________________
अठाईसा पर्व में राजाको ले उड़ा तब सब परिजन पुरजन हाहाकार कर शोकवंत भए आश्चर्यकर व्याप्त हुवा है मन जिनका तत्काल पाछे नगरमें गए ।
- अथानन्तर वह अश्वके रूपका धारक विद्याधर मन समान है वेग जाका अनेक नदी पहाड़ बन उपवन नगर ग्राम देश उलंघ कर राजाको रथनूपुर लेगया। जब नगर निकट रहा तव एक वृक्षके नीचे पाय निकसा सो राजा जनक बृक्षकी डाली पकड़ लव रहा। वह तुरंग मगरमें आया राजा वृक्षत उतर विश्रामकर आश्चर्य सहित आगे गया तहां एक स्वर्णमई ऊंचा कोट देखा अर दरवाजा रत्नमई तोरणों कर शोभायमान अर महासुन्दर उपवन देखा तावि नाना जातिके वृक्ष अर बेल फल फूलनिकर संपूर्ण देखे जिनपर नान प्रकारके पक्षी शब्द करे हैं अर जैसे सांझके बादले होवें तैसे नानारंगके अनेक महिल देखे मानों ये महिल जिनमंदिर की सेवा ही करे हैं तब राजा खड़गको दाहिने हाथमें मेल सिंह समान अति निशंक क्षत्री व्रत में प्रवीण दरवाजेमें गया । दरवाजेके भीतर नाना जातिके फूलनिकी वाड़ी अर रत्न स्वर्णके सिवाण जाके ऐसी वापिका स्फटिकमणि समान उज्ज्वल है जल जिसका अर महा सुगन्ध मनोग्य विस्तर्ण कुन्द जातिके फोके मंडप दखे। चलायमान हैं पल्लवोंके समूह जिनके अर संगीत कर हैं भ्रमरोंके समूह जिनपर अर माधवी लगानिके समूह फूले देखे महा सुन्दर अर आगे प्रसन्न नेत्रोंकर भगवानका मन्दिर देखा । कैला है मन्दिर १ मातीनिकी झालरिनिकर शोभित रस्ननिके झरोखनि कर संयुक्त स्वर्ण मई हजा महास्तम्भ तिनकर मनोहर अर जहां नानाप्रकारके चित्राम सुमेरुके शिखर समान ऊंचे शिखर अर बज्राणि जे हीरा तिनकर वेढ्या है पीठ (फरश) जाका ऐसे जिनमन्दिरको देख कर जनक विचारता भया कि यह इन्द्रका मंदिर अथवा अहिमिन्द्रका मन्दिर है ऊचलोकते आया है अथवा नागेंद्र का भवन पातालत पाया है अथवा काहू कारणते सूर्यको किरयानिका समूड पृथिवीवि एकत्र भया है अहो उस मित्र विद्याघर ने मेरा बड़ा उपकार किया जो मोहि यहां लेाया ऐसा स्थानक अबतक देखा नाहीं। मला मन्दिर देखा ऐसा चितवनकर महामनोहर जो जिनमन्दिर तामें बैठि फूल गया है मुखकमल जाका श्रीजिनराजका दर्शन किया। कैसे हैं श्रीजिनराज ? स्वर्ण समान है वणे जिनका अर पूर्णमासीके चन्द्रमा समान है सुन्दर मुख जिनका अर पद्मासन विराजमान अष्ट प्रातिहार्य संयुक्त कनकमई कमलोंकर पूजित अर नानाप्रकारके रत्ननिकर जड़ित जे छत्र ते हैं सिरपर जिनके भर ऊंचे सिंहासनपर तिष्ठे हैं तब जनक हाथ जोड़ सीस निवाय प्रणाम करता भया हर्पकर रोमांच होय आए भक्तिके अनुरागकर मूर्खाको प्राप्त भया क्षणएकमें सचेत होय भगवानकी स्तुति करने लगा । अति विश्रामको पाय परम आश्चर्यको धरता संता जनक चैत्यालयविष तिष्ठे हैं। वह चपलबेग विद्याधर जो अश्वका रूपकर इनको ले आया हुता सो अश्वका रूप दूर कर राजा चंद्रगतिके पास गया अर नमस्कार कर कहना भया । मैं जनकको ले आया मनोग्य वन में भगवान के चैत्यालयविष तिष्ठे है, तब राजा सुनकर बहुत हर्षको प्राप्त भया थोडेसे समीपी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org