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पन्द्रहवी पर्व १५६.. के मारसे पीडित भया । यद्यपि यह पवनंजय बिवेकी था तथापि कामके प्रभावकर विह्वल मया । सो कामको धिक्कार हो, कैसा है काम १ मोक्षमार्ग का विरोधी है, कामके वेगकर पवनंजय धीरजरहित भया, कपोलनिके कर लगाय शोकवान बैठा, पसेवसे टपके हैं कपोल जाके, उष्ण निश्वासकर मुराए हैं होंठ जाके अर शरीर कम्पायमान भया बारम्वार जंभाई लेने लगा पर अत्यन्त अभिलाषरूप शल्यसे चिंतावान भया, स्त्रीके ध्यानतें इन्द्रिय व्याकुल भए, मनोज्ञ स्थान भी याको अरुचिकारी भासे, चित्त शून्यता थारता भया, तजी है समस्त श्रृंगारादि क्रिया जाने, क्षणमात्रविषै तो श्राभूषण पहिरें, क्षणमात्रविषै खोल डारै, लज्जारहित भया, चीख होगया है समस्त अंग जाका, ऐसी चिंता धारता भया कि वह समय कब होय जो मैं उस सुन्दरी को अपने पास बैठी देखूं अर बाके कमल तुल्य गात्रको स्पर्श करू वा कामनिके रस की वार्ता करू" | की बात ही सुन कर मेरी यह दशा भई है, न जानिए और क्या होय; वह कल्याणरूपिणी जिस हृदयमें बसै है ता हृदयमें दुःखरूप अग्निका दाह क्यों होइ, स्त्री तो निश्चयसेवी स्वभावसे ही कोमलचित्त होय है मुझे दुख देने अर्थ चित्त कठं र क्यों भया ! यह काम पृथ्वीविषै नंग कहावे है जाके रंग नहीं सो अंग विना ही मुके गरहित करे है | मार डारे हैं ! जो याके अंग होग तो न जाने क्या करें, मेरी देहविषै घाव नहीं परन्तु वेदना बहुत है । मैं एक जगह बैठा हूं अर मन अनेक जगह भ्रम है ये तीन दिन उसे देखे बिना मुझे कुशल से नजांग नातें ताके देखनेका उपाय करू जाकरि मेरे शांति होय अथवा सत्र कार्यों मित्र समान जगत विषै और आनन्दका कारण कोई नहीं, मित्र सत्र कार्य सिद्ध होंय ऐसा विचार अपना जो प्रहरत नामा मित्र सर्व विश्वास का भाजन वासों पवनंजय गदगद बाणीकर कहता भया । कैसा है मित्र ? किनारे ही बैठा है छायाका मूर्ति ही हैं रूपना हीं शरीर मानों विक्रियाकर दूजा हो रहा है ताहि या मांति कही- हे मित्र ! तू मेरा सर्व अभिप्राय जाने है तोहि कहा कहूं ? परन्तु यह मेरी दुःख अवस्था मोह बाचाल करें है। हे सखे ! तुम बिना बात कौनसे कही जाय ? तू समस्त जगतकी रंति जानें है जैसे किसान अपना दुःख राजा से कहै अर शिष्य गुरुसे कहै श्रर स्त्री पतिसों कहै अर रोगी वैद्य सों कहै बालक मवासों कहै तो दुख छूटै तैसें बुद्धिमान अपने मित्र मे कहै तातें मैं तोहि कहूं हूँ। वह राजा महेंद्रकी पुत्री ताके श्रवण ही कर कामवाणकर मेरी विकल दशा भई है जो ताके देखें विना मैं तीन दिन नियाहि समर्थ नहीं तार्तें कोई ऐ । यत्न कर जो मैं वाहि देखूं, ताहि देखे बिना मेरे स्थिरता न आवेअर मेरी स्थिरतास ताहि प्रसन्नता होय । प्राणियोको : सर्व कार्यसे जीतन्य वल्लभ है क्योंकि र्जतव्य के होते संत आत्म लाभ होय है । या भांति पवनंजयने कही तब प्रहस्त मित्र हंसे, मानों मित्रके मनका अभिप्राय पायकर कार्य सिद्धिका उपाय करते भए । हे मित्र ! बहुत कहनेकर कहा ? अपने मांहीं भेद नाहीं जो करना हो ताकरि ढील मत करो या भांति उन दोनोंके बचनालाप होय है एते ही सूर्य मानों इनके उपकार निमित्त श्रस्त मया तब सूर्यके वियोगसे दिशा काली पड़ गई अन्थकार फैल गया वृद्धमात्र में नीलवस्त्र पहिरे निशा
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