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maram
Avina
पद्म पुराण सुख भोगवे । जब ऐसा कहा तव जानकी अश्रुपात कर पूर्ण हैं नेत्र जाके गदगद वाणी कर कहती भई।
हे नारी ! यह बचन तूने सब ही विरुद्ध कहे । तू पतिव्रता कह वे । पतिब्रतानिके रखते ऐसे वचन कैसे निकसे । यह शीर मेरा छिदजावे भिदजावे हतजावे परंतु अन्य पुरुषको मैं न इच्छू, रूपकर सनत्कुमार समान हावे अथवा इंद्र समान होवे तो मेरे कौन अर्थ, मैं सर्वथा अन्य पुरुषको न इच्छू। तुम सब अठारह हजार राणी भेली होयकर आई हो सो तिहारा कहा मैं न करू, तिहारी इच्छा होय सो करो, ताही समय रावण आया मदनके आताप कर पीडित जैसे तृषातुर माता हाथी गंगाके तीर आवे तैसे सीताके समीप प्राय मधुर वाणी कर आदर कहता भया-हे देवी, तू भय मत करे । मैं तेरा भक्त हूँ। हे सुन्दरी, चित्त लगाय एक विनती सुन- मैं तीन लोकमें कौन वस्तु कर हीन जो तू मोहि न इच्छे, ऐसा कहकर स्पर्शकी इच्छा करता भया तब सीता क्रोध कर कहती भई-पापी ! परे जा, मेरा अंग मत स्परों, तब रावण कहता भया कोप अर अभिमान तज प्रसन्न हो, शची इन्द्राणी समान दिव्य भोगनिकी स्वामिनी होहु । तब सीता बोली--कुशील पुरुषका विभव मलसमान है अर सीलवंत हैं तिनके दारिद्र ही प्राभूषण है, जे उत्तम वंशमें उपजे हैं तिनके शीलकी हानिकर दोऊ लोक बिगरे तातें मेरे तो मरण ही शरण है। तू परस्त्रीकी अभिलाषा राखे है सो तेरा जीतव्य वृथा है । जो शील पालता जीवै है ताहीका जीतव्य सफल है या भांति जब सीता तिरस्कार किया तब रावण क्रोधकर मायाकी प्रवृत्ति करता भया । राणी अठारह हजार सब जाती रहीं पर रावणकी माया के भयते सूर्य अस्त होय गया। मद भरती मायाई हाथिनकी घटो आई, यद्यपि मीता भयभीत भई तथापि रावण के शरण न गई बहुरि अग्निके स्फुलिंगे वरसते भए अर लहलहाट करें हैं जीम जिनकी ऐसे सर्प पाए तथा प सीता रावणके शरण न गई बहुरि महा कर वानर फार हैं मुख जिन्होंने उछल उछल आए अति भयानक शब्द करते भर तथापि सीता रावण के शरण नगई पर अग्निके ज्वाला समान चपल है जिह्वा जिनकी ऐसे मायामई अजगर तिनने भय उपजाया तथापि सीता रावणके शरण न गई बहुरि अंधकार समान श्याम ऊचे व्यंतर हुंकार शब्द करते आए भय उपजावते भये तथापि सीता रावणके शरण न गई, या भांति नाना प्रकारकी चेष्टाकर रावणने उपसर्ग किये तथापि सीता न डरी, रात्रि पूर्ण भई, जिनमंदिरमें वादिअनिके शब्द होते भए द्वारनके कपाट उघरे, मानों लोकनिके लोचन ही उघरे, प्रात संध्या कर पूर्व दिशा आरक्त भई, मानों कुंकुमके रंगकरि रंगी ही है । निशाका अंधकार सर्व दा कर चन्द्रमाको प्रभारहित कर सूर्य उदय भया। कमल फूले, पक्षी विचरने लगे, प्रभात भया तब प्रति क्रिया कर विभीषण रावणके भाई खत्दूषणके शोक कर रावण पै आए । सो नीचा पुल किये आंसू डारते भूमिमें तिष्ठे ता समय पटके अंतर-शोककी भरी जो सीता ताके रुदनके शब्द विभीषणने सुने अर सुनकर कहता भया यह कौन स्त्री रुदन करे है ? अपने स्वामीते विडरी है याका शोक संयुक्त शब्द दुखको प्रकट दिखावे हैं। ये विभीषण के शब्द सुन सीवा अधिक रोवने
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