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छियालीसा पर्व लगी, सज्जनको देख शोक बढे ही है। विभोषण पूछा भया-हे बहिन ! तू कौन है ? तब सीता कहती भई, मैं राजा जनककी पुत्री भामण्डलकी वहिन रामकी राणी दशरथ मेरा सुसरा लक्ष्मण मेरा देवर सो खरदूषणते लडने गया ताके पीछे मेरा स्वामी भाईकी मदद गया, मैं वनमें अकेली रही सो छिद्र देख या दुष्टवित्तने हरी सो मेरा भरतार मो विना प्राण तजेगा ताते हे भाई! मोहि मेरे भरतार पै शीघ्र ही पठाओं, ये वचन सीताके सुन विभीषण रावणसे विनय कर कहता भया-हे देव ! यह परनारी अग्निकी ज्वाला है, आशीविष सर्पके फण समान भयंकर है, आप काहेको लाये अब शीघ्र पठाय देहु । हे स्वामी ! मैं बालवुद्धि हूं परंतु मेरी विनती सुनो मोहि आपने आज्ञा करी जो तू उचित वार्ता हमसों कहियो करि ताते आपकी अोझाते कहूं हूँ तिहारी कीर्ति रूप बेलके समूह कर सर्व दिशा व्याप्त होय रही है ऐसा न होय जो अपयशरूप अग्नि कर यह कीसिलता भस्म होय । यह परदाराको अभिलाष अयुक्त अति भयंकर महानिंद्य दोऊ लोकका नाश करन्हारा जाकर जात्में लज्जा उपजे उत्तम जननिकर धिक्कार शन्द पाइये है । जे उत्तम जन हैं तिनके हृदयको अप्रिय ऐसा अनीतिकार्य कदाचित् न कर्तव्य, प्राप सकल वार्ता जानी हो, सब मर्यादा आप ही ते रहें, आप विद्याधरनिके महेसर, यह वलता अंगारा काहे को हृदयमें लगावो, जो पापबुद्धि परनारी सेवे हैं सो नरकमें प्रवेश करे हैं जैसे लोहेका ताता गोला जल में प्रवेश करे तैसे पापी नरकमें पडे है । ये वचन विभीषणके सुनकर रावण बोला-हे भाई ! पृथिवी पर जो सुन्दर वस्तु हैं ताका मैं स्वामी हूं सब मेरी ही वस्तु हैं पर वस्तु कहांसे आई, ऐसा कहकर और बात करने लगा बहुरि महानीतिका थारी मारीच मंत्री क्षण एक पीछे कहता भया--देखी यह मोहकर्म की चेष्टा, रावण सारिखे विवेकी सर्व नीति को जान ऐसे कर्म करे । सर्वथा जे सवुद्धि पुरुष हैं तिनको प्रभात ही उठकर अपनी कुशल अकुशल चितवनी, विवेकसे न चूकना, या भांति निरपेक्ष भया महा बुद्धिमान मारीच कहता भया तब रावणने कछू पाला जबाब न दिया, उठकर खडा होगया, त्रैलोक्यमण्डन हाथीपर चढ सब सामन्तनिसहित उपवनते नगरको चला, वरछी, खड्ग, तोमर, चमर; छत्र, घजा आदि अनेक वस्तु हैं हाथनमें जिनके ऐसे पुरुष आगे चले जाय हैं अनेक प्रकारके शब्द होय हैं चंचल है ग्रीवा जिनकी ऐसे हजागं तुरंगनिपर चढ सुभट चले जाय हैं अर कारी घटा समान मद भरते गाजते गजराज चले जांय हैं अर नाना प्रकारकी चेष्टा करते उछलते पयादे चले जाय है, हजारा वादित्र बाजे, या भांति रावणने लंकामें प्रवेश किया। रावण के चक्रवर्तीकी सम्पदा तथापि सीता तृणसे हू जघन्य जाने, सीताका मन निष्कलंक यह लुभायवेको समर्थ न भया । जैसे जल में कमल अलिप्त रहे, तैसे सीता अलिप्त रहे । सर्व ऋतुके पुष्पनिकर शोभित नाना प्रकारके वृक्ष पर लतानिकर पूर्ण ऐस प्रमद नामा वन तहां सीता राखी । वह वन नंदनवन समान सुन्दर जाहि लखे नेत्र प्रसन्न होंय, फुल्लगिरिके ऊपर यह वन सो देखे पीछे और ठौर दृष्टि न लगे, जाहि लखे देवनिका मन उन्मादको प्राप्त होय मनुष्यनिकी कहा बात १ वह फुल्लगिरि सप्तवनकर वेष्टित सोहै जैसे भद्रशालादि वन कर सुमेरु सोहे है।
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