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________________ पन्द्र प १६ भए क्षणमात्रमें और ही छाया हो गई से विरस गए लाल आंखें हो गई होंठ हमकर तलवार म्यानसे काढी र प्रहस्त मित्रसों कहते भए याहि हमारी निन्दा सुहावै हैं र यह दासी ऐसे निंद्य वचन कहै पर यह सुनै सो इन दोनों का सिर काट डारू' । विद्युत् के हृदयका प्यारा है सो कैसे सहाय करेगा यह वचन पवनंजय के सुन प्रहस्तमित्र रोपकर कहता भया - हे सखे हे मित्र ! ऐसे अयोग्य वचन कहनेकर क्या ? तुम्हारी तलवार बड़े सामंतोंके सीसपर पड़े स्त्रीला अवध्य है तापर कैसे पडे यह दुष्ट दासी इनके अभिप्राय बिना ऐसे कहे है तुम आज्ञा करो तो या दासीको एकदंडकी चोटसे मार डालू परन्तु स्त्रीहत्या बालहत्या पशुहत्या दुर्बल मनुष्य की हत्या इत्यादि शास्त्रमें बर्जनीय कहीं है ये वचन भित्रके सुनकर पवनंजय क्रोधको भूल गये अर मित्र को दासीपर क्रूर देखकर करते भये । हे मित्र ! तुम अनेक संग्रामके जीतनहारे यशके अधिकारी माते हाथियोंके कुंभस्थत विदारनेहारे तुमको दीन पर दया ही करनी योग्य है अर सामान्य पुरुष भी स्त्रीहत्या न करें तो तुम कैसे करो जे बड़े कुलमें उपजे पुरुष हैं अर गुणोंकरि प्रसिद्ध हैं शूरवीर हैं तिनका यश योग्य क्रियासे मलिन होय है तातें उठो जा मार्ग आए ताही मार्ग चलो जैसे छाने आए थे तैसे ही चले । पवनंजय के मनमें भ्रांति पड़ी कि या कन्याको विद्युत्प्रभ ही प्रिय है तातें बाकी प्रशंसा सुन है जो याहि न भावै तो दासी काहेकों कहै ? यह रोस घर अपने कहे स्थानक पहुंचे । पवनंजयकुमार अंजनी से प्रति फीके पड़ गए चित्तमें ऐसे वितवते भये कि दूजे पुरुषका है अनुराग जाको ऐसी जो अजना सो विकराल नदीकी न्याई दूरहीतें तजनीं । कैसी है वह अंजनारूप नदी ? संदेहरूप जे विपम भंवर तिनको थरै है अर खाटे भावरूप जे ग्राह तिनसे भरी है र वह नारी वनी समान है अज्ञानरूप अन्धकारसे भरी इन्द्रियरूप जे सर्प तिनको घर हैं। पंडितोंको कदाचित् न सेवना । खोटे राजाकी सेवा और शत्रुके आश्रय जाना और शिथिल मित्र और अनासक्त स्त्री इनसे सुख कहां ? देखो ! जे विवेकी हैं ते इष्टबन्धु तथा सुपुत्र र पतिब्रता नारी इनका भी त्यागकर महाव्रत धारे हैं और शूद्र पुरुष कुसंग भी नहीं तजै हैं मद्यपायी वैद्य और शिक्षारहित हाथी पर निःकारण वैरी क्रूरजन र हिंसारून धर्म श्रर मूर्खनित चर्चा श्रर मर्यादाका उलंघना, निर्दयी देश, बालक राजा, स्त्री परपुरुषअनुरागिनी इनको विवेकी तजें । या मांति चितवन करता पवनंजयकुमार ताके जैसे दुलहिनसे प्रीति गई तैसे रात्रि गई र पूर्व दिशा में सन्ध्या प्रकट भई मानों पवनंजयने अंजनीका राग छोड़ा सो भ्रमता फिर है । ( भावार्थ ) रागका स्वरूप लाल है श्रर इनतें जो राग मिटा सो ताने सन्ध्याके मिस पूर्व दिशामें प्रवेश किया है पर सूर्य ऐसा आरक्त उगा जैसा स्त्रीके कोपतें पवनंजयकुमार कोपा केसा है सूर्य ? तरुण बिम्बको धरै है बहुरि जगतकी चेष्टाका कारण है तत्र पवनंजयकुमार प्रहस्त मित्रको कहते भए अत्यन्त रुचिको थरें अंजनीसे विमुख है मन जाका । हे मित्र ! यहां अपने डेरे हैं सो यहां बाका स्थानक समीप है सो यहां सर्वथा न रहना ताको स्पर्शकर पवन आवै सो मोहि न सुहावै तातें उठो अपने नगर चलें, ढील करनी उचित नहीं। तब मित्र कुमार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org २१ Jain Education International
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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