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पद्मपुराण
बसन्तराजके आयवेकर वनपंक्ति रूप नारी अानन्दसे नृत्य करे हैं अर कहीं एक भीलनिके समूह के कलकलाट शब्द कर मृग दूर भाग गए हैं अर पक्षी उड गए हैं और कहीं धनी अल्प है जल जिनमें ऐसी नदी तिनकर कैसी भासे है जैसी सन्तापकी भरी विरहनी नायका असुवन कर भरे नेत्र संयुक्त भासे अर कहूं एक वनी नाना पक्षिनिक नादकर मनोहर शब्द करे है श्रर कहूं एक निर्मल नीझरनावोंके नादकर शब्द करती तीव्र हास्य करे है पर कहूं एक मकरंदमें अति लुब्ध जे भ्रमर तिनके गुजार कर मानों वनी वसन्त नृपकी स्तुति ही करे है अर यहूं एक वनी फलनि कर नम्रीभूत भई शोभाको धरे है जैसे सफल पुरुष दातार नम्रीभृत भये सोह है पर कहूं एक वायुकर हालते जे वृक्ष तिनकी शाखा हाले हैं अर पल्लव हाले हैं पर पुष्प पडे हैं सो मानों पुष्पवृष्टि ही करे हैं। इत्यादि रीतिको धरे वनी अनेक कर जीवनिकर भरी ताहि देखनी सीता चली जाय है राममें है चित्त जाका मधुर शब्द सुनकर विचारती भई मानों रामके दुदुभी बाजेही बाजे हैं। या भांति चिंतवती सीता आगे गंगाको देखती भई । कैपी है गंगा ? अति सुन्दर है शब्द जाके पर जाके मध्य अनेक जलचर जीव मीन मकर ग्राहादिक विचरै हैं तिनके विचरवे कर उद्धत लहर उठे है तातें कम्पायमान भये हैं कमल जामें अर मलसे उपाडे हैं तीरके उतंगवृक्ष जाने अर उखाडे हैं पर्वतनिके पाषाणोंके समूह जाने, समुद्रकी ओर चली जाय है ऋति गम्भीर है उज्ज्वल कल्लोलोंकर शोभे है भागोंके समूह उठे हैं अर भ्रमते जे भवर तिनकर महा भयानक है अर दोनों हाहों पर बेठे पक्षी शब्द करे हैं सो परम तेजके धारक रथके तुरंग ता नदीको तिर पार भये, पवन समान है वेग जिनका जैसे साधु संसार समुद्रके पार होय । नदी के पार जाय सेनापति यद्यपि मेरुसमान अचलचित्त हुता तथापि दयाके योग कर अतिविषादको प्राप्त भया महा दुखका भरा कछू कह न सके आंखिनते आंसू निकल आये रथको थांभ ऊंच स्वर कर रुदन करने लगा ढीला होय गया है अंग जाका, जाती रही है कांति जाकी, त सीता सती कहती भई-हे कृतांतवक्र ! तू काहे को महा दुखीकी न्याई रोवै है, आज जिनवंदना के उत्सवका दिन न हर्ष में विषाद क्यों करे है ? या निर्जन वन में क्यों रोवै है तब वह अति रुदन कर यथावत् वृत्तति कहता भया । जो वचन विषपमान अग्नि समान शस्त्र समान है । हे मातः, दुर्जनानिके वचनतें राम अकीर्तिके भय से न तजा जाय तिहारा स्नेह ताहि तजकर चैत्यालयनिकी दर्शनकी तिहारी अभिलापा उपजी हुती सो तुमको चैत्यालयों के अर निर्वाण क्षेत्रों के दर्शन कराय भयानक वनमें तनी है । हे देवी ! जैसे यति रागपरगतिको तजे है तैसे रामने तुमको तजा है, अर जो लक्षणने कहियेकी हद थी सो कही, कछू कमी न राखी तिहारे अर्थ अनेक न्यायके वचन कहे, परंतु रामने हठ न छोडी । हे म्यामिनी ! राम तुमसे नीराग भए अब तुमको धर्म ही शरण है सो या संसारमें न माता, न पिता, न भ्राता, न कुटुम्ब एक धर्म ही जीवका सहाई है। अब तुमको यह मृगोंका भरा वनहीं अाश्रय है। ये वचन सीता सुनकर वज्रपात की मारी जैसी होय गई। हृदयमें दुख के भारकर मूर्खाको प्राप्त भई बहुरि सचेत होय गद २ वाणांसे कहती भई-शीघ्र ही मोहि प्राणनाथसे मिला । तब पाने कही है.---- माता! नगरी दूर रही अर रामका
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