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पद्म-पुराण
अपने नगर जावू हूं, यह कडा मैं तोहि दूं हूं। तू मरे मत, जो वस्तु आपपै आई अपना कार्य कर काहको दे डारो यह महाफल है मो लोकमें ऐसे पुरुषनिको मनुष्य पूजे हैं, आत्मश्रेयको ऐसा कह राजकुमार अपना कडा देय अपने नगर गया अर यह कडा ले अपने घर आया, ताही दिन ता नगरके राजाकी राणीको सपने डनी हुनी सो चेष्टारहित होयगई, ताहि मृतक जान जरायवे को लाए हुते सी आत्मश्रेयने मंत्रमई लोहे . कड़े के प्रसादकरि विपरहित करी, तब राजा अति दान देय बहुत सत्कार किया, आत्मश्रेयके कडे के प्रसादकरि महाभोग सामगी भई । सब भाइनिमें यह मुख्य ठहरा । पुण्यकर्मके प्रभावकरि पृथिवीविपै प्रसिद्ध भया । एक दिन कड़े वस्त्रविणे बांध सरोवर गया, सो गोह आय कडेको लेय महावृक्षके तले उंडा विल है तामें पैठ गई, विल शिलानिकरि आच्छादित सो गोह विलमें बैठी भयानक शब्द करें। आन्मश्रेयने जाना कडेको गोह बिलविय लेगई गर्जना करे है तब आत्मश्रेय वृक्ष जडते उखाड शिला दूर कर गोहका बिल चूर कर डाला, बहुत धन लिया सो राम तो आत्मश्रेय हैं अर सीता कडे समान है लंका बिल समान है रावण गोह समान है ताते हे विद्याधरो ! तुम निर्भय होवो, ये लक्ष्मणके वचन जाम्बूनदके वचननि को खण्डन करनहारे सुनकर विद्याधर आश्चर्य को प्राप्त भए ।
। अथानन्तर जांबूनद आदि सब राम कहते भए-हे देव ! अनन्तवीर्य योगीन्द्रको रावण ने नमस्कार कर अपने मृत्युका कारण पूछा तब अनन्तवीर्यकी आज्ञा भई जो को टशिला को उठावेगा ताकरि तेरी मृत्यु हैं तब ये सर्वज्ञके वचन सुन रावण ने विचारी ऐसा कोन पुरुष है जो कोटिशिलाको उठावे । यह वचन विद्यानिके सुन लक्ष्मण बोले-मैं अबही यात्राको वहां चालूगा, तब सबनी प्रमाद तज इनके लार भए । जाम्बूनद महाबुद्धि, सुगीव, विराधित अर्कमाली, नल, नील इत्यादि नामी रुष विमानमें राम लक्ष्ण को चढाय कोटिशिला की ओर चाले । अंधेरी रात्रि में शीघ्र ही जाय पहुंचे, शिलाके समीप उतरे, शिला महा मनोहर सुर नर असुरनिकरि नमस्कार करने योग्य, ये सर्व दिशानिमें सामन्तनि को रखवारे राख शिला की यात्राको गए, हाथ जोड सीस निवाग नमस्कार किया, सुमन्थ कमलनि करि तथा अन्य अन्य पुष्पनिकरि शिलाकी अर्चा करी । चन्दनकर चरची, सो शिला कैसी शोभती भई मानों साक्षात् शची ही है । ताविषे जे सिद्ध भए तिनको नम कर कर हाथ जोड भक्तिकर शिलाकी तीन प्रदक्षिणा दई । सब विधिमें प्रवीण लक्ष्मण कमर बांध महा विनयको धरता संता नमोकार मंत्र में तत्पर महा भक्ति करि स्तुति करवेको उद्यमी भया पर सुग्रीवादि बानरवंशी सब ही जयजयकार शब्द कर महा स्तोत्र पढते भए एकागचित्तकर सिद्धनिको स्तुति करे हैं जो भगान सिद्ध त्रैलोक्यके शिखर पर विराजे हैं वह लोक शिखर महादेदीप्यमान है अर वे सिद्धस्वरूप मात्र सत्ताकर अग्निश्वर हैं तिनका बहुरि जन्म नाहीं अनन्तवीर्यकर संयुक्त अपने स्वभावमें लीन महासमीचीनता युक्त समस्त कमरहित संसार समुद्रके पारगामी कल्याणमूर्ति आनन्दपिंड केवलज्ञान केवल र्शन के आधार पुरुषाकार परम सूक्ष्म अमूर्ति अगुरुलघु असंख्यात प्रदेशी अनंतगुणरूप सर्वको एक समयमें जाने सब सिद्धसमान कृतकृत्य जिनके कोई कार्य करना रहा नाही,
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