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________________ छियालीसगां पर्ण ३४९ उठ चले बहुरि पीछा श्रावे जैसे हस्ती सूड पटके तैसे भूमिमें हाथ पटके सीताको वरावर चितारता आंखनिते आंसू डारे कबहुं शब्द कर बु नावे .बहूं हूंकार शब्द करे कबहुं चुप होय रहे कपई वृथा बकवाद करे कबहूं सीता २ वार २ रके । कबहुं नीचा मुख कर नखनिकरि धरती कुचरे,कबहुं हाथ अपने हिय लगावे कबहुं बहू ऊंचा करे कबहु मेजपर पडे कबहूं उठ बैठे कबहूं काहूं कमल हिये लगवे, कबहुं दूर डार देय कबहु शृंगार का काव्य पढे कबहूं आकाशकी ओर देखे कबहूं हाथ से हाथ मसले कबहूं पगसे पृथिवी हणे निवास रूप अग्निकर अधर श्याम होय गए कबहूं कह २ शब्द करे कबहूं अपने केश बखेरे कबहूं बांधे कबहूं जंभाई लेय, कबहूं मुखपर अंचल डारे, कबहूं बस्त्र सब पहिरलेय, सीताक चित्राम वनावे, काहूं अश्रुपातकर आईकरें, दीन भया हाहाकार शब्द करे, मदन ग्रहकर पीडित अनेक चेष्टा करे, आशारूप इंधनकर प्रज्वलित जो कामरूप अग्नि ताकर ताका हृदय जरे अर शरीर जले, कबहुं मनविणे चिंतवे कि मैं कौन अवस्थाको प्राप्त भया जाकर अपना शरीर ह नाहीं धार सकू हूं, मैं अनेक गढ अर सागरके मध्य ष्ठेि बडे बडे विद्याधर युद्धविष हजारां जाते अर लोकवि प्रसिद्ध जो इंद्र नामा विद्याधर सो बन्दी गृहविष डारा, अनेक युद्धविष जीते राजनिक समूा, अब मोह कर उन्मत्त मया मैं प्रमादके बश प्रबाहूं । गौतम स्वामी राजा श्रेणिक कहे हैं-राजन् ! रावण तो कामके वश भया पर विभीषण मह बुद्धिम न मंत्रविषै निपुण सब मंत्रिनिको इनहाकर मंत्र विचारा, कैसा है विभीषण ? रावणके राज्य का भार ज के सिरपर पडः है, समस्त शा त्रनिके ज्ञानरूप जलकर धोया है मनरूप मैल जाने, रावणके ता समान और हितू नाहीं । विभीषणको सर्वथा रावणके हितहीका चितवन है सो मंत्रिनिकहना भया-अहो वृद्ध हो ! राजाकी तो यह दशा अब अपने ताई कहा कर्तव्य सो कहो ? तब विभीषणकं वचन सुन संभिन्नमति मंत्री कहता भया हम कहा कहें, सर्वकार्य विगडा । रावणकी दाहिनी भुजा खरदूषण हुता सो मूत्रा पर विराथित कहा पदार्थ सो स्यालते सिंह भया, लक्ष्मणके युद्धविर्ष महाई भया अर बानरवंशी जोरसे बस हो रहे हैं इनका आकार तो कछू और ही, और इनके चित्तमें कछु और ही है जैसे सर्प ऊपर तो नरम माही विष, अर पवनका पुत्र जो हनुमान् सो खरदूषण की पुत्री अनंगकुनमाका पती सो सुग्रीवकी पुत्री परणा है, सुग्रीवको पक्ष विशेष है । यह वचन संभिन्नमति के सुन पंचमुख मंत्री मुसकाय बोला-तुम खरदूषण के मरण कर सोच किया सौ शूरवीरनिकी यही रीति है जो संग्राम विष शरीर तजें अर एक खरदूषणके मरणकर रावणका कहा घट गया जैसे पवनके योगते समुद्रते एक जल की कणिका गई तो समुद्र का कहा न्यून भया अर तुम औरनिकी प्रशंसा करो हो सो मेरे चित्त में लज्जा उपजे है, कहां रावण जगत्का स्वामी पर कहां वे वनवासी भूमिगोचरी, लक्ष्मण के हाथ सूर्यहास खड्ग आया तो कहा अर विराधित आय मिला तो कहा जैसे पहाड विषम है अर सिंहकर संयुक्त है तो हू कहा दावानल न दहे ? सर्वथा दहे। तब सहस्रमति मंत्री माथा हलाय कहता भया कहा ये अर्थहीन बातें कहो हो, जामें स्वामीका हित होय सो करना, दूसरा स्वन्प है अर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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