेंद्र कमलोंके पुटविष जल भर कर अभिषेक करावे है अर बारम्बार सखीजनोंके मुख जय जयकार शब्द सुनकर जाग्रत होय है, परिवार के लोक समस्त आज्ञारूप प्रवर्ते हैं क्रीडाविष भी यह आज्ञाभंग न सह सके सब आज्ञाकारी भए शीघ्र ही आज्ञा प्रमाण करे हैं तो भी सबों पर तेज करे है, काहेसे कि तेजस्वी पुत्र गर्भ विपै तिष्ठे हैं अर मणियों के दर्पण निकट हैं तो भी खड़ग काढ खड़गमें मुख देखे है पर बीणा बांसुरी मृदंगादि अनेक वादित्रोंके नाद होय हैं सो न रुचें अर धनुषके चढायवेकी ध्वनि रुचे है अर सिंहोंके पिंजरे देख जिसके नेत्र प्रसन्न होंय अर जिसका मस्तक जिनेन्द्र टार औरकों न नमै। अथानन्तर नव महीना पूर्ण भये श्रावण सुदी पूर्णमासीके दिन श्रवण नक्षत्रके विपै वह मंगल रूपिणी सर्वलक्षण पूर्ण शरदकी पूनोंके चन्द्रमा समान है वदन जिसका सुखसे पुत्र युगल जनती भई । सो पुत्रोंके जन्ममें पुण्डरीकपुरकी सकल प्रजा अतिर्पित भई मानों नगरी नाच उठी, ढोल नगारे आदि अनेक प्रकारके वादिन बाजने लगे शंखोके शब्द भये । बज्रजंघने अति Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौवां पर्ण उत्सव किया बहुत संपदा याचकों को दई अर एक का नाम अनंगलवण दूजे का नाम मदनांकुश ये यथार्थ नाम थरे फिर ये बालक वृद्धि को प्राप्त भए माताके हृदयको अति आनंद के उपजावन हारे महाधीर शूरवीरताके अंकुर उपजे, सरसों के दाणे इनके रक्षा के निमित्त इनके मस्तक डारे सो ऐसे सोहते भए मानों प्रतापरूप अग्निके कण ही हैं जिनका शरीर ताये सुवर्ण समान अति देदीप्यमान सहजस्वभाव तेजकर अति सोहता भया अर जिनके नख दर्पणसमान भासते भए । प्रथम बाल अवस्था में अव्यक्त शब्द बोले सो सर्वलोकके मनको हरें अर इनकी मंद मुलकनि महामनोग्य पुष्पों के विकसने समान लोकनके हृदयको मोहती भई अर जैसे पुष्यों की सुगन्धता भ्रमरोंके समूह को अनुरागी करे तैसे इनकी वासना सब के मनको अनुरागरूप करती भई यह दोनों माताका दूध पान कर पुष्ट भए अर जिनका मुख महासुन्दर सुफेद दांतों कर अति सोहता भया मानों यह दांत दुग्ध समान उज्जवल हास्यरस समान शोभायमान. दीखे हैं, थायकी श्रीगुरी पकडे आंगन में पांव धरते कौन का मन न हरते भए ? जानकी ऐसे सुन्दर क्रीडा के करणहारे कुमारों को देखकर समस्त दुःख भूलगई । बालक बडे भए अति मनोहर सहज ही सुन्दर हैं नेत्र जिनके, विद्या पढने योग्य भए तब इनके पुण्यके योगकर एक सिद्धार्थनामा क्षुल्लक शुद्धात्मा पृथिवीमें प्रसिद्ध वज्रजंघके मन्दिर आया सो महाविद्याके प्रभाव कर त्रिकाल सन्ध्या में सुमेरु. गिरिक चैत्यालय बंदि आवै प्रशांतवदन साधु समान है भावना जिसके अर खंडित वस्त्र मात्र है परिग्रह जिसके उत्तम अणुव्रतका थारक नानाप्रकारके गुणों कर शोभायमान, जिनशासनके रहस्य का वेत्ता समस्त कलारूप समुद्र का पारगामी तपकर मंडित अति मोहै सो आहारके निमित्त भ्रमता संता जहां जानकी तिष्ठे थी वहां आया, सीता महासती मानों जिनशासन की देवी पद्मावती ही है सो क्षुल्लक को देख अति आदर से उठकर सन्मुख जाय इच्छ कार करती भई अर उत्तम अन्नपानसे तृप्त किया, सीता जिनधर्मियों को अपने भाई समान जाने है सो क्षुल्लक अष्टांग निमित्त ज्ञानका वेत्ता दोनों कुमारों को देखकर अति संतुष्ट होयकर सीता से कहता भया–हे देवि ! तुम सोच न करो जिसके असे देवकुमार समान प्रशस्त पुत्र उसे कहा चिंता ? ___अथानन्तर यद्यपि चुन्नक महाविरक्त चित्त है तथापि दोनों कुमारोंके अनुरागसे कैयक दिन तिनके निकट रहा थोडे दिनों में कुमारों को शास्त्र शस्त्रविद्या में निपुण किया सो कुमार ज्ञान विज्ञानमें पूर्ण सर्व कलाके धारक गुणों के समूह दिव्यास्त्रके चलायवे पर शत्रओंके दिव्यास्त्र आवें तिनके निराकरण करवेकी विद्या में प्रवीण होते भये, महापुण्यके प्रभावसे परमशोभाको धारें महालक्ष्मी वान दूर भए हैं मति श्रुति आवरण जिनके मानो उघडे निधिके कलश ही हैं। शिष्य बुद्धिमान होय तब गुरुको पढायत्रका कछू खेद नाहीं जैसे मंत्री बुद्धिमान होय तब राजाको राज्य कार्यका .. कछु खेद नाहीं अर जैसे नेत्रान पुरुषों को सूर्यके प्रभारकर घट पटादिक पदार्थ सुख भारौं तैसे गुरुके प्रभावकर बुद्धिवन्तको शब्द अर्थ सुख से भास जैसे हमों को मानसरोवरमें आवते कछु खेद नाहीं तैसे विवेकवान विनयवान बुद्धिमानको गुरुभक्ति के प्रभावसे ज्ञान प्रावते परिश्रम नाहीं सुख से अति गुणोंकी वृद्धि होय है अर बुद्धिमान शिष्यको उपदेश देव गुरु कृतार्थ होय है Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण अर कुबुद्धिको उपदेश देना वृथा है जैसे सूर्यका उद्योत धूपोंको वृथा है यह दोंनो भाई देदीप्य. मान है यश जिनका अति सुन्दर महाप्रतापी सूर्यकी न्याई जिनकी ओर कोऊ विलोक न सके, दोऊ भाई चन्द्र सूर्य समान दोनों में अग्नि अर पवन ममान प्रीति मानों वह दोनों ही हिमाचन वि. ध्याचलसमान हैं वृषभनाराचसंहनन है जिनके, सर्व तेजस्वीनिके जीतको समर्थ सब राजावोंका उदय अर अस्त जिनके आधीन होयगा महा धर्मात्मा धर्मके धारी अत्यन्त रमणीक जगत को सखके कारण सब जिनकी आज्ञामें, राजा ही आज्ञाकारी तो पोरों की क्या बात काहूको आज्ञारहित न देख सकें अपने पांवनिके नखोंमें अपनाही प्रतिवम्ब देख न सकें तो और कोनसे नम्रीभूत होंय अर जिनको अपने नख अर केशोंका भंग न रुचे तो अपनी आज्ञाका भंग कैसे रुचे अर अपने सिरयर चूडामणि धारिये अर सिरपर छत्र फिरे अर सूर्य ऊपर होय आय निकसे तोभी न सहार सकें तो औरोंकी ऊंचता कैसे सहारें, मेघका धनुष चढा देख कोप करें तो शत्रु के धनुषकी प्रबलता कैसे देख सकें चित्रामके नृप न नमैं तो भी सहार न सकें तो साक्षात् नृों का गर्व कब देख सकें, अर सूर्य नित्य उदय अस्त होय उसे अन्य तेजस्वी गिनें घर पवन महा बलवान है परन्तु चंचल सो उसे बलवान न गिनें जो चलायमान सो बलवान काहेका ? जो स्थिरभूत अवल सो बलवान अर हिमवान पर्वत उच्च है स्थिरीभूत है परन्तु जड अर कठोर कंटक सहित है तातै प्ररांपा योग्य न गिनें पर समुद्र गंभीर है रत्नों की खान है परन्तु क्षार अर जलचर जीवों को धरै अर शंखोंकर युक्त तात समुद्रको तुच्छ गिनें । ये महागुण निके निवास अति अनुपम जेते प्रचल राजा हुते तेजरहित होय इनकी सेवा करते भए, ये महाराजावों के राजा सदा प्रसन्नवदन मुखसे अमृत वचन बोलें सपनि कर सेवन योग्य जे दूरवर्ती दुष्ट भूपाल हुने ते अपने तेजकर मलिनवदन किये सब मुरझाय गये इनका तेज ये जन्मे तबसे इनके साथही उपजा है शस्त्रोंके धारणहारे जिनके कर के उदर श्यामताको थरे हैं सो मानों अनेक राजावों के प्रतापरूप अग्निके बुझावनेसे श्याम हैं समस्त दिशारूप स्त्री वशीभूत कर देने वाली भई महा धीर धनुपके धारक तिनके सत्र अज्ञाकारी भए जैसा लवण तैसा ही अंकुश दोनों भाइनमें कोई कमी नाहीं ऐसा शब्द पृथिवी में सबके मुख, ये दोनों नवयौवन महासुन्दर अद्भुन चेष्टाके धरण हारे पृथिवीमें प्रसिद्ध समस्त लोकोंकर स्तुति करवे योग्य जिनके देखिवे की सबके अभिलाषा पुण्य परमाणुनिकर रचा है पिंड जिनका, सुखका कारण है दर्शन जिनका स्त्रियोंके मुखरूप कुमुद ति. नके प्रफुल्लित करनेको शरद की पूर्णमासीके चन्द्रमा समान सोहते भए, माताके हृदयको आनन्दके जंगम मंदिर ये कुमार सर्यसमान कमल नेत्र देवकुमार सारिखे श्रीवत्सलक्षणकर मंडित है वक्ष. स्थल जिनका अननगपराक्रम के धारक संसार समुद्र के तट आये चरम शरीर परस्पर महाप्रेमके पात्र सदा धर्मके मागमें तिष्ठे हैं देवोंका पर मनुष्योंका मन हरे हैं। भावार्थ-जो धर्मात्मा होय सो काहू का कुछ न हरे ये धर्मात्मा परथन परस्त्री तो न हरें परन्तु पराया सन हरें। इनको देख सबनिका मन प्रसन्न होय ये गुणोंकी हदको प्राप्त भए हैं। गुण नाम ड्रोरे का भी है सो हदपुर गांठको प्राप्त होय है अर इनके उर में गांठ नाही महा निः Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौएकवा : ५१६ कपट हैं अपने तेजकर सूर्यको जीते हैं पर कांतिकर चन्द्रमाको जीत हैं अर पराक्रमकर इन्द्रको अर गम्भीरताकर समुद्र को स्थिरताकर सुमेरुको अर क्षमाकर पृथिवीको अर सूरवीरताकर सिंहको चालकर हंसको जीते हैं अर महाजल में मकर ग्राह नकादिक जलचरोंसे क्रीडा करे हैं अर माते हाथियोंसे तथा सिंह अष्टापदोंसे क्रीडा करते खेद न गिनें पर महा सम्पगदृष्टि उत्तम स्वभाव अति उदार उज्ज्वल भाव जिनसे कोई युद्ध कर न सके महायुद्ध में उद्यमी जे कुमार मधु कैटभ सारिखे साहसी इन्द्रजीत मेघनाद सारिखे योधा जिनमार्गी गुरुसेवामें तत्पर जिनेश्वरकी कथामें रत जिनका नाम सुन शत्रुवों को त्रास उपजे । यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते भए -हे राजन! ते दोनों वीर महाथीर गुणरूप रत्नके पर्वत महा ज्ञानवान लक्ष्मीवान शोभा कांति कीतिक निवास चित्तरूप माते हाथी के वशकरको अंकुश महाराजरूप मंदिरके दृढ स्तम्भ पृथिवीले सूर्य उता आचरण के थार ला अंकुश नरसति विचित कार्यके करणहारे पुंडरोक नगर में यथेष्ट देवोंकी न्याई रमें महा उत्तम पुरु। जिनके निकट जिनका तेज लख सूर्य भी लज्जा. वान् होय जैसे बलभद्र नारायण अयोध्यामें रमें तैसे यह पुण्डरीकपुरमें रमे हैं। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषाचनिकाबिौं लवणांकुश पराक्रम वर्णन करनेवाला एकसौंवां पर्व पूर्ण भया ॥ १०० ॥ अथानन्तर अति उदार क्रियामें योग्य अति सुन्दर तिनको देख वज्रजंघ इनके परणायबेमें उद्यमी भया, तब अपनी शशिचूला नामा पुत्री लक्ष्मी राणीके उदर में उपजी सो बत्तीस कन्या सहित लवणकुमारको देनी विचारी अर अंकुश: कुमारका भी विवाह साथही करना सो अंकुश-योग्य कन्या दिवेको चिंतावान भया फिर मनमें विचारी पृथिवीपुर नगरका राजा पृथु ताके राणी अमृतवती ताकी पुत्री कनकमाला चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल अपने रूपकर लक्ष्मीको जीते है यह मेरी पुत्री शशिचूला समान है यह विचार तापै दून भेजा. सो दूत विंच. क्षण पृथ्वीपुर जाय पृथुसे कही । जौलग दूत ने कन्यायाचनके शब्द न कहे तौलग इसका अति सननान किया अर जब याने याचनेका वृत्तांत कहा तब वह क्रोधायमान भया अर कहता भया--तू पराधीन है अर पराई कहाई कहे है । तुम दूतलोग जलकी धाराके समान हो, जा दिशा चलावे ताही दिशा चलो तुममें तेज नाही बुद्धि नाहीं, जो ऐसे पापके वचन कहै ताका निग्रह करू पर तू पराया प्रेरा यंत्र समान है यंत्री यंत्र बजाये है न्यों बाजै तातें तू हनिबे योग्य नाही, हे दूत १ कुल २ शील ३ धन ४ रूप ५ समानता ६ बल ७ वय ८ देश विद्या ये नव गुण वरके कहे हैं तिनमें कुल मुख्य है सो जिनका कुल ही न जानिए तिनको कन्या कैसे दीजिए ताते ऐसी निर्लज्ज बात क है सो राजा नीतिसे प्रतिकूल है सो कुमारी तो मैं न छुअर कु कहिए खोटी मारी कहिए मृत्यु सो छु । या भांति दूतको विदा .िया सो दुनने आयकर बज्रजंघको व्योरा कहा सो बज्रजंघ आपही चढ कर आधी दूर आय डेरा किये अर बडे पुरुषनिको भेज बहुरि पृथु से वन्या याची ताने न दई तब राजा बज्रजंत्र पृथुका देश उआडने लगा अर देशका रक्षक राजा व्याघ्ररथ ताहि युद्ध में जीति बांध लिया तब राजा पृथुने सुनी कि व्याघ्ररथको राजा बज्र. Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ erwarna पद्म-पुराण जंघ बांथा भर मेरा देश उजाडे है तब पृथुने अपना परम मित्र पोदनापुरका पति परम सेना सहित बुलाया तब बनजंघने पुण्डरीकपुरसे अपने पुत्र बुलाए तब पिताकी आज्ञा पाय पुत्र शीघ्र ही चलिवेको उद्यमी भए, नगरमें राजपुत्रनिके कूचका नगारा बजा सब सामंत बख्तर पहिरे श्रायुध सजकर युद्धके चलनेको उद्यमी भए नगरमें अति कोलाहल भया पडरीकपुरमें जैसा समुद्र गाजै ऐसा शब्द भया तब सामन्तनिके शब्द सुन लवण अर अंकुश निकटवर्ती को पूछते भए--यह कोलाहल शब्द काहेका है ? तब काहूने कही अंकुशकुमारके परणायवो निमित्त बज्रजंघ राजाने पृथुकी पुत्री याची हुती सो ताने न दई तब राजा युद्धको चढे अर अब राजा अपनी सहायताके अर्थ अपने पुत्रनिको बुलाया है अर सेना बुलाई है सो यह सेनाका शब्द है। यह समाचार सुन कर दोऊ भाई आप युद्धके अर्थ अति शीघ्रही जायवेको उद्यमी भए । कैसे हैं कुमार ? आज्ञा भंगको नाही सह सके हैं तब बजंघके पुत्र इनको मने करते भए अर सर्व राजलोक मने करते भए तौ हू इन न मानी तब सीता पुत्रनिके स्नेहकर द्रवीभूत हुवा है मन जाका सो पुत्रनिको कहती भई-तुम बालक हो, तिहारा युद्धका समय नाहीं । तब कुमार कहते भए-हे माता! तू यह कहा कहीं बडा भया अर कायर भया तो कहा ? यह पृथिवी योधानिकर भीगवे योग्य है अर अग्निका कण छोटा ही होय है पर महावनको भस्म करे है या मांति कुमारने कही तब माता इनको सुभट जान आंखोंसे इर्ष अर शोकके किंचितमात्र अश्रुपात करती भई । ये दोउ वीर महा धीर स्नान भोजन कर श्राभूषण पहिरे मन वचन कायकर सिद्धनिकों नमस्कारकर बहुरि माताको प्रणामकर समस्त विधिमें प्रवीण घरते बाहिर आए तब भले भले शकुन भए दोऊ रथवढ सम्पूर्ण शस्त्रनिकर युक्त शीघ्रगामी तुरंग जोड पृथुपर चले महा सेनाकर मंडित धनुष बाण ही हैं सहाय जिनके महा पराक्रमी परम उदारचित्त संग्रामके अग्रसर पांच दिवसमें वजगंध पै जाय पहुंचे तब राजा पृथु शत्रुनिकी बडी सेना भाई सुन आप भी बडी सेनासहित नगरसे निकसा जाके भाई मित्र पुत्र मामाके पुत्र सबही परम प्रीति पात्र अर अंगदेश बंगदेश भगधदेश आदि भनेक देशनिके बडे बडे राजा तिन सहित रथ तुरंग हाथी पयादे बडे कटकसहित बजंघ पर आया तब बजंघके सामन्त परसेनाके शब्द सुन युद्धको उद्यमी भए दोऊ सेना समीप भई तब दोऊ भाई लवणकुश महा उत्साहरूप परसेनामें प्रवेश करते भए । वे दोऊ योधा महा कोपको प्राप्त भए अति शीघ्र है परावर्त जिनका परसेनारूप समुद्र में क्रीडा करते सब ओर परसेनाका निपात करते भए, जैसे बिजली का चमत्कार जिस ओर चमके उस ओर चमक उठे तैसे सब ओर मार मार करते भए शत्रुनितें न सहा जाय पराक्रम जिनका धनुष पकडते बाण चलाते दृष्टि न प. अर बाणनिकर हते अनेक दृष्टि पडे, नानाप्रकारके क्रूर वाण तिनकर बाहन सहित परसेनाके अनेक योधा पीडे पृथिवी दुर्गम्य होय गई एक निमिपमें पृथु की सेना भागी जैसे सिंहके त्राससे मदोन्मत्त गजनिक समूह भागे एक क्षणमात्रमें पृथुकी सेनारूप नदी लवणांकुशरूर सूर्य तिनके बाणरूप किरण निकर शोषको प्राप्त भई, कैयक मारे पडे कैयक भयतै पीडित होय भागे, जैसे पाकके फूल उडे उडे फिरें । राजा पृथु सहायरहित खिन्न होय भागनेको उद्यमी भया तब दोऊ भाई कहते Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ raatraai प भए – हे पृथु ! हम अज्ञात कुल शील हमारा कुल कोऊ जाने नाहीं तिन पै भागता तू लज्जावान् न होय है तू खडा रह, हमारा कुल शील तोहि बाणनिकरि बतावें, तब पृथु भागता हुता सो पोछा फिर हाथ जोड नमस्कारकर स्तुति करता भया - तुम महा धीरवीर हो मेरा अज्ञानताजनित दोष क्षमा करहु मैं मूर्ख तिहारा माहात्म्य अब तक न जाना हुता महा धीरवीरनिका कुल, या सामंतताही जाना जाय है कछु वाणीके कहँसें न जाना जाय है सो मैं निसंदेह भया । वनके दाहकू समर्थ जो अग्नि सो तेजहीतें जानी जाय है सो आप परम धीर महाकुलमें उपजे हमारे स्वामी हो, महाभाग्यके योग तिहारा दर्शन भया तुम सबको मन बांछित सुखके दाता हो या भांति पृथुने प्रशंसा करी ।। मिटगया शांतमन अर शांतमुख होय गये पृथुके प्रीति भई जे उत्तम प्रवाह नम्रीभूत जे बेल तब दोऊ भाई नीचे होय गये अर क्रोध वजूजंघ कुमार निके समीप आया अर सब राजा आये कुमारनिके और पुरुष हैं वे प्रणाममात्र ही करि प्रसन्नताको प्राप्त होय हैं जैसे नदी का तिनको न उपाडै अर जे महावृच नम्रीभूत नाहीं तिनको उपाडै फिर राजा वज्रजंध को श्रर दोऊ कुमारनिको पृथु. नगर में लेगया, दोऊ कुमार श्रानंदके कारण | मदनांकुश को अपनी कन्या कनकमाला महाविभूतिसहित पृथु ने परणाई एक रात्री यहां रहे फिर यहां दोऊ भाई विचक्षणदिग्विजय करवेको निव से सुहादेश मगध देश अंगदेश बंगदेश जाता पोदनापुर के राजाको आदि दे अनेक राजा संग लेय लोकाक्ष नगर गए, वातरफ के बहुत देश जीते कुबेरकांत नामा राजा प्रतिमानी ताहि ऐसा वश कीया जैसे गरुड नाग जीतै सत्यार्थपनतें दिन दिन इनकें सेना बढी हजारां राजा वश भए अर सेवा करने लगे फिर लंपाक देश गए वहां एक कर्ण नामा राजा प्रतिप्रबल ताहि जीतकर विजयस्थलीको गए वहांके राजा सौ भाई तिनको अवलोकन मात्र ही जीता, गंगा उतर कैलाश की उत्तर दिशा गए, वहांके राजा नानाप्रकारकी भेट ले आय मिले झप कुंतल नामा देश तथा कालांबु, नंदि नंदन सिंहल शलभ अनल चौल भीम, भूतरव, इत्यादि अनेक देशाधिपतिनिको वशकर सिंधु नदीके पार गये समुद्रके तटके राजा अनेक निको नमाये अनेक नगर अनेक खेट अनेक मटंब अनेक देश वश किये भीरु देश यवन कच्छ चारव त्रिजटनट सक केरल नेपाल मालव अरल सर्वर त्रिशिर पारशैल गोशील कुमीनर सूर्यरक सनत विंध्य शूरसेन बाहीक उलूक कोशल गांधार सौवीर अंध काल कलिंग इत्यादि देश वश कीये, कैसे हैं देश जिनमें नानाप्रकारकी भाषा अर वस्त्रनिका भिन्न २ पहराव अर जुद जुदे गुण नानाप्रकारके रत्न अनेक जातिके वृक्ष जिनविषै अर नानाप्रकार स्वर्ण आदि धनके भरे । कैयक देशके राजा प्रतापही चाय मिले कैयक युद्ध में जीते वश किये, कैयक भाग गए बडे बडे राजा देशपति अति अनुरागी होय लवणांकुशके आज्ञाकारी होते भए, इनकी श्राज्ञा प्रमाण पृथिवी में विचरै । वे दोनो भाई पुरुषोत्तम पृथिवीको जीत हजारों राजानिके शिरोमणि होते भए सबनिको वशकर लार लिए नानाप्रकारकी सुन्दर कथा करते सबका मन हरते पुण्डरीक 1 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ पद्म पराण पुरको उद्यमी भए । वज्रजंघ लार ही है अति हर्षके भरे अनेक राजानकी अनेक प्रकार भेट आई सो महा विभूतिको लिये अतिसेना कर मंडित पुण्डरीकपुरके समीप आए, सीता सतखणे महिल चढी देखे है राजलोककी अनेक राणी समीप हैं अर उत्तम सिंहासन पर तिष्ठे हैं दूरसे श्राती सेनाकी रजके पटल उठे देख सखिनको पूछती भई—यह दिशा में रजका उडाव कैसा है तब तिन कही-हे देवी सेनाकी रज है जैसे जलमें मकर किलोल करें तैसे सेनामें अश्व उछलते आवै हैं हे स्वामिनि ! ये दोनों कुमार पृथिवी वशकर आये या भांति सखीजन कहे हैं अर बधाई देन. हारे आए नगरकी अति शोभा भई लोकनिके अति आनंद भया निर्मल ध्वजा चढाई समस्त नगर सुगंधकर छांटा अर वस्त्र आभूषणनिकर शोभित किया दरवाजे पर कलश थापे सो कलश पल्लवनिकर ढके अर ठौर ठौर बंदनमाला शोभायमान दिखती भई अर हाट बाजार पांटवरादि वस्त्रकर शोभित भए जैसी श्रीराम लक्ष्मण के पाए अयोध्याकी शोभा भई हुती तैसीही पुंडरीकपुरकी शोभा कुमारनिके पाएसे भई । जा दिन महाविभूतिम प्रवेश किया तादिन नगर के लोगनिको जो हर्ष भया सो कहिवेमें न आवै । दोऊ पुत्र कृतकृत्य तिनको देखकर सीता आनन्दके सागरमें मग्न भई दोऊ वीर महा धीर आयकर हाथ जोड माता को नमस्कार करते भये सेनाकी रजकर धूमरा है अंग जिनका, मीताने पुत्रनिको उरसे लगाया माथे हाथ धरा माताको अति आनन्द उपजा दोऊ कुमार चांद सूर्य की न्याई लोकमें प्रकारा करते भये । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वनिकानिये लवणांकुशका दिग्विजय वर्णन करनेवाला एकसौएकबां पणे पण भया ।। ५०१ ।। अथानन्तर ये उत्तम मानव परम ऐश्वर्यके धारक प्रबल राजानि पर याज्ञा करते सुखसू तिष्ठे एक दिन नारदने कृतान्तवक्रको पूछी कि तू सीताको कहां मेल आया, तब ताने कही कि सिंहनाद अटवी में मेली सो यह सुनकर अति व्याकुल होय ढूढता फिरे हुता सो दोऊ कुमार वनक्रीडा करते देखे तब नारद इनके समीप आया कुमार उठकर सन्मान करते भये नारद इनको विनयवान देख बहुत हर्षित भया अर श्राशीम दई जैसे राम लक्ष्मण नरनाथके लक्ष्मी है तैसी तुम्हारे होश्रो। तब ये पूछते भये कि हे देव ! राम लक्ष्मण कोन हैं, अर कौन कुल में उपजे हैं, अर कहा उनमें गुण है अर कैसा तिनका आचरण है तब नारद क्षण एक मौन पकड कहते भये-हे दोऊ कुमारो कोई मनुष्य भुजानिकर पर्वतको उखाडै अथवा समुद्रको तिरै तोहू राम लक्ष्मणके गुण कह न सके अनेक वदन कर दीर्घ काल तक तिनके गुण वर्णन करें तो भी राम लक्ष्मणके गुण कह न सके तथापि मैं तिहारे वचनसे किचिंतमात्र वर्णन करू हूं तिनके गुण पुण्यके वढावनहारे हैं। अयोध्यापुरीमें राजा दशरथ होते भये दुराचाररूप ईन्धनके भस्म करवेको अग्नि समान अर इक्ष्वाकु बंश रूप आकाश में चन्द्रमा महा तेजनय सू समान सकल पृथिवीमें प्रकाश करते अयोध्याम तिष्ठे । वे पुरुषरूप पर्वत तिनकरि कीर्तिरूप नदी निकसी, सो सकल जगतकों आनन्द उपजाती समुद्र पर्यन्त विस्तारको धारती भई ता दशरथ भूपतिके राज्यभारके धुरंधर ही चार पुत्र महागुणवान भए एक राम दूजा लक्ष्मण तीजा भरत चौथा शत्रुघ्न तिनमें राम अति Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौ दोवा पर्व ५२३ मनोहर सर्वशास्त्र के ज्ञातां पृथिवीमें प्रसिद्ध सो छोटे भाई लक्ष्मण सहित अर जनककी पुत्री जो सीता ता सहित पिता की आज्ञा पालिवे निमित्त अयोध्याको तज पृथिवीमें विहार करते दण्डक वनमें प्रवेश करते भए । सो स्थानक महा विषम जहां विद्याधरनिके गम्यता नाहीं खरदूषणते संग्राम भया। रावणने सिंहनाद किया ताहि सुनकर लक्ष्मणकी सहाय करनेको राम गये पीछेस् सीताको रावण हरलेगया तब रामसे सुग्रीव हनूमान विराधित आदि अनेक विद्याधर भेले भये रामके गुणनिके अनुरागकर वशीभूत है हृदय जिनका सो विद्याधरनिको ले यकर राम लंकाको गये रावणको जीत सीताको लेय अयोध्या आये स्वगपुरी समान अयोध्या विद्याधरनिने बनाई तहां राम लक्ष्मण पुरुषोत्तम नागेंद्र समान सुखसे राज्य करें। रामको तुम अब तक कैसे न जाना जाके लक्ष्मणसा भाई ताके हाथ सुर्दशन चक्र सो आयुध जाके एक २ रत्नकी हजार २ देव सेवा करें सात रत्न लक्ष्मणके अर चार रत्न रामके जाने प्रजाके हित निमित्त जानकी तजी ता रामको सकल लोक जाने ऐसा कोई पृथिवीमें नाही जो रामको न जाने या पृथिवी की कहा बात ? स्वर्गमें देव निके समूह रामके गुण वर्णन करें हैं। तब अंकुशने कही-हे प्रभो ! रामने जानकी काहे तजी सो वृत्तांत में सुना चाहूँ हूं तब सीताके गुणनिकर धर्मानुरागमें है चित्त जाका ऐसा नारद सोांसू डार कहता भया-हे कुमार हो ! वह सीता सती महा निर्मल कुलविष उपजी शीलवंती पतिव्रता श्रावकके आचारमें प्रवीण रामकी पाठ हजार राणी तिनकी शिरोमणी लक्ष्मी कीर्ति धृति लज्जा तिनकों अपनी पवित्रतात जीतकर साक्षात् जिनवाणी तुल्य, सो कोई पूर्वोपार्जित पापके प्रभावकर मूढलोक अपवाद करते भये ताते रामने दुखित होय निर्जन वनमें तजी खोटे लोक तिनकी बाणी सोई भई जेठके सूर्यकी किरण ताकर तप्तायमान वह सती काप्टको प्राप्त भई, महा सुकुमार जाविषे अल्प भी खेद न सहार पड़े मालतीकी माला दीपके आतापकर मुरझाय सो दावानलका दाह कैसे सहार सके, महा भीम बन जामें अनेक दुष्ट जीव तहां सीता कैसे प्राणनिको थरे, दुष्ट जीवनिकी जिह्वा भुजंगसमान निरपराध प्राणिनिको क्यू डसे १ शुभ जीवनिकी निन्दा करते दुष्टनिके जीभके सौ टूक क्न होवें वह महा सती पतिव्रतानिकी शिरोमणी पटुता आदि अनेक गुण निकर प्रशंसायोग्य अत्यन्त निर्मल महा सती ताकी जो लोक निंदा करें सो या भव अर परभवमें दुखको प्राप्त होंय ऐसा कहकर शोकके भारकर मौन गह रहा, विशेष कछू कह न सका । सुनकर अंकुश बोले-हे स्वामी भयंकर वनमें रामने सीताको तजते भला न किया । यह कुलवंतोंकी रीति नाहीं है लोकापवाद निवारवैके और अनेक उपाय हैं ऐसा अविवेकका कार्य ज्ञानवंत क्यों करें । अंकुशने तो यही कही अर अंनगलवण बोला—यहांसू अयोध्या केतीक दूर है ? तब नारद कही यहांसे एकसौ साठ योजन है जहां राम विराजे हैं तब दोऊ कुमार बोले हम राम लक्ष्मणपर जावेंगे या पृथ्वी में ऐसा कौन जाकी हमारे आगे प्रबलता । नारदसों यह कही अर वज्रजंघसे कही--हे मामा ! सुम देश सिंधु देश कलिंग देश इत्यादि देशनिके राजावोंको आज्ञापत्र पठाबहु जो संग्रामका सव सरंजाम लेकर शीघ्रही श्रावें हमारा अयोध्याकी तरफ कूच Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण है अर हाथी समारो मदोन्मत्त केते अर निर्मद केते अर घोडे घायु समान है वेग जिनका सो संग लेवहु अर जे योधा रणसंग्राममें विख्यात कभी पीठ न दिखा तिनको लार लेवो, सत्र शस्त्र सम्हारो वक्तरनिकी मरम्मत करावहु अर युद्धके नगारे दिवावहु ढोल बजावहु शंखनिके शब्द करावहु सब सामंतोंको युद्धका विचार प्रगट करहु यह आज्ञाकर दोऊ वीर मनमें युद्धका निश्चयकर तिष्ठे मानों दोऊ भाई इन्द्र ही हैं देवनि समान जे देशपति राजा तिनको एकत्र करिवेको उद्यमी भए तब राम लक्ष्मणपर कुमारनिकी असवारो सुन सीता रुदन करती भई अर सीताके समीप नारदको सिद्धार्थ कहता भया-यह अशोभन कार्य तुम कहा आरंभा ? रण में उद्यम करिवेका है उत्साह जिनके ऐसे तुम सो पिता अर पुत्रनिमें क्यों विरोधका उद्यम किया अब काहू भांति यह विरोध निवारो, कुटुम्ब भेद करना उचित नाहीं तब नारद कही-मैं तो ऐसा कछू जान्या नाही इन विनय किया मैं प्राशीस दई कि तुम राम लक्ष्मणसे होवो, इनने सुनकर पूछी-राम लक्ष्मण कौन हैं ? मैं सब वृत्तांत कहा अब भी तुम भय न करो सब नीके ही होयगा अपना मन निश्चल करहु कुमारनि सुनी कि माता रुदन करे है तब दोऊ पुत्र माताके पास आय कहते भए-हे मात ! तुम रुदन क्यों करो हो ? सो कारण कहो तिहारी आज्ञाको कौन लोपे, असुन्दर वचन कौन कहे, ता दुष्टके प्राण हरें ऐसा कौन है जो सर्पकी जीभतें क्रीडा करे ऐसा कौन मनुष्य अर कौन देव जो तुमको असाता उपजावै है-मातः ! तुम कौनपर कोप किया है जापर तुम कोप करो ताका जानिये आयुका अन्त आया है हमपर कृपाकर कोपका कारण कहहु । या भांति पुत्रनि विनती करी तब माता आमू डार कहती भई-हे पुत्र ! मैं काहू पर कोप न किया न मुझ काहूने असाता दई । तिहारा पितासे युद्धका आरंभ सुन मैं दुखित भई रुदन करूहूं। गौतम स्वामी कहे हैं -हे श्रेणिक ! तब पुत्र मातासे पूछते भये-हे माता! हमारा पिता कौन ? तब सीता आदिसे लेय सब वृत्तांत कहा-रामका वंश अर अपना वंश विवाहका वृत्तांत अर वनका गमन अपना रावणकर हरण अर आगमन जो नारदने वृत्तांत कहा हुता सो सब विस्तारसू कहा कछु छिपाय न राखा अर कही तुम गर्भ में आए तब ही तिहारा पिताने लोकापवादका भयकर मुझ सिंहनाद अटवीमें तनी तहां मैं रुदन करती हुती सो राजा वज्रजंघ हाथी पकडने गया हुता सो हाथी पकड बाहुडे था मोहि रुदन करती देखी सो यह महा धर्मात्मा शीलवंत श्रावक मोहि महा प्रा. दरसूल्याय बडी बहिनका आदर जनाया अर अति सन्मानतें यहां राखी मैं भाई भामंडल समान याका घर जाना, तिहारा यहां सन्तान भया, तुम श्रीरामके पुत्र हो, राम महाराजाधिराज हिमाचल पर्वत सू लेय समुद्रांत पृथवीका राज्य करे हैं जिनके लक्ष्मण सा भाई महाबलवान् संग्राममें निपुण है, न जानिये नाथकी अशुभ वार्ता सुन अक तिहारी अथवा देवरकी तातै आर्त्तचित्त भई मैं रुदन करूहूं अर कोऊ कारण नाहीं । तब सुनकर पुत्र प्रसन्न वदन भए अर मातासे कहते भए-हे माता! हमारा पिता महा धनुष धारी लोकमें श्रेष्ठ लक्ष्मीवान विशाल कीर्तिका धारक है अर अनेक अद्भुत कार्य किए हैं परंतु तुमको वनमें तजी सो भला न किया तातें हम शीघ्रही राम लक्ष्मणका मानभंग करेंगे, तुम विषाद मत करहु तब सीता कहती भई-हे पुत्र हो! Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौ दोवा पर्न वे तिहारे गुरुजन हैं उन विरोध योग्य नाहीं । तुम चित्त सौम्य करहु । महा विनयवन्त होय जाय कर पिताको प्रणाम करहु यह ही नीतिका मार्ग है ॥ तब पुत्र कहते भए. हे माता! हमारा पिता शत्रुभावको प्राप्त भया हम कैसे जाय प्रणाम करें अर दीनताके वचन कैसे कहें हम तो माता तिहारे पुत्र हैं ताते रण संग्राममें हमारा मरण होय तो होवो परन्तु योधानिसे निन्ध कायर वचन तो हम न कहैं, यह वचन पुत्रनिके सुन सीता मौन पड रही परन्तु चित्त में अति चिन्ता है दोऊ कुमार स्नानकर भगवान की पूजा कर मंगल पाउपह सिद्धनिको नमस्कार कर माताको धीर्यवधायन स्कार कर दोऊ महा मंगलरूप हाथी पर चढे मानों चांद सूर्य गिरिके शिखर तिष्ठे हैं अयोध्या ऊपर युद्धको उद्यमी भए जैसे राम लक्ष्मण लंका ऊपर उद्यमी भए हुने इनका कूच सुन हजारों योधा पुण्डरीकपुरसे निकसे, सब ही योधा अपना अपना हल्ला देते भए वह जाने मेरी सेना अच्छी दीखे वह जाने मेरी, महा कटक संयुक्त नित्य एक योजन कून करें सो पृथिवीकी रक्षा करते चले जाय हैं किसीका कुछ उजाडे नाहीं । पृयेशी नानाप्रकारके धान्य करि शोभायम न है कुनारनिका प्रताप श्रागे आगे बढता जाप है मार्गके राजा भेट दे मिले हैं, दस हजार वेलदार कुदाल लिए आगे आगे चले जाय हैं अर धरती ऊची नीचीको सम करें हैं अर कुल्हाडे हैं हाथोंमें जिनके वे भी आगे आगे चले जाय हैं अर हाथी ऊंट भैमा बलद खच्चर खजाने के लदे जाय हैं, मंत्री आगे आगे चले जाय हैं अर प्यादे हिरण की न्याई उछ नते जाय हैं अर तुरंगनिके असवार अति तेज से चले जाय हैं तुरंगनिकी हींस होय रही है अर गजराज चले जांय हैं जिनके स्वर्णकी सांकल अर महा घंटानिका शब्द होय है अर जिनके कानों पर चमर शोभे हैं अर शंखनिकी ध्वनि होय रही है अर मोतिनिकी झलरी पानीके बुदबुदा समान अत्यन्त सोहे हैं पर सुन्दर हैं याभूपण जिनके महा उद्धत जिनके उज्जल दांनिके स्वर्ण आदिके पन्ध बन्धे है अर रत्न स्वर्ण आदिक की माला तिनसे शोभायमान चलते पर्वत समान नानाप्रकारके रंग रंगे अर जिनके मद झरे हैं अर कारी घटा समन श्याम प्रचंड वेगको धरें जिनपर पाखर परी हैं नानाप्रकार के शस्त्रनिकरि शोभित हैं अर गजरा करे हैं और जिन पर महा दीप्ति के धारक सामन्त लोक चड़े हैं अर महावतनिने अति सिखाये हैं अपनी सेनाका र परसेनाका शब्द पिछाने हैं सुन्दर है चेष्टा जिनकी, अर घडनिके असवार वखतर पहिरे खेट नामा आयुधको धरे दरछी है जिनके हाथमें घोडनिके समूह तिनके खुनिके घातकरि उठी जो रज ताकरि आकाश व्याप्त होय रहा है ऐसा सोहे है मानों सुफेद बादलनिसे मंडिन है अर पियादे शस्त्रनिके समूहकरि शोभित अनेक चेष्टा करते गर्वसे चले जाय हैं वह जाने में आगे चलू यह जाने मैं, अर शयन यापन तांबूल सुगंध माला महा मनोहर वस्त्र आहार विलेपन नानाप्रकारकी सामिग्री पटती जाप है ताकार सवही सेनाक लोक सुखरूप हैं काहको काहू प्रकारका खेद नाहीं अर मजल मजल पै कुमारनिकी आज्ञाकार भले भले मनुष्यनिको लोक नानाप्रकारकी वस्तु देवे हैं उनको यही कार्य सौंपा है सो बहुत सावधान हैं नानाप्रकार के अन्न जल मिष्टान्न लवण घृत दुग्ध दही अनेक रस भांति भांति खाने Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ पद्म पुराण की वस्तु आदरसो देवें हैं, समस्त सेनामें कोई दीन बिभुक्षित तृषातुर कुवस्त्र मलिन चिन्तावान दृष्टि नहीं पडे है । सेनारूप समुद्र में नर नारी नानाप्रकारके आभरण पहिरे सुन्दर वस्त्रनिकर शोभायमान महा रूपवान अति हर्षित दीखें | या भांति महाविभूति कर मण्डित सीताके पुत्र चले चले अयोध्या के देशमें आये, मानों स्वर्ग लोक में इन्द्र आए, जा देशमें यव गेहूं चावल आदि अनेक धान्य फल रहे हैं और पौंडे सांठेनिके वाडे ठौर २ शोभे हैं पृथिवी अन्न जल तृण कर पूर्ण है अर जहां नदियोंके तीर हंसनि के समूह क्रीडा करे हैं अर सरोवर कमलनिसे शोभायमान हैं और पर्वत नाना प्रकार के पुष्पनिकर सुगन्धित होय रहे हैं अर गीतनिकी ध्वनि ठौर ठौर होय रही है श्रर गाय भैंस चलधनिके समूह विचर रहे हैं अर ग्वाली बिलोवणा विलोवे हैं, जहां नगरनि सारिखे नजीक २ ग्राम हैं अर नगर ऐसे शोभे हैं मानों सुरपुर ही है । महा तेजकर युक्त लवणांकुश देशकी शोभा देखते अति नीतिसे आए काहूको काहुही प्रकारका खेद न भया । हाथिनिके मद भर कर पंथ में रज दब गई, कीच होय गई श्रर चंचल घोडनिके खुरनिके घातकर पृथ्वी जर्जरी हो गई । चले चले अयोध्या के समीप आए दूरसे संध्या के बादलनिके रंग समान अति सुन्दर अयोध्या देख बज्रसंघको पूछी - हे माम ! यह महा ज्योतिरूप कौनसी नगरी है तब बज्रजंधने निश्चयकर कहीहे देव ! यह अयोध्या नगरी है जाके स्वणमई कोट तिनकी यह ज्योति भास हैं या नगरी में तिहारा पिता बलदेव स्वामी बिराजे है जाके लक्ष्मण अर शत्रुघ्न भाई या भांति बज्रघने कही र दोऊ कुमार शूरवीरताकी कथा करते सुखसे आए पहुंचे । कटक के अर अयोध्या के बीच सरयू नदी रही दोऊ भाईनिके यह इच्छा कि शीघ्र ही नदी उतर नगरी लेवें जैसे कोई मुनि शीघ्र ही मुक्त हुवा चाहै ताहि मोक्षकी श्राशारूप नदी यथाख्यात चारित्र न होने देय श्राशारूप नदीको तिरे तब मुनि मुक्त होय तैसे सरयू नदी के योगसे शीघ्र ही नदी पार उतर नगरीमें न पहुँच सके तब जैसे नंदन वनमें देवनिकी सेना उतरे तैसे नदी के उपवनादिमें ही कटक के डेरा कराए । अथानन्तर पर सेना निकट आई सुन राम लक्ष्मण आश्चर्यको प्राप्त भए अर दोनों भाई परस्पर बतलायें ये कोई युद्ध के अर्थ हमारे निकट आये हैं सो मुवा चाहे हैं वासुदेवने वितिको आज्ञा करी — युद्धके निमित्त शीघ्र ही सेना भेली करो ढील न होय जिन विद्याधरोंके कपियोंकी ध्वजा बैलोंकी ध्वजा अर हाथियोंकी ध्वजा सिंहों की ध्वजा इत्यादि अनेक भांति की ध्वजा तिन को बेग बुलावो सो बिराधितने कही जो श्राज्ञा होयगी सोई होयमा उसही समय सुग्रीवादिक अनेक राजावों पर दूत पठायेसो दूतके देखवे मात्र ही सब विद्याधर बडी सेनासे आए । भामंडल भी आया सो भामण्डलको अत्यंत आकुल देख शीघ्र ही सिद्धार्थ र नारद जायकर कहते भए - यह सीताके पुत्र हैं सीता पुण्डरीकपुर में है तब यह बात सुनकर बहुत दुखित भया अर कुमारों के अयोध्या आयचे पर आश्चर्यको प्राप्त भया और इनका प्रताप सुन हर्षित भया मनके वेग समान जो विमान उस पर चढकर परिवार सहित पुण्डरीकपुर गया । बहिन से मिला Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौदोवां पर्व ५२७ सीता भामंडल को देख प्रति मोहित भई आंसू नाखती संती विलाप करती भई पर अपने ताई घरसे काढनेका र पुण्डरीकपुर आयको सर्व वृत्तांत कहा तब भामंडल बहिनको धीर्य बंधाय कहता भया - हे बहिन ! तेरे पुण्यके प्रभावसे सब भला होयगा अर कुमार अयोध्या गये सो भला न किया, जायकर बलभद्र नारायणको क्रोध उपधाया राम लक्ष्मण दोनों भाई पुरुषोत्तम देवोंसे भी न जीते जांय महा योवा हैं, कुमारोंके श्रर उनके युद्ध न होय सो ऐसा उपाय करें इसलिये तुम हू चलो । तब सीता पुत्रों की बधू संयुक्त भामण्डल के विमान में बैठ चली । राम लक्ष्मण महाक्रोधकर रथ घोटक गजवियादेव विद्यावर तिनकर मंडित समुद्र समान सेना ले बाहिर निकसे र घोडनिके रथ चढा शत्रुघ्न महा प्रतापी मोतिनके हार कर शोभायमान है वक्षस्थल जिसका सो रामके संग भया र कृतांव सब सेनाका अग्रेसर भया । जैसे इन्द्रकी सेनाका अग्रगामी हरिणकेशी नामा देव होय उसका रथ अत्यंत सोहता मया देवनिके विमान समान जिसका रथ सो सेनापति चतुरंग सेना लिये अतुलली अतिप्रतापी महा ज्योतिको धरे धनुष चढाय बाण लिये चला जाय है, जिसकी श्याम ध्वजा शत्रुओंसे देखी न जाय उसके पीछे त्रिमूर्द्ध वह्निशिख सिंहविक्रम दीर्घभुज सिंहोदर सुमेरु बालखिल्य रौद्रभूत जिसके अष्टापदों के रथ बज्रकर्ण पृथु मारदमन मृगे वाहन इत्यादि पांच हजार नृपति कृतांतवक्र के संग अग्रगामी भए बन्दीजन बखाने हैं बिरद जिन केर अनेक रघुवंशी कुमार, देखे हैं अनेक रण जिन्होंने, शस्त्रोंपर है दृष्टि जिनकी, युद्धका हैं उत्साह जिनके, स्वामी भक्ति में तत्पर महा बलवन्त धरती को कंपाते शीघ्र ही निकसे । कैयक नाना प्रकारके रथोंपर चढ़े कैयक पर्वत समान ऊंचे कारी घटा समान हाथिन पर चढे, कैयक समुद्र की तरंग समान चंचल तुरंग तिनपर चढे । इत्यादि अनेक वाहनों पर चढ़े युद्धको निकसे वादित्रों के शब्द कर करी है व्याप्त दशों दिशा जिन्होंने बपतर पहिरे टोप धरे क्रोवकर संयुक्त है चित्त जिनका, तत्र लवण अंकुश परसेनाका शब्द सुन युद्धकों उद्यमी भये - वज्रजंघको श्राज्ञा वरी, कुमारकी सेनाके लोक युद्धके उद्यमी हुने ही । प्रलय कालकी अग्नि समान महा प्रचण्ड अंग देश बंगदेश नेपाल वर्वर पौंड्र मागव पारसैल स्यंघल कलिंग इत्यादि अनेक देशनिके राजा रत्नांकको आदि दे महा बलवंत ग्यारह हजार राजा उत्तम तेजके धारक युद्धके उद्यमी भए दोनों सेनानिका संघट्ट भया दोनों सेनानिमें देवनिको असुरनिको आश्चर्य उपजे ऐसा महा भयंकर शब्द भया जैसा प्रलय काल का समुद्र गाजै परस्पर यह शब्द होते भये क्या देख रहा है प्रथम प्रहार क्यों न करे ? मेरा मन तोपर प्रथम प्रहार करिवेपर नाहीं तातें तू ही प्रथम प्रहारकर कर कोई कहे है एक डिग यागे होवो जो शस्त्र चलाऊ कोई अत्यंत समीप होय गये तब कहे है खंज्जर तथा कटारी हाथ लेवों निपट नजीक भए बाणका अवसर नाहीं । कोई कायरको देख कहे हैं तू क्यों कांपे है मैं कायर को न मारू' तू परे हो आगे महा योधा खडा है उससे युद्ध करने दे । कोई वृथा गाजे है उसे सामंत कहै है— हे क्षुद्र ! कहा वृथा गाजे है गाजनेमें सामन्वपना नाहीं जो तो में सामथ्य है तो आगे आव, तेरी रणकी भूख भगाऊ इम भांति योवानिमें परस्पर वचना Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण लाप होय रहे हैं तरवार वहे है भूमिगोचरी विद्याधर सब ही आए हैं भामंडल पवनवेग वीर मृगांक विद्युद्ध्वज इत्यादि बड़े बड़े राजा विद्याधर बडी सेनाकर युक्त महारणमें प्रवीण सो लवण अंकुश के समाचार सुन युद्धसे पराङ मुख शिथिल होय गये अर सब बातोंमें प्रवीण हनूमान सो भी सीताके पुत्र जान युद्धसे शिथिल होय रहा अर विमान के शिखिरमें आरूढ़ जानकी को देख सब ही विद्याधर हाथ जोड शीश नवाय प्रणाम कर मध्यस्थ होय रहे सीता दोनों सेना देख रोमांव होय आई, कांपे है अंग जाका । लवण अंकुश लहलहाटकरे हैं ध्वजा जिनकी राम लक्ष्मणस युद्धको उद्यमी भए । रामके सिंहकी ध्वजा लक्ष्मणके गरुडकी सो दोनों कुमार महा.