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________________ JAPUR 11 . .. सालहवा पर्व करें। म अभागिनी दुःख अवस्थाकी प्राप्ति भई. नामकारकर विनती करी- कन्याण रावणी हपतित शाहमा अपरोक्षमा करो अवसब अशुभ कर्म गए तुम्हारा मरूप मुगको प्रतिभाग प्राणनाथाया, सुममधति नभन भया तिनको प्रमन्नताकर क्यों क्या ग्रान हैं न हाया जा चंद्रमोकामगरका माज्ञता होय । त अंजनी संदरीक्षण करनी की हो रही और वसन्तमाल हा हे भद्र ! मेघ वरमैं जब भला तति प्राणनाथ इन महसे पर सारी ईमका वडा भोग्यारं हमारा पुण्यरूप वृक्ष फैला यह, बात हो रही थी, आनन्दक अश्रयाती कर बात हो गए है, नत्र जिनके नो कुमार पधारे ही मानों करुणारूप सखी ही पीतमको प्रिया हिंग ले आई, तयं भुगभीत हिरणीके नेत्र समान महर हैं नेत्र कि अपी प्रिया पनिको देख म्मुख जोय होय जोड सोस निवीय पायन पडी, प्रविन ने अपने करसे मी उठी हा पर्स, सममि वार्चन कहें कि हे देवी ! क्लेशका सर्कल खेद निवृत्त होवै, संदी हाथ जोड़ पतिकनिकट खडी थी । पतिने अपने करसे कर' एकडकर सेजपर बैठाई. तब नमस्कार कर प्रहस्त सौ वाहिर गए और वसन्तमाला भी अपने स्थानक जाये बैंठी । परनंजयकुमारने अपने अज्ञान में लज्जावान हो मेरी से बारम्बार कुशल पूछी अर कही हे प्रिये ! मैंने अशुभ कर्म के उदयत जी तुम्हारी वृथा निरा. दर किया सो क्षमा करो तव संदरी नीचा मुख कर मन्द मन्दं वचन कहती मईनाथापन पराभव कछु न किया कर्मका ऐसा ही उदय हता अब आपने 'कृपा करी अति स्नेह जताया सो मेरे सर्व मनोरथं सिद्ध किए आपके ध्यान कर संयुक्त हृदय मेरा सौ श्राप सदा ही याविषै विराजते आपका अनादर भी आदर समान भासा । . या मांति अंजना सुन्दरीने कहा तब पवनंजयकुमार हाथ जोड़ कहते भए कि हे प्राणप्रिये ! मैं वृथा अपराध किया, पराए दोषसे तुमको दोप दिया सो तुम सबै अपराधहमारा विस्मरण करो, मैं अपना अपराध क्षमावने निमित्त तुम्हार पायने पर तुम हमपर अति प्रसन्न होवों ऐसा कहकर परनंजयकुमारने अधिक स्नेह जनाया त अंजना सुन्दरी महासती पतिका ऐता स्नेह देखकर बहुत प्रसन्न भई और पतिको प्रियवचन कहती भई-ह नाथ मिश्रति जैसेन्न भई हम तुम्हारे चरणारपिंदकी रज हैं हमास इतना विनथ लुमको उचित नहीं ऐसा कहकर सुख से सेजपर विराजमान किये, प्राणनाथकी कृपासे प्रियाका मन अति प्रसन्न मया र शरीर अतिकांतिको धरता भया, दोनों परस्पर अतिस्नेह के भरे एकचित्त भया सुखरूप जीत रहे, निद्रा न लींनी पिछले पहिर अल्पमिद्री श्राई प्रभातको समय हो गया है। यह पतिता सेमेसें उतर पतिके पाय पलोटने लगी, शत्रि व्यतीत भई सो सुख में जानी माही. प्रातः समय चन्द्रमाकी किरण फीकी पड गई कुमार आनन्दके भारमें भर गये श्रर स्वामीकी श्राशी' ल गए, तब मित्र प्रहस्तने कुमारके हितविष है चिंत्त जाका ऊचा शकर वसन्तमालाको जगाकर भीतर पठाई अर मन्द मन्द आप सुगन्ध महलमें मित्र के समीप गएं और कहते भय-हे सुन्दर ! उठो कहा सोवो हो ? अब चन्द्रमा भी तुम्हारे मुखसे कांतिरहित होगया है यह वचन सुनकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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