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________________ पद्म-पुसण "करें एक शत्रवर्णपुर जाती, "प्रभातमें साथर को तेजकर शंका कर यति, विहतु पिताके घर की और चली। सखी छाया समन सँग चली । पिता के मन्दिरकै द्वार जाय पहुंची। भीतर पूर्व "करती द्वारपालन रोकी। 'दुःखक योगा और ही रूप होगया सो जानी न पड़ी तब सखीने सर्व "वृत्तीत फहा सो जानकर शिलाकबाट नामा हाईपालने एक और मनुष्यको द्वारे मेल, अपने राज, के निपट जाये, नमस्कार करि विनंती करीं । पुत्रीके आगमन का अतिकृया । तब राजा के निकट 1 प्रसन्नकीर्त्ति नामा" पुत्र बैठा था सो राजाने पुत्रको आज्ञा करो = तुम सन्मुख, जाब उसका शीघ्र ही प्रवेश करावा नगरकी शोभा करावा तुम तो पहिले जावो पर हमारी सवारी तयार कराव हम भी पीछेसे अवि हैं । तब द्वारपालन हाथ जोड़ नमस्कार कर यथार्थ बिनती करी । तब राजा मुहेंद्र लज्जाका कारण सुनकर महा कोपबान एअर पुत्रको आज्ञा करो कि पापिनींकू नगरमेत कार्ड दे॒वों जाकी व्राती उनकर मेरे कान मौनो बज्रयान इत गये हैं । तब एक महोत्साह नामा 'बड़ा सामन्त राजीका अति, वल्लभ, सो कहता भया हे नाथ ! ऐसी श्राज्ञा करनी उचित नहीं, बसन्तमालासे सब ठीक पाडलेवो, सोसू केतुमती अतिक है पर जिनधर्मसे पराङमुख है, लौकिक सूत्र जो नास्तिक मत तदिष शर्वण है, तारों बिना विचारें झूठा दोष लगाया यह धर्मात्मा श्रावक के जतकी धारणहारी, कल्प कल्याणचारवििष तत्पर पापिनो सासूने निकासी है अर तुम भी निकासी सो कौन के शरणे जाय, जैसे व्याघ्रकी दृष्टि से मृगी त्रासको प्राप्त भई सन्ती महागहन उनका शरण ए लय, ते तैसे यह भोखी निश्कपट सामू शंकित भई, तुम्हारे शरण आई है मानो जेठके सूर्यकी (करणके संतापतै दुखित गई महावृचरूप जी तुम सो तिहारे आश्रय आई हूँ यह गरीबनी विह्वल आत्मा अपवादरूप, थाताप्रसे पीड़ित तिहारे 'आश्रय' भी साता न पावै तो कहां पार्श्वे मानो स्वर्मर्ते लक्ष्मी हो आई है । द्वारपालने रोकी सो अत्यन्त लज्जाकी प्राप्त भई बिलखि डाक द्वारे खड़ी है आपके स्नेहकर सदा लाडली है माथा सो तुम दया कर' यहु' निर्दोष है मन्दिरमांहि प्रवेश करावी अर केतुमतीको तु स्वा पृथिवीविष प्रसिद्ध हैं, ऐसे रसे न्यायरूप वचन महोला सामान वह सो राजाने कान व घर जैसे कमल के पत्र - निविषै जलकी बूंद न ठहरे तैसे राजाक वित्तमें यह बात न ठरौ । राजा सामन्तसे कहते कला यह सखी बसंतमाला सदा याके 'भए - पा रहे अर ग्राही के स्नेहकें योग कदाचित मृत्यू न 'तो हमको निश्चय कैसे थावे यात यावे शीलविषै संदेह है सो ग्राको नगरते निकाल देह जब यह बात प्रसिद्ध होयगी तो हमारे निर्मल कुलविणे कलक आवेगा जे बड़े कुलका बालिका "निर्मल है और महा विनयवन्ती उत्तम चेष्टाकी धारणहारी हैं ते पोहर सासरे सर्वत्र स्तुति करने योग्य हैं जे पुण्याधिकारी बड़े पुरुष जन्महीत निर्मल शौल पल हैं ब्रह्मचर्यको धारण ६.रै है अर दोषको मूल. जो स्त्री तिनको अगीकार नहीं कर हैं वे धन्य हैं। ब्रह्मचर्य समान पर कोई व्रत नहीं और स्त्री गोकार यह फल होय है जो कुपून बेटा बेटी होने यर उनके गुण पृथिवीविषे प्रसिद्ध होय तो पिता कर धरतीमें गड़ जाना होय है सब ही कुलको लज्जा उपज है "मेरा मन आज अतिदुखित दीय गया है मैं यह बात पूर्व अनेकवार सुनी हुती जो वह भरतार 5 T 6. 1. PI क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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