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आठवां प
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भोग मुनि होय महा तपकर लोक शिखर सिधारे यह हरिषेणका चरित्र रावण सुनकर हर्षित भया । सुमालीकी बारम्बार स्तुति करी श्रर जिन मन्दिरोंका दर्शनकर रावण डेरेमें आया, डेरा सम्मेद शिखर के समीप भया ।
अथानन्तर रावणको दिग्विजयमें उद्यमी देख मानो सूर्य भी मयसे दृष्टिगोचर श्रस्त भया, संध्याकी ललई समस्त भूमण्डलमें व्याप्त भई मानों रावण के अनुरागसे जगत हर्षित भया फिर संध्या मिटकर रात्रिका अन्धकार फैला मानों अन्धकार प्रकाश के भय से दशमुखके शरण श्राया बहुरि रात्रि व्यतीत भई पर प्रभातकी क्रियाकर सिंहासनपर विराजे अकस्मात् एक ध्वनी सुनी मानी वर्षाकालका मेघ ही गाजा जिससे सकल सेवा भयभीत भई, कटकके हाथी जिन वृक्षोंसे बंधे थे उनको भंग करते भए, कनरे ऊंचेकर तुरंग हींसते भए, तब रावण बोले'यह क्या है ? यह मरणेको हमारे ऊपर कौन आया ? यह वैश्रवणा आया अथवा इंद्रका प्रे सौम या अथवा हम हो निश्चल तिष्ठे देख कोई और शत्रु श्राया ।' तब रावणकी आज्ञा पाय प्रहस्त सेनापति उस ओर देखनेको गया र पर्वतके आकार मदोन्मत्त अनेक लीला करता हाथी देखा ।
तब आयकर रावणसे विनती करी कि हे ! सेव की घटा समान हाथी है इसको इन्द्र भी पकड़नेको समर्थन भया । तत्र रावण हंसकर बोले – हे प्रहस्त ! अपनी प्रशंसा करणी योग्य नहीं, मैं इस हाथीको एक क्षणमात्र में वश करूंगा । यह कहकर पुष्पक विमानमें बढ़कर हाथी देखा, भले मजे लक्षणोंसे मंडित इन्द्रनीलमणी समान सुन्दर जिनका शरीर है, कमल सज्ञान आरक्त पा है, अर महा मनोहर उज्जल दागाल दांन हैं नत्र कछु इक पीत हैं, पीठ सुन्दर है, अगला अंग उतंग है, अर लम्भी पूत्र है, अर बड़ी सूंड है, अत्यन्त स्निग्ध सुन्दरनख हैं, गोल कठोर महा सुन्दर कुम्भस्थल हैं, प्रबल चरण हैं माधुर्यताकोलिए महावीर गम्भीर है गजेना जिसकी, पर करते हुवे मदकी सुगन्धतासे गुंजार करे हैं भ्रमर जापर दुदुम्भी बाजों की ध्वनि समान गम्भीर हैं नाद जात्रा पर ताड वृक्षके पत्र समान कर्ण उनको हलावता मन र नेत्रोंको हारी सुन्दर लीलाको करता, रावणने देखा । देखकर बहुत प्रसन्न मया । हर्ष कर रोमांच होय आए । तब पुष्पक नामा विमानसे उतर गाठी कमर बांधकर उसके आगे जाय शंख पूरा जिसके शब्दसे दशदिशा शब्द रूप भई ! तव शंखका शब्द सुन चित्तमें क्षोभकों पाय हाथी गरजा अर दशमुख के सम्मुख आया । बलकर गर्वित रावणने अपने उचरासनका गेंद बनाय शीघ्र ही हाथीकी ओर फेंका | रावण गजकेलिमें प्रवीण है सो हाथी तो गेंद बनेको लगा अर राव ने झटसे उछल कर अंगों की ध्वनिसे शोभित गजके कुम्भस्थलपर हस्ततल मारा, हाथी सूंडसे पकड़नेका उद्यम करने लगा । तब रावण अति शीघ्रता कर दोऊ दाँत के बीच होय निकस गए, हाथीसे अनेक क्रीडा करी, दशमुख हाथीकी पीठार चढ़ बैठे, हाथी विनयान शिष्यकी न्याई खड़ा होय रहा, तब आकाराने रावण र पुष्पोंकी वर्षा भई र देवोंने जयजयकार शब्द किये। अर रावण की सेना बहुत हर्षित नई, रावणने हाथीका.
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