________________
२५०
पद्म-पुराण
प्रशंसा योग्य हैं जे इस समाधिरूप साधुका दर्शन करे हैं और मैं प्रति धन्य हूँ जो मोहि आज साधुका दर्शन भया । ये तीन जगत कर बन्दनीक हैं, अब मैं पापकर्मते निवृत्त भया । ये प्रभू ज्ञानस्वरूप' नखनिकर बंधुस्नेहमई संसाररूप जो पिंजरा ताहि छेदकर सिंहकी न्याई निकसे ते साधु देखो मन रूपवैरीको वशकरि नग्न मुद्राधार शील पाले हैं। मैं तृप्त आत्मा पूर्या वैराग्यको प्राप्त नाहीं भया तार्तें श्रावक के अणुव्रत आदरू' ऐसा विचारकर साधुके समीप श्रावकके व्रत आदरे और अपमान शांत रस रूप जलसे धोया श्रर यह नियम लिया जो देशधिदेव परमेश्वर परमात्मा जिनेंद्रदेव के दास महा भाग्य निर्य मुनि श्रर जिनवाणी इन बिना औरको नमस्कार न करू प्रीतिवर्धन नामा वे मुनि तिनके निकट बज्रक अणुव्रत आदरे पर उपवास धारे, मुनिने याको विस्तारकर धर्मका व्याख्यान कहा जाकी श्रद्धाकर भव्यजीव संसार पाशते छूटे । एक श्रावकका धर्म एक यतिका धर्म इसमें श्रावकका धर्म गृहालंवन संयुक्त पर यतिका धर्म निरालम्व निरपेक्ष, दोऊ धर्मनिका मूल सम्यक्त्वकी निर्मजवा तप र ज्ञानकर युक्त अत्यन्त श्रेष्ठ सो प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुरोग रूपविषै जिनशासन प्रसिद्ध है । यतिका धर्म प्रतिकठिन जान अणुविषै बुद्धि ठहराई र महाब्रतकी महिमा हृदय में धारी जैसे दरिद्रके हाथ में निधि अवेअर वह हर्षको प्राप्त होय तैस धर्मध्यानको धरता संता आनन्दको प्राप्त भया यह अत्यन्त क्रूर कर्मका करणारा एक साथ ही शांत दशाको प्राप्त भया, या बातकर मुनि भी
प्रसन्न भए ।
राजा ता दिन तो उपवास किया, दूसरे दिन पारणा कर दिगम्बर के चरणकमल की प्रणाम कर अपने स्थान गया गुरुके चरणारविंद हृदयमें धारता संता संदेहरहित भया । अणुव्रत आराधे | वित्तमें यह चिंता उपजी जो उज्जेनीका राजा जो सिंहोदर ताका मैं सेवक हूं ताकी विनय किए विना मैं राज्य कैसे करू तब विचार कर एक मुद्रिका बनाई श्रीमुनिसुव्रतनाथजी की प्रतिमा पधराय दक्षिणांगुष्ठमें पहिरी, जब सिंहोदरके निकट जाय तब मुद्रिका में प्रतिमा ताहि बारबार नमस्कार करे सो याका कोऊ वैरी हुता ताने यह छिद्र हेर सिंहोदरसे कहीं जो यह तुमको नमः स्कार नाहीं करे है। जिन प्रतिमाको करे है, तब सिंहोदर पापी कोपको प्राप्त भया घर कपटे कर वज्रकर्णको दशांग नगरते बुलावता भया, सम्पदाकर उन्मत्त मानी याकेँ मारवेको उद्यमी भया । सो बज्रकर्ण मरलचित्त सो तुरंगपर चढ उज्जयिनी जावे उद्यमो भया तो समय एक पुरुष ज्वान पुष्ट र उदार है शरीर जाका, दंड हाथमें सो आयकर कहता भया - हे राजा ! जो तू शरीरत और राज्यते रहित भषा चाहे तो उज्जयनी जाहु नातर मत जाहु, सिंहोदर प्रति क्रोधको प्राप्त भया है, तुम नमस्कार न करो हो तातें तोहि मारा च'हे है तू भले जाने यो कर, यह वार्ता सुनकर वज्रकर्ण विचारी कि कोऊ शत्रु मोविषै अर नृपविषै भेद किया चाहे है ताने मंत्र कर यह पठाया होय फिर विचारी जो याका रहस्य तो लेना सब एकांतविषै ताहि पूछता भया - तू कौन है अर तेरा नाम कहा पर कहांने आया है पर यह गोप्य मंत्र सून कैसे आना तब वह कहता या कुंदननगर में महा धनवंत एक समुद्रसंगम सेठ हैं जाके यमुना स्त्री वाकेँ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org