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- अठाईसा पर्व
हम बलात्कार कन्याको यहां ले आयेंगे, तुम देखते ही रहोगे। तब जनक ने कही यह बात प्रमाण है तब उनने दोऊ धनुष दिखाए सो जनक उन धनुषनिको अति विषम देखकर कछु इक प्राकुलताको प्राप्त मया । बहुरि वे विद्याधर भाव थकी भगवानकी पूजा स्तुति कर गदा अर हलादि रत्नोंकर संयुक्त धनुषनिको ले और जनकको ले मिथिलापुरी आए पर चद्रगति उपवनसे रथनूपुर गया जब राजा जनक मिथिलापुरी आए तब नगरीकी महाशोभा भई मंगनाचार भए अर सब जन सम्मुख आए. पर वे विद्याधर नगरके बाहिर एक आयुधशाला बनाय तहां धनुष धरे अर महागर्वको धरते संते तिष्ठे। .
जनक खेदसहित किंचित् भोजन खाय तिाकर व्याकुल उत्साहरहित सेजपर पडे तहां महा नम्रीभूत उनम स्त्री बहुत आदर सहित चंद्रमाको किरण समान उज्ज्वल चमर ढारती भई । राजा अति दीर्घ निश्वास महा उष्ण अग्नि समान नाषे। तब राणी विदेहाने कहा हे नाथ ! तुमने कोन स्वर्गलोककी देवांगना देखी जिसके अनुगकर ऐसी अवस्थाको प्राप्त भए हो सो हमारे जानने में वह कामिनी गुणरहित निर्दई है जो तुम्हारे आतापविष करुणा नाही करै हैं। हे नाथ वह स्थानक हमें बतावो जहांते वाहिले आवें । तुम्हारे दुखकर मुझे दुख पर सकल लोकनिको दुख होय है तुम ऐसे महासौभाग्यवंत ताहि कहा न रुचे । वह कोई पाषाण चित्त है उठो राजावोंको जे उचित कार्य होय सो करो। यह तिहारा शरीर है तो सब ही मनवांछित कार्य होंगे या भांति राणी विदेहा जो प्राणहुने प्रिया हुती सो कहती भई तब राजा बोले-हे प्रिये ! हे शोभने ! हे बल्लभे ! मुझे खेद और ही है तू वृथा ऐसी बात कही, काहेको अधिक खेद उपजावै है तोहि या वृत्तांतकी गम्य नाहीं वातैं ऐसे कहै है । मायामई तुरंग मोहि विजया गिरिमें लेगया। तहां रथनू पुरके राजा चन्द्रगतिसे मेरा मिलाप भया । सो वाने कही तुम्हारी पुत्री मेरे पुत्र को देवो । तब मैंने कही मेरी पुत्री दशरथके पुत्र श्रीरामचन्द्रो देनी करी है। सब वाने कही जी. रामचन्द्र वज्रावर्त धनुषको चढावें तो तिहारी पुत्री परणे नातर मेरा पुत्र परखेगा सो मैं तो पराए वश जाय पडा तब उनके भय थकी अर अशुभकर्मके उदय थकी यह बात प्रमाण करी सो वजावर्त अर सागरावत दोऊ धनुष ले विद्याधर यहां आए हैं । ते नगरके बाहिर तिष्ठे हैं, सो मैं ऐसे जानू हूँ ये धनुष इन्द्रहूते चढाए न ज वें जिनकी ज्वाला दशों दिशामें फैल रही है अर मायामई नाग फुकारै हैं सो नेत्रोंसे देखा न जावै । धनुष विना चहाए ही स्वतः स्वभाव महाभयानक शब्द करें हैं इनको चढायवेकी कहा जात, जो कदाचित् श्रीरामचन्द्र धनुषको न चढावें तो यह विद्याधर मेरी पुत्रीको जोरावरी ले जावेंगे जैसे स्यालके समं पर मांसकी डली खग कडिये पक्षी ले जाय सो धनुपके चढ़ायवेका बोस. दिनका करार है जो न बना तो वह कन्याको ले जावेंगे, फिर इसका देखना दुर्लभ है। हे श्रेणिक ! जब राजा जनकने इस भांति कही तव राणी विदेहाके नेत्र अश्रुपातसे भर आए अर पुत्रके हरनेका दुख भूल गई हुती सो याद आया एक तो प्राचीन दुख अर दूसरा आगामी दुःख सो महाशोककर पीडित भई महा घम्दकर पुकारने लगी ऐसा रुदन किया जो सकल परिवारके मनुष्य विहल हो गए राजासों
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