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पैंतालीसवा पर्व
३४१ स्थानकमें सीता नाहीं तब लक्ष्मणने कहा-हे नाथ ! उठो कहां सोवो हा, जानकी कहां गई, तब राम उठकर लक्ष्मण को पावरहित देख कछ इक हर्ष को प्राप्त भये । लक्ष्मणको उर से लगाय पर कहते भए-हे भाई, मैं न जानू जान की कहां गई , कोई हर लेयगया अथवा सिंह भख गया बहुत हेरी सो न पाई अति सुकुमार शरीर उदवेगकर विलय गई तब लक्ष्मण विषादरूप होय क्रोधकर कहता भया--हे देव ! सोच के प्रबन्धकर कहा यह निश्चय करो कोई दुष्ट देत्य हर लेगया है जहां तिष्ठे है से लावगे आप संदेह न करो, नानाप्रकारके प्रिय वचननिकर रामको धीर्य बंधाया अर निर्मल जल करि सुबुद्धि ने राम का मुख धुलाया, ताही समा विशेष शब्द सुन रामने पूछा यह शब्द काहे का है तब लक्ष्मणने कहा-हे नाथ ! यह चन्द्रोदय विद्या पर का पुत्र पिराधित याने रण में मेरा बहुत उपकार किया सो आपके निकट आया है याको सेना का शब्द है या भांति दोऊ वर वार्ता करे हैं । अर वह बडी सेनामाहेत हाथ जोडकर नमस्कार कर जर जप शब्द का अपने मंत्रीनि सहित विनती करता मया-आप हमारे स्वामी हैं । हम सेवक हैं जो काय होय ताक प्राज्ञा देउ तब लक्ष्मण कहता भया-हे मित्र काहु दुराचारी ने मेरे प्रभुमी त्री हरी है या विना रामचन्द्र जो शोक के वशी होय कदाचन् प्रागको तजें तो मैं भी अग्नि में प्रवेश करूगा, इनके प्राणनि के आधार मेरे प्राण हैं, यह तू निश्च । जान ताते यह कार्य कता है भले जानै सो कर, तब यह बात सुन वह अति दुःखित होय नींचा मुख कर रहा अर मनमें विचारता भया एते दिन मोहि स्थानक भ्रष्ट हुए भए नानाप्रकार वन बिहार किया अर इन मेरा शत्रु हना स्थानक दिया तिनकी यह दशा है जो २ विकल्प करू हूं सो योंही वृथा जाय हैं यह समस्त जगत काधीन है तथापि मैं कछू उद्यम कर इनका कार्य सिद्ध करू ऐसा विचार अपने मंत्रिनि कहा पुरुषोत्तमकी स्त्री रत्न पृथ्वी विषे जहां होय तहां जल स्थल माकाश पुर वन गिर ग्रामादिक में यत्नकर हेरो यह क य भए मनवांछित फल पावोगे ऐसी राजा विराथित की माज्ञा सुन यशके अर्थी सर्व दिशाको विद्यधर दौडे।
... अथानन्तर एक रत्नजटी विद्याधर अर्कटीका पुत्र सो आकाश मार्ग में आता हुता ताने सीता के रुदन की हाय राम हाय लक्ष्मण , यह ध्वनि समुद्रके ऊपर आकाशमें सुनी तब रत्नजटी वहां आय देखे तो रावणके विमान में सीता बैठी विलाप करे है तब सीता को विलाप करती देख रत्नजटी क्रोध का भरा रावण सों कहता भया-हे पापी दुष्ट विद्याधर ! ऐसा अपराध कर कहा जायगा , यह भामण्डल की बहन है रामदेव की राणी है। मैं भामण्डल का सेवक हू, हे दुर्वद्धि, जिया चाहे तो याहि छोड, तब रावण अति क्रोध कर युद्धको उद्यमी भया बहुरि विचारी कदाचित् युद्धके होते अति बिहन जो सीता सो मरजावे तो भला नाहीं तातें यद्यपि यह विद्याधर रंक है तथापि उपाय करि मारना ऐसा विचार रावण महाबली ने रत्नजटीकी विद्या हरलीनी सो रत्नजटी आकाशते पृथिवीमें पडा । मन्त्रके प्रभावकरि धीरा धीरा स्फुलिंगेकी न्याई समद्रके मध्य कम्पूद्वीपमें आय पडा आयुकर्मके योगते जीवता बचा जैसे बणिकका जहाज
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