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________________ १७३ के अपि गरे र वह याहि अंगने नाहीं देखे है मो ताकर गर्भी उत्पत्ति कैसे भई तात यह निश्चयोती सदोष है तो कोई याहि मेरे राज्य में रहेगा को मेरा शत्रु है। ऐगे वचन कहाराजाने कोपकर जैसे कोई जाने नहीं या भांति याको द्वारये निकाल दीनी । मरखो सहित दुखकी भरी अंजना राजाके निजपर्ग के जहां जहां आपके अथ गई मो आने न दीनी, कपाट दिए, जहां पाप ही क्रोधायमान होय निराकरण करे तहां कुटुम्बास की प्राशा, वे तो सब राजाके आधीन हैं ऐसा निचरकर सको उदार होय सखीसे कहती गई आंसूबोंके समूह कर भीज गया है ग याका, हे प्रिये यहां सर्व पापाणचिन हैं यहां कैसा वास ? नाते वन में चले, अपमानमे तो मरना भला । ऐसा कहकर सखीसहित वनको चाली मानों मृगरज से भयभीत मृगी ही है, शीत उष्ण अर वातके खेद से महा दुखकर पीडित वनमें बैठी महा रुदन करती भई । हाय हाय ! मैं मन्द मागिनी दुखदाई जो पूर्वोप र्जित कर्म तारि मदा कष्ट को प्राप्त भई कौनके शरणे जाऊ? कौन मेरी रक्षा कर, मैं दुर्भाग्यसागरके मध्य को कर्मस पर्श । नाथ मेरा अशुभ कर्मका प्रेरा कहांसे पाया काहे को गर्भ रहा, मेरा दोनों ही ठोर निरादर भया । माताने भी मेरी रक्षा न करी सो वह क्या कर छपने धनीकी आज्ञाकारिणी पवित्रताओंका यही धर्म है अर नाथ मेरा यह वचन कह गया था कि तेरे गर्भ की वृद्धि से पहिले में पाऊंगा मो हाय नाथ दयावान होय वह वचन को भूले और सासून विना परख मेरा त्याग क्यों किया ? जिनके शीलमें संदेह होय तिनके पर खनके अनक उपाय हैं अर पिताको मैं बालवस्था में अति लाडली हुती निरंतर गीदमें खिलावते हुते सो विना परखे निरादर किया उनकी ऐसी बुद्धि उपजी पर माताने मुझे गर्भ धारी, प्रतिपालन किया एक बात भी मुखले न निकाली कि इसके दोपका निश्चय कर लेबे अर भाई जो एक माता उदरसे उत्पन्न भया हु, माहू मो दुखिनीको न राख सका, सपही कठोरचित्त हो गये, जहां माता पिता भ्राताहीकी यह दशा, तहां काका बाबाके दूर भाई तथा प्रधान सामंत कहां करें अथवा उन सबका कहा दोष ? मेरा जो कर्मरूप वृक्ष फला सो अवश्य भोगना। या भांति अंजनी विलाप कर सो सखी भी याके लार विलाप करें । मनमे धीर्य जाता रहा अत्यन्त दीन मन होय यह ऊचेवर रुदन कर सो मृगी भी याकी दशा देख आंसू डालने लगी बहुत देर तक रोनेसे ला न होय गये हैं नत्र जाके ! तब सखी बसंतमाला महाधिवन याहि छ नीलगाय कहती भई-हे मामिनी ! बहुत रोने से क्या ? जो कर्म न उर्जाको अवय भोगना है, सब ही जीवन के कर्म आगे पीछे लग रहे हैं सो कर्मके उदयविणे अशोक कहा ? हे देवी! जे स्वर्गलोरके देव से डों पारावोंके नेत्रनिकर निरंतर अवो है तेह मुकत के अंत होने परमख पात्र है मन चिंतिये कछू और होय जाय कछु और । जगतके लोक उद्यममें प्रकरते है दिनको पूर्वोपार्जित कर्मका उदय ही कारण है जो हितकारी वस्तुअर प्रोप्त भई सो शुभकर्मके, उदयसे विघट जाय अर नो वस्तु मनमें अगोवा है सो वार कि कमीशी गीि विचित्र ई त गई ! तू मी खेः करि पीडित है पृथा क्लेश मत पर तूपना मन दह कर ! जो सन पूर्व जन्म में कम उपारजे हैं तिनके फल टारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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