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________________ सत्रहवां पर्व अथानन्तर कैयक दिनोविणे महेंद्रकी पुत्री अजनाके गर्भके चिन्ह प्रगट भए कछु इक मुख पाडवर्ण हो गया मानों हनुमान गर्भ में पाए सो उनका यश ही प्रगट भया है मंद चाल चलने लगी जैसा मदोन्मत्त दिग्गज विचरै , स्तन युगल अति उन्नतिको प्राप्त भए. श्यामलीभूत है अग्र भाग जिनके, पालमसे वचन मंद २ निसरै भौहोंका कंप होता इन लक्षणोंकर उसे सास गर्भिणी जानकर पूछती भई । तैंने यह कर्म किससे किया तब यह हाथ जोड प्रणामकर पतिके आवनेका समस्त बृत्तान्त कहती भई तब केतुमती सासू क्रोधायमान भई । महा निठुर बाणीरूप पापाणकर पीडती भई-हे पापिनी ! मेरा पुत्र तेरेसे अति विरक्त तेरा आकार भी न देखा चाहै तेरे शब्दको श्रवणविणे थार नहीं माता पितासे विदा होयकर रण संग्रामको बाहिर निकसा, वह धीर कैसे तेरे मंदिरमें श्रावै, हे निर्लज्जे ! धिक्कार है तुझ पापिनीको। चंद्रमा की किरण समान उज्ज्वल. वंशको क्षण लगायनहारी यह दोनो लोकमें निंद्य अशुभ क्रिया तेने आचरी अर तेरी यह सखी बसन्तमाला याने तुझे असी बुद्धि दीनी, कुलटाके पास वैश्या रहै तब काहेकी कुशल । मुद्रिका अर कडे दिखाए तो भी ताने न मानी प्रत्यन्त कोप किया एक क्रूर नामा किंकर बुलाया वह नमस्कारकर ठाढा, तब क्रोधकर केतुमतीने लाल नेत्रकर कहा हे क्रूर ! सखीसहित याहि गाडीमें यठाय महेंद्रके नगरके निकट छोड था। तब वह क्रूर केतु. मतीकी आज्ञातें सखीसहित अंजनीको गाडीमें बैठायकर महेंद्रके नगरकी ओर ले चला । कैसी है अंजनी सुन्दरी ? अति कापै है शरीर जाका महा पवनकर उपडी जो बेल ता समान निराश्रय अति श्राकुल कांतिरहित दुःखरूर अग्निकर जल गया है हृदय जाना, भयकर सासूको कछु उत्तर न दिया । सखीकी ओर धरे हैं नेत्र जिसने, मनकर अपने अशुभ कर्मको बारंबार निंदती अश्रुधारा नाखती निश्चल नहीं है चित्त जिमका । कर इनको ले चला वह क्रूर कर्मविणे अति प्रवीण है दिवसके अंत में महेंद्र नगरके समीप पहुँचायकर नमस्कारकर मधुर वचन कहता भया । हे देवी ! मैं अपनी स्वामिनीकी आज्ञातें तुमको दुखका कारण कार्य किया सो क्षमा करो ऐसा कहकर सहीसहित सुन्दरी गाडीत उतार विदा होय गाडी लेय स्वामिनीपै गया । जाय विनती करी-अापकी आज्ञा प्रमाण तिनक वहां पहचाय आया हूं। अथानन्तर महा उत्तम महापतिव्रता जो अंजना सुन्दरी ताहि दुखके भारत पीडित देख सूर्य भी मानो चिंताकर मंद हो गई है प्रभा जाकी, अस्त हो गया 'अर रुदनकर अत्यन्त लाल हो गए हैं नेत्र जाके ऐसी अंजनी सो मानो याके नेत्रकी अरुणताकर पश्चिम दिशा रक्त हो गई, अंधकार फैल गया रात्रि भई, अंजनीके दुःखत निकमैं जो आंच ते भए मेव तिनकर मानों दशो दिशा श्याम होय गई अर पंछी कोलाहल शब्द करते भए मानों अंजनी के दुःखसे दुखी भए पुकारै हैं वह अंजनी अपवादरूप महा दुःखका जो सागर तामें डूबी क्षधादिक दुख भूल गई, अत्यन्त भयभीत अश्रुपात नाखै रुदन करै, सो वसन्तमाला सखी धीर बंधा रात्रीको पल्लवका साथरा बिछाया सो याको निद्रा रंच भी न आई निरतर उष्ण अश्रपात पडै मानो दाहके भय निद्रा भाग गई, वसन्तमाला पोव दाब, खेद दूर किया दिलासा करी, दुःखके योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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