________________
पश्न-पुराय हम बड़े हैं यह विचार बुद्रिमानका नाही, समय पाय एक अग्निका किणका सकल मंडल को दहे अर अश्वग्रीव के महा सेना हुी अर सर्व पृथिवी में प्रसिद्ध हुता सो छोटेसे त्रिपृष्टिने रणमें मार लिया ताते और यन तज लंका की रक्षाका यत्न करहु । नगरी परम दुर्गम करहु, कोई प्रवेश न कर सके, महा भयानक मायामई यंत्र सर्व दिशामें विस्तारहु अर नगरमें परचक्रका मनुष्य न आपने पावे अर लोकको धीर्य बंधाबहु अर सब उपाय कर रक्षा करहु, जाकर रावण सुखको प्राप्त होय अर मधुर वचनकर नाना वस्तुनिकी भेंटकर सीताको प्रसन्न करहु, जैसे दुग्ध पायवेसे नागनी प्रसन्न करिये अर वानरवंशी योधानिको नगरके वाहिर चौकी राखहु ऐसे किए कोऊ परचक्र का धनी न आय सके पर यहांको बस्तु परचक्र में न जाय । या भांति गढका यत्न किये तब कौन जाने सीता कौनने हरी अर कहां है ? सीता विना राम निश्चय सेती प्राख तजेगा जाकी स्त्री जाय सो कैप जीवे, अर राम मूबा तब अकेला लक्ष्मण कहा करेगा अथवा रामके शोककर लक्ष्मण अवश्य मरे, न जीवे, जैसे दीपकक गए प्रकाश न रहे अर यह दोऊ भाई मूवे तब अपराधरूप समुद्र विष डूबा जो विसथित सो कहा करेगा अर सुग्रीवका रूप कर विद्याधर ताके घरमें आया हे सो रावण टार सुग्रीवका दुःख कौन हरे ? मायामई यंत्रकी रखवारी सुग्रीव को सौंपो, जासे वह प्र.न होय रावण याके शत्रुका नाश करे, लंकाकी रक्षाका उपाय मायामइ यंत्रकर करना। यह मंत्रकर हर्षित होय सब अपने अपने घर गए, विभीषणने मायामई यंत्रकर लंकाका यत्न किया अर अथः ऊर्च तिर्यकसे कोऊन प्राय सके नानाप्रकारकी विद्याधर लंका अगम्य करी । गौतम गणधर कहे हैं-हे श्रेणिक, संसारी जीव सर्व ही लौकिक कार्य में प्रवः हैं, व्याकुल चित हैं । जे व्याकुलता रहित निर्मलचित्त हैं तिनको जिनवचनका अभ्यास टाल
और कर्तव्य नाहीं अर जो जिनेश्वरने भाखा है सो पुरुषार्थ विना सिद्ध नाही भर मले भवितव्य के विना पुरुषार्थ की सिद्धि नाहीं, तात जे भव्यजीव हैं ते सर्वथा संसारसे विरक्त होय मोचका यत्न करहु । नर नारक देव तियंच ये चारों ही गति दुःखरूप हैं, अनादि कालते ये प्राणी कर्म के उदयकर युक्त रागादिमें प्रवृत्ते हैं तात इनके चित्तमें कल्यानरूप वचन न भावें। अशुभका उदय मेट शुभकी प्रवृत्ति करें, तब शोफरूप अग्निकर तप्त यमान न होंय ।
इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविष लंकाकी मायामयी कोटका वर्णन करनेबाला छियालीसनां पर्व पर्ण भया ।। ४६ ।।
अथानन्तर किहकंधापुरका स्वामी जो सुग्रीव साताका रूप बनाय एक विद्याधर याके पुर में आया अर सुग्रीव कांताके विरहकर दुखी भ्राता संता वहां आया जहां खरदूषण की सेनाके सामंत मूए पडे हुते, विखरे रथ मृए हाथी मृए घोड़े छिन्न भिन्न होय रहे हैं शरीर जिनके, कैयक राजानिका दाह होय है कैयक ससके हैं कईएकनिकी भुजा कटगई हैं कई निकी जंघा कटगई हैं। कईनिकी आंत गिरपडी हैं कईनिके मस्तक पड़े हैं कई निको स्थाल भखे हैं कई निको पक्षी चूथे हैं कैयकनिक परवार रोवे हैं कईयकनिको टागि राखे हैं। यह रणखेतका वृत्तांत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org