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________________ पा-पुराण पवनंजय प्रबोध को प्राप्त भए, शिथिल है शरीर जिनका, जंभाई लेते, निद्राके आवेश कर लाल हैं नेत्र जिनके, कानोंको बांए हाथकी तर्जनी अंगुलीसे खुजावते, खुले हैं नेत्र जिनके दाहिनी भुजा संकोचकर अरिहंतका नाम लेकर सेजसे उठे, प्राणप्यारी आपके जगनेसे पहिले ही सेजसे उठ उतर कर भूमिावर्षे विराजती थी लज्जाकर नम्रीभृत हैं नेत्र जाके, उठते ही पीतमकी दृष्टि प्रिया पर पड़ी बहुरि प्रहस्तको देख कर, आवो मित्र ऐसा शब्द कहकर सेजसे उठे, प्रहरतने मित्रसे रात्रिकी कुशल पूछी निकट बैठे, मित्र नीतिशास्त्रके वैसा कुमारसे कहते भए-हे मित्र ! अब उठो प्रियाजीका सन्मान बहुरि आयकर करियो। कोई न जाने या भांति कटकमें जाय पहुंचें अन्यथा लज्जा है। रथनू पुरका धनी किन्नरगीतनगरका धनी रावण के निवट गया चाहे है सो तुम्हारी ओर देखे है जो वे आगे आयें तो हम मिलकर चलें अर रावण निरन्तर मंत्रियों से पूछ है जो पवनंजयकुमारके डेरे कहां हैं अर कब आवेंगे तातें अब आप शीघ्र ही रावणके निकट पधारो प्रियाजीसे विदा मांगो, तुमको पिताकी अर रावणकी आज्ञा अवश्य करनी है, कुशल क्षेमसे कार्य कर शिताव ही आवेंगे तब प्राणप्रियासे अधिक प्रीति करियो तब पवनंजयने कही हे मित्र ! ऐसे ही करना । ऐसा कहकर मित्रको तो बाहिर पठाया अर आप प्राणवल्लभास अतिस्नेहकरा उरसों लगाय कहते भए हे प्रिये ; अब हम जाय हैं तुम उद्वेग मत करियो थोड़े ही दिनोंमें स्वामीका कामकर हम आवेंगे तुम आनन्दसे रहियो । तव अंजना सुन्दरी हाथ जोड कर कहती भई हे महाराजकुमार ! मेरा ऋतुसमय है सो गर्म मोहि अवश्य रहेगा अर अब तक आपकी कृपा नहीं हुती यह सर्व जाने हैं सो माता पितासों मेरे कल्याणके निमित्त गमका वृता त कहजावो। तुम दीर्घदर्शी सब प्राणियोंमें प्रसिद्ध हो ऐसे जब प्रियाने कहा तब प्राणवल्लभाको कहते भए – हे प्यारी! मैं माता पितासे विदा होय निकसा सो अब उनके निकट जाना बने नाहीं लज्जा उपजै है लोक मेरी चेष्टा जान हंसेंगे तातें जब तक तम्हारा गर्भ प्रकाश न पाये ताके पहिलेही मैं आबू हूं तुम चित्त प्रसन्न राखो अर कोई कहे तो ये मेरे नामकी मुद्रिका राखो, हाथोंके कडे राखो तुमको सब शांति होयगी ऐसा कहकर मुद्रिका दई अर बसंतमालाको प्राज्ञा दई इनकी सेवा बहुत नीके करियो । आप सेजसे उठे प्रियावि लगरहा है प्रेम जिनवा । कैसी है सेज संयोगके योगसे बिखर रहे हैं हारके मुक्ताफल जहां पर पुष्पोंकी सुगंध मकरं इसे भ्रमें हैं भ्रमर जहां, क्षीरसागरकी तरंग समान अति उज्ज्वल बिछे हैं पट जहां, आप उठ करत्रिके सहित विमानपर बैठ आकाशके मार्गसे चले । अंजनासुन्दरीने अमंगलके कारण प्रांरा न काढे । हे श्रेणिक ! कदाचित् या लोकविष उत्तम वस्तुके संयोगते किंचित् सुख होय है सो क्षणभंगुर है अर देहधारियोंके पापके उदयतें दुख होय है, सुख दुख दोनों विनश्वर हैं ताते ह प विषाद न करना । हो प्राणी हो, जीवों को निरन्तर सुखका देनेहारा दुःखरूप अन्धकारका दूर करणहारा जिनवर भाषित धर्म सोई भया सूर्य ताके प्रतापकर मोहतिमिर हरो। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै . पअनंजय अन्जनाका संयोग वर्णन करनेबाला सोलहबां पर्व पर्ण भया ।। १६!! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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