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उनतीसा पर्व
२५१ शिथिल होय गया है। पूर्व ऊंची नीची धरती राजहंसकी न्याई उलंघ जाता मन बांछित स्थान जाय पहुँचता अब अस्थान कसे उठाभी नहीं जाय है। तुम्हारे पिताके प्रसादकर मैं यह शरीर नानाप्रकार लहाया था सो अब कुमित्रकी न्याई दुखका कारण होय गया पूर्वे मुझे वैरीनिके विदारनेकी शक्ति हुती सो अब तो लाठीके अवलंबन कर महाकष्ट से फिर हूं। बलवान् पुरुषनिकरि बैंचा जो धनुष वा समान वक्र मेरी पीठ हो गई है अर मस्तिकके केश अस्थिसमान श्वेत होय गए हैं पर मेरे दांत हु गिर गए मानों शरीरका याताप देख न सके, हे राजन् ! मेरा समस्त उत्साह विलाय गया ऐसे शरीरकर कोई दिन जीवूहूं सो बडा आश्चर्य है । जरासे अत्यंत जर्जर मेरा शरीर सोझ सकारे विनश जायगा, मोहि मेरी का की सुध नाहीं तो और सुथ कहांसे होय ? पूर्वे मेरे नेत्रादिक इंद्रिय विचक्षणनाको धरै हुते अब नाममात्र रह गए हैं. पाय धरू किसी ठौर अर परे काहू ठौर, समस्त भीतल दृष्टि से श्याम भासे है ऐसी अवस्था होय गई तो बहुत दिनोंसे राजद्वार की सेवा है सो नाही तज सकूहूं पक्के फल समान जो मेरा तन ताहि काल शीघ्र भक्षण करेगा, मोहि मृत्युका ऐसा भय नाहीं पा चाकरी चूकनेका भय है पर मेरे आपकी आज्ञा हीका अवलंवन है और अवलंबन नाहीं, शरीरकी अशक्तिताकर विलंब होय तामै कहा करू । हे नाथ ! मेरा शरीर जराके आधीन जान कोप मा को कृपा ही करो, ऐसे वचन खोजेके राजा दशरथ सुनकर याना हाथ कपोलके लगाय चिंताबान होय विचारता भया, अहो यह जलकी बुद बंदा समान असार शरीर क्षणभंगुर है पर यह यौवन बहुत विभ्रनको धरे सन्ध्याके प्रकाश समान अनित्य है अर अज्ञानका कारण है विजलीके चमत्कार समान शरीर अर संपदा तिनके अर्थ अत्यंत दुखके साथन कर्म यह प्राणी करै है; उन्मत्त स्त्रीके कटाक्ष समान चंचल सर्पके फण समान विपके भरे, महातापके समूडके कारण ये भोग ही जीवन को ठौं हैं, तातै महाठग हैं, ये विषय विनाशीक इनसे प्राप्त हुआ जो दुख सो मूहोंको सुखम्प भासे है । ये मूह जीव विषयों की अभिलाषा करें हैं और इनको मनवांछित विषय दुष्प्राप्य हैं, विषयों के सुख देख मात्र मनोज्ञ हैं अर इनके फल अनि कटक हैं ये विषय इंद्रायणके फल सनान हैं, संगारी जीव इनको चाहै हैं सो बडा आश्चर्य है । जे उत्तम जन विषयोंको विषतुल्य जानकर तजे हैं अर तप करें हैं ते धन्य है, अनेक विवेकी जीव पुण्याधिकारी महा उत्साहके धरणहारे जिनशासनके प्रसादसे प्रबोथको प्राप्त भए हैं मैं कब इन विषयों का त्याग कर स्नेहरूप कीचसे निकस नितिका कारण जिनेन्द्रका तप आचरूगा। मैं पृथ्वीकी बहुत सुखसे प्रतिपालना करी अर भोग भी मनवांछित भोगे अर पुत्र भी मेरे महापराक्रमी उपजे । अब भी मैं वैराग्यमें बिलंब करू तो यह वी विपरीत है, हमारे वंशकी यही रीति है कि पुत्रको राज्यलक्ष्मी देकर वैगग्यको धारणकर महाधीर तप करने को वनमें प्रवेश करै ऐसा चिंतानकर राजा भोगनितें उदास चित्त कई एक दिन घरमें रहे । हे श्रेणिक ! जो वस्तु जा समग जा क्षेत्र में जाकी जाको जेसी पास होनी होय, तासमय ता चेत्रमें तासे ताको तेती निश्चय सेती हो ही होय ॥
गौतम स्वामी कहै हैं, हे मगध देशके भूपति ! कैयक दिनोंमें सब प्राणियोंके हितू सर्व
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