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पद्म-पुराण भस्यन्त फूल रहे हैं सो मानो वियोगिनी नायिकाके मनके दाह उपत्र वनेको अग्नि समान हैं दशों दिशा बिष फूलोंकी सुगन्य रज जिसको मकरन्द कहिए सो परागकर ऐसी फैल रही है मानो बसन्त जो है सो पटवास कहिए सुगन्ध चूर्ण अवीर ताकरि महोत्सव करे है । एक दिन भी स्त्री पुरुष परस्पर वियोगको नहीं सहार सके हैं। ता ऋतु न विदेश गमन कैसे रुचै ऐसी रागरूप वसन्त ऋतु प्रगट भई । ता समय फागुण सुदि अष्टमीमे लेकर पूर्णमासी तक अष्टानिहकाके दिन महामंगलरूप है, सो इन्द्रादिक देव शची आदि देवी पूजाके अर्थ नंदीश्वर द्वीप गए पर विद्याधर पूजाकी सामग्री लेकर कैलाश गए। श्रीऋषभदेव निर्वाण कल्याणक से वह पर्वत पूजनीक है सो समस्त परिवार सहित अंजनीके पिता राजा महेन्द्र भी गए । तहां भगवानकी पूजाकर स्तुतिकर पर भावसहित नमस्कार कर सुवर्णकी शिलापर सुखसे विराजे अर राजा प्रल्हाद परनंजा के पिता तेहू भरत चक्रवर्तीके कराए जे जिनमन्दिर तिनकी बन्दना अर्थ कैलास पर्वत पर गये सो बंदना कर पर्वत पर विहार करते राजामहेन्द्रकी दृष्टिविष आए। सो महेन्द्र को देखकर प्रीतिरूप है चित्त जिनका प्रफुल्लित भए हैं नेत्र जिनके ऐसे जे प्रल्हाद ते निकट पाए तब महेंद्र उठकर सम्मुख आयकर मिले एक मनोज्ञ शिलापर दोनों हितमे तिष्ठे, परस्पर शरी. रादि कुशल ते भए तब राजा महेंद्रन कही । हे मित्र ! मेरे कुशल काहेकी कन्या करयोग्य भई सो ताके परणानेका पिताकरि चित्त ब्याकुल है जैगी कन्या है तैसा बर चाहिए अ बड़ा घर चाहिये कौनको दें यह मन भ्रम है। रावणको परणाइए तो ताक स्त्री बहुत हैं अर आयु अधिक है अर जो उसके पुत्रांविषे दें तो तिनमें परस्पर विरोध होइ अर हेमपुरका राजा कनक यति ताका पुत्र सौदामिनीप्रभ कांहेये विद्युत्प्रभ मो थोड़े ही दिनविष मुक्तिको प्राप्त होयगा यह बार्ता सर्व पृथ्वीपर प्रसिद्ध है ज्ञानी मुनिने कहा है। हमने भी अपने मंत्रियों के मुखने सुना है। अब हमारे यह निश्चय भया है कि आपका पुत्र पवनंजय कन्याके परिवे योग्य है यही मनोरथ कर हम यहां आए हैं सो आपके दर्शनकर अतिप्रानन्द भया जाकरि कछु विकल्प मिटा । तब प्रल्हाद बोले-मेरे भी चिन्ता पुत्रके परणारने की है तात मैं भी आपका दर्शनकर अर वचन सुन वचनसे अगोचर सुखको प्राप्त भया जो आप आज्ञा करो सो ही प्रमाण । मेरे पुत्रका बड़ा भाग्य जो आपने कृपा करी। वर कन्याका विवाह मानससरोवरके वटपर ठहरा । दोनों सेनामें मानन्दके शब्द भए ज्योतिषियोंने तीन दिनका लग्न थापा ।
. अथानन्तर परनंजयकुमार अंजनीके रूपकी अद्भुतता सुनकर तत्काल देखने को उद्यमी भया, तीन दिन रह न सका, संगमकी अभिलाषा कर यह कुमार कामके वश हुआ वेगोंकर परित भया प्रथम विषयकी चिंताकरि व्याकुल भया अर दूजे वेग देखनेकी अभिलाषा उपजी, तीजे वेग दीर्घउच्छवास नाखने लगा चौथे वेग कामज्वर उपजा मानों चंदनके अग्नि लगी, पांचवें वेग अंग खेदरूप भया, सुगंध पुष्पादिसे अरुची उपजी, छठे वेग भोजन विष समान पुरा लगा, सातवें वेग उसकी कथाकी आशक्तताकर विलाप उपजा, आठवें बैग उन्मत्त हुआ विभ्रमरूप सर्प कर डसा गीत नृत्यादि अनेक चेष्टा करने लगा नवमें वेग महामृच्छा उपजी। दशय वेग दाख
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