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________________ . पा-पुराण नामा कन्या, नेत्र अर मनको चुरानेवाली, कामका निवास, लक्ष्मीरूप कुमुदनीके प्रफुल्लित करनेको चन्द्रमाकी चांदनी, लावण्यरूप जलकी सरोवरी, आभूषणोंका आभूषण, इन्द्रियों को प्रमोदकी करणहारी, सो र जा मेघवाहनने उसको महा उत्साह कर परणा, उसके महारशनामा पुत्र भया, जैसे स्वर्गमें इन्द्र इद्राणी सहित तिष्ठे तैसे राजा मेघवाहनने राणी सुप्रभा सहित लंकामें बहुत काल राज किया। एक दिन राजा मेघवाहन अजितनाथकी बंदनाके लिये समोशरणमें गए वहां जब और कथा हो चुकी तव सगरने भगानको नमस्कार कर पूछा कि हे प्रभो ! इस अवसर्पणी कालमें धर्म चकके स्वामी तुम सारिखे जिनेश्वर कितने भए अर कितने होवेंगे, तुम तीनलोकके सुख के देनेवाले हो, तुम सारिपे पुरुषों की उत्पत्ति लोकमें आश्चर्यकारिणी है, अर चक्र रत्न के स्वामी कितने होवेंगे तथा वासुदेव बलभद्र कितने होवेंगे, इसभांति सगरने प्रश्न किये । तर भगवान अपनी ध्वनिपे देव दुदुभी को ध्वनिको निराकरण करते हुये व्याख्यान करते भए । अर्धमागधी भाषाके भाषण हारे गवान उनके होंठ न हालें यह बड़ा आश्चर्य है । कैसी है दिव्य बनि उपजाया है श्रोताओं के कानको उत्साह जनै । उत्सर्गिणी अवसर्पिणी प्रत्येक कालमें चौबीस तीर्थर होय हैं, जिस समय मोहरूप अंधक रसे समस्त जगत् आच्छादित हुआ धर्मका विचर नाहीं और कोई भी र जा नाही, ता समय भगवान ऋषभदेव उपजे, तिन ने कर्म भूमि की रचना कर तबसे कृतयुग कहाया । भगानने क्रियाके भेदसे तीन वर्ण यापे पर उनके पुत्र भरतने विप्र वर्ण थाये, भरतका तेज भी ऋषभ समान है भगवान ऋषभदेवने जिन दीक्षा धरी अर भव तापकर पीडित भव्यजीवाको शभभावरूप जलसे शान्त किया श्रावकके धर्म अर यतीके धर्म दोऊ प्रकट किये। जिनके गुणनिकी उपमा जगतविष कोऊ पदार्थ नाहीं । शिखरसे आप निर्वाण को पधारे । ऋषभदेवकी शरण पाय अनेक साधु सिद्ध भए कई एक स्वर्गके सुख को प्राप्त भए कई एक भद्र परिणामी मनुष्य भवको प्राप्त भए, र बई एक मारीचादि मिथ्यात्व के र.गकरि संयुक्त अत्यन्त उज्जल भगनके मार्ग को अवलोकन न करते भए, जैसे घुग्गू ( उल्लू ) सूर्य प्रकाशको न जाने तैसे कुधर्मकों अंगीकार र कुदेव भए बहुरि नरक तिर्यच गतिको प्राप्त भए । भगवान ऋषभदेव को मुक्ति गर पचास लाख कोटि सागर गर तर सर्वार्थसिद्धिस घय द्वितीय तीर्थकर हम अजितनाथ भए । जव धर्मकी ग्ल नि होय अर मिथ्यादृष्टियोंका अधिकार होय आचारमा अभाव होय तब भगाःन तीर्थ र प्रकट होयकर धर्मका उद्यत करें हैं अर भव्य जीव धर्मको पाय सिद्ध स्थानको प्राप्त होय है अब हमको मोक्ष गए पीछे बाईस तीर्थकर और होंगे, तीन लोकमें उद्योत करनेवाले वे सर्व मुझ सरीखे कांति वीर्य विभूतिके धनी त्रैलो. क्यपूज्य ज्ञान दर्शनरूप होंगे, तिनमें तीन तीर्थकर १ शांति २ कुंथु ३ अर चक्रवर्ती पदके भी धारक होवेंगे । सो चौबीसोंके नाम सन-ऋषभ १, अजित २, संभव ३, अभिनन्दन ५, सुमति ५, पद्मप्रभ ६, सुपार्श्व ७, चन्द्रप्रभ ८, पुष्पदंत ६. शीतल १०, श्रेयांस ११, वासुपूज्य १२, विमल १३, अनन्त १४, धर्म १५, शान्ति १६, कुंथु १७, अर १८, मल्लि १६, मुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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