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________________ १६५ બંદપુરાણ अपराध नहीं किया, निःकारण मेरे पर कोप क्यों करो, अब प्रसन्न होवो मैं तिहारी भक्त हूं मेरे चिचके विपादको हरो जैसे अंतरंग दर्शन देवो हो तैसे वहिरंग देवो । यह मैं हाथ जोड़ चीनती करू हूं। जैसे सूर्य विना दिनकी शोभा नहीं और चन्द्रमा विना रात्रीकी शोभा नहीं और दया क्षमाशील संतोषादि गुण विना विद्या शोमै नहीं तैमे तिहारी कृ बिना मेरी शोभा नहीं । या भांति चित्तविषै बसे जो पति उसे उलाइना देव भर बड़े मोतियों समान न्त्रोंसे यांतुवोंकी बूंद भरें । महा कोमल सेज अर अनेक सामग्री सखीजन करें परन्तु याहि कछु न सुहा, चकारूढ समान मनमें उपजा है वियोगसे न जाको, स्नानादि संस्काररहित कभी भी केश समारे गूथे नहीं, केश भी रूखे पडगये सर्व क्रियामें जड़ मानों पृथिवीहीका रूप हो रही हैं र निरन्तर प्रवाद मानो जलरूप ही होय रही है । हृदयके दाहके योगतें मानों अग्नि रूप ही हो रही है पर चल चित्तके योग मानो वायुरूप ही हो रही है पर शून्यता के योगतें मानो गगन रूप ही होय रही है । मोहके योगत आच्छादित होय रहा है ज्ञान जाका, भूमि पर डार दिये हैं सर्व अंग जाने, बैठ न सकै र विष्ठे तो उठ न सकें पर उठे तो देहीको थांभ न सकै सो सखी जनका हाथ पकड़ विहार करें सो पग डिग जाय अर चतुर जे सखीजन तिनसों बोलनेकी इच्छा वरै परन्तु बोल न सकै अर हंसनी कबूतरी यदि गृहपक्षी तिनसों क्रीडा क्रिया चाहे पर कर न सकै । यह विचारी सबसे न्यारी बैठी रहै । पतिमें लग रहा है मन पर नेत्र जाका निःकारण पतिर्वै अपमान पाया सो एक दिन बरस बराबर जाय यह याकी अवस्था देख सकल परिवार व्याकुल भया । सच ही चिंतवते भये कि इता दुख याको विना कारण क्यों मया है यह कोई पूर्वोपार्जित पाप कर्मका उदय है पिछले जन्भर्म याने किसी के सुखविषै अंतराय किया है सो याके भी सुखका अंतराय भया । वायुकुमार तो निर्मित मात्र है । यह बारी भोरी निर्दोष याहि परणकर क्यों तजी, ऐसी दुलहिन सहित देवों समान भोग क्यों न करै । याने पिता के घर कभी रंचमात्र हू दुख न देखा सो यह कर्मानुभव कर दुखके मारको प्राप्त भई । यकी सखीजन विचारें हैं कि क्या उपाय करें हम भाग्यरहित हमारे यत्नसाध्य यह कार्य नाहीं कोई ऋशुभकर्मकी चाल है अब ऐसा दिन कम होयगा वह शुभ मुहूर्त शुभ बेला कम होयगी जो वह प्रीतम या प्रियाको समीप ले बैठेगा अर कृपादृष्टिकर देखेगा मिष्ट वचन बोलेगा यह सबकी अभिला लग रही है। श्रथानंतर राजा वरुण ताके रावणसे विरोध पड़ा, वरुण महा गर्ववान रावणकी सेवा न करें सो दाने दूत भेजा । दूत जाय वरुणसे कहता भया । दूत धनीकीं शक्तिकर महाकांतिको धरै है । विद्याधिपतं वरुण ! सर्वका स्वामी जो राज्य ताने यह आज्ञा करी है जो आप मुझे प्रणाम करो अथवा युद्धकी तैयारी करो । तब वरुणने हंसकर कही, हो दूत ! कौन है रावण कहां रहें हैं जो मुझे दबाव है सो मैं इंद्र नहीं हूँ वह वृथा गर्वित लोकनिंद्य था । मैं वैश्रवण नहीं मैं यम नहीं, मैं सहस्रस्मि नहीं, मैं मरुत नहीं, रावणके देवाधिष्ठित रत्नोंसे महा गर्व उपजा है । की सामर्थ्य है वो आवो मैं गर्वरहित करूंगा घर तेरी मृत्यु नजीक है जो हमसे ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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