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________________ २४३ अठाईसा पर्व स्पर कुशल पूछी एक श्रासन पर बैठे फिर क्षणएक तिष्ठ कर दोऊ आपसमें विश्वासको प्राप्त मए तब चन्द्रगति और कथाकर जनकको कहते भए-हे महाराज मैं बडा पुण्यवान जो मोहि मिथिला नगरीके पतिका दर्शन भया। तुम्हारी पुत्री महा शुभ लक्षणनिकर मण्डित है । मैं बहुत लोगनिके मुखसे सुनी है सो मेरे पुत्र भामंडलको देवो तुमसे सम्बंध पाय मैं अपना परस उदय मानूगा तब जनक कहते भये हे विद्याधराधिाति तुम जो कही सो सब योग्य है परंतु मैं मेरी पुत्री राजा दशरथके बडे पुत्र जो श्रीरामचन्द्र तिनको देनी करी है। तब चन्द्रगति बोले काहेते उनको देनी करी है तब जनकने कही जो तुमको सुनबे को कौतुक है तो सुनो । मेरी मिथिलापुरी रत्नादिक थनकर अर गौ आदि पशुअन कर पूर्ण सो अर्धधर्वर देश के म्लेच्छ महाभयंकर उन्होंने प्राय मेरे देशको पीडा करी, धनके समूह लूटने लगे अर देशमें श्रावक अर यतिका धर्म मिटने लगा सो मेरे अर म्लेच्छोंके महा युद्ध भया ता समय राम प्राय मेरी अर मेरे भाईकी सहायता करी वे म्लेच्छ जो देवोंसे भी दुर्जय सो जीते अर रामका छोटा भाई लक्ष्मण इन्द्र समान पराक्रमका धरणहारा है अर बडे भाईका सदा आज्ञाकारी है। महा विनयकर संयुक्त है। वे दोनों भाई आय कर जो म्लेच्छों की सेनाको न जीतते तो समस्त पृथिवी म्लेच्छमई हो जाती । वे म्लेच्छ महा अविवेकी शुभ क्रियारहित लोकको पीडाकारी महा भयंकर विष समान दारुण उत्पातका स्वरूप ही हैं । सो रामके प्रसाद कर सब भाज गये । पृथिवीका अमं. गल मिट गया वे दोनों राजा दशरथ के पुत्र महादयालु लोकनिके हितकारी तिनको पायकर राजा दशरथ सुखसे सुरपति समान राज्य करें है। ता दशरथके राजविणे महासपदावान लोक वसे हैं अर दशरथ महा शरवीर है । जाके राज्यमें पवनहू काहूका कछु नहीं हः सके तो और कौन हरे । राम लक्ष्मणने मेरा ऐसा उपकार किया तब माहि ऐसी चिंता उपजी जो इनका कहा उपकार करू । रात्री दिवस मोहि निद्रा न श्रावती भई । जाने मेरे प्राण राखे प्रजा राखी ता राम समान मेरे कौन, मोते कबहु कछु उनकी सेवा न बनी अर उनने वडा उपकार किया तब मैं विचारता भया । - जो अपना उपकार करे अर उसकी सेवा कछु न बने तो कहा जीनगर, कृतघ्नका जीतन्य तृण समान है तव मैंने मेरी पुत्री सीता नवयौवनपूर्ण राम योग्य जान रामको देनी विचारी। तब मेरा सोच कछु इक मिटा । मैं चितारूप समुद्रमें डूबा हुता सो पुत्री नावरूप भई तातें मैं सोच समुद्रते निकसा। राम महा तेजस्वी हैं। यह वचन जनकके सुन चंद्रगति के निकटवर्ती और विद्याधर मलिन मुख होय कहते भए-अहो तुम्हारी बुद्धि शोभायमान नहीं। तुम भूमिगोचरी अपंडित हो। कहां वे रंक म्लेच्छ अर कहां उनके जीतकी वडई यामें कहा रामका पराक्रम? जाकी एती प्रशंसा तुमने म्लेच्छोंके जीतवेकर करी। रामका जो ऐता स्तोत्र किया सो इसमें उलटी निंदा है । अहो तुम्हारी बात सुने हांसी आवै है, जैसे बालकको विषफल ही अमृत भास है अर दरिद्रीको बदरी (बेर) फल ही नीके लागें अर काक सूके वृक्षविणै प्रीति करे यह स्वभाव ही दुर्निवार है। अब तुम भूमिमोचरियोंका - खोटा संबंध तजकर यह विद्याधरों का इंद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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