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सोलहवा पर्य
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आज्ञा पाळा बाहुडा र मनमें विचारों कि याहि परकर तज दूंगा ताकि दुःख ते जन्म पूरा करैर परका भी याहि संयोग न होय रु
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करावा मी अशोक के पल्लव
की जाला समान लागे
अथानन्तर कन्या प्राणवल्लभको पाछा आया सुनकर हर्षित भई रोमांच होय आए लग्न के समय इनका विवाह मंगल भया जब दुलहिनका परग्रहण समान आरक्त प्रति कोमल कन्यार्क कर से इस विरक चितके बिना इच्छा कुमारकी दृष्टि कन्या तनुपर काहू भांति गई सो क्षणमात्र भी न सह सका जैसे कोई विद्युत्प्रातको न सह सके | कन्नाके प्रीति बरको प्रीति यह इसके भावको व जाने ऐसा जान मानों अग्नि हंसती भई और शब्द करती भई, बड़े इनका विवाह कर सर्वबंधु जन आनन्द को प्राप्त भए । मानसरोवर के तट विवाह भया नानाप्रकार वृक्षलता फल पुष्प विराजित जो सुन्दर वन तहां परम उत्तवकर एक मास रहे । परस्पर दोनों समधियोंने अति हितके वचन आलाप करे परस्पर स्तुति महिमा करी सन्मान किए पुत्र के पिताने बहुत दान दिया अपने अपने स्थानको गए ।
हे श्रेणिक ! जे वस्तुका स्वरूप नहीं जाने हैं और बिना समझ पराये दो ग्रह हैं ते मूर्ख | पराये दोपकर आप ऊपर दोष याय पड़े है सो सब पाप कर्मका फल है पाप तापकारी है।
इति श्रीरविषेणाचार्य विरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताड़ी भाषा वचनका विषै अजना पत्रका विवाह घन करने वाला पन्द्रहवां पर्व पूर्ण भया ।। १५ ।।
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अथानन्तर पवनंजय कुमारने अंजनी सुन्दरीको परख कर ऐसी जी जो कबहूं बात न बूझे सो वह सुन्दरी पति अमापणसे अर कृपादृष्टि कर न देखने पर दुःख करती मई रात्री में भी निद्रा न लेय निरन्तर अनुपात ही द्वारा करें शरीर मलीन होय गया पतिसे व्यति स्नेह धनीका नाम प्रति सुहावै पवन आवै सो भी व्यति लागे । पतिका रूप तो विवाहको वेदी में अवलोकन किया था ताका मनमें ध्यान करवो करें र निश्चल लोचन सर्व चेष्टारहित बैठी रहे अन्तरंग ध्यानमें पतिका रूप निरूपणकर वाह्य भी दर्शन किया चाहे सो न हो तब शोक कर बैठ रहे, चित्रपटमें पतिका चित्रम लिखनेका उद्यम करे व हाथ कांप कर कलन गिर पड़े, दुरबल होय गया है समस्त अंग जाका, ढीले होय कर गिर पडे हैं सर्व आभूषण जाके, दीर्घ उष्णा जे उच्छ्वास उनकर मुस्काय गये हैं कपोल जाके, अंग में वस्त्र के भी भारकर खेदको धरती संती अपने शुभ कर्मको निंदती माता पिताको बारम्बार याद करती संत्री, शून्य भया है हृदय जाका, दुःखकर क्षीण शरीर मूर्छा द्याजाय चेष्टारहित होय जाय, अश्रुपात मे रुक गया है कण्ठ जाका, दुखकर निकसे हैं वचन जावे, विह्नत भई संती देव कहिये पूर्वोपार्जित कर्म ताहि उलाहना देय, चन्द्रमाकी किरण हू करि जाको अतिदाह अजै थर मन्दिर में गनन करती मूर्छा खाय गिर पढेर की गारी ऐसे विचार कर अपने मनहीमें पति बतलावे । हे नाथ ! तिहारे मनोज्ञ अंग मेरे हृदय में निन्दर है है मुझे आताप क्यों करें हैं घर मैं आपका कछ
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