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पी-पुराण
अथवा वे दयावंत पुरुष हैं जाय मिलें पायन परें, कृपा ही करेंगे, ऐसा विचार अतिवीर्यके मित्र राजा कहते भए र श्रीराम अतिवीर्यको पकड हाथीपर चढ़ि जिनमंदिर गए । हाथी सूं उतर जिनमंदिरविषै जाय भगवान की पूजा करी, अर बरथर्मा आर्थिकाकी बंदना करी, बहुत स्तुति करी, रामने अतिवीर्य लच्णको सोंपा सो लक्ष्मणने केरा गह दृढ बांबा तब सीता कही-
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यह ढोला करो पीडा मत देवो शांतता भजहु । कर्मके उदयते मनुष्य मति हीन हो जाय है. पदा मनुष्य में ही होय बडे पुरुष नि को सर्वथा परकी रक्षा ही करना, सत्पुरुषनिको सामान्य पुरुपका हू अनादर न करना, यह तो सहस्रराजानिका शिरोमणि है त याहि छोड देवो तुम. यह रश किया अब कृपा ही करना योग्य है । राजानिका यही धर्म है जो प्रबल शत्रु निको पकड छोड दें यह अनादि काल की मर्यादा है । जब या भांति सीता कही तब लक्ष्मण हाथ जोड प्रणाम कर कहता भया - हे देवी ! तिहारी आज्ञासे छोडवेकी कहा बात १ ऐसा करू जो देव याकी सेवा लक्ष्मणका क्रोध शांत भया तव अतिवीर्य प्रतिबोधको पाय श्रीराम कहता भया - हे देव ! तुम बहुत भला किया ऐसी निर्मल बुद्धि मेरी अबतक कबहू न भई हुती अथ तिहारे प्रतापते भई है । तत्र श्रीराम ताहि हार मुकटादिरहित देख विश्राम के वचन कहते भए कैसे हैं श्रीरघुबीर सौम्य है आकार जिनका, हे मित्र ! दीनता तज, जैसा प्राचीन अवस्था में धैर्य हुता, तैसा ही थर, बड़े पुरुपनि केही संपा पर आपदा दोऊ होय है । यत्र तोहि कुछ आपदा नहीं नंद्यावर्तपुरका राज्य भरतका आज्ञाकारी होकर कर, तब अतिवार्य कही मेरे अब राज्यकी वांछा नाहीं, मैं राज्यका फल पाया अब मैं और ही अवस्था धरूंगा । समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका वश करण हारा महामानका धारी जो मैं सो कैसा पराया से क हो राज्य करू या विषै पुरुषार्थ कहा और यह राज्य कहा पदार्थ ९ जिन पुरुषनि षट् खंडका राज्य किया वे भी तृप्त न भए । सा मैं पांचग्रामका स्वामी कहा अल्प विभूति कर तृप्त होऊंगा ? जन्मांतर किया जो कर्म ताका प्रभाव देखो, जो मोहिं कांतिरहित किया जैसे राहु चन्द्रमाको कांतिरहित को, यह मनुष्य देह सारभूत देवन हुते अधिक मैं खोई । नवां जन्म थरनेको कायर सो तुमने प्रतिबोध्या, श्रव मैं ऐसी चेष्टा करू जाकर मुक्ति प्राप्त होय या भांति कह कर श्रीरान लक्ष्मण को क्षमा कराय वह राजा अतिवीर्य केमरी सिंह जैसा है पराक्रन जाका, श्रुतधरनामा मुनीश्वरके समीप हाथ जोड नमस्कार कर कहता मयाहे नाथ ! मैं दिगम्बरी दीक्षा वांछू हूं। तब श्राचार्य कही यही बात योग्य हैं। या दीचाकर अनन्त सिद्ध भए अर होवेंगे तब प्रतिदीर्य वस्त्र तत्र केश निको लुंचकर महाव्रतका धारी भया । आत्माके अर्थविषै मग्न, रागादि परिग्रहका त्यागी विधिपूर्वक तप करता पृथिवीपर विहार करता भया । जहां मनुष्यनिका संचार नाहीं वहां रहे । सिंहादि क्रूर जीवनिकर युक्त जो महागहन वन अथवा गिरिशिखर गुफ दि निविषै निवास करे ऐसे अतिवीर्य स्वामीको नमस्कार होवे तजी है समस्त परिग्रहकी आशा जिनने पर अंगीकार किया है चारित्रका भार जिनने, महा शीलके धारक नानाप्रकार तपकर शरीर शोषणहारे प्रशंसा योग्य महामुनि सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र रूप सुन्दर हैं आभूषण भर दशों दिया ही वस्त्र जिनके, साधुनि के जे मूलगुण उत्तरगुण वे ही संपदा, कर्म
करें,
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