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________________ २७८ पद्म-पुराण 1 करे हैं । यह देश अति विस्तीर्ण मनुष्यनिके संचार विना शोभे नाही जैसे जिनदीक्षाको भरे मुनि वीतराग भावरूप परम संयम विना शोभे नाहीं । ऐसी सुन्दर वार्ता राम लक्ष्मब करे हैं तहां अत्यंत कोमल स्थानक देख रत्न कम्वल बिछाय श्रीराम बैठे, निकट धरा है धनुष जिनके, र सीता प्रेमरूप जलकी सरोवरी श्रीरामकेविषै श्रासक्त है मन जाका, सो समीप बैठी श्रीरामने लक्ष्मणको याज्ञा करी तू बट ऊपर चढकर देख कही वस्ती हू है सो प्रज्ञा प्रमाण देखता भया र कहता भया कि हे देव ! विजयार्धं पर्वत समानऊचे जिनमंदिर दीखें हैं जिनके शरद के बादले समान शिखर शोभे हैं, ध्वजा फरहते हैं पर ग्राम हु बहुत दीखे हैं। कूप वापी सरोवरनिकरि मंडित अर विद्याधरनिके नगर समान दीखे हैं, खेत फल रहे हैं परन्तु मनुष्य कोई नाहीं दीखे हैं न जानिये लोक परिवारसहित कहीं भाज गए हैं अथवा क्रूरकर्मके करणहारे म्लेच्छ बांधकर लेगए हैं। एक दरिद्री मनुष्य श्रावता दीखे है । मृग समान शीघ्र आवै है, रूप हैं केश जाके, अर मलकर मंडित है शरीर जाका, लंबी दाढी कर आच्छादित है उरस्थल और फाटे वस्त्र पहिरे, फार्ट हैं चरण जाके, दरें है पसेव जाके मानो पूर्व जन्म के पापको प्रत्यक्ष दिखावे है । तब राम श्राज्ञा करी जो शीघ्र जाय याको ले भाव, तब लक्ष्मण घटसे उतर दालिद्रीके पास गए सो लक्ष्मणको देख आश्चर्यको प्राप्त भया जो यह इंद्र है तथा नरुा है तथा नागेन्द्र है तथा नर है किन्नर है चंद्रमा है अक सूर्य है अग्निकुमार है अक कुवेर है । यह कोऊ महातेजा धारक है, ऐसा विचारता संता डरकर मूर्छा खाय भूमिविषै गिर पड़ा तब लक्ष्मण कहते भए - हे भद्र ! भय मत करहु । उठ उठ, कहिकरि उठाया भर बहुत दिलासाकरि श्रीरामके निकट ले आया । सो दलिद्री पुरुष दुवा आदि अनेक दुखनिकर पीडित हुता सो रामको देख सब दुख भूल गया । राम महासुन्दर सौम्य है मुख जिनका कांतिके समूहते विराजमान नेत्रनिको उत्साहके करगहारे महाविनयवान, सीता समीप बैठी हैं, सो मनुष्य हाथ जोड सिर पृथ्वीते लगाय नमस्कार करता भया । तब आप दयाकर कहते मए तू छायावि आ बैठ भय न करि, तब वह आज्ञा पाय दूर बैठा, रघुपति अमृतरूप वचनकर पूछते भए, तेरा नाम कहा पर कहांते आया अर कौन है ? तब वह हाथ जोड विनती करता भया - हे नाथ, मैं कुटुंब हूं मेरा नाम सिरगुप्त हैं दूरते आऊ हूं, तब आप बोले- यह देश ऊजाड काहते हैं ? तब वह कहता भया- - हे देव ! उज्जयिनी नाम नगरी वाका पति राजा सिंहोदर प्रसिद्ध प्रतापकर नवाए हैं बड़े २ सामंत जाने, देवनि समान है विभत्र जाका, अर एक दशांगपुरका पति बज्रकर्ण सो सिंहोदरका सेवक अत्यंत प्यारा सुभट जाने स्वामीके बडे २ कार्य किए सो निग्रंथ मुनिको नमस्कारकर धर्म श्रवणकर ताने यह प्रतिशा करी जो मैं देव गुरु शास्त्र टार औरको नमस्कार न करू। साधुके प्रसादकर ताको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भई सो पृथ्वीमें प्रसिद्ध है । आपने कहा अब तक ताकी वार्ता न सुनी १ तब लक्ष्मण रामके अभिप्रायतें पूछते भए जो वज्र पर कौन भांति संतनकी कृपा भई । तब पंथी कहता मया - हे देवराज ! एक दिन वज्रणं दसारण्य वनमें मृगयाको गया हुता, जन्म होते पापी रक्कर्मका करणाहारारा, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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