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________________ एकमोलोजहवा पक्ष अपना सिर तेरे पायनमें दूं तोभी नहीं बोले हैं तर चरण कमल चन्द्रकांति मणिसे अधिक ज्योतिको धरे जे नखोकर शोभित देव विद्याधर संवे हैं । हे देव ! अब शीघ्र ही उठो मेरे पुत्र वन को गये दूर न गये हैं तिनको हम तुरतही उलटालावे पर तुम विना यह तिहारी राणी आर्तध्यानकी भरी कुरचीकी नाई कल कलाट करे हैं तुम्हारे गुणरूप पाशसों बंधी पृथिवीमें लोटी लोटी फिर हैं तिनके हार विखर गए हैं और सीम फल चूडामणि कटिमेख ना कभरण विखरे फिरे हैं यह महा विलापकर रुदन कर हैं अति श्राकुल हैं इनको रुदनसे क्यों न निवारो अब मैं तुम विना कहा करू कहां जाऊं? ऐना स्थानक नाहीं जहां मोहि विश्राम उपजै अर यह तिहारा चक्र तुमसे अनु क्त इसे तजना तुमको कहा उचित अर तिहारे वियोगमें मोहि अकेला जान यह शोकरूप शत्रु दवाब है अब मैं हीन पुण्य कहा करू ? माहि अग्नि ऐसे न दहे अर ऐसा विष कंठको न सोख जैसा तिहारा विरह सोखे हैं । अहो लक्ष्मीधर, क्रोय तज धनी बेर भई अर तुम असे धर्मात्मा त्रिकाल सामयिकके करणहारे जिनराज की पूजामें निपुण मो सामायिकका समय टल पूजाका समय टला अब मुनिनिके आहार देयवेकी वेला है सो उठो। तुम सदा साधुनिके सेवक ऐया प्रमाद क्यों करो हो, अब यह सूर्य भी पश्चिम दिशाको आया काल सरोवर में मुद्रिन होय गये तैसे तिहारे दर्शन विना लोकोंके मन मुद्रित होग गये या प्रकार विलाप करते २ दिन व्य .ीत भय निशा भई तब राम सुन्दर सेज बिछाय भाई को भुजावोंमें लेय सूते, किसी का विश्वास नाहीं रामने सब उद्यम तजे एक लक्ष्मणमें जीर, रात्रिको कानों में कहे हैं-हे देव ! अब तो मैं अकेला हूं तिहारे जीवकी बात मोहि कहो तुम कौन कारण असी अवस्थाको प्राप्त भये हो तिहारा वदन चन्द्रमात अतिमनोहर अब कांतिरहित क्यों मासे हे र तिहारे नंत्र मंद पवनकर चंबल जो नील कमल उस समान अब और रूप क्यों भासे है अहो तुमको कहा चाहिए सो ल्याऊ हे लक्ष्मण ! ऐसी चेष्टा करनी तुमको साई नाही, जो मन में होय सो मुखकर आज्ञा करो अथवा मीता तुमको याद आई होय वह पतिव्रता अपने दुखमें सहाय थी सो तो अब परलोक गई तुमको खेद करना नाही, हे धीर ! विषाद तजो विद्याधर अपने शत्रु हैं सो छिद्र देखाए प्रब अयोध्या लुटेगी तातें यत्न करना होय सो करो पर हे मनोहर ! तुम काहसे क्रोध ही करते तब ऐसे अप्रसन्न देखे नहीं अब ऐसे अप्रसन क्यों भासो हो । हे वत्म, अब ये चेष्टा तजो प्रसन्न होवो मैं तिहारे पायन परू हूं नमस्कार करू हूं तुमतो महा विनयवंत हो सकल पृथ्वीमें यह बात प्रसिद्ध है कि लक्ष्मण रामका प्राज्ञाकारी सदा सन्मुख है, कभी परांगमुख नाहीं, तुम अतुल प्रकाश जगतके दीपक हो, मत कभी ऐसा होय जो काल रूप वायुकर बुझ जावो । हे राजनीके राजन ! तुमने या लोकको अति आनन्द रूप किया तिहारे राज्यमें अचैन किसीने न पाया। या भरत क्षेत्रके तुम नाथ हो अब लोकों अनाथ कर गमन करना उचित नहीं, तुमने चक्र कर शत्रुनिके सकल चक्र जीते अब कालचक्र का पराभव कैसे सहो तिहारा यह सुन्दर शरीर राज्य लक्ष्मी कर जैसा सोहता था, वैसाही मूर्छित भया सोहै है । हे राजे द्र ! अब रात्रि भी पूर्ण भई संध्या फूली सूर्य उदय होय गया अब तुप निद्रा तजो तुम जैसा ज्ञाता श्रीमुनिसुव्रतनाथके भक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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