योधा राम लक्ष्मणसे युद्ध करते भए । लवण तो रामसे लडे पर अंकुश लक्ष्मणसे लडे सो लवणने आवते ही श्रीरामको ध्वजा छेदी पर धनुष तोडा तब राम हंसकर और धनुष लेयवेको उद्यमा भया । इतन में लवणने रामका रथ ताडा त राम और रथ चढ प्रचण्ड है पराक्रम जिसका क्रोधकर भृकुटी चढाय ग्रीष्मके सूर्य समान तेजस्वी जैसे चमरेन्द्र पर इन्द्र जाय तैसे गया तब जानकीका नन्दन लवण युद्धकी पाहनिगति करनेको रामके सन्मुख आया रामके अर लवणके परस्पर महा युद्ध भया। वान वाके शस्त्र छेदे वाने वाके जैसा युद्ध रामअर लषणका भया तैसा ही अंकुश अर लक्ष्मण का भया । या भांति परस्पर दोनों युगल लड़े तब योधा भी परस्पर लडे घोडोंके समूह रणरूप समुद्र की तरंग समान उछलते भये । कोई एक योधा प्रतिपक्षीको टूटे वखतर देख दयाकर मौन गह रहा अर कैयक योधा मने करते परसेनामें पैठे सो स्वामीका नाम उचारते परचक्रसे लडते भये कैयक महा भट माते हाथियों से भिडते भये कैयक हाथियोंके दांत रूप सेजपर रणनिद्रा सुख से लेते भये काहू एक महा भटका तुरंग काम आया सो पियादा ही लडने लगा काहू के शस्त्र टूट गए तो भी पीछे न होता भया हाथोंसे मुष्टि प्रहार करता भया अर कोई एक सामन्त वाण वाहने चुक गया उसे प्रतिपक्षी कहता भया बहुरि चलाय सो लज्मा कर न चलावता भया अर कोई एक निर्भय चित्त प्रतिपक्षीको शस्त्र रहित देख आप भी शस्त्र तज भुजाओंसे युद्ध करता भया। ते योधा बडे दाता रण संग्राममें प्राण देते भये परन्तु पीठ न देते भये जहां रुथिरकी कीच होय रही है सो रथोंके पहिये डूब गये हैं सारथी शीघ्र ही नहीं चला सकै हैं । परस्पर शस्त्रों के सम्मान कर अग्नि पड रही है अर हाथियों की सूडके छांटे उछेले हैं । अर सामन्तोंने हाथियों के कुम्भस्थल विदारे हैं सामन्तोंके उरस्थल विदारे हैं हाथी काम आय गये हैं तिनकर मार्ग रुक रहा है अर हाथियों के मोती विखर रहे हैं वह युद्ध महाभयंकर होता भया जहां सामन्त अपना सिर देयकर यशरूप रत्न खरीदते भए जहां मूर्छित पर कोई घात न करे अर निर्वल पर घात न करे सामन्तोंका है युद्ध जहां महायुद्धके करणहारे योधा जिनके जीवनेकी आशा नाहीं क्षोभको प्राप्त भया समुद्र गाजे तैमा होय रहा है शब्द जहां सो वह संग्राम समरस कहिये समान रस होता भया । __भावार्थ-न वह सेना हटी न वह सेना हटी योधानिमें न्यूनाधिकता परस्पर दृष्टि न पडी । कैसे हैं योधा ? स्वामी में हैं परम भक्ति जिनकी पर स्वामीने आजीविका दई थी उसके Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौ तीनवां पर्ने ५२६ बदले जीव दिया चाहे हैं प्रचण्ड रणकी है खाज जिनके, सूर्य समान तेजको धरे संग्रामके धुरंधर होते भए॥ इति श्रीरविणेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा बचनिकाधि] लवणांकुशका राम लक्ष्मणसे युद्ध वर्णन करनेवाला एकसौदोवां पर्व पर्ण भया ।। १०२॥ अथानन्तर गौतम स्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! अब जो वृत्तान्त भया सो सुनो-अनगलवणके तो सारथी राजा वज्र अंघ अर मदनांकुराके राजा पृथु अर लक्ष्मणके विराधित अर रानके कृतांतवक्र । तब श्रीराम वज्रावर्त धनुषको चढायकर कृतांतवक्रसे कहते भए-अब तुम शीघ्रही शत्रुवोंपर रथ चलायो ढील न करो, तब वह कहता भया-हे देव ! देखो यह घोडे नरवीरके बाणनिकर जरजरे होय रहे हैं इनमें तेज नाहीं मानों निद्राको प्राप्त भए हैं यह तुरंग लोहूकी थाराकर धरतीको रंगे हैं मानों अपना अनुगग प्रभुको दिखाये हैं अर मेरी भुजा इसके वाण निकर भेदी गई है वक्तर टूट गया है तब श्रीराम कहते भए मेरा भी धनुष युद्ध कर्मरहित ऐसा होय गया है मानों चित्रामका धनुष है अर यह नपल भी कार्यरहित हाय गया हे अर दुनिवार जे शत्रुरूप गजराज तिनको अंकुश समान यह हल सो भी शिथिलताको भजे है, शत्रुके पक्षको भयंकर मेरे अमोघशस्त्र जिनकी सहस्र २ यक्ष रक्षा करें वे शिथिल होय गए हैं शस्त्रोंकी सामर्थ्य नाहीं जो शत्रुपर चलें । गौतमस्वामी कहे हैं- हे श्रेणिक ! जैसे अनंगलवण आगे रामके शस्त्र निरर्थक होय गये तैसे ही मदनांकुशके आगे लक्षमणके शस्त्र कार्यरहित होय गए । वे दोनों भाई तो जानें कि ये राम लक्ष्मण तो हमारे पिता अर पितृव्य (चचा) हैं सो वे तो इनका अंग बचाय शर चलावें अर ये उनको जानें नाहीं सो शत्रु जान शर चलावें । लक्ष्मण दिव्यास्त्रकी सामर्थ्य उनपर चलवे की न जान शर शेल सामान्यचक्र का अंकुश चलावता भया सो अंकुशने बज्रदण्डकार लक्ष्मणके आयुध निराकरण किए अरसके चलाए आयुध लवणने निराकाण किए फिर लवणने रामकी ओर शेल चलाया अर अंकुशने लक्ष्मण पर चलाया सो ऐसी निपुणतासे दोनोंके मर्मकी ठौर नलागे सामान्य चोट लगी सो लक्ष्मण के नेत्र घूमने लगे विराधितने अयोध्या की ओर रथ फेरा तब लक्ष्मण सचेत होय कोप वर विराधितसे कहता भया–हे विधित तैंने क्या किया मेरा रथ फेरा अब पीछा बहुरि शत्रुके सन्मुख लेवो रणमें पीठ न दीजिये, जे शूरवीर हैं तिनको शत्रुके सन्मुख मरण भना परन्तु यह पीठ देना महा निंद्य. कर्म शूरवीरोंको योग्य नाहीं। कैसे हैं शूरवीर ? युद्ध में बाणनिकर पूरत है अंग जिनका, जे देव मनुष्यनिकर प्रशंसा योग्य वे कायरता कैसे भजें ? मैं दशरथ का पुत्र रामका भाई वासुदेव पृथिवी में प्रसिद्ध सो सग्राममें पीठ केसे देऊ? यह वचन लक्ष्मणने कहे तब विराधितने रथ को युद्धके सन्मुख किया सो लक्ष्मणके अर मदनांकुशके महायुद्ध भया लक्ष्मणने क्रोधकर महाभयंकर चक्र हाथमें लिया, चक्र महाज्वालारूप देखा न जाय ग्रीष्मके सूर्य समान सो अंकुश पर चलाया सो अंकुशके समीप जाय प्रभावरहित होय गया अर उलटा लक्ष्मण के हाथ में आया बहुरि लक्ष्मणने चक्र चलाया सो पीछे आया या भांति बारबार पीछा आया बहुरि अंकुशने धनुष हाथमें गहा तब अंकुशको महा तेजरूप देख लक्ष्मणके पक्षके सब सामन्त आश्चर्यको प्राप्त भए तिनको यह Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० पद्म-पुराण बुद्धि उपजी यह महापराक्रमी अर्धवक्री उपजा लक्ष्मण ने कोटि शिला उठाई और मुनिके वचन जिनशासनका कथन और भांति कैसे होय अर लक्ष्मण भी मनमें जानता भया कि ये बलभद्र नारायण उपजे, आप अति लज्जावान होय युद्धकी क्रियासे शिथिल भया ॥ अथानन्तर लक्ष्मण को शिथिल देख सिद्धार्थ नारदके कहेसे लक्ष्मणके समीप ग्राय कहता भया-वासुदेव तुमही हो जिनशासनके वचन सुमेरुमे अति निश्चल हैं यह कुमार जानकीके पुत्र हैं गर्भ में थे तब जानकीकों वनमें तजी यह तिहारे अंग हैं तातें इनपर चक्रादिक शस्त्र न चलें तब लक्ष्मण ने दोनों कुमारोंका वृत्तान्त सुन हर्षित होय हाथसे हथियार डार दिए यषतर दूर किया सीताके दुःखकर अश्रुपात डारने लगा अर नेत्र घूमने लगे राम शस्त्र डर वक्तर उतार मोहकर मूर्षित भए, चन्दनसे छींट सचेत किए तव स्नेहके भरे पुत्रनिके समीप चले, पुत्र रथसे उतर हाथ जोड सीस निवाय पिताके पायन पडे श्रीराम स्नेहकर द्रवीभूत भया है मन जिनका पुत्रों को उरसे लगाय शिलाप करते भए अांमुनि कर मेघकासा दिन किया । राम कहे हैं हाय पुत्र हो ! मैं मंदबुद्धि गर्भ में तिष्ठते तुमको सीता सहित भयंकर वनमें तजे, तिहारी माता निर्दोप हाय पुत्र हो ! मैं कोई विस्तीर्ण पुण्य कर तुम सारिखे पुत्र पाए सो उदर में तिष्ठते तुम भयंकर वनमें कष्टको प्राप्त भए, हाय वत्स हो जो यह वज्रघ वनमें न आवता तो तिहारा मुखरूप चन्द्रमा मैं कैसे देखता, हाय बालक हो ? इन अमोघ दिव्यास्त्रोंकर तुम न हते गर सो मेरे पुण्यके उदयकर देवोंने सहाय करी, हाय मेरे अंगज हो मेरे बाणनिकर बींधे तुम रणक्षेत्र में पडते तो न जानू जानकी क्या करती ? सब दुखोंमें घरसे काढने का बड़ा दुख है सो तिहारी माता महा गुणवन्नी ब्रतवंती पतिव्रता मैं बनमें तजी अर तुमसे पुत्र गर्भ में सो मैं यह काम बहुत बिना समझे किया अर जो कदाचित् तिहारा युद्ध में अन्यथा मोरभया होता तो मैं निश्चयसे जानू हूं शोकसे विह्वल जानकी न जीवती। ___या भांति रामने विलाप किया, बहुरि कुमार विनयकर लक्ष्मणको प्रणाम करते भए लक्ष्मण सीताके शोकसे विह्वल आंसू डारता स्नेहका भरा दोनों कुम रनिकी उरसे लगावता भया । शत्रुघ्न आदि यह वृत्तांत सुन वहां आए कुमार यथायोग्य विनय करते भए । ये उरमों लगाय मिले । परस्पर अति प्रीति उपनी दोनों सेनाके लोक अतिहित कर परस्पर मिले क्योंकि जब स्त्रामीकू स्नेह होय तब सेवकोंके भी होय । सीता पुत्रोंका माहात्म्य देख अति हर्षित होय विमानके मार्ग होय पीछे पुण्डरीकपुरमें गई अर भामण्डल विमानसे उतर स्नेहका भरा आंसू डारता भानजेसे मिला, अति हर्षित भया पर प्रीतिका भरा हनूमान उरसे लगाय मिला अर बारम्बार कहता भया-भली भई भली भई, अर विभीषण सुग्रीव विराधित सवही कुमारनिसे मिले, परस्पर हित संभाषण भया, भूमिगोचरी विद्याधर सबही मिले अर देवनिका आगम भया सवोंको आनन्द उपजा राम पुत्रनिको पाय कर अति आनन्दको प्राप्त भए, सकल पृथिवीके राज्यसे पुत्रोंका लाभ अधिक मानते भए, जो रामके हर्ष भया सो कहिवेमें न आवै अर विद्याधरी आकाशमें प्रानन्दसे नृत्य करती भई अर भूमिगोचरनिकी स्त्री पृथिवीपर नृत्य करती भई Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tho hetho एकसौतनवा पर्य ५३१ अर लक्ष्मण आपको कृतार्थ मानता भया मानों सब लोक जीता हर्षसे फूल गए हैं लोचन जिसके, थर राम मनमें जानता भया मैं सगर चक्रवर्ती समान हूं पर कुमार दोनों भीम अर भगीरथ समान हैं । राम वज्रजंबसे अति प्रीति करता भया जो तुम मेरे भामंडल समान हो अयो. ध्यापुरी तो पहले ही म्वर्गपुरी समान थी सो बहुरि कुमारनिक अायब कर अति शोभायमान भई जैसे सुन्दर स्त्री महजही शोभायमान होय अर शृंगार कर अति शोभाको पावै, श्रीराम लक्ष्मण सहित अर दोऊ पुत्रों सहित सूर्य की ज्योति ममान जो पुष्पक विमान उसमें विराजे सूर्यकी समान है ज्योति जिनकी राम लक्ष्मण अर दोऊ कुमार अद्भुत आभूषण पहिरे सो कैसी शोभा बनी है मानों सुमेरुके शिखरपर महामेव विजुरीके चमत्कार महित तिष्ठा है। भावार्थ-विमान तो सुमेरुका शिखर भया र लक्ष्मण महामेवका स्वरूप भया भर राम तथा राम के पुत्र विद्युत समान भये सो ये चढकर नगरके वाद्य उद्यान में जिनमन्दिर हैं तिनके दर्शनको चल सो नगरके कोटपर ठौर २ ध्वजा चही है तिनको देखते धीरे २ जाय हैं लार अनेक राजा, कई हाथियों पर चढे केई घोडों पर के.ई रथों पर चढे जाय हैं अर पियादोंके समूह जाय हैं, धनुष वाण इत्यादि अनेक आयुध अर ध्वजा छत्रनिकर सूर्य की किरण नजर नहीं पडे हैं अर स्त्रीनिक समूह झरंखनमें बैठी देखे हैं । लव अंकुश के देखबेका सबस्कूि बहुत कौतूल है नेत्ररूप अंजुलिनिकर लवणांकुशकं सुन्द तारूप अमृतका पान कर हैं सो तृप्त नाहीं होय हैं एकाग्रचित्त भई इनको देखे हैं अर नगर में नर नारिनिकी ऐसी भीड भई काहूके हार कुडलकी गम्य नाहीं अर नारी जन परस्पर यार्ता कर हैं कोई ब.हे है-हे माता ! टुक मुख इधर कर मोहि कुमारनिये देखिका कौतुक है । हे अखण्डकौतुके तूने तो धनी लग देखे अब हमें देखने देवो अपना सिर नीचा कर ज्यों हमको दीखै कहा ऊँचा सिर कर रही है, कोई कहे है-हे सखि ! तेरे सिरके वेश विखर रहे हैं, सो नीके समार अर कोई कहे है-हे क्षिप्तमानसे कहिये एक ठोर नाहीं चित्त जाका सो तू कहा हमारे प्राणों को पीडे है तू न देखें यह गर्भवती स्त्री खडी है पीडित है कोऊ कहे टुक परे होहु अचेतन होय रही है कुमारोको न देखने देहै यह दोनों रामदेवके कुमार रामदेव के समीप बैठे अष्टमीके चन्द्रमा समान है ललाट जिनका कोई पूछे है इनमें लवण कोर अर अंकुश कोन यह तो दोनों तुल्यरूप भासे हैं तब कोई कहे हैं यह लाल वस्त्र पहिरे लवण है । पर यह हरे वस्त्र पहिरे अंकुश है । अहो धन्य सीता महापुण्यवती जिनने ऐसे पुत्र जने पर कोई कहे है धन्य है वह स्त्री जिसने ऐसे वर पाए हैं एकाग्रचित्त भई स्त्री इत्यादि वार्ता करती भई इनके देखवेमें है चित्त जिनका, अति भीड भई सो भीडमें कर्णाभरणरूप सर्पको ड ढकर डसे गये है कपोल जिनके सो न जानती भई तद्गत है चित्त जिनका काकी कां वीदाम जाती रही सो बाहि खबर नहीं काहूके मोंतिनिके हार टूटे सो मोती विखर रहे हैं। मानो कुमार आये सो ये पुष्पांजली बरसे हैं अर कई एकोको नत्रों की पलक नहीं लगें है अस. वारी दूर गई है तोभी उसी ओर देखें है नगरकी उत्तम स्त्री वेई भई बेल सो पुष्पवृष्टि करती भई सो पुष्पोंकी मकरंदकर मार्ग सुगन्ध होय रहा है श्रीराम अति शोभाकू प्राप्त भए पुत्रों सहित वनक -निम Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ पद्मपुराण चैत्यालयोंका दर्शनकर अपने मन्दिर आये । कैसा है मन्दिर ? महा मंगलकर पूर्ण है ऐसे अपने प्यारे जनोंके आगमका उत्साह सुखरूप ताका वर्णन कहाँ लग करिये । पुण्यरूपी सूर्यके प्रकाशकर फूला है मन कमल जिनका ऐसे मनुष्य वेई अद्भुत सुखकूपावे हैं । इति श्रीरविषेणा वार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाविौं राम लक्ष्मणसू लवणांकुशका मिलाप वर्णन करनेवाला एकसौ तीनवां पर्ण पूर्ण भय। ॥ १८३ ।। अथानन्तर विभीषण सुग्रीव हनूमान मिलकर रामसे विनती करते भये- हे नाथ हमपर कृपा करो हमारी विनती मानों जानकी दुखसे तिष्ठे हैं इसलिये यहां लायवेकी आज्ञा करो, तब राम दीर्घ उष्ण निश्वास नाख क्षण एक विचारकर बोले, मैं सीताको शीलवती दोषरहित जानू हूं वह उत्तम चित्त है परन्तु लोकापवादकर घरसे काढा है अब कैसे बुलाऊं इसलिये लोकनिको प्रतीति उपजायकर जानकी आवै तब हमारा उनका सहवास होय, अन्यथा कैसे होय इसलिये सब देशनिके राजानिको बुलावो समस्त विद्याधर अर भूमिगोचरी आवे सब निके देखते सीता दिव्य लेकर शुद्ध होय मेरे घरमें प्रवेश करे जैसे शची इन्द्र के घरमें प्रवेश करे तब सबने कही जो आप आज्ञा करोगे सोही होयगा तब सब देशनिके राजा बुलाये सो बाल वृद्ध स्त्री परिवार सहित अयोध्या नगरी आये जे सूर्यको भी न देखें घरहीमें रहैं वे नारी भी आई और लोकनिकी कहा बात ? जे वृद्ध बहुत वृत्तान्तके जानने हारे देशमें मुखिया सब दिशानिसे आए कैयक तुरंग पर चढे कैयक रथनिपर चढे तथा पालकी हाथी अर अनेक प्रकार असवारिनिपर चढे बड़ी विभूतिसे आये विद्याधर आकाशके मार्ग होय विमान बैठे आए अर भूमिगोचरी भूमिके मार्ग आये मानों जगत जंगम गया, एपकी आज्ञासे जे अधिकारी हुते तिन्होने नगर के बाहिर लोकनके रहनेके लिये डेरे सर महा विस्तीर्ण अनेक महिल बनाये तिनके दृढस्तंभके ऊंचे मंडप उदार झरोखे सुन्दर जाली तिनमें स्त्रिय भेली अर पुरुष भेले भये, यथायोग्य बैठे दिव्यको देखवेकी है अभिलाषा जिनके जेते मनुष्य आए तिनकी सर्वभांति पाहुनगति राजद्वा. रके अधिकारियोंने करी, सवनिको शय्या आसन भोजन तांबूल वस्त्र सुगन्ध मालादिक समस्त सामग्री राजद्वारसे पहुंची सवनिकी स्थिरता करी अर रामक आज्ञासे भामण्डल विभीषण हनूमान सुग्रीव विराधित रत्नजटी यह बडे २ राजा आकाशके मार्ग क्षणमात्रमें पुण्डरीकपुर गए सो सव सेना नगरके वाहिर राख अपने समीप लोकनि सहित जहां जानकी थी वहां पाए जय जय शब्दकर पुष्पांजनि चढाय पांयनको प्रणामकर अति विनयसंयुक्त प्रांगण में बैठे, तब सीता आसू डारती अपनी निंदा करती भई-दुर्जनोंके वचनरूप दावानल फरि दग्ध भये हैं अंग मेरे सो क्षीरसागरके जलकर भी सींचे शीतल न होंय । तब वे कहते भये-हे देवि भगवती सौम्य उत्तमे अब शोक जो पर अपना मन समाधानमें लावो या पृथिवी में ऐसा कौन प्राणी है जो तुम्हारा अपवाद करै ऐसा कौन जो पृथिवीको चलायमान करै अर अग्निकी शिखाको पीवै अर सुमेरुके उठायवेका उद्यम करै अर जीभकर चांद सूर्यको चाटै ऐसा कोई नाहीं। तुम्हारा गुणरूप रत्ननिका पर्वत कोई चलाय न सके, अर जो तुम सारिखी महा सतीयोंका अपवाद करै तिनकी Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकमोचार ५। पर्व जीके हजर टूक क्यों न होवें। हम सेवकों के समूह को भेजकर जो कोई भरत क्षेत्र में अपवाद करेंगे उन दुष्टों का निपात करेंगे अर जो विनयान तुम्हाग गुणगायबेमें अनुरागी हैं उनके गृहमें रत्नवृष्टि करेंगे यह पुष्पक विमान श्रीरामचन्द्रने भेजा है उसमें अानंदरूप होय अयोध्याकी तरफ गमन करो सब देश अर नगर अर श्रीरामका घर तुम विना न सोहै जैसे चन्द्रकला विना आकाश न मोहे पर दीपक मिना मन्दिर न सोहे अर शाखा विना वृक्ष न सोहे, हे राजा जनककी पुत्री आज रामा मुखचन्द देखो, हे पंडित पतिव्रते तुमको अवश्य पनिका वचन मानना । जब ऐसा कहा तब सीता मुख्य महलियों को लेकर पुष्पक विमानमें गारूह होय शीघ्र ही संपाके ममय अयोध्या आई सूर्य असा हो गया सो महेंद्रादय नामा उद्यान में रात्री पूर्ण करी अागे रामसहित यहां श्रावती हुती सो वन अति भन्नाहर देखती हुनी सो अब सम विना रमणीक न भासा ।। अथानन्तर सूर्य उदय भया क.मल प्रफुल्लित भये जैसे राजाके किर पृथिवी में विचरे तैसे सूर्य की किरण पृथिवीमें विस्तरी जैसे दिव्यकर अपवाद नस जाय तैसें मूक प्रताय कर अंधकार दूर भया तब सीता उत्तम नारियों कर युक्त रामके समीप चली हथिनी पर चढी मनकी उदासीनता कर हतीगई है प्रभा जिसकी तौभी भद्र परिणामकी धारण हारी अत्यन्त सोहती भई जैसे चन्द्रमाकी कला ताराओं कर मंडित साहे तैसे सीता सखियोंकर मंडित सोहे सब सभाके लोक विनयसंयुक्त गीताको देख बंदना करते भये यह पापरहित धीरताकी धारणहारी रामकी रमा सभामें आई, राम समुद्र समान तोमको प्राप्त भये । लोक सीताके जायबेकर विवाद के भरे थे अर कुमारोंका प्रताप देख आश्चर्यके भरे भये अब सीताके प्रायवे कर हर्षके भरे ऐसे शब्द करते भए-हे माता सदा जयवंत होवो नदो वरधो फूलो फलो धन्य यह रूप धन्य यह धीर्य धन्य यह सत्य धन्य यह ज्योति धन्य यह महानुभावता धन्य यह गंभीरता धन्य निर्मलता ऐसे वचन समस्तही नर नारीनिके मुख से निक से अाकाशमें विद्याधर भूमिगांचरी महा कौतुक भरे पलक रहित सीताके दर्शन करते भए । अर परस्सर कहते भए पथिवीके पुण्यके उदयसे जनकसुता पीछे आई, कैएक तो वहां श्रीरामकी ओर निरखे हैं जैसे इन्द्रकी ओर देव निरखें कैएक रामके समीप बैठे लवण पर अंकुश तिनको देख परस्पर कहे हैं -ये कुमार रामके सदृश ही हैं और केईए क लक्ष्मणकी ओर देखे हैं कैसे हैं लक्ष्मण शत्रुवोंके पक्षके क्षय करिवेको समर्थ अर कई शत्रुध्नकी और केईएक भामण्डलकी ओर कई एक हनूमानकी ओर कैइएक विभीपणकी ओर वाईएक विराधितकी ओर अर कईएक सुग्रीवकी ओर निरखे हैं अर कईए क पाश्चर्यको प्राप्त भए सीताकी ओर देखे हैं। अथानन्तर जानकी जायकर रामको देख आपको वियोग सागरके अन्तको प्राप्त भई मानती भई, जब सीता सभामें आई तब लक्ष्मण प्रर्घ देय नमस्कार करता भया, अर सब राजा प्रणाम करते भए, सीता शीघ्रता कर निकट श्रावने लगी तग राघव यद्यपि क्षाभिन हैं तथापि सकोप होय मनमें विचारते भये इसे विषम वनमें मेली थो सो मेरे मनकी हरणहारी फिर आई । देखो यह महा ढीठ तजी तौभी मोसे अनुराग नहीं छांडे यह रामकी चेष्टा जान महासती उदासचित्त होय विचारती भई मेरे वियोगका अन्त नहीं आया मेरा मनरूप जहाज विरहरूप समु Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म पुराण द्रके तीर पाय फटा चाहे है । ऐसी चिंतासे व्याकुल चित्त भई पगके अंगूठेसे पृथिवी कुचरती भई बलदेवके समीप भामण्डलकी बहिन कैसी मोहे है जैसी इन्द्रके आगे सम्पदा सोहै तब राम बोले-हे सीता ! मेरे आगे कहा तिष्ठे है तू परे जा, मैं तेरेदे खवेका अनुरागी नाहीं मेरी आंख मध्याह्न के सूर्य पर आशीविष रूप तिनको देखसके परंतु तेरे तनको न देख सके है तू बहुत मास दशमुखके मन्दिरमें रही अब तोहि घरमें राखना मोहि कहा उचित ? तब जानकी बोली तुम महा निर्दई चित्त हो, तुमने महा पण्डित होयकर भी मृढ लोकनकी न्याई मेरा तिरस्कार कीया सो कहा उचित मुझ गर्भवतीको जिनदर्शनका अभिलाष उपजा हुता सो तुम कुटिलतासे यात्राका नाम लेय विषम वनमें डारी यह कहा उचित ?. मेरा कुमरण होता अर कुगति जाती यामें तुमको कहा सिद्ध होता, जो तिहारे मन में तजवेकी हुती तो अार्थिकायोंके समीप मेली होती । जे अनाथ दीन दलिद्री कुटुम्बरहित महा दुखी तिनको दुख हरिवेका उपाय जिनशासनका शरण है यासमान अर उत्कृष्ट नाहीं । हे पद्मनाभ ! तुम करवे में तो कछू कमी न करी अब प्रसन्न होवो आज्ञा करो सो करू यह कहकर दुखकी भरी रुदन करती भई । तप राम बोले- हे देवि ! मैं जानू हूं तिहारा निर्दोषशील है अर तुम निष्पाप अणुव्रतकी धारणहारी मेरी आज्ञाकारिणी हो, तिहारे भावनकी शुद्धता मैं भली भांति जानू हैं परंतु ये जगतके लोक कु टेल स्वभाव हैं । इन्होंने वृथा तिहारा अपवाद उठाया सो इनको संदेह मिटे अर इनको यथावत् प्रतीति अावै सो करहु । तब सीताने कही आप आज्ञा करो सोही प्रमाण जगतमें जेते प्रकारके दिव्य हैं सो सव करके पथिवीका संदेह हरू हे नाथ ! विषोंमें महाविष कालकूट है जिसे सूंघकर आशीविप सर्प भी भस्म होय जाय सो मैं पीऊ पर अग्निकी विषम ज्वालामें प्रवेश करू अर जो आप आज्ञा करो सो करू तब क्षण एक विचारकर राम बोले, अनि कुण्डमें प्रवेश करो। सीता .महाहर्ष की भरी कहती भई यही प्रमाग । तब नारद मनमें विचारते भए यह नो महा सती है परंतु अग्निका कहा विश्यास याने मृत्यु आदरी अर भामण्डल हनूमानादिक महाकोपसे पीडित भये अर लवण अंकुश माताका अग्निमें प्रवेश करवेका निश्चय जान अति व्याकुल भये अर सिद्धार्थ दोनो भुजा ऊंचीकर कहता भया -हे राम ! देवोसे भी सीताके शीलकी महिमा न कही जाय तो मनुष्य कहा कहें । कदाचित सुमेरु पाताल में प्रवेश करै अर समस्त समुद्र सूक जाय तो भी सीताका शीलबत चलायमान न होय, जो कदाचित् चन्द्रकिरण उष्ण होय, अर सूर्यकिरण शीतल होय तो भी सीता को दूपण न लगे । मैं विद्याके बलसे पंच सुमेरुमें तथा जे कृत्रिम अर अकृत्रिम चैत्यालय शास्वते वहां जिनबन्दना करी-हे पद्मनाभ ! सीताके व्रतकी महिमा मैं ठौर २ मुनियोंके मुखसे सुनी है तातें तुम महा विचक्षण हो महासतीको अग्नि प्रवेशकी आज्ञा न करो अर आकाशमें विद्याधर और पृथिवीमें भूमिगोचरी सब यही कहते भये-हे देव ! प्रसन्न होय सौम्यता भजो हे नाथ ! भग्नि समान कठोरचित्त न करो सीता सती है सीता अन्यथा नहीं जे महा पुरुषोंकी राणी होवे कदे ही विकार रूप न होवें सब प्रजाके लोक यही वचन कहते भये अर व्याकुल भये मोटी मोटी आंसूओंकी बून्द डारते भये ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौचारवां पर्ण तब रामने कही तुम ऐसे दयावान हो तो पहिले अपवाद क्यों उठाया ? रामने कि रोको श्रज्ञा करी एक तीनसे हाथ चौखटिया वापी खोट हु अर सूके ईधन चन्दन अर कृष्णागुरु तिनकर भरहु अर अग्नि कर जाज्वल्यमान करहु साक्षात् मृत्युका स्वरूप करहु तब किंकरनिने आज्ञा प्रमाण कुदालनिसे खोद अग्निवापिका बनाई अर ताही रात्री महेन्द्रोदय नामा उद्यान में सकल नूपण मुनिकूपूर्व वैरके योग कर महारौद्र वियद्वक्रनामा र क्षीने अत्यन्त उपपग किया सो मुनि अत्यन्त उपसर्गको जीत केवलज्ञानको प्राप्त भये । यह कथा सुन गौतमस्वामी सेश्रेणि कने पूछी-हे प्रभो ! राक्षसीके पर मुनिके पूर्व बैर कहा ? तब गौतमस्वामी कहते भये-हे श्रेणिक ! सुन-विजियाई गिरिकी उत्तर श्रेणी में महा शोभायमान गुजनामा नगर तहां राजा सिंहविक्रम राणी श्री ताके पुत्र सफल भूषण ताके स्त्री आठमो तिनमें मुख्य किरण मंडल मो एक दिन उस ने अपनी सोकिनके कहेसू अपने मामाके पुत्र हेमशिखका रूप चित्रपट में लिखा सो सकलभूपण ने देख कोष किया तब सा स्त्रीनिने कही यह हमने लिखाया है इसका कोई दोष नाहीं तब सकलभूषण कोष तज प्रसन्न भपा । एक दिन यह किरण मंडल पतित्रता पति सहित सूती थी सो प्रमाद थकी वरडकर हेमशिख ऐमा नाम कहा सो यह तो निर्दोष इसके हेमशिखमें भाईकी बुद्धि अर सकलभूषणने कछू और भाव विचारा राणीसे कोपकर वैराग्यको प्राप्त भए अर राणी किरण मंडला भी आर्यिका भई परन्तु धनीसे द्वेष भाव जो इसने मोहि झूटा दोष लगाया सो भरकर गिद्यु. द्वक नामा राक्षसी भई सो पूर्व वैर थ की सफलभूषण स्वामी श्राहार को जांय तब यह अन्राय करै कभी माते हाथियों के बन्धन तुडाय देय हाथी ग्राम में अद्रव करें इनको अन्तराय होय, कमी यह आहार को जांय तब अग्नि लगाय देय कभी यह रजोवृष्टि करे इत्यादि नानाप्रकार के अन्तराय करै कभी अश्व का कभी वृषभ का रूपकर इनके संमुख आवै कभी मार्गमें कांटे बखेरे इस भांति यह पापिनी कुचेष्टा करै । एक दिन स्वामी कायोत्सर्ग धर तिष्ठे थे अर इसने शोर किया यह चोर है मो इसका शोर सुनकर दुष्टोंने पाडे अपमान किया फिर उत्तम पुरुषोंने छुड़ाय दिए एक दिन यह आहार लेकर जाते थे मो पापिनी राक्षसी ने काहू स्त्री का हार लेकर इनके गले में डार दिया अर शोर किया कि यह चोर है हार लिये जाय है तब लोग आय पहुंचे इनको पीडा करी हार लिया भले पुरुषोंने छडाय दिये इस भांति यह ऋचित्त दयारहित पूर्व वैर विरोध से मुनि को उपद्रा करै, गई रात्रिको प्रतिमा योगथर महेंद्रोदय नामा उद्यानमें विराजे थे सो राक्षसीने रौद्र उपसर्ग किया वितर दिखाये पर हस्ती सिंह व्याघ्र सर्प दिखाए अर रूप गुण मंडित नानाप्रकारकी नारी दिखाई, भांति २ के उपद्रव किए परन्तु मुनिका मन न डिगा तब केवलज्ञान उपजा सो केवलीकी महिमा कर दर्शनको इन्द्रादिक देव कल्पवासी भवन वासी व्यंतर जोतिषी कैयक हाथियों पर चढे कैयक सिंहों पर चढे कैयक ऊट खच्चर मीढा बघेरा अष्टापद इनपर चढे कैयक विमान बैठे कैयक रथोंपर चढे कैयक पालकी चढे इत्यादि मनोहर वाहनों पर चढे आए । देवोंकी असवारीके तिर्यच नाहीं देवों ही की माया है, देवही विक्रियाकर तिर्यचका रूप धरें हैं आकाशके मार्ग महाविभूति सहित सर्व दिशामें उद्योत करते आए मुकुट Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ पद्म-पुराण धरे हार कुण्डल पहिरे अनेक आभूषणोंकर शोभित सकलभूषण केवली के दर्शनको आये पवन से चंचल है अजा जिनकी अप्सराओंके समूह सहित अयोध्या की ओर आए। महेंद्रोदय उद्यान में केवली विराजे हैं तिनके चरणारविंद में है मन जिनका पृथिवीकी शोभा देखते श्राकाशसे नीचे उतरे र सीता front as auratग रहा था सो देखकर एक मेघकेतु नामा देव इन्द्रसे कहता भया— हे देवेंद्र ! हे नाथ ! सीता महा सतीको उपसर्ग याय प्राप्त भया हैं यह महाश्राविका पतिव्रता शीलवंती अति निर्मलचित्त है इसे ऐसा उपद्रव क्यों होय ? तब इन्द्रने आज्ञा करी, हे मेघकेतु ! मैं सकलभूषण केवली के दर्शनको जाऊ हूं और तू महामतीका उपसर्ग दूर करियो । या भांति श्राज्ञाकर इन्द्र तो महेंद्रोदय नामा उद्यानम वलीके दर्शनको गया मेघतु सीता अग्निकुण्डके ऊपर आया श्राकाशमें विमानमें तिष्ठा । कैसा है विमान ? सुमेरुके समान है शोभा जिसकी, वह देव आकाशमें सूर्य सारिखा देदीप्यमान श्रीराम ओर देखे राम महामुन्दर सब जीवों के मनको हरे हैं। इतिश्रीरविषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविषै सकलभूषण केवीके दर्शनकू देवनिका आगमन वर्णन करनेवाला एकसौचारवां पर्व पूर्ण भया ।। १०४ ।। अथानन्तर श्रीराम उस अग्निवापिकाको निरख कर व्याकुल मन मया विचार है अब इस कांता को कहां देखूंगा यह गुपनिकी खान महा लावण्यताकर युक्त कांतिकी धरणहारी शील रूप वस्त्रकर मंडित मालती माला समान सुगंध सुकमार शरीर अग्नि के स्पर्शही से भस्म होय जायगी जो यह राजा जनकके घर न उपजती तो भला था यह लोकापवाद अर अग्नि में मरण तो न होता इन बिना मुझे मात्र भी सुख नाहीं इस सहित वनमें बास भला घर या विना स्वर्गका बास भी भला नाहीं यह महा शीलवंती परम श्राविका है इसे मरण का भय नाही इह लोक परलोक मरण वेदना अकस्मात् न चोर यह सप्त भय तिनकर रहित सम्यक दर्शन इसके दृढ है यह अग्निमें प्रवेश करेगी घर मैं रोकू ́ तो लोगों में लज्जा उपजे पर यह लोक सब मुझे कह रहे--यह महा सती है याहि अग्निकुण्ड में प्रवेश करावो सो मैं न मानी अर सिद्धार्थ हाथ ऊंचे कर कर पुकारा मैं न मानी सो बह भी चुप होय रहा अब कौन मिसकर इसे अग्नि कुड में प्रवेश न कराऊ अथवा जिसके जिस भांति मरण उदय होय हैं उसी भांति होय हैं टारा टरे नाहीं तथापि इसका वियोग मुझसे सहा न जाय या भांति राम चिंता करे हैं अर वापी में अग्नि प्रज्वलित भई समस्त नर नारियों के आसूबों के प्रवाह चले धूम कर अन्धकार होय गया मानो मेघमाला आकाश में फैल गई आकाश भ्रमर समान श्याम होय गया अथवा कोयल स्वरूप होय गया अग्नि धूमकर सूर्य आच्छादित हुवा मानों सीताका उपसर्ग देख न सका सो दयाकर छिपया ऐसी अग्नि प्रज्वली जिसकी दूर तक ज्वाला विस्तरी मानो अनेक सूर्य उगे अथवा आकाश में प्रलयकालकी सांझ फूली, जानिए दशों दिशा स्वर्णमयी होय गई हैं मानों जगत विजुरीमय होय गया अथवा सुमेरुके जीतवेको दूजा और प्रकटा तब सीता उठी अत्यन्त निश्चलचित्त कायोत्सर्ग कर अपने हृदय में श्रीपभादि तीर्थंकरदेव विराजे हैं तिनकी स्तुति Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोपांच वा एवं कर सिद्धोंको साधुवोंको नमस्कार कर श्रीमुनिसुव्रत नाथ हरिवंशके तिलक बीसवां तीर्थकर जिनके तीर्थ में ये उपजे हैं तिनका ध्यान कर सर्व प्राणियोंके हितु आचार्य तिनको प्रणाम कर सर्व जीवों में क्षमा भाव कर जानकी कहती भई--मन कर वचनकर कायकर स्वप्न में भी राम बिना और पुरुप मैं न जाना जा में झूर कहती हूं तो यह अग्निकी ज्याला क्षणमात्रमें शुझे भस्म करियो जो मेरे पनित्रता भावमें अशुद्धता होय रान मियाय पर नर मनमे भी अभिलाषा होय तो हे वैश्वानर ! मुझे भस्म करियो जो, मैं भिध्यादर्शनो पापिनी व्यभिचारिणी हूं तो इस अग्निसे मेरा देह दाहको प्राप्त होने पर जो मैं महा सती पतित्रमा अणव्रतधारिणी श्राविका हूं तो मुझे भस्म न करियो, ऐ । कहकर नमोकार मंत्र जा सीता सती अग्निवापिकामें प्रवेश करती भई सो याके शीन के प्रभावसे अग्नि थी सो स्फटिक मणि सारिखा निर्मल शीतल जल हो गया मानों धरती को भेदकर यह वापिका पातालसे निकसी जलमें कमल फूल रहे हैं भ्रमर गुंजार करें है अग्नि की सामिग्री सब बिलाय गई न ईधन- न अंगार जलके झाग उठने लगे अर अति गोल गंभीर महा भयंकर भार उड़े लगे जैसी मृदंगकी धनि होय तैसे शब्द जन में होते भए जैसा क्षोभ को प्राप्त भया समुद्र गाजे तैपा शब्द वापीमें होता भया अर जल उछला पहले गोडों तक अया बहुरि कमर नक आया फिर निमिामात्र में छाती तक आया तब भूमिगोचरी डरे अर आकाशमें जे विद्याधर हुते तिनको भी विकल्प उपजा न जानिए क्या होय बहुरि वह जल लोगोंके कंठतक आया तव अति भय उपजा सिर ऊपर पानी चला तब लोग अति भयको प्राप्त भए ऊंची भुजाकर वस्त्र अर बालकों को उठाय पुकार करते भए-हें देवि ! हे लक्ष्मी ! हे सरस्वति ! हे कापा. णरूपिणी ! हे धर्मधुरंधरे हे मान्ये । हे प्राणीदयारूपिणी हमारी रक्षा करो हे महासाध्वी, मुनि समान निर्मल मनकी धरणहारी दया करो हे माता बचावो २ प्रसन्न होयो जब ऐसे वचन विह्वल जो लोक तिनके मुखसे निकसे तब माताकी दयासे जल थंभा लोक चचे. जलमें नाना मालिके ठोर ठोर कमल फूले जल साम्यताको प्राप्त भया जे भंवर उठे थे सो मिटे अर. भयंकर शब्द मिटे । वह जल जो उछला था सो: मानों वापीरूप बधू अपने तरंगरूप हस्तोंकर माताके चरण युगल स्पर्शती हुती । कैसा हैं चरण युगल ? कमलके गर्भसे हू अति कोमल हैं अर नखोंकी ज्योति कर देदीप्तमान हैं जलमें कमल फूले तिनकी सुगंधता कर भ्रमर गुंजार करें हैं सो मानों संगीत करे हैं अर क्रोच चकवा हस तिनके समूह शब्द करे हैं अति शोभा होय रही है पर मणि स्वर्णके सियाण बने तिनको जलके तरंगोंके समूह स्पर्श हैं अर जिनके तट ,मरकत. मणिकर सिमीपे अति सोहै हैं। ऐसे सरोवरके मध्य एक सहस्रदलका कमल कोमल विमल विस्तीर्ण प्रफुल्लित महाशुभ उसके मध्य देवनिने सिंहासन रचा रत्ननिकी किरणनिकर मंडित चन्द्र मंडल तुल्य निर्मल उसमें देवांगनाओंने सीताको पधराई अर सेवा करती भई सो सीता : सिंहासनपै, तिष्ठी. अति अद्भुत है उदय जिसका शची तुल्य सोहती भई अनेक देव चरणनिके तल पुष्पांजली चढाय धन्य २ शब्द करते भए आकाशमें कल्पवृक्षनिके पुष्पनिकी वृष्टि करते भए, अर नाना प्रकार Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म पुराण के दुन्दुभी बाजे तिनके शब्द कर सब दिशा शब्द रूप होती भई, गुज जातिके वादित्र महा मधुर गुजार करते भए अर मृदंग पाजते भए: ढोल दमामा बाजे नांदी जातिके वादित्र बाजे श्रर काहल जातिके वादित्र बाजे अर तुरही करनाल अनेक वादित्र बाजे शंखके समूह शब्द करते भए अर वीण चांसुरी बाजा ताल झांझ मंजीरा झालरी इत्यादि अनेक वादिन बाजे विद्याधरनिके समूह नाचते भए अर देवनिके यह शब्द भए श्रीमत् राजा जनककी पुत्री परम उदयकी धरणहारी श्रीमत् रामकी राणी अत्यंत जयवन्त होवे अहो निर्मल शील जिसका श्राश्चर्यकारी ऐसे शब्द सब दिशामें देवनिके होते भए तब दोनों पुत्र लवण अंकुश अकृत्रिम है मातासे हित जिनका सो जल तिरकर अतिहर्षके भरे माताके समीप गए दोनों पुत्र दोनों तरफ जाय ठाडे भए, माताको नमस्कार किया सो माताने दोनोंके शिर हाथ धरा रामचन्द्र मिथिलापुरीके राजाकी पुत्री मैथली कहिए सीता उसे कमलवासिनी लक्ष्मी समान देख महा अनुरागके भरे समीप गए, कैसी है सीता ? मानो स्वर्णकी मूर्ति अग्निमें शुद्ध भई है अति उत्तम ज्योति के समूहकर मण्डित हे शरीर जाका । राम कहै है-हे देवी! कल्याणरूपिणी उत्तम जीवनिकर पूज्य महा अद्भुत चेष्टाकी धरणहारी शरदकी पूर्णमासीके चन्द्रमा समान है मुख जिसका ऐसी तुम सो हम पर प्रसन्न होवो अब मैं कभी ऐसा दाप न करूंगा जिसमें तुमको दुख होय । हे शीलरूपिणी मेरा अपराध क्षमा करो मेरे आठ हजार स्त्री हैं तिनकी सरताज तुम हो, मोको अाज्ञा करो सो मैं करू । हे महासती, मैं लोकापवादके भयसे अज्ञानी हो कर तुमको कष्ट उपजाया मोक्षमा करो अर-हे प्रिये ! पृथिवीमें मो सहित यथेष्ट बिहार को यह पृथिवी अनेक वन उपवन गिरियों कर मण्डित है देव विद्याधरनि कर संयुक्त है समस्त जगत् कर आदरसों पूजी थकी मो सहित लोकमें स्वर्ग समान भोग भोगो उगते सूर्य समान यह पुष्पक विमान उसमें मेरे सहित आरूढ भई सुमेरु पर्वतके वनमें जिनमंदिर हैं तिनका दर्शन कर अर जिन २ स्थाननिमें तेरी इच्छा होय वहां क्रीडा कर । हे कांते ! तू जो कहे सो ही मैं कर तेरा वचन कदाचित न उलंघ देवांगना समान वह विद्याधरी तिनकर मंडित हे बुद्विवंती, तू ऐश्वर्यको भज, जो तेरी अभिलाषा होयगी सो तत्काल सिद्ध होयगी । मैं विवेकरहित दोषके सागरविषे मग्न तेरे समीप आया हूं सो साध्वि अब प्रसन्न होवो। __अथानन्तर जानकी बोली-हे राम! तुम्हारा कछु दोप नाहीं अर लोकोंका दोष नाहीं मेरे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मके उदयसे यह दुख भया मेरा काहू पर कोप नाहीं तुम क्यों विषादको प्राप्त भए ? हे बलदेव, तिहारे प्रसादसे स्वर्ग समान भोग भोगे अब यह इच्छा है ऐसा उपाय करू जिसकर स्त्रीलिंगका अभाव होय यह महा क्षद्र रिनश्वर भयंकर इन्द्रियनिके भोग मूढजनों कर सेव्य तिन कर कहा प्रयोजन ? मैं अनन्त जन्म चौरासी लक्ष योनिमें खेद पाया अब समस्त दुःख के निवृत्तके अर्थ जिनेश्वरी दीक्षा धरूगी ऐसा कहकर नवीन अशोक वृक्षके पल्लव समान अपने जे कर तिनकर केश उपाड रामके समीप डारे सो इन्द्र नील मणि समान श्याम सचिवण पातरे सुगन्ध वक्र लम्बायमान महामृदु महा मनोहर ऐसे केशोंको देखकर राम मोहित होय मृा खाय पृथिवी में पडे सो जौं लग इनको सचेत करें तौलग सीता पृथ्वीमती Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौपांचवां पर आर्यिकापै जाय कर दीक्षा धरती भई एक वस्त्र मात्र है परिग्रह जिसके अर सब परिग्रह तज कर आर्यिकाके व्रत धर महापवित्रता युक्त परम वैराग्यकर दीक्षा धरती भई ब्रतकर शोभायमान जगतके बंदिवे योग्य होती मई अर राम अचेत भए थे सो युक्ताफल मलयागिरि चन्दनके छांटिवे कर तथा ताडके बीजनोंकी पवन कर सचेत भए तर दशो दिशाकी ओर देखें तो सीताको न देख कर चित्त शुन्य हो गया, शोक र विषाद कर युक्त महा गजराज पर चढे सीताकी ओर चले सिर पर छत्र फिरें हैं चमर दुरे हैं जैसे देवनिकर मंडित इन्द्र चले तैसे नरेन्द्रों कर युक्त राम चले कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके कपायके वचन कहते भए अपने प्यारे जनका मरण भला परन्तु विरह भला नाहीं देवनिने सीताका प्रातिहार्य किया सो भला किया पर उसने हमको तजना बिचारा सो भला न किया अब मेरी राणी जो यह देव न दें तो मेरे अर देवनिके युद्ध होयगा यह देव न्यायवान् होय कर मेरी स्त्री हरें ऐसे अविचार वचन कहे । लक्ष्मण समझाचे सो समाथान न भया अर क्रोध संयुक्त श्रीरामचन्द्र सकलभूपण केवली की गन्धकुटीको चले सो दूरसे सकलभूषण केवलोकी गन्ध कुटी देखी। केवली महाधीर सिंहासन पर विराजमान अनेक सूर्य की दीप्ति धरें केवल ऋद्धिकर युक्त पापोंके भम्म कग्वेिको साक्षात् अग्निरूप जैसे मेध पटल रहित सूर्यका बिंब सोहै तैसे कर्मपटल रहित केवल ज्ञानके तेजकर परम ज्योतिरूप भासे हैं इन्द्रा दिक समस्त देव सेवा करें हैं दिव्य ध्वनि खिरे है धर्मका उपदेश होय है सो श्रीगम गन्धकुटी को देख कर शांतचित्त होय हाथीसे उतर प्रभुके समीप गये तीन प्रदीक्षणा देय हाथ जोड नमः स्कार किया। केवलीके शरीरकी ज्योतिकी छटा राम पर पाय पडी सो अति प्रकाश रूप होय गये, भाव सहित नमम्कार कर मनुष्यनिकी सभा में बैठे अर चतुरनिकायके देवोंकी सभा नाना प्रकारके आभूषण पहिरे ऐसी भासे मानों केवली रूप जे रवि तिनकी किरण ही है अर राजावों के राजा श्रीरामचन्द्र केवलीके निकट ऐसे सोहै हैं मानों सुमेरुके शिखरके निकट कल्पवृत ही हैं अर लक्ष्मण नरेंद्र मुकुट कुण्डल हागदि कर शोभित कैसे