________________
३७६
dates पर्व
इंद्रियनिका लोरी महामूढ शुभक्रियाते पर ङ मुख, महासूक्ष्म जिनधर्म की चर्चा सो न जाने कामी क्रोधी लोभी यह अन्ध भोग सेवनकर उपजा जो गर्व सोई भया पिशाच ताकर पीडित, सो वनमें भ्रमण करे सो ताने ग्रीष्म समयविषै एक शिलापर निष्ठता संता सत्पुरुषनिकर पूज्य ऐसा महामुनि देखा चार महीना सूर्यकी किरणका आताप सहनहारा महातपस्वी पक्षी समान निराश्रय सिंह समान निर्भय सो तप्तायमान जो शिला ता कर तप्त शरीर ऐसे दुर्जय तीव्रतापका सहनहारा सज्जन सो ऐसे तपोनिधि साधुको देख वज्रकर्ण तुरंगधर चढा बरछी हाथमें लिये, काल समान महाक्र ूर पूछता भया । कैसे हैं साधु ? गुण रूप रत्ननिके सागर, परमार्थ के वेत्ता, पापोंके घातक, सब जीवनिके दयालु, तपोविभूतिकर मंडित तिनको वज्रकर्ण कहता भया ।
हे स्वामी ! तुम इस निर्जन वनमें कहा करो हो ? ऋषि बोले- आत्म कल्याण करे हैं जो पूर्वे अनन्त मवविषै न श्राचरा, तब वज्रकर्ण हंसकर कहता भया-या अवस्थाकरि तुमको कहा सुख है । तुमने तप कर रूपलावण्यरहित शरीर किया । तिहारे अर्थ काम नाहीं, वस्त्राभरण नाहीं कोई सहाई नाहीं । स्नान वगंध लेपनादि रहित हो, पराए घरनिके आहार कर जीविका पूरी करो हो, तुम सारिखे मनुष्य कहा श्रात्महित करें, तब याको काम भोगकर अत्यंत धिवंत देख महादयावान संयमी बोले- कहा तूने महा घोर नरककी भूमि न सुनी है जो तू उद्यमी होय पापनिविषै प्रीति करे है । नरककी महाभयानक सात भूमि हैं ते महा दुर्गंधमई देखी न जांय स्पर्शो न जोय, सुनी न जाय, महातीक्षण लोहके कांटेनिकर भरी जहां नारकियोंको घानियोंमें पेले वेदना त्रास होय हैं छुरियों कर तिल तिल काटिए हैं अर ताते लौह समान ऊपरले नरक पृथिवीतल भर महाशीतल नीचले नरकनिका पृथिवी तल ताकर महा पीडा उपजै है, जहां महा अंधकार महाभयानक रौरवादि गर्त असिपत्र महादुर्गंध वैतरणी नदी जे पापी माते हाथिनिकी न्याई निरंकुश हैं ते नरकमें हजारों मांतिके दुख देखें हैं । हम तोहि पूछे हैं तो सारिखे पावारम्भी विषयातुर कहा श्रात्महित करे हैं । ये इंद्रायण के फल समान इंद्रियनिके सुख तू निरंतर सेय कर सुख माने है सो इनमें हित नाहीं, ये दुर्गति के कारण हैं, आत्माका हित वह करे है जो जीवनिकी दया पाले, मुनिके व्रत धारे अथवा श्रावक के व्रत आदरे, निर्मल है वित्त जोका, जे महाव्रत तथा अलुब्रत नाहीं आचरे हैं ते मिध्यात्व अव्रतके योगते समस्त दुखके भाजन होय हैं, तैंने पूर्व जन्म में कोई सुकृत किया हुता ताकर मनुष्य देह पाया अब पाप करेगा तो दुर्गति जायगा, ये विचारे निर्बल निरपराध मृमादि पशु अनाथ, भूमि ही है शय्या जिनके चंचल नेत्र सदा भयरूप वन के तृण पर जल कर जीवन हारे पूर्व पापकर अनेक दुखनिकर दुखी रात्रि भी निद्रा न करें, भयकर महाकायर सो भले मनुष्य से दीननिको कहा हनें, तातें जो तू अपना हित चाहे है तो मन बचन कार्य कर हिंसा तज, जीव दया अंगीकार करि, मुनिकं श्रेष्ठ वचन सुनकर बज्रकर्ण प्रतिबोधको प्राप्त भया जैसे फला वृक्ष नगजाय ते साधु चरणारविंदको नया, अश्वसे उतर निकट गया, हाथ जोड प्रणामकर अत्यंत विनयकी दृष्टि कर चित्तमें साधुकी प्रशंसा करता भया । धन्य हैं ये मुनि परिग्रहके त्यागी, जिनको मुक्तिकी प्राप्ति होय है अर इस वनके पक्षी र मृगादि पशु
से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org