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पद्म पुराण हे श्रणिक, सात ही वन अद्भुत हैं उनके नाम सुन-प्रकीर्णक, जनानन्द, सुखसेव्य, समुच्चय, चारण प्रिय, निबोध, प्रमद । तिनमें प्रकीर्णक पृथिवी वि ताके ऊपर जनानन्द जहां चतुर जन क्रीडा करें अर तीजा सुखसेव्य अतिमनोग्य सुन्दर वृक्ष अर वेल कारी घटा समान सघन सरोवर सरिता वापिका अतिमनोहर अर समुच्चय सूर्यका आताप नाही वृक्ष ऊचे कहूं ठौर स्त्री क्रीडा करें कहूं ठौर पुरुष अर चारणप्रिय बनमे चारण मुनि ध्यान करें पर निबोध ज्ञानका निवास सवनिके ऊपर अति सुन्दर प्रमद नामा बन ताके ऊपर जहां तांबूलकी बेल केतकीनिके बीडे जहां स्नानक्रीडा करनेको उचित रमणीक वापिका कमलनिकर शोमित हैं पर अनेक खा के महल अर जहां नारंगी विजोरा नारियल छुहारे ताड वृक्ष इत्यादि अनेक जातिके वृक्ष, सर्व ही वृक्ष पुष्पनिके गुच्छनि अर शोभे हैं जिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं अर जहां वेलिनके पल्लव मन्द पवन कर हाले हैं । जा वनविर्षे सघन वृक्ष समस्त ऋतुनिके फल फूलनिकर युक्त कारी घटा समान सघन हैं मोरनके युगलकर शोभित है ता वनकी विभूति मनोहर वापी सहस्रदल कमल है मुख जिनके सो नील कमल नेत्रनिकर निरखे हैं अर सरोवर विष मन्द मन्द कल्लोल उठे हैं सो मानो सरोवरी नृत्य ही करे हैं अर कोयल बोले हैं सो मानों वचनालाप ही करे हैं अर राजहंसनीनिके समूहकर मानो सरोवर हही है बहुन कहिवे कर कहा यह प्रमदनामा उद्यान सर्व उत्सवका मूल भोगोनिका निवास नन्दनवनहूत अधिक ता वनमें एक अशोकमालिनी नामा वापी कमलादि कर शोभित जाके मणि स्वर्ण के सिवाण, विचित्र प्राकारको धारे हैं द्वार जाके जहां मनोहर महल जाके सुन्दर झरोखे तिनकर शोभित जहां नीमरने झरें हैं वहां अशोक वृत्वके तले सीता राखी। कैती है सीता श्रीरामजीके वियोग कर महाशोक को धरे है जैसे इन्द्रते विछुरी इंद्राणी, रावणकी आज्ञाते अनेक स्त्री विद्याधरी खडी ही रहें नाना प्रकारके वस्त्र सुगन्ध आभूषण जिनके हाथ में भांति भांतिकी चेष्टा कर सीताको प्रसन्न किया चाहें । दिव्यगीत दिव्यनृत्य दिव्धवादित्र अमृत सारिखे दिव्यवचन तिन कर सीताको हर्षित किया चाहें परन्तु यह कहां हर्षित होय जैसे मोक्ष संपदाको अभव्य जीव सिद्ध न कर सके तैसे रावणकी दूती सीताको प्रसन्न न कर सकीं। ऊपर ऊपर रावण दूती भेजै, कामरूप दावानलकी प्रज्वलित ज्वाला ताकर व्याकुल महाउन्मत्त भांति भांतिके अनुरागके वचन सीताको कह पठावे यह कछू जवाब नाहीं देय । दूती जाय रावणसों कहैं-हे देव ! वह तो आहार पानी तज बैठी है तुमको कैसे इच्छे वह काहूसों बात न करे निश्चल अंगकर तिष्ठे है हमारी ओर दृष्टिही नाहीं धरे, अमृत हूते अति स्वादु दुग्धादि कर मिश्रित बहुत भांति नाना प्रकारके व्यंजन ताके मुख आगे धरे हैं सो स्पर्श नाहीं।
यह दतिनिकी बात सुन रावण खेदखिन्न होय मदनाग्निकी ज्वाला कर व्याप्त है अंग जाका महा आरतरूप चिन्ताक सागरमें डुबा, कबहुं निश्वास नाखे, कबहूं सोच करे, सूक गया है मुख जाका कबहूं कछु इक गावे कामरूप अग्नि कर दग्ध भया है हृदय जाका कछू इक विचार २ निश्चल होय है, अपना अंग भूमिमे डार देय फिर उठे सूनासा होय रहे, विना समझे
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