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अडतीसवा पर्व हरिवको उद्यमी संजमी मुक्ति के घर योगीन्द्रे तिनको नमस्कार होवे यह अतिवीर्य मुनिका चरित्र जो सुबुद्धि पहें सुने सो गुणोकी वृद्धिको प्राप्त होंय भानु समान तेजस्वी होंय और संसारके कष्ट से निवृत्त होय ॥
इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविष
अतिगीर्य का नैराग्य गर्णन करनेबाला सैतीसग पर्ष पूर्ण भया ।। ३७ ।।
अथाननर श्रीरामचन्द्र महा न्यायके वेत्ताने अतिवीर्यका पुत्र जो विजयरथ ताहि अमिषेक कराय पिताके पदपर थापा, त ने अपना समस्त वित्त दिखाया सो ताका ताको दिया अरं ताने अपनी बहिन रत्नमाला लक्ष्मण को देनी करी सो तिनने प्रमाण करी ताके रूपको देख लक्ष्मण हर्षित भए मानों साक्षात् लक्ष्मी ही है । बहुरि श्रीर म लक्ष्मण जिनेन्द्रकी पूजाकर पृथ्वी थरके विजयपुर नगरविष वापिस गए अर भरतने सुनी जो अतिवीर्यको नृत्यकारिणीने पकडा सो विरक्त होय दीक्षा धरो, तब शत्रुन्न हास्य करने लगा। तब ताहि मनेकर भरत कहते भएअहो भाई ! राजा अतिवीर्य महा धन्य हैं जे महादुखरूप विषयोंको तस शांति भावको प्राप्त भए वे महा स्तुति योग्य हैं तिनको हांसी कहा ? तपका प्रभाव देखो जो रिपु ह प्रणाम योग्य होय हैं, यह तप देवनि को दुर्लभ है या भांति भराने अतिवीर्य की स्तुति करी । ताही समय अतिवीर्यका पुत्र विजयरथ आया अनेक सामंत पहित सो भरतको नमस्कार कर तिष्ठा, क्षणिक और कथाकर जो रत्नमाला लक्ष्मण को दई ताकी बडी वहिन बिज सुन्दरी नाना प्रकार आभूषण की थरणहारी भरनको परणाई अर बहुत द्रव्य दिया सो भरत ताकी वहिन परण बहुत प्रसन्न भए । वि. जयस्थत बहुत स्नेह किया, यही बडेनिसी रीति है अर भरत महा हर्ष थकी पूर्ण है मन जाका तेज तुरंगपर चढकर अतिवीर्य मुनिके दर्शनको चला सो जा गिरिपर मुनि विराजे हुते वहां पहिले मनुष्य देख गए हुते सो लार हैं तिनको पूछते जाय हैं, कहाँ महामुनि ? कहां महामुनि ? वे कहै हैं आगे विराजे हैं । सो जा गिरिपर मुनि वहां जाय पहुंचे, कैसा है गिरि ? विषम पाषाणनिके समूहकरि महा अगम्य अर नाना प्रकारके वृक्ष निकारि पूर्ण पुष्पनिकी सुगन्ध कर महा सुगन्धित अर सिंहारिक क्रूर जीवनिकरि भरा, सो राजा भरत अश्वते उनर महाविनयवान मुनिके निकट गए। कैन हैं मुनि ? रागद्वप रहित हैं। शांत भई हैं इंद्रियां जिनकी, शिलापर विराजमान निभय अकेले जिनकल्पी अतिवीर्य मुनींद्र महा तपस्वी ध्यानी मु नपदकी शोभाकरि संयुक्त तिनको देख भरत आश्चर्यको प्राप्त भया । फूल गए हैं नेत्र कमल जाके, रोमांच होय आए । हाथ जोड नमस्कार कर साधुके चरणारविंदकी पूजाकर महा नम्रीभूत होय मुनि भक्तिविषे है प्रेम जाका, सो स्तुति करता भया-हे नाथ ! परमतचके वेत्ता तुम ही या जगतविषे शरवीर हो, जिनने यह जैनेंद्री दीक्षा महादुर धारी । जे महन्त पुरुष विशुद्ध कुल में उत्पन्न भए हैं तिनकी यही चेष्टा है । मनुष्य लोकको पाय जो फल बडे पुरुष बांछे हैं सो आपने पाया भर
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