SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छियालीसा पर्व ३४५ हे नाथ, यह बडा आश्चय है तुम सारिखे प्रार्थना करें अर वह तुमको न इच्छे सो मंदभागिनी है या संसारमें ऐसी कौन परम सुन्दरी है जाका मन तिहारे देखे खण्डित न होय अर मन मोहित न होय अथवा वह सीता कोई परम उदयरूप अद्भुत त्रैलोक्य सुन्दरी है जाको तुम इच्छो हो अर वह तुमको नाही इच्छे है. ये तिहारे कर हस्तीकी सुण्ड समान रत्नजडित वाजूनिकरि युक्त तिनकरि उरसे लगाय बलात्कार क्यों न सेवहु तब रावण कही या सर्वाङ्ग सुन्दरीको मैं बलात्कार नाहीं गहूं ताका कारण सुन--अनन्तवीर्य केवलीके निकट में एक व्रत लिया है, वे भगवान देव इन्द्रादिक कर बन्दनीक ऐसा व्याख्यान करते भए । या संसारमें भ्रमण करते जीव परम दुखी तिनके पापनिकी निवृत्ति निर्वाणका कारण है एक भी नियम महा फलको देय है अर जिनके एक भी व्रत नाहीं वे नर जर्जरे व लश समान निर्गुण, हैं जिनके मोक्षका कारण कोई नियम नाही तिन मनुष्यनिमें और पशुनिमें कछू अन्तर नाहीं तातें अपनी शक्ति प्रमाण पापनिको तजहु सुकृतरूप धनको अंगीकार करहु, तातें जन्मके अांधेकी न्याई संसार रूप अन्धकूपमें न परो । या भांति भगवान्के मुखरूप कमलते निकसे वचनरूप अमृत सो पीय कर कैएक मनुष्य तो मुनि भए, कैएक अल्प शक्ति अणुव्रतको धारणकर श्रावक भए, कर्मके सम्बन्धते सबकी एक तुल्य शक्ति नाहीं, वहां भगवान केवलीके समीप एक साधु मोसे कृपा कर कहता भया-हे दशानन ! कछू नियम तुम हू लेह, तू दयाधर्मरूप रत्न नदीमें आया है। सो गुणरूप रत्ननिके संग्रह विना खाली मति जाहु, ऐसा कही तब मैं प्रणामकर देव असुर विद्याधर मुनि सर्वकी साक्षी ब्रत लिया कि जो परनारी मोहि न इच्छे ताहि मैं बलात्कार न सेऊ । हे प्राणप्रिये ! मैं विचारी जो मोस रूपवान नरको देख ऐसी कौन नारी है जो मान करे, तात मैं वलात्कार न सेऊ । राजानिकी यही रीति है जो वचन कहें सो निवाहें, अन्यथा महादोष लागे । तातें मैं प्राण तजू, ता पहिले सीताको प्रसन्न कर, घरके भस्म भए पीछे कुधां खोदना वृथा है । तब मन्दोदरी रावणको विह्वल जान कहती भई-हे नाथ ! तिहारी आज्ञा प्रमाण ही होयगा ऐसा कह देवारण्य नामा उद्यानमें गई, अर ताकी आज्ञा पाय रावण की अठारह हजार राणी गई, मन्दोदरी जायकर सीताको या भांति कहती भई-हे सुन्दरी, हर्षके स्थानकमें कहा विषाद कर रही है, जा स्त्रीके रायण पति सो जगत में धन्य है सर्व विद्याधरनिका अधिपति सुरपंतिका जीतनहारा तीन लोकमें सुन्दर ताहि क्यों न इच्छे, निर्जन वनके निवासी निर्थन शक्तिहीन भूमिगोचरी तिनके अर्थ कहा दुःख करे है, सर्व लोकमें श्रेष्ठ ताहि अंगीकार कर क्यों न सुख करै । अपने सुखका साधन कर, याविणे दोष कहा जो कछु करिये है सो अपने सुखके निमित्त करिये है अर मेरा कहा जो न करोगी तो जो कुछ तेरा होनहार है सो होगा, रावण महा बलवान है कदाचित् प्रार्थना भंगते कोप करे तो तेरा या बातमें अकारज ही है अर राम लक्ष्मण तेरे सहाई हैं सो रावण के क्रोध किये उनका भी जीवना नाहीं तातें शीघ्र ही विद्याघरनिका जो ईश्वर ताहि अंगीकार कर, जाके प्रसादते परम ऐश्वर्यको पायकर देवनके से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy