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________________ २२ पम-पुराण का अभाव भया पर युगल उत्पत्ति मिटी ते ही उत्पन्न भए तिनके मरुदेवी राणी मनको हरणहारी उत्तम पतिव्रता जैसे चन्द्रमाके रोहिणी, समुद्र के गंगा, राजहंसके हंसनी तैसे यह नाभि राजाके होती भई, वह राणी राजाके मन में बसे है उसकी हंसिनी कैसी चाल अर कोयल कैसे वचन हैं । जैसे चकवीकी चकवेसों प्रीति होय है तैसे राणाकी राजासों प्रीति होती भई । राणीकू क्या उपमा दी.जाय जो उपमा दी जाय वह पदार्थ राणीसे न्यून दीखे है, सर्व लोकपूज्य मरुदेवी जैसे धर्मके दया होय तैसे त्रैलोक्य पूज्य जो नाभिराजा उसके परमप्रिय होती मई, मानो यह राणी आतापकी हरणहारी, चन्द्रकला ही कर निरमापी (बनाई) है, आत्मस्व रूपकी जाननहारी सिद्ध पदका है ध्यान जिसको त्रैलोक्यकी मातापुण्याधिकारणी मानो जिनवाणी ही है अर अमृनका स्वरूप तृष्णाकी हरणहारी मानो रत्नवृष्टि ही है, सखियोंको आनन्दकी उपजावनहारो महा रूपवती कामकी स्त्री जो रति उससे भी अति सुन्दरी है, महा आनन्दरूप माता जिनका शरीर हो सर्व आभूषण है जिसके नेत्रोंके समान नील कमल भी नाहीं अर जाके केश भ्रमरोंसे भी अधिक श्याम, वह केश ही ललाट का शृंगार हैं यद्यपि इनको आभूषणों की अभिलाषा नहीं तथापि पतिकी आज्ञा प्रमाण कर कर्णफूलादिक आभूषण पहिरे हैं जिनके मुखका हास्य ही सुगंधित चूर्ण है उन समान कपूरकी रज़ कहा पर जिनकी वाणी वीणाके स्वरको जीते है उनके शरीरके रङ्ग के आगे स्वर्ण कुंकुमादिकका रङ्ग कहा ? जिनके चरणारविन्द पर भ्रमर गुंजार कर हैं, नाभिराजा करि सहित मरुदे। राणोके यशका वर्णन सैकड़ों ग्रंथों में भी न हो सके तो थोड़े। श्लोकों में कैसे होय ? जब मरुदेवी के गर्भ में भगवान् के आगमन के छह महिना बाकी रहे सब इन्द्रकी प्राज्ञामे छप्पन कुमारिका हर्षकी भरी माताकी सेवा करती भई अर १ श्री २ ही ३ धृति ४ कीर्ति ५ बुद्धि ६ लक्ष्मी यह पट (६) कुम रिका स्तुति करती भई-हे मात ! तुम आनन्दरूप हो हमको आज्ञा करो तुमारी आयु दीर्घ होवे इस भांति मनोहर शब्द कहती भई अर नाना प्रकार की सेवा करती भई, कई एक बीण बजाय महा सुन्दर गान कर माता को रिझारती भई अर कई एक आसन निछावती भई अर कई एक कोमल हाथोंसे माता के पांव पलोटती भई, कई एक देवी माता को तांबूल (पान) देती भई, के एक ख्ड्ा हाथमें धारण कर माताकी चौकी देती भई, कैएक वाहरले द्वार में सुवर्णके आसे लिये खड़ी होती मई अर केएक चवर ढोरती भई, कई एक भाभूषण पहरावती भई, कई एक सेज विछावती भई, कैएक स्नान करावती भई, कई एक प्रांगन बुहारती भई, कैएक फूलोंके हार गूथती भई, कई एक सुगन्ध लगावती भई, कई एक खाने पीने की विधि में सावधान होती भई । कई एक जिसको बुलावे उसको बुलावती भई । इस भांति सर्व कार्य देवी करती भई, माताकू काहु प्रकार की भी चिन्ता न रहती भई। एक दिन माता कमल सेज पर शयन करती हुई, उसने रात्रिके पिछले पहर अत्यन्त कल्याणकारी सोलह स्वप्न देखे १ पहले स्वप्नमें ऐसा चन्द्र समान उज्ज्वल मद भरता गाजता हाथी देखा जिसपर भ्रमर गंजार करे हैं। २ दूजे स्वप्नमें शरदके मेष समान उज्ज्वल धवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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