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________________ सतानदेवां पर्ण काहू का कछू विगाड है ज्येष्ठ के सूर्य समान ज्योति जाकी काल समान भयंकर शस्त्रनिके समूहके मध्य चलाजाय है सो आज न जानिये कौन पर कोप है, या भांति नगर के नर नारी वार्ता करै हैं अर सेनापति रामदेवके समीप आया स्वामीको सीस नयाय नमस्कार कर कहता भया-हे देव, जो आज्ञा होय सो ही करू। तब रामने कही, शीघ्र ही सीताको ले जायो अर मार्गमें जिनमंदिरनिका दर्शन कराय सम्मेद शिखर अर निर्वाण भूमि तथा मार्गके चैत्यालय तहां दर्शन कराय वाकी आशा पूर्ण कर अर सिंहनाद नामा अटवी जहां मनुष्यका नाम नहीं तहां अकेली मेल उठ पावो । तब ताने कही जो आज्ञा होयगी सोही होयगा कछू वितर्क न करो अर जानकीपै जाय कही-हे माता ! उठो, रथमें चढो, चैत्यालयनिकी बांछा है सो करो । या भांति सेनापतिने मधुरस्थर कर हर्ष उपजाया तब सीता रथ चढी, चहते समय भगवानको नमस्कार किया अर यह शब्द कहा जो चतुर्विध संव जयवंत होवै। श्रीरामचन्द्र महा जिनधर्मी उत्तम आचरणमें तत्पर सो जयवंत होहु अर मेरे प्रमादसे असुन्दर चेष्टा भई होय सो जिनधर्म के अधिष्ठाता देव क्षमा करो अर सखी जन लार भई तिन से कही तुम सुखसे तिष्ठो, मैं शीघ्रही जिनचैत्यालयनिके दर्शनकर आऊ हूं । या भांति तिनसे कही पर सिद्धनिको नमस्कार कर सीता आनन्दसे रथ चढी सो रत्न स्वर्ण का रथ तापर चढी ऐसी सोहती भई जैसी विमान चढी देशांगना मोहै वह रथ कृतांतवक्रने चलाया सो ऐसा शीघ्र चलाया जैसा भरत चक्रवर्तीका नलाया बाण चले मो चलते समय सीताको अपशकुन भए, सूके वृक्षपर काग बैठा विरस शब्द करता भया पर माथा धुनता भया र सम्मुख स्त्री महा शोक की भी सिरके बाल वखरे रुदन करती भई इत्यादि अनेक अपशकुम भए तो पुणि सीता जिनभक्तिमें अनुरागिणी निश्चलचित्त चली गई, अपशकुन न गिने पहाडनिके शिखर कंदरा अनेक वन उपवन उलंघ कर शीघ्र ही रथ दूर गया गरुड समान वेग जाका ऐसे अश्यों कर युक सफेद धना कर विराजित सूर्यके रथ समान रय शीघ्र चला । मनोरथ समान वह रथ पर चढी रामी राणी इन्द्रःणी समान सो अति सोहती भई । कृनांतवक्र सारथीने मार्गमें सीताको नाना प्रकारकी भूमि दिखाई ग्राम नगर वन अर कमलसे फूल रहे हैं सरोवर नानाप्रकारके वृक्ष, कहूं सघन वृक्षनि कर वन अन्धकार रूप है । जैसे अन्धेरी रात्रि मेघमाला कर मंडित महा अन्यकार रूप भासे कछू नजर न आवै श्रर कहूं विरले वृक्ष हैं सघनता नाहीं तहां कैसा भासे है जैसा पंचम कालमें भरत ऐरावत क्षेत्रनिकी पृथ्वी विरले सत्पुरुपनिकर सोहै अर कहूं वनी पतझड होय गई है सो पत्ररहित पुष्प फलादिरहित छायारहित कैसी दीखे जैसे बड़े कुलकी स्त्री विधा । भावार्थ-विवाहु पुत्र रूपी पुष्प फलादि रहित हैं अर ग्राभरण तथा सुन्दर वस्त्रादि रहित अर कांतिरहित हैं शोभा रहित हैं तैनी वनी दीखे है अर कहूं एक वनमें सुन्दर माधुरी लता आम्रके वृक्षसे लगे ऐसी सोहै हैं जैनी चाल वेश्या अाम्रम् लगि अशोककी बांछा करे है अर कैक वृक्ष दावानलकर जर गये हैं सो नाहीं सोहै हैं जैसे हृदय क्रोधरूप दावानल कर जरा न सोहै अर कहूं एक सुन्दर पल्लवनिके समूह मंद पवनकर हालत साह है माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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