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पद्म-पुराण
राजा चंद्रगति तासू संबंध करो। कहां देवों समान सम्पदाके धरणहारे विद्याथर थर कहां वे रंक भूमिगोचरी सर्वथा अति दुखी, तब जनक बोले क्षीर सागर अत्यन्त विस्तीर्ण है परन्तु तुषा हरता नाहीं पर वापिका थोडे ही मिष्ट जलसे भरी है सो जीवोंकी तृषा हरे हैं अर अंधकार अत्यंत विस्तीर्ण है ताकर कहा श्रर दीपक अन्य भी है परन्तु पृथिवीमें प्रकाश करे है । पदार्थनिको प्रकट करे है पर अनेक माते हाथी जो पराक्रम न कर सकें सो अकेला केसरी सिंहका बालक करे है ऐसे जब राजा जनकने कहा तब वे पर्व विद्यावर कोपवंत होय अति क्रूरशब्दकर भूमिगोचरियोंकी निंदा करते भए । हो जनक ! वे भूमिगोवरी विद्याक प्रभावते रहित सदा खेदखिन्न शूरवीरतारहित पदावान तुम कहा उनकी स्तुति करो हो । पशुनिमें श्रर उनमें भेद कहा ? तुममें विवेक नाहीं तातैं उनकी कीर्ति करो हो । तब जनक कहते भए हाय ! हाय ! बडा कष्ट है जो मैंने पाप कर्मके उदयकर बडे पुरुषोंकी निंदा खुनी । तीन भवन में विख्यात जे भगवान ऋषभदेव इंद्रादिक देवों में पूजनीक तिनका इक्ष्वाकुवंश लोक में पवित्र सो कहा तुम्हारे श्रवणमें न आया, तीन लोकके पूज्य श्रीतीर्थंकरदेव अर चक्रात बलभद्र नारायण सो भूमिगोचरियोंमें ही उपजे तिनको तुम कौन भांति निंदो हो । अहो विद्याधरो पंच कल्याणककी प्राप्ति भूमिगोचरियोंमें ही होय है विद्यारोंमें कदाचित् किसीके तुमने देखी । इदयाकुवंशमें उपजे बडेर राजा जो षट् खंड पृथिवीके जीतनहारे तिनके चक्रादि महा रत्न र बढी ऋद्धिके स्वामी चक्रके धारी इंद्रादिकर गाई
कीर्ति जिनकी ऐसे गुणोंके सागर कृतकृत्य पुरुष ऋषभदेव के बडे २ पृथिवीपति या भूमिमें अनेक भए । ताही वंश में राजा अनरण्य बडे राजा भए तिनके राणी सुमंगला ताके दशरथ पुत्र भए जे चत्री धर्ममें तत्पर लोकनिकी रक्षानिमित्त अपना प्राण त्याग करते न शंके जिनकी आज्ञा समस्त सिर पर वरैं जिनकी चार पटराणी मानों चार दिशा ही हैं । सर्व शोभाको धरें, गुणनिकर उज्ज्वल पांच सौ और राणी, मुखकर जीता है चंद्रमा जिनने, जे नाना प्रकार के शुभ चरित्रोंकर पतिका मन हरै हैं अर राजा दशरथ के राम बडे पुत्र जिनको पद्म कहिए, लक्ष्मीकर मंडित है शरीर जिनका, दीप्तिकर जीता है सूर्य अर कीर्तिकर जीता है चंद्रमा, स्थिरताकर जीता है सुमेरु, शोभाकर जीता है इंद्र, शूरवीरताकर जीते हैं सर्व सुभट जिनने, सुन्दर है चरित्र जिनके, जिनका छोटा भाई लक्ष्मण जाके शरीर में लक्ष्मीका निवास, जाके धनुषको देख शत्रु भयकर भाज जावें अर विद्यवरोंकों उनसे भी अधिक बतावो हो सो काक भी तो श्राकाशमें गमन करे हैं विनमें कहा गुण हैं ? अर भूमिगोचरनिमें भगवान तीर्थकर उपजे हैं तिनको इंद्रादिक देव भूमिमें मस्तक लगाय नमस्कार करे हैं विद्याधरोंकी कहा बात ९ ऐसे वचन जब जनकने कहे सब ने विद्याधर एकांत में तिष्ठकर आपसमें मंत्र कर जनकको कहते भए, हे भूमिगोचरिनिके नाथ ! तुम राम लक्ष्मणका एता प्रभाव ही कहो हो अर वृथा गरज गरज वात करो हो सो हमारे उनके बल पराक्रमकी प्रतीति नाहीं तातें हम कहें हैं सो सुनो- एक वज्रावर्त दूजा सागरावर्त ये दो धनुष तिनकी देव सेवा करें हैं सो ये दोनों धनुष वे दोनों भाई चढावें तोहम उनकी शक्ति जाने । बहुत कह कर कहा ? जो वज्रावर्त धनुष राम चढावें तो तुम्हारी कन्या परणे नावर
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