सोहैं मानों विजुरी सहित श्याम घटा ही है अर शत्रुघ्न शत्रुवोंको जीतनहारे ऐसे सोहैं मानों दूसरे कुवेर ही हैं अर लवणअंकुश दोनों वीर महा धीर महा सुन्दर गुण सौभाग्यके स्थानक चांद सूर्यमे सोहैं अर मीता आथिका आभूषणादि रहित एक वस्त्र मात्र परिग्रह ऐसी सो है मानों सूर्यकी मूर्ति शांतताको प्राप्त भई है । मनुष्य अर देव सब ही विनय संयुक्त भूमिमें बैठे धर्म श्रवणकी है अभिलाषा जिनके । तहां एक अभयघोष नामा मुनि सब मुनिनिमें श्रेष्ठ संदेह रूप आतापकी शांतिके अर्थ केवलीसे पूछते भए -हे सर्वोत्कृष्ट सर्वज्ञ देव ज्ञानरूप शुद्ध आत्मतत्वका म्वरूप नीके जाननेसे मुनिनिको केवल बोध होय, उसका निर्णय करो। तब सफलभूषण केवली योगीश्वरोंके कर्मोके क्षयका कारण तत्वका उपदेश दिया उसका रहस्य तुमको कहूँ हूँ जैसे समुद्र में से एक बूंद कोई लेय तैसे केवलीकी वाणी अति अथाह उसके अनुसार संक्षेप व्याख्यान करूहूं सो सुनी हो भव्य जीव हो ! आत्मतत्व जो अपना स्वरूप सो सम्यग्दर्शन ज्ञान प्रानन्द रूप भर अमूर्तीक चिद्रूप लोक प्रमाण असंख्य प्रदेशी अतेंद्री अखंड अव्यावाध निराकार निर्मल Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 BESTRA 1415 ACiyhine: - -. . पच-पुराण निरंजन परवस्तुसे रहित निज गुण पर्याय स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभाव कर अस्तित्व रूप है जिसका ज्ञान निकट भव्योंको होय शरीरादिक पर वस्तु असार हैं आत्मतत्व सार है सो अध्यात्म विद्या कर पाइये है वह सबका देखनहारा जाननहारा अनुभवदृष्टि कर देखिये अान्मज्ञान कर जानिये अर जड पदार्थ पुद्गल धर्म अधर्म काल आकाश ज्ञ यरूप हैं ज्ञाता नाहीं अर यह लोक अनन्त अलो काकाशके मध्य अनन्तवें भागमें तिष्ठे है अधोलोक मध्य. लोक ऊर्ध्वलोक ये तीनलोक तिनमें सुमेरु पर्वतको जड हजार योजन उसके.. तले पाताल लोक हे उसमें सूक्ष्म स्थावर तो सर्वत्र है अर वादर स्थावर आधार में हैं विकलत्रय अर पंचेन्द्रिय तियंच नाही मनुष्य नाहीं खर भाग पंकभाममें भयनवासी देव तथा व्यंतरदेवनिके निवास है तिनके तले सात नरक तिनके नाम-रत्नप्रभा १ शर्करा प्रभा २ बालु को प्रभा ३ पंकप्रभा ४ धूमप्रभा ५ तमःप्रभा ६ महातमः:प्रभा ॐ सो सातों ही नरककी धरा महा दुःखकी देनहारी सदा अंधकाररूप है चार नरकनिमें ती उष्ण की बाँधा है अर पांचवें नरक ऊपरले तीनभाग उष्ण अर नीचला चोथा भाग शीत अर छठे नस्क शीत ही हैं अर सातवें महा शीत ऊपरले नरकनिमें उष्णता है सो महा विषम अर नीचले 'नरकनिमें शीत है सो अति विषम । नरकको भूमि महा दुस्सह परम दुर्गम है जहां राधि रुधिरका कीच है महादुर्गध है शान सर्प मार्जार मनुष्य खर तुरंग ऊट इनका मृतक शरीर सड जाय उसकी दुर्गन्ध से अंसख्यातगुणी दुर्गंध हैं नानाप्रकारके दुःखनि के सर्व कारण है अर पवन महा प्रचंड विकराल चले है जाकर भयंकर शब्द होय रहा है जे जीव विषय कषाय संयुक्त हैं कामी हैं क्रोधी हैं पंचइंद्रियोंके लोलुरी हैं वे जैसे लोहे का गोला जलमें डूबे तैसे नरकमें डूबे हैं जे जीवनिकी हिंसा करें मृषावाणी बोल पर धन हरै परस्त्री सेवें महा आरम्भी परिग्रही ते पापके भारकर नरकमें पडे हैं मनुष्य देह पाय जे निरंतर भोगासक्त भये हैं जिनके जीभ वश नाहीं मन चंचल ते पारी प्रचण्ड कर्मके करणहारे नरक जाय हैं जे पाप करें करावं पापकी अनुमोदना करें ते आर्त रौद्र ध्यानी नरकके पात्र हैं । वहीं वज्राग्निके कुण्डमें डारिये हैं वज्राग्निके दाह कर जलते थके पुकारें हैं अग्नि कुण्डसे छूट हैं तब वेतरणी नदीकी ओर शीतल जलकी बांछा कर जाय हैं वहां जल महा क्षार दुर्गन्ध उसके स्पर्शहीसे शरीर गल जाय है, दुख का भाजन वैक्रियिक शरीर ताकर आयु पर्यंत नानाप्रकारके दुःख भोगवे है पहिले नरक आयु उत्कृष्ट सागर १ दूजे ३ तीजे ७ चोथे १० पांचवें १७ छठे २२ सातमें ३३ सो पूर्णकर मरे हैं मारसे मेरे नाहीं वैतरणीके दुखसे डर छायाके अर्थ असिपत्र वनमें जाय हैं तहां खडग बाण. वरछी कटारी समीपत्र असराल पवनकर पडे हैं तिनकर तिनका शरीर विदारा जाय है पछाड़ खाय भूमिमें पड़े हैं और तिनकों कभी कुम्भी पाकमें पकायें हैं कभी नीचा माथा ऊचा पगकर लटकावें हैं मुगदूरोंसे मारिये हैं कु. हाडोंसे काटिये हैं करोतनसे विदारिये हैं पानीमें पेलिये है नानाप्रकारके छेदन भेदन हैं। यह नारकी जीव महा दीन महा तृषा कर दूषित पीने का पानी मांगे है तब तांबादिक गाल प्यावे हैं ते कहे हैं. हम को यहां तृषा नाही हमारा पीछा छोड दो ता. बलात्कार तिनको पछाड संडासियांसे मुख फार मार मार प्यावे हैं कण्ठ हृदय विदीर्ण होय जाय है उदर फट जाय है तीजे Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौ पचको कई नरपतक तो परस्पर भी दुःख है बा असुर कुमार निकी प्रेरणासे भी दुख हैं. र चाँशेगे लेय सात तक असुरकुतारनिका गमन नहीं परस्पर ही पीडा उपजा हैं नरकमें नीचले से नीचले रहता दुख है सात नरक सपनिमें प्रादुखरूप है नार के यों तो पहिला भा याद आवै है अर दूसरेनारकी तथा तीजे लग असर कुमार पूर्वले कर्म याद कराय हैं तुम भले गुरुवोंके वचन उलंघ कुगुरु कुशास्त्र बलकर मां को निर्दोष कहते हुने नानाप्रकार के मांस कर अर मधु कर श्रर मदिरा कर कुदवोंका आराधन करने हुते मो मांसके दोपसे नरको पडे हो ऐमा कहके इनटी का शरीर काट २ इनके मुख में देय हैं और लोहेके तथा तांबे के गोला बलते पछाड पछाड संडालियोंसे मुख फाड छातीपर पांव देय देय तिनके मुख में घाले हैं अर गुदगरों से मारे हैं और मद्यपायीयोंको मार मार ताता तांबा शीशा प्यावे हैं अर परदार रत पापियोंको बज्राग्निकर हप्तामान लोहे की जे पूतली तिन से लिपटावे हैं अर जे परदारारत फूलनिके सेज मूते हैं तिनको मूलनिके सेज ऊपर सुवावे हैं अर स्वप्नकी माया समान असार जो राज्य उसे पायकर जे गवे हैं अनोति बरें हैं तिनको लोहेके कीलों पर बैठाय मुद्गरोंगे मारे हैं गो महा विलाप करें हैं इत्यादि पापो जीवोंको नरक के दुख होय हैं सो कहांजग कहें एक निमिपमात्र भी नरकमें विश्राम नाहीं। आयुषयंत तिलमात्र हार नाहीं अर बून्दमात्र जलपान नाही केवल मारहीका अाहार है। तातें यह दुम्सह दुख अधर्म फल जान अधर्मको तजो ते अधर्म मधु मांसादिक अभक्ष्य भक्षण अन्याय वचन दुराचार रात्रिमा हार वेश्या बन परदारागमन ग्यास्द्रिोह मित्रद्रोह विश्वासघात कृतघ्नता लम्पटना ग्रामदाह वनदाह परधनहरण अमाग सेवन परनिंदा पर द्रोह प्राणघात बहु प्रारम्भ बहुारिग्रह निर्दयता खोटी लेश्या रौद्रध्यान मृपावाद कृपणता कठोरता दुर्जनता मायाचार निर्माल्यका अंगीकार माता पिता गुरुओंकी अवज्ञा बाल वृद्ध स्त्री दीन अ. नाथों का पीडन इत्यादि दुष्टकर्म नरसके कारण हैं वे तज शांभावघर जिनशासनको सेयो जाकर कल्याण होय । जीव छैकायके हैं-पृथिवी काय अप (जल) काय, तेजः (अग्नि) काय, वायु. काय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय । तिनकी दया पालो अर जीव पुद्गल धर्म अधर्म अाकाश काल यह छै द्रव्य हैं अर सात तत्व नव पदार्थ पंचास्तिकाय तिनकी श्रद्धा करो अर चतुर्दश गुणस्थान का स्वरूप अर सप्त भंगी वाणीका स्वरूप भली भांति केवलीकी श्राज्ञा प्रमाण उरमें धारो, स्यात् अस्ति, स्यात्नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्पादयत्तव्य स्यात् अस्ति अबक्तव्य स्पानास्ति अवक्तव्य स्यात्वस्तिनास्ति श्रवत्तव्य, ये सप्त भंग कहे अर प्रमाण कहिये वस्तु का सर्वांग कथन अर दय काहिये वस्तुका एक अंग कथन अर निक्षेप कहिये नाम स्थापना द्रव्य भाव ये चार अर जीवों में एकेंद्रीके दोय भेद सूक्ष्म बादर अर पंचेंद्रीके दोभेद सैनी सैनी अर वेइन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्रीय सात भेद जीवोंके हैं पर्याप्त अपर्याप्तकर चौदह भेद जीव समास होय हैं अर जीवके दो भेद एक संसारी एक सिद्ध । जिसमें संसारी के दो भेद-एक भव्य दृसंरा अभव्यजो मुक्ति होने योग्य लो भव्य शार मुक्ति न होने योग्य सो अभव्य अर जीवका निजलक्षण उपयोग है उसके दोय भेद एक ज्ञान एक दर्शन । ज्ञान समस्त पदार्थोको जाने, दर्शन समस्त पदार्थ देखे । सो ज्ञान के माठ भेद मति श्रति Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण अंवधि मनःपर्यय केवल कुमति कुश्रुत कुअवधि अर दर्शनके भेद चार-चक्षु अचक्षु अवधि केवल अर जिनके एक स्पर्शन इन्द्री होय सो स्थावर कहिये तिनके भेद-पांच पृथिवी अप तेज वायु वनस्पत्ति अर प्रसके भेद चार-वेइंद्री ते इन्द्री चोइन्द्री पंचेंद्री-जिनके स्पर्श अर रसना वेड इन्द्री, जिनके स्पर्श रसना नासिका सो तेइंद्री, जिनके स्पर्श रसना नासिका चक्षु वे चौइन्द्री, जिनके स्पर्श रसना नासिका चक्षु श्रोत्र वेपंचेद्रीं । चौइन्द्री तक तो सब संमूर्छन अर असेनी हैं अर पंचेंद्रीमें कई सम्मूर्छन केई गर्भज तिनमें केई सेनी केई असैनी जिनके मन वे सेनी अर जिनके मन नहीं वे असैनी अर जे गर्भसे उपजे वे गर्भज अर जे गर्भविना उपजै स्वत स्वभाव उपज वे सम्मुर्छन । गर्भजके भेद तीन जरायुज अंडज पोतज। जे जराकर मंडित गर्भसे निकसे मनुष्य घटकादिक वे जरायुज कर जे पिना जेरके सिंहादिक सो पोतज अर जे अंडावोसे उपजे पक्षी आदिक वे अंडज अर देव नारकियोंका उपपाद जन्म है माता पिताके संयोग विनाही पुण्य पापके उदयसे उपजे हैं । देव तो उपादशैय्याविषउपजैहैं अर नारकी बिलोंमें उपजे हैं देवयोनि पुण्यके उदयसे है अर नारक योनि पापके उदयसे हैं पर मनुष्य जन्म पुण्य पापकी मिश्रतासे है अर तिथंच गति मायाचारके योग है देव नारकी मनुष्य इन बिना सर्व तियंच जानने, जीवोंकी चौरासी लाख योनिये हैं उनके भेद सुनो पृथिवीकाय जलकाय अग्निकाय वायुकाय नित्य निगोद इतरनिगोद ये तो सात २ लाख योनि हैं सो बयालीस लाख योनि भई अरं प्रत्येक वनस्पति दस लाख ये वावन लाख भेद स्थावरके भये, अर वेइन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्री ये दोय दोय लाख योनि उसके छ लाख योनि भेद विकलत्रयके भए अर पचेन्द्री तिर्यचके भेद चार लाख योनिमें सब तिर्यच योनिक बासठ लाख भेद भए अर देवनिके भेद चार लाख नरकयोनिके भेद चार लाख अर मनुष्य योनिके चौदह लाख ये सब चौरासी लाख योनि महा दुखरूप हैं इनसे रहित सिद्ध पद ही अविनाशी सुख रूप है, संसारी जीव सब ही देहधारी हैं और सिद्ध परमेष्ठी देहरहित निराकार हैं, शरीरकं भेद पांच औदारिक वैक्रियक आहारके तैजस,अर कार्मण, तिनमें तैजस कार्मण तो अनादिकालस सब जीवनिको लग रहे हैं तिनका अन्त कर महा मुनि सिद्धपद पावै हैं औदारिकसे असंख्यातगुणी अधिक वर्गणा वैक्रियकके हैं अर वैक्रियकशरीरतें असंख्यात गुणी पाहारकशरीरके हैं श्रर आहारकतें अनन्तगुणी तेजसकी हैं अर तेजसतै अनन्तगुणी कामणकी हैं । जा समय संसारी जीव देहको तजकर दूसरी गतिक जाय है ता समय अनाहार कहिए जितनी देरी एक गतिसे दूसरी गतिमें जाते हुये जीवको लगे है । उस अवस्थामें जीवको अनाहारी कहिए भर जितना वक्त एक गतिसे दूसरी गतिमें जानेमें लगे सो वह समय एक समय ताथ दो समय अथि कतै अधिक तीन समय लगे है सो तासमय जीवके तैजस पर कार्मण येही दो शरीर पाइये हैं वगैर शरीरके यह जीव सिवा सिद्ध अवस्थाके अर काहू अवस्थामें काहू समय नहीं होता । या जीवके हर वक्त अर हर गतिमें जन्मते मरते साथ ही रहते हैं जा समय यह जीव घातिया अघातिया दोऊ प्रकारके कर्म क्षय करके सिद्ध अवस्थाको जाता है ता समय तैजस अर कार्मणका क्षय होता है। और जीवनिके शरीरोंके परमाणुओंकी सूक्ष्मता या प्रकार है-औदारिकर्ते वैक्रियक Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक मौपांचवां प ५४ सूक्ष्म र वैक्रियकसे आहारक सूक्ष्म हारकतें तैजस सूक्ष्म पर तैजसतै कार्म्मण सूक्ष्म सो मनुष्य अर तियंचनिके तो औदारिक शरीर है और देवनारकिनिके वैक्रियक है भर आहारक ऋद्धिधारी मुनिनिके संदेह निवारिवेके अर्थ दममे द्वारसे निकसे है सो केवलीकै निवट जाय सदेह निवार पीछा आय दशमे द्वारमें प्रवेश करे है, ये पांच प्रकारके शरीर व हे तिनमें एक काल एक जीवके कबहू चार शरीर हू पाइये ताका भेद सुनहु — तीन तो सब जीवनिके पाइये, नर अर तिर्यंचके श्रदारिक अर देव नारकनि वैयिक थर तैजस कार्म्मण सवोंके हैं तिनमें कार्म्मण तो दृष्टि गोचर नाहीं तैजस काहू मुनिके प्रकट होय है ताके भेद दोय हैं-एक शुभ तैजस एक I शुभ तैजस । सो शुभ तैजस तो लोकनिको दुखी देख दाहिनी भुजासे निकस लोकनिका दुख निवारे है र अशुभ तैजस क्रोधके योग कर वाम भुजासे निवमि प्रजाको भस्म करे है अर मुनिको हू भस्म करे है घर काहू मुनिके वैक्रियक ऋद्धि प्रकट होय है तब शरीरको सूक्ष्म तथा स्थूल करे हैं सो मुनिके चार शरीर हू काहू समय पाइये एक काल पांचो शरीर काहू जीवके न होंय | अथानन्तर मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप र लवण समुद्र आदि सं ख्यात समुद्र हैं शुभ नाम तिनके सो द्विगुण २ विस्तारको लिये वलयाकार तिष्ठे हैं, सबके मध्य जम्बूद्वीप है ताके मध्य सुमेरु पर्वत तिष्ठे है सो लाख योजन ऊंचा है अर जे द्वीप समुद्र कहे तिनमें जम्बूद्वीप लाख योजनके विस्तार है ऋर प्रदक्षिणा निगुणीसे कछु एक अधिक है भर जम्बूद्वीप में देवारण्य अर भूतारण्य दो वन है तिनमें देवनिके निवास हैं और पट् कुलाचल हैं पूर्व समुद्र पश्चिमके समुद्र तक लावें पडे हैं तिनके नाम - हिमवान् महाहिमवान् निपव नील रुक्मी शिखरी । समुद्र के जलका है स्पर्श जिनके, तिनमें हद अर हृदनिमें कमल तिनमें षट्कुमारिका देवी हैं श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी अर जम्बूद्वीपमें सात क्षेत्र हैं- भरत हैमवत हरि विदेह रम्यक हैरण्यवत ऐरावत और षट् कुलाचलनिसू गंगादिक चौदह नदी निकसी दिसे तीन र अन्तकेसे तीन र मध्यके चारोंसे दोय २ यह चौदह हैं और दूजा द्वीप धातुकी खण्ड सो लवण समुद्रसे दूना है तामें दोय सुमेरु पर्वत हैं और बारह कुलाचल अर चौदह क्षेत्र | यहां एक भरत वहां दोय यहां एक हिमवान वहां दोय । याही भांति सर्व दुगुरो जाननें र तीजा द्वीप पुष्कर ताके अर्ध भागमें मानुषोत्तर पर्वत है सो अढाई द्वीप हीमें मनुष्य पाइये हैं आगे नाही, आधे पुष्कर में दोय २ मेरु बारा कुलाचल चौदह क्षेत्र धातुकीखण्ड द्वीप समान तहां जानने । अढाई द्वीपमें पांच सुमेरु तीस कुलाचल पांच भरत पांच ऐरावत पांच महा विदेह तिनमें एक सौ साठ विजय समस्त कर्मभूमि के एक सौ सत्तर, एक २ क्षेत्रमें छह २ खण्ड तिनमें पांच २ म्लेच्छ खण्ड एक २ आर्य खण्ड । श्रार्य खंडमें धर्म की प्रवृत्ति विदेह क्षेत्र र भरत ऐरावत इनमें कम भूमि तिनमें विदेह तो शाश्वती कर्मभूमि र भरत ऐरावत में अठारा कोडाकोडी सागर भोग भूमि दोय कोडाकोडी सागर कर्मभूमि पर देवकुरु उत्तरकुरु यह शाश्वती उत्कृष्ट भोगभूमि तिनमें तीन २ पल्यकी आयु अर तीन २ कोसकी काय अर तीन २ दिन पीछे अल्प 1 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मपुराण र द याहार सो पाच मेरु संवन्धी पांच देव कुरु पांच उत्तर कुरु र हरि र रम्यक यह मध्य भोगभूमि तिनमें दोष पल्यकी आयु ए हार | भांति पांच मेरु संबन्धी पांच हरि पाँच रम्यक यह दश मध्य भोगभूमि पर हैमवत हैरण्यवत यह जघन्य भोग भूमि तिनमें एक पल्यकी आयु घर एक कोसकी काय एक दिनके अन्तरे आहार | सो पांच मेरु संबन्धी पांच हैमवत पांच हैरण्यवत जघन्य भोग भूमि दश । या भांति तीस भोगभूमि अढाई द्वीपमें जाननी कर पंच महाविदेह पंच भरत पंच ऐरावत यह पन्द्रह कर्म भूमि हैं तिनमें मोक्षमार्ग प्रवरते है । 1 1 अढाई द्वीप के आगे मामुपोत्तर के परे मनुष्य नाही, देव अर तिथंच ही हैं तिनमें जलचर तो तीन ही समुद्र में हैं लवणोदधि कालोदधि तथा अंतका स्वयंभूरमण इन तीन बिना और समु द्रनिमें जलचर नाहीं अर विकलत्रय जीव ढाई द्वीपमें हैं पर अंत का स्वयंभूरमण द्वीप ताके अर्थ भागमें नागेन्द्र पर्वत है, ताके परे आधे स्वयंभूरमण द्वीप में अर सारे स्वयंभूरमण समुद्र में विकलत्रय हैं | मानुषोत्तर से लेय नागेन्द्र पर्वत पर्यन्त जवन्य भोग भूमिकी रीति है, वहां तिर्यचनिकी एक पल्यकी आयु है और सूक्ष्म स्थावर तो सर्वत्र तीन लोक में हैं र बादर स्थावर यावार में सर्वत्र नाहीं । एकराजू में समस्त मध्य लोक है । मध्य लोकमें श्रष्टप्रकार व्यंर र दशप्रकार भवनवासीयोंके निवास हैं और ऊपर ज्योतिषी देवनके विमान हैं तिनके पांच भेद चन्द्रमा सूर्य ग्रह तारा नक्षत्र सो अढाई द्वीपमें ज्योतिषी चर हू हैं अर स्थिर हैं आगे असंख्यात द्वीपनिमें ज्योतिषी देवनके विमान स्थिर ही हैं बहुरि सुमेरुके ऊपर स्वर्ग लोक है वहां सोलह स्वर्ग तिनके नाम - सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेंद्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ठ शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रार मानत प्राणत चारण अच्युत यह सोलह स्वर्ग तिनमें कल्पवासी देव देवी हैं र सोलह स्वर्गनिके ऊपर नवग्रीव तिनके ऊपर नव अनुतर तिनके ऊपर पंचोत्तर - विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित सर्वार्थसिद्धि | यह अहमिन्द्रनिके स्थानक हैं जहा देवांगना नाहीं श्रर स्वामी सेवक नाहीं और ठौर गमन नाहीं, अर पांचवां स्वर्ग ब्रह्म ताके अंत में लौकांतिक देव हैं सिनके देवांगना नाहीं वे देव हैं, भगवानके तप कल्याण में ही प्रावें । ऊर्ध्वलोक में देव ही हैं अथवा पंच स्थावर ही हैं । हे श्रेणिक ! यह तीन लोकका व्याख्यान जो केवलीने कहा ताका संक्षेप रूप जानना विस्तारम् त्रिलोकसारसू जानना तीन लोकके शिखर सिद्ध लोक हैं ता समान देदीसमान और क्षेत्र नाहीं जहां कर्म बंधनसे रहित अनन्व सिद्ध विराजे हैं मानो वह मोक्ष स्थानक तीन भवनका उज्ज्वल छत्र हीं है वह मोद स्थानक अष्टमी धरा है ये अष्ट पृथिवीके नाम-नारक १. भवनवासी २ मानुष ३ ज्योतिषी ४ स्वर्गवासी ५ ग्रीव ६ र अनुतर विमान ७ मोक्ष ८ ये आठ पृथिवी हैं सो शुद्धोपयोग के प्रसादकर जे सिद्ध भये हैं तिनकी महिमा कही न जाय तिनका मरण नाहीं बहुरि जन्म नाहीं, महा सुख रूप हैं, अनन्त शक्तिके धारक समस्त दुःखरहित महा निश्चल सर्व के ज्ञाता द्रश हैं । यह कथन सुन श्रीरामचन्द्र सकलभूषण केवलीस पूछते भये हे प्रभो ! अष्टकर्मरहित अष्ट Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमोपांचवा पळ गुण आदि अनन्त गुण सहित सिद्ध परमेष्ठी संभारके भावनसे रहित हैं सो दुःख तो उनको काहू प्रकारका नाहीं अर सुख कैसा है ? तब केवली दिव्यध्वनि कर कहते भये-इस तीन लोकमें सुख नाहीं दुख ही है अज्ञानसे वृथा सुख मान रहे हैं। संसारका इन्द्रियजनित सुख बाधासंयुक्त क्षण भंगुर है अष्ट कर्म कर बंधे सदा पराधीन ये जगत्के जीव तिनके तुच्छ मात्र ह सुख नाहीं जैसे स्वर्णका पिंड लोहकर संयुक्त होय तव स्वर्णकी कांति दब जाय है तैसे जीवकी शक्ति कर्मनिकर दब रही है सो सुखरूप नाही दुख ही भोगवे हैं यह प्राणी जन्म जरा मरण रोग शोक जे अनन्त उपाधी तिनकर महा पीडित हैं, तनुका अर मनका दुख मनुष्य तिर्यच नारकीनिको है अर देवनिको दुख मन ही का है सो मनका महा दुख है ता कर पीडित हैं । या संसार में सुख काहेका ? ये इन्द्रीजनित विषयके सुख इंद्र धरणींद्र चक्रवर्तीनिक शहतकी लपेटी खड्ग की धारा समान हैं अर विपमिश्रित अन्न समान हैं और सिद्धनिक मन इंद्री नाहीं शीर नाही केवल स्वाभाविक अविनाशी उत्कृष्ट निराबाथ निरुपम सुख है ताकी उपमा नाहीं जैसे निद्रा रहित पुरुषनिको सोयवे कर कहा अर नीरोगनिको औषधि कर कहा ? गैस सर्वज्ञ वीतराग कृतार्थ सिद्ध भगवान तिनको इन्द्रीनिके विषयनि कर कहा ? दीपकको सूर्य चन्द्रादिकर कहा ? जे निर्भय जिनके शत्रु नाही तिनके आयुधनिकर कहा ? जे सबके अंतर्यामी सबको देखें जाने जिनके सकल अर्थ सिद्ध भये कछु करना नाहीं बांछा काहू वस्तुकी नाही ते सुखके सागर हैं। इच्छ! मनसे होय है सो मन नाही आत्मा मुखमें तृप्त परम आनन्द स्वरूप क्षुधा तृषादि बाधा रहेत है तीर्थकर देव जा सुखकी इच्छा करें ताकी महिमा क हालग कहिये . हमिन्द्र इन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्र चक्रवर्त्यादिक निरंतर ताही पदका ध्यान करे हैं अर लोकांतिक देव ताही सुखके अभिलापी ताकी उपमा कहां लग करें। यद्यपि सिद्ध पदका सुख उपमारहित बंवली गम्य है तथापि प्रतिबोधके अर्थ तुमको सिद्धनिके सुखका कछु इक वर्णन करे हैं । अतीत अनागत वर्तमान तीन कालके तीर्थकर चक्रवादिक सर्व उत्कृष्ट भूमिके मनुष्य निका सुख पर तीन कालका भोगभूमिका सुख अर इंद्र अहमिंद्र आदि समस्त देवनिका सुख भूा भविष्या वर्तमान कालका सकन एकत्र करिए अर ताहि अनन्तगुणा फलाइए सो सिद्धनिके एक समयके सुख तुल्य नाही, काहेसे ? जो सिद्धनिका सुख निराकुल निर्मल अव्यावाध अखण्ड अतीन्द्रिय अविनाशी है अर देव मनुष्यनिका सुख उपाधिसंयुक्त बाधासहित विकल्परूप व्याकुलताकर भरा विनाशीक है अर एक दृष्टांत और सुनहु-मनु नितें राजा सुखी राजा नित चक्रवर्ती सुखी अर चक्रवर्तीनित वितरदेव सुखी अर वितरनिसे ज्योतिषी देव सुखी तिन” भवनवासी अधिक सुखी अर भवनवासीत कल्पवासी अर कल्पवासीनितें नवग्रीवके सुखी नव. ग्रीवतै नवअनुत्तरके सुखी अर तिनतें पंच पंचोत्तरके सुखी पंचोत्तर में सर्वार्थसिद्धि समान और सुख नाही सो सर्वाथसिद्धिके अहमिंद्रनित अनन्तानन्त गुणा सुख सिद्धपदमें है, सुख की हद्द सिद्रपद का सुख है अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान अनन्त सुख अनन्त वीर्य यह आत्मा का निज स्वरूप सिद्ध निमें प्रवर्ते है अर संसारी जीवनिके दर्शन ज्ञान सुख वीर्य कर्मनि के क्षयोपशमसे वाह्य वस्तुके Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ पद्म पुराण - निमित्त थकी विचित्रता लिए अन्यरूप प्रवरते हैं, यह रूपादिक विषय सुख व्याधिरूप विकल्प रूप मोहके कारण इनमें सुख नाहीं जैसे फोडा राघ रुधिरकर भरा फूले ताहि सुख कहां ? तैसे विकल्प रूप फोडा महा व्याकुलतारूप राधिका भरा जिनके है तिनको सुख कहां ? मिद्ध भगवान गतागतरहित समस्त लोक के शिखर विराजे हैं तिनके सुख समान दूजा सुख नाहीं जिनके दर्शन ज्ञान लोकालोकको देखें जाने तिन समान सूर्य कहां ? सूर्य तो उदय अस्तकू घरे है सकल प्रकाशक नाहीं, वह भगवान सिद्ध परमेष्ठी हथेली में श्रवले की नाईं सकल वस्तुको देखे जानें हैं, छद्मस्थ पुरुष का ज्ञान उन समान नाहीं, यद्यपि श्रवज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी मुनि अभागी परमाणु पर्यंत देखे * श्रर जीवन असंख्यात जन्म जाने है तथापि अरु पदार्थनको न जानें हैं अर अनन्तकाल की न जाने, केवली ही जाने, केवलज्ञान केव दर्शनकर युक्त तिन समान और नाहीं सिद्धनिके ज्ञान अनंत दर्शन अनंत र संसारी जीवनिके अल्पज्ञान अल्पदर्शन, सिद्धनिके अनन्त सुख अनन्त वीर्य र संसारनिके अल्पसुख अल्पवीर्य यह निश्चय जानो सिद्धनिके सुख की महिमा केवलज्ञानी ही जाने अर चार ज्ञानके धारक हू पूर्ण न जाने यह सिद्धपद अभव्योंको अप्राप्य है इम पदको निकट भव्य ही पावें । अभव्य अनन्त कालहू काय क्लेश करें अनेक यत्न करें तौहू न पावें, अनादि कालकी लगी जो अविद्यारूप स्त्री ताका विरह अभव्यनिके न होय, सदा अविद्या लिए भत्र वनमें शयन करें अर मुक्तिरूप स्त्री के मिलापकी वांछामें तत्पर जे भव्य जीव ते कैयक दिन संसार में रहें हैं सो संसार में राजी नाहीं तपमें तिष्टते मोत्र हीके अभिलाषी हैं। जिनमें सिद्ध होनेकी शक्ति नाहीं उन्हें अभव्य कहिए अर जे सिद्ध होनहार हैं उन्हें भव्य कहिए | केवली कहै हैं – हे रघुनन्दन जिनशासन विना और कोई मोक्षका उपाय नाही विना सम्यक्त्व कर्मनिका क्षय न होय, अज्ञानी जीव कोटि भवमें जे कर्म न खिपाय सके सो ज्ञानी तीन गुप्ति को घरे एक मुहूर्तमें खिपावे, सिद्ध भगवान परमात्मा प्रसिद्ध हैं सर्व जगतके लोग उनको जाने हैं कि वे भगवान हैं केवली विना उनको कोई प्रत्यक्ष देख जान न सकेँ, केवलज्ञानी ही सिद्ध निको देखें जाने हैं। मिथ्यात्वका मार्ग संसारका कारण या जीवने अनंत भवमें धारा । तुम निकट भव्य हो परम र्थ की प्राप्तिके अर्थ जिनशासन की अखण्ड श्रद्वा धारो। हे श्रेणिक, यह वचन सफल भूषण केवलीके सुन श्री रामचन्द्र प्रणाम कर कहते भए - हे नाथ, या संसार समुद्र तैं मोहि तारहु । हे भगवान्, यह प्राणी कौन उपायकर संचारके बातें छूटे हैं। तब केवली भगवान् कहते भए हे राम, सम्पदर्शन ज्ञान चारित्र मोत्रका मार्ग हैं जिनशासन में यह कहा है तचका जो श्रद्धान ताहि सम्यकदर्शन कहिए तत्व अनन्तगुणरूप है ताके दोन भेद हैं एक चेतन दूसरा अचेतन है । सो जीव चेतन है घर सर्व अचेतन हैं पर दर्शन दोय प्रकार उपजे है एक निसर्ग एक अधिगम | जो स्वतः स्वभाव उपजे सो निसर्ग अर गुरुके उपदेश उपजे सो श्रधिगम | सम्यकदृष्टि जीव जिनधर्म में रत है। सम्यक्त पत्र हैं— शंका कहिये जिनधर्म संदेह र कांक्षा कहिये भोगनि की अभिलापा र विचिकित्सा कहिये महामुनिको देख ग्लानि करनी र अन्यदृष्टि प्रशंसा कहिये मिथ्यादृष्टिको मनमें भला जानना श्रर संस्तव कहिये वचन Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकटौपांचवा पर करि मियादृष्टि की स्तुति करना इन कर सम्पक्त्वमें दूषण उपजे हैं श्रर मैत्री प्रमोद कारुण्य मध्यस्थ ये चार भावना अथवा अनित्यादि बारह भावना अथवा प्रशम संबेम अनुकंपा भास्ति. क्य अर शंकादि दोष रहित पन जिन प्रतिमा जिनमंदिर जिनशास्त्र मुनिराजकी भक्ति इनकर सम्यक दर्शन निर्मल होय है अर सर्वज्ञके वचन प्रमाण वस्तुका जानना सोज्ञानको निर्मलता का कारण है पर जो काहून सधै ऐसी दुबर क्रया प्राचरणी ताहि चारित्र कहिये पांचों इन्द्रिनिका निरोध मनका नि. रोध वचनका निरोध सर्व पापक्रियानिका त्याग सो चारित्र कहिये त्रस स्थावर सर्व जीवकी दया सूब को आप समान जाने सो चरित्र कहिये, अर सुननेवाले के मन अर काननिको अानन्दकारी स्निग्ध मधुर अर्थसंयुक्त कल्याणकारी वचन बोलना सो चारित्र कहिये, पर मन बचन कायकर परवन का त्याग करना किसी का विना दिया कछ न लेना अर दिया हुआ थाहारमात्र लेना सो चारित्र कहिये पर जो देवनिकर पूज्य महादुर्धर ब्रमचर्यतका थारण सो चारित्र कहिये अर शिवमार्ग कहिये निर्वाण का मार्ग ताहि विघ्नकरण हारी मूर्छा कहिये मन की अभिलाषा ताका त्याग सोई परिग्रहका त्याग सो हू चारित्र कहिए है । ये मुनिनिकेधर्म कहे पर जो अणवती श्रावक मुनिको श्रद्धा आदि गुणनिकर युक्त नवधाभक्तिकरि आहार देना सो एकदेशचारित्र कहो अर परदारा परवनका परिहार परपीडा का निवारण दया धर्मका अंगीकार दान शील पूजा प्रभावना पोग्वासादिक सो ये देश चारित्र कहिये पर यम कहिये यावज्जीव पापका परिहार, नियम कहिये मर्यादाला त तप का अंगीकार वैराग्य विनय विवेक ज्ञान मन इन्द्रियों का सिरोव ध्यान इत्यादि धर्मका आचरण सो एक देश चारित्र कहिये यह अनेक गुणकर युक्त जिनभासित चारित्र परम धामका कारण कल्याण की प्राप्तीके अर्थ सेवन योग्य है जो सम्यकदृष्टी जीव जिनशासनका श्रद्धानी परनिंदाका त्यागी अपनी अशुभ क्रियाका निंदक जगतके जीवोंसे न सधै ऐसे दुईरताका धारक संयमका साधनहारा सोही दुर्लभ चारित्र धारिको ममर्थ होय अर जहां दया यादि समीचीन गण नाहीं तहां चारित्र नाहीं अर चारित्र धिना संसारसे निवृत्ति नाहीं जहां दया क्षमा ज्ञान वैराग्य तप संयम नहीं, तहां धर्म नहीं, विषय पायका त्याग सोई धर्म है सम कहिर समता भाव परम शांत, दम कहिये मन इन्द्रि. योंका निरोध संबर कहिये नगीन कर्मका निरोध जहां ये नहीं तहां चारित्र नहीं जे पापी जीव हिंसा करे हैं झूठ बोले है चोरी करे हैं परस्त्री सेवन करे हैं महा प्रारम्मी हैं परिग्रही हैं तिनके धर्म नाही, जे धर्मके निमित्त हिंसा करे हैं ते अधर्मी अवनतिके पात्र हैं जो मूह जिन दीक्षा लेकर आरभ करे हैं मो यति नहीं । यतिका धर्म प्रारंभ परिग्रह से रहित है परिग्रह धारियांको मुक्ति नहीं जे हिंसा में धर्म जान पटकाविक जीवों की हिंसा करे हैं ते पापी हैं हिंसामें धर्म नाही हिंसकों को याभव परभरके सख नहीं शिव कहिये मोक्ष नाहीं । जे सुखके अर्थ धर्मके अर्थ जीवयात करे हैं सो वृथा हैं जे ग्राम क्षेत्रादिको प्रासक्त हैं गाय भैस राखे हैं मारे हैं बांधे हैं तोडे है दाहे हैं उनके वैराग्य कहां ? जे क्रय विक्रय करें हैं रसोई परहैंडा आदि प्रारंभ राखे हैं सुवणादिक राखे हैं तिनको मुक्ति नाहीं जिनदीक्षा निरारंभ है अतिदुर्लभ है जो जिनदीक्षा धारि Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण जगतका धंधा करे हैं वे दीर्घ संसारी हैं जे साधु होय तेलादिकका मर्दन करे हैं शरीरका संस्कार करे हैं पुष्पादिकको मूघे हैं सुगंध लगाये हैं दीपका उद्योत करे हैं धूप खेत्रे है सो साधु नहीं, मोक्षमार्गसे पराङ मुख हैं अपनी बुद्धिकर जे कहे हैं हिंसामें दोष नाहीं वे मूर्ख हैं तिनको शास्त्र का ज्ञान नाहीं चारित्र नहीं। जे मिथ्या दृष्टि तप करे हैं ग्राममें एक रात्रि बसे हैं नगरमें पांच रात्रि पर सदा ऊध्र्व - वाहु राखे हैं मास मासोपवास करे हैं अर वनमें विचरे हैं मौनी हैं निरपरिग्रही हैं तथापि दयावान् नहीं, दुष्ट है हृदय जिनका, सम्यक्त्व वीज विना धर्मरूप वृक्षको न उगाय सकें अनेक कष्ट करें तो भी शिवालय कहिए मुक्ति उसे न लहें, जे धर्मकी बुद्धिक र पर्वतसे पडें अग्निमें जरें जल में डूब धरतीमें गडें वे कुमरण कर कुगतिको जावै हैं जे पाप कर्मी कामनापरायण आर्त रौद्र ध्यानी विप. रीत उपाय करें वे नरक निगोद लहैं । मिथ्याष्टि जो कदाचित दान दे तप करें सो पुण्यके उदय कर मनुष्य अर देव गतिके सुख भोगे हैं परन्तु श्रेष्ठ मनुष्य न होंय सम्यग्दृष्टियोंक फल के असंख्यातवे भाग भी फल नाहीं । सम्यग्दृष्टि चौथे गुणठाणे अव्रती हैं तो हू नियममें है प्रेम जिनका सो सम्यकदर्शनके प्रसादसे देवलोकमें उत्तम देव होवें अर मिथ्यादृष्टि कुलिंगी महातप भी करें तो देवनिके किंकर हीनदेव होंय बहुरि संसार भ्रमण करें और सम्यक दृष्टि भव धरे तो उत्तम मनुष्य होय तिनमें देव निके भव सात मनुष्यनिक भव पाठ या भांति पन्द्रह भवमें पंचमगति पावें वीतराग सर्वज्ञ देवने मीक्षका मार्ग प्रगट दिखाया है परन्तु यह विषयी जीव अंगीकार न करें हैं आशारूपी फांसीसे बंधे मोह के वश पडे तृष्णाक भर पाप रूप जंजीरसे जकडे कुगति रूप बन्दीगृहमें पडे हैं स्पर्श अर रसना आदि इन्द्रिशेंके लोलुपी दुःख ही को सुख माने है यह जगतके जीव एक जिनधर्मके शरण विना क्लेश भोगे हैं इन्द्रियोंके सुख चाहें हैं सो मिले नाही अर मृत्युसे डरें सो मृत्यु छोडे नाहीं विफल कामना अर विफल भयके वश भये जीव केल ताप ही को प्राप्त होय हैं तापके हरिवेका उपाय और नाहीं आशा र शंका तजना यही सुखका उपाय है यह जीव आशाकर भरा भोगोंका भोग किया चाहे है धर्ममें धीर्य नाहीं धरे है क्लेशरूप अग्नि कर उष्ण महा प्रारम्भमें उद्यमी कछु भी अर्थ नाही पावै है उल्टा गांठका खोवे है यह प्राणी पापके उदयसे मनवांछित अर्थको नाहीं पावे है उलटा अनर्थ होय है सो अनर्थ अतिदुर्जेय है यह मैं किया यह मैं करू हूं यह मैं करूंगा ऐसा विचार करते ही मर कर कुगति जाय है ये चारो ही गति कुगति हैं एक पंचम गति निर्वाण सोई सुगति है जहांसे बहुरि आवना नहीं अर जगतमें मृ यु ऐसा नहीं देखे है जो याने यह किया यह न किया बाल अवस्था आदिसे सर्व अवस्थामें आय दावे है जैसे सिंह मृगको सब अवस्थामें प्राय दाब अहो यह अज्ञानी जीव अहितमें हितकीवांछा धरे है पर दुख में सुखकी आशा करे है अनित्यको नित्य जाने है भयमें शरण माने है इनके विपरीत बुद्धि है यह सब मिथ्यात्वका दोष है यह मनुष्यरूप माता हाथी मायारूप गर्त में पडा अनेक दुःखरूप बन्धन कर बंधे है विषय रूप मांसका लोभी मत्स्यकी नाई विकल्प रूपी जाल में पडे है यह प्राणी दुबेल बलदको न्याई कुतुम्बरूप कीचमें फसा खेदखिन्न होय है जैसे वैरियोंसे बन्धा पर अंध Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___एकरनेछ हवा पर्श कृपमें पडा उसका निकसना अति कठिन है तैसे स्नेहरूप फांसी कर बंधा संसार रूप अंधकूपमें पडा अज्ञानी जीव उसका निकसना अति कठिन है कोई निकट भव्य जिनवाणीरूप रस्से को गहे अर श्रीगुरु निकासनेवाले होंय तो निकसें अर अभव्य जीव जैनेन्द्री आज्ञारूप अनि दुर्लभ आनन्दका कारण जो आत्मज्ञान उसे पायवे समर्थ नहीं जिनराजका निश्चय मार्ग निकटभव्य ही पावै अर अभव्य सदा को कर कलंकी भए अनिल शरूप संस रचक्रमें भ्रमे हैं ! हे श्रेणिक ! यह वचन श्रीभगवान मकलभूषण केवलीने व हे तब श्रीरामचन्द्र हाथ जोड शीश नवाय व हते भए हे भगवान ! मैं कौन उपाय कर भव भ्रमण से छूटू मैं सकल राणी अर पृथ्वीका राज्य तजये समर्थ हूं परन्तु भाई लक्ष्ममका स्नेह तजवे समर्थ नहीं, स्नेह समुद्र की तरंगोंमें डुबूं हूं श्राप धर्मोपदेश रूप हस्तालवम्बन कर काढो । हे करुणानिधान ! मेरी रक्षा करो, तब भगवान कहते भये- हे राम ! शोक न कर तू बलदेव है कैयक दिन वासुदेव सहित इन्द्रकी न्याई इस पृथिवीका राज्य कर जिनेश्वरका व्रत धर केवलज्ञान पावेगा, ये केवलीके वचन सुन श्रीरामचन्द्र हर्पकर रोमां. चित भए नयन कमल फूल गए बदन कमल विकपित भया पाम धीर्य युक्त होते भए अर राम को केवलीके मुखसे चरम शरीरी जान सुर नरअसुर सब ही प्रशंसा कर अति प्रीति करते भए । इति श्रीरविणेणाचार्यविरचित महापद्मपुगण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा बनिकात्रि गमका केत्रलाके मुख धर्मश्रवण वर्णन करनेवाला एकसौ पांचवां पर्ण पूर्ण भया ।। १०५ ।। अथानन्तर विद्याधरनिमें श्रेष्ठ राजा विभीषण रावणका भाई सुन्दर शरीरका धारक रामकी भक्ति ही है श्राभूषण जिसके सो दोनों कर जोड प्रणाम कर केवलीको पूछता भया, हे देवाधिदेव श्रीरामचन्द्रने पूर्व भवमें क्या सुकृत किया जिसकर ऐपी महिमा पाई अर इनकी स्त्री सीता दण्डक वनसे कौन प्रसंगकर रावण हर लेगया धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थका वेत्ता अनेक शास्त्रका पाठी कृत्य अकृत्यको जाने धर्म अधर्मको पिछाने प्रधान गुण सम्पन्न सो काहे से मोहके वश होय परस्त्रीकी अभिलाषा रूप अग्निमें पतंगके भावको प्राप्त भया पर लक्ष्मणने उसे संग्राममें हता रावण ऐसा बलवान विद्याधरनिका महेश्वर अनेक अद्भुत कार्योका करणहारा सो कैसे ऐसे मरणको प्राप्त भया ? तब कंवली अनेक जन्मकी कथा विभीषण को कहते भए-हे लकेश्वर ! राम लक्ष्मण दोनों अनेक भवके भाई हैं अर रावणके जीवसे लक्ष्मणके जीवका बहुत भवसे वैर है सो सुन-जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र में एक नगर वहां नयदत्त नामा वणिक अल्प धनका धनी उसकी सुनन्दा स्त्री उसके धनदत्त नामा पुत्र सो रामका जीव अर दूजा बसुदच सो लक्ष्मणका जीव अर एक यज्ञवलि नामा विप्र बसुदत्तका मित्र सी तेरा जीव अर उस ही नगरमें एक और वणिक सागरदत्त जिसके स्त्री रत्नप्रभा पुत्री गुणवती सो सीताका जीव भर गुणवतीका छोटा भाई जिसका नाम गुणवान सो भामण्डलका जीव अर गुणवती रूप यौवन कला कांति लावण्यताकर मण्डित सो पिताका अभिप्राय जान धनदत्से बहिनकी सगाई गुणवानने करी अर उस ही नगरमें एक महा धनवान बणिक श्रीकांत सो रावणका जीव जो निरंतर गुणवतीके परणवेकी अभिलाषा राखे अर गुणवतीके रूप कर हरा गया हैं चित्त जाका सो गुण Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० पद्म-पुराण तीका भाई लोभी धनदत्तको अल्पं धनवंत जान श्रीकांतको महाधनवन्त देख परणाय वेको उद्यमी भया । सो यह वृतांत यज्ञवलि ब्राह्मणने बसुदत्तको कहा -- तेरे बडे भाईकी मांग कन्याका बडा भाई, श्रीकांतको धनवान जान परणाया चाहे है तब बसुदत्त यह समाचार सुन श्रीकांत के मारिवेको उद्यमी भया खड्ग पैनाय अंधेरी रात्रि में श्याम वस्त्र पहिरे शब्द रहित धीरा २ पग धरता जय श्रीकांत घरमें गया सो वह असावधान बैठा हुता सो खड्गसे मारा तत्र पडते पडते श्रीकांतने भी बदत्तको खड्गसे मारा सो दोनो मरे सो विंध्याचलके वनमें हिरण भए र नगर के दुर्जन लोक हुते तिन्होंने गुणवती धनदत्तको न परणायवे दीनी कि इसके भाईने अपराध किया, दुर्जन लोक विना अपराध कोप करे सो यह तो एक बहाना पाया तब धनदत्त अपने भाईका मरण अर अपना अपमान तथा मांगका अलाभ जान महादुखी होय घरसे निकस विदेश गमन करता भया अर वह कन्या धनदत्तकी प्राप्तिकर अतिदुखी भई और भी किसीको न परणावती भई, र कन्या मुनिनिकी निंदा, अर जिनमार्गकी अश्रद्धा मिथ्यात्वके अनुरागकर पाप उपाजें काल पाय वर्तध्यान कर मूई सो जिस वनमें दोनो मृग भए हुते तिस वनमें यह मृगी भई, सां पूर्वले विरोधकर इसीके अर्थ ते दोनों मृग परस्पर लडकर मूए सो वन सूकर भए बहुरि हाथी भैंसा बैल वानर गैंडा न्याली मींढा इत्यादि अनेक जन्म धरते भए अर यह वाही जातिकी तियंचनी होती भई सो याके निमित्त परस्पर लडकर मूए जलके जीव थलके जीव होय २ प्राण तजते भए र धनदत्त मार्गके खेद कर अति दुखी, एक दिन सूर्य के अस्त समय मुनिनिके आश्रम गया भोला कछु जाने नाहीं साधुनिसे कहता भया - मैं तृषाकर पीडित हूं मुझे जल पिलावो तुम धर्मात्मा हो तब मुनि तो न बोले अर कोई जिनधर्मी मधुर वचन कर इसे संतोष उपजाय कर कहता भया - हे मित्र ! रात्रीको अमृत भी न पीत्रना जलकी कहा बात ? जिस समय खनि कर कछू सूझे नाहीं सूक्ष्म जीव दृष्टि न पडें ता समय, हे वत्स यदि तू अति आतुर भी होय तो भी खान पान न करना रात्री आहार में मांसका दोष लागे है इसलिये तू न कर जाकर भवसा गरमें डूबिये । यह उपदेश सुन धनदत्त शान्तचित्त भया शक्ति अल्प थी इसलिये यति न होयसका दयाकर युक्त है चित्त जाका सो अणुव्रती