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________________ ३०३ पग-पुराण हम या जगतकी मायाकरि अत्यंत दुखी हैं । हे प्रभो! हमारा अपराध क्षमा करहु, तुम कृनार्थ हो पूज्य पदको प्राप्त भए । तुमको बारंबार नमस्कार होहु ऐसा कहकर तीन प्रदिक्षणा देय हाथ जोड नमस्कारकर मुनि संबंधो कथा करता संता गिरिते उतर तुरंगपर चढ हजारों सुभटनिकर संयुक्त भयोध्या पाया । समस्त राजानिके निकट सभामें कहा कि वे नृत्यकारिणी समस्त लोकनिके मनको मोहित करती अपने जीवितविष हू निर्लोभ प्रबल नृपनिको जीतनहारी कहां गई ? देखो पाश्चर्यकी बात, अतिवीर्यके निकट मेरी स्तुति करें पर ताहि पकडे, स्त्रीवर्गविष ऐमी शक्ति कहांते होय १ जानिए है जिनशासनकी देविनिने यह चेष्टा करी । ऐसा चितवन करता संता प्रसमा चित्त भया अर शत्रुघ्न नाना प्रकारके थान्यकर मंडित जो धरा ताके देखनेको गया, जग. तविष व्याप्त है कीर्ति जाकी, बहुरि अयोध्या पाया, परम प्रतापको धरे अर राजा भरत अतिवीर्यकी पुत्री विजयसुन्दरी सहित सुख भगता सुखसों तिष्ठे जैसे सुलोचना सहित मेघेसर तिष्ठा पह तो कथा यहां ही रही आगे श्रीराम लक्ष्मणका वर्णन करे हैं। अथानन्तर राम लक्ष्मण सर्व लोकको आनन्द के कारण कैपक दिन पृथ्वीथरके पुरविणे रहे । जानकीसहित मंत्रकर आगे चलको उद्यमी भए, तब सुन्दर लक्षणकी थरणहारी वनमाला लरमणते कहती भई, नेत्र सजल होय आए । हे नाथ ! मैं मंदभागनी मोहि आप तज जावी हो तो पहिले मरणते कहा बचाई, तब लक्ष्मण बोले--हे प्रिये, तु विषाद मत करें, थोडे दिनमें तेरे लेनेको आवै है, हे सुन्दरबदनी, जा तेरे लेयवैको शीघ्र न आवे तो हमको वह गति हो जो सम्यग्दर्शनरहित मिथ्या दृष्टिकी होर है । हे वल्लभे, जो शीघ्र ही तेरे निकट न भावें तो हमकों वह पाप होय जो महामानकर दग्ध साधुनिक निंदकनिके हो । हे गजगामिनी, हम पिताके वचन पालिवे निमित्त दक्षिणके समुद्रके तीर निसंदेह जाय हैं । मलयाचलके निकट कोई परम स्थानककर तोहि लेने आयेंगे । हे शुभमते, तू धीर्य रख, या भांति कहकर अनेक सौगंथकर अति दिलासा देय आप सुमित्राके नन्दन लक्ष्मण श्रीरामके संगचलनेको उद्यमी भए। लोकानको मते जान रात्रिको सीतासहित गोप्य निकसे । प्रभातविणै इनको न देखकर नगरके लोक परम शोकको प्राप्त भए । राजाको अति शोक उपजा, वनमाला लक्ष्मण विना घर सुना जानती भई, अपना चित्त जिनशासनविणै लगाय धर्मानुरागरूप लिही। राम लक्ष्मण पृथ्वी विष विहार करते नर नारिनिको मो.ते पराक्रमी पृथिवीको आश्चर्यके कारण धीरे २ लीला ते विचरें हैं। जगतके मन पर नेत्रनिको अनुराग उपजावते रमै हैं । इनको देख लोक विचारै है जो यह पुरुषांचम कौन पवित्र गोत्रविषे उपजे हैं। थन्य है वह माता जाकी कुतिविष ये उपजे अर धन्य हैं वे नारी जिनको ये परणे, ऐसा रूप देवनिको दुर्लभ, यह सुन्दर कहांते भाए मर कहां जाय हैं ? इनके कहा बछा है । परस्पर स्त्रीजन औनी वार्ता करै हैं । हे सखी, देखो दोऊ कमल नेत्र चन्द्रमा सारिखे अद्भुत बदन जिनके अर एक नारी नागकुमारी समान अद्भुत देखी । न जानिये वे सुर हुते वा नर हुते । हे मुग्धे, महा पुण्य बिना उनका दर्शन नाहीं। अब तो वे दूर गए पाछे फिरो, वे नत्र अर मनके चोर जगतका मन हरते फिरै हैं इत्यादि नर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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