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पध-पुराण
अद्भुत सम्पदाका भरा सो सातसौ योजन चौडा है अर प्रदक्षिणाकर किंचित् अधिक इक्कीससी योजन बाकी परिधि है। ताके मध्य सुमेरु तुल्य त्रिकूटाचल पर्वत है सो नव योजन ऊंचा पचास योजनके विस्ताररूप, नानाप्रकारके मणि अर सुवर्ण कर मण्डित आगे मेघवाहनको राक्षसनिके इंद्रने दिया हुता । ता त्रिकूटाचलके शिखर पर लंका नाम नगरी, शोभायमान रत्नमयी जहां विमान समान घर अनेक क्रीडा करनेके निवास तीस योजनके विस्तार लंकापुरी महा कोट खाईकर मण्डित मनों दुजी वसुंधरा ही है घर लंकाके चोगिरद बड़े बड़े रमणीक स्थानक हैं अति मनोहर मणि सुवर्ण मई जहां राक्षसनिके स्थानक हैं तिनमें रावणके बन्धुजन बसे हैं। सन्ध्याकार सुवेल कांचन ल्हादन योधन हंस हर सागर घोष अर्धम्वर्ग इत्यादि मनोहर स्थानक वन उपवन आदिकर शोभित देवलोक समान हैं । जिनमें भ्राता, पुत्र, मित्र, स्त्री यांधव सेवक जन सहित लंकापति रमें हैं सो विद्याधरनि सहित क्रीडा करता देख लोकनिको ऐसी शंका उपजे है मानों देवनिसहित इन्द्रही रमें हैं। जाका महा बली विभीषणसा भाई औरनिकरि युद्धमें न जीता जाय ता समान बुद्धि देवनिमें नाहीं अर ता समान मनुष्य नाहीं ताहिकरि रावण का राज्य पूर्ण है पर रावणका भाई कुम्भकर्ण त्रिशूलका धारक जाकी युद्धमें टेढी भौहें देव भी देख सकें नाहीं तो मनुष्यनिकी कहा बात ? अर रावणका पुत्र इन्द्रजीत पृथिवीमें प्रसिद्ध है पर जाके बड़े २ सामन्त सेवक हैं नानाप्रकार विद्याके धारक शत्रुनिके जीतनहारे पर जाका छत्र पूर्ण चन्द्रमा समान आदि देख बी गर्व को तजै हैं ताने सदा रण संग्राममें जीत ही जीत सभटपने का विरद प्रकट किया है सो रावणके छत्रको देख तिनका सन गर्व जाता रहे पर रावणका चित्रपट देखे अथवा नाम सुने शत्रु भयको प्राप्त होय, जो ऐसा रावण तासो युद्ध कौन कर सके तातें यह कथा ही न करना और बात करो। यह बान विद्याधरनिके मुखते सुनकर लक्ष्मण बोला मानों मेघ गाजा तुम एती प्रशंसा करो हो-सब मिथ्या है जो वह बलवान हता तो अपना नाम छिपाय स्त्रीको चुराकर काहे लेगया ? वह पाखंडी अतिकायर अज्ञानी पापी नीच राक्षस ताके रंचमात्र भी शूरवीरता नाहीं अर राम कहते भए बहुत कहने करि कहा, सीताकी सुध ही कठिन हुनी अब सुथ श्राई सब सीता आय चुकी अर तुम कही और बात करो और चितजन करो सो हमारे और कछु बात नाहीं और कछु चितवन नाहीं। सीताको लावना यही उपाय है । रामके वचन सुनकर बृद्ध विद्यावर पण एक विचारकर बोले- देव ! शोक तजो हमारे स्वामी होको अर अनेक विद्याधरनिकी पुत्री गुणनिकर देवांगना समान तिनके भरतार होवो अर समस्त दुःखी बुद्धि छोडो तब राम कहते भए हमारे और स्त्रीनिका प्रयोजन नाहीं जो शचीममान स्त्री होय तो भी हमारे अभिलाष नाहीं जो तिहारी हममें प्रीति है तो सीता हमें शीघ्र ही दिखाबो तब जांबूनद कहता भया-हे प्रभो ! या हठको तजहु एक बुद्र पुरुषने कृत्रिम मयूरका हठ किया ताकी न्याई स्त्रीका हठकर दुखी मत होवो यह कथा सुनहु
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