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पभ-पुराण
जगतका धंधा करे हैं वे दीर्घ संसारी हैं जे साधु होय तेलादिकका मर्दन करे हैं शरीरका संस्कार करे हैं पुष्पादिकको मूघे हैं सुगंध लगाये हैं दीपका उद्योत करे हैं धूप खेत्रे है सो साधु नहीं, मोक्षमार्गसे पराङ मुख हैं अपनी बुद्धिकर जे कहे हैं हिंसामें दोष नाहीं वे मूर्ख हैं तिनको शास्त्र का ज्ञान नाहीं चारित्र नहीं।
जे मिथ्या दृष्टि तप करे हैं ग्राममें एक रात्रि बसे हैं नगरमें पांच रात्रि पर सदा ऊध्र्व - वाहु राखे हैं मास मासोपवास करे हैं अर वनमें विचरे हैं मौनी हैं निरपरिग्रही हैं तथापि दयावान् नहीं, दुष्ट है हृदय जिनका, सम्यक्त्व वीज विना धर्मरूप वृक्षको न उगाय सकें अनेक कष्ट करें तो भी शिवालय कहिए मुक्ति उसे न लहें, जे धर्मकी बुद्धिक र पर्वतसे पडें अग्निमें जरें जल में डूब धरतीमें गडें वे कुमरण कर कुगतिको जावै हैं जे पाप कर्मी कामनापरायण आर्त रौद्र ध्यानी विप. रीत उपाय करें वे नरक निगोद लहैं । मिथ्याष्टि जो कदाचित दान दे तप करें सो पुण्यके उदय कर मनुष्य अर देव गतिके सुख भोगे हैं परन्तु श्रेष्ठ मनुष्य न होंय सम्यग्दृष्टियोंक फल के असंख्यातवे भाग भी फल नाहीं । सम्यग्दृष्टि चौथे गुणठाणे अव्रती हैं तो हू नियममें है प्रेम जिनका सो सम्यकदर्शनके प्रसादसे देवलोकमें उत्तम देव होवें अर मिथ्यादृष्टि कुलिंगी महातप भी करें तो देवनिके किंकर हीनदेव होंय बहुरि संसार भ्रमण करें और सम्यक दृष्टि भव धरे तो उत्तम मनुष्य होय तिनमें देव निके भव सात मनुष्यनिक भव पाठ या भांति पन्द्रह भवमें पंचमगति पावें वीतराग सर्वज्ञ देवने मीक्षका मार्ग प्रगट दिखाया है परन्तु यह विषयी जीव अंगीकार न करें हैं आशारूपी फांसीसे बंधे मोह के वश पडे तृष्णाक भर पाप रूप जंजीरसे जकडे कुगति रूप बन्दीगृहमें पडे हैं स्पर्श अर रसना आदि इन्द्रिशेंके लोलुपी दुःख ही को सुख माने है यह जगतके जीव एक जिनधर्मके शरण विना क्लेश भोगे हैं इन्द्रियोंके सुख चाहें हैं सो मिले नाही अर मृत्युसे डरें सो मृत्यु छोडे नाहीं विफल कामना अर विफल भयके वश भये जीव केल ताप ही को प्राप्त होय हैं तापके हरिवेका उपाय और नाहीं आशा र शंका तजना यही सुखका उपाय है यह जीव आशाकर भरा भोगोंका भोग किया चाहे है धर्ममें धीर्य नाहीं धरे है क्लेशरूप अग्नि कर उष्ण महा प्रारम्भमें उद्यमी कछु भी अर्थ नाही पावै है उल्टा गांठका खोवे है यह प्राणी पापके उदयसे मनवांछित अर्थको नाहीं पावे है उलटा अनर्थ होय है सो अनर्थ अतिदुर्जेय है यह मैं किया यह मैं करू हूं यह मैं करूंगा ऐसा विचार करते ही मर कर कुगति जाय है ये चारो ही गति कुगति हैं एक पंचम गति निर्वाण सोई सुगति है जहांसे बहुरि आवना नहीं अर जगतमें मृ यु ऐसा नहीं देखे है जो याने यह किया यह न किया बाल अवस्था आदिसे सर्व अवस्थामें आय दावे है जैसे सिंह मृगको सब अवस्थामें प्राय दाब अहो यह अज्ञानी जीव अहितमें हितकीवांछा धरे है पर दुख में सुखकी आशा करे है अनित्यको नित्य जाने है भयमें शरण माने है इनके विपरीत बुद्धि है यह सब मिथ्यात्वका दोष है यह मनुष्यरूप माता हाथी मायारूप गर्त में पडा अनेक दुःखरूप बन्धन कर बंधे है विषय रूप मांसका लोभी मत्स्यकी नाई विकल्प रूपी जाल में पडे है यह प्राणी दुबेल बलदको न्याई कुतुम्बरूप कीचमें फसा खेदखिन्न होय है जैसे वैरियोंसे बन्धा पर अंध
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