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पद्म-पुराण
फटजाय र जीवता बचे सो रत्ननटी विद्या खोय जीवता बचा सो विद्या तो जाती रही, जाकरि विमान में बैठ घर पहुंचे सो अत्यंत स्वास लेता कम्पूपर्वत पर चढ दिशाका अवलोकन करता भया, समुद्रकी शीतल पवनकर खेद मिटा, सो वनफल खाय कम्पूपर्वतपर रहे पर जे विराधितके से विद्याधर व दिशा नाना भेषकर दौडे हुते ते सीताको न देख पाछे आये । सो उनका मलिन मुख देख रामने जांनी सीता इनकी दृष्टि न आई, तब राम दीर्घ स्वांस नांख कहते भए - हे भले विद्याधर हो, तुमने हमारे कार्य के अर्थ अपनी शक्ति प्रमाण अति यत्र किया परन्तु हमारे अशुभका उदय, ताते अब तुम सुख अपने स्थानक जावो, हाथते बडवानल में गया र बहुरि कहाँ दीखे, कर्म का फल है सो अवश्य भोगना । हमारा तिहारा निवारा न निवरे, हम कुते छूटे, वनमें पैठे, तो हू कर्मशत्रुको दया न उपजी ताते हम जानी हमारे असाताका उदय है, सीता हू गई या समान और दुख कहा होयग', या भांति कहकर राम रोचने लगे,
धीरनरनिके अधिपति तत्र विरावित वीर्य त्रायत्रे विषै पंडित नमस्कारकर हाथ जोड कहता भया — हे देव, आप एता विषाद काहे करो १ थोडे ही दिनमें आप जनकसुता को देखोगे, कैसी है जनकसुता ? निःप प है देह जाकी, हे प्रभो, यह शोक महाशत्रु है शरीर का नाशकरे और बस्तु कहा बा, तैं आप धीर्य अंगीकार करहु यह धीर्य ही महापुरुषनिका सर्वस्व है आप सारिखे पुरुष 'ववेकके निवास हैं धीर्यवन्त प्राणी अनेक कल्याण देखे अर श्रातुर अत्यन्त कष्ट करें तो हू इष्ट वस्तुको न देखे अर यह समय विषादका नाहीं, आप मन लगाय सुनहु विद्याधरनि का महाराजा खरदूषण मारा सो अब यात्रा परिपाक महाविषम है, सुग्रीव किहकंधापुरका धनी अर इंद्रजीत कुम्भकर्ण त्रिशिर अक्षोन भीम क्रूरकर्मा महोदर इनको श्रादि ले अनेक विद्याधर महा योधा बलवन्त या परममित्र हैं मो याके मरणके दुःखते क्रोधको प्राप्त भए होंगे ये समस्त नाना प्रकार युद्धमें प्रवीण हैं, हजारां ठौर रणविषै कीर्ति पाय चुके हैं अर वेताड पर्वतके अनेक विद्याभर खरदूषणके मित्र हैं पर पवनञ्जयका पुत्र हनूमान जाहि लखे सुभट दूरही टरें ताके संमुख देव हून सो खरदूषण का जमाई है ता वह हू याके मरणका रोप करेगा तातैं यहां वनविन रहना, अंलकारोदय नगर जो पाताललंका ताविषै विराजिये अर भामंडल को सीताके समाचार पठाइये वह नगर महादुर्गम है तहां निश्चल होय कार्यका उपाय सर्वथा करेंगे, या भांति विधित निती करी तब दोऊ भाई चार घोडनिका रथ वापर चढकर पाताललंकाको चाले सो. दोऊ पुरुषोत्तम सीता विना न शोभते भए जैसे सम्यक् दृष्टिः बिना ज्ञान चारित्र न सोहें, चतुरंग सेनारूप सागर करि मंडित दण्डक बनते चाले, विराधित अगाऊ गया तहां चन्द्रनखाका पुत्र सुन्दर सो लडनेको नगरके बाहर निकसा ताने युद्ध किया सो ताको जीत नगर में प्रवेश किया देवनिके नगर समान वह नगर रत्नमई, तहां खरदूषण के मंदिर में विराजे सो महा मनोहर सुरमंदिर समान वह मंदिर तहां सीता बिना रंचमात्र हूं विश्रामको न पावते भए, सीतामें हैं मन रामका सो रामको प्रिया के समीपकर वन हू मनोग्य भासता हुता व कांताके वियोगकर दग्ध जो राम तिनको नगर मंदिर विन्ध्याचलके वन समान भासें ।
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