श्रावक भया, बहुरि काल पाय समाधिमरण कर सौधर्म स्वर्गमें बडी ऋद्धिका धारक देव भया मुकुट हार भुजबधादिक कर शोभित पूर्व पुण्यके उदय से देवांगनादिकके सुख भोगे बहुरि स्वर्गसे चय कर महापुर नामा नगर में मेरुनामा श्रेष्ठी ताकी चारिखी श्री पद्मरुचि नामा पुत्र भया अर ताही नगरमें राजा छत्रच्छाय राणी श्रीदत्ता गुणनिकी मंजूषा हुती सो एक दिन सेठ का पुत्र पद्मरुचि अपने गोकुल में अश्व चढा आया सो एक वृद्धगति बलदको कंठगत प्राण देखा तब यह सुगंध वस्त्र माला के धारकने तुरंगसे उतर अतिदया कर बैल के कान में नमोकार मन्त्र दिया सो बलदने चित्त लगाय सुना और प्राण तज राणी श्री चाके गर्भ में आय उपजा राजा छत्रच्छायके पुत्र न था सो पुत्रके जन्म में अतिहर्षित भया Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौछहया पर्व नगरकी अतिशोभा करी बहुत द्रव्य खरचा बडा उत्सव कीया वादित्रोंके शब्द कर दशो दिशा शब्दायमान भई यह बालक पुरापकर्मके प्रभावकर पूर्वजन्म जानता भया सो बलदके भवका शीत आताप आदि महादुख अर मरण समय नमोकार मन्त्र सुना ताके प्रभावकर राजकुमार भया सो पूर्व अवस्था यादकर बालक अवस्था में ही महा विवेकी होता भया । जब तरुण अवस्था भई तब एक दिन विहार करता बलदके मरणके स्थानक गया अपना पूर्व चरित्र चितार यह वृषभधज कुपार हाथीसे उतर पूर्वजन्मकी मरणभूमि देख दुखित भया । अपने मरणका सुध रणहारा नमोकार मन्त्रका देनहारा उसके जानिके अर्थ एक कैलाशके शिखर समान ऊचा चैत्यालय बनवाया अर चैत्यालयके द्वार में एक बडे बैलकी मूर्ति जिसके निकट बैठा एक पुरुष णमोकार मन्त्र सुनावे है ऐसा एक चित्रपट लिखाय मेला अर उसके समीप समझनेको मनुष्य मेले । दशन करवेको मेरुश्रेष्ठीका पद्मरुचि आया सो देख अतिहर्षित भया भर भगवानका दर्शन कर पीछे प्राय बैलके चित्रपटकी ओर निरखकर मनवि विचार है- बलको नमोकार मंत्र मैंने सुनाया था सो खडा खडा देखे जे पुरुष रखवारे थे तिन जाय राजकुमारको कही सो सुनते ही बडी ऋद्धिसे युक्त हाथी चढा शीघ्रती अपने परम मित्रसे मिलने पाया। हाथ से उतर जिनमन्दिरमें गया बहुरि बाहिर आया । पद्मरुचिशे बैल की ओर निहारता देखा राजकुमारने श्रेष्ठ के पुत्रको पूछी तुम बैलके पटकी ओर कहा निरखो तो ? तब पद्मचिने कही-एक मरते बेलको मैंने नमोकार मन्त्र दिया था सो कहां उपजा है यह जानिवेकी इच्छा है तब वृषभध्वज बोले-वह मैं हूं, ऐसा कह पायन पडा अर पद्मरुचिकी स्तुति करी जैसे गुरुकी शिष्य कर अर कहता भया. मैं पशु महा अविवेकी मृत्युके कष्टकर दुखी था सो तुम मेरे महा मित्र णमोकार मंत्रके दाता समाधिमरणके कारण होते भए, तुम दयालु पर भक्के सुधारणहारे, महामन्त्र मुझे दिया उससे मैं राज कुमारभया जैसा उपकार राजा देव माता सहोदर मित्र कुटुम्ब कोई न करे तैसा तुम किया, जो तुम नमोकार मन्त्र दिया उस समान पदार्थ त्रैलोक्यमें नहीं उसका बदला मैं क्या दं तुमसे उऋण नहीं तथापि तुमविषै मेरी भक्ति अधिक उपजी हे जो आज्ञा देवी सो करू । हे पुरुषोत्तम ! तुम आज्ञा प्रदान कर मुझको भक्त करो यह सकल राज्य लेवो मैं तुम्हारा दास यह मेरा शरीर उसकर इच्छा होय सो सेवा करायो । या भांति वृषभध्वजने कही तब पारुचिके अर या अति प्रीति बढी दोनों स. म्यग्दृष्टि राजमें श्रावकके व्रत पालते भए, ठौर ठौर भगवानके बडे २ चैत्यालय कराए तिनमें जिनबिंब पधराए यह पृथिवी तिनकर शोभायमान होती भई बहुरि समाधिमरण कर वृषभध्वज पुण्यकर्मके प्रसाद कर दूजे स्वर्गमें देव भया देवांगनाके नेत्ररूप कमल जिनके प्रफुल्लित करनेको सूर्य समान होता भया तहां मन वांछित क्रीडा करता भया, अर पद्मरुचिसेठ भी समाथिमरण कर दूजे ही स्वर्ग देव भया दोनों वहां परम मित्र भए । वहांसे चयकर पद्मरुचि का जीव पश्चिम विदेह में विजयागिरि जहां नंद्यार्त नगर वहां राजा नन्दीश्वर उसकी राणी कनकप्रभा उसके नयनानन्द नामा पुत्र भया सो विद्याधरनिके चक्रीपदकी संपदा भोगी बहुरि महामुनिकी अवस्था धर विषम तप किया, समाथिमरण कर चौथे स्वर्ग देव भया वहां पुण्यरूप बेलके सुखरूप फल Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण महामनोग्य भोगे बहुरि वहांसेचयकर सुमेरु पर्वतके पूर्व दिशाकी ओर विदेह वहां क्षेमपुरी नगरी राजा विजुलबाहन, राणी पद्मावती, तिनके श्रीचन्द नामा पुत्र भया वहां स्वर्ग समान सुख भोगे तिनके पुण्यके प्रभावसे दिन दिन राजकी वृद्धि भई, अटूट भंडार भया समुद्रांत पृथिवी एक ग्रामकी न्याई वश करी अर जिसके स्त्री इंद्राणी समान सो इंद्र कैसे सुख भोगे, हजारों वर्ष सुखसे राज्य किया। एक दिन महासंघ सहित तीन गुप्तिके धारक समाथिगुप्ति योगीश्वर नगरके बाहिर श्राय विराजे तिनको उद्यानमें पाया जान नगरके लोग बन्दनाको चले सो महास्तुति करते वादित्र वजावते हर्षसे जाय हैं, श्रीचन्द्र समीपके लोकोंसे पूछता भया-यह हर्षका नाद जैसा समुद्र गाजे तैसा होय है सो कौन कारण है ? तब मंत्रिनिने किंकर दोडाए। निश्चय किया जो मुनि आए हैं तिनके दर्शनको लोक जाय हैं। यह समाचार राजा सुनकर फूले कमल समान भर हैं नेत्र जिसके अर शरीरमें हर्षसे रोमांच होय आये राजा समम्त लोक अर परिवार सहित मुनिके दर्शनको गया प्रसन्न है मुख जिनका ऐसे पुनिराज तिनको राजा देख प्रणामकर महा विनयसंयुक्त पृथिवीमें बैठा । भव्य जीवरूप कमल तिनके प्रफुल्लित करवेंको सूर्य समान ऋषिनाथ तिनके दर्शनसे राजाको अति धर्म स्नेह उपजा, वे महातपोधन धर्म शास्त्रके वेत्ता परम गंभीर लोकोंको तत्वज्ञानका उपदेश देते भए-यतिका धर्म अर श्रावकका धर्म संसार समुद्रका तारणहारा अनेक भेदसंयुक्त कहा अर प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोगका स्वरूप कहा । प्रथमानुयोग कहिए उत्तम पुरुषोंका कथन करणानुयोग कहिए तीन लोकका कथन, चरणानुयोग कहिए मुनि श्रावका धर्म अर द्रव्यानुयोग कहिये पद्रव्यसप्त तत्व नव पदार्थ पंचास्तिकायका निणय । कैसे हैं मुनिराज ? वक्तानिमें श्रेष्ठ हैं पर आक्षेपणी कहिए जिनमार्ग उद्योतनी अर चपणी कहिए मिथ्यात्वखंडनी अर संवेगिनी कहिए धर्मानुरागिणी अर निर्वेदिनी कहिए वैराग्यकारिणी यह चार प्रकार कथा वहते भए, इस संसार असा रमें कर्मके योगसे भ्रमता जो यह प्राणी सो महाकष्टसे मोक्ष मार्गको प्राप्त होय है संसारका ठाठ बिनाशीक है जैसा संध्याका वर्ण अर जलका बुदबुदा तथा जलके झाग अर लहर कर विजुरीका चमत्कार इंद्र धनुष क्षणभंगुर हैं प्रसार हैं असा जगतका चरित्र क्षणभंगुर जानना यामें सार नहीं नरक तिर्यचगति तो दुखरूप ही हैं अर देव मनुष्य गतिमें यह प्राणी सुख जाने है सो सुख नहीं, दुख ही है जिससे तृप्ति नाहीं सोही दुख जो महेन्द्र स्वर्गके भोगों से तृप्त नहीं भया सो मनुष्य भवके तुच्छ भोगसे कैसे तृप्त होय ? यह मनुष्य भव भोग योग्य नहीं वैराग्य योग्य है । काहू एक प्रकार से दुलभ मनुष्य देह पाया जैसे दरिद्री निधान पावै सो विषय रसका लोनी होय वृथा खोया मोहको प्राप्त भया जैसे सूके इन्धनसे अग्नि को कहां तृप्ति अर नदीनिके जलसे समुद्र को कहां तृप्ति ? तैसे विषयसुखसे जीवनको तृप्ति न होय, चतुर भी विषयरूप मद कर मोहित भया मन्दताको प्राप्त होय है, अज्ञान रूप तिमिरसे मंद भया है मन जिसका सो जलमें डबता खेदखिन्न होय त्यों खेदखिन्न है परन्तु अविवेकी तो विषय हीको भला जाने हैं, सूर्य ती दिनको ताप उपजावै अर काम रात्रि दिन प्राताप उपजावै सूर्य के प्राताप निवारिवेके अनेक उपाय Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमीछह वा पर्व है अर कामके निवारवेका उपाय एक विवेक ही है जन्म जरा मरणका दुख संसारमें भयंकर है जिसका चितवन किए कष्ट उपजे यह कर्मजनित जगतका ठाठ अरहटके गन्त्रकी घडी समान है रीता भर जाय है, भरा रीता होय है, नीचला ऊपर ऊपरला नीच, कर यह शरीर दुर्गन्ध है गंत्र समान चलाया चले है विनाशीक है मोह कर्मके योगसे जीवका कायासे स्नेह है जलके, बुबुदा समान मनुष्य भवके उपजे सुख अमार जान घडे कुलके उपजे पुरुष विरक्त होय जिनराजका भाषा मार्ग अंगीकार करे हैं उत्साहरूप बषर पहिरे, निश्चय रूप तुरंगके अपवार ध्यानरूप खड्गके धारक धीर कर्मरूप शत्रुको विनाश निर्वाण रूप नगर लेय हैं, यह शरीर भिन्न अर मैं भिन्न ऐमा चितवन कर शीरका स्नेह नज हे मनु ! धर्म को करो धर्म समान अर नहीं और धर्मोसे मुनिका धर्म श्रेष्ठ है जिन महामुनियों के मुख दुख दोनों तुल्प. अपना अर पराया तुल्य जे राग द्वप रहित महा पुरुष हैं वे परम उत्कृष्ट शुक्ल ध्यानरूप अग्निसे कर्मरूप वनी दुख रूप दुष्टोसे भरी भस्म करें हैं। । ये मुनिके वचन राजा श्रीचंद सुन बोधको प्राप्त भया, विषयानुभव सुम्ब से वैराग्य होय अपने ध्वजाति नामा पुत्र को राज्य देव समाधि गुप्त नाम मुनिा. समीप मुनि भया । महा विरक्त है मन जिसका, सम्यकत्व की भावनासे तीनों योग जे मन वचा काय तिनकी शुद्धता धरता मंता पांच समिति तीन गप्तिसे मंडित राग द्वेषमे रांगडाख रमत्र यरूप आभूषणोका धारक उत्तम क्षमा आदि दशलक्षण धमकर मंडिा जिनशासन अनुर गी समस्त अंग पूर्वाग का पाठक समाधानरूप पंच महावाका धारक जाबोंका दानु सप्त भय हिा परमवीर्य का धारक बाईस परीषहका सहनहार, वेला तेला पक्ष मासादिक अनेक उपवासका करणहारा शुद्ध आहारका लेनहारा ध्यानाध्ययनमें तत्पर निर्मलतच अतींद्रिय भोगों की बांछाका त्यागी निदान बधनरहित महाशांत जिन शासन में है वात्सल्य जिसका, यति के प्राचारमें संघ के अनुग्रहमें तत्पर बालके अग्रभागके कोटिवे भाग हू नाहीं है परिग्रह जाके, स्नान का त्यागी दिगंवर, संमारके प्रबंधत रहिन, ग्रामके वनमें एक रात्रि अर नगरके बनमें पांच रात्रि रहनहारा गिरि गुफा गिरि शिखर नदीके पुलनि उद्यान इत्यादि प्रशस्त स्थानमें निवास करणहारा कायोत्सर्गका धारक देहतें ह निर्ममत्व निश्चल मौनी पंडित महातपस्वी इत्यादि गणनिकर पूर्ण कर्म पिंजरको जर्जराकर काल पाय श्रीचन्द्रमुनि रामचन्द्र का जीव पांचवें स्वर्ग इन्द्र भया, तहां लक्ष्मी कीर्ति कांति प्रताप का धारक देवनिका चूडामणि तीनलोकमें प्रसिद्ध परम ऋद्धकर युक्त महासुख भोगता भया। नंदनादिक वनमें सौधर्मादिक इन्द्र याकी संपदाको देख रहेहैं, या अवलोकनकी सबके बांछा रहै महा सुन्दर विमान मणि हेममई मोतिनकी झालरिनिकर मंडित, वामें बैठा विहार करै दिव्य स्त्रीनिके नेत्रों को उत्सवरूप महासुखने काल व्यतीत करता भया, श्रीचन्द्रका जीव ब्रोद्र ताकी महिमा, हे विभीषण ! वचनकर न कही जाय, केवलज्ञानगम्य है । यह जिनशासन अमोलिक परमरत्न उपमारहित त्रैलोक्यमें प्रकट है तथापि मृह न जाने। श्रीजिनेंद्र मुनींद्र पर जिनधर्म इनकी महिमा जानकर ह मूर्ख मिथ्या अभिमान कर गर्वित भये धर्मसेपराङ मुख रहें। जो अज्ञानी या लोकके सुखमें अनुरागी Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पुराण भया है सो बालक समान अविवेकी है। जैसे बालक विना समझ अभक्षका भक्षणकरै विषपान करै है तैसे मृढ अयोग्यका आचरण करे है । जे विषयके अनुरागी हैं सो अपना बुरा करे है, जीवोंके कर्म बथकी विचित्रता है इसीलिए सब ही ज्ञानके अधिकारी नहीं, कैयक महाभाग्य ज्ञान को पावे हैं पर कैयक ज्ञानको पाय और वस्तुकी वांछाकर अज्ञानदशाको प्राप्त होय हैं अर कैयक महानिंद्य जो यह संसारी जीवनिके मार्ग तिनमें रुचि करें हैं, वे मार्ग महादोषके भरे हैं जिनमें विषय कषायकी बहुलता है जिनशासनसे और कोई दुखके छड़ायवेका मार्ग नाहीं इसलिए हे विभीषण ! तुम आनन्द चित्त होयकर जिनेश्वर देवका अर्चन करो, इमीभांति धनदत्तका जीव मनुष्यसे देव, देवसे मनुष्य होय कर नवमे भव रामचन्द्र भए, उसकी विगत-पहिले भव धनदत्त १ दूजे भव पहले स्वर्ग देव २ तीजे भव पद्मरुचि सेठ ३ चौथे भव दूजे स्वर्ग देव ४ पांचवें भव नयनानंदराजा ५ छठे भव चोथे स्वर्गदेव ६ सातवें भव श्रीचन्द्र राजा ७ आठवें भव पांचवें स्वर्ग इंद्र-नववें भव रामचन्द्र ६ आगे मोक्ष यह तो रामके भव कहे अब हे लंकेश्वर ! बसुदत्तादिकका वृत्तांत सुन-कर्मोकी विचिप्रगति ताके योगकर मृणाल कुण्ड नामा नगर तहां राजा विजयसेन राणी रत्नचूला उसके वज्रकंबु नामा पुत्र उसके हेमवती राणी उसके शंभुनामा पुत्र पृथ्वी में प्रसिद्ध सो यह श्रीकांतका जीव रावण होनहार सो पृथ्वीमें प्रसिद्ध अर वसुदत्तका जीव राजाका पुरोहित उस का नाम श्रीभूति सो लक्ष्मण होनहार, महा जिनधर्मी सम्यकदृष्टि उसके स्त्री सरस्वती उसके वेदवती नामा पुत्री भई-सो गुणवतीका जीव सीता होनहार गुणवतीके भवसे पूर्व सम्यक्त्व विना अनेक तिथंच योनि में भ्रमणकर साधुवोंकी निंदाके दोपकर गंगाके तट मरकर हथिनी भई । एक दिन कीचमें फंसी पराधीन होय गया है शरीर जिसका नेत्र तिरमिराट अर मंद २ सांस लेय सी एक तरंगवेग नामा विद्याधर महा दयावान उसने हथिनीके कानमें नमोकार मंत्र दिया सो नमोकार मंत्रके प्रभावकर मन्द कषाय भई अर विद्याधरने व्रत भी दिए सो जिनधर्मके प्रसादसे श्रीभूत पुरोहितके वेदवती पुत्री भई । एक दिन मुनि आहारको आए सो यह हंसने लगी तब पिताने निवारी सो यह शांतचित्त होय श्राविका भई अर यह कन्या परमरूपवती सो अनेक राजावोंके पुत्र इसके परिणावे को अभिलाषी भए अर यह राजाविजयसेन का पोता शंभु जो रावण होनहार है सो विशेष अनुरागी भया अर पुरोहित श्रीभूति महा जिनधर्मी सो उसने जो मिथ्यादृष्टिकुवेर समान धनवान होय तो हू मैं पुत्री न दूं यह मेरे प्रतिज्ञा है तब शंभुकुमारने रात्रिमें पुरोहितको मारा सोपुरोहित जिनधर्म के प्रसादसे स्वर्ग लोकमें देव भया अर शंभुकुमार पापी वेदवती साक्षात् देवी समान उसे न इच्छती को बलात्कार परणवेको उद्यमी भया वेदवतीके सर्वथा अभिलाषा नाही तर कामकर प्रज्वलित इस पापीने जोरावरी कन्याको आलिंगनकर मुख चंब मैथुन किया तब कन्या विरक्त हृदय कांपे है शरीर जिसका अग्निकी शिखा समान प्रज्वलित अपने शील घातकर अर पिता के घातक परम दुखको धरती लाल नेत्रहोय महा कोपकर कहती भई अरंपापी । तैंने मेरे पिताको मार मो कुमारीसे बलात्कार विपय सेवन किया सो नीच ! मैं तेरे नाश का कारण होऊगी मेरा पिता तैंने मारा सी बड़ा अनर्थ किया मैं पिताका मनोरथ कभ भी न उलंघूमिथ्या दृष्टि सेवनसे मरण भला एसा कह वेदवती श्रीभूति Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसाछहवा पठा पुरोहितकी कन्या हरिकांता श्रार्थिका के समीप जाय आर्यिका के व्रत लेय परम दुर्धर तप करती भई केशलु च किए महा तप कर रुधिर मांग काय दिए प्रकट दीखे हैं अस्थि पर नसा जिसके, तपकर सुकाय दिया है देह जिसने समाधि मरणकर पांचवें स्वर्ग गई पुण्यके उदयकर स्वर्गके सुख भोंगे अर शंभु संसार में अनीति के योगकर श्रति निन्दनीय भया कुटुंब सेवक पर धनसे रहित भया उन्मत्त होय गया जिनधर्म परागमुख भया साधुओं को देख हमें निंदा करें मय मांस शहकाहारी पाप क्रियामें उद्यमी अशुभके उदयकर नरक तिर्यचमें महा दुख भोगता भया । अथानन्तर कछु यक पापकर्मके उपशमसे कुशध्वज नामा ब्राह्मण ताके सावित्री नामा स्त्रीके प्रभासकुन्द नामा पुत्र भया सो दुर्लभ जिनधर्मका उपदेश पाय विचित्र मुनिके निकट मुनि भया काम क्रोध मद मत्सर हरे, अरंभरहित भया, निर्विकार तपकर दयावान निस्पृही जितेंद्री पक्षमास उपवास करे जहां सूर्य अस्त हो तहां शून्य वनमें बैठ रहे मूलगुण उत्तर गुणका धारक, बाईस परिपका सहनहारा, ग्रीष्ममें गिरिके शिखर रहे, वर्षामें वृक्ष तले बसेर शीतकालमें नदी सरोवरीके तट निवास करे। या भांति उत्तम क्रिया कर युक्त श्रीसम्मेदशिखर की बंदनाको गया वह निर्वाण क्षेत्र कल्याणका मन्दिर जाका चितवन किये पापनिका नाश होय तहां कनकप्रभ नामा विद्याधरकी विभूति आकाशमें देख मूर्खने निदान किया जो जिनधर्म के तप का माहात्म्य सत्य है तो ऐसी विभूति मैं हूं पाऊ । यह कथा भगवान केवलीने विभीषणको कही देखो जीवोंकी मूढता तीन लोक जाका मोल नहीं ऐसा अमोलिक तपरूप रत्न भोग रूपी मूठी सागके अर्थ बेचा, कर्मके प्रभाव कर जीवन की विपर्यय बुद्धि होय है निदानकर दुखित विषम तप कर वह तीजे स्वर्ग देव भया तहांसे चयकर भोगनिमें है चित्त जाका सो राजा रत्नश्रवा राणी केकसी ताके रावण नामा पुत्र भया, लंका में महा विभूति पाई, अनेक हैं श्राश्चर्यकारी वात जाकी, प्रतापी पृथ्वीमें प्रसिद्ध, अर धनदत्तका जीव रात्रि भोजनके त्याग कर सुर नर गतिके सुख भोग श्रीचन्द्र राजा होय पंचम स्वर्ग दश सागर सुख भोग बलदेव भया, रूपकर बलकर विभूति कर जा समान जगतमें और दुर्लभ है महामनोहर चन्द्रमा समान उज्ज्वल यशका धारक अर वसुदत्तका जीव अनुक्रमसे लक्ष्मी रूप लता के लिपटने का वृक्ष वसुदेव भया ताके भव सुन वसुदत्त १ मृग २: शुकर ३ हाथी ४ महिष ५ वृषभ ६ वानर ७ चीता ८ ल्याली ६ मीढा १० अर जलचर स्थलच(के अनेक भव ११ श्रीभूति पुरोहित १२ देवराजा १३ पुनर्वसु विद्याधर १४ तीजे स्वर्गदेव १५ वासुदेव १६ मेघा १७ कुटुम्बीका पुत्र १८ देव १६ बणिक २० भोग भूमि २१ व २२ चक्रवर्तीका पुत्र २३ बहुरि कैपक उत्तम भर घर पुष्कराद्ध के विदेहमें तीर्थकर अर चक्रवर्ती दोय पदका धारी होय मोच पावेगा श्रर दशाननके भव - श्रीकांत १ मृग २ सूकर ३ गज ४ महिप ५ वृषभ ६ बांदर ७ चीता ८ ल्याली ६ मीठा १० अर जलचर थलचर के अनेक भत्र ११ शंभु १२ प्रभासकुन्द १३ तीजे स्वर्ग १४ दशमुख १५ बालुका- १६ कुटुम्बी पुत्र १७ देव १८ बणिक् १६ भोग भूमि २० देव २१ चक्रीपुत्र २२ बहुरि कैपक उत्तम भव धर भरत क्षेत्र में जिनराज होय मोक्ष पावेगा बहुरि जगत जालमें नाहीं अर जानकी के भव- - गुणवती Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ पद्मपराण १ मृगी २ सूकरी ३ हथिनी ४ महिषी ५ गो ६ वानरी ७ चीती ८ ल्याली ६ गार १० जलचर स्थलचरके अनेक भत्र ११ चिनोत्सव १२ पुरोहितकी पुत्री वेदवती १३ पांचत्रे स्वर्ग देश अमृतवती १४ बलदेवकी पटराणी १५ सोलहवें स्वर्ग प्रतींद्र १६ चक्रवर्ती १७ अहमिद्र १८ रावणका जीव तीर्थकर होयगा ताके प्रथम गणधरदेव होय मोक्ष प्राप्त होयगा । भगवान सकलभ्रूण विभीषण से कहैं हैं- श्रीकांताका जीव कैयक भवमें शंभु प्रभासकुन्द होय अनुक्रमसे रावण - मया जाने अर्द्ध भरत क्षेत्र में सकल पृथिवी बश करी, एक अंगुल आज्ञा सिवाय न रही अर गुणवतीका जीव श्रीभृतिकी पुत्री होय अनुक्रमकर सीता भई, राजा जनककी पुत्री श्रीरामचन्द्रकी पटराणी विनयवती शीलवती पतिव्रतानि में अग्रसर भई जैसे इन्द्रके रात्री चंद्रक रोहिणी रविके रेखा चक्रवर्ती सुभद्रा तैसे रामके सीता सुन्दर है चेष्टा जाकी पर जो गुणवतीका भाई गुणवान् सो भामण्डल भया श्रीरामका मित्र जनक राजाकी राणी विदेहा के गर्भ में युगल बालक भए भामण्डल भाई सीता वहिन दोनां महा मनोहर पर यज्ञवलि ब्राह्मणका जीव विभीषण भया श्रर बैल का जीव जो नमोकार मंत्र के प्रभाव स्वर्ग गति नर गतिके सुख भोगे यह सुग्रीव कपिध्वज भया भामण्डल सुग्रीवर तू पूर्व भवकी प्रीति कर तथा पुण्य के प्रभाव कर महा पुण्याविकारी श्रीराम ताके अनुरागी भये । यह कथा सुन विभीषण बालिके भव पूछता भया तब केवली कहे है - है विभीषण, तू सुन, राग द्वेषादि दुखनिका के समूह कर भरा यह संसार सागर चतुर्गति मई तामें वृन्दावन में एक कालेरा मृग सो साधु स्वाध्याय करते हुने तिनका शब्द अन्तकाल में सुन कर ऐरावतक्षे त्रमें दित नामा नगर तहां विहित नामा मनुष्य सम्यग्दृष्टि सुन्दर चेष्टाका धारक ताकी स्त्री शिवमति ताके मेवदत्त नामा पुत्र भया सो जिनपूजामें उद्यमी भगवानका भक्त अणुव्रत धारक समधिमरण कर दूजे स्वर्ग देव भया, वहांसे चषकर जम्बूद्वीप में पूर्व विदेह विजियावतीपुरी ताके समीप महा उत्साहका भरा मत्तकोकिला नामा ग्राम ताका स्वामी कांतिशोक ताकी स्त्री रत्नांगिनी तांके स्वप्रभ नामा पुत्र भया महा सुंदर जाको शुभ आचार भावै सो जिनधर्म में निपुण संयतनामा मुनि होय हजारों वर्ष विधिपूर्वक बहुत भांति के महा तप किये, निर्मल है मन जाका सो तपके प्रभावकर अनेक ऋद्धि उपजी तथापि अति निर्गर्व संयोग सम्बन्ध में ममताको तज उपशम श्रेणी धार शुक्ल ध्यानके पहिले पाएके प्रभावतें सर्वार्थसिद्धि गया सो तेतीस सागर अहमिंद्र पदके सुख भोग राजा सूर्यरज ताके वालि नामा पुत्र भया । विद्याधरनिका अधिपति किहकन्धपुर का धनी जिसका भाई सुग्रीव सो महा गुणवान सो जब रावण चढ आया तब जीव दयाके अर्थ बालीने युद्ध न किया सुग्रीवको राज्य देय दिगम्बर भया सो जब कैलाशमें तिष्ठे था, और रावण आय निकसा, क्रोधकर कैलाशको उठायवेको उद्यमी मया सो बाली मुनि चैत्यालयोंकी भक्तिसे ढीला सों अंगुष्ठ दबाया सो रावण दबने लगा तब राणी ने साधुकी स्तुति कर अभयदान दिवाया । रावण अपने स्थानक गया अर वाली महा मुनि गुरुके निकट प्रायश्चितनामा तप लेय दोष निराकरण कर क्षपक श्रेणी चढ कर्म दग्ध किये लोके शिखर सिद्धिक्षेत्र है वहां गए जीवका निज स्वभाव प्राप्त भया अर वसुदत्त के अर श्रीकांत के गु Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौछहवा पर्व णवतीके कारण महा वैर उपजा था सो अनेक जन्मोंमें दोनों परस्पर लड लड मरे पर गुणवतीसे तथा वेदबतीसे रावणके जीवके अभिलाषा उपजी थी उस कारण कर रावणने सीता हरी पर वेदवतीका पिता श्रीभृति सम्यकदृष्टि उत्तम ब्राह्मण सो वेदवती के अर्थ शत्रुने हता सो स्वर्ग जाय वहांसे चयकर प्रतिष्ठित नामा नगरमें पुनर्वसु नाम विद्याधर भया सो निदानसहित तपकर तीजे स्वर्ग जाय रामका लघु भ्राता महा स्नेहवंत लक्ष्मण भया अर पूर्वले वैरके योगसे रावणको मारा अर वेदवतीसे शभुने विपर्यय करी तातें सीता रावणके नाशका कारण भई जो जिसको हते सो उसकर हता जाय । तीन खण्डकी लक्ष्मी सोई भई रात्रि उसका चन्द्रमा रावण ताहि हतकर लक्ष्मण सागरान्त पृथिवीका अधिपति भया, रावणसा शूर वीर पराक्रमी या भांति मारा जाय यह कर्मोंका दोष है दुर्बलसे सबल होय सबलसे दुर्बल होय, घातक है सो हता जाय अर हता होय सो घातक होय जाय । संसारके जीवोंकी यही गति है कर्मकी चेष्टा कर कभी स्वर्गके सुख पावें कभी नरकके दुःख पावे अर जैसे कोई महास्वादरूप परम अन्न उसमें विष मिलाय दुषित करे तैसे मूढ जीव उग्र तपको भोगविलास कर दुषित करे है जैसे कोई कल्पवृक्षको काटि कोईकी वाडि करे अर पिके वृक्षको अमृतरस कर सींचे अर भस्मके निमित्त रत्नोंकी राशिको जलावे पर कोयलोके निमित्त मलयागिरि चन्दनको दग्ध करे तैसे निदान बंधकर तपको यह अज्ञानी दूषित करें या संसारमें सर्व दोषकी खान स्त्री है तिसके अर्थ क्या कुकर्म अज्ञानी न करें । जो या जीवने कर्म उपार्जें हैं सो अवश्य फल देय हैं कोऊ अन्यथा करिबे समर्थ नहीं, जे धर्ममें प्रीति करें बहुरि धर्म उपार्जे वे कुगतिको प्राप्त होय हैं जिनकी भूल कहा कहिए ? जे साधु होयकर मदमत्सर धरे हैं तिन को उग्रतप कर मुक्ति नहीं अर जिसके शांति भाव नही संयम नहीं तप नहीं उम दुर्जन मिथ्यादृष्टि के संसार सागरके तिरिवेका उपाय कहां ? अर जैसे असराल पवनकर मदोन्मत्त गजेन्द्र उडे तो सुसा के उडवेका कहा आश्चर्य तैसे संसारकी झूठी मायामें चक्रवादिक बडे पुरुष भृले तो छोटे मनुष्यनिकी कहा बात इस जगत्में परम दुखका कारण वैर भाव हैं सो विवेकी न करें आत्मकन्याण की है भावना जिनके पापकी करण हारी वाणी कदापि न बोले । गुणवतीके भवमें मुनि का अपवाद किग था अर वेदवतीके भवमें एक मंडिलकानामा ग्राम वहां सुदर्शन नामा मुनि वन में आये जो लोक बन्दनाकर पीछे गये अर मुनिकी बहिन सुदर्शना नामा आर्यिका सो मुनिके निकट बैठी धर्म श्रवण करे थी सो वेदवतीने देख कर ग्रामके लोकोंके निकट मुनिकी निंदा करी कि मैं मुनिकोअकेली स्त्रीके समीप बैठा देखा तब कैयकोंने बात न मानी पर कैयक बुद्धिवन्तों ने न मानी परन्तु ग्राममें मुनिका अपवाद भया, तब मुनिने नियम किया कि यह झूठा अपवाद दूर होय तो आहारको उतरना अन्यथा नहीं तब नगरके देवताने वेदवतीके मुखकर समस्त ग्रामके लोकोंको कहाई कि मैं झठा अपवाद किया। यह बहिन भाई हैं अर मुनिके निकट जाय वेदवतीने क्षमा कराई कि हे प्रभो ! मैं पापिनीने मिथ्या बचन कहे सो क्षमा करी या भांति मुनिकी निंदा कर सीताका झूठा अपवाद भया, पर मुनिसे क्षमा कराई उसकर अपवाद दर भया तात जे जिनमार्गी हैं वे कभी भी पर निंदा न करे किसी में सांचा Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमपुराण भी दोष है तोहू ज्ञानी न कहें अर कोई कहता होय उसे मने करें सर्व प्रकार पर.या दोष ढाकें जे कोई पर निंदा करें हैं सो अनन्त काल संसार वनमें दुख भोगवे हैं सम्यकदर्शनरूप जो रत्न उसका बडा गुणयही है जो पराया अवगुण सर्वथा ढांके जो सांचा दोष पराया कहे सो अपराधी है पर जो अज्ञानसे मत्सर भावसे पराया झूठा दोष प्रकाशे उस समान और पापी नहीं अपने दोष गुरुके निकट प्रकाशने अर पराए दोष सर्वथा ढाकने जो पराई निंदा करे सो जिन मार्गसे पराङ मुख है। यह केवलीके परम अद्भुत वचन सुनकर सुर असुर नर सब ही आनन्दको प्राप्त भए वैर भावके दोष सुन सब सभाके लोग महा दखके भय कर कम्पायमान भए मुनि तो सर्व जीवनिसे निर्वैर हैं अधिक शुद्ध भाव थारते भए अर चतुनिकायके सब ही देव क्षमाको प्राप्त होय वैर भाव तजते भए अर अनेक राजा प्रतिबुद्धि होय शांति भाव थार गर्वका भार तज मुनि अर श्रावक भए अर जे मिथ्यावादी थे वह ह सम्यक्त्वक प्राप्त भए सब ही कर्मनिकी विचित्रता जान निश्वास नाशते भए । धिक्कार या जगत्की मायाको या भांति सब ही कहते भए अर हाथ जोड शीश नवाय केवलीको प्रणाम कर सुर असुर मनुष्य विभीषणकी प्रशंसा करते भये जो तिहारे प्राश्रयसे हमने केवलीके मुख उत्तम पुरुषनिके चरित्र सुने तुम धन्य हो बहुरि देवेन्द्रनरेन्द्र नागेन्द्र सब ही आनन्द के भरे अपने परिवार वर्ग सहित सर्वज्ञ देवकी स्तुति करते भये हे भगवान पुरुषोत्तम, यह त्रैलोक्य सकल तुम कर शोभे है तातै तिहारा सकल भूषण नाम सत्यार्थ है तिहारी केवल दर्शन केवल ज्ञानमई निजविभूति सर्व जगत्की विभूति को जीतकर शोभे हैं यह अनन्त चतुष्ट य लक्ष्मी सर्व लोकका तिलक है, यह जगत्के जीव अनादि कालके कर्म वश होय रहे हैं महा दुखके सागरमें पडे हैं तुम दीननिके नाथ दीनबन्धु करुणानिधान जीवनिको जिनराज पद देहु । हे केवलिन्, हम भव वनके मृग जन्म जरा मरण रोग शोक वियोग व्याधि अनेक प्रकारके दुख भोक्ता अशुभ कर्म रूप जाल में पडे हैं तातें छूटना कठिन है सो तुम ही छुडायो समर्थ हो हमको निज बोध देवो जाकर कर्मका क्षय होय । हे नाथ, यह विषय वासना रूप गहन वन तामें हम निजपुरीका मार्ग भूल रहे हैं सो तुम जगतके दीपक हमको शिवपुरीका पंथ दरसावी अर जे श्रात्मबोधरूप शांत रसके तिसाये तिनको तुम तृषाके हरणहारे महासरोवर हो अर कर्म भर्मरूप वन के भस्म करिवेको साक्षात्दावानलरूप हो पर जे विकल्प जाल नाना प्रकारके तेई भये वरफ ताकर कंपायमान जगत्के जीव तिनकी शीत व्यथा हरिवेको तुम साक्षात् सूर्य हो । हे सर्वेश्वर, सर्व भते श्वर जिनेश्वर तिहारी स्तुति करिवेको चारज्ञानके धारक गणधरदेवहूं समर्थ नाहीं तो अर कौन ? हे प्रभो, तुमको हम बारम्बार नमस्कार करे हैं । इतिश्रीरविषणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविर्षे राम लक्ष्मण विभीषण सुग्रीव सीता भामण्डलक पूर्णभववर्णन करनेवाला एकसौ छयां पर्व पूर्ण भया ॥ १०६ ।। ' अथानन्तर केवलीके वचन सुन संसार भ्रमणका जो महादुख ताकर खेदखिन्न होय जिन दीक्षा की है अभिलाषा जाके ऐसा रामका सेनापति कृतांतवक्र रामसू कहता भया-हे देव ! मैं या संसार असारविष अनादि कालका मिथ्या मार्गकर भ्रमता हुवा दुखित भया अब मेरे मुनिबत Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसाता प ३५६ धरिवेकी इच्छा है, तब श्रीराम कहते भए जिनदीक्षा अति दुर्धर है तू जगतका स्नेह तज कैसे धारैगा महातीव्र शीत उष्ण आदि बाईस परिषद कैसे सहेगा अर दुर्जन जनोंके दुष्टवचन कंटक तुल्य कैसे सहेगार अब तक तैंने कभी भी दुख सहे नहीं कमलकी कणिका समान शरीर तेरा सो कैसे विषमभूमिके दुख सहेगा गहन वनमें कैसे रात्री पूरी करेगा अर प्रकट दृष्टि पडे हैं शरीर के हाड र नसा जाल जहां ऐसे उग्र तप कैसे करेगा अर पक्ष मास उपवासका दोष टाल परघर नीरस भोजन कैसे करेगा ? तू महा तेजस्वी शत्रुओं की सेना के शब्द न सहि सकै सो कैपे नीच लोकों के किये उपसर्ग सहेगा ? तब कृतांत बोला हे देव ! जब मैं तिहारे स्नेहरूप अमृतको ही तजवेको समर्थ भया तो मुझे कहां विषम है जब तक मृत्यु रूप वज्रकर यह देहरूप स्तंभ न चिंगे ता पहिले मैं महादुखरूप यह भववन अधिकारमई वाससे निकसा चाहूं जो बलते घरमेंसे निकसे उसे दयावान न रोकै यह संसार अमार महानिद्य है इसे तजकर आत्महित करू । अवश्य इष्टका वियोग होयगा या शरीर के योगकर सर्व दुख हैं सो हमारे शरीर बहुरि उदय न आवे या उपा में बुद्धि उद्यमी भई है । ये वचन के सुन श्रीरामके आसू आए और नीठे नीठे मोहको दात्र कहते भए - मेरीसी विभूतिको तज तू तपको सन्मुख भया है सो धन्य है जो कदाचित् या जन्ममें मोक्ष न होय अर देव होयतो संकटमें आय मोहि संबोधियो । हे मित्र ! जो तू मेरा उपकार जाने है तो देवगतिमें विस्मरण मत करियो । 1 तब कृतांतवक्रने नमस्कारकर कही हे देव ! आप श्रज्ञा करोगे सोही होगा ऐसा कह सर्व आभूषण उतारे र सकलभूषण केवलीको प्रणामकर अन्तर बाहिरके परिग्रह तजे कृतांतयक्र था सो सौम्यवक्र होय गया । सुन्दर है चेष्टा जिसकी, इसको आदि दे अनेक महाराजा वैरागी भए उपजी है जिनधर्मकी रुचि जिनके निर्ग्रन्थत्रत धारते भए र कैयक श्रावक व्रतको प्राप्त भए अर कैथक सम्यक्त्व को धारते भए वह सभा हर्षित होय रत्नत्रय श्राभूषणकर शोभित भई । समस्त सुर असुर नर सकलभूषण स्वामीको नमस्कारकर अपने अपने स्थानक गए अर कमल समान हैं नेत्र जिनके, ऐसे श्रीराम सकलभूषण स्वामीको र समस्त साधुवोंको प्रणामकर महा विनयरूपी सीता के समीप आए। कैसी है सीता ? महा निर्मल तपकर तेज धरे जैसी घृतकी आहुतिकर श्रग्निकी शिखा प्रज्वलित होय तैसी पापोंके भस्म करिवेको साक्षात् अग्निरूप तिष्ठी है श्रार्थिकावों के मध्य तिष्ठी देखी देदीप्यमान हैं किरणों का समूह जिसके, मानों अपूर्व चन्द्रकांतिः तारावोंके मध्य तिष्ठती हैं आर्थिक व घरे अत्यन्त निश्चल हैं । तजे हैं आभूषण जिसने तथापि श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी लज्जा इनकी शिरोमणि सोहै श्वेत वस्त्रको धरे कैसी सोहे है मानों मंद पवनकर चलायमान हैं फेन कहिए झाग जिसके ऐसी पवित्र नदी ही हैं घर मानों निर्मल शरद पूनों की चांदनी समान शोभाको घरे समस्त आर्यिकारूप कुमुदनियोंको प्रफुल्लित करणहारी भा है महा वैराग्यको घरे मूर्तिवंती जिनशासनकी देवता ही है सो ऐसी सीताको देख आश्चर्यको प्राप्त भया है मन जिनका ऐसे श्रीराम कल्पवृक्ष समान क्षण एक निश्चल होय रहे स्थिर हैं नेत्र भ्रकुटी जिनकी जैसी शरदकी मेघमालाके समीप कंचनगिरि सोहैं तैसे श्रीराम आर्थिकार्योंके समीप Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण भासते भए, श्रीराम चित्तविष चिंतवते हैं यह साक्षात् चंद्रकिरण भव्य जन कुमुदनीको प्रफुल्लित करणहारी सौहै है बडा आश्चर्य है यह कायर स्वभाव मेधके शब्दसे डरती सो अब महा तपस्विनी भयंकर वनमें कैसे भयको न प्राप्त होयगी ? नितंब होके भारसे आलस्यरूप गमन करणहारी महाकोमलशरीर तपसे विलाय जायगी । कहां यह कोमल शरीर पर कहां यह दुर्धर जिनराजका तप ? सो अति कठिन है जो दाह बडे २ वृक्षोंको दाहे उसकर कमलनीकी कहा वात ? यह सदा मनवांछित मनोहर आहार की करणहारी अब कैसे यथालाभ भिक्षा कर कालक्षप करेगी? यह पुण्याधिकारणी रात्रिमें स्वर्गके विमान समान सुन्दर महल में मनोहर सेजपर पोढती अर बीण बांसुरी मृदंगादि शब्दकर निद्रा लेती सो अब भयंकर वन में कैसे रात्रि पूर्ण करेगी वन तो. डाभकी तीक्ष्ण अणि योंकर विषम अर सिंह व्याघ्रादिके शब्दकर डरावना, देखो मेरी भूल जो मूढः लोकोंके अपवादसे मैं महासती पतिव्रता शीलवती सुन्दरी मधुरभाषिणी घरसे निकासी । इस भांति चिंताके भारकर पीडित श्रीराम पवनकर कंपायमान कमल समान कंपायमान होते भए फिर केवलीके वचन चितार धीयं धर अंसू पोंछ शोकरहित होय महा विनयकर सीताको नमस्कार किया, लक्ष्मण भी सौम्य है चित्त जिसका हाथ जोड नमस्कारकर राम सहित स्तुति करता भया-हे भगवती धन्यतू सती बंदनीक है सुन्दर है चेष्टा जिसकी जैसे धरा सुमेरु को धारे तैसे तू जिनराजका धर्म धारे है तैंने जिनवचनरूप अमृत पीया उसकर भव रोग निवारंगी सम्यवत्व ज्ञानजहाजकर संसाररूप समुद्रको तिरंगी । जे पतिव्रता निर्मल चित्तकी धरणहारी है तिनकी यही गति है अपना आत्मा सधारे पर दोनों लोक अर दोनों कुल सुधारें पवित्र चित्तकर ऐसी क्रिया प्रादरी । हे उत्तम नियमकी थरणहारी हम जो कोई अपराध किया होय सो क्षमा करियो संसारी जीवों के भाव अविवेकरूप होय है सो तू जिनमार्गमें प्रवरती संसारकी माया अनित्य जानी अर परम आनंद रूप यह दशा जीवोको दुर्लभ है इस भांति दोनों भाई जानकीकी स्तुतिकर लवण अंकुश को आगे धरे अनेक विद्याथर महीपाल तिन सहित अयोध्यामें प्रवेश करते भए जेसे देवों सहित इन्द्र अमरावती में प्रवेश करे पर समस्त राणी नाना प्रकारके बाहनोंपर चढी परिवारसहित नगरमें प्रवेश करती भई सो रामको नगरमें प्रवेश करता देख मंदिर ऊपर बैठी स्त्री परस्पर वार्ता करै हैं यह श्रीरामचन्द्र महा शूरवीर शुद्ध है अन्तकरण जिनका महा विवेकी मूढ लोंकोके अपवादसे ऐसी पतिव्रता नारी खोई तब केयक कहती भई जे निर्मल कुलके जन्मे शूरवीर क्षत्री हैं तिनकी यही रीति हैं किसी प्रकार कुलको कलंक न लगावें लोकोंके संदेह दूर करिवे निमित्त रामने उसको दिव्य दई वह निर्मल आत्मा दिव्यमें सांची होय लोकोंके संदेह मेट जिन दीक्षा धारती भई पर कोई कहै-हे सखी! जानकी विना राम कैसे दीखे है जैसे विना चांदनी चांद अर दीप्ति विनासूर्य तब कोई कहती भई यह आप ही महाकांतिधारी हैं इनकी कांति पराधीन नहीं पर कोई कहती भई सीताका वज्रचित्त है जो ऐसे पुरुषोत्तम पतिको छोड जिन दीक्षा धारी तब कोई कहती भई धन्य है सीता जो अनर्थरूप गृहवासको तज आत्मकल्याण किया पर कोई कहती भई ऐसे सुकुमार दोनों कुमार महा धीर लवण अंकुश कैसे तजे गए स्त्रीका प्रम पतिसे छूटे Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ आठवा पां ५६९ परन्तु अपने जाए पुत्रोंसे न छूटे तब कोई कहती भई ये दोनों पुत्र परम प्रतापी हैं इनका माता क्या करेगी इनका सहाई पुण्य ही है अर सब ही जीव अपने कर्म के आधीन हैं इस भांति नगरकी नारी वचनालाप करे है जान कीकी कथा कोनको आनन्दकारिणी न होय अर यह सब ही रामके दर्शन की अभिलापिनी रामको देखती देखती तृप्त न भई जैसे भ्रमर कमलके मकरन्दसे तृप्त न होय अर कैयक लक्ष्मणकी ओर देख कहती भई ये नरोत्तम नारायण लक्ष्मीवान अपने प्रतापकर वश करी है पृथिवी जिन्होंने चक्रके धारक उत्तम राज्य लक्ष्मीके स्वामी वैरियोंकी स्त्रीयोंको विधवा करणहारे रामके आज्ञाकारी हैं इस भांति दोनों भाई लोककर प्रशंसा योग्य अपने मन्दिर में प्रवेश करते भए जैसे देवेंद्र देवलोक में प्रवेश करें। यह श्रीराम चरित्र जो निरंतर धारण करे सो अविनाशी लक्ष्मीको पावै ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण सस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकावि कृतांत बक्र वैराग्य वर्णन करनेवाला एकसौ सातवां पर्व पूर्ण भया ॥ १०७ ॥ ६ अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतम स्वामीके मुख श्रीरामका चरित्र सुन मनमें विचारता भयाकि सीताने लवण अंकुश पुत्रोंसे मोह तजा सो वह सुकुमार मृगनेत्र निरन्तर सुखके भोक्ता कैसे माता का वियोग सह सके ? ऐसे पराक्रमके धारक उदार चित्त तिनको भी इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग हो है तो औरों की कहा बात ? यह विचार कर गणधर देवसे पूछा, हे प्रभो ! मैं तिहारे प्रसाद कर राम लक्ष्मण का चरित्र सुना अब बाकी लवण अंकुशका चारित्रसुना चाहू हूं तव इन्द्रभूति कहिए गौतम स्वामी कहते भए - हे राजन् ! काकंदी नामा नगरी उसमें राजा रतिबर्द्धन राणी सुदर्शना ताके पुत्र दोष एक प्रियंकर दूजा हितंकर पर मन्त्रों सर्वगुप्त राज्य लक्ष्मीका धुरंधर सो स्वामिद्रोही राजाके मारवेका आग चिंतचे अर सर्वगुप्त की स्त्री विजयावती सो पापिनी राजासे भोग किया चाहे अर राजा शीलवान परदारा पराङ्मुख याकी मायामें न आया, तब याने राजासे कही मन्त्री तुमको मारा चाहे है सो राजाने याकी बात न मानी तब यह पतिको भरमावती भई जो राजा तोहि मार मोहि लिया चाहे है तब मन्त्री दुष्टने सब सामन्त राजा से फोरे, अर राजा का जो सोवनेका महल तहां रात्रिकों श्रग्नि लगाई सो राजा सदा सावधान हुता अर महल में गोप्य सुरंग खाई थी सो सुरंग के मार्ग दोनों पुत्र पर स्त्रीको लेय राजा निकसा सो काशी का धनी राजा कश्यप महा न्यायवान उग्रवंशी राजा रतिवर्धनका सेवक था उनके नगरको राजा गोप्य चला भर सर्वगुप्त रतिवर्धन के सिंहासनपर बैठा सबको आज्ञाकारी किए अर राजा कंश्यप को भी पत्र लिख दूत पठाया कि तुम भी आय मोहि प्रणामकरो सेवाकरों, तब कश्यपने कही हे दूत ! सर्वगुप्त स्वामीद्रोही है सो दुर्गतिके दुख भोगेगा, स्वामीद्रोहीका नाम न लीजे मुख न देखिये सो सेवा कैसे कीजे ? उसने राजाको दोनो पुत्र अर स्त्री सहित जलाया सो स्वामीघात स्त्रीपात भर बालघात यह महादोष उसने उपार्जे तातैं ऐसे पापीका सेवन कैसे करिये, जाका मुख न देखना सो सर्व लोकोंके देखते उसका सिर काट धनी का वैर लूंगा, तब यह वचन कह दूत फेर दिया दूतने जाय सवगुप्तको सर्व वृत्तांत कहा, सो अनेक राजयोंकर युक्त महासेनासहित कश्यप Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंभ-पुराण ऊपर आया सो आयकर कश्यपका देश घेरा काशीके चौगिर्द सेना पडी तथापि कश्यपके सुनह की इच्छा नहीं, युद्धहीका निश्चय, अर राजा रतिवर्धन रात्रिको काशीके वनमें आया पर एक द्वारपाल तरुण करयप पर भेजा सो जाय कश्यपसे राजाके श्रावने का वृत्तांत कहता भया सो कश्यप अति प्रसन्न भया पर कहांमहाराजरऐसे वचन बारंबार कहता भया तबद्वारपालने कहा महाराज वनमें तिष्ठे हैं तब यह थर्मी स्वामीभक्त अति हर्षित होय परिवार सहित राजापे गया अर उसकी आरती करी अर पांव पकडकर जय जयकार करता नगरमें लाया नगर उछाला पर यह ध्वनि नगरमें बिस्तरी कि जो काहुसे न जीता जाय ऐसा रतिवर्धन राजेंद्र जयवन्त होवो । राजा कश्यपने धनीके श्रावनेका उत्सव किया अर सब सेनाकै सामन्तनिको कहाय भेजा जो स्वामी तो विद्यामान तिष्ठे है पर स्वामीद्रोहीके साथ होय स्वामीसे लडोगे ,कहा यह तुमको उचित है। __ तब वह सकल सामत सर्वगुप्तकों छोड स्वामीपै आए अर युद्ध में सर्वगुप्तको जीवता पकडि काकंदी नगरीका राज्य रतिवर्धनके हाथमें आया राजा जीवता बचा सों बहुरि जन्मोत्सव किया महा दान किए सामतोंके सन्मान किए भगवान्की विशेष पूजा करी कश्यपका बहुत सन्मान किया अति बधाया अर घरको विदा किया सो कश्यप काशी में लोकपालनिकी नाई रमें पर सवगुप्त सर्वलोकनिन्द्य मृतकके तुल्य भया कोई भीटे नाही, मुख देखे नाहीं, तब सर्वगुप्तने अपनी स्त्री विजयावती का दोष सर्वत्र प्रकाशा जो याने राजा बीच अर मोबीच अन्तर डारा यह वृत्तांत सुन विजयावती अति द्वषको प्राप्त भई जो मैं न राजाकी भई न धनीकी भई सो मिथ्या तपकर राक्षसी भई अर राजा रतिवर्धनने भोगनित उदास होय सुभानुस्वामीके निकट मुनिव्रत धरे सो राक्षमीने रतिवर्धन मुनिको अति उपर्सग किए । मुनि शुद्धोपयोगके प्रसादसे केवली भए अर प्रियंकर हितंकर दोनों कुमार पहले याही नगरमें दानदेव नामा विपके श्यामली स्त्रीके सुदेव वसुदेव नामा पुत्र हुते । सो वसुदेवकी स्त्री विश्वा अर सुदेवकी स्त्री प्रियंगु इनका गृहस्थ पद प्रशंसा योग्य हुता इनने श्रीतिलक नामा मुनिको आहारदान दिया सो दानके प्रभावकर दोनों भाई स्त्रीसहित उत्तर • कुरु भोगभूमिमें उपजे तीनपल्यकी आयु भई, साधु का जो दान सोई भया वृक्ष उसके महा फल भोगभूमिमें भोग दूजे स्वर्ग देव भए वहां सुख भोग चये सो सम्परज्ञानरूप लक्ष्मीकर मंडित पाप कर्मके क्षय करणहारे प्रियंकर हितंकर भए, मुनि होय अवयक गये तहांसे चयकर लवणांकुश भये महाभव्य तद्भव मोक्षगामी अर राजा रतिवर्धनकी राणी सुदर्शना प्रियकर हितंकरकी माता पुत्रनिमें जाका अत्यन्त अनुराग था सो भरतार अर पुत्रनिके वियोगसे अत्य-त आर्तरूप होय नानायोनिनिमें भ्रमणकर किसी एक जन्ममें पुण्य उपार्ज यह सिद्धार्थ भवा धर्ममें अनुरागी सर्व विधामें निपुण सो पूर्व भवके स्नेहसे लवणांकुशको पढाए ऐसे निपुण किए जी देवनि कर भी न जीते जांय यह कथा गौतमस्वामीने राजा श्रेणिकसे कही अर आज्ञाकरी हे नृप ! यह संसार असार है पर इस जीवके कौन कौन माता पिता न भए जगतके सबही संबंध झठे हैं एक धर्म ही का सम्बन्ध सत्य है इसलिए विवेकियोंको धर्महीका यत्न करना जिसकर संसारके दुखोंसे छूटे Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकलौनोवा पर्व समस्त कर्म महानिंद्य दुखकी वृद्धि के कारण तिनको तजकर जैनका भाषा तपकर अनेक सूर्यकी कांतिको जीत साधु शिवपुर कहिये मुक्ति तहां जाय हैं। इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाबिङ्ग लवांकुशके पभाका वर्णन करनेवाला एकसौं आठवां पर्ण पूर्ण भया. ॥ १०८ ॥ अथानन्तर सीता पति पर पुत्रोंको तजकर कहाँ २ तप करती भई सो सुनो-कैसी है सीता ? लोकमें प्रसिद्ध है यश जिसका। जिस समय सीता मई वह श्रीमुनिसुव्रतनाथजीका समय था । वे बीसवें भगवान् महा शोभायमान भव अमके निवारण हारे जैसा अरहनाथ अर मल्लिनाथका समय तैमा मुनिसुव्रतनाथका समय उसमें श्रीसकलभूपण केवली केवलज्ञानकर लोकालोकके ज्ञाता बिहार करें हैं अनेक जीव महाव्रती अणुव्रती किये सकल अयोध्याके लोक जिन धर्ममें निपुण विधिपूर्वक गृहस्थका धर्म आराधे सकल प्रजा भगवान सफलभूषणके वचनमें श्रद्धावान्, जैसे चक्रवर्तीकी आज्ञाको पाले तैसे भगवान धर्म चक्री तिनकी भव्य जीव पालें, राम का राज्य महा धर्मका उद्योत रूप जिस समय घने लोक विवेकी साधु सेवामें तत्पर देखो जो सीता अपनी मनोग्यता कर देवांगनानिकी शोभाको जीतती हुती सो तप कर ऐसी होय गई मानो दग्य भई माधुरी लता ही है महा वैराग्य कर मण्डित अशुम भाव कर रहित स्त्री पर्याय को अति निंदती महा तप करनी भई धूरकर धूसर होय रहे हैं केश जिसके अर स्नानरहित शरीरके संस्कर रहित पसेव कर युक्त गात्र जिसमें रज आय पडे सो शरीर मलिन होय रहा है बेला तेला पक्ष उपवास अनेक उपवास कर तनु क्षीण किया दोष टारि शास्त्रोक्त पारण करे शीलवत गुणमें अनुरागिणी अध्यात्मक विचार कर अत्यंत शांत हो गया है चित्त जाका वश किये हैं इन्द्रिय जाने और नितें न बने ऐसा उग्रतप करती भई मांस पर रुधिर कर वर्जित भया है सर्व अंग जाका प्रकट नजर श्रावै है अस्थि अर नसा जाल जाके मानों काठकी पुतली ही है सूकी नदी समान भासती भई बैठ गये हैं कपोल जाके जूडा प्रमाण धरती देखती चले महा दयावंती सौम्य हे दृष्टि जाकी तपका कारण देह उसके समाधान के अर्थ विधिपूर्वक भिक्षा वृत्ति कर आहार करे। ऐसा तप किया कि शरीर और ही होयगा अपना पराया कोई न जाने जो यह सीता है इसे ऐमा तप करती देख सकल आयाँ इस ही की कथा करें इस ही की रीति देख और ह आदरै सपनिमें मुख्य भई इस भांति बासठ वर्ष तप किये अर तेतीस दिन आयुके वाकी रहे वर अनशन वाधार परम अाराधना पाराध जैसे पुष्पादिक उच्छिष्ट सायरेको तजिए तैसे शरीर को तजकर अच्युत स्वर्गमें प्रतींद्र भई । . गौतम स्वामी कहै हैं-हे श्रेणिक ! जिनधर्मका माहात्म्य देखो जो यह प्राणी स्त्री पर्यायमें उपजी थी सो तपके प्रभावसे देवोंका प्रभु होय । सीता अच्युत स्वर्गमें प्रतींद्र भई वहां मणिनि की कांति कर उद्योत किया है आकाशमें जाने ऐसे विमानमें उपजी विमान मणि. कांचनादि म. हाद्रव्यनि कर मण्डित विचित्रता धरे परम अद्भुत सुमेरुके शिखर समान ऊंचा हैं वहां परम ईश्वरता कर सम्पन्न प्रतींद्र भया । हजारों देवांगना तिनके नेत्रोंका आश्रय जैसा ताराओं कर मण्डित चन्द्रमा सोहै तैसा सोहता भया अर भगवानकी पूजा करता भया मध्य लोकमें पाय Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ तीर्थोकी यात्रा साधुओं की सेवा करता भया पर तीर्थकरोंके समोशरणमें गणधरोके मुखसे धर्म श्रवण करता भया, यह कथा सुन गौतमस्वामीसे राजा श्रेणिकने पूछी--हे प्रभो, सीताका जीव सोलहवे स्वर्ग प्रतींद्र भया उस समय वहां इन्द्र कौन था ? तब गौतम स्वामीने कही उस समय वहां राजा मधुका जीव इन्द्र था । उसके निकट यह प्रतींद्र भया सो वह मधुका जीव नेमिनाथ स्वामीके समय अच्युतेन्द्र पदसे चयकर बासुदेवकी रुक्मणी राणी ताके प्रद्युम्न पुत्र भया अर उसका भाई कैटभ जांबुवतीके शंभु नामा पुत्र भया, तब श्रेणिकने गौतम स्वामीसे विनती करी हे प्रभो, मैं तुम्हारे वचन रूप अमृत पीवता २ तृप्त नाहीं जैसे लोभी जीव धनसे तृप्त नाही इस. लिये मुझे मधुका अर उसके भाई कैटभ का चरित्र कहो । तब गणधर कहते भये-एक मगध नामा देश सर्व धान्य कर पूर्ण जहां चारो वर्ण हर्षसे बौं धर्म अर्थ काम मोक्षके साधन अनेक पुरुष पाइये अर सुन्दर चैत्यालय अर अनेक नगर ग्राम तिनकर वह देश शोभित जहां नदियोंके तट गिरियों शिखर वनमें ठौर ठौर साधुओं के संघ विराजे हैं राजा नित्योदित राज्य करे उस देशमें एक शालि नामा ग्राम नगर सारिखा शोभित वहां एक ब्राह्मण सोमदेव उसके स्त्री अग्निला पुत्र अग्निभूत वायुभून सो वे दोनों भाई लौकिक शास्त्रमें प्रवीणा अर पठन पाठन दान प्रतिग्रहमें निपुण पर कुलके तथा विद्याके गर्व कर गर्वित मनमें ऐसा जाने, हमसे अधिक कोई नहीं जिन थर्मत परांगमुख रोग समान इन्द्रीनिके भोग तिन ही को भले जाने । एक दिन स्वामी नन्दीवर्थन अनेक मुनिनि सहित वनमें प्राय बिराजे, बडे आचार्य अबधिज्ञान कर समस्त मूर्तिक पदार्थनिको जाने सो मुनिनिका आगमन सुन ग्रामके लोक सब दर्शनको आए हुते अर अग्निभूत वायुभूतने काहसे पूछी जो यह लोक कहां जाय है ? तब वाने कही नन्दीवर्धन मुनि पाए हैं तिनके दर्शनको जाय हैं तब सुन कर दोऊ भाई क्रोधायमान भए जो हम वादकर सा. धुनिको जीतेंगे तब इनको माता पिताने मना किया जो तुम साधुनितें बाद न करो तथापि इन्होंने न मानी बादको गये तब इनको प्राचार्य के निकट जाते देख एक सात्विक नामा मुनि अवधि ज्ञानी इनको पूछते भए-तुम कहां जावो हो ? सब इन्होंने कही तुममें श्रेष्ठ तुम्हारा गुरु हैं, उसको वाद कर जीतवे जाय हैं, तब सात्विक सुनिने कही हमसे चर्चा करो। तब यह क्रोधकर मुनिके समीप बैठे अर कही तू कहांसे आया है । तब मुनिने कहा तुम कहांत आए ? तब वह क्रोध कर कहते भए यह तें पूछी ? हम मामते आए है कोई शास्त्रकी चर्चा करहु । तब मुनिने कही यह तो हम जाने हैं तुम शालिग्रामसे आए हो पर तिहारे बापका नाम सोमदेव माताका नाम श्र. ग्निला अर तिहारे नाम अग्निभूत वायुभूत तुम विप्रकुल हो सो यह तो प्रकट है परन्तु तुमसे यहपूछे हैं अनादिकालके भव वनमें भ्रमण करो हो सो या जन्ममें कौन जन्मसे आए हो? तब इनने कही यह जन्मांतरकी वात हमको पूछी सो और कोई जाने है ? तब मुनिने कही हम जाने हैं, तुम सुनो पूर्व भवमें तुम दोऊ भाई या ग्रामके वनमें परस्पर स्नेह के धारक स्याल हुते विरूपमुख अर याही ग्राममें एक बहुत दिनका बासी पामर नामा पितहड ब्राह्मण सो वह खेतमें सूर्य अस्त समय सुधाकर पीडित नाडी आदि उपकरण तजकर आया अर अंजनगिरि तुन्य मेष माला उठी, Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ esitater of सात दिन रात्रका झड भया सो पामर तो घर से आय न सका और वे दोऊ स्याल अति क्षुधातुर अंधेरी रात्रि में आहारको निकसे सो पामर के खेत में भीजी नाडी कर्दमकर लिप्त पडी हुती सो उन भक्षण करी उसकर विकराल उदर वेदना उपजी, स्याल मृवे, अकाम निर्जराकर तुम सोम देवके पुत्र भए घर वह पामर सात दिन पीछे खेतमें आया सो दोऊ म्याल मृए देख अर नाडीं कटी देख स्थालनीका चर्म ले भथडी करी सो अब तक पांमरके घर में टंगी है अर पामर भरकर पुत्रके घर पुत्र मया मी जातिस्मरण होय मोन पकडा जो मैं कहा कहीं, पिता तो मेरा पूर्व भवका पुत्र अरमा पूर्व भव की बधू तातें न बोलना ही भल। सो यह पामरका जीव मौनी यहां हो बैठा है ऐसा कह मुनि पामरके जीवसू बोले- अहो तू पुत्रके पुत्र भया सो यह आश्चर्य नहीं, संसारका ऐसा ही चरित्र है जैसे नृत्यके अखाडेमें बहुरूपिया अनेक रूप बनाय नाचें तैसे यह जीव नाना पर्यायरूप भेष धर नाचे है, राजा रंक होय रकसे राजा होय' स्वामी सेवक, सेवकस स्वामी, पितासे पुत्र, पुत्रसे पिता, माता से भार्या, भार्यासे माता, यह संसार अटकी घडी हैं । ऊपरली नीचे नीचली ऊपर, ऐसा संसारका स्वरूप जान, हे वत्स ! अब तू गूंगापना तज, व चनालाप कर | या जन्मका पिता है तासे पिता कह, मातासे माता कह, पूर्व भवका कहा व्य बहार रहा ? यह वचन सुन वह विप्र हर्षकर रोमांच होय फूल गए हैं नेत्र जाके मुनिको तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर जैसे वृक्षकी जड उखड जाय अर गिर पडे तैसे पायन पडा अ‍ मुनिको कहता भया - हे प्रभो, तुम सर्वज्ञ हो, सकल लोककी व्यवस्था जानो हो, या भयानक संसार सागरमें मैं डूबू था सो तुम दयाकर निकासा, श्रात्मबोध दिया। मेरे मनकी सब जानी मोहि दीक्षा देवहु एसा कहकर समस्त कुटुम्बका त्यागकर मुनि भया । यह पामरका चरित्र सुन अनेक लोक मुनि भए अनेक श्रावक भये अर इन दोनों भाईनिकी पूर्व भवकी खाललोक ले आए सो इनिने देखी, लोकोंने हास्य करी जो यह मांस भक्षक स्वाल थे सो यह दोऊ भाई द्विज बडे मूर्ख, जो मुनिनिसे वाद करने श्राए । ये महामुनि तपोधन शुद्ध भाव सबके गुरु अहिंसा महाव्रतके धारक इन समान और नाहीं यह महामुनि महात्रतरूप दीक्षाके धारक नमारूप यज्ञोपत्रीत घरें ध्यानरूप अग्निहोत्रके कर्ता महाशांत मुक्ति के साधान तत्पर अर जे सर्व आरम्भ में प्रवरतें बह्मचर्य रहित वे मुखसे कहे हैं कि हम द्विज हैं परंतु क्रिया करे नहीं जैसे कोई मनुष्य या लोकमें सिंह कहांने देव कहावे परंतु वह सिंह नाहीं, तैसे यह नाममात्र ब्राह्मण कहावें परंतु इनमें वह्मत्व नाहीं अर मुनिराज धन्य हैं परम संयमी महा क्षमावान् तपस्त्री जितेंद्री निश्चय थकी ये ही ब्राह्मण हैं ये साधु महाभद्रपरणामी भगवत के भक्त महा तपस्वी यति थीर चीर मूल गुण उत्तरगुणके पालक इन समान पर कोऊ नाहीं यह अलौकिक गुण लिये हैं। पर इनहीकू परिवाजक कहिये काहेतै जो वह संसारकू तज मुक्तिको प्राप्त होंय ये निग्रन्थ अज्ञान तिमिरके हर्ता तपकर कर्मकी निर्जरा करें हैं, क्षीण किये हैं रागादिक जिन्होंने महाक्षमावान पापनिके नाशक तातैं इनको क्षपणक हू कहिये यह संयमी कषाय रहित शरीर तें निर्मोह दिगम्बर योगीश्वर ध्यानी ज्ञानी पंडित निस्पृह सो ही सदा वंदिवे योग्य हैं ये निवासको Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म-पराण साधैं, तातें ये साधु कहिये अर पंच प्राचारको आप आचरें औरनिको आचरावै तात आचार्य कहिये अर आगार कहिये घर ताके त्यागी तातें अनगार कहिये शुद्ध भिक्षाके ग्राहक तात भितुक कहिये, अति कायक्लेश करें अशुभकर्मके त्यागी उज्ज्वल क्रियाके कर्ता तप करते खेद न मानें तात श्रमण कहिये आत्मम्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवै तातें मुनि कहिये रागादिक रोगोंके हरिवेका यत्न करें तात यति कहिये या भांति लोकनिने साधुकी स्तुति करी अर इन दोनों भाईनिकी निन्दा करी तब यह मानरहित प्रभारहित विलखे होय घर गये रात्रिको पापी मुनिके मारिवेको श्राए अर वे सात्विक मुनि अपरिग्रही संघको तज अकेले मसान भूमिमें अस्थ्यादिकसे दूर एकांत पवित्र भूमिमें विराजे थे कैसी हैं वह भूमि जहां रीछ व्याघ्र आदि दुष्ट जीवोंका नाद होय रहा है अर राक्षस भूत पिशाचोंकर भरा हैं नागोंका निवास हैं अर अधिकाररूप भयंकर तहां शुद्ध शिला जीव जंतुरहित उसपर कायोसगं धर खडे थे सो उन पापियोंने देखे दोनों भाई खड्ग काढ क्रोधायमान होय कहते भए जब तो तोहि लोकोंने बचाया अब कौन बचानेगा हम पंडित पृथिवीमें श्रेष्ठ प्रत्यक्ष देवता तू निर्लज्ज हमको स्याल कहे यह शब्द कह दोनों अत्यंत प्रचंड होठ इसते लाल नेत्र दयारहित मुनिके मारिवेको उद्यमी भए तम वनका रक्षक यक्ष उसने देखे मनमें चिंतवता भया-देखो ऐसे निर्दोष साधु ध्यानी कायासे निर्ममत्व तिनके मारिवको उद्यमी भए तब यक्षने यह दोनों भाई कीले सो हलचल सके नाही, दोनों पसवारे खडे प्रभात भया सकल लोक पाए देखें तो यह दोनों मुनिके पसबारे कीले खडे हैं अर इनके हाथमें नंगी तलवार है तब इनको सब लोक धिक्कार धिक्कार कहते भये यह दुराचारी पापी अन्याई ऐसा कर्म करनेको उद्यमी भए इन समान अर पापी नाही और यह दोनों चित्तमें चितवते भए जो यह धर्मका प्रभाव हैं हम पापी थे सो वलात्कार कीले स्थावर समकर डारे अब या अवस्थासे जीवते बचें तो श्रावकके व्रत आदरें अर उस ही समय इनके माता पिता आये बारम्बार मुनिको प्रणामकर बिनती करते भए-हे देव ! यह कुपूत पुत्र हैं इन्होने बहुत बुरी करी आप दयालु हो जीवदान देवो साधु बोले हमारे काहसे कोप नहीं हमारे सब मित्र बांधव हैं तब यक्ष लाल नेत्रकर अति गुंजारसे बोला अर सबोंके समीप सर्व वृत्तांत कहा कि जो प्राणी साधुवोंकी निन्दा करें सो अनर्थको प्राप्त होवें जैसे निर्मल कांचमें वांका मुखकर निरखे तो बांका ही दीखे तैसे जो साधुवोंको जैसा भावकर देखे तैसा ही फल पावै जो मुनियों की हास्य करै सो बहुत दिन रुदन करें और कठोर वचन कहै सो क्लेश भोगवै अर मुनिका बध करै तो अनेक कुमरण पावै द्वष करे सो उपार्जे भव २ दुख भोगवै अर जैसा करै तैसा फल पावै यद कहे है हे विप्र ! तेरे पुत्रोंके दोषकर मैं कीले हैं विद्याके मानकर गर्वित मायाचारी दुराचारी संयमियों के घातक हैं ऐसे वचन यक्षने कहे तब सोमदेव विप्र हाथ जोड साधुकी स्तुति करता भया अर रुदन करता भया आपको निंदता छाती कूटता ऊर्ध्व भुजाकर स्त्रीसहित विलाप करता भया तब मुनि परम दयालु यक्षको कहते भए-हे सुन्दर ! हे कमल नेत्र ! यह बालवुद्धि हैं इनका अपराध तुम क्षमाकरो तुम जिनशासनके सेवक हो सदा जिनशासनकी प्रभावना करो हो वाते. मेरे कहेसे इनको क्षमा करो तब यक्षने कही प्राप Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकमोनो प कड़ी सो ही प्रमाण वे दोनों भाई छोडे तब यह दोनों भाई मुनिको प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर साधुका व्रत घरको असमर्थ तातें सम्यक्त्व सहित श्रावक व्रत आदरते भए जिनधर्मवी श्रद्धा धारक भए पर इनके माता पिता व्रत ले छोड़ते भए सो वे तो व्रतके योगसे पहिले नरक गये श्रर यह दोनों विपपुत्र निसंदेह जिनशासन रूप अमृतका पानकर हिंसाका मार्ग विष चत् तजने भए समाधिमरणकर पहिले स्वर्ग उत्कृष्ट देव भए वहांसे चयकर अयोध्या में समुद्र सेठ उसके धारणी स्त्री उसकी कुक्षिमें उपजे नेत्रोंको आनन्दकारी एकका नाम पूर्णभद्र दुजेका नाम कांचनभद्र सो श्रावकके व्रत धार पहिले स्वर्ग गए घर ब्राह्मणके भवके इनके माता पिता पापके योग से नरक गए हुते वे नरकसे निकल चांडाल अर कूकरी भए वे पूर्णभद्र अर कांचनभद्रके उपदेश से जिनधर्मका आराधन करते भए समाधिमरणकर सोमदेव द्विजका जीव चाण्डाल से नंदीश्वर द्वीपका अधिपति देव भया कर अग्निला ब्राह्मणीका जीव कूकरीसे अयोध्या के राजाकी पुत्री होय उस देवके उपदेशसे विवाहका त्यागकर आर्थिका होय उत्तम गति गई व दोनों परम्पराय मोक्ष पायेंगे | ३६७ र पूर्णभद्र कांचनभद्रका जीव प्रथम स्वर्गसे चयकर अयोध्याका राजा हेम राणी अमरावती उसके मधु कैटभ नामा पुत्र जगतप्रसिद्ध भए जिनकी कोई जीत न सके महाप्रवल महारूपवान जिन्होंने यह समस्त पृथिवी वश करी सब राजा तिनके आधीन भए । भीम नाम राजा गढके वलकर इनकी आज्ञा न माने जैसे चमरेंद्र असुर कुमारनिका इन्द्र नन्दनवनको पाय प्रफुल्लित होंय है, वैसे वह अपने स्थानक के बल से प्रफुल्लित रहे अर एक वीरसेन नाम राजा बटपुरका धनी मधुकैटभका सेवक उसने मधु कैटभ हो विनती पत्र लिखा हे प्रभों, भीमरूप अग्निने मेरा देश रूप वन भस्म किया । तब मधु क्रोधकर बडी सेनासे भीम ऊपर चढा सो मार्ग में बटपुर जाय डेरा किए वीरसेनने सन्मुख जाय अतिभक्ति कर मिहमांनी करी उसके स्त्री चन्द्रभा चन्द्रमा समान है वदन जिसका सो चौरसेन मूर्खने उसके हाथ मधुका आरता कराया और उसहीके हाथ जिमाया चन्द्रमाने पति से घनी ही कही जो अपने घर में सुन्दर वस्तु होय सो राजाको न दिखा इये पतिने न मानी। राजा मधु चन्द्रमाको देख मोहित भया मनमें विचारी इस सहित विन्ध्याचल के वन का वास भला अर या बिना सब भूमिका राज्य भी भला नाहीं सो राजा अन्याय ऊपर आया तब मन्त्रीने समझाया अवार यह बात करोगे तो कार्य सिद्ध न होयगा श्रर राज्यभ्रष्ट राजा होयगा तब मन्त्रियों के कहेसे राजा वीरसेनको लार लेय भीम पर गया उसे युद्ध में जीत वशीभूत किया और और सत्र राजा वश किए बहुरि अयोध्या प्राय चन्द्रभाके लेयवेका उपाय चिन्तया सर्व राजा वसतकी क्रीडाके अर्थ स्त्री हित बुलाए अर वीरसेनको चन्द्रभा सहित बुलाया, तबहू चंद्राभाने कही कि मुझे मत लेवलो सो न मानी लेही आया, राजाने मास पर्यत वनमें कीडा करी अर राजा आए थे तिनको दान सन्मानकर स्त्रियों सहित विदा किए र बीरसेनको कैयक दिन राखा अर वीरसेनको भी अति दान सन्मान कर विदा किया अर चन्द्रमा के निमित्त कही इनके निमित्त अद्भुत आभूषण बनवाए हैं सो अभी वन नहीं चुके हैं Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ तातै इनको तिहारे पीछे विदा करेंगे सो वह भोला कछू समझ नाही वर गया वाके गए पीछे मधुने चन्द्रमाको महलमें बुलाया अभिषेककर पटराणी पद दिया सब राणियोंके ऊपर करी। भोग कर अंब भरा है मन जिसका इसे राखे प्रापको इंद्र समान मानता भया अर वीर. सेनने सुनी कि चन्द्रमा मधुने राखी तब पागल होय कैयक दिन में मंडव नाना तापसका शिष्य होय पंचाग्नि तप करता भया अर एक दिन राजा मधु न्यायके आसन बैठा सो एक परदारारतका न्याय पाया सो राजा न्यायमें बहुन बेर लग बैठे रहें बहुरि मन्दिरमें गए तब चन्द्रभाने हंसकर कही महाराज आज घनी बेर क्यों लगी ? हम बंधा र खेद खिन्न भई आप भोजन करो तो पीछे भोजन करू, तब राजा मधुने की प्राज एक परनारीत हा त्याप श्राप पडा त ते देर लगी तब चन्द्रभाने हंसकर कही जो परस्त्रीरत होय उसकी बहुत मानता करनी तब राजाने क्रोधकर कही तुम यह क्या कही जे दुष्ट व्यभिचारी हैं तिनका निग्रह करना ते परस्त्रीका स्पर्श करें संभाषण करें वे पापी हैं सेवन करें तिनकी कहा बात ? जे ऐने कर्म करें तिनको महादण्ड दे नगरसे काढने जे अन्यायमार्गी हैं वे महा पापी नरकमें पडे हैं अर राजावोंके दण्ड योग्य हैं तिनका मान कहा ? ता राणी चन्द्रमा राजा को कहती भई-हे नृप, यह परदारा सेवन महा दोष है तो तुम आपको दण्ड क्यों न देशो तुमको परदारारत हो तो पौरोंको कहा दोष ? जैसा राजा तैमो प्रजा जहां राजा हिंसक होय अर व्यभिचारी होय तहां न्याय का ? तातें चुप होय रहो जिस जलकर वीज उगे अर जगत जीबै सो जलही जो जलाय मारे तो और शीतल करणहारा कौन ? ऐसे उलाहनाके वचन चन्द्राभाके सुन राजा कहता भया-हे देवी! तुम कहो हो सो ही सत्य है बारम्बार इसकी प्रशंसा करी पर कहा मैं पापी लक्ष्मीरूप पाश कर बेढा विषय रूप कीवमें फमा अब इस दोषसे कैसे छूट राजा ऐमा विचार करे है अर अयोध्याके सहस्त्राम्रनामा वनमें महासंघ सहित सिंहपाद मा मुनि पाए राजा सुनकर रणवास सहित अर लोकों सहित मुनिके दर्शनको गया, विधिपूर्वक तीन प्रदिक्षणा देय प्रणाम कर भूमिमें बैठा जि. नेन्द्रका धर्म श्रवणकर भोगोंसे विरक्त होय मनि भया अर राणी चन्द्रमा बडे राजाकी बेटी रूपकर अतुल्य सो राज विभूति तज आर्यिका भई दुर्गतिकी वेदनाका है अधिक भय जिसको अर मधु का भाई कैटभ राज को विनाशीक जान मह वायर मनि भगा । दोऊ माई महा तपस्वी पृथिवीमें विहार करते भए अर सकल स्वजन परजनके नत्रनिको आनन्दका कारण मधुका पुत्र कुलवर्धन अयोध्या का राज्य करता भया अर मधु सैकडों बरस व्रत पाल दर्शन ज्ञान चारित्र तप एही चार पाराधिना आराध समाधिमरण कर सोलयां अच्युत नामा स्वग वहां अच्युतेंद्र भया पर कैटभ पंद्रहवां पारण नामा स्वर्ग वहां पारणेन्द्र भया गौतम स्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक, यह जिनशासनका प्रभाव जानों जो ऐसे अनाचारी भी अनाचारका त्यागकर अच्युरेंद्र पद पावें अथवा इन्द्र पदका कहा आश्चर्य ? जिनधर्मके प्रसादसे मोक्ष पावे मधु का जीव अच्युतंद्र था उसके समीप सोताका जीव प्रतेंद्र भया अर मधु नाव :गसे चकर श्रीकृष्ण की रुक्मिणी राणीके प्रद्युम्न नामा पुत्र कामदेव होय मोच Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसtreat प ५६६ लही र कैटभका जीव कृष्णकी जामवन्ती राणीके शंभुकुमार नामा पुत्र होय परम धामकों प्राप्त भया । यह मधुका व्याख्यान तुझे कहा । हे श्रेणिक, बुद्धिवन्तोंके मनको प्रिय ऐसे लक्ष्मणके अष्ट पुत्र महा धीर वीर तिनका चरित्र पापोंका नाश करणहारा चित्त लगाय सुनो। इति श्रीरविपणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिका विषै राजा मधुका वैराग्य वर्णन करनेवाला एकसौनौवां पव पर्ण भया ।। ५०६ ॥ अथानन्तर कांचनस्थान नामा नगर वहां राजा कांचनरथ उसकी राणी शतहृदा उसके पुत्री दोय अति रूपवन्ती रूपके गर्व कर महा गर्वित तिनके स्वयंवर के अर्थ अनेक राजा भूचर खेर तिनके पुत्र कन्या के पिताने पत्र लिख दून भेज शीघ्र बुलाये सो दूत प्रथम ही अयोध्या पठाया पर पत्र में लिखा मेरी पुत्रीयोंका स्वयंवर है सो आप कृपाकर कुमारोंको शीघ्र पठायो । तब राम लक्ष्मणने प्रसन्न होय परम ऋद्धियुक्त सर्व सुन पठाए दोनों भाईयोंके सबल कुमार लव अंकुशको असर कर परस्पर महा प्रेमके भरे काचनस्थानपुरको चले सैकडों विमान में बैठे अनेक विद्याधर लार, रूपकर लक्ष्मीकर देवनि सारिखे श्राकाशके मार्ग गमन करते भये सो बडी सेना सहित आकाशसे पृथिवी को देखते जावें कांचनस्थानपुर पहुंचे वहां दोनों श्रेणियोंके विद्याधर राजकुमार आये थे सो यथायोग्य तिष्ठे जैसे इन्द्रकी समामें नानाप्रकारके आभूषण पहिरे देव तिष्ठे अर नन्दनवनमें देव नानाप्रकारकी चेष्टा करें तैमी चेष्टा करते भये श्रर वे दोनों कन्या मंदाकिनी अर चंद्रवक्त्रा मंगल स्नानकर सर्व श्राभूषण पहिरे निज वाससे रथ चढी निकसी मानों साक्षात लक्ष्मी घर लजा ही हैं महा गुणोंकर पूर्ण तिनके खोजा लार था सो राजकुमारोंके देश कुल संपत्ति गुण नामा चेष्टा सच कहता भया । अर कही ये आए हैं तिनमें कई बानरध्वज कई सिंहध्वज कई वृषभध्वज कई गजध्वज इत्यादि अनेक भांतिकी ध्वजा कोंधरे महा पराक्रमी हैं इनमें इच्छा होय उसे वरों तब यह सबनिकों देखती भई पर यह सब राजकुमार उनको देख संदेह की तुलामें आरूढ भए कि यह रूप गर्वित हैं न जानिये कौनको बरें ऐसी रूपवन्ती हम देखी नहीं मानों यह दोनों समस्त देवियोंका रूप एकत्र कर बनाई हैं यह कामकी पताका लोकोंकों उन्मादका कारण इस भांति सब राजकुमार अपने अपने मनमें अभिलाषा रूप भए दोनों उत्तम कन्या लवण अंकुशको देख कामवाण कर बेधी गई उनमें मन्दाकिनी नामा जो कन्या उसने लवण के कंठमें वरमाला डारी, अर दूजी कन्या चंद्रवक्त्राचे अंकुशके क ंठमें वरमाला डारी तब समस्त राजकुमारोंके मनरूप पक्षी तनुरूप पिंजरेसे उग र जे उत्तम जन तिन्होंने प्रशंसा करी किइन दोनों कन्यावोंने रामके दोनों पुत्र वरे सोनीके करी, ये कन्या इनही योग्य हैं इस भांति सज्जनोंके मुख से बाणी निकसी जे भले पुरुष हैं तिनका चित्त योग्य सम्बधसे आनन्दको प्राप्त होय । अथानन्तर लक्ष्मणकी विशिल्यादि माठ पटराणी तिनके पुत्र आठ महा सुन्दर उदार चित्त शूरवीर पृथ्वी में प्रसिद्ध इन्द्र समान सो अपने अढाई भाईयों सहित महा प्रीतियुक्त तिष्ठते थे जैसे ताराओं में ग्रह तिष्ठे सो आठ कुमारन विना और सब भाई रामके पुत्रनि पर क्रोधित भए जो हम नारायण के पुत्र कांतिधारी कलाधारी नवयोवन लक्ष्मी वान बलवान सेनावान कौन Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण गुणकर हीन जो इन कन्यानिने हमको न वरे अर सीताके पुत्र वरे ऐसा विचार कर कोपित भए तब बडे भाई पाठने इनको शांत चित्त किये जैसे मंत्र कर सर्पको वश करिये तिनके समझावत सबही भाई लवण अंकुशसे शांतचित्त भये पर मन में विचारते भये जो इन कन्यानिने हमारे बाबाके बेटे बडे भाई बरे तब ये हमारे भावज सो माता समान है अर स्त्री पर्याय महा निंद्य है स्त्रीनिकी प्रमिलाषा अविवेकी करें, स्त्रिये स्वभावही ते कुटिल है इनके अर्थ विवेकी विकारको न भजें, जिनको प्रात्म कल्याण करना होय सो स्त्रिनितें अपना मन फेरें, या भांति विचार सब ही भाई शांतचित्त भए, पहिले सब ही युद्धके उद्यमी भए हुते रणके वादित्रनिका कोलाहल शंख झझा भेरी झझार इत्यादि अनेक जातिके वादित्र बाजने लगे अर जैसे इन्द्रकी विभूति देख छोटे देव अभिलाषी होंय तैसे ये सब स्वयम्बरमें कन्यानिके अभिलाषी भए हुते सो बड़े भाईनिके उपदेशत विवेकी भए, अर उन आठो बडे भाईनिको वैराग्य उपजा सो विचारे हैं यह स्थावर जंगम रूप जगतके जीव कर्मनिकी विचित्रताके योगकर नाना रूप हैं विनश्वर हैं जैसाजीवनिके होनहार है तैसा ही होय है जाके जो प्राप्ति होनी है सो अवश्य होय है, ओर भांति नाहीं अर लक्ष्मण की रूपवती राणीका पुत्र हंसकर कहता भया-भो भ्रातः हो ! स्त्री कहा पदार्थ है ? स्त्रीनित प्रेम करना महा मूढता है विवेकीनिको हांसी आवै है जो यह कामी कहा जान अनुराग करे हैं ? इन दोऊ भाईनिने ये दोनों राणी पाई तो कहा बडी वस्तु पाई, जे जिनेश्वरी दीक्षा धरें वे धन्य है केलाके स्तंभ समान असार काम भोग आत्माका शत्रु तिनके वश होय रति अरति मानना महा मूढता है विवेकीनिको शोक ह न करना अर हास्य ह न करना । ये सबही संसारीजीव कर्मके वश भ्रमजालमें पडे हैं ऐसा नाही करे हैं जाकर कर्मोका नाश होय कोई विवेकी करे सोई सिद्धपदको प्राप्त होय या गहन संसार बनमे ये प्राणी निजपुरका मार्ग भूल रहे हैं ऐसा करहु जाकर भब दुःख निवृत होय । हे भाई हो, यह कर्मभूमि आर्यक्षेत्र मनुष्य देह उत्तम कुल हमने पाया सो ऐते दिन योही खोये अब पीतरागका धर्म आराध मनुष्य देह सफल करो एक दिन मैं बालक अवस्थामें पिताकी गोदमें बैठा हुता सो वे पुरुषोचम समस्त राजानिको उपदेश देते थे वे वस्तुका स्वरूप सुन्दर स्वर कहते भए सो मैं रुचिसों सुन्या। चारों गतिमें मनुष्यगति दुर्लभ है। जो मनुष्य भव पाय आरमदित न करे हैं सो ठगाए गए जान । दान कर मिथ्यादृष्टि भोगभूमि जावें अर सम्यग्दृष्टि दानकर तपकर स्वर्ग जांय परम्पराय मोक्ष जावै अर शुद्धोपयोगरूप आत्मज्ञानकर यह जीव याही भव मोक्षपाबे अर हिंसादिक पापनिकर दुर्गति लहे जो तप न करे सो भव वनमें भटकै बारम्बार दुर्गतिके दुख संकट पावै, या मांति विचार वे अष्टकुमार शूरवीर प्रतिबोधको प्राप्त भए संसार सागरके दुखरूप भवनि से डरे, शीघ्र ही पितापै गए, प्रणाम कर विनयसे खडे रहे अर महा मधुर वचन हाथ जोड कहते भए-हे तात ! हमारी विनती सुनो, हम जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार किया चाहे हैं, तुम आज्ञा देवो। यह संसार बिजुरीके चमत्कार समान अस्थिर है, केलाके स्तंभ समान असार है हमको अविनासी पुरके पंथ चलते विघ्न न करो तुम दयालु हो कोई महा भाग्यके उदयतें हमको जिनमार्गका ज्ञान भया, अब ऐसा करे जाकर भव सागरकेपार पहुंचे ये काम भोग आशीविष Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौदस व पर्व ५७९ सर्पके फण समान भयंकर हैं परम दुःखके कारण हम दूर हीसे छोड़ा चाहे हैं या जीवके माता पिता पुत्र बांधव नाहीं कोई याका सहाई नाहीं यह सदा कर्मके आधीन भव वनमें भ्रमण करे हैं। या कौन २ जीव कौन २ सम्बन्धी न भए । हे तात ! हमसू तिहारा अत्यंत बात्सल्य है अर माताओं का है सो येही बन्धन है । हमने तिहारे प्रसादतें बहुत दिन नाना प्रकार संसारके सुख भोगे निदान एक दिन हमारा तिहारा वियोग होयगा, यामें सन्देह नाहीं, या जीवने अनेक भोग किये परन्तु तृप्त न भया । ये भोग रोग समान हैं इनमें अज्ञानी राचें पर यह देह कुमित्र समान है जैसे कुमित्रको नाना प्रकार कर पोषिये परन्तु वह अपना नाहीं तैसे यह देह अपना नाहीं याके अर्थ आत्माका कार्य न करना यह विवेकनिका काम नाहीं, यह देह तो हमको तजेगी हम इससे प्रीति क्यों न तजें । ये वचन पुत्रनिके सुन लक्ष्मण परम स्नेह कर विह्वल होय गये इनको उरसे लगाय मस्तक चूंच बारम्बार इनकी ओर देखते भए घर गद् गद् वाणीं कर कहते भए हे पुत्रो हो ये कैलाश के शिखिर समान हेम रत्नके ऊंचे महल जिनके हजारों कनकके स्तम्भ तिनमें निवास करो नाना प्रकार रत्नोंसे निरमाए हैं आंगन जिनके महा सुन्दर सर्व उपकरणों कर मण्डित मलयगिरि चन्दनकी आवै है सुगन्ध जहां भ्रमर गुंजार करे हैं और स्नानादिककी विधि जहां ऐसी मंजन शाला श्रर सब सम्पतिसे भरे निर्मल हैं भूमि जिनकी इन महलोंमें देवों समान क्रीडा करो र तिहारे सुन्दर स्त्री देवांगना समान दिव्यरूप को धरें शरद के पूनों के चन्द्रमा प्रजा जिनकी अनेक गुणनिकर मण्डित वीण बांसुरी मृदंगादि अनेक बादित्र बजाय में निपुण महा सुकट सुन्दर गीत गायवेमें निपुण नृत्यकी करण हारी जिनेन्द्रकी कथा में अनुरागिणी महापतिव्रता पवित्र तिन सहित वन उपवन तथा गिरि नदियोंके तट निज भवन के उपवन तहां नाना विधि क्रीडा करते देवों की न्याई रमो । हे वत्स हो ! ऐसे सुखोंको तज कर जिन दीचा घर कैसे विपन वन र गिरिके शिखर कैसे रहोगे । मैं स्नेहका भरा र तिहारी माता तिहारे शोक कर तप्ताय मान तिनको तजकर जाना तुमको योग्य नाहीं कैंयक दिन पृथिवीका राज्य करी तब वे कुमार स्नेहकी बासना से रहित गया है चिच जिनका संसारसे भयभीत इन्द्रियोंके सुखसं पराङमुख महा उदार मद्दा शूरवीरकुमार श्रेष्ठ आत्मतत्वमें लगा है चिच जिनका चरा एक बिचार कर कहते भए - हे पिता इस संसार में हमारे माता पिता अनन्त भए यह स्नेहका बंधन नरकका कारण है यह घर रूप पिंजरा पापारम्भका अर दुःखका वढावन हारा है उसमें मूर्ख रवि माने हैं ज्ञानी न माने अब कहूं देह संबधी तथा मन संबंधी दुख हमको न होय निश्चयसे ऐसाही उपाय करेंगे जो आत्मकल्याण न करे सो श्रात्मघाती है कदाचित् घर न तजे र मनमें ऐसा जाने मैं निर्दोष हूं मुझे पाप नहीं तो वह मलिन है पापी है जैसे सुफेद वस्त्र अंग के संयोगसे मलिन होय तैसे घरके योग से गृहस्थी मलिन होय है जे गृहस्थाश्रम में निवास करें हैं तिनके निरन्तर हिंसा आरम्भकर पाप उपाजे तातें सत्पुरुषोंने गृहस्थाश्रम तजे पर तुम हमसों कही कैयक दिन राज्य भोगों सो तुम ज्ञानवान होयकर हमको अंधकूपमें डारो हो जैसे तृपाकर यातुर गमृ जल पीवै अर उसे पारथी मारे तैसे भोगनिकर अतृप्त जो पुरुष उसे मृत्यु मारे है, जगत् के जीव विषयकी अभिलाषा 1 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समपराण कर सदा आर्तध्यानरूप पराधीन हैं जे काम सेवे हैं वे अज्ञानी विषहरणहारी जडी विना आशीविष सर्पसे क्रीडा करे हैं सो कैसे जीवै ? यह प्राणी मीन समान गृहरूप तालाबमें वसते विषयरूप मांसके अभिलाषी रोगरूप लोहके प्रांकडे के योगकर कालरूप धीवरके जाल में पडे हैं भगवान् श्रीती. थंकर देव तीन लोकके ईश्वर सुर नर विद्याधरनि कर बंदित यह ही उपदेश देते भए कि यह जगत्के जीव अपने अपने उपार्जे कर्मोके वश हैं अर या जगतको तजे सो कोंको हते हे तात ! हमारे इष्ट सयोगके लोभकर पूर्णता न होवे यह संयोग सम्बन्ध विजुरीके चमत्कारवत् चंचल है जे विचक्षण जन हैं वे इनसे अनुराग न करें पर निश्चय सेती इस तनसे अर तनुके सम्बन्धियों से वियोग होयगा इनमें कहा प्रीति अर महाक्लेशरूप यह संसार वन उसमें कहा निवास पर यह मेरा प्यारा ऐसी बुद्धि जीवोंके अज्ञानसे है यह जीव सदा अकेला भवमें भटके है गतिगतिमें गमन करता महा दुखी है। ___ हे पिता ! हम संसार सागरमें झकोला खाते अति खेद खिन्न भए । कैसा है ससार सागर मिथ्या शास्त्ररूप है दुखदाई द्वीप जिसमें अर मोह रूप हैं मगर जिसमें अर शोक संताप रूप सिवानकर संयुक्त सो अर दुर्जयरूप नदियोकर पूरित है अर भ्रमण रूप भंवरके समूहकर भायंकर अर अनेक आधि व्याधि उपाधि रूप कलोलों कर युक्त है अर कुभावरूप पाताल कुण्डों कर अगम हैं अर क्रोध कर भावरूप जलचरोके समूहसे भरा है अर वृथा बकवादरूप होय है शब्द जहां पर ममत्वरूप पवन कर उठे हैं विकल्परूप तरंग जहाँ अर दुर्गतिरूपक्षार जलचर भरा है पर महा दुस्सह इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग रूप आताप सोई है बडवानल जहां, ऐसे भवसागर में हम अनादिकालके खेदखिन्न पडे हैं नाना योनिमें भ्रमण करते अति कष्टसे मनुष्य देह उत्तम कुल पाया है सो अब ऐसा करेंगे बहुरि भव भ्रमण न होय सो सवसे मोह छुडाय आठो कुमार महा शूरवीर घर रूप वन्दीखानेसे निकसे उन महाभाग्योंके ऐसो वैराग्य बुद्धि उपजी जो तीन खंडका ईश्वरपणा जीर्ण तृणवत् तजा ते विवेकी महेन्द्रोदय नामा उद्यानमें जायकर महाबल नामा मुनिके निकट दिगम्बर भये सर्व आरम्भा रहित अन्तर्वाह्य परिग्रहके त्यागी विधिपूर्वक ईर्ष्या समित पालते विहार करते भए महा क्षमावान् इन्द्रियोंके वश करण हारे विकल्परहित निस्पृही परम योगी महाध्यानी बारह प्रकारके तप कर कर्मोंको भस्म कर अध्यात्मयोगसे शुभाशुभ भावोंका निराकरण कर क्षीण कषाय होय केवलज्ञान लह अनन्त सुख रूप सिद्ध पदको प्राप्त भए जगत्के प्रपंचसे छूटे । गौतम गणधर राजा श्रेणिकसे कहे हैं -हे नृप, यह अष्ट कुमागेका मंगलरूप चरित्र जो विनयवान भक्ति कर पढे सुने उसके समस्त पाप क्षय जावें जैसे सूर्यकी प्रभाकर तिमिर विलाय जाय ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै लक्ष्मणके आठ कुमारोंका नैराग्य वर्णन करनेवाला एकसौदशवां पर्ण पूर्ण भया ॥ ११० ॥ __ अथानन्तर महावीर जिनेन्द्र के प्रथम गणधर मुनियोंमें मुख्य गौतम ऋषि श्रेणिकसे भामण्डलका चरित्र कहते भए हे श्रेणिक विद्याधरनिकी जो ईश्वरता सोई भई कुटिला स्त्री उसका विषय वासनारूप मिथ्या सुख सोई भया पुष्प उसके अनुराग रूप मकरन्दमें भामण्डल Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२. एक ग्यारवा पर्व रूप भ्रमर आसक्त होता भया चित्तमें यह चितवें जो में जिनेन्द्री दीक्षा धरूंगा तो मेरी स्त्रयों का सौभाग्यरूप कमलनिका वन सूक जायगा ये मेरे से आपक्त चित्त हैं अर इनके विरह कर मेरे प्राणनिका वियोग होयगा मैं यह प्राण सुखमूं पाले हैं इसलिये कैयक दिन राज्य के सुख भोग कल्याणका कारण जो तप सो करूंगा यह काम भोग दुर्निवार हैं पर इनकर पाप उपजेगा सो ध्यानरूप अग्निकर क्षण मात्र महम करूंगा कैक दिन राज्य करू बडी सेना राख जे मेरे शत्रु हैं तिनको राज्य रहित करूंगा वे खड्ग के धारीं बड़े सामंत मुझ से पराङमुख ते भये खड्गी कहिए मैडा तिनके मानरूप खड़ा भंग करूगा र दक्षिण श्रेणी उत्तर श्रेणी में अपनी आज्ञा मनाऊ अर सुमेरु पर्वत आदि पर्वतों में मरकन मणि आदि नाना जानि के रत्ननिकी निर्मल शिला विनमें स्त्रियों सहित क्रीडा करूंगा इत्यादि मनके मनोरथ करता हुवा भामण्डल सैकडों वर्ष एक मुहूर्तकी न्याई व्यतीत करता भया यह किया यह करू यह करू ऐसा चितवन करना आयुका अंत न जानता भया एक दिन सतख महल के ऊपर मुन्दर सेजपर पौठा था मो विजुरी पडी घर तत्काल काल को प्राप्त भया । • दीघसूत्री मनुष्य अनेक विकल्प करें परन्तु आत्माके उद्धारका उपाय न करें तृष्णाकर हता क्षणमात्रमें साता न पावै मृत्यु सिरपर फिरे ताकी सुत्र नाहीं, क्षणभंगुर सुखके निमित्त दुबुद्धि आत्महित न करे विषयवासना कर लुब्ध भया अनेक भांति विकल्प करता रहै सो विकल्प कर्म बंधके कारण हैं धन यौवन जीतव्य सब अस्थिर हैं जो इनको अस्थिर जान सर्व परिग्रहका त्याग कर आत्म कल्याण करें सो भवसागर न डूब अर विषयाभिलापी जीव भव भवमें कष्ट सहें हजारों शास्त्र पढ़े अर शांतता न उपजी तो क्या घर एक ही पदकर शांतदशा होय तो प्रशंसा योग्य हैं धर्म करिवेकी इच्छा तो सदा करवो करे अर करे नहीं सो कल्याणको न प्राप्त होय जैसे कटी पक्षका काग उडकर आकाशमं पहुंचा चाहै पर जाय न सके जो निर्वाण के उद्यमकर रहित है सो निर्वाण न पात्रे जो निरुद्यमी सिद्धपद पावै तो कोन काहेको सुनिव्रत आदरें जो गुरुके उत्तम वचन उरमें धार धर्मको उद्यमी होय सो कभी खेदखिन्न न होय जो गृहस्थ द्वारे या साधु उसकी भक्ति न करें महारादिक न दे सो अविवेकी है अर गुरुके वचन सुन धर्मको न आदरे सो भव भ्रमरसे न छूटे जो घने प्रमादी हैं पर नानाप्रकारके अशुभ उद्यमकर व्याकुल हैं उनकी आयु वृथा जाय हैं जैसे हथेलीनें आया रत्न जात्रा रहे ऐसा जान समस्त लौकिक कार्यको निरर्थक मान दुखरूप इन्द्रियोंके सुख तिनको तजकर परलोक सुधारिवेके अर्थ जिनशासन में श्रद्धा करो, भामण्डल मरकर पात्रदान के प्रभाव से उत्तम भोगभूमि गया । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत मंथ ताकी भाषावचनिकाबिषै भामंडलकर मरण वर्णन करनेवाला एकली ग्यारवां पर्व पर्ण भय। ॥ १११ ॥ अथानन्तर राम लक्ष्मण परस्पर महास्नेह के भरे प्रजाके पिता समान परम हितकारी तिनका राज्यमें सुख से समय व्यतीत होता भया परम ईश्वरतारूप अति सुन्दर राज्य सोई भया कमलोंका वन उसमें क्रीडा करते वे पुरुषोत्तम पृथ्वीको प्रमोद उपनावते भए इनके सुख का वर्णन कहां तक करें ऋतुराज कहिए वसंतऋतु उसमें सुगंध वायु वहै कोयल बोले भ्रमर Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण गुंजार कर समस्त वनस्पति फूले मदोन्मत होय समस्तलोक हर्षकै भरे शृंगार क्रीडा करें मुनिराज विषम वनमें विरजें आत्मस्वरूपका ध्यान करें उस ऋतुमें राम लक्ष्मण रणवास सहित अर समस्त लोकों सहित रमणीक वनमें तथा उपवनमें नानाप्रकारके रंग क्रीडा राग क्रीडा,जल क्रीडा,वन क्रीडा करते भए अर ग्रीष्मऋतुमें नदी सूके दावानल समान ज्वाला वरसै महामुनि गिरिक शिखर सूर्य के सन्मुख कायोत्सर्गधर तिष्ठे उसऋतु में राम लक्ष्मण थारामंडप महल में अथवा महारमणीक वनमें जहां अनेक जलयंत्र चन्दन कपूर आदि शीतल सुगंध सामिग्री वहां सुखसे विराजे हैं चमर दुरे हैं ताडके बीजना फिरे हैं निर्मल स्फटकको शिलापरं तिष्ठे हैं अगुरु चन्दनकर चर्चे जलकर श्रा तर ऐसे कमलदल तथा पुष्पोंके सांथरे पर तिष्ठे मनोहर निर्मल शीतल जल जिसमें लवग इलायची कपूर अनेक सुगंध द्रव्य उनकर महा सुगंध उसका पान करते लतावोंके मंडपोंमें विराजते नानाप्रकारकी सुन्दर कथा करते सारंग आदि अनेक राग सनते सुन्दर स्त्रीनि सहित उष्णऋतुको वलात्कार शीतकाल सम करते सुखसे पूर्ण करते भए, अर वर्षाऋतुमें योगीश्वर तरु तले तिष्ठते महातपकर अशुभ कर्मका क्षयकरें हैं विजुरी चमके हैं मेघकर अंधकार होयरहा है मयूर बोले हैं ढाहा उपाडती महाशब्द करती नदी बहे हैं उसऋतुमें दोनों भाई सुमेरुके शिखर समान ऊचे नाना मणिमई जे महल तिनमें महाश्रेष्ठ रंगीले वस्त्र पहिरे केशरके रंगकर लिप्त है अंग जिनका पर कृष्णागरुका धूप खेए रहे हैं महा सुन्दर स्त्रियोंके नेत्ररूप भ्रमकि कमल सारिखे इंद्र समान कीडा करते सखलों तिष्ठे अर शरदऋतुमें जल निर्मल होय चन्द्रमाकी किरण उज्ज्वल होय कमल फूलें हंस मनोहर शब्द करे मुनिराज वन पर्वत सरोवर नदी के तीर बैठे चिद्रूपका ध्यान करें उसऋतुमें राम लक्ष्मण राजलोकों सहित चांदनीसे वस्त्र आभूषण पहिरे सरिता सरोवरके तीर नामा विधि कीडा करते भए अर शीतऋतुमें योगीश्वर धर्म ध्यानको ध्यावते रात्रिमें नदी तालावोंके तट पै जहां अति शीत पडे वर्फ वरसे महा ठण्डी पवन बाजे तहां निश्चल तिष्ठे हैं महाप्रचण्ड शीत पवनकर वृक्ष दाहे मारे हैं अर सूर्यका तेज मन्द होय गया है ऐसी ऋतुमें राम लक्ष्मण महलोके भीतरले चौवारोंमें तिष्ठते मनवांछित पितास करते सुन्दर स्त्रिनके समूह सहित वीण मृदंग वांसुरी आदि अनेक वादित्रोंके शब्द कानोंको अमृत समान श्रवणकर मनको आल्हाद उपजावते दोनों वीर महाधीर देवोंसनान अर जिनके स्त्री देवांगना समान बाणीकर जीती है वीणाकी धनि जिन्होंने महापतिव्रता तिनकर आदरते संते पुण्यके प्रभावसे शीतकाल व्यतीत करते भए अद्भुत भोगोंकी सम्पदा कर मंडित वे पुरुषोत्तम प्रजाको आनन्दकारी दोनों भाई सुखसे तिष्ठे हैं। अथानन्तर गौतमस्वामी कहें हैं-हे श्रेणिक ! अब तू हनुमानका वृतांत सुन हनूमान पवनका पुत्र कर्णकुण्डल नगरमें पूर्व पुण्यके प्रभावसे देवनिके से सुख भोगवै जिसकी हजारों विद्याधर सेवा करें अर उत्तम क्रियाका धारक स्त्रियों सहित परिवार सहित अपनी इच्छाकर पृथिवीमें विहार करै श्रेष्ठ विमानमें आरूढ परग ऋद्धिकर मंडित महाशोभायमान सुन्दर वनों में देवनि समान क्रीडा कर सो बसंतका समय आया कामी जीवनको उन्मादका कारखबर समस्त Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-७५ एकसौवारा प वृक्षों को प्रफुल्लित करणहारी प्रिया अर प्रीतमके प्रेमको बढावनहारा सुगंध चले है पवन जिसमें ऐसे समय में अंजनीका पुत्र जिनेंद्रकी भक्ति में श्रारूढचित्त, अति हर्ष कर पूर्ण हजागं स्त्रीनि सहित सुमेरु पर्वत की ओर चला हजारां विद्याधर हैं संग जिसके श्रेष्ठ विमानमें चढे परम ऋद्धिकर संयुक्त मार्ग में वनमें क्रीडा करते भए । कैसे है बन ? शीतल मंद सुगन्ध चले हैं पवन जहां नाना प्रकार के पुष्प र फलों कर शोभत वृक्ष हैं जहां देवांगना में हैं पर कुल चलों में सुन्दर सरोवरों कर युक्त अनेक मनोहर वन जिनमें भ्रमर गुंजार करें हैं और कोयल बोल रही हैं श्रर नाना प्रकार के पशु पक्षियोंके युगल विचरें हैं जहां सर्व जातिके पत्र पुष्प फल शोभे हैं अर रत्ननिकी ज्योतिकर उद्योतरूप हैं पर्वत जहां अर नदी निर्मल जलकी भरी सुन्दर हैं नट जिनके अर सरोवर श्रति रमणीक नाना प्रकारके मकरंद कर रंग रूप होय रहा हैं सुगन्ध जल जिनका कर वापिका अति मनोहर जिनके रत्नोंके सिवान श्रर तटोंके निकट बडे बडे वृक्ष हैं अर नदी में तरंग उठे हैं झागोंके समूह सहित महा शब्द करती बहे हैं जिनमें मगरमच्छ आदि जलचर क्रीडा करें हैं दोनों तटमें लहलहाट करते अनेक वन उपवन महा मनोहर विचित्र गति लिये शोभे हैं जिनमें क्रीडा कर वेके सुन्दर महल अर नाना प्रहार रत्नकर निर्माये जिनेशरके मंदिर पापोंके हरहारे अनेक हैं । पचनपुत्र सुन्दर स्त्रियोकर सेवित परम उदय कर युक्त अनेक गिरियों में कृ त्रिम चैत्यालयों का दर्शन कर विमानमें चढा स्त्रियोंकों पृथिवीकी शोभा दिखावता श्रति प्रसन्न - तासे स्त्रियोंसे कहे है — हे प्रिय ! सुमेरुमें अति रमणोक जिन मन्दिर स्वर्णमयी भासे हैं श्रर इनकी शिखर सूर्यसमान देदीप्यमान महा मनोहर भासे हैं अर गिरिकी गुफा तिनके मनोहर द्वार रत्नजडित शोभा नाना रंगको ज्योति परस्पर मिल रही हैं वहां अरति उपजे ही नाहीं सुमेरुकी भूमितल में अतिरमणीक भद्रशालबन है अर सुमेरुकी कटि मेखला में विस्तीर्ण नंदन यन पर सुमेरुके वक्षस्थल में सौमनस बन है जहां कल्पवृक्ष कल्पलताओंसे बेटे सोहे हैं श्रर नानाप्रकार रत्नोंकी शिला शोभित हैं और सुमेरु शिखरमें पांडुक बन हैं जहां जिनेश्वर देवका जन्मोत्सव होय है चारों ही वनमें चार चार चैत्यालय हैं जहां निरंतर देव देवियोंका आगम है यक्ष किन्नर गंवके संगतिकर नाद होय रहा है श्रप्सरा नृत्य करे हैं कल्पवृक्षों के पुष्प मनोहर हैं। नानाप्रकार के मंगल द्रव्यकर पूर्ण यह भगवान् के अकृत्रिम चैत्यालय अनादि निधन हैं। हे प्रिय पांडुक वन में परम अद्भुत जिन मन्दिर सोहैं हैं जिनके देखे मन हरा जाय, महाप्रज्वलित निघून अग्नि समान संध्या के चादरोंके रंग समान उगते सूर्य समान स्वर्णमई शोभे हैं समस्त उत्तम रत्नकर शोभित सुन्दराकार हजारों मोतियोंकी माला तिनकर मंडित मनोहर हैं । मालावोंके मोती कैसे सोहै हैं मानों जलके बुबुदाही हैं पर घंटा झांझ मंजीरा मृदंग चमर तिनकर शोभित है चौगिरद कोट ऊंचे दरवाजे इत्यादि परम विभूति कर बिराजमान हैं नाना रंगकी फराहती हुयी ध्वजा स्वर्ण के स्तंभ कर देदीप्यमान इन अकृत्रिम चैत्यालयोंकी शोभा कहां लग कह जिनका संपूर्ण वर्णन इन्द्रादिक देव भी न कर सके, हे कांत पांडुक बनके चैत्यालय मानों सुमेरुका मुकुट ही हैं अतिरमणीकहैं । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमपुराण या भांति महाराणी पटराणियोंसे हनूमान बात करते जिनमन्दिरोंकी प्रशांसा करते मन्दिरके समीप आए विमानसे उतर महा हर्षित होय प्रदक्षिणा दई वहां श्रीभगवानके अकृत्रिम प्रतिबिंब सर्व अतिशय विराजमान महा ऐश्वर्यकर मन्डित महा तेज पुंज देदीप्यमान शरद्के उज्ज्वल वादर तिनमें जैसे चन्द्रमा सोहे तैसे सर्व लक्षण मंडित, हनूमान हाथ जोड रणवास सहित नमस्कार करता भया। कैसा है हनूमान ? जैसे ग्रहतारावोंके मध्य चन्द्रमा सोहे तैसा राज लोकके मध्य सोहे है जिनेंद्रके दर्शनकर उपजा है अति हर्ष जिसको सो संपूर्ण स्त्रीजन अति आनन्दको प्राप्त भई रोमांच होय आऐ नेत्र प्रफुल्लित भए विद्याधरी परम भक्तिकर युक्त सर्व उपकरणों सहित परम चेष्टाकी धरणहारी महापवित्र कुलमें उपजी देवांगनाओंकी न्याई अति अनुरागसे देवाधिदेवकी विधिपूर्वक पूजा करती भई महा पूजा करती भई महा पवित्र पद्मवद आदिकका जल अर महा सुगन्ध चन्दन मुक्ताफलनिके अक्षत स्वर्णमई कमल तथा पद्मराग मणिमई तथा चन्द्रकांति मणिमई तिनकर पूजा करती भई अर कल्पवृक्षनिके पुष्प अर अमृतरूप नैवेद्य अर महा ज्योतिरूप रत्नोंके दीप चहाय अर मलयागिरि चन्दन आदि महासुगन्ध जिनकर दशोदिशा सुगंधमई होय रही हैं अर परम उज्ज्वल महा शीतल जल अर अगरु श्रादि महापवित्र द्रव्योंकर उपजा जी धूप सो खेवती भई अर महा पवित्र अमृत फल चढावती भई अर रत्नोंके चूर्णकर मण्डला मांडती भई महा मनोहर अष्ट द्रव्योंसे पतिसहित पूजा करती भई । हनूमान राणीयोंके सहित भगवानकी पूजा करता कैसे सोहे है जैसा सौधर्म इन्द्र पूजा करता सोहै । कैसा है हनूमान जनेऊ पहिरे सर्व आभूषण पहिरे महीन वस्त्र पहिरे महा पवित्र पापरहित बानरके चिन्हका है देदीप्यमान रत्नमई मुकुट जिसके महाप्रमोदका भरा फूल रहे हैं नेत्र कमल जिसके सुन्दर है बदन जिसका पूजाकर पापनिके नाश करणहारे स्तोत्र तिनकर सुर असुरोंके गुरु जिनेश्वर तिनके प्रतिबिंबकी स्तुति करता भया, सो पूजा करता अर स्तुति करता इंद्रकी अप्सरावोंने देखा सो अति प्रशंसा करती भई अर यह प्रवीण बीण लेयकर जिनेद्रचन्द्रके यश गावता भया जे शुद्ध चित्त जिनेन्द्रकी पूजामें अनुरागी हैं सर्व कल्याण तिनके समीप हैं तिनको कुछ ही दुर्लभ नहीं तिनका दर्शन मंगलरूप है उन जीवोंने अपना जन्म सुफल किया, जिन्होंने उत्तम मनुष्य देह पाय श्रारकके व्रत थर जिनवरमें दृढ भक्ति धारी अपने करमें कल्याणको धरा जन्मका फल तिन ही पाया हनूमानने पूजा स्तुति बन्दनाकर बीणा बजाय अनेक राग गाय अद्भुत स्तुति करी यद्यपि भगवानके दर्शनसे विछुरनेका नहीं है मन जिसका तथापि चैत्यालयमें अधिक न रह्या, मत कोई आच्छादन लागे तातै जिनराजके चरण उरमें धर मन्दिरसे बाहिर निकपा, विमानोंमें चढ हजारों स्त्रियोंकर संयुक्त सुमेरुकी प्रदक्षिणा दी, जैसे सूर्य देय तैसे श्रीशैल कहिए हनूमान सुन्दर है क्रिया जिसकी सो शैलराज कहिए सुमेरु उसकी प्रदक्षिणा देय समस्त चैत्यालयोंमें दर्शन कर भरतक्षेत्र की ओर सन्मुख भया सो मार्गमें सूर्य अस्त होय गया अर संध्या भी सूर्यके पीछे विलय गई कृष्णपक्षकी रात्रि सो तारा रूप बंधुघोंकर मंडित चन्द्रमारूप पति विना न सोहती भई । हनः मानने तले उतर एक सुरदुन्दुभी नामा पर्वत वहां सेना सहित रात्री व्यतीत करी, कमल आदि Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 एकसौ बारहवा पा अनेक सुगन्ध पुष्पोंसे स्पर्श पवन आई उस कर सेनाके लोक सुखसे रहे जिनं‍ र देवकी कथा करवो किए रात्रीको आकाशसे देदीप्यमान एक तारा टूटा सो हनूमानने देखकर मन में बिचारी हाय हाय इस संसार असार वनमें देव भी कालवश है ऐसा कोई नहीं जो कलसे बचे विजुरीका चमत्कार पर जलकी तरंग जैसे क्षण भंगुर हैं तैसे शरीर विनश्वर है इस संसार में इस जीवने अनंत भवमें दुख ही भोगे, यह जीव विषयके सुखको सुख माने है सो सुख नहीं दुख ही है पराधीन है विषम क्षणभंगुर संभारविषै दुख ही है सुख नहीं होय हैं, मोहका माहालय है जो अनन्तकाल जीव दुख भोगता श्रमण करे है अनन्तावसर्पणी उत्सर्पिणी काल भ्रमणकर मनुष्य देह कभी कोईपावे है सो पायकर धर्मके साधन वृथा खोये हैं यह विनाशीक सुख होय महा संकट पावे हैं। यह जीव रागादिकके वस भया वीतरागके भावको नहीं जाने है यह इन्द्रिय जैन मार्गके आश्रय विना न जीते जांय यह इन्द्रीं चंचल कुमार्ग विषै लगाय कर जीवों को इस भव परभव में दुख दाही हैं जैसे मृग मीन अर पक्षी लोभके यशसे बधिकके जाल में पड़े हैं तैसे यह कमी क्रोध लोभी जीव जिनमार्गको पाए बिना अज्ञानके वशसे प्रपंचरूप पारथीक विद्वाय विषय रूप जाल में पडे है जो जीव श्राशीविष सर्पसमान यह मनइन्द्री तिनके विषय में र में हैं सो मूढ दुखरूप श्रग्नि में जरे हैं जैसे कोई एक दिन राज्यकर वर्ष दिन त्रास भोगवे तैसे यह मूढ जीव अल्प दिन विषयोंके सुख भोग अनन्त कालपर्यंत निगोदके दुख भोगवे हैं जो विषयक सुखका अभिलाषी सो दुःखका अधिकारी हैं, नरक निगोदके मूल यह विषय तिनको ज्ञानी न चाहें मोह रूप ठगका ठगा जो आत्म कल्याण न करे सो महाकष्टको पावै जो पूर्व भवमें धर्म उपार्ज मनुष्य देह पाय धर्मका आदर न करे मो जैसे धन ठगाय कोई दुखी होय है तैसे दुखी होय अर देवोंके भी भोग भोगि यह जीव मरकर देवसे एकेंद्री होय है इस जीव के पाप शत्रु हैं और कोई शत्रु मित्र नहीं और यह भोगही पापके मूल हैं इनसे तृप्ति न होय, यह महा भयंकर हैं पर इनका वियोग निश्चय होयगा यह रहने के नाहीं जो मैं इस राज्यको अर जो यह प्रियजन हैं तिनको तज कर तप न करू तो अतृप्त भया भूमि चक्रवर्ती की नाई मरकर दुर्गतिको जाऊंगा अर यह मेरे स्त्री शोभायमान मृगनयनी सर्व मनोरथकी पूर्ण हारी पतिव्रता स्त्रियोंके गुणनिकर मंडित नव यौवन हैं सो अब तक मैं अज्ञानसे इनको तज न सका सो मैं अपनी भूलको कहां तक उराहना दूं । देखो मैं सागर पर्यंत स्वर्ग में अनेक देवांगना सहित रमा अर देवसे मनुष्य होय इस क्षेत्र में भया सुन्दर स्त्रियों सहित रमा परन्तु तृप्त न भया जैसे ईवनसे अग्नि तृप्त न होय भर नदियोंसे समुद्र तृप्त न होय तैसे यह प्राणी नानाप्रकारके विषय सुख तिनकर तृप्त न होय मैं नानाप्रकारके जन्म तिनमें भ्रमणकर खेद खिन्न भया । रे मन तू शांतताको प्राप्त होहु कहा व्याकुल होय रहा है क्या तैने भयंकर नरकों के दुःख न सुने जहां रौद्र ध्यान हिंसक जीव जाय हैं जिन नरकों में महा तीव्र वेदना असिपत्र बन वैतरणी नदी संकट रूप है सकल भूमि जहां । रे मन तू नरक से न डरे है राग द्वेष कर उपजे जे कर्म कलंक तिनको तप कर नाहि खिपावे हैं तेरे एते दिन योंदी वृथा गए विषय सुख रूप कूपमें Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण पडा अपने यात्माको भव पिंजरसे निकास । पाया है जिनमार्गमें बुद्धिका प्रकाश तेने तू अनादि कालका संसार भ्रमणसे खेदखिन्न भया अब अनादिके बंधे आत्माको छुडाय । हनूमान ऐसा निश्चय कर संसार शरीर भोगोसे उदास भया जाना हैं यथार्थ जिनशासनका रहस्य जिसने जैसे सूर्य मेष रूप पटलसे रहित महा तेजरूप भासे तैसे मोह पटलसे रहित भासता भया जिम मार्गसे होय जिनवर सिद्धपदको सिधारे उस मार्गमें चलिवेको उद्यमी भया॥ इतिश्रीरबिषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविर्षे हनूमानका वैराग्य चिंतान वर्णन करनेवाला एकसौ बारहवां पर्व पूर्ण भया ॥१५२ ।। अथानन्तर रात्रि व्यतीत भई सोला बानीके स्वर्ण समान सूर्य अपनी दीप्तिकर जग तमें उद्योत करता भया जैसे साधु मोक्षमार्गका उद्योत करे नक्षत्रोंके गण अस्त भए अर सूर्यके उदयकर कमल फूले जसे जिनराजके उद्योतकर भव्य जीवरूप कमल फूले । हनुमान महा वैरग्यका भरा जगतके भोगोंसे विरक्त मंत्रियोंसे कहता भया जैसे भरत चक्रवर्ती पूर्व तपोवनको गए तैसे हम जावेंगे तब मंत्री प्रेमके भरे परम उद्वेगको प्राप्त होय नाथसे विनती करते भए हे देव ! हमको अनाथ न करो प्रसन्न होवो हम तिहारे भक्त हैं हमारा प्रतिपालन करो तब हनूमानने कही तुम यद्यपि निश्चयकर मेरे आज्ञाकारी हो तथापि अनर्थके कारण हो, हितके कारण नहीं जो संसार समुद्रसे उत्तरै अर उसे पीछे सागरमें डारे ते हितू कैसे ? निश्चय थकी उनको शत्रु ही कहिए जब या जीवने नरकके निवासमें महादुःख भोंगे तब माता पिता मित्रभाई कोई ही सहाई न भया। यह दुर्लभ मनुष्य देह अर जिनशासनका ज्ञान पाय बुद्धिवानोको प्रमाद करना उचित नहीं अर जैसे राज्यके भीगसे मेरे अप्रीति भई तैसे तुमसे भी मई यह कम जनित ठाठ सर्व विनाशीक है निसंदेह हमारा तिहारा वियोग होयगा जहां संयोग है तहां वियोग है सुर नर पर इनके अधिषति इन्द्र नरेंद्र यह सब ही अपने अपने कर्मोंके आधीन हैं कालरूप दावानल कर कौन २ भस्म न भए । मैं सागरा पर्यंत अनेक भव देवोंके सुख भोगे परन्तु तृप्त न भया जसे सूके इन्धनकर अग्नि तृप्त न होय । गति जाति शरीर इनका कारण नाम कर्म है जाकर ये जाव गति गतिमें भ्रमण करे हैं सो मोहका बल महाबलवान है जाके उदयकर यह शरीर उपजा है सो न रहेगा यह संसार वन महाविषम है जाविषये प्राणी मोहको प्राप्त भए भवसंकट भोगे हैं उसे उलंघकर मैं जन्मजरा मृत्यु रहित जो पद तहां गया चाहुं हूं यह बात हनुमान मंत्रियोंसे कही सो रणवासकी स्त्रियोंने सुनी उसकर खेदखिन्न होय महारुदन करती भई । जे समझानेमें समर्थ ते उनको शांतचित करी कैसे हैं समझावन हारे नाना प्रकारके वृत्तांतमें प्रवीण अर हनुमान निश्चल है चित्त जाका सो अपने वडे पुत्रको राज्य देय अर सबोको यथा योग्य विभूति देय रत्नोंके समूहकर युक्त देवोंके विमान समान जो अपना मन्दिर उसे तजकर निकसा। स्वर्ण रत्नमई देदीप्यमान जो पालकी तापर चढ चैत्यवान् नामा वन तहां गया सो नगरके लोक हनुमानकी पालकी देख सजल नेत्र भये पालकीपर ध्वजा फरहरे हैं चमरोकर शोभित हैं मोतियोंकी झालरियोंकर मनोहर है हनूमान वनविष आया । सो वन नानाप्रकार के वृक्षों कर मंडित श्रर जहां सूवा मैना मयूर हंस कोयल भ्रमर संदर शब्द करे हैं अर नानाप्रकारके धोकर सुगंध Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौतेरहवा १६ है वहां स्वामी धरित्न संयमी धर्मरूप रत्नकी राशि उत्तम योगीश्वर जिनके दर्शनसे पाप विलाय जावे असे सन्त चारण मुनि अनेक चारण ऋद्धियों मंडित तिष्ठते थे। आकाश में है गमन जिनका सो दूरसे उनको देख हनूमान पालकीसे उतरा महा भक्तिकरयुक्त नमस्कारवर हाथ जोड कहता भया-हे नाथ ! मैं शरीरादिक परद्रव्योसे निर्ममत्व भया यह परमेश्री दीक्षा श्राप मुझे कृपाकर देवो। तब मुनि कहते भए-हो भव्य ! तैंने भली विचारी तू उत्तम जन है जिनदीक्षा लेहु । यह जगत असार है शरीर विनश्वर है शीघ्र आत्मकल्याण करो अविनश्वर पद लेवेकी परमकल्याणकारणी बुद्धि तुम्हारे उपजी है यह बुद्धि विवेकी जीवके ही उपजे है ऐसी मुनिकी आज्ञा पाय मुनिको प्रणामकर पद्मासन धर तिष्ठा मुकट कुण्डल हार आदि सव आभूषण डारे अर वस्त्र डारे जगतसे मनका राग निवारा, स्त्रीरूप बन्धन तुडाय ममता मोह मिटाय आपको स्नेहरूप पाशसे छुडाय विष समान विषय सुख तजकर वैराग्यरूप दीपककी शिखाकर रागरूप अंधकार निवारकर शरीर अर संसारको असार जान कमलोंको जीते असे सुकुमार जे कर तिनकर सिरके केशलौंच करता भया समस्त परिग्रहसे रहित होय मोक्षलक्ष्मीको उद्यमी भया महाव्रत धरे असंयम परिहरे हनूमान् की लार साढे सातमो बडे राजा विद्याधर शुद्ध चित्त विद्युद्गतिको आदि दे हनूमानके परम मित्र अपने पुत्रों को राज्य देय अठाईस मूलगुण धार योगीन्द्र भए अर हनूमानकी रानी श्रर इन राजावोंकी राणी प्रथम तो वियोगरूप अग्निकर तप्तायमान विलाप करती भई फिर वैराग्यको प्राप्त होय बंधुमति नामा आर्थिवाके समीप जाय महा भक्ति कर संयुक्त नमस्कारकर आर्यिकाके व्रत धारती भई । वे महाबुद्धिवंती शीलवंती भव भ्रमणके भयसे आभूषण डार एक सुफेद वस्त्र राखती भई शील ही है आभूषण जिनके तिनको राज्यविभूति जीर्ण तृण समान भासती भई अर हनूमान महाबुद्धिमान महातपोधन महापुरुष संसार से अत्यंत विरक्त पंचमहाव्रत पंचममिति तीनगुप्ति धार शैल कहिए पर्वत उससे भी अधिक, श्रीशैल कहिए हनूमान राजा पवन के पुत्र चारित्र में अचल होते भए तिनका यश निर्मल इन्द्रादिक देव गावें बारम्बार वन्दना करें अर बडे २ राजा कीर्ति करें निर्मल है आचरण जिनका ऐसा सर्वज्ञ वीतराग देवका भाषा निर्मल धर्म आचर या सो भवसागरके पार भया वे हनूमान महामुनि पुरुषोंमें सूर्य समान तेजस्वी जिनेंद्रदेवका धर्म श्राराध ध्यान अग्निकर अष्ट कर्मकी समस्त प्रकृति ईधनरूप तिनको भस्मकर तुङ्गिगिरिके शिखरसे सिद्ध भए। केवलज्ञान केवल दर्शन आदि अनन्त गुणमई सदा सिद्ध लोकमें रहेंगे। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावनिकाविौं हनूमानका निर्वाण गमन वर्णन करनेवाला एकसौ तेरहवां पर्व पूर्ण भया । १५६ ॥ अथानन्तर राम सिंहासन पर विराजे थे लक्ष्मणके आठो पुत्रोंका अर हनूमानका मुनि होना मनुष्योंके मुखसे सुनकर हंसे अर कहते भये इन्होंने मनुष्य भवके क्या सुख भोगे । यह छोटी अवस्थामें ऐसे भोग तज कर योग धारण करें हैं सो बडा आश्चर्य है यह हठ रूप ग्राहकर ग्रहे हैं देखो! ऐसे मनोहर काम भोग तज विरक्त होय बैठे हैं या भांति कही यद्यपि श्रीराम सभ्य. कदृष्टि ज्ञानी हैं तथापि चारित्र मोहके वश कैयक दिन लोकोंकी न्याई जगतमें रहते भये संसार Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० पद्मपुराण के अल्पसुख तिनमें राम लक्ष्मण न्याय सहित राज्य करते भये । एक दिन महा ज्योतिका धारक सौधर्म इन्द्र. परम ऋद्धिकर युक्त महाधीर्य अर गंभीरता कर मंडित नाना अलंबार धरे सामान्य जाति के देव जे गुरुजन तुल्य अर लोकपाल जातिके देव देशपाल तुल्य र त्रयस्त्रिशत् जातिसे देव मंत्री समान तिनकर मण्डित तथा सकल देव सहित इन्द्रासनमें बैठे कैसे सोहै जैसे सुमेरु पर्वत और पर्वतोंके मध्य सोहैं महातेज पुज अद्भुत रत्नोंका हिासन उसपर सुखसे विराजता ऐसा भासे जैसे सुमेरुके ऊपर जिनराज भासे । चन्द्रमा अर मूर्गकी नोति को जीत ऐसे रत्नोंके आभूषण पहिरे सुन्दर शरीर मनोहर रूप नेत्रों को अानन्दवारी जैसे जल की तरंग निर्मल तैसी प्रभाकर युक्त हार पहिरे ऐसा सोहै मानों सीतोदा नदीके प्रवाइकर युक्त निषधाचल पर्वत ही है मुकट कंठा भरण कुण्डल कुयूर आदि उत्तम आभूषण पहिरे देवों कर मण्डि जैसा नक्ष. त्रोंकर चन्द्रमा सोहै तैसा सोहै है। अपने मनष्य लोकमें चन्द्रमा नक्षत्र ही भासे ताते चन्द्रमा नक्षत्रोंका दृष्टांत दिया है चन्द्रमा नक्षत्र ज्योतिषी देव है तिनसे स्वर्गवासी देवोंकी अति अधिक ज्योति है अर सब देवोंसे इन्द्रकी ही अधिक है अपने तेज कर दशो दिशा में उद्योत करता सिंहासनमें तिष्ठता जेसा जिनेश्वर भासे तैसा भासे इंद्रके इन्द्रासनका अर सभाका जो समस्त मनष्य जिह्वाकर सैकड़ों वर्ष लग वर्णन करे तो भी न कर सकें सभामें इन्द्रके निकट लोकपाल सब दवनिमें मुख्य हैं चित्त जिनके स्वर्गसे चयकर मनध्य होय मुक्ति पाये हैं सोलह स्वर्गके बारह इंद्र है एक एक इन्द्र के चार चार लोकपाल एक भवधारी हैं अर इन्द्रनिमें सौधर्म सनत्कुमार महेंद्र लांतवेन्द्र शतारेद्र पारणेंद्र यह षट् एक भवधारी हैं अर शची इन्द्राणी लोकांतिक देव पंचम स्वर्गके तथा सर्वार्थसिद्ध अहमिंद्र मनुष्य होग मोक्ष जावे हैं सो सौधर्म इन्द्र अपनी सभामें अपने समस्त देवनि कर युक्त बैठा लोकपालादिक अपने अपने स्थान बैठे सो इन्द्र शास्त्रका व्याख्यान करते भये वहां प्रसंग पाय यह कथन किया अहो देवो, तुम अपने भाव रूप पुरुष निरन्तर महा भक्ति कर अर्हत देवको चढायो अर्हतदेव जगतका नाथ है समस्त दोष रूप वनके भस्म करिवेको दावानल समान है जिसमें संसारका कारण मोक्ष रूप महा असुर अत्यंत दुर्जय ज्ञान कर मारा वह असुर जीवोंका बडा वैरी निर्विकल्प सुखका नाशक है अर भगवान बीतराग भव्य जीवोंको संसार समुद्रसे तरिवे समर्थ हैं संसार समुद्र कपायरूप उग्र तरंग कर व्याकुल है कामरूप ग्राह कर चंचलतारूप, मोहरूप मगर कर मृत्युरूप है ऐसे भवसागरसे भगवान बिना कोई तारिवे समर्थ नाहीं । कैसे हैं भगवान जिनके जन्म कल्याण में इंद्रादिकदेव सुमेरु गिरि ऊार क्षीर सागरके जल कर अभिषेक करावे है अर महाभक्ति कर एकाग्रचित्त होय परिवार सहित पूजा करे है धर्म अर्थ करम मोक्ष यह चारो पुरुषार्थ है तिनमें लगा चित्त जिनका जिनेन्द्रदेव पृथिवीरूप स्त्रीको तजकर सिद्ध रूप वनिताको वरते भये । कैसी है पृथ्वी रूप स्त्री ? विंध्याचल अर कैलाश हैं कुच जिसके अर समुद्रकी तरंग हैं कटिमेखला जिसके ये जीव अनाथ महा मोहरूप अंधकार कर आच्छादित तिनको वे प्रभु स्वर्ग लोकसे मनुष्य लोकमें जन्म धर भव सागरसे पार करते भये, अपने अद्भुवानन्तवीर्य कर आठो कर्म रूप वैरी क्षणमात्रमें खिपाए जैसे सिंह मदोन्मत्त हस्तियोंको नसारे Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसोचौदहेवा पक्ष भगवान सर्वज्ञदेवको अनेक नामकर भव्य जीव गावे हैं जिनेन्द्र भगवान अहंत स्वयंभू शंभू स्वयं प्रभ सुगत शिवस्थान महादेव कालंजर हिरण्यगर्भ देवाधिदेव ईश्वर महेश्वर ब्रह्मा विष्णु बुद्ध वीतराग विमल विपुल प्रवल धर्मचक्री प्रभु विभु परमेश्वर परम ज्योति परमात्मा तीर्थकर कृत कृत्य कृपालु संसारसूदन सुर ज्ञान चतु भवांतक इत्यादि. अपार नाम योगीश्वर गावे हैं अर इंद्र धरणींद्र चक्रवर्ती भक्तिकर स्तुति करे हैं जो गोप्य हैं पर प्रकट हैं जिनके नाम सकल अथ संयुक्त हैं जिसके प्रसाद कर यह जीव कर्मसे छूट कर परम धामको प्राप्त होय हैं जैसा जीवका स्वभाव है तैसा वहां रहे है जो स्मरण करे उसके पाप बिलाय जाय वह भगवान पुराण पुरुषोत्तम परम उत्कृष्ट आनन्दकी उत्पत्तिका कारण महा कल्याणका मूल देवनिक देव उसके तुम भक्त होती अपना कल्याण चाहो तो अपने हृदय कमलमें जिनराजको पधरावो, यह जीव अनादि निधन है कर्मोंका प्रेरा भववनमें भटके है सर्व जन्ममें मनुष्य भव दुर्लभ है सो मनुष्य जन्म पाय कर जे भूले हैं तिनको धिक्कार है चतुर्गति रूप है भ्रमण जिममें ऐसा संसार रूप समुद्र उनमें बहुरि कब बोध पावोगे । जे अर्हतका ध्यान नहीं कर हैं अहो धिक्कार उनको, जे मनुष्य देह पाय कर जिने. न्द्रको न जपे हैं जिनेन्द्र कर्म रूप वैरीका नाशकरणहारा उसे भूल पापी नाना योनिमें भ्रमण करे है कभी मिथ्या तपकर क्षुद्र देव होय है बहुरि मरकर स्थावर योनिमें जाय महा कष्ट भोगे हैं यह जीव कुम र्गके आश्रयकर महा मोहके वश भए इन्द्रोंका इन्द्र जो जिनेन्द्र उसे नहीं ध्यावे हैं देखो मनुष्य होय कर मूर्ख विषय रूप मांसके लोभी मोहिनी कर्मके योगकर अहंकार ममकारको प्राप्त होय हैं जिनदीक्षा नहीं धरें हैं मंद भागियोंके जिन दीक्षा दुर्लभ है कभी कुतपकर मिथ्यादृष्टि स्वर्गसे आन उपजे हैं सो हीन देव होय पश्चाताप करे हैं कि हम मध्य लोक रत्नद्वीपमें मनुष्य भए थे सो अहतका मार्ग न जाना अपना कल्याण न किया मिथ्या तप कर कुदेव भए हाय हाय धिक्कार उन पापियों को जो कुशास्त्रकी प्ररूपणाकर मिथ्या उपदेश देय महामानके भरे जीवोंको कुमार्गमें डारे हैं मृहको जिनधर्म दुर्लभ है तातें भव भवमें देखी होय हैं अर नारकी तिर्यच तो दुखी ही हैं अर हीन देव भी दुखी ही हैं अर बडी ऋद्धिके धारी देव भी स्वर्गसे चये हैं मो मरणका बडा दुख है अर इष्ट वियोगका बडा दुख है बडे देवोंकी भी यह दशा तो और क्षुद्रोंकी कहा बात जो मनुष्य देहमें ज्ञान पाय आत्म कन्याण करे है सो धन्य हैं। इन्द्र या मांति कहकर बहुरि कहता भया ऐसा दिन कब होय जो मेरी स्वर्ग लोकमें स्थित पूर्ण होय अर मैं मनुष्य देह पाय विषय रूप वैरियोको जीत कर्मों का नाश कर तपके प्रभावसे मुक्ति पाऊ तब एक देव कहता भया यहां स्वर्गमें तो अपनी यही बुद्धि होय है परन्तु मनुष्य देह पाय भूल जाय हैं जो कदाचित मेरे कहे की प्रतीति न करो तो पंचम स्वर्गका ब्रमोंद्रनामा इन्द्र अब रामचन्द्र भया है सो यहां तो योंही कहते थे पर अब वैराग्यका विचार ही नही तब शचीका पति सौधर्म इन्द्र कहता भया सब बंधन में स्नेहका बडा बंधन है जो हाथ पग कंठ आदि अंग अंग बंधा होय मो तो छूटै परन्तु स्नेह रूप बंधन कर बंधा कैसे छूटे स्नेहका बंधा एक अंगुल न जाय सके रामचन्द्रके लक्ष्मणसे अति अनुराग है लक्ष्मणके देखे बिना तृप्ति नाहीं अपने जीवसे भी अधिक जाने Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुराण ३८२ है एक निमिष मात्र भी लक्ष्मणको न देखे तो रामका मन विकल होय जाग मो लक्ष्मणको तज कर कैसे वैराग्यको प्राप्त होय कर्मों की ऐसी ही चेष्टा है जो बुद्धिमान भी मूर्ख होय जाय हैं, देखो सुनों है अपने सर्व भव जिसने ऐसा विवेकी राम भी आत्म हित न करे। अहो देव हो ! जीवोंके म्नेहका बडा बंधन है या समान और नाहीं तातें सुबुद्धियों को स्नेह तज संसार सागर तिरिवेको यत्न करना चाहिए. या भांति इंद्रके मुखका उपदेश तयज्ञानरूप अर जिनवरके गुणोंके अनुराग से अत्यंत पवित्र उसे सुन कर देव चित्तकी विशुद्धताको पाय जन्म जरा मरणके भयसे कंपायमान भये मनुष्य होय मुक्ति पायवेकी अभिलाषा करते भये ॥ इतिश्रीरविजेणाचार्यविरचित महापद्मपराण संस्कृत प्रथ.ताकी भाषा व नकागिरी इंद्रका देवनिक उपदेश वर्णन करनेवाला एकप्तौं चौदहयां पर्व पूर्ण भया ।। ५१४ ।। अथानन्तर इन्द्र सभासे उठे तब सुर कहिए कल्पवासी देव पर असुर कहिए भवनवासी वितर ज्योतिषी देव इन्द्र को नमस्कारकर उत्तम भावथर अपने२ स्थानक गए, पहले दूजे स्वर्ग लग भवनवासी वितर ज्योतिषीदेव कल्पवासी देवोंकर ले गए जाय हैं सो सभामेंके दो स्वर्गवासी देव रत्नचूल अर मृगचूल बलभद्रनारायणके स्नेह परखिवेको उद्यमी भए, मनमें यह धारणा करी ते दोनों भाई परस्पर प्रेमके भरे कहिए है । देखें उन दोनों की प्रीति । रामके लदमणसे एता स्नेह हैं जाके देखे विना न रहै सो रामका मरण सुने लक्ष्मणकी क्या चेष्टा होय ? लक्ष्मण शोककर विह्वल भया क्या चेष्टा करै सो क्षणएक देखकर आवेगे शोककर लक्ष्मणका कैसा मुख हो जाय कौनसे कोप करे क्या कह ऐसी धारणाकर दोनों दुरावारी देव अयोध्या पाए सो रामके महलमें विक्रियाकर समस्त अन्तःपुरकी स्त्रिनिका रुदन शब्द कराया अर ऐसी विक्रिया करी द्वारपाल उमराव मन्त्री पुरोहित आदि नीचा मुखकर लक्ष्मणपै आए अर रामका मरण कहते भए, कि हे नाथ ! राम परलोक सिधारे ऐसे वचन सुनकर लक्ष्मणने मन्दपवनकर चपल जो नील कमल ता समान सुम्दर हैं नेत्र जाके सो हाय यह शब्द हू आधासा का तत्काल ही प्राय। तजे, सिंहासन फार बैठा हुना सो वचनला वजूपातका मारा जीव रहित होय गया आंख की पलक ज्यों थी त्यों ही रह गई जोव जाता रहा शरीर अचेतन रह गया लक्ष्मणको भ्राता की मिथ्या मृत्युके वचनरूप अग्निकर जरा देख दोनों देव व्याकुल भए लक्ष्मणके जिलायवेको असमर्थ तब विचारी याकी मृत्यु इस ही विध कही हुनी मनमें अति पछताए विषाद अर आश्चर्यके भरे अपने स्थानक गए शोकरूप अग्निकर तप्तायमान है चित्त जिनका लक्ष्मणकी वह मनोहर मूर्ति मृतक भई देव देख न सके तहां खडे न रहे निन्द्य है उद्यम जिनका । गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं-हे राजन! विना विचारे जे पापी कार्य करें तिनको पश्चातार ही होय । देवता गए पर लक्ष्मणकी स्त्री पतिको अचेतनरूप देख प्रसन्न करनेको उद्यमी भई कहे हैं-हे नाथ ! किसी अविवेकिनी सौभाग्य के गर्वकर गर्वितने आपका मान न किया सो उचित न करी हे देव ! आप प्रसन्न होवो तिहारी अप्रसन्नता हमको दुखका कारण है ऐसा कहकर वे परम प्रेमकी भरी लक्ष्मणके अंगसे आलिंगनकर पायन पडी वे राणी चतुराईके वचन कहिवेमें तत्पर कोई यक तो वीण लेय बजावती भई कोई मृदंग बजावती Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकमोपन्दहवां वर्ग भई पतिके गुण अत्यन्त मधुर स्वर से गावती भई पतिके प्रसन्न करिवेमें उद्यमी है चित्त जिनका कोई एक पतिका मुख देखे हैं पर पतिके वचन सुनिवेकी है अभिलाषा जिनके, कोई एक निर्मल स्नेहकी धरणहारी पतिके तनुसे लिपटतर कुण्डलकर मंडित महासुन्दर कांतके कपोला को स्पर्शनी भई अर कोई एक मधुरभाषिणी पतिके चरण कमल अपने सिरसर मेलती भई भर कोई मृगनयनी उन्मादकी भरी विभ्रमर कटाक्षरूप जे कमल पुष्प तिनका सेहरा रचती भई जम्माई लेती पतिको वदन निरख अनेक चेप्टा करती भई। या भांति यह उत्तम स्त्री पतिके प्रसन्न करिवेको अनेक यत्नकरें हैं परन्तु उनके यत्न अचेतन शरीर में निरर्थक भए वे समस्त राणी लक्ष्मण की स्त्री ऐसे कंपायमान हैं जैस कमलोंका वन पवन कर कंपायमान होय । नाथकी यह अवस्था होते संते स्त्रीयोंका मन अति व्याकुल भया संशयको प्राप्त भई कि क्षणमात्रमें यह क्या भया चितवनमें न आवे अर कथन में न श्रावे अर ऐसा खेदका कारण शोक उसे मनमें धरकर वे मुग्धा मोह की मारी पसर गई इन्द्रकी इन्द्राणी समान है चेष्टा जिनकी ऐसी वे राणी ताप कर तसायमान सूक गई न जानिए तिनको सन्दरता कहां जाती रही। यह वृत्तांत भीतर के लोकोंके मुखसे सुन श्रीरामचन्द्र मन्त्रियों कर मंडित महा संभ्रमके भरे भाई पै आए भीतर राजलोकमें गए लक्ष्मणका मुख प्रभातके चन्द्रमा समान मन्दकांति देखा जैसा तत्कालका वृक्ष मूनसे उखड पडा होय तेसा भाई को देखा ! मनमें चिंतवते भए यह क्या भया विना कारण भाई श्राज मोसे रूसा है यह सदा. आनन्द रूप आज क्यों विषादरूप होय रहा है स्नेहके भरे शीघ्र ही भाईके निकट जाय उसको उठाय उरसे लगाय मस्तक चूमते भर । दाहका मारा जो त उस समान हरिको निरख हलधर अंगसे लिपट गया यद्यपि जीतव्यता के चिंह रहित लक्ष्मण को देखा तथापि स्नेहके भरे राम उसे मूवा न जानते भए वक्र होय गई है ग्रीवा जिसकी शीतल होय गया है अंग जिसका जगतकी पागल ऐसी भुजा सो शिथिल होय गई सांसोवास नही नेत्रोंकी पलक लगे न विघटे । लक्ष्मणकी यह अवस्था देख राम खेदखिन्न होय कर पसेव से भर गए। यह दोनोंके नाथ राम दीन होय गये बारम्बार मूळ खाय पडे आंसुवो कर भर गए हैं नेत्र जिनके भाई के अंग निरखे इसके एक नख की भी रेखा न आई कि ऐसा यह महावली कौन कारणकर ऐसी अवस्थाको प्राप्त भया यह विचार करते संते भया है कंपायमान शरीर जिनका यद्यपि आप सर्व विद्याके निधान तथापि भाईके मोहकर विद्या विसर गई , मूर्खाका यत्न जानें ऐसे वैद्य बुलाए मंत्र औषधि प्रयोण कलाके पारगामी ऐसे वैद्य पाये सो जीवता होय तो कछु यत्न करें वे माथा धुन नीचे होय रहे तब राम निराश होय मूळ खाय पडे जैसे पक्की जड उखाड जाय अर वृक्ष गिरे पडे तसे आप पडे । मोतियोंके हार चन्दन कर मिश्रित जल ताडके बीजनावोंकी पवनकर रामको सचेत किया सब महा विह्वल होय विलाप करते भए शोक अर विपादकर महा पीडित राम पा सुवोंके प्रभाव कर अपना मुख आच्छादित करते भये आसुओं कर माच्छादित रामका मुख ऐसा भासे जैसा जल धारा कर आच्छादित चन्द्रमा Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ षभ पुराग भासे अत्यन्त विव्हल रामको देख सब राजलोकरूप समुद्रसे रुदनं रूप ध्वनि प्रगट होगी भई दुखरूप सागरमें मग्न सकल स्त्री जन अत्यर्थपणे, रुदन करती 'भई तिनके शब्द कर दशो दिशा पूर्ण भई कैसे विलाप करें है हाय नाथ पृथिवीको आनन्दके कारण सर्व सुन्दर हमको वचन रूप दान देवो तुमने बिना अर्थ क्यों मौन पकडी हमारा अपराध क्या विना अपराध हमको क्यों तजी हो तुम तो ऐसे दयालु हो जो अनेक चूक पडे तो क्षमा करो। अथानन्तर इस प्रस्ताव में लवण अंकुश परमविषादको प्राप्त होय विचारते भए कि धिक्कार इस संसार असारको अर इस शरीर समान और क्षणभंगुर कौन जो एक निमिष मात्रमें मरणको प्राप्त होय । जो वासुदेव विद्याधरोंकर न जीता जाय सो भी कालके जाल में आय पडा इसलिये यह विनश्वर शरीर यह विनश्वर राज्य संपदा उसकर हमारे क्या सिद्धि ? यह विचार सीताके पुत्र फिर गर्भ में प्रायवेका है भय जिनको, पिताके चरणारबिन्दको नमस्कार कर महेन्द्रोदय नामा उद्यान में जाय अमृतेश्वर मुनिकी शरण लेय दोनों भाई महाभाग्य मुनि भए जब इन दोनों भाई योंने दीक्षा धरी तब लोक अतिव्याकुल भए कि हमारा रक्षक कौन ? रामको भाई के मरणका बडा दुख सो शोकरूप भंवरमें पडे, जिनको पुत्र निकसनेकी कुछ सुध नहीं रामको राज्यसे पुत्रोसे प्रियायोंसे अपने प्राणसे लक्ष्मण अतिप्यारा यह कर्मोकी विचित्रता जिसकर ऐसे जीवोंकी ऐसी भशुभ अवस्था होय ऐसा संसार का चरित्र देख ज्ञानी जीव वैराग्यको प्राप्त होय हैं जे उत्तम जन हैं तिनके कछु इक निमित्त मात्र वाह्य कारण देख अंतरंग के विकारभाव दर होय ज्ञान रूप सूर्यका उदय होय है पूर्वोपार्जित कर्मोका क्षयोपशम होय तब वैराग्य उपजे है । - इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण सस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै लक्ष्मणका मरण अर लवणांकशका वैराग्य वार्णन करनेवाला एकसौ पन्द्रहवां पर्वा पुर्ण भया॥१५॥ __ अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणि कसे कहे हैं-हे भव्योत्तम ! लक्ष्मणके काल प्राप्त भए समस्त लोक व्याकुल भए अर युगप्रधान जे राम सो अति व्याकुल रोय सब बातोंसे रहित भए कछु सुध नहीं लक्ष्मणका शरीर स्वभाव ही कर महासुरूप कोमल सुगन्ध मृतक भया तो जैसेका तैसा सो श्री राम लक्ष्मणको एक चण न तजे कवहूं उरसे लगाय लेय कभी पपोले कभी चूबे कबहू इसे लेकर आप बैठ जावें कभी लेकर उठ चले एकक्षण काहूका विश्वास नकर एक क्षण न तजे जैसे बालकके हाथ अमृत पावै अर वह गादार गहैं तैसे राम महा प्रियजो लक्ष्मण उसको गाढा २ गहैं । अर दीनोंकी नाई विलाप करें हाय भाई ! यह तोहि कहा योग्य जो मुझ तजकर तैने अकेले भाजिकी बुद्धि करी । मैं तेरा विरह एक क्षण सहारवे समर्थ नाहीं यह बात कहा न जाने है तू तो सब बातोंमें प्रवीण है अब मोहि दुखके सागरमें डारकर ऐसी चेष्टा करे हैं हाय भ्रात ! यह क्या कर उद्यम किया जो मेरे बिना जाने मेरे बिना पूछे कूचका नगारा बजाय दिया । हे वत्स ! हे बालक ! एक बार मुझे वचनरूप अमृत प्याय, तूतो अति विनयवान् हुता विना अपराध मोसे क्यों कोप किया, हे मनोहर ! अब तक कभी मोसे ऐसा मान न किया अब कछु और ही होय गया । कह मैं क्या किया, जो तू रूसा, तू सदा ऐसा विनय करना मुझे दूरसे देख उठ खडा होय सन्मुख आवता मोहि सिंहासन ऊपर बैठावता आप भूमिमें बैठाता अब कहा दशा भई, मैं Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकमोलोजहवा पक्ष अपना सिर तेरे पायनमें दूं तोभी नहीं बोले हैं तर चरण कमल चन्द्रकांति मणिसे अधिक ज्योतिको धरे जे नखोकर शोभित देव विद्याधर संवे हैं । हे देव ! अब शीघ्र ही उठो मेरे पुत्र वन को गये दूर न गये हैं तिनको हम तुरतही उलटालावे पर तुम विना यह तिहारी राणी आर्तध्यानकी भरी कुरचीकी नाई कल कलाट करे हैं तुम्हारे गुणरूप पाशसों बंधी पृथिवीमें लोटी लोटी फिर हैं तिनके हार विखर गए हैं और सीम फल चूडामणि कटिमेख ना कभरण विखरे फिरे हैं यह महा विलापकर रुदन कर हैं अति श्राकुल हैं इनको रुदनसे क्यों न निवारो अब मैं तुम विना कहा करू कहां जाऊं? ऐना स्थानक नाहीं जहां मोहि विश्राम उपजै अर यह तिहारा चक्र तुमसे अनु क्त इसे तजना तुमको कहा उचित अर तिहारे वियोगमें मोहि अकेला जान यह शोकरूप शत्रु दवाब है अब मैं हीन पुण्य कहा करू ? माहि अग्नि ऐसे न दहे अर ऐसा विष कंठको न सोख जैसा तिहारा विरह सोखे हैं । अहो लक्ष्मीधर, क्रोय तज धनी बेर भई अर तुम असे धर्मात्मा त्रिकाल सामयिकके करणहारे जिनराज की पूजामें निपुण मो सामायिकका समय टल पूजाका समय टला अब मुनिनिके आहार देयवेकी वेला है सो उठो। तुम सदा साधुनिके सेवक ऐया प्रमाद क्यों करो हो, अब यह सूर्य भी पश्चिम दिशाको आया काल सरोवर में मुद्रिन होय गये तैसे तिहारे दर्शन विना लोकोंके मन मुद्रित होग गये या प्रकार विलाप करते २ दिन व्य .ीत भय निशा भई तब राम सुन्दर सेज बिछाय भाई को भुजावोंमें लेय सूते, किसी का विश्वास नाहीं रामने सब उद्यम तजे एक लक्ष्मणमें जीर, रात्रिको कानों में कहे हैं-हे देव ! अब तो मैं अकेला हूं तिहारे जीवकी बात मोहि कहो तुम कौन कारण असी अवस्थाको प्राप्त भये हो तिहारा वदन चन्द्रमात अतिमनोहर अब कांतिरहित क्यों मासे हे र तिहारे नंत्र मंद पवनकर चंबल जो नील कमल उस समान अब और रूप क्यों भासे है अहो तुमको कहा चाहिए सो ल्याऊ हे लक्ष्मण ! ऐसी चेष्टा करनी तुमको साई नाही, जो मन में होय सो मुखकर आज्ञा करो अथवा मीता तुमको याद आई होय वह पतिव्रता अपने दुखमें सहाय थी सो तो अब परलोक गई तुमको खेद करना नाही, हे धीर ! विषाद तजो विद्याधर अपने शत्रु हैं सो छिद्र देखाए प्रब अयोध्या लुटेगी तातें यत्न करना होय सो करो पर हे मनोहर ! तुम काहसे क्रोध ही करते तब ऐसे अप्रसन्न देखे नहीं अब ऐसे अप्रसन क्यों भासो हो । हे वत्म, अब ये चेष्टा तजो प्रसन्न होवो मैं तिहारे पायन परू हूं नमस्कार करू हूं तुमतो महा विनयवंत हो सकल पृथ्वीमें यह बात प्रसिद्ध है कि लक्ष्मण रामका प्राज्ञाकारी सदा सन्मुख है, कभी परांगमुख नाहीं, तुम अतुल प्रकाश जगतके दीपक हो, मत कभी ऐसा होय जो काल रूप वायुकर बुझ जावो । हे राजनीके राजन ! तुमने या लोकको अति आनन्द रूप किया तिहारे राज्यमें अचैन किसीने न पाया। या भरत क्षेत्रके तुम नाथ हो अब लोकों अनाथ कर गमन करना उचित नहीं, तुमने चक्र कर शत्रुनिके सकल चक्र जीते अब कालचक्र का पराभव कैसे सहो तिहारा यह सुन्दर शरीर राज्य लक्ष्मी कर जैसा सोहता था, वैसाही मूर्छित भया सोहै है । हे राजे द्र ! अब रात्रि भी पूर्ण भई संध्या फूली सूर्य उदय होय गया अब तुप निद्रा तजो तुम जैसा ज्ञाता श्रीमुनिसुव्रतनाथके भक्त Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभातका समय क्यों चूको हो, जो भगवान वीतरागदेव मोहरूप रात्रिकों हर लोकालोकका प्रकट करणहारा केवलज्ञानरूप प्रताप करते भए, वे त्रैलोक्यके सूर्य भव्यजीवरूप कमलों को प्रकट करणहारे तिनका शरण क्यों न लेवों पर यद्यपि प्रभान समय भया परंतु मुझ अंधकार ही भासे है क्योंकि मैं तिहारा मुख प्रसन्न नाहीं देखू, तात हे विचक्षण ! अब निद्रा तजो, जिनपूजाकर सभामें तिष्ठो सब सामंत तिहारे दर्शनको खडे हैं, बडा आश्चर्य है सरोवरमें कमल फूले तिहारा वदनकमल मैं फूला नहीं देखू हूं, ऐमी विपरीत चेष्टा तुमने अब तक कभी भी नहीं करी, उठो राज्यकार्यमें चित्त लगावो हे भ्रात ! तिहारी दीर्घ निद्रासे जिनमंदिरोंकी सेवामें कमी पडै है, संपूर्ण नगरमें मंगल शब्द मिट गए गीत नृत्य वादित्रादि बंद हो गये हैं औरोंकी कहा बात ? जे महाविरक्त मुनिराज हैं तिनको भी तिहारी यह दशा सुन उद्वग उपजै है तुम जिनधर्मके धारी हो सव ही साधर्मीक जन तिहारी शुभदशा चाहे हैं वीण बांसुरी मृदंगा दिककै शब्दरहित यह नगरी तिहारे वियोगकर व्याकुल भई नहीं सोहै है कोई अगिले भवमें महाअशुभ कर्म उपार्जे तिनके उदयकर तुम सारिखे भाई की अप्रसन्नतासे महाकष्ट को प्राप्त भया हूँ। हे मनुष्योंके सूर्य जैसे युद्ध में शक्तिके घावकर अचेत होय गए थेअर अानंदसे उठे मेरा दुख दूर किया तैसे ही उठकर मेरा खेद निवारो॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै रामदेवका विलाप वर्णन करनेवाला एकसौ सोलहवां पर्व पर्ण भया ॥ १६॥ अथानन्तर यह वृत्तांत सुन विभीषण अपने पुत्रनि महित अर विराधित मकल परिवार सहित अर सुग्रीव आदि विद्याधरनिके अधिपति अपनी स्त्रीयों सहित शीघ्र अयोध्यापुरी पाए सुनकर भरे हैं नेत्र जिनके हाथ जोड सीस निवाय रामके ममीप आए महा शोकरूप हैं चित्त जिनके प्रति विषादके भरे रामको प्रणामकर भूमिमें बैठे, क्षण एक तिष्ठकर मंद२ वाणीकर विनती करते भए-हे देव ! यद्यपि यह भाईका शोक दुनिवार है तथापि श्राप जिनवाणीके ज्ञाता हो सकल संसारका स्वप जानो हो तातें आप शोक तजिवे योग्य हो, ऐसा कह सबही चुप होय रहे बहुरि विभीषण सब बातमें महा विचक्षण सो कहता भग-हे महाराज ! यह अनादि कालकी रीति है कि जो जन्ना सो मूवा, सब संसारमें यही रीति है इनहीको नाहीं भई जन्म का साथी मरण है मृत्यु अवश्य है काहूंसे न टी पर न काहूसे टरे या संसार पिंजरेमें पडे यह जीवरूप पक्षी सबही दुखी हैं कालके वश हैं मृत्यु का उपाय नाहीं पर सबके उपाय हैं यह देह निसंदेह विनाशीक हैं तातै शोक काना क्या है, जे प्रीण पुरुष हैं वे प्रात्मकल्याणका उपाय करें हैं रुदन किएसे मरा न जीवे अर न वचनालाप करे, तात हे नाथ ! शोक न करो यह मनुष्यनिके शरीर तो स्त्रो पुकानिके संगरोगने उपजे हैं सो पानीके वुदबुदावत बिलाय जांय इसका पाश्चर्य कहा अहमिंद्र इन्द्र लोहमाल आदि देव आयुके क्षय भए स्वर्गसे चय हैं जिनकी सामगेकी आयु अर किसीके मारे न मरें वे भी काल पाय मरें मनुष्यनिकी कहा बात यह तो गर्भके खेदकर पीडित अर रोगनिकर पूर्ण डामकी अणीके ऊार जो ओस की बूंद आय पडे उस समान पडनेको सन्मुख है महा मलिन हाडों के पिंजरे ऐसे शरीर के रहिवेको की कहा आशा यह प्रागी अपने सुजनोंका सोच करें मो अप क्या अजर अमर हैं आपही कालकी दाद Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसीसत्तरहवा पर्व ५. में बैठे हैं उसका सोच क्यों न करें ? जो इनही की मृत्यु आई होंय अर और अमर हैं तो रुदन करना जब सबकी यही दशा है तो रुदन काहेका, जेते देहधारी हैं तेते सव कालके आधीन हैं सिद्ध भगवानके देह नाहीं तात मरण नाहीं यह देह जिस दिन उपजा उसही दिनसे काल इसके लेयवेके उद्यममें हैं यह सब संसारी जीवोंकी रीति है तात संतोष अंगीकार करो इष्टके वियोगसे शोक करे सो वृथा है शोक कर मरै तोभी वह वस्तु पीछे न आवै तातै शोक क्यों करिये देखो काल तो वज्रदण्ड लिए सिर पर खड़ा है अर संसारी जीव निर्भय भए तिष्ठे हैं जैसे सिंह तो सिर पर खडा है अर हिरण हरा तृग चरे है त्रैलोक्यनाथ परमेष्ठी पर सिद्ध परमेश्वर तिन सिवाय कोई तीन लोकमै मृत्युसे बचा सना नाहीं वेही अमर हैं और सब जन्म मरण करें हैं यह संमार विध्याचलके वन समान कालरूप दावानल समान बल है तुम क्या न देखो हो ?. यह जीव संसार वनमें भ्रमण कर अति कष्टसे मनुष्य देह पावे हे सो वृथा खोवै है काम भोगके अभिलाषी होय माते हाथीकी न्याई बंधनमें पडे हैं नरक निगोदके दुख भोगवे हैं कभी एक पवहार धर्मकर म्बर्गमें देव भी होय हैं आयुके अंतमें वहांसे पडे हैं जैसे नदीके ढाहेका वृक्ष कभी उखडे ही तेमे चरा गतिके शरीर मृत्युरूप नदीके ढाहेके वृक्ष हैं इनके उखाडवे का का आश्चर्य है, इन्द्र धरणेंद्र चक्रवर्ती आदि अनन्त नाशको प्राप्त भए जैसे मेषकर दावानल बुझ तैसे शांतिरूप मेषकर कालरूप दावानल बुझ और उपाय नाही पाताल में भूतल में पर स्वर्ग में ऐसा कोई स्थान नहीं जहां कालसे र बचे, छठे कालके अन्त इस भरत क्षेत्रमें प्रलय होयगी पहाड विलय हो जावेंगे तो मनुष्य की कहा वात ? जे भगवान तीर्थकर देव वजवृषभनारा वसंहननके धारक जिनके समचतुरस्त्रसंस्थानक सुर असुर नरों कर पूज्य जो किसी कर जीते न जांय तिनका भी शरीर अनित्य वेभी देह तज सिद्धलोकमें निज भावरूप रहै तो औरों का देह कैसे नित्य होय ? सुर नर नारक तिर्यचोंका शरीर केले के गर्भ समान असार हैं । जीव तो देहका यत्न करे हैं । अर काल प्राण हरे है जैसे बिलके भीतरसे गरुण सर्पको ले जाय तैसे यह देह के भीतरसे जीवको काल लेजाय है, यह प्राणी अनेक मूबोको रोवे है हाय भई , हाय पुत्र ,हाय मित्र या मांति शोक करे हैं पर कालरूप सर्प सवों को निगले हैं जैसे सर्ग मींडकको निगले, यह मूढ बुद्धि झूठे विकल्प करे हैं यह मैं किया यह मैं करू हू यह करूगा सो ऐसे विकल्प करता कालके मुखमें जाय है जैसे टूटा जहाज समुद्र के तले जाय, परलोकको गया जो सजन उसके लार कोई जाय सकें तो इष्टका वियोग कभी न होय जो शरीरादिक परसस्तु से स्नेह करे हैं सों क्लेशरूप अग्निमें प्रवेश करे हैं। पर इन जीवोंके इस संसारमें एते स्वजनों के समूह भए जिनकी संख्या नाही जे समुद्र की रेणुकाके कण तिनसे भी अपार हैं अर निश्चय कर देखिए तो इस जीवके न कोई शत्रु है न कोई मित्र है, शत्रु तो रागा. दिक हैं, अर मित्र ज्ञानादिक हैं। जिनको अनेक प्रकारकर लडाईये अर निज जानिए सो भी वैरको प्राप्त भया ताहिको महा रोषकर हणे जिसके स्तनों का दुग्ध पाया जिसकर शरीर वृद्ध भया ऐसी माताको भी हने हैं धिक्कार हैं इस संसारकी चेष्टाको जो पहले स्वामी था पर बार२ नमस्कार Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ-पुर करावता सो भी दास होय जाय है तब पायोंकी लातोंसे मारिये है, हे प्रभो ! मोहकी शक्ति देखो इसके वश भया यह जीव आपको नहीं जाने है परको आप माने है, जैसे कोई हाथकर कारे नागको गहे तैसे कनक कामिनीको गहे है इस लोकाकाशमें ऐसा तिलमात्र क्षेत्र नाहीं जहां जीवने जन्म मरण न किए अर नरकमें इसको प्रज्वलित ताम्बा प्याया अर एती वार यह नरकको गया जो उसका प्रज्वलित ताम्रपान जोडिये तो समुद्र के जलसे अधिक होय पर सूकर कूकर गर्दभ होय इस जीवने एता मलका आहार कीया जो अनन्त जन्मका जोडिए तो हमारों विंध्याचलकी राशि से अधिक होय अर या अज्ञानी जीवने क्रोधके वशसे एते पराए सिर छेदे पर उन्होंने इसके छेदे जो एकत्र करिए तो ज्योतिष चक्रको उलंघ कर यह सर अधिक होवें यह जीव नरक प्राप्त भया वहां अधिक दुख पाया निगोद गया वहां अनन्त काल जन्म मरण किए यह कथा सुनकर कोन मित्र से मोह माने एक निमिष मात्र विषयका सुख उसके अर्थ कौन अपार दुख सहे, यह जीव मोहरूप पिशाच के वश पडा उन्मत्त भया ससार वनमें भटके है । हे श्रेणिक ! विभीषण रामसे कहे हे हे प्रभो ! मह लक्ष्मणका मृतक शरीर तजवे योग्य है । अर शोक करना योग्य नाहीं यह कलेवर उर सेलगाय रहना योग्य नाही, या भांति विद्याधरनिका सूर्य जो विभीषण उसने श्रीरामसे विनती करी अर राम महा विवेकी जिनसे और प्रति बुद्ध होय तथापि मोहके योगसे लक्ष्मणकी मूर्तिको न वजी जैसे विनयवान गुरु की आज्ञा न तजै। इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाविौं लक्ष्मणका बियोग रामका बिलाप अर विभीषणका संसारस्वरूप वर्णन करनेवाला एकसौ सत्रहवा पर्ण पूर्ण भया ।। ११७ ।। अथानन्तर सुग्रीवादिक सब राजा श्रीरामचन्द्रसे वीनती करते भये अब वासुदेवकी दग्ध क्रिया करो तब श्रीराम को यह वचन अति अनिष्ट लगा अर क्रोध कर कहते भए तुम अपने माता पिता पुत्र पौत्र सबोंकी दग्ध क्रिया करो, मेरे भाईकी दग्ध क्रिया क्यों होय जो तुम्हारा पापियोंका मित्र बन्धु कुटुम्ब सो सब नाशको प्राप्त होय मेरा भाई क्यों मरे उठो उठो लक्ष्मण इन दुष्टिनके संयोगते और ठौर चले जहां इन पापिनके कटु वचन न सुनिये ऐसा कह भाईको उरसे लगाय काधे धर उठ चले विभीषण सुग्रीवादिक अनेक राजा इनकी लार पीछे २ चले आवें राम काहूका विश्वास न करें। भाईको कांधे धरें फिरें जैसे बालकके हाथ विषफल आया पर हितू छुडाया चाहे वह न छोडे तैसे राम लक्ष्मणके शरीरको न छोडे आंसूनिकर भीग रहे हैं नेत्र जिनके भाईसे कहते भए -हे भ्रात ! अब उठो बहुत बेर भई ऐसे कहा सोवो हो अब स्नानकी बेला भई स्नान के सिंहासन बिराजो ऐसा कह मृतक शरीरको स्नानके सिंहासनपर बैठाया अर मोह का भरा राम मणि स्वर्णके कलशोंसे भाईको स्नान करावता भया अर मुकुट आदि सर्व आभूषण पहिराये पर भोजनकी तैयारी कराई सेवकों को कही नाना प्रकार रत्न स्वर्णाके भाजनमें नाना प्रकारका भोजन ल्यावो उसकर भाईका शरीर पुष्ट होय सुन्दर भात दाल फुलका नानाप्र. कारके व्यंजन नाना प्रकारके रस शीघ्र ही ल्यावो यह आज्ञा पाय सेवक सब सामिग्री कर लाये नाथके आज्ञाकारी तब आप रघुनाथ लक्ष्मणके मुख में ग्रास देंय सो न असे जैसे अभव्य जिनराजका उपदेशन ग्रहै तब आप कहते भए जो तैने मोसे कोप किया तो आहारसे कहा कोप ! आहार तो Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौअठारहवां पर्ण करो मोसे मत बोलो जैसे जिनवाणी अमृत रूप है परन्तु दीर्घ संसारीको न रुचे तैसे वह अमृतमई आहार लक्ष्मणके मृतक शरीरको न रुचा फिर रामचन्द्र कहे हैं-हे लक्ष्मीधर यह नानाप्रकारकी दुग्धादि पीवने योग्य वस्तु सो पीवो ऐमा कह भाईको दग्धादि प्याया चाहे सो कहा पीवे । यह कथा गौतम स्वामी श्रेणिकसे कहे हैं वह विवेकी राम स्नेह कर जैसी जीवतेकी सेवा करिये सैसी मृतक भाईकी करता भया अर नाना प्रकारके मनोहर गीत वीण बांसुरी आदि नाना प्रकारके नाद करता भया सो मृतकको कहा रुचे ? मानों मरा हुआ लक्ष्मण रामका संग न तजता भया । भाईको चन्दनसे चर्चा भुजाओंसे उठाय लेय उरसे लगाय सिर चुम्बे मुख चुम्बे हाथ चुम्बे अर कहे है-हे लक्ष्मण यह क्या भया तू तो कभी ऐमा न सोवता अब तो विशेष सोवने लगा अब निद्रा तजो या भांति स्नेह रूप ग्रहका ग्रहा वलदेव नाना प्रकारकी चेष्टा करै । यह वृत्तांत सघ पृथ्वीमें प्रकट भया कि लक्ष्मण मूवा लवण अंकुश मुनि भये पर राम मोहका मारा मूढ होय रहा है तब वैरी क्षोभको प्राप्त भये जैसे वर्षाऋतुका समय पाय मेघ गाजे शंबूकका भाई सुन्दर इसका नंदन विरोधरूप हैं चित्त जिसका सो इन्द्रजीतका पुत्र वज्रमाली पै पाया पर कही मेरा बाबा अर दादा दोनों लक्ष्मणने मारे सो मेरा रघुवंशिनिसे वैर है अर हमारा पाताल लंकाका राज्य लिये अर विराधितको दिया अर वानरवंशियोंका शिरोमणि सुग्रीव स्वामी द्रोही होय रामसे मिला सो राम समुद्र उलंघ लंकाआये राक्षस द्वीप उजाडा रामको सीताका अतिदुख सोलंका लेयवेका अभिलाषी भया सिंहवाहिनी अर गरुड वाहिनी दोय महा विद्या राम लक्ष्मणको प्राप्त भई तिनकर इन्द्रजीत कुम्भकर्ण बन्दीमें किये पर लक्ष्मण के चक्र हाथ आया उसकर रावणको हता अब काल चक्र कर लक्ष्मण मूवा सो वानरवंशियों की पक्ष टूटी वानरवशी लक्ष्मण की भुजावोंके आश्रयसे उन्मत्त होय रहे थे प्रब क्या करेंगे वे निरपक्ष भये अर रामको ग्यारह पक्ष होय चुके बारहवां पक्ष लगा हैं सो गहला होय रहा है भाईके मृतक शरीरको लिये फिर हैं ऐमा मोह कौनको होय ? यद्यपि राम समान योथा पृथ्वीमें और नहीं बह हल मूशलका धरणहारा अद्वितीय मल्ल हैं तथा भाईके शोक रूप कीचमें फंसा निकसवे समर्थ नहीं सो अव रामसे वैर भाव लेनेका दाव है जिसके भाई ने हमारे वंशके बहुत मारे शंबूकके भाईके पुत्रने इन्द्रजीतके बेटे को यह कहा सो क्रोधकर प्रज्व. लित भया मंत्रियोंको आज्ञा देय रणभेरी दिवाय सेना मेली कर शंबूकके भाईके पुत्र सहित अयोध्याकी ओर चला सेना रूप समुद्र को लिए प्रथम तो सुग्रीव पर कोप किया कि सुग्रीवको मार अथवा पकड उसका देश खोंसले बहुरि रामसे लडे यह विचार इन्द्रजीत के पुत्र बज्रमालीने किया सुन्दरके पुत्र सहित चढ़ा तब ये समाचार सुन कर सर्व विद्याधर जे रामके सेवक थे वे रामचन्द्रके निकट अयोध्यामें आय भेले भए जैसी भीड अयोध्यामें लवण अंकुशके प्रायवेके दिन भई थी तैसी भई । वैरियोंकी सेना अयोध्याके निकट आई सुन कर रामचन्द्र लक्ष्मणको कांधे लिये ही धनुष बाण हाथ में समारे विद्याधरनिकोको संग लेय आप बाहर निकसे उस समय कृतांतवक्रका जीव अर जटायु पत्तीका जीव चौथे स्वर्ग देव भए थे तिनके आसन कम्पायमान भए, कृतांतवक्रका जीव स्वामी पर जटायु पक्षी का जीव सेवक सो कुतांतवक्र का जीव जटायुके जीवसे कहता भया Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभ.पुरा है मित्र आज तुम क्रोथरूप क्पों भये हो तब वह कहता भया जब मैं गृहपक्षी था तो रामने मुझे प्यारे पुत्रकी न्याई पाला पर जिनधर्मका उपदेश दिया मरण समय नमोकार मंत्र दिया उसकर मैं देव भया अब वह तो माईके शोक कर तप्तायमान है अर शत्रुकी सेना उसपर आई है तबकृतांतवक्र का जीव जो देव था उसने अवधि जोडकर कही-हे मित्र मेरा वह स्वामी था मैं उसका सेनापति था मुझे बहुन लडाया भ्रात पुत्रोंसे भी अधिक गिना अर मेरे उनके वचन हैं जब तुमको खेद उपजेगा तब तिहारे पास मैं पाऊंगा, सो ऐसा परस्पर कहकर वे दोनों देव चौथे स्वर्गके वासी सुन्दर प्राभूषण पहिरे मनोहर है केश जिनके सो अयोध्याकी ओर आए दोनो विचक्षण परस्पर दोनों बतलाए कृतांतवकके जीयने जटायुके जीवसे कहा तुम तो शत्रुकी सेनाकी ओर जावो उनकी बुद्धि हरों पर मैं रघुनाथ के समीप जाऊहूं तब जटायुका जीव शत्रुओं की ओर गया कामदेवका रूपकर उनको मोहित किया पर उनको ऐसी माया दिखाई जो अयोध्याके आगे अर पीछे दुरगम पहाड खडे हैं पर अयोध्या अपार है यह अयोध्या काहसे जीती न जाय यह कोशलीपुरी सुभटों कर भरी है कोट आकाश लग रहे हैं अर नगरके बाहिर भीतर विद्याधर भरे हैं हमने न जानी जो यह नगरा महा विषम है धरतीमें देखिए तो आकाशमें देखिए तो देव विद्याधर भर रहे हैं अब कोन प्रकार हमारे प्राण बचे कैसे जीवते घर जावे जहां श्रीराम देव विराजें सो नगरी हमसे कैसे लई जाय, विक्रियाशक्ति विद्याधरनिमें कहां ? हम ऐसी विना विचरे ये काम किया जो पटबीजना सूर्यसे वैर विचारे तो क्या कर सके अब जो भागो तो कोन राह होयकर भागो म र्ग नहीं या भांति परस्पर वार्ता कर कांपने लगे समस्त शत्रुओं की सेना विह्वल भई तब जटायुके जीवने देव विक्रियाकी क्रीडा कर उनको दक्षिणकी ओर भागनेका माग दिया वे सब प्राण रहित होय कांपते भागे जैसे पिचान आगे परे वे भ.गें। आगे जाय कर इन्द्रजीतके पुत्रने विचारी जो हम विभीषणको कहा उत्तर देगें अर लोकको कहा मुख दिखावेगे ऐया विचार लज्जात्रान् होय सुन्दरके पुत्र चारो रत्न सहित अर विद्याधरनि सहित इन्द्रजीतके पुत्र वज्र माली रतिवेग नामा मुनिके निकट मुनि भए, तब यह जटायुका जीव देव उन साधु प्रोंका दर्शन कर अपना सफल वृतांत कह क्षमा कराय अयोध्या आया जहां राम भाईके शोककर बालककीसी चेष्टा कर रहे हैं जिनके संबोधवेके अर्थ वे दोनों देव चेष्टा करते भए. कृतांतवक्र का जीव सूके वृक्ष को सींचने लगां पर जटायुझा जीव मृतक बैल युगल तिन कर हलवाहवेका उद्यमी भया अर शिला ऊपर बीज बोने लगा सो ये भी दृष्टांत रामके मनमें न आया बहुरि कृतांतवक्र का जीव रामके आगे जलको घृतके अर्थ विलोक्ता भया अर जटायुका जीव बालू रेतको पानीमें तेलके निमित्त पेलता भया सो इन दृष्टां नि कर रामको प्रतिबोध न भया अर अनेक कार्य इसी भांति देवोंने किए तब रामने पूछी तुम बड़े मूह हो, सूका वृत सींचा सो कहा अर मूवे बैनोसे हल वाहना करो सो कहा अर शिला कार चीज बोवना मो कहा अर जनका विलोवना पर बालूका पेलना इत्यादि कार्य किए सो कोन अर्थ ? तब वे दोनों कहते भए तम भाईके मृतक शरीरको वृथा लिए फिरो हो उसमें क्या ? यह वचन सुन कर लक्ष्मणको गाहा उरसे लगाय Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौअठारहवा 4 पृथिवीका पति जो राम सो क्रोध करि कहता भया हे कुबुद्धि हो मेरा भाई पुरुषोत्तम उसे अमंगलके शब्द क्यों कहो हो ऐसे शब्द बोलते तुमको दोष उपजेगा या भति कृतांतवकके जीवके और रामके विवाद होय है उस ही समय जटायुका जीव मूवे मनुष्य का कलेवर लेय रामके आगे आया उसे देख राम बोले मरेका कलेवर काहेको कांधे लिए फिरो हो तब उसने कही तुम प्रवीण होय प्राणरहित लक्ष्मणके शरीर क्यो लिए फिरो हो पगया अणुमात्र भी दोष देखो हो अर अपना मेरु प्रमाण दोष नहीं देखो हो, सारिखेकी सारिखेमे प्रीति होय है मो तमको मूढ देख हमारे अधिक प्रोति उपजी है हम वृथा कार्यके करणहारे तिनमें तुम मुख्य हो हम उन्मत्त ताकी ध्वजा लिए फिरे हैं सो तुमको अति उन्मत्त देख तुम्हारे निकट पाए हैं। या भांति उन दोनों मित्रोंके वचन सुन राम मोहरहित भया शास्त्रनिके वचन चितार सचेत भए जैसे सूर्य मेघ पटलसे निकस अपनी किरण कर देदीप्यमान भासे तैसे भरतक्षेत्रका पति राम साई भया भानु सो मोहरूप मेघपटलसे निकम ज्ञानरूप किरणनिकर भासता भया, जैसे शरदऋतुमें कारी घटासे रहित आकाश निर्मल सोई तैसे रामको मन शोकरूप कर्दमसे रहित निर्मल भासता भया, राम समस्त शास्त्रनिमें प्रवीण अमृत समान जिनवचन चितार खेदरहित भए, धीरताके अवलंवनकर ऐसे सोहै जैसा भगवानका जन्माभिषेक में सुमेरु सोहै जैसे महा दाहके शीतल पवन के स्पर्शसे रहित कमलोंका वन सोहे अर फूले तैसे शोकरूप कलुषतारहित रामका चित्त विकसता भया जैसे कोई रात्रीके अन्धकारमें मार्ग भूल गया था और सूर्यके उदय भए मार्ग पाय प्रसन्न होय अर महा क्षुधाकर पीडित मन वांछित भोजन खाय अत्यन्त आनन्दको प्राप्त होय पर जैसे कोई समुद्रके तिरिवेका अभिलाषी जहाजको पाय हर्षरूप होय अर वनमें मार्ग भूला नगरका मार्ग पाय खुशी होय अर तपाकर पीडित महासरोवरको पाय सुखी होय, रोग कर पीडित रोगहरण औषध को पाय अत्यन्त आनन्दको पावै, अर अपने देश गया चाहे पर साथी देख प्रसन्न होय अर बंदीगृहसे छूटा चाहै अर बेडी कट जैसे हर्षित होय तैसे रामचन्द्र प्रतिबोधको पाय प्रसन्न भए। प्रफुल्लित भया है हृदय कमल जिनका परम कांतिको धारते आपको संसार अंधकूपसे निकसा मानते भए, मनमें जानी नवा जन्म पाया श्रीराम विचार हैं अहो डाभकी अणीपर पडी ओंसकी बूंद ता समान चंचल मनुष्य का जीतव्य एक क्षणमात्रमें नाशको प्राप्त होय है चतुर्गति संसारमें भ्रमण करते मैंने अत्यन्त कष्टसे मनुष्य शरीरको पाया सो पृथा खोया कौन के भाई, कौन के पुत्र, कौन का परिवार, कौन का धन कौनकी स्त्री ? या संसारमें या जीवने अनंत संबंधी पाये एक ज्ञान दुर्लभ है या भांति श्रीराम प्रतिबुद्ध भए तब वे दोनों देव अपनी माया दूरकर लोकों को आश्चर्यकी करणहरी स्वर्गकी विभूति प्रकट दिखावते भए शीतल मंद सुगन्ध पवन बाजी अर आकाशमें देवोंकेविमान ही विमान होय गए अर देवांगना गावती भई वीण बांसुरी मृदंगादि बाजते भए वे दोनों देव रामसे पूछते भए आप इतने दिवस राज्य किया सो सुख पाया ? तब राम कहते भये, राज्यमें काहेका सुख ? जहां अनेक व्याधि है जो याहि तज मुनि भये वे सुखी अर मैं तुमको पूछ हूं--तुम महा सौम्यवदन कोन हो पर कौन कारण कर मोसू Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ पद्म-पुराध इतना हित जनाया तब जटायु का जीव कहता भया - -हें प्रभो ! मैं वह गृद्ध पक्षी हू आप मुनिनिक्कू' आहार दिया वहां मैं प्रतिबुद्धि भया पर आप मोहि निकट राखा, पुत्रकी न्याई पाला र लक्ष्मण सीता मोसू अधिक कृपा करते सीता हरी गई ता दिन मैं रावण से युद्धकर कंठगत प्राण भया, आपने आय मोहि पंच नमोकार मन्त्र दिया मैं तुम्हारे प्रसाद कर चौथे स्वर्ग देव भया स्वर्गके सुखकर मोहित भया अबतक आपके निकट न आया अब अवधिज्ञान कर तुमको लक्ष्मण के शोक कर व्याकुल जान तुम्हारे निकट आया हूँ श्रर कृततिवक्रके जीवने कही - हे नाथ ! मैं कृतांतवक्र आपका सेनापति हुता आप मोहि भ्रात पुत्रनिते हू अधिक जाना पर वैराग्य होते मोहि आप आज्ञा करी हती जो देव होंषो तो हमको कबहू चिंता उपजै तब चितारियो सो श्रापके लक्ष्मणके मरणकी चिंता जान हम तुमपै आये तब राम दोनों देवनि कहते भये तुम मेरे परममित्र हो महाप्रभाव धारक चौथे स्वर्गकं महाऋद्धि धारी देव मेरे सबोंधिवेकों आये तुमको यही योग्य ऐसा कहकर रामने लक्ष्मणके शोकसे रहित होय लक्ष्मण के शरीर को सरयू नदी ढा दग्ध कीया श्रीराम आत्मस्वभाव के ज्ञाता धर्मकी मर्यादा पालनेके अर्थ शत्रुघ्न भाईको कहते भए हे शत्रुघ्न ! मैं मुनिके व्रतधार मिद्ध पदको प्राप्त हुआ चाहू तू पृथिवीका राज्य कर तब शत्रुघ्न कहते भये - हे देव मैं भोगनिका लोभी नहीं जाके राग होय सो राज्य करे मैं तिहारे संग जिनराजके व्रत धरूंगा अन्य अभिलाषा नहीं हैं मनुष्यनिके शत्रु ये काम भोगे मित्र बांधव जीतव्य इनसे कौन तृप्त भया ! कोई ही तृप्त न भयां तातें इन सबनिका त्याग ही जीवको कल्याणकारी है ॥ इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिका विषै लक्षमणकी दग्धक्रिया अर मित्रदेवनिका आगमन वर्णन करनेवाला एक्सौअठारहवां पर्व पर्ण भया ।। ११८ ॥ अथानन्तर श्रीरामचन्द्र ने शत्रुघ्नके वैराग्यरूप वचन सुन ताहि निश्चयसे राज्यसे पराङमुख जान क्षण एक विचार अनंगलवण के पुत्रको राज्य दिया सो पिता तुल्य गुणनिक्की खान कुलकी धुराका धरणहारा नमस्कार करे हैं समस्त सामंत जाको, सो राज्य में तिष्ठा प्रजाका अति अनुराग है जासे महा प्रतापी पृथिवीमें आज्ञा प्रवर्तावता भया अर विभीषण लंकाका राज्य अपने पुत्र सुभूषण को देय वैराग्यको उद्यमी भया अर सुग्रीव हूं अपना राज्य अंगदको देय कर संसार शरीर भोगसे उदास भया ये सब रामके मित्र रामकी लार भवसागर तरवेका उद्यमी भए राजा दशरथका पुत्र राम भरत चक्रवर्तीकी न्याई राज्यका भार तजता भया । कैसा है राम विष सहित अन्नममान जाने विषय सुख जाने, अर कुलटा स्त्रीसमान जानी हैं समस्त विभूति जाने एक कल्याणका कारण मुनिनिके सेववे योग्य सुर असुरोंकर पूज्य श्री मुनिसुव्रतनाथका भाषा मार्ग ताहि उरमें धारता भया जन्ममरणके भयसे कम्पायमान भया है हृदय जाका ढोले किये हैं कर्मबंध जाने धो डाले हैं रागादिक कल के जाने महावैराग्यरूप हैं चित्त जाका क्लेशभाव से निवृत जैमा मेघपटलसे रहित भानु भासै तैमा भासता भया मुनिव्रतधारिका है अभिप्राय जाके ता समय अरहदाश सेठ आया तब ताहि श्रीराम चतुर्विध संधकी कुशल पूछते भए तब वह कहता भया हे देव, तिहारे कष्टकर मुनिनिका हू मन अनिष्ट संयोगको प्राप्त भया ये बात करें Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौ उन्नीसा पर्व हैं अर खबर आई है कि मुनिसुव्रतनाथके वंशमें उपजे चार ऋदिके धारक स्वामी सुत्रत महावत के थारक कामक्रोधके नाशक पाए हैं। यह वार्ता सुनकर महाअानन्दके भरे राम रोमांच होय गया है शरीर जिनका फूल गए है नेत्र कमल जिनके अनेक भूचर खेचर नृपनिसहित जैसे प्रथम बलभद्र विजय स्वर्णकुम्भ स्वामीके समीप जाय मुनि भए हुने तैसे मुनि होनेको सुव्रतमुनिके निकट गये ते महा श्रेष्ठ गुणोंके धारक हजारां मुनि माने हैं अाज्ञा जिनकी तिन जाय प्रदक्षिणा देय हाथ जोड सिर निधाय नमस्कार किया साक्षात् मुक्ति के कारण महामुनि तिनका दर्शनकर अमृतके सागरमें मग्न भए परम श्रद्धाकर मुनिराजते रामचन्द्रने जिनचन्द्रकी दीक्षा धारवेकी विनती करी-हे योगीश्वरनिके इन्द्र, मैं भव प्रपंचसे विरक्त भया तिहारा शरण ग्रहा चाहू हूं तिहारे प्रसादसे योगीश्वरनिके मार्गमें विहार करू या भांति रामने प्रार्थना करी । कैसे हैं राम ? धोये हैं समस्त रागद्वेषादिक कलक जिन्होंने तब मुनींद्र कहते भए-हेनरेंद्र, तुम या बातके योग्य ही हो, यह संसार कहा पदार्थ है यह तन कर तुम जिनधर्मरूप समुद्रका अवगाह करो,यह मार्ग अनादिसिद्ध वाधारहित अविनाशी सुखका देनहारा तुमसे बुद्धिमान ही आदरें । ऐसा मुनिने कहा तब राम ससारसे विरक्त महा प्रवीण जैसे सूर्य सुमेरुकी प्रदक्षिणा करे तैसे मुनींद्रकी प्रदक्षिणा करते भए । उपजा है महाज्ञान जिनको वैराग्यरूप वस्त्र पहिरे बांधी है कर्मोंके नाशको कमर जिन्होंने आशारूप पाश तोड स्नेहका पिंजरा दग्धकर स्त्रीरूप बंधनसे छूटमोहका मान मार हार कुंडल मुकुट केयूर कमेखलादि सर्व आभूषण डार तत्काल वस्त्र तजे, परम तत्व में लगा है मन जिनका वस्त्राभरण यू तजे ज्यों शरीर तजिए महासुकुमार अपने का तिनकर केस लोंच किए पद्मासन पर विराजे शीलके मंदिर अष्टम वलभद्र समस्त परिग्रहको तजकर ऐसे सोहते भए जैसा राहुसे रहित सूर्य सोहै पंच महावत आदरे पंचममित अंगीकार कर तीनगुप्त रूप गढमें विराजे मनोदण्ड व वनदण्ड कायदण्डके दूर करणहारे षट् कायके मित्र, सप्त भयरहित आठ कर्मों के रिपु नवधा ब्रह्मचर्यके धारक दशलक्षण धर्म धारक श्रीवत्स लक्षण कर शोभित है उरस्थल जिनका गुणभूषण सकलदूषणरहित तत्वज्ञानमें इद रामचन्द्र महा मुनि भए देवनिने पंचाश्चर्य किए सुन्दर दुन्दभी बाजे अर दोनों देव कृत्तांतवक्रका जीव पर जटायुका जीव तिन्होंने परम उत्सव किए जब पृथिवी का पति राम पृथितीको तज निकमा तव भूमिगोचरी विद्याधर सब ही राजा आश्चर्यको प्राप्त भये पर विचारते भए जो ऐमी विभूति ऐसे रत्न यह प्रताप तजकर रामदेव मुनि भए तो ओर हमारे कहा परिग्रह ? जाके लोभते घरमें तिष्ठे व्रत विना हम एते दिन योंही खोये ऐसे विचारकर अनेक राजा गृह बन्धनसे निकसे अर रागमई पाशी काट द्वषरूप वैरीको विनाश सर्व परिग्रह का त्यागकर भाई शत्रुघ्न मुनि भये पा विभीषण सुग्रीव नील नल चन्द्रनख विरावित इत्यादि अनेक राजा मुनि भए विद्याधर सर्व विद्याका त्यागकर ब्रह्मविद्याका प्राप्त भए कैयकोंको चारणऋद्धि उपजी या भांति रामके वैराग्य भए सोलह हजार कछु अधिक महीपति मुनि भये । भर सत्ताईस हजार राणी श्रीमती आर्यिकाके समीप आर्थिका भई। अथानन्तर श्रीराम गुरुकी आज्ञा लेय एकविहारी भए तजे हैं समस्त विकल्प जिन्होंने Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभपुराण गिरिनि की गफा अर गिरिनिके शिखर पर विषम वन जिनमें दुष्ट जीव विचरे वहां श्रीराम जिनकन्पी होय ध्यान धरते भए अवधिज्ञान उपजा जाकर परमाणु पर्यन्त देखते भए अर जगतके मूर्तिक पदार्थ सकल भासे लक्ष्मणके अनेक भव जाने, मोहका संबंध नाही, तातै मन ममत्वको न प्राप्त होता भया। अब रामकी आयुका व्याख्यान सुनो कौमार काल वर्ष सौ१००मंडलीक पद वर्ष तीन सौ३०० दिग्विजय वर्ष चालीस४० अर ग्यारह हजार पांचसौ साठ वर्ष ११६० तीन खण्डका राज्य कर बहुरि मुनि भए । लक्ष्मण का मरण याही भांति था देवनिका दोष नाही अर भाईके मरणके निमित्त तैं रामके वैराग्यका उदय था अवधिज्ञान प्रतापकर रामने अपने अनेक भव जाने, महा धीर्यको धरै व्रत शीलके पहाड, शुक्ल लेश्या कर युक्त महा गंभीर गुणनिके सागर समाथान चित्त मोक्ष लक्ष्मीमें तत्पर शुद्धोपयोगके मागमें प्रवरते । सो गौतमस्वामी राजा श्रेणिक आदि सकल श्रोताओंसे कहें हैं जैसे राम चन्द्र जिनेन्द्र के मार्ग में प्रवर्ते तैसे तुमहूं प्रवरतो, अपनी शक्ति प्रमाण महा भांति कर जिनशासनमें तत्पर होवो जिननामकं अक्षर महारत्नोंको पायकर हो प्राणी हो खोटा आचरण तजो, दुराचार महा दुखका दाता, खोटे थनिकर मोहित है आत्मा जिनका अर पाखण्ड क्रियाकर मलिन हैं चित्त जिनका वे कल्याणके मार्गको तज जन्म के आंधेकी न्याई खोटे पंथमें प्रवरते है, कैयक मूर्ख साधुका धर्म नाहीं जाने हैं, अर नानाप्रकार के उपकरण साधुके वताव हैं और निर्दोर जान ग्रहे हैं वे वाचाल हैं जे कुलिंग कहिये खोटें भेष मूढनिने आचरें है वे वृथा हैं तिनसे मोक्ष नाहीं जैसे कोई मूर्ख मृतक भारका वहै है सो वृथा खेद करे हैं, जिनके परिग्रह नाहीं अर काहूंस याचना नाहीं, वे ऋषि हैं वेई निग्रंथ उत्तम गुणनिकर कर मंडित पंडितों कर सेयवे योग्य हैं यह महावनी वलदवकं वैराग्यका वर्णन सुन संसारसे बिरक्त होको जाकर भवतापरूप सूर्यका आताप न पाको। इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण सस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वनिकाविषे श्रीरामका वैराग्य गर्णन करनेवाला एकलौ उन्नीसवां पर्वा पूर्ण भया ।। ११६ ।। __ अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहै हैं-हे भव्योत्तम ! श्रीरामचन्द्रके अनेक गुण धरणींद्र हू अनेक जीभकर गायवे समर्थ नहीं, वे महामुनीश्वर जगतके त्यागी महाधीर पंचोपवासकी है प्रतिज्ञा जिनके सो ईर्यासमिति पालते नन्द स्थली नामा नगरी तहां पारणा के अर्थ गए उगते सूर्य समान है दीप्ति जिनकी मानों चालते पहाड ही हैं महा म्फटिक मणि समान शुद्ध हृदय जिनका वे पुरुषोत्तम मानों मृतिवंत धर्म ही है, मानों तीन लोकका आनन्द एकत्र होय रामकी मूर्ति निपजी है महा कांतिके प्रवाह कर पृथिवीको पवित्र करते मानों आकाशविर्ष अनेक रंग कर कमलोंका वन लगावते नगरमें प्रवेश करते भए तिनके रूपको देख नगर के सब लोक क्षोभको प्राप्त भए लोक परस्पर बतलावे है-अहो देखो ! अद्भुत रूप ऐसा आकार जगतमें दुर्लभ कबहु देखवे में न आवै यह कोई महापुरुष महा सुन्दर शोभायमान अपूर्व नर दोनों वाहू लम्बा ये आवै है। थन्य यह धीर्य, धन्य यह पराक्रम, धन्य यह रूप धन्य यह कांति धन्य यह दीप्ति, धन्य यह शांति धन्य यह निर्ममत्वता, यह कोई मनोहर पुराण है ऐसा और नाही जूडे प्रमाण धरती देखता जीव दया पालता शांतदृष्टि समाधान चित्त जैनका पति चला भावै Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौइ.स वा पर्व है ऐसा कौनका भाग्य जाके घर यह पुण्याधिकारी आहार कर कौनको पवित्र करे ? ताके बडे भाग्य जाके घर पाहार लेय, यह इन्द्र समान रघुकुलका तिलक अक्षोभ पराक्रमी शीलका पहाड रामचन्द्र पुरुषोत्तम है, याके दर्शन कर नेत्र सफल होंय मन निर्मल होय जन्म सफल होय देही पायेका यह फल जो चारित्र पालिये । या भांति नगरके लोक रामके दर्शन कर आश्चर्यको प्राप्त भए नगरमें रमणीक ध्वनि भई श्रीराम नगरमें पैठे अर समस्त गली अर मार्ग स्त्री पुरुषनिके समूह कर भर गया, नर नारी नानाप्रकारके भोजन हैं घरमें जिनके प्रासुक जलकी भारी भरे द्वारापेखन करे है निर्मल जल दिखावते पवित्र धोवती पहिरे नमस्कार करे हैं। हे स्वामी ! अत्र तिष्ठो अन्न जल शुद्ध है या भांति शब्द करे हैं नाही समावे हृदयमें हर्ष जिनके हे मुनींद्र, जयवंत होवो हे पुण्यके पहाड, नादी विरदो इन वचनों कर दशोदिशा पूरित भई, घर घर में लोग परस्पर बात . करे हैं स्वर्णके भाजनमें दुग्ध दधि घृत ईखरस दाल भात क्षीर शीघ्र ही तैयार कर राखो, मिश्री मोदक कपूर कर युक्त शीतल जल सुन्दर पूरी शिखिरणी भली भांति विधिसे राखो। या भांति नर नारिनके वचनालाप तिन कर समस्त नगर शब्द रूप होय गया महा संभ्रमके भरे जन अपने बालकोको न विलोकने भए मार्गमें लोक दोडे सो काहूके धक्के से कोई गिर पडे या भांति लोकनि के कोलाहलकर हाथी खूटा उपाडते भए अर गाममें दोडते भए तिनके कपोलोंसे मद झरिवे कर मार्गमें जलका प्रवाह हो गपा हाथिनकै भयसे घोडे घास तज बन्धन तुडाय २ भाजे अर हींसते भए सो हाथी घोडनिकी घमसाण कर लोक व्याकुल भए तब दानमें तत्पर राजा कोलाहल शब्द मुन मंदिरके ऊपर आय खडा रहा दूरसे मुनिका रूप देख मोहित भया राजाके मुनिसे राग विशेष परन्तु विवेक नहीं सो अनेक सामन्त दौडाए अर माज्ञाकरी स्वामी पधारे हैं सो तुम जाय प्रणामकर बहुत भक्ति विनती कर यहाँ आहारको लावो सो सामन्त भी मूर्ख जाय पायन पड कहते भए हे प्रभो, राजाके घर भोजन करहु वहां पवित्र सुन्दर भोजन हैं अर सामान्य लोकनिके घर आहार विरस आपके लेयवे योग्य नहीं अर लोको को मने किये कि तुम कहा दे जानो हो ? यह वचन सुन कर महा मुनि आपको अन्तराय जान नगरसे पीछे चले तब सब लोक अति व्याकुल भए । वे महा पुरुष जिन आज्ञाके प्रतिपालक आचारांग सूत्र प्रमाण है आचरण जिनका आहार के निमित्त नगर में विहार कर अन्तराय जान नगरके पीछे वनमें गये। चिद्रपध्यानमें मग्न कायो सर्ग धर तिष्ठ वे अद्भुत अद्वितीय सूर्य मन अर नेत्रको प्यारा लागे रूप जिनका नगरसे विना आहार गए तब सब ही खेदखिन्न भये ॥ इतिश्रीरविषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुगण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावनिकावि राममुनिका आहारके अर्थि नगर मेंआगमन बहुरि लोकनिक कोलाहलतै अन्तराय पाछा वनविणे आना वर्णन करनेवाला एकसौ बीसवां पर्व पूर्ण मया ॥१२॥ अथानन्तर राम मुनियों में श्रेष्ठ बहुरि पंचोपवासका प्रत्याख्यान कर यह अवग्रह धारते भए कि वनमें कोई श्रावक शुद्ध आहार देय तो लेना नगरमें न जाना या भांति कांतारचर्याकी प्रतिज्ञा करी सो एक राजा प्रतिनन्द बाको दुष्ट तुरंग लेय भागा सो लोकनिकी दृष्टिसे दूर गया तब राजाकी पटरानी प्रभवा अतिचिन्तातुर शीघ्रगामी तुरंगपर आरूढ राजाके पीछे ही सुभटनिके Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समूह कर चली अर राजाको तुरंग हर लेगया था सो वनके सरोवरनिमें कीचमें फंस गया उतने हीमें पटराणी जाय पहुँची राजा राणी पै आया तब राणी राजासे हास्यके वचन कहती भई-हे महाराज ! जो यह अश्व आपको न हाता तो यह नन्दनवनसा वन अर मानसरोवरसा सर कैसे देखते तब राजाने कही हे राणी वन यात्रा अब सुफल भई जो तिहारा दर्शन भया या भांति दम्पती परस्पर प्रीतिकी बातकर सखीजन सहित सरोवरके तीर बैठे नाना प्रकार जल क्रीडा कर दोनों भोजनके अर्थ उद्यमी भये ता समय श्रीराम मुनि कांतारचर्या के करणहारे या तरफ आहार को आए साधुकी क्रियामें प्रवीण तिनको देख राजा हर्ष कर रोमांच भया राणी सहित सन्मुख जाय नमस्कार कर ऐसे शब्द कहता भया हे भगवान यहां तिष्टो अन्न जल पवित्र है, प्रासुक जल कर राजाने मुनिके पग धोये, नवधा भक्ति कर सप्तगुण सहित मुनिको महा पवित्र क्षीर आहार दिया, स्वर्ण के पात्रमें लेय कर महापात्र जे मुनि तिनके कर पात्रमें पवित्र अन्न देता भया निरंतराय आहार भया तब देव हर्षित होय पंचाश्चर्य करते भए अर आप अक्षीण महाऋद्धि धारक सो वा दिन रसोईका अन्न अटूट होय गया, पंचाश्चर्यके नाम, पंच वर्ण रत्नोंकी वर्षा अर महा सुगन्ध कल्पवृक्षोके पुष्पकी वर्षा शीतल मंद सुगन्ध पवन दुदंभी नाद जय २ शब्द, धन्य धन्य यह दान धन्य यह पात्र धन्य यह विधि धन्य यह दाता नाक करी नीके करी नादो विरधो फूलो फलो या भांतिके शब्द आकाशमें देव करते भये अथ नवधा भक्तिके नाम मुनिको पडगाहना ऊचे स्थानक राखना चरणारविंद धोवने चरणोदक माथे चढावना पूजा करनी मन शुद्ध वचन शुद्ध काय शुद्ध आहार शुद्ध यह नवधा भक्ति अर श्रद्धा शक्ति निर्लोभता दया क्षमा अदेखसखापणो नहीं हर्षे संयुक्त यह दाताके सातगुण वह राजा प्रतिनन्दी मुनिदानसे देवों कर पूज्य भया अर श्रावकके व्रत धारे निर्मल है सम्यक्त्व जाके पृथ्वीमें प्रसिद्ध होता भया बहुत महिमा पाई अर पञ्चाश्चर्य में नाना प्रकारके रत्न स्वर्णकी वर्षा भई सो दशो दिशामें द्योत भया अर पृथिवीका दरिद्र गया, राजा राणी सहित महा विनयवान् भक्ति कर नम्रीभूत महा मुनिको विधिपूर्वक निरन्तराय आहार देय परम प्रबोधको प्राप्त भया अपना मनुष्य जन्म सफल जानता भया अर राम महा मुनि तपके अर्थ एकांत रहै बारह प्रकार तपके करणहारे तप ऋद्धि कर अद्वितीय पृथिवीमें अद्विती सूर्य विहार करते भए । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाबिर्षे राममुनिको निरतराय आहार वर्णन करनेवाला एकसौ इक्कीसवां पर्व पूर्ण भया । ५२५ ॥ अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कह हैं-हे श्रेणिक ! वह आत्माराम महा मुनि वलदेव स्वामी शांत किए हैं राग द्वेष जाने जो और मनुष्योंसे न वन आवै ऐसा तप करते भए, महा वनमें विहार करते पंचमहावत पंचपमिति तीन गुप्त पालते शास्त्रके वेक्ता जितेंद्री जिनधर्ममें है अनुराग जिनका स्वाध्याय ध्यान में सावधान अनेक ऋद्धि उपजी परन्तु ऋद्धिनिकी खबर नही महा विरक्त निर्विशार बाईस परीषहके जीतनहारे तिनके तपके प्रभावतें वनके सिंह व्याघ्र मृगादिकके समूह निकट आय बैठे, जीवोंका जाति विरोध मिट गया, रामका शांत रूप निरख शानरूप भए, श्रीराम महावती चिदानन्दमें चित्त जिनका, परवस्तुकी वांछा रहित, Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौवाईसवा पक विरक्त कर्म कलंक हरिवेको है यत्न जिनके, निर्मल शिलापर तिष्ठते, पद्मासन थरे आत्मध्यानमें प्रवेश करते भए जैसे रवि मेघमालामें प्रवेश करे वे प्रभ सुमेरु सारिखे अचल है चित्त जिनका पवित्र स्थानमें कायोत्सर्ग धरे निज स्वरूपका ध्यान करते भए कबहुंक विहार करें सो ईा समिति पालते जूडा प्रमाण पृथिवी निरखते महा शान्त जीव दया प्रतिपाल देव देवांगनादिक कर पूजित भए वे आत्मज्ञानी जिन आज्ञाके पालक जैनके योगी ऐसा तप करते भये जो पंचम कालमें काहूके चितवनमें न आवै एक दिन विहार करते कोटिशिला आये जो लक्ष्मणने नमोकार मंत्र जप कर उठाई हुती सो आप कोटि शिला पर ध्यान धर तिष्ठे कर्मोंके खिपायवे में उद्यमी क्षपकणि चढवे का है मन जिनका ॥ अथाननर अच्युतस्वर्गका प्रतीन्द्र सीताका जीव स्वयंप्रम नामा अवधिकर विचारता भया, राम का अर आपका परम स्नेह अपने अनेक भव अर जिनशासनका माहात्म्य अर गमका मुनि होना अर कोटिशिला पर ध्यान धर तिष्ठना बहरि मन में विचारी वे मनुष्यनिके इन्द्र पृथिवीके आभूषण मनुष्य लोकमें मेरे पति हुने मैं उनकी स्त्री सीता हुती देखो कर्मकी विचित्रता, मैं तो व्रतके प्रभावतें स्वर्ग लोक पाया अर लक्ष्मण रामका भाई प्राण हू तें प्रियसो परलोक गया, राम अकेले रह गए, जगत्के आश्चर्यके करणहारे दोनों भाई बलभद्र नारायण कर्मके उदयतें बिछुरे श्रीराम कमल मारिखेनेत्र जिनके शोभायमान हल मूमलके धारक वलदेव महाबली सो वासुदेवके वियोगकर जिनदेवकी दीक्षा अंगीकार करते भये राजअवस्थामें तो शस्त्रों कर सर्व शत्रु जीते बहुरि मुनि होय मनइन्द्रिय जीते अब शुक्लभ्यान धारकर कर्मशत्रुको जीता चाहै हैं ऐसा होय जो मेरी देव मायाकर कछुइक इनका मन मोहमें श्रावै वह शुद्धोपयागसे च्युत होय शुभोपयोगमें आय यहां अच्युतस्वगमें आवें, मेरे इनके महा प्रीति है, मैं अर वे मेरु नन्दीश्वरादिककी यात्रा करें अर बाईस सागरपर्यंत भेले रहें। मित्रता वढावें अर दोनों मिल लक्ष्मणको देखें यह विचार कर सीताका जीव प्रतींद्र जहां राम ध्यानरूढ थे तहां आया इनको ध्यानसे च्युत करवे अर्थ देवमाया रची, वसन्तऋतु वनमें प्रकट करी, नाना प्रकारके फूल फूले अर सुगन्ध वायु बाजने लगी पक्षी मनोहर शब्द करने लगे अर भ्रमर गुजार कर हैं कोयल बोलें है, मैना, सूवा, नानाप्रकार की ध्वनि कर रहे हैं पांव मौर आये भ्रमरोंकर मण्डित सोहै है, कामके बाण जे पुष्प तिनकी सुगन्यता फैल रही हैं घर कर्णकार जातिके वृक्ष फूले हैं तिनकर वन पीन हो रहा हैं सो मानों बसन्तरूप राजा पीतम्बर कर क्रीडाकर रहा है मौलश्री की वर्षा होय रही है ऐसी बसन्तकी लीला कर आप वह प्रतीन्द्र जानकीका रूप धर रामके समीप आया, वह मनोहर वन जहां और कोई जन नहीं अर नाना प्रकारके वृक्ष सब ऋतुके फूल रहैं हैं, ता समय रामके समीप सीता सुन्दरी कहती भई-हे नाथ ! पृथिवीमें भ्रमण करते कोई पुण्यके योगते तुमको देखे वियोगरूप लहर का भरा जो स्नेहरूप समुद्र तामें मैं डुबू हूँ सो मोहि थांभो अनेक प्रकार रागके वचन कहे परन्तु मुनि अकम्प सो वह सीताका जीव मोहके उदयकर कभी दाहिने कभी बांये भ्रमें कामरूप ज्वरके योगकर कम्पित है शरीर पर महा सुन्दर अरुण हैं अघर जाके या मांति कहती भई-हे Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग-पुराण देव ! मैं विना विचारें तिहारी आज्ञा विना दीक्षा लीनी मोहि विद्यापरिनिने बहकाया अब मेरा मन तुममें है, या दीक्षा कर पूर्णता होवै। यह दीक्षा अत्यन्त वृद्धनिको योग्य है कहां यह यौवन अवस्था अर कहां यह दुर्द्धर व्रत ? महा कोमल फूल दावानलकी ज्वाला कैसे सहार सके ? अर हजारां विद्याधरनिकी कन्या और हू तुमको वरा चाहे हैं मोहि आगे धार ल्याई हैं कहे हैं, तिहारे आश्रय हम बलदेवको वरें, यह कहे हैं अर हजारां दिव्य कन्या नाना प्रकारके आभूषण पहरे राजहंसनी समान है चाल जिनकी सो प्रतीन्द्रकी विक्रीया कर मुनीन्द्रके समीप आई कोय. लतें हूँ अधिक मधुर बोलें ऐसी सोहैं मानों साक्षात् लक्ष्मी ही है मनको आल्हाद उपजावें कानोंको अमृत समान ऐसे दिव्य गीत गावती भई अर वीण बांसुरी मृदंग बजावती भई भ्रमर सारिखे श्याम केश विजुरी समान चमत्कार महासुकुमार पातरी कटि कठोर अति उन्नत हैं कुच जिनके सुन्दर श्रृंगार करे नानावर्णके वस्त्र पहिरे, हाव भाव विलास विभूमको धरती मुलकती अपनी कांतिकर व्याप्त किया है आकाश जिन्होंने मुनिके चौगिर्द बैठी प्रार्थना करती भई-हे देव ! हमारी रक्षा करो अर कोई एक पूछती भई-हे देव ! यह कौन बनस्पति है अर कोई एक माधवी लताके पुष्प के ग्रहण के मिस बाहू ऊची करती अपना अंग दिखावती भई, अर कई एक भेली होयकर ताली देती रासमण्डल रचती भई, पल्लवसमान हैं वर जिनके अर कोई परस्पर जलकलि करती भई या प्रकार नाना भांतिकी क्रीडाकर मुनिके मन डिगायवेका उद्यम करती भई, सो हे श्रेणिक ! जैसे पवनकर सुमेरु न डिगै तैसे श्रीरामचन्द मुनिका मन न डिगा आत्मस्वरूपके अनुभवी रामदेव सरल हैं दृष्टि जिनकी, विशुद्ध है आत्मा जिनका, परीषहरूप वज्रपातसे न हिगे, क्षपक श्रेणी चढे शुक्लध्यानके प्रथम पाएमें प्रवेश किया, रामचन्द्रका भाव यात्मामें लग अत्यन्त निर्मल भया सो उनका जोर न पहुँचा मूढजन अनेक उपाय करें परन्तु ज्ञानी पुरुषनिका चित्त न चले, वे आत्मस्वरूपमें ऐसे दृढ भए जो काहू प्रकार न चिगे, प्रतीन्द्रदेवने मायाकर रामका ध्यान डिगाव को अनेक यत्न किए परन्तु काही उपाय न चला, पुरुषोत्तम अनादिकाज के कर्मोकी वर्गगाके दम्भ करिवेंको उद्यमी भए पहिले पाएक प्रसादसे मोहका नाश कर बारहवें गुणस्थानक चढे तहां शुक्लध्यानके दूजे पाएके प्रशादतें ज्ञानावरण दशनावरण अन्तरायका अन्त किया माघ शुक्लदाद्वी की पिछिली रात्री केवलज्ञानको प्राप्त भए केवलज्ञानम सर्व द्रव्य समस्त पर्याय प्रतिभासे ज्ञानरूप दर्पण में लोकालोक सव भासे तब इन्द्रादिक देवनिके आसन कम्पायमान भए अवधिज्ञानकर भगवान् रामको केवल ज्ञान उपजा जानकर केवल कल्याणकी पूजाको पाए महा विभूति संयुक्त देवनिक समूह सहित बडे श्रद्धावान सब ही इन्द्र आए घातिया कर्मके नाशक अहंत परमेष्ठी तिनको चारण मुनि अर चतुरनिकायके देव सब ही प्रणाम करते भए । वे भगवान छत्र चमर सिंहासन आदिकर शोभित त्रैलोक्यकर वन्दिवे योग्य सयोगकेवली तिनकी गंधकुटो देव रचते भए दिव्यध्वनि खिरती भई सब ही श्रवण करते भये अर बारम्बार स्तुति करते भये सीताका जीव स्वरप्रभ नामा प्रतींद्र केलीकी पूजावर तीन प्रदक्षिणा देय बारम्बार क्षमा करा, वता भया, हे भगवान् ! मैं दुबुद्धिने जो दोष किये सो क्षमा करो, गौतम स्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकatasai पर्ण ५६६ भगवान बलदेव अनंत लक्ष्मी कांतिकर संयुक्त आनंदमूर्ति केवली तिनकी इन्द्रादिक देव महाहर्ष के भरे अनादि रीति प्रमाण पूजा स्तुतिकर विनती करते भये, केवली विहार कीया, तब देव विहार करते भये । इतिश्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनकाविषै 1 रामकू' केवल ज्ञानकी उत्पत्ति वर्णन करनेवाला एकसौ वाईसवां पर्ण पर्ण भया ।। १२२ ।। अथानन्तर सीताका जीव प्रतींद्र लक्ष्मणके गुण चितार लक्ष्मणका जीव जहां हुता अर खरदूषण का पुत्र शम्बूक असुरकुमार जातिका देव जहां था तहां जायकर ताकू सम्यग्ज्ञानका ग्रहण कराया सो तीजे नरक नारकिनिकू वाधा करावे हिंसानंद रौद्रध्यान में तत्पर पापी नारकोको परस्पर लडावे | पापके उदय कर जीव अधोगति जाय। सो तीजे तक तो असुरकुमारहू लडावे आगे सुरकुमार न जांय, नारकी ही परस्पर लड़ें। जहां कैयकनिको अग्निकुण्ड में डारे हैं सो पुकारें हैं। कैकनिक कांटेनिकर युक्त शाल्मली वृक्ष, तिनपर चढाय घसीटें हैं। कैयक निको लोहमई मुद्गरनिकर कूटै हैं । अर जे मांस आहारी पापी तिनको उनहीका मांस काटि वा हैं र प्रज्वलित लोहे के गोला तिनको मुखमें मारि २ दे हैं । अर कैक मारके मारे भूमिमें लोटे हैं और माया मई श्वान मार्जार सिंह व्याघ्र दुष्ट पक्षी भर्खे हैं तहां तिर्यच नाहीं, नर्ककी विक्रिया हैं। कैयकनिको सूली चढावे हैं र वज्र मुद्गरनितें मारे हैं, कई एकनिको कुम्भीपाक में डारें हैं, कैयकनिको तातातांचा गालि २ प्यावे हैं अर कहे हैं ये मदिरा पानके फल हैं। कैयकों को काठमें बांधकर तसे चीरे हैं अर कैयकोंको कुठारोंसे काटे हैं, कैयकों को घानी में पेले हैं कैयकोंकी यांख काढे हैं हैं की जीभ काढे हैं वह क्रूर कैयकों के दांत तोडे हैं इत्यादि नारकीनिको अनेक दुख सो अवधिज्ञानकर प्रतीन्द्र नारकीनिकी पीडा देख शंबूक के समझायत्रेको तीजी भूमि गया सो असुरकुमार जातिके देव क्रीडा करते थे वे तो इनके तेजसे डर गए अर शम्बूकको प्रतींद्र कहते भए – अरे पापी निर्दई तैंने यह क्या आरंभा जो जीवोंको दुख देवे है । हे नीच देव ! क्रूर कर्म तज क्षमा पकड, यह अनर्थ के कारण कर्म तिनकर कहा अर यह नरकके दुःख सुनकर भय उपजे है तू प्रत्यक्ष नारकियोंको पीडा करे है करावे है सो तुझे त्रास नहीं यह वचन प्रतींद्रके सुन शंबूक प्रशांत भया, दूसरे नारकी तेज न सह सके रोवते भये अर भागते भए तब प्रतींद्रने कही हो नारकी हो मुझसे मत डरो जिन पापोंकर नरक में खाए हो तिनसे डरो, जब या भांति प्रसीद्रने कही तब उनमें कैयक मनमें विचारते भए जो हम हिंसा मृषावाद परधन हरण परनारिरमण बहु आरंभ बहुपरिग्रहमें प्रवर्ते रौद्रध्यानी भए उसका यह फल है भोगों में आसक्त भए क्रोधादिककी तीव्रता भई खोटे कर्म कीये उससे ऐसा दुख पाया देखो यह स्वर्गलोकके देव पुण्यके उदयसे नानाप्रकार के विलास करे हैं रमणीक विमान चढे जहां इच्छा होय वहां ही जांय या भांति नारकी विचारते भए अर शम्बूकका जीव जो असुरकुमार उसको ज्ञान उपजा फिर रावण के जीवने प्रतींद्र से पूछा- तुम कौन हो ? तब उसने सकल वृत्तांत कहा मैं सीताका जीव तपके प्रभावकर सोलवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र भया श्रर श्रीरामचन्द्र महामुनींद्र होय ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनी अंतरायकर्मका नाशकर केवली भए सो धर्मोपदेश देते जगतको तारते भरत क्षेत्र में तिष्ठे हैं नाम गोत्र वेदनी आयुका अंतकर पर Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० पद्म-पुराण मधाम पधारेंगे अर तू विषयवासना कर विषम भूमिमें पडा अब भी चेत, ज्यू कृतार्थ होंय, तंब रावणका जीव प्रतिबोधको प्राप्त भया अपने स्वरूपका ज्ञान उपजा अशुभ कर्म बुरे जान मनमें विचारता भया मैं मनुष्य भव पाय अणुव्रत महाव्रत न आराधे तिससे इस अवस्थाको प्राप्त भया हाय हाय मैं कहा किया जो आपको दुख समुद्रमें डारा । यह मोहका माहात्म्य हैं जो जीव आत्महित न कर सकें रावण प्रतीन्द्रको वहे है- हे देव तुम धन्य हो विषयकी वासना तजी जिनवचनरूप अमृतको पीकर देवोंके नाथ भये । तभ प्रतीन्द्रन दयालु होयकर कही तुम भय मत करो चलो हमारे स्थानको चला ऐसा कह याके उठायवेकों उमद्यी भया तव रावण के जीवके शरीर के परमाणु बिखर गये जैसे अग्नि कर माखन पिगल जाय काहू उपाय कर याहि लेजायवे समर्थ न भया जैसे दर्पण में तिष्ठती छाया न ग्रही जाय, तब रावणका जीव कहता भया - हे प्रभो ! तुम दयालु हो सो तुमको दया उपजे ही परन्तु इन जीवनिने पूर्वे जे कर्म उपार्जे हैं तिनका फल अवश्य भोगे हैं विषयरूप मांसका लोभी दुर्गतिकी आयु बांधे हैं सो आयु पर्यंत दुःख भोगवे है यह जीव कर्मोंके आधीन इसका देव क्या करें हमने अज्ञान के योग से अशुभ कर्म उपार्जे हैं इनका फल अवश्य भोगेगे आप छुडायवे समर्थनहीं तिससे कृपाकर वह उपदेश कहो जिसकर फिर दुर्गतिक दुख न पावें, हे दयानिधि तुम परम उपकारी हो तब देवने कही परमकल्याणका मूल सम्यक्ज्ञान है मो जिनशासनका रहस्य है अविवेकियोंको अगम्य हैं तीन लोक में प्रसिद्ध है आत्मा अमूतिक सिद्ध समान उसे समस्त परद्रव्योंसे जुदा जाने जिनधर्मका निश्चय करें यह सम्यग्दर्शन कर्मों का नाशक शुद्ध पवित्र परमार्थका मूल जीवोंने न पाया तातैं अनन्त भव ग्रहें यह सम्यग्दर्शन श्रव्योंको अप्राप्य है अर कल्याण रूप हैं जगतमें दुर्लभ हैं सबलमें श्रेष्ठ है मो जो तू आत्मकल्याण चाहे है तो उसे अंगीकार कर जिसकर मोक्ष पात्रै उसमे श्रेष्ठ और नहीं न हुआ न होयगा इसो कर सिद्ध भये हैं कर होयगे जे अरहन्त भगवानने जीबादिक नव पदार्थ भाखे हैं तिनकी श्रद्धा करनी उसे सम्यग्दर्शन कहिए इत्यादि वचनों कर रावण के जीवों की सुरेन्द्रने सम्यक्त्व ग्रहण कराया अर याकी दशा देख विचारता भया जो देखो रावण केभवमें याकी कहा कांति थी महासुन्दर लावण्यरूप शरीर था सो अब ऐसा होय गया जैसा नवीन वन अग्नि कर दग्ध हो जाय जिसे देख सकल लोक आश्चर्यको प्राप्त होते सो ज्योति कहां गई? बहुरि ताहिं कहता मया कर्मभूमिमें तुम मनुष्य भऐ थे सो इंद्रयोंके क्षुद्र सुखके कारण दुराचार कर ऐसे दुख रूप समुद्रमें डूबे । इत्यादि प्रतींद्रने उपदेशकं वचन कहे तिनका सुनकर उसके सम्यग्दर्शन दृढ भया र मनमें विचारता मया कर्मोके उदयकर दुर्गतिके दुख प्राप्त भए तिनको भोग यहांसे छूट मनुष्य देह पाय जिनराजका शरण गहूंगा। प्रतींद्रसे कही - अहो देव तुम मेरा बडा हित किया जो सम्यक दर्शन में मोहि लगाया, हे प्रतींद्र महाभाग्य अब तुम जावो, वहां अच्युतस्वर्ग में धर्म के फलसे सुख भोग मनुष्य होय शिवपुरकू प्राप्त होवो, जब ऐसा कहा तब प्रतींद्र उसे समाधान रूप कर कर्मोंके उदयको सोचते संते सम्यकदृष्टि बहांसे ऊपर आम्रा संसार की मायासे शंकित Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकitaseat of ६०१ है आत्मा जाकात सिद्ध साधु जिनधर्मके शरण में तत्पर है मन जाका तीन वेर पंच मेरुकी प्रदक्षिणा कर चैत्यालयोंका दर्शन कर नारकीनके दुखसे कंपायमान है चित्त जाका स्वर्ग लोक में हू भोगाभिलाषी न भया मानों नारिकीनिकी ध्वनि सुनै है, सोलमें स्वर्गके देवको छठे नरक लग विज्ञान कर दीखे हैं तीजे नरकमें रावणके जीवको अर शंबूकका जीव जो असुरकुमार देव था ताहि संबोध सम्यक्त्व प्राप्त कराया । हे श्रेणिक ! उत्तम जीवोंसे परउपकार ही बने बहुरि स्वर्ग लोकसे भरत क्षेत्र में श्रीरामके दर्शन को आए पवन से हु शीघ्रगामी जो विमान तामें आरूढ नेक देवोंको संग लिये नाना प्रकारके वस्त्र पहिरे हार माला झुकुटादिक कर मंडित शक्ति गदा खड्ग धनुष बरी शतघ्नी इत्यादि अनेक आयुधोंको धरे गज तुरंग सिंह इत्यादि अनेक वाहनों पर चढ़े मृदंग बांसुरी वीण इत्यादि अनेक वादित्रनिके शब्द तिनकर दशों दिशा पूर्ण करते केवीके निकट आए। देवोंके वाहन गज तुरंग सिंहादिक तियंच नहीं देवोंकी विक्रिया है । श्रीराम को हाथ जोड सीस निवाय बारंबार प्रणामकर सीताका जीच प्रतींद्र स्तुति करता भया हे संसारसागरके तारक, तुमने ध्यानरूप पवन कर ज्ञानरूप अग्नि दीप्त करी, संसाररूप वन भस्म किया और शुद्ध लेश्या रूप त्रिशूल कर मोहरिपु हता, वैराग्यरूप वज्र कर दृढ स्नेहरूप पिंजरा चूर्ण किया । हे नाथ हे मुनींद्र हे भवसूदन संसाररूप वनसे जे डरे हैं तिनको तुम शरण हो । हे सर्वज्ञ कृतकृत्य जगतगुरु पाया हैं पायवे योग्यपद जिन्होंने, हे प्रभो मेरी रक्षा करो संसारके भ्रमण से अति व्याकुल हैं मन मेरा तुम अनादि निधन जिनशासनका रहस्य जान प्रबल तप कर संसार सागर से पार भए, हे देवाधिदेव यह तुमको कहा युक्त ? जो मुझे भव वनमें तज आप अकेले त्रिमल पदको पधारे, तब भगवान कहते भए - हे प्रतींद्र तू राग तज जे वैराग्यमें तत्पर हैं तिन ही को मुक्ति है। रागी जीव संसारमें डूबे है जैसे कोई शिलाको कंठमें जाव कर नदी को नही तिर सके तैसे रागादिके भार कर चतुर्गतिरूप नदी न तिरी जाय, जे ज्ञान वैराग्य शील संतोष के धारक हैं वेई संसारको तिरें हैं जे श्रीगुरुके वचन कर श्रात्मानुभव के मार्ग लगे वेई भव भ्रमणसे छूटे और उपाय नाहीं काहूका भी लेजाया लोकशिखर न जाय एक वीतराग भाव ही से जाय । इस भांति श्रीराम भगवान सीताके जीवको कहत भए, सो यह वार्ता गौतमस्वामीने श्रेणिकसे कही बहुरि कहते भए हे नृप सीताके जीव प्रतींद्रने जो केवली से पूछी अर इनने कहा सो तू सुन, प्रतींद्र ने पूछी हे नाथ दशरथादिक कहांगए और लवण अंकुश कहां जावेंगे तब भगवान ने कही दशरथ कौशल्या सुमित्रा के कई सुप्रभा श्रर जनक कार जनकका भाई कनक यह सब तपके प्रभावकर तेरहवें देवलोक गए हैं यह सब ही समान ऋद्धिके धारी देव है भर लवणांकुश महाभाग्य कर्मरूप रजसे रहित होय विमल पद को इस ही जन्म से पावेंगे, इसी भांति केवली की ध्वनि सुन भामण्डलकी गति पूछी, हे प्रभो भामंडल कहां गया, तब आप कहते भए हे प्रतींद्र तेरा भाई राणी सुन्दरमालिनी सहित मुनिदान के प्रभाव कर देवकुरु भोगभूमि में तीन पल्य की आयुके भोक्ता भोगभूमिया भए तिनक दानकी वार्ता सुन- अयोध्या में एक बहु कोटि धनका धनी सेठ कुलपति उसके मकरा नामा स्त्री Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पी-पुराण जिसके पुत्र राजावोंके तुल्य पराक्रमी सो कुलपतिने सुनी सीताको वनमें निकासी तब उसने विचारी वह महागुणवती शीलवती सुकुमार अंग निर्जन वनमें कैसे अकेली रहेगी। धिक्कार है संसारकी चेष्टाको, यह विचार दयालुचित्त होय धु ति भट्टारकके समीप मुनि भया अर उसके दोय पुत्र एक अशोक दूजा तिलक यह दोनों मुनि भए सो द्यु ति भट्टारक तो समाधि मरख कर नववयकमें अहमिन्द्र भए अर यह पिता पुत्र तीनों मुनि ताम्रचूडनामा नगर वहां केवली की वंदनाको गए सो मार्गमें पचास योजनकी एक अटवी वहां चातुर्मासिक आय पडा सब एक वृक्षके तले तीनो साधु विराजे मानों साक्षात् रत्नत्रय ही हैं वहां भामंडल आय निकसा अयोध्या आवे था सो विषम वनमें मुनिनको देख विचार किया, यह महापुरुष जिन सूत्रकी अाज्ञा प्रमाण निर्जन वनमें विराजे चौमासे मुनियों का गमन नाहीं अब यह आहार कैसे करें तब विद्या की प्रबल शक्ति कर निकट एक नगर वसाया जहां सब सामिग्री पूर्ण बाहिर मानाप्रकारके उपवन सरोवर अर थानके क्षेत्र पर नगरके भीतर बडी बस्ती महासंपत्ति, चार महीना आपभी परिवार सहित उसनगरमें रहा अर मुनियोंके वैयाव्रत किये, वह वन ऐसा था जिसमें जल नहीं सो अद्भुत नगर बसाया, जहां अन्नजलकी बाहुल्यता सो नगरमें मुनिनका आहार भषा अर और भी दुखित भुखित जीवोंको भांति २ के दान दीए, अर सुन्दर मालिनी राणी सहित आप मुनियोंको अनेकवार निरंतराय आहार दीया, चतुर्मास पूर्ण भए मुनि विहार करते भए अर भामंडल अयोध्या प्राय फिर अपने स्थानक गया एक दिन सुन्दरमालिणी राणी सहित सुखसे शयन करै था सो महल पर विजुरी पडी राजा राणी दोनों मरकर मुनिदानके प्रभावसे सुमेरु पर्वतकी दाहिनी ओर देवकुरु भोगभूमि वहां तीन पन्यके आयुके भोक्ता युगल उपजे, सो दानकं प्रभाव से सुख भागवे हैं जे सम्यक्त्व रहित हैं अर दान करे हैं सो सुपात्र दानके प्रभावसे उत्तमगतिके सुख पावे हैं सो यह पात्रदान महा सुखका दाता है ग्रह बात सुन फिर प्रतींद्रने पूछी हे नाथ रावण तीजी भूमिसे निकस कहां उपजेगा पर मैं स्वर्गसे चयकर कहां उपजूगा मेरे अर लदमणके अर रावणके केते भव वाकी हैं सो कहो। तब सर्वज्ञदेवने कही--हे प्रतीन्द्र सुन, वे दोनों विजयावती नगरीमें सुनंद नामा कुटुम्बी सम्यकदृष्टि उसके रोहिणी नामा भार्या उसके गर्भ में अरहदास ऋषिदास नामा पुत्र होवेंगे महा गुणवान निर्मलचित्त दोनों भाई उत्तम क्रियाके पालक श्रावकके व्रत आराध समाधिमरण कर जिनसजका ध्यान धर स्वर्गमें देव होयगे तहां सागरांत पयंत सुख भोग स्वर्गसे चयकर बहुरि वाही नगरमें बडे कुल में उपजेगे सो मुनिनिको दान देय कर हरिक्षेत्र जो मध्यम भोग भूमि वहां युगलिया होय दोय पल्यकी आयु भोग स्वर्ग जाबेंगे बहुरि उसही नगरमें राजा कुमारकीर्ति राणी लक्ष्मी तिनके महा योधा जयकान्त जयप्रभ नामा पुत्र होवेगें बहुरि तपकर सातवें स्वर्ग उत्कृष्ट देव होंवेंगे, देवलोकके महासुख भोगेंगे अर तू सोलवां अच्युत स्वर्ग वहांसे चयकर या भरतक्षेत्रमें रत्नस्थलपुर नामा नगर वहां चौदह रत्नका स्वामी पटखंड पृथिवीका धनी चक्र Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौतेईसवा पर्व नामा चक्रवर्ती होयगा तब वे सातवें स्वर्गसे चयकर तेरे पुत्र होवेंगे रावणके जीवका नाम तो इन्द्ररथ अर वसुदेवके जीव का नाम मेघरथ दोनों महाधर्मात्मा होवेंगे परस्पर उनमें अतिस्नेह होयगा अर तेरा उनसे अतिस्नेह होयगा जिस रावणने नीतिसे तीन खंड पृथिवीका अखंड राज्य किया अर ये प्रतिज्ञा जन्मपर्यत निभाई जो परस्त्री मोहि न इच्छे ताहि मैं न सेऊ सो रावणका जीव इन्द्ररथ धर्मात्मा कैयक श्रेष्ठ भव थार तीर्थंकर देव होयगा तीनलोक उसको पूजेंगे अर तू चक्रवर्ती राज्यपद त मुनिव्रतधारी होय पंचोत्तरों में वैजयंत नामा विमान तहा तपके प्रभावसे अहमिन्द्र होवेगा तहांसे चयकर रावणका जीव तीर्थकर उसके प्रथम गणधर होय निर्वाण पद पावेगा। यह कथा श्रीभगवान राम केवली तिनके मुख प्रतीन्द्र सुनकर अति हर्षित भया बहुरि सर्वज्ञदेवने कही-हे प्रतीन्द्र ! तेरा चक्रवर्ती पदका दूजा पुत्र मेघरथ सो कैयक महाउत्तम भवधर धर्मात्मा पुष्कर द्वीप महा विदेह क्षेत्रमें शतपत्र नामा नगर तहां पंचकल्याणकका धारक तीर्थकर देव चक्रवर्ती पदको धरे होयगा संसारका त्यागकर केवल उपजाय अनेकोंको तारेगा पर आप परमधाम पधारेगा, ये वासुदेवके भव तोहि कहे अर मैं अब सात वर्षमें आयु पूर्णकर लोक शिखर जाऊंगा जहांसे बहुरि आना नाही, अर जहां अनंत तीर्थकर गए अर जावेंगे अनंत केवली तहां पहुंचे जहां ऋषभादि भरतादि विराजे हैं अविनाशी पुर त्रैलोक्यके शिखर है, जहां अनन्तसिद्ध हैं, वहां मैं तिष्ठेगा, ये वचन सुन प्रतींद्र पद्म नाम जे श्रीरामचन्द्र सर्वज्ञ वीतराग तिनको बार२ नमस्कार करता भया पर मध्यलोकके सर्व तीर्थ बन्दे भगवानके कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय पर निर्वाणक्षेत्र वहां सर्वत्र पूजाकर अर नन्दीश्वरद्वीपमें अंजनिगिरि दधिमुख रतिकर तहां बडे विधानसे अष्टाह्निकाकी पूजा करी, देवाधिदेव जे अरहंत सिद्ध तिनका ध्यान करता भया, अर केवलोके वचन सुन जैसा निश्चय भया जो मैं केवली होय चु का अल्प भव हैं अर भाईके स्नेह से भोगभूमिमें जहां भामण्डलका जीव है तहां उसे देखा अर उसको कल्याणका उपदेश दीया अर बहुरि अपना स्थान सोलवां स्वर्ग वहां गया जाके हजारों देवांगना तिनसहित मानसिक भोग भोगता भया । श्रीरामचन्द्र की सतरह हजार वर्ष की आयु सोलह धनुषकी ऊंची काया कैयक जन्मके पापोंसे रहित होय सिद्ध भये वे प्रभु भव्यजीवोंको कल्याण करो जन्म जरा मरण महारिपु जीते परमात्मा भए जिनशासनमें प्रगट है महिमा जिनकी जन्म जरा मरणका विच्छेदकर अखंड अविनाशी परम अतींद्रिय सुख पाया सुर असुर मुनिवर तिनके जे अधिपति तिनकर सेयवे योग्य नमस्कार करने योग्य दोषोंके विनाशक पच्चीसवर्ष तपकर मुनिव्रतपाल केवली भए सो आयु पर्यंत केवली दशामें भव्योंको धर्मोपदेश देय तीन भवनका शिखर जो सिद्धपद वहां सिधारे। सिद्धपद सकल जीवोंका तिलक है राम सिद्ध भए तुम रामको शीस निवाय नमस्कार करो राम सुरनर मुनियों कर आराधवे योग्य शुद्ध हैं भाव जिनके संसारके कारण जे रागद्वेष मोहादिक तिनसे रहित हैं परम समाधिके कारण हैं अर महा मनोहर हैं, प्रतापकर जीता है तरुण सूर्यका तेज जिनने पर उन ऐसी शरदकी पूर्णमासीके चन्द्रमामें कांति नहीं सर्व उपमारहित अनु. Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ पद्म-पुराण पम वस्तु है अर स्वरूप जो आत्मरूप उसमें आरूढ हैं, श्रेष्ठ हैं चरित्र जिनके, श्रीराम यतीश्वरों ईश्वर देवोंके अधिपति प्रतीन्द्र की मायासे मोहित न भए जीवोंके हितू परम ऋद्धिकर युक्त अष्टम बलदेव पवित्र शरीर शोभायमान अनन्त वीर्यके थारी अतुल महिमा कर मंडित निर्विकार अठारह दोष कर रहित अष्टादशसहस्र शीलके भेद तिनकर पूर्ण श्रति उदार अति गंभीर ज्ञानके दीपक तीन लोक में प्रकट हैं प्रकाश जिनका अष्टकर्मके दग्ध करणहारे गुणोंके सागर क्षोभरहित सुमेरुसे अचल धर्मके मूल, कषायरूप रिपुके नाशक समस्त विकल्प रहित महा निद्वंद्व जिनेन्द्रके शासनका रहस्य पाय अंतरात्मा से परमात्मा भए उनने त्रैलोक्य पूज्य परमेश्वर पद पाया तिनको तुम पूजो, धोय डारे हैं कर्म रूप मल जिनने केवलज्ञान केवल दर्शनमई योगीश्वरों के नाथ सर्व दुखके दूर करणहारे मन्नार्थके मथन हारे तिनको प्रणाम करो, यह श्रीबलदेवका चरित्र महा मनोज्ञ जो भावधर निरन्तर बांचे-सुने पढे पढावे शंकारहित होय महाहर्षका भरा रामकी कथा का अभ्यास करे तिसके पुण्यकी वृद्धि होय र वैरी खड्ग हाथमें लिए मारिनेको आया होय सो 'शान्त होय जाय, या ग्रन्थके श्रवणसे धर्मके अर्थी इष्ट धर्मको लहैं यश का अर्थी यशको पावै राज्य भ्रष्ट हुआ पर राज्य कामना होय तो राज्य पावै यामें संदेह नाही, इष्ट संयोगका अर्थी इष्टसंयोग लह्रै धनका अर्थी धन पावै, जीतका अर्थी जीत पावै स्त्रीका अर्थी सुन्दर स्त्री पवै लाभका लोभी लाभ शवै, सुखका अर्थी सुख पावै अर काहूका कोई वल्लभ विदेश गया होय और उसके आवे की आकुलता होय सो वह सुखसे घर श्रावै जो मन में अभिलाषा होय सोई सिद्ध होय सर्व व्याधि शांत होय ग्रामके नगरके वनके देव जलके देव प्रसन्न होंय पर नवग्रहों की बाधा न होय, क्रूर ग्रह सौम्य होय जांय अर जे पाप चितवनमें न आवैं वे विलाय जांय पर सकल अकल्याणक राम कथा कर क्षय होय जांय, अर जितने मनोरथ हैं वे सब राम कथा के प्रसादते पावें घर वीतराग भाव दृढ होय उसकर हजारां भवके उपाजे पापको प्राणी दूर करे कष्टरूप समुद्रको तिर सिद्धपद शीघ्र पावै । यह ग्रन्थ महा पवित्र हैं, जीवको समाधि उपजावनका कारण है नाना जन्ममें जीवने पाप उपाजें महा क्लेशके कारण तिनका नाशक है अर नानाप्रकारके व्याख्यान तिनकर संयुक्त है जिसमें बडे बडे पुरुषों की कथा, भव्य जीवन रूप कमलोंको प्रफुल्लित करणहारा हैं । सकल लोक कर नमFare करिये योग्य श्रीवर्धमान भगवान उनने गौतमसे कहा अर गौतमने श्रेणिकसे कहा । याही भांति केवल श्रुतवली कहते भए । रामचन्द्रका चरित्र साधुओं की समाधिकी वृद्धिका कारण सर्वोत्तम महा मंगलरूप सो मुनिनिकी परिपाटी कर प्रकट होता भया । सुन्दर हैं वचन जिसमें समीचीन अर्थको थरे यति अद्भुत इंद्रगुरु नामा मुनि तिनके शिष्य दिवाकरसेन तिनके शिष्य लक्ष्मणसेननके शिष्य रविषेण तिन जिनश्राज्ञा अनुसार कहा । यह राम का पुराण सम्यक दर्शनकी सिद्धिका कारण महा कल्याणका कर्ता निर्मल ज्ञानका दायक विचक्षण जीवों को निरंतर सुनित्रे योग्य हैं अतुल पराक्रमी अद्भुत आचरणके धारक महासुकृती जे दशरथके नन्दन तिनकी महिमा कहां लग कहूं इस ग्रन्थ में बलभद्र नारायण प्रतिनारायण तिनका विस्तार रूप चरित्र है । जो यामें बुद्धि लगावे तो अकल्याणरूप पापोंको तजकर शिव कहिए मुक्ति उसे अपनी करे। जीव Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसौतईसर्वि विषयकी वांछाकर अकल्याणको प्राप्त होय है । विषयाभिलाष कदाचित् शांतिके अर्थ नहीं, देखो विद्याधरनिका अधिपति रावण परस्त्रीकी अभिलाषा कर कष्टको प्राप्त भया कामके राग कर हता गया ऐसे पुरुषोंकी यह दशा है तो और प्राणी विषय वासना कर कैसे सुख पावें, रावण हजारां खियों कर मण्डित निरंतर सुख सेवे था इप्त न भया परदाराकी कामना कर विमाशको प्राप्त भया इन व्यसनोंकर जीव कैसे सुखी होय जो पापी परदाराका सेवन करे सो कष्टके सागरमें पडे अर श्रीरामचन्द्र महा शीलवान परदारा पराङ मुख जिनशासनके भक्त थर्मानुरागी बहुत काल राज्य भोग संसारको असार जान वीतरागके मार्गमें प्रवर्ते परम पदको प्राप्त भये और भी जे वीतरागके मार्गमें प्रक्लेंगे वे शिवपुर पहुंचेंगे इसलिये जे भव्य जीव हैं वे जिनमार्गकी दृढ प्रतीतिकर अपनी शक्ति प्रमाण व्रतका आचरण करो जो पूर्ण शक्ति होय तो मुनि होलो पर न्यून शक्ति होय तो अणुव्रतके थारक श्रावक होवो । यह प्राणी धर्मके फलकर स्वर्ग मोक्षके सुख पावे हैं अर पापके फलसे नरक निगोदके फल दुख पावे हैं यह निसंदेह जानो अनादि कालकी: यही रीति है धर्म सुखदाई अधमें दुखदाई पाप किसे कहिए पर पुण्य किसे कहिए, सो उरमें धारो, जेते धर्मके भेद है निन में सम्यक व मुख्य है, अर जितने पाप के भेद हैं, तिनमें मिथ्यात्व मुख्य है मिथ्यात्व कहा १ अतत्त्वकी श्रद्धा अर कुगुरु कुदेव कुधर्मका पाराथन परजीवको पीडा उपजावना अर क्रोथ मान माया लोभ की तीव्रता अर पांच इंद्रियोंके विषय सप्त व्यसनका सेवन अर मित्रद्रोह कृतघ्न विश्वासघात अभक्ष्यका भक्षण अगम्यमें गमन मर्मका छेदक वचन दुर्जनता इत्यादि पापके भेद हैं ये सब तजने अर दया पालनी सत्य बोलना चोरी न करनी शील पालना तृष्णा तजनी काम लोभ तजने शास्त्र पढना काहूको कुवचन न कहना गर न करना प्रपंच न करना अदेखसका न होना शान्त भावधरना परउपकार करना परदारा परधन परद्रोह तजना परपीडाका वचन न कहना बहु प्रारंभ बहु परिग्रह स्याग करना दान देना तप करना पर दुखहरण इत्यादि जो अनेक भेद पुण्यके हैं वे अंगीकार करने अहो प्राणी हो सुखदाता शुभ है अर दुःखदाता अशुभ है, दारिद्र दुःख रोग पीडा अपमान दुर्गति यह सब अशुभके उदयसे होय हैं अर सुख संपत्ति सुगति यह सब शुभके उदयसे होय हैं। शुम अशुभ ही सुख दुःखके कारण हैं अर कोई देव दानव मानव सुख दुःखका दाता नहीं अपने २ उपार्ने कर्मका फल सब भोगवे हैं सब जीवोंसे मित्रता करना किसीसे वैर न करना किसीको दुःख न देना सब ही सुखी हों यह भावना मनमें धारनी, प्रथम अशुभको तज शुभमें भावना बहुरि शुभाशुभसे रहित होय शुद्ध पदको प्राप्त होना, बहुत कहिवे कर क्या ? इस पुराणके श्रवण कर एक शुद्ध सिद्धपदमें आरूढ होना अनेक भेद कर्मोका विलय कर आनन्द रूप रहना । हो पंडित हो! परम पदके उपाय निश्चय थकी जिनशासन में कहे हैं वे अपनी शक्ति प्रमाण धारण करो जिस कर भवसागरसे पार होवो यह शास्त्र अतिमनोहर जीवोंको शुद्धताका देनहारा रवि समान संकल वस्तुका प्रकाशक है सो सुनकर परमानन्दस्वरूप में मग्न होवो, संसार असार है जिनधर्म सार है जाकर सिद्धपदको पाइये है सिद्धपदसमान और पदार्थ नाहीं जब श्रीभगवान त्रैलोक्यके सूर्य यर्द्धमान देवाथिदेव सिद्धलोकको सिधारे तब चतुर्थकाल के तीनवर्ष साढे आठ महीना शेष थे सो भगवानको Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपराग मुक्त भए पीछे पंचम कालमें तीन केवली अर पांच श्रुतकेवली भए सो वहां लग तो पुराका पूर्व था, जैसे भगवानने गौतम गणधरसे कहा अर गौतमने श्रेणिकसे कहा वैसा श्रुतकेवलीने कहा श्रीमहावीर पीछे पासठ वर्ष लग केवलज्ञान रहा अर केवली पीछे सौ वर्ष तक श्रुतकेवलीमहे पंचम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वामी तिनके पीछे कालके दोषसे ज्ञान घटता गया तब पुरामका विस्तार न्यून होता भया, श्रीभगवान महावीरको मुक्ति पथारे यारह सौ साढे तीन वर्ष भए सब रविषेणाचार्यने अठारह हजार अनुष्टुरश्लोकोंमें व्याख्यान किया । यह रामका चरित्र सम्यक्त्वका कारण केवली श्रुतकेवली प्रणीत सदा पृथिवी में प्रकाश करो जिनशासनके संवक देव जिनमति में परायण जिनधर्मी जीवों की सेवा करें हैं, जे जिनमार्गके भक्त हैं तिनके सभी सम्यक दृष्टि क्षेत्र आवे हैं नानाविधि सेवाकरें हैं महाभादर संयुक्त सर्व उपआयकर आपदामें सहाय करे हैं अनादिकाल से सम्यकदृष्टि देवों की यही रीति है। जैन शास्त्र अनादि है काहूका किया नहीं व्यंजन स्वर यह सब अनादि सिद्ध हैं रविषेणाचार्या कहे हैं मैं कछु नहीं किया शब्द अकृत्रिम है अलंकार छद थामा निर्मलचित्त होय नीके जानने या ग्रन्थमें धर्म अर्थ काम मोक्ष सब हैं अठारह हजार तेईस श्लोकों का प्रमाण पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ है इसपर यह भाषा भई सो जयवंत होवे, जिनधर्मकी वृद्धि होतो राजा प्रजा सुखी होवें ॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविर्षे श्रीरामका मोक्षप्राप्तिका वर्णन करनेवाला एकसौन्तेईसवां पर्व पूर्ण भया ।। १२३ ।। भाषाकारका परिचय । चौपाई -जम्बूद्वीप सदा शुभथान । भरतक्षेत्र ता माहि प्रमाण । उसमें आर्यखंड पुनीत। वसै ताहि में लोक विनीत ॥ १॥ तिसके मध्य ढंढार जु देश । नियसँ जैनी लोक विशेष । नगर सवाई जयपुर महा । तिसकी उपमा जाय न कहा ॥२॥ राज्य कर माथवनृप जहां । कामदार जेनी जन तहां । ठोर ठौर जिन मन्दिर बने । पूजें तिनको भविजन घने ॥३॥ वसे महाजन नाना जाति । सेफैं जिनमारग बहुन्याति ॥ रायमल्ल साधर्मी एक । जाके घटमें स्वपर विवेक ॥ ४ ॥ दयावंत गुणवंत सुज.न । पर उपकारी परम निधान !| दौलतराम सु ताको मित्र । तासों भाष्यो वचन पवित्र ॥५॥ पद्मपुराण महाशुभ ग्रन्थ । तामें लोकशिखरको पंथ ॥ भाषारूप होय जो येह । वहुजन वांच करें अतिनेह ॥६॥ ताके वचन हियेमें धार । भाषा कीनी श्रुतिः नुमार ॥ रविषेणाचारज कृतसार । जाहि पढ़ें वुधिजन गुगाधार ॥ ७॥ जिनर्मिनकी आज्ञा. लेय। जिनशासनमाही चित देय ॥श्रानन्दसुतने भाषा करी । नन्दो विरदो अतिरस भरी ॥८॥ सुखी होय राजा अर लोक । मिटी सबनके दुख अरु शोक । वरतो सदा मंगलाचार । उतरो बहुजन भपजल पार ॥8॥ सम्वत् अष्टादश शत जान । ता ऊपर तेईस बखान (१८२३)शुक्लपक्ष नवमी शनिवार । माघ मास रोहिणी ऋख सार ॥१०॥ दोहा--ता दिन सम्पूरण भयो, यह ग्रन्थ सुखदाय । चतुरसंघ मंगल करो, बढे धर्म जिनराय॥ या श्रीपद्मपुराण के, छंद अनुपम जान । सहस वीसदय पांच सो भाषा ग्रन्थ प्रमाण || इति श्रीपबपुराणजी भाषा समाप्त। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HT Jain Education temational