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________________ पग-पुराण प्रकट भई तब रात्रीके समय उत्साहसहित मित्रको पवनञ्जय कहते भए । हे मित्र ! उठो आवो वहां चलें जहां वह मनकी हरणहारी प्राणवल्लभा तिष्ठै है, तब ये दोनों भित्र विमानमें बैंठ आकाशके मार्ग चले, मानों आकाशरूप समुद्रके मच्छ ही हैं। क्षणमात्रविष जाय अंजनीके सतखणे महलपर चढ़ झरोखामें मोतियों की झालरोंके आश्रय छिपकर बैठे, अंजनी सुंदरीकों पक्नंजय कुमारने देखा कि पूर्णमामोके चन्द्राके समान है मुख जाका, मुखकी ज्योतिसे दीपक मंद ज्योति होय रहै हैं अर श्याम श्वेत अरुण त्रिविध रंगको लिये नेत्र महा सुंदर हैं मानों कामके बाण ही हैं अर कुच ऊचे महा मनोहर श्रृंगाररसके भरे कलश ही है, नवीन कोंपल समान लाल मुंर सुलक्षण हैं हस्त पर पांव जाके पर नखोंकी कांतिकर मानों लावण्यताको प्रकट करती शाम है अर शरीर महासुन्दर है अति नाजुक चीण कटि कुनोंके भारनितें मति कदाचित् भग्न हो जाय ऐनी शंशाकारे मानों त्रिनलीरूप डोरीसे प्रतिबद्ध है। पर जिसकी जंघा लावए पताको धरै हैं सो कलेहौं अति कोमल मानों कामके मंदिरके स्तंभ ही हैं। सो मानों वह कन्या चांदनी रात ही है। मुक्ताफलरूप नक्षत्रोंसे युक्त इन्दीवर कमल समान है रूप जाका । सो पवनंजय कुमार एकाग्र लगे हैं नेत्र जाके अंजनीको अले प्रकार देख सुखकी भूमि को प्राप्त भया । ताही समय बसंततिलका सखी महाबुद्धिवंती अंजना सुन्दरीत कहती भई-हे सुरूपे ! तू धन्य है जो तेरे पिताने तुझे वायुमारको दानी, ते वायुकुमार महा प्रतापी हैं जिनके गुण चन्द्रमाकी किरम समान उज्ज्वल हैं तिनसे समस्त जगत व्याप्त होय रहा है जिनके गुण सुन अन्य पुरुषोंके गुण मंद भासे हैं जैसे समुद्र में लहर तिष्ठे तैस तू वा योथाके अंगविष विठेगी । कैसी है तू ? महा मिष्टमाएिगी चन्द्रकांति रत्नों की प्रभाको जीते ऐसी कांति तेरी, तू रत्नकी धरा रत्नाचन पर्वतके तटविषे पड़ों तुम्हारा सम्मन्ध प्रशंसाके योग्य भया याकरि सर्व ही कुटुंबके जन प्रसन्न भए । या भांति जब पतिके गुण सखीने गाए तब वह लाजकी मरी चरणोंके नखकी ओर नीचे देखती भई आनन्दरूप जलकर हृदय भर गया अर पवनंजयकुमार हू हर्षसे फूल गये हैं नेत्र कमल जाके, हर्पित भया है बदन जाता। ता समय एक निश्रकशी नामा दुजी सखा होंठ दाबकर चोटी हलायकर बोली-अहो परम अज्ञान तेरा यह कहा परनंजया सम्बन्ध सराहा जा विपु: कुं रस सम्बाथ होता तो अति श्रेष्ठ था जो पुण्यके योगों कन्याका विद्युत्नभ पति होता तो जन्म सफल होता। हे बंसतमाला! विद्युत्प्रभ और पवनंजयमें इतना भेद है जितनः समुद्र अर गोष्पदम भेद है। विद्युत्प्रमकी कथा बड़े बड़े पुरुषों के मुखसे सुनी है जैसे मेघ, बू, . सख्या नहीं ते. ताक गुणों का पार नहीं। वह नवयौवन है । महासौम्प, विनयवान, देदीप्यमान, प्रतापवान् , रूपवान, गुणवान, विद्यावान, बुद्धिमान बलवान सर्व जगत चाहे दर्शन याका सब यहो कहै है कि यह कन्या वाहि देनी थी सो कन्याके बापने सुनो-वह थोड़े हो वर्ष मुनि हायना तात सम्बन्ध न किया सो भला न किया, यि प्रमका संयोग एक क्षणमात्र हो भला अर क्षुद्र पुरुषका संयोग बहुत काम भी किस अर्थ ? यह वार्ता सुनकर सरनंजय क्रायका प्रग्नि कर प्रज्वलित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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