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पा-पुराण
लोक लार लेय राजा चन्द्रगति उज्ज्वल है मन जाका पूनाकी सामिग्री लेय मनोरथ समान रथ पर आरूढ होय चैत्यालय, आया सो राजा जनक चन्द्रगतिकी सेनाको देख अर अनेक वादित्रों का नाद सुनकर कछू इक शंकायमान भया । कैयक विद्याधर मायामई मिहोंपर चढ़े हैं कैएक मायामई हाथियों पर चढ़े कैएक घोड़ावों पर चढ़े कैएक हों पर चढ़े तिनके बीच राजा चन्द्रगति है सो देख कर जनक विचारता भया जो विजयार्ध पर्वत पर विद्याधर वसे हैं एपी मैं सुनता सो ये विद्याधर हैं विद्याधरोंकी सेनाके मध्य यह विद्यधरोंका अधिपति कोई परम दीप्ति कर शोभै है ऐसा चितवन जनक करे है ताही समय वह चन्द्राति राजा दैत्यजातिके विद्याधरों का स्वामी चैत्यालयविणे आय प्राप्त भया । महाहर्षवन्त नम्रीभूत है शरीर जाका तब जनक ताको देख कर कछूइक भयवान होय भगवानके सिंहासनके नीचे बैठ रहा, अर वह राजा च द्रा भक्ति कर भगवानके चैत्यालयविर्ष जाय प्रणाम कर विधिपूर्वक मत्रा उत्तम पूजा की अर परमन्तुति करता भया बहुरि सुन्दर हैं स्वर जिसके असी बोण! ह थमें लेकर महाभावना सहित भगवानके गुण गावता भया सो कैसे गावै है सो सुनो, अहो भव्य जीव हो! जिनेंद्र को आराधहु, कैसे हैं जिनेन्द्रदेव तीनलोकके जीवों को वर दाता अर अविनाशी है सुख जिनके अर देवनिमें श्रेष्ठ जे इ द्रादिक तिनकर नमस्कार करने योग्य हैं। कैसे हैं वे इन्द्र दिक ? महा उत्कृष्ट जो पूजाका विथान ताप लगाया है चित्त जिन्होंने, अहो उत्तन जन हो श्री ऋषभदेवको मन वचन काय कर निरतर भजो। कैसे हैं ऋषभदेव महाउत्कृष्ट हैं अर शिवदायक हैं जिनके भजेते जन्म जन्मके किए पाप समस्त विलय होय हैं महो प्राणी हो जिनपरको नमस्कार करहु । कैसे हैं जिनवर महा अतिशय के धारक हैं कर्मनिके नाशक हैं अर परमगति को निर्माण ताको प्राप्त भए हैं अर सर्व सुरासुर नर विद्याधर उन कर पूजित हैं चरण कमल जिनके अर क्रोधरूप महावैतीका भंग करनहारे हैं। मैं भक्तिरूप भया. जिनेन्द्रको नमस्कार कर हूँ उत्तम लक्षगकर संयुक्त है देह जिनका अर विनय कर नमस्कार करे हैं सर्व मुनियोंके समूह जिनकी, ते भगवान नमस्कार मात्र ही से भक्तोंके भय हरे हैं । अहो भन्य जीव हो जिनवरको बारम्बार प्रणाम करहु वे जिनवर अनुपम गुणको धरे हैं अर अनुपम है काया जिनकी अर हते है संसारमई सकल कु में जिनने अर रागादिक रूप जे मल, तिनकर रहित महानिर्मल हैं अर ज्ञानावरणादिक रूप जो पर तिनके दूर करनहारे पारकरबेको अति प्रवीण हैं अत्यन्त पवित्र हैं । इस मां ते राजा चन्द्रागिने बीण बजाय भगवानकी स्तुति करी तब भगवान के हासनके नीचेते राजा जनक भय तजकर जिनराजकी स्तुति कर निकसा महाशोभायमान तव च द्रगति जनकको देख हर्षित भया है मन जिसका सो पूछता भया तुम कौन हो या निर्जन स्थानका भगानके चैत्यालयविषै कहां ते आए हो तुम नागोंके पति नागेन्द्र हो अथवा विद्याधरोंके अधिपति हो हे मित्र ! तुम्हारा क्या नाम है सो कहो । तब जनक कहता भया विद्याधरों के पति ! मैं मिथिला नगरीसे आया हूँ अर मेरा नाम जनक है। माया मई तरंग मोहि ले आया है जब ये समाचार जनकने कहे तब दोऊ अति प्रीतिकर मिले पर
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