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________________ पी-पुराण जैसे अग्निकी ज्वालाको कोई पीय न सके अर नागके माथेकी मणिको न लेय सके, तैसे सीता को कोई मोह न उपजाय सके ! बहुरि रावण हाथ जोड सीस निवाय नमस्कार कर नानाप्रकारके दीनताके वचन कहे, सो सीता याके वचन कछू न सुने अर मंत्री आदि सन्मुख आए सर्व दिशानिते सामन्त आए, राक्षमनिके पति जो रापण सो अनेक लोकनिकर मंडित होता भया लोक जय जयकार शब्द करते भए, मनोहर गीत नृत्य बादित्र होते भये । रावण इन्द्रकी न्याई लंकामें प्रवेश किया, सीता चित्तमें चिंतवती भई, ऐसा राजा अमर्यााकी रीति करे, तब पृथिवी कौनके शरण रहे, जबलग रामचन्द्रकी कुशल नेमकी वार्ता मैं न सुनू तब लग खानपानका मेरे त्याग हैं। रावण देवारण्य नामा उपवन स्वर्ग समान परम सुन्दर जहां कल्पवृक्ष वहां सीताको मेलकर अपने मन्दिर गया ताही समय खादूषणके मरणके समाचार आए सो महा शोककर रावणकी अठारा हजार राणी ऊचे स्वरकर विलाप करनी भई अर चन्द्रनखा रावणकी गोदविषे लोटकर अति रुदन करती भई-हाय मैं अभागिनी हती गई, मेरा धनी मारा गया मेहके झरने समान रुदन किया अश्रुगत का प्रवाह बहा, पति अर पुत्र दोऊके मरणके शोकरूप अग्नि कर दग्थायमान है हृदय जाका, सो याहि विलाप करती देख याका भाई रावण कहता भयाहे वत्से ! रोपवेकर कहा या जगत्के प्रसिद्ध चरित्रको कहा न जाने है। बिना काल कोऊ वज्र से भी हता न मरे पर जब मृन्युफल आवे तब सहजही मरजाय । कहां वे भूमिगोचरी रंक अर कहां तेरा भतार विद्याधर दैत्यत्रिका अधिपति खरदूषण ताहि गे मारें, यह कालहीका कारण है जाने तेरा पति मारा ताको मैं मारूगा या भांति बहिन को धीर्य बंवाय कहता भया--प्रब तू भगवानका अर्चन कर, श्राविकाके व्रत धार, चन्द्रनखाको ऐसा कहकर राबण महलविणे गया सर्पकी न्याई निश्वास नाखता सेजार पडा वहां पटराणी मन्दोदरी आयकर भरतारको व्याकुल देख कहती भई-हे नाथ, खरदूषणके मरणकर अनि व्याकुल भए हो सो तिहारे सुबट कुलमें यह बात उचित नाहीं । जे शूरवीर हैं तिनके मोटी आपदामें हूँ विषाद नाहीं तुम बीराधिवीर क्षत्री हो तिहारे कुलमें तिहारे पुरुष अर तिहारे मित्र रण संग्रामपि अनेक क्षण भय सो कौन कौनका शोक करोग, तुम कवहूं काहूका शोक न किया, अब खरदूष का एना सोच क्यों करो हो ? पूर्ये इन्द्र के संग्राम में तिहारा काका श्रीम ली मरणको प्राप्त भया, अर अनेक बायव रणमें हते गए तुम काहूका कभी शोक न किया आज ऐसा सोच दृष्टि क्यों पडा है जैसा पूर्वे कबहूँ हमारी दृष्टि न पडा, तब रवण निश्वास नाख बोला-हे सुन्दरी, सुन मेरे अन्तःकरणका रहस्य तोडि कहूं हूँ, तू मेरे प्राणनिकी स्वामिनी है अर सदा मेरी बांछा पूर्ण करे है। जो तू मेरा जीतव्य चाहे है तो कोप मतकर मैं कहूँ सो कर, सो वस्तुका मूल प्राण हैं, तब मन्दोदरी कही जो श्राप कहो सो मैं करू तब रावण याकी सलाह लेय लिखा होय कहता भया-हे प्रिये, एक सीता नामा स्त्री स्त्रिनिकी सृष्टि में ऐभी और नाहीं सो वह मोहि न इच्छे तो मेरा जीवना नाही मेरा लावण्यतारूप यौवन माधुर्यमा सुन्दरता ता सुन्दरी को पायकर सफल होय । तब मंदोदरी याकी दशा कष्टरूप जान हंसकर दांवनिकी कांति स चांदनीको प्रकाशती संती कहती भई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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