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सैतीसवा पर्व
३०३ लोक पाश्चर्यको प्राप्त भए । लार लागे । ये महा आभूषण पहिरे सर्व लोकके मन अर नेत्र हरते राजद्वार गए, चोवीस तीर्थकरनिके गुण गाए, पुराणोंके रहस्य बताए, प्रफुल्लित हैं नेत्र जिनके, इनकी ध्वनि राजा सुन इनके गुणनिका बैंचा समीप आया, जैसे रस्सीका बँचा जलकेविषै काष्ठका भार आवे, नृत्यकारणीने नुपके समीप नृत्य किया रेचक कहिये भ्रमण अंग मोडना, मुलकना, अवलोकना, भौंहोंका फेरना, मन्द मन्द हंसना, जंघा बहुरि करपल्लर तिनका इलावना, पृथिवीको स्पर्शि शीघ्र ही पगनिका उठावना, रागका दृढ करना, केशरूप फांसका प्रवतना, इत्यादि चेष्टारूप काम वाणनिकरि सकल लोकनिको पींधा । स्व निके ग्राम यथा स्थान जोडनेकरि भर वीणके बजाकर सबनिको मोहित किए, जहां नृत्यकी खडी रहे वहां सकल सभाके नेत्र चले जांय, रूपकर सबनिके नेत्र, स्घरकर सबनिके श्रवण , गुणकर सबनिके मन, बांध लिए ।।
गौतमस्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! जहां श्रीराम लक्ष्मण नृत्य करें अर गावें बजावें तहां देवनिके मन हरे जाय तो मनुष्यनिकी कहा बात, श्री ऋषभादि चतुर्विशतितीर्थकरनिके यश गाय सकल समा वश करी, राजाको संगीतकर मोहित देख अंगार रसम बीर रसमें आए, आंख फेर भौंहें फेर महा प्रवल तेज रूप होय कहने भए हे अतिवीर्य ! तें यह कहा दुष्टता प्रारंभी तोहि यह मंत्र कोनने दिया, तें अपने नाशके निमित्त भरतसों रोिष उपजाया, जया चाहे तो महाविनयवानहोकर तिनको प्रसन्नकर, दास होय तिनके निकट जावो, तेरी रामी वड़े वंशकी उपजी कामक्रीडाकी भूमि विधवा न होय तोहि मृत्युको प्राप्त भए सब ग्राभूषण डार शोभारहित होयगी जैते चन्द्रमा विना रात्रि शोमा रहित होय, तेरा वित्त अशुभरि आया है सो चिचको फेर भरतको नमस्कार कर, हे नीच! या भांति न करेगा, तो बार ही मारा जायगा, राजा अनरण्यके पोता अर दशरथके पुत्र तिनके जीवते तू कैसे अयोध्याका गज्य चाहे है जैसे सूर्यके प्रकाश होते चन्द्रमाका प्रकाश कैसे होय ? जैसे पंतग दीपविष पड मूवा चाहे है तैसे तू मरण चाहे है। राजा भरत गरुड समान महाबली तिनते तू सर्पपमान निर्बल बगवरी करे है। यह पचन भरतकी प्रशंसाके पर अपनी निंदाके नृत्यकारिणीके मुखसे सुन सकल-सभा सहित प्रतिवीर्य क्रोधको प्राप्त भया, लाल नेत्र किए जैसे समुद्र की लहर उठे है तैसे सामंत उठे अर राजाने खड्ग हाथमें लिया, ता समय नृत्यकारिणीने उछल हाथसों खड्ग खोंस लिया अर सिरके केश पकड बांध लिया अर नृत्यकारिणी अतिवीर्यके पक्षी राजा तिनसों कहती भई, जीवनेकी बांछा राखो तो अतिवीर्यका पक्ष छोड भरतपै जाहु भरतकी ही सेवा करहु, तब लोकनिके मुखते ऐसी ध्वनि निकसी महा शोभायमान गुणवान भरत भूप जयवंत होऊ । सूर्य समान है तेज जाका न्यायरूप किरणनिके मंडलकर शोभित दशरथके वंशरूप आकाशविर चन्द्रमासमान लोकको आनन्दकारी जाका उदय थकी लसीरूप कुमुदनी विकासको प्राप्त होय, शत्रुनिके मातापते रहित परम आश्चर्यको करता संता, अहो यह बड़ा आश्चर्य जाकी नृत्यकारिणीकी यह चेष्टा जो ऐसे नृपतिको पकड लेय तो भरतकी शक्तिका कहा कहना १ इन्द्रह को जीते, हम इस प्रतिवीर्यसों भाय मिले, सो भरत महाराज कोप भए होंयगे न जानिये कहा करें।
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