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पद्मपुराण
महा धवल अरु जयधवल, तथा धवल जिनग्रन्थ । बंदू' तन मन वचन कर, जे शिवपुर के पंथ || पट पाहुड नाटक त्रय, तत्त्वारथ सूत्रादि । तिनको बंदू भाव कर, हरें दोष रागादि ॥ २५ ॥ गोमटसार अगाधि श्रुत, लब्धिसार जगसार । क्षपणसार भवतार हैं, योगसार रस धार || २६ | ज्ञानान है ज्ञानमय, नम्रं ध्यानका मूल । पद्मनंद पच्चीसिका, करे कर्म उन्मूल ॥ २७ ॥
त्याचार विचार नमि, नमूं श्रावकाचार | द्रव्य संग्रह नयचक्र फुनि, नमू शांति रस धार ॥ आदिपुराणादिक सबै, जैन पुराण बखान | बंदु मन वच काय कर दायक पद निर्वाण || २ | तच्चसार आराधना, -सार महारस धार । परमातम परकाशको, पूजूं बारम्बार ॥ ३० ॥ बंदू' विशाखाचारिजे, अनुभवके गुण गाय । कुन्दकुन्द पद धोक दे, कहूं कथा सुखदाय ।। ३१ । कुमुदचंद कलंक नमि, नेमिचंद्र गुण ध्याय । पात्र केशरीको प्रयमि, समंतभद्र यशगाय ॥ अमृतचन्द्र यति चंद्रको, उमास्वामिको बंद । पूज्यपाद को कर प्रणति, पूजादिक अभिनंद ॥ ३३ सूर्यव्रत बंदिके, दानादिक उरलाय । श्रीयोगीन्द्र मुनीन्द्रको, बंदू मन वच काय ॥ ३४ ॥ बंद मुनि शुभचंद्रको, देवसेनको पूज । करि बंदन जिनसेनको, जिनके सम नहि दूज ।। ३५ । पद्मपुरा निधानको, हाथ जोड़ि सिरनाय । ताकी भाषा वचनिका, भाषू सब सुखदायः ॥ ३१ पद्म नाम बलभद्रका, रामचंद्र बलभद्र । भये आठवें धार नर, धारक श्रीजिनमुद्र ।। ३७ । पीछे मुनिसुव्रत्तके, प्रगटे अति गुण धाम । सुरनरबंदित धर्ममय, दशरथके सुत राम ॥ ३८ शिवग्रामी नामी महा, - ज्ञानी करुणावंत । न्यायवंत बलवंत प्रति, कर्म हरण जयवंत ॥ ३६ ॥ जिनके लक्ष्मण वीर हरि, महाबली गुणवंत । भ्रतभक्त अनुरक्त अति जैनधर्म यशवंत ॥ ४० चंद्र सूर्यसे वीर ये, हरें सदा पर पीर । कथा तिनोंकी शुभ महा, भाषी गौतम धीर ॥ ४१ ॥ सुनी सबै श्रेणिक नृपति, घर सरधा मन मांहि । सो भाषी रविषेणजे, यामें संशय नाहं ॥ ४२ ॥ मद्दा संवी सीता शुभा, रामचंद्र की नारि । भरत शत्रुघन अनुज हैं, यही बात उरथारि ॥ ४३ ॥ तद्भव शिवगामी भरत, अरु लवअंकुश पूत । मुक्त भये मुनिवरत धरि, नमैं तिने पुरहूत ॥ ३४ रामचंद्रको करि प्रगति, नमि रविषेण ऋषीश । रामकथा भाषं यथा, नमि जिन श्रुति सुनिश H संस्कृत ग्रन्थका मंगलाचरण.
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सिद्धं सम्पूर्ण भव्यार्थं सिद्धेः कारणमुत्तमम् । प्रशस्तदर्शनज्ञान चारित्रप्रतिपादनम् ॥ १ ॥ सुरेन्द्रकुटाश्लिष्टपादपत्रांशुकेसरम् । प्रणमामि महावीरं लोकत्रितय मंगलम् ॥ २ ॥
अर्थ - सिद्ध कहिये कृतकृत्य हैं और सम्पूर्ण भए हैं सर्व सुन्दर अर्थ जिनके अथवा जी भव्य जीवोंके सर्व अर्थ पूर्ण करते हैं, आप उत्तम अर्थात् मुक्त हैं औरोंको मुक्तिके कारण हैं । प्रशंसा योग्य दर्शन ज्ञान और चारित्र के प्रकाशनहारे हैं और सुरेन्द्रके मुकुटकर पूजा जो किरसरूप केसर ताको घरें चरणकमल जिनके, ऐसे भगवान महावीर, जो तीन लोकोंके प्राणियों को मंगलरूप हैं तिनको नमस्कार करू हूं ।
भावार्थ -- सिद्ध कहिए मुक्ति अर्थात् सर्व बाधारहित उपमारहित, अनुपम अविनाशी जो ताकी प्राप्तिके कारण श्रीमहावीर स्वामी जो काम, क्रोध, मान, सद, माया, मत्सर, सोम
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