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________________ rai पर्व पुत्री कल्याण माला परम सुंदरी र पृथ्वीपुर नगरके राजा पृथ्वीधरकी पुत्री बनमाला गुणरूपकर प्रसिद्ध अर खेमांजलके राजा जितशत्रुकी पुत्री जितपद्मा पर उज्जैन नगरीके राजा सिंहोदरकी पुत्री यह सब लक्ष्मणके समीप आई विराधित ले आया जन्मान्तरके पूर्ण पुण्य दया दान मन इंद्रियोंको वशकरना शील संयम गुरुभक्ति महा उत्तम तप इन शुभ कर्मनिकर लक्ष्मणसा पति पाईये इन पतिव्रतानिने पूर्वै महा तप किए हुते रात्रि भोजन तथा चतुर्विध संघ की सेवा करी तातें बासुदेव पति पाये उनको लक्ष्मण ही वर योग्य र लक्ष्मण के ऐसे ही स्त्री योग्य तिनकर लक्ष्मण को र लक्ष्मणकर तिनको अति सुख होता भया । परस्पर सुखी भए । गौतम स्वामी राजा श्रेणि कसे करूँ हैं— हे श्रेणिक ! जगत में ऐसी संपदा नाहीं ऐसी शोभा नाहीं ऐसी लीला नाहीं ऐसी कला नाहीं जो इनके न भई । राम लक्ष्मण अर इनकी राणी तिनकी कथा कहां लग कहें श्रर कहां कमल क चन्द्र इनके मुखकी उपमा पावै अर कहा लक्ष्मी अर कहाँ रति इनकी राणियोंकी उपमा पावें । राम लक्ष्मणकी ऐसी संपदा देख विद्याधरों के समूह को परम आश्चर्य होता भया । चंद्रवर्धनकी पुत्री श्रर और अनेक राजानिकी कन्या तिनसे श्रीराम लक्ष्मणको प्रति उत्सवसे विवाह होता गया । सव लोकको आनन्दके करण्हारे वे दोऊ भाई महा भोगनिके भोगता मनवांछित सुख भोगते भए । इन्द्र प्रतींद्र समान श्रानन्द कर पूर्ण लंका में रमते भए, सीता में है अत्यन्त राग जिनका ऐसे श्रीराम तिन्होंने छह लंका में व्यतीत किये सुखकें सागरमें मग्न सुन्दर चेष्टाके घरणहारे श्रीरामचन्द्र सकल दुःख भूल गए || : श्रथानन्तर इन्द्रजीत मुनि सर्व पापनिके हरनहारे अनेक ऋद्धि सहित विराजमान पृथिवीमे विहार करते भये, वैराग्यरूप पवनकर मेरी ध्यानरूप अग्नि र कर्मरूप वन भस्म किये । कैसी है ध्यानरूप अग्नि १ क्षायिक सम्यक्त्वरूप श्ररण्यकी लकडी ताकर करी है अर मेघवाहन मुनि भी विषयरूप ईंधनको अग्नि समान आत्नध्यानकर भम्म करते भए, केवल ज्ञानको प्राप्त भए । केवलज्ञान जीवका निजस्वभाव है और कुम्भकर्ण मुनि सम्यक् दर्शन ज्ञानचारित्रके धारक शुक्ल लेश्या कर निर्मल जो शुक्लध्यान ताके प्रभावकर केवलज्ञानको प्राप्त भए । लोक अर लोक इनको अवलोकन करते मोहरज रहित इन्द्रजीत कुम्भ र्ण केवली आयु पूर्णकर अनेक सुनिन सहित नर्मदा तीर सिद्धपदको प्राप्त भए, सुरअसुर मनुष्यनिके अधिपति निकर गाइये है. उत्तम कीर्ति जिनकी, शुद्ध शीलके धरणहारे महादेदीप्यमान जगत बन्धु समस्त ज्ञ ेयके ज्ञाता जिनके ज्ञान समुद्रमें लोकालोक गायके खुर समान भास, संसारका क्लेश महाविपता के जाल से निकसे, जा स्थानक गए बहुरि यत्न नाहीं तहां प्राप्त भये उपमारहित निर्विघ्न अखण्ड सुख को प्राप्त भए । जे कुंभकर्णादिक अनेक सिद्ध भए से जिनशासन के श्रोताओं को आरोग्य पद देवें, नाश किये हैं कर्म शत्रु जिन्होंने । ते जिन स्थानकोंसे सिद्ध भए हैं वे स्थानक अद्यापि देखिये है । वे तीर्थ भव्यनिकर बंदवे योग्य हैं। विध्याचल की वनी में इन्द्रजीत मेवनाद तिष्ठे सो तीर्थ मेघरव कहावे है अर जम्बूवाली महा बलवान तूणीमंत नामापर्ववतें अहमिंट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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