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________________ MALAAAAAAA छयालीसवां पा ३४३ अथानन्तर खरक्षणके मन्दिरमें जिनमन्दिर देखकर रघुनाथने प्रवेश किया वहां अरिहंतकी प्रतिमा देख रत्नमई पुष्पनिकर अर्चा करी, एक क्षण मीताका संताप भूल गये, जहां २ भगवान्के चैत्यालय हुते वहां वहां दर्शन किया प्रशान्त भई है दुःखकी लहर जिनके रामचन्द्र खरदूषणके महल विष तिष्ठे हैं अर सुन्दर, अपनी माता चन्द्रनखा सहित पिता अर भाईके शोक कर महाशोक सहित लंका गया। यह परिग्रह विनाशीक है अर महादुःखका कारण है, विघ्नकर युक्त है, ताते हे भव्यजीव हो, तिनविषे इच्छा निवारो यद्यपि जीवनिके पूर्व कर्म के सम्बन्थम् परिग्रहकी अभिलाषा होय है तथापि साधुवर्गके उपदेशकरि यह तृष्णा निवृत्त होय है जैसे सूर्यके उदयते रात्रि निवृत्त होय है ॥ इति श्रीरगिषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा नचनिकागिणे रामको सीताका बियोग अर पाताल लंकाविषै निवास कर्णन करनेवाला पैंतालीसवां पर्व पूर्ण भया॥४५॥ - --*०*०*- -- अथानन्तर रावण सीताको लेय ऊंचे शिखरपर तिष्ठा धीरे धीरे चालता भया जैसे आकाशविष सूर्य चाले, शोककर तप्तायमान जो सीता ताका मुख कमल कुमलाय गया देख रतिके राग कर मूह भया है मन जाका ऐसा जो रावण सो सीताके चौगिर्द फिरे पर दीन वचन कहे-हे देवी! कामके वाण कर मैं हता जाऊ हूं, सो तोहि मनुष्यकी हत्या होयगी, हे सुन्दरी ! यह तेरा मुखरूप कमल सर्वथा कोपसंयुक्त है ती ह मनोग्य भासे है। प्रसन्न हो एक वेर मेरी ओर दृष्टि धर देख, तेरे नेत्रनिकी कांतिरूप जलकर मोहि स्नान कराय अर जो कृपा दृष्टि कर नाहीं निहारे, तो अपने चरण कमल रि मेरा मस्तक तोड, हाय हाय तेरी क्रीडाके बनमें मैं अशोक पक्ष ही क्यों न भया जो तेरे चरण कमल की पाथलीकी वात अत्यन्न प्रशंसा योग्य सो मोहि सलभ होती। भावार्थ अशोक वृक्ष स्त्रीके पगथली के घातसे फूले । हे कृशो री ! विमान के शिखर पर तिष्ठी सर्व दिशा देख, मैं सूर्य के ऊपर आकाशवि आया हूं | मेरु कुलाचल पर समुद्र सहित पृथिवी देख मानों काहू सिलावटने रची है ऐसे वचन रावणने कहे । तब वह महासती शीलका सुमेरु पटके अन्तर अरुचिके अक्षर कहती भई-हे अधम ! दूर रह, मेरे अंगका स्पर्श मत करे अर ऐसे निंद्य वचन कभी मत कहे, रे पापी ! अल्प आयु ! कुगतिगामी ! पयशी! तेरे यह दुराचार तोहीको भयकारी हैं, परदाराकी अभिलाषा करत तू महादुःख पावेगा। जैसे कोई भस्मकर दवी अग्निपर पांव धरे तो जरे, तैय तू इन कर्मनि रि बहुत पछावेगा। तू महामोहरूप कीचकरि मलिन चित्त है तोहि धर्मका उपदेश देना यथा है। जैसे अन्धके निकट नृत्य करे। हे क्षुद्र ! जे परस्त्रीकी अभिलाषा करे हैं वे इच्छः मात्र ही पापको बांधकर नरकमें महाकष्टको भोगे हैं। इत्यादि रूक्ष वचन सीता रावणसू कहे । तथापि कामकर हता है चित्त जाका सो अविवेक पाछा न भया अर खरदूषण की जे मदद गये हुते परम हितु शुक्र हस्त प्रहस्तादिक बे खरदूषणके मुवे पीछे उदास होय लंका पाए । सो रावण काहकी ओर देखे नाही, जानकीको नानाप्रकारके वचनझर प्रसन्न करे, सो कहां प्रसन्न होय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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