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________________ अडतालीसवा पर्ण ३५ एक बेणातटग्राम तहां सर्वरुचि नामा गृहस्थी त के विनयदत्त नामा पत्र ताकी माता गुणपूर्णा अर विनयदत्तका मित्र विशालभूत सो पापी विनयदत्त की स्त्रीसों आसक्त भया, स्त्री के वचनकरि विनयदत्तको कपटकरि वनमें लेगया, सो एक वृक्ष के ऊपर बांध वह दुष्ट घर चला आया, कोई विनयदत्तके समाचार पूछे तो ताहि कछु मिथ्या उत्तर देय सांचा होय रहे पर जहां विनवदत्त बांधा हुता तहां एक बुद्र नामा पुरुष आया, वृक्षके तले बैठा, वृक्ष महा सघन विनयदत्त कुरलावता हुना सो चुद्र देखे तो दृहबंधनकर मनुन्ध वृक्ष की शाखाके अग्रभाग बंधा है, तब क्षुद्र दयाकर ऊपर चढा विनयदत्तको बंधनते निवृत्त किया । विनयदत्त द्रन्यवान सो खुद्रको उपकारी जान अपने घर ले गया। भाईते हू अधिक हित राखे, विनयदत्तके घर उत्साह भया पर वह विशालभूत कुमित्र दूर भाग गया, क्षुद्र विनयदत्त का परम मित्र भया सो तुद्रका एक रमनेका पत्रमयी मयूर सो पवनकर उडा राजपुत्रके घर जाय पडा सो ताने उठाकर रख लिया, ताके निमित्त वुद महा शोककर मित्र को कहता भया-मोहि जीवता इच्छे है तो मेरा वही मयूर लाव, विनयदच कहा मैं तोहि रत्नई मयूर कराय दूं और सांचे मोर मंगाय दूं वह पत्रमई मयूर पयनते उडगया सो राजपुत्रने राखा मैं कैसे लाऊ, तब क्षुद्र कही-मैं वही लेऊ रत्ननिके न लू, न मांचे लू, विनयदत्त कहे जो चाहो सो लेहु यह मेरे हाथ नाहीं । क्षुद्र बारम्बार वही मांगे सो बह ती मृढ हुता तुम पुरुषोत्तम होय ऐसे क्यों भूलो हो । कह रत्रनिका मयू राजपुत्रके हाथ गया विनयदत्त कैसे लाये १ तातें अनेक विद्याधरनिकी पुत्री सुवर्ण समान वर्ण जिनका श्वेत श्याम अ रक्त तीन वर्ण को धरे हैं नेत्र कमल जिनके, सुन्दर पीवर हैं स्तन जिनके, कदली समान जंघा जिनकी अर मुखकी कांतिकर शरदकी पूर्णमासीके चन्द्रमाको जीते मनोहर गुणनिकी धरणहारी तिनके पति होऊ । हे रघुनाथ ! महाभाग्य, हमपर कृपा करहु यह दुःखका बढावनहारा शोक संताप छोडहु, तब लक्ष्मण बोले हे जाम्बूनद ! तँ यह दृष्टांत यथार्थ न दिया हम कहे हैं सो सुन, एक कुसुमपुर नामा नगर तहां एक प्रभव नामा गृहस्थ जाके यमुना नामा स्त्री ताके धनपाल बन्धुपाल गृहपाल पशुपाल क्षत्रपाल ये पांच पुत्र सो यह पांचों ही पुत्र यथार्थ गुणनिके धारक, थनके कमाऊ कुटुंबके पालिवेमें उद्यमी सदा लौकिक धन्धे करें । क्षणमात्र आलस नाहीं पर इन सबनिते छोटा आत्मश्रेय नामा कुमार सो पुण्यके योगते देवनिकैसे भोग भोगवे सो या को माता पिता अर बड़े भाई कटुक बचन कहें । एक दिन यह मानी नगर बाहिर भ्रमे था सो कोमल शरीर खेदको प्राप्त भया उद्यम करने को असमर्थ सो आपका मरण बांछता हुना ता समय याके पूर्व पुण्य कर्मके उदय करि एक राजपुत्र याहि कहता भया-हे मनुष्य ! मैं पृथुस्थान नगरके राजाका पुत्र भानुकुमार हूं सो देशान्तर भ्रमणको गया हुता, सो अनेक देश देखे, पृथिवीपर भ्रमण करता दैवयोगते कर्मपुर गया, सो एक निमित्तज्ञानी पुरुषकी संगतविष रहा, ताने मोहि दुखी जान करुणाकर यह मंत्रमई लोह का कडा दिया और कही यह सर्व रोग का नाशक है। बुद्धिवर्द्धक है । ग्रह सर्प पिशाचादिकका वश करणहारा है इत्यादि अनेक गुण हैं। सो तू राख, ऐसा कह मोहि दिया और अब मेरे राज्यका उदय आया। मैं राज्य करनेको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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