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सैंतालीसा पर्व
३५१ देख सुग्रीव काहूसों पूछता भया तब वाने यह कही खरदूषण मारा गया, तब सुग्रोवने खरदू. षणका मरण सुन अति दुःख किया मनमें चिंतवे है-बड़ा अनर्थ भया वह महाबलवान् हुता तात मेरा सर्व दुःख निवृत्त होता सो कालरूप दिग्गजने मेरा आशारूप वृक्ष तोडा. मैं हीनपुण्य अब मेरा दुःख कैसे शांत होय यद्यपि विना उद्यम जीवको सुख नाहीं ताते दुःख दूर करका उद्यम अंगीकार करू, तब हनूमानपै गया, हनूमान दोऊनिका समानरूप देख पाछा गया तब सुग्रीव विचारी कौन उपाय करूं जाते चित्तकी प्रसन्नता होय जैसे नवां चांद निरखें हर्ष होय, जो रावणके शरणे जाऊ तो रावण मेरा अर शत्रु का एकरूप जान शायद मोहि मारे अथवा दोऊनि को मारे स्त्री हर लेय वह कामांध है कामांधका विश्वास नाहीं। मंत्र दोष अपमान दान पुण्य वित्त शूरवीरता कुशील मनका दाह यह सब कुमित्र को न कहिए जो कहें तो खता पावे ताते जाने संग्राममें खादूषणको मारा ताहिके शरणे जाऊं, वह मेरा दुख हरे अर जापै दुख पडा होय सो दुखीके दुखको जाने जिनकी तुल्य अवस्था होय तिनही में स्नेह होय । सीताके वियोग करि सीतोपति हीको दुख उपजा है ऐसा विचारकर विराधितके निकट अतिप्रीतिका दूत पठाया सो दूत जाय सुग्रीवके आगमनका वृत्तांत विराधिनसे कहता भया सो विराधित सुन कर मनमें हर्षित भया विचारी-बडा आश्चर्य है, सुग्रीव जैसे महाराज मुझते प्रीति करनेकी इच्छा करें सो वडेनिके आश्रयते कहा न होय ? मैं श्रीरामलक्ष्मण का आश्रय किया तातें सुग्रीवसे पुरुष मोंसे स्नेह किया चाहे हैं, सुग्रीव आया मेघकी गाज समान वादित्रनिके शब्द होते आऐ को पानाल लंकाके लोग सुनकर व्याकुल भए । तब लक्ष्मणने विराधितको पूछा-वादित्रनिका शब्द कौनका सुनिये है ? तब अनुराधाका पुत्र विराधित कहता भया--हे नाथ ! यह वानरवंशिनिका अधिपति प्रेमका भरा तिहारे निकट पाया है। किहकंधापुरके राजा सूर्याजके पुत्र पृथिवी पर प्रसिद्ध बड़ा वाली छोटा सुग्रीव सो बालीने तो रावणको सिर न नवाया सुग्रीवको राज्य देय वैरागी भया सर्व परिग्रह तजी, सुग्रीव निहकंट . राज्य करे । ताके सुतारा स्त्री जैसे शची संयुक्त इन्द्र रमें तैसे सुग्रीव सुतारासहित रमें । जाके अंगद नाम पुत्र गुण स्ननिकरि शोभायमान जाकी पृथिवीमें कीर्ति फैल रही है यह वात विराधित कहे हैं अर सुग्रीव आया ही, राम अर सुग्रीव मिले रामको देख फूल गया है मुख कमल जाका सुवर्णके आंगनमें बैठे, अमृतसमान बाणी कर योग्य संभाषण करते भए । सुग्रीवके संग जे वृद्ध विद्याधर हैं, वे राम कहते भए-हे देव ! यह राजा सुग्रीव किहकंधापुरका पति महाबली गुणवान सत्पुरुषनिको प्रिय सो कोई एक दुष्ट विद्याधर माया कर इनका रूप बनाया इनकी स्त्री सुतारा अर राज्य लेयवेका उद्यमी भया है। ये वचन सुन राम मनमें चिंतवते भए यह कोई मोसे भी अधिक दुखिया है याके बैठे ही दूजा पुरुष याके घरमें प्राय घुसा है, याके राज्य विभव है परंतु कोऊ शत्रुको निवारवे समर्थ नाहीं। लक्ष्मणने समस्त कारण सुग्रीवके मंत्री जामवंतको पूछा जामवंत सुग्रीवके मन तुल्य है तब वह मंत्री महाविनय संयुक्त कहता भया-हे नाथ ! कामकी फांसी कर वेढा वह पापी सुताराके रूपपर मोहित भया मायामई सुप्रीवका रूप पनाय राजमंदिर आया । सो सुताराके महिलमें गया, सुतारा महासती
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