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________________ पी-पगण प्राणवल्लभाको वियोग दिया अब क्या करू पितासे विदा होकर घरसे निकसा हूं कैस पीछे जाऊपड़ा संकट पड़ा जो मैं वासे मिले विना संग्राम मैं जाऊं तो वह जीवे नहीं अर वाके श्रभाव भए मेरा भी अभाव होगा जगतविगै जीतव्य समान कोई पदार्थ नहीं तात सर्व संदेह का निवारणहारा मेरा परम मित्र प्रहस्त विद्यमान है वाहि सवै भेद पूछ वह सर्व प्रीतिकी रीतिमें प्रवीण है जे विचारकर कार्य कर हैं ते प्राणी सुख पावै हैं ऐसा पवनकुमारको विचार उपजा सो प्रहस्त मित्र ताके सुखविणे सुखी दुःखविणे दुःखी याको चिंतावान देख पूछता भया कि हे मित्र; तुम रावणकी मदद करनेको वरुण सारिखे योधासे लड़नेको जावो हो सो अति प्रसन्नता चाहिए तव कार्यकी सिद्धि होय आज तुम्हारा वदनरूप कमल क्यों मुरझाया दीखे है, लज्जाको तजकर मुझे कहो, तुमको चिन्तावान देखकर मेरा व्याकुल भाव भया है तब पवनंजय ने कहीहे मित्र ; यह वार्ता काहूसों कहनी नहीं परन्तु तू मेरे सर्व रहस्यका भाजन है तो अन्तर नाही, यह वात कहते परम ला उपजै है । तब प्रहस्त कहते भए जो तिहारे चित्तविष हो सो कहो, जो तुम आज्ञा करोगे सो बात और कोई न जानेगा,जैसे ताते लोहे पर पड़ी जलकी बूंद चिलाय जाय प्रगट न दीखे तैसे मोहि कही बात प्रगट न होय । तब पवनकुमार बोले हे मित्र ! सुनो-मैं कदापि अजनी सुन्दरीसे प्रीति न करी सो अब मेरा मन अति व्याकुल है, मेरी करता देखो एते वर्ष परणे भए सो अब तक वियोग रहा, निःकारण अप्रीति भई सदा वह शोककी भरी रही अश्रुपात झरते रहे पर चलते समय द्वारे खडी विरहरूप दाह से मुरझा गया है मुखरूप कमल जाका सर्व लावण्य संपदारहित मैंने देखी अब ताके दीर्घ नेत्र नीलकमल समान मेरे हृदयको बाणवत् भेदै हैं तात ऐसा उपाय कर जाकरि मेरा वासों मिलाप होय । हे सज्जन ; जो मिलाप न होयगा तो हम दोनों हीका मरण होगा । तब प्रहस्त क्षण एक विचारकर बोले-तुम माता पितासे आज्ञा मांग शत्रुके जीतको निकसे हो ताते पीछे चलना उचित नाहीं, अर अबतक कदापि अंजनी सुन्दरी याद करी नाहीं अर यहां बुलावे तो लज्जा उपजै है तातें गोप्य चलना अर गोप्य ही आवना वहां रहना नहीं उनका अवलोकनकर सुख सम्भाषमाकर आनन्दरूप शीघ्र ही आवना । तब आपका चित्त निश्चल होगा, परम उत्साहरूप चलना शत्रुके जीतनेका निश्चय यही उपाय है तब मुद्गर नामा सेनापतिको कटक रक्षा सौंपकर मेरुती बन्दनाका मिसकर प्रहस्त मित्रसहित गुप्त ही सुगंवादि सामग्री लेकर आकाशके मार्गसे चले । सूर्य भी अस्त हो गया अर सांझका प्रकाश भी हो गया, निशा प्रकट भई अंजनी सुन्दरीके महलपर जाय पहुंचे । पवनकुमार तो वाहिर खड़े रहे; प्रहस्त खबर देनेको भीतर गये, दीपका मन्द प्रकाश था अंजनी कहती भई-कौन है ? पसंनमाला निकट ही सोती हुती सो जगाई, वह सब वातोंविगै निपुण उठकर अंजनीका भय निवारण करतो भई, प्रहस्तने नमस्कारकर जा पवनंजयके आगमनका वृत्तान्त कहा, तर सुन्दरीने प्राणनाथका समागम स्वप्न समान जाना, प्रहस्तको गद्गद वाणीकर कहती मई-हे प्रहस्त ; मैं पुण्यहीन पतिकी कृपाकर वर्जिन मेरे ऐसा ही पाप फर्म का उदय आया तू हमसे क्या हंस है, पतिसे जिसका निरादर होय वाकी कौन अवज्ञा